________________ 272 अभिज्ञानशाकुन्तलम् - [चतुर्थोकण्वः-वत्से ! नेदं विस्मरिष्यामि / शकुन्तला-(गतिभेदं रूपयित्वा-) अम्मो ! को णु क्स्दु एसो पदक्वन्तो विअ में पुणो पुणो वसणन्ते सजदि 1 / (-इति परावृत्त्याऽवलोकयति ) / - [( गतिमेदं रूपयित्वा- ) अम्मो ! को नु खल्वेष पदक्रान्त इव मे पुनः पुनर्वसनान्ते सज्जते ? ( इति परावृत्यावलोकयति )] / कण्वः-वत्से! यस्य त्वया व्रणविरोपणमिमुदीनां तैलं न्यषिच्यत मुखे कुशसूचिविखे / . श्यामाकमुष्टिपरिवर्द्धितको जहाति सोऽयं न पुत्रकृतकः पदवीं मृगस्ते // 16 // प्रेषयिष्यसि / एतेन स्वप्रसवादनन्तरं, निवेदकेन = दुष्यन्तेन सह सङ्गमः सूच्यते / गतिमङ्ग = गमनरोधं / पादाक्रान्तः = पादलम इव / वसनान्ते = पटाञ्चले / एतेन भाव्यमङ्गलं सूच्यते। ___ यस्येति / यस्य-कुशसूच्या = कुशकण्टकैः, विद्ध = क्षते / मुखे / व्रणस्य = क्षतस्य / विरोपणं = विरोहणम् / इङ्गुदीनां = वृक्षविशेषाणां / तैलं = स्नेहः / त्वया न्यषिच्यत = निक्षिप्तं / श्यामाकानां = मुन्यन्नविशेषाणां, मुष्टिभिः परिवर्द्धितकः = कण्व-नहीं, नहीं, इसे मैं नहीं भूलूंगा। जब इसके बच्चा होगा तो इस शुभ समाचार को पहुंचाने के लिए तेरे पास जरूर किसी दूत को भेज दूंगा। शकुन्तला-( अपनी गति के अवरोध का अभिनय करती हुई-) अरी मैया री ! यह मेरे पैरों में बार-बार आता हुआ कौन मेरे कपड़ों में लिपट रहा है ! / (घूमकर देखतो है)। कण्व-हे पुत्रि ! जिसके मुख के कुशा की सूची ( तीक्ष्ण अग्रभाग ) से विद्ध (विक्षत) हो जाने पर तैने घाव को भरने वाला इङ्गुदी का तैल सींचकर लगा कर जिसका व्रण ठोक किया था, और श्यामाक (सामख, कूटू) की मुट्टियाँ दे देकर