________________ 288 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [चतुर्थोकण्वः-वत्से ! किं मोमेवं जडीकरोषि ! / ( निःश्वस्य-) अपयास्यति मे शोका, कथं नु वत्से ! त्वया रचितपूर्वम् / उटजद्वारविरूढं नीवारबलिं विलोकयतः // 23 // -गच्छ / शिवास्ते सन्तु पन्थानः / (-इति निष्क्रान्ताः शकुन्तलया सह गौतमी-शार्ङ्गरव-शारद्वतमिश्राः ) / न भवतो मयीत्युपालम्भोऽयम् / एवम् = इत्थमुपालम्भदानेन / किं जडीकरोषि = किं मां दुःखा करोषि / किं मां व्याकुलयसि ? / ___ अपयास्यतीति / वत्से ! त्वया पूर्व रचितः रचितपूर्वः / तं-रचितपूर्व = पूर्वमुपकल्पितम् / उटजस्य द्वारे विरूढम्-उटजद्वारविरूढं = पर्णशालाद्वाराप्रभुवि प्ररूढम् / नीवाराणां बलिस्तं-नीवारबलिं = नीवारधान्योपकल्पितदेवोपहारं / विलोकयतः = प्रेक्षमाणस्य / मे = मम / शोकः / कथं नु = कथमिव। यद्वा कथमपयास्यति = कथं नु दूरीभविष्यति ? / नैव भविष्यतीत्याशयः / तदलं चिन्तया / नाहं भवती विस्मरिष्यामीत्याशय आविष्कृतः / 'विरुढाऽङ्कुरिते, जाते' इति मेदिनी / [ काव्यलिङ्गम् ] // 23 // कण्व-हे वत्से ! तूं मुझे इस प्रकार व्याकुल और हतप्रभ क्यों कर रही है?। (दीर्घश्वास लेकर-) . हे वत्से ! तेरे द्वारा बलिरूप से दिए गए नीवार के ( तीनी ) के चावलों को-जो अब कुटी के द्वार के ही आगे उग आए हैं-देखकर, तुझे स्मरण करके, मेरा शोक तो बढ़ता ही जाएगा। अर्थात्-द्वार पूजा के लिए तेरे द्वारा बिखेरे गए तिमी के चावलों को, जो कुटी के द्वार पर अब उग आए हैं-देखकर, तुझे याद करके, मेरा शोक प्रति-दिन नया ही होता जाएगा // 23 // अच्छा, हे पुत्रि ! अब तूं जा, तेरे लिए तेरे ये मार्ग कल्याणकारी व सुखप्रद हों। [ शकुन्तला के साथ गौतमी एवं शारद्वत और शारव जाते हैं ] / 1 'वत्से मामेवं' पा०।