________________ 284 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [चतुर्थोशकुन्तला--( पितुः पादयोः पतित्वा-) ताद ! वन्दामि / [( पितुः पादयोः पतित्वा-) तात ! वन्दे ] / कण्वः---वत्से ! यदहमिच्छामि तदस्तु ते। शकुन्तला-( सख्यावुपगम्य- ) सहीओ ! एध, दुवे वि में समं जेव परिस्सजेव्व / [ (सख्यावुपगम्य-) सख्यौ ! एतं, द्वे अपि मा सममेव परिष्वजेथाम्]। सख्यौ-( तथा कृत्वा- ) सहि ! जइ णाम सो राएसी पञ्चहिण्णाणमन्थरो भवे, तदो से इमं अत्तणो णामधेअङ्किदं अङ्गुलिअअंदंसहस्ससि / शीघ्रमेव / प्रानीपूर्वा दिग / अर्कमिव = भास्करमिव / पावनं = पवित्रं / पवित्रकीर्त्ति / चक्रवर्तिनं / तनयं = पुत्रं / प्रसूय = उत्पाद्य / मम विरहजां = मद्विरहोत्थाम् / शुचं = शोकव्यथां / त्वं-न गणयिष्यसि = न ज्ञास्यसि / [ काव्यलिङ्गम् / उपमा / समुच्चयः। 'हरिणी वृत्तम्' ] | // 21 // __ यत् = महत्सौभाग्यादिकम् / सर्वाभीष्टसम्पत्सुखम् / एतम् = आगच्छतम् / तेजस्वी और सर्वगुण सम्पन्न पुत्र रत्न को प्रसव करके, मेरे विरह से उत्पन्न हुए इस शोक को तू बिलकुल भूल जाएगी / अर्थात् तेरे को घरके बड़े 2 कार्यों से, पति की सेवा से, तथा पुत्र के लालन पालन आदि से क्षणभरकी भी छुट्टी नहीं मिलेगी / और तूं मुझे शीघ्र ही भल जाएगी। अतः बेटी, तूं घबड़ा मत // 21 // शकुन्तला--( पिता के पैरों में गिरकर, प्रणाम करके ) हे तात ! मैं आप को प्रणाम करती हूँ। ___ कण्व-हे पुत्रि ! तेरे लिए जो मैं चाहता हूँ वह हो / अर्थात् तूं सम्राट की महिषी हो और चक्रवर्ती पुत्र की माता हो। शकुन्तला-(दोनों सखियों के पास जाकर ) हे सखियो ! आओ, तुम दोनों एक साथ ही मेरी छाती से लग जावो / ( मुझे साथ आलिङ्गन करो)। दोनों सखियाँ-(एक साथ शकुन्तला की छाती से लिपट कर) हे सखि !