________________ 268 अभिज्ञान शाकुन्तलम् [चतुर्थोउग्गिण्णदब्भकवला मई, परिचत्तणतणा मोरी / ओसरिअपाण्डुपत्ता मुअन्ति अस्सुं विअ लदाओ॥१४॥ [ उद्गीर्णदर्भकवला 'मृगी, परित्यक्तनतना मयूरी। अपसृतपाण्डुपत्रा मुञ्चन्ति अश्रु इव लताः // 14 // ] शकुन्तला-(स्मृत्वा-) ताद ! लदावहिणी दाव माहवीं आमन्तइस्सं / [(स्मृत्वा ) तात ! लताभगिनीं तावन्माधवीमामन्त्रयिष्ये ] / उपस्थितो वियोगो यस्य तस्य-उपस्थितवियोगस्य = सम्भावितवियोगस्य / उद्गीणेति / उद्गीर्णो दर्भाणां कवलो याभिस्ताः-उद्गीर्णदर्भकवलाः = त्यत कुशपत्रमासाः। मृग्यः = हरिण्यः। मृगाश्च / पाठान्तरे-मृगी = हरिणी / परित्यक्तं नर्त्तनं यैस्ते-परित्यक्तनतनाः = परिवर्जितनतनाः। मयूराः = बहिणः / 'मयूरीति पाठान्तरम् / अपसृतानि पाण्डूनि पत्राणि यासां ता:--अपसृतपाण्डुपत्राः = पतितपरिणामपाण्डुपत्राः। ( तेन व्याजेन ) लताः= वल्ल्यः / अश्रूणीव मुञ्चन्तीति योजना [उत्प्रेक्षा / मृगादिषु बन्धुव्यवहारसमारोपात्समासोक्तिश्च // 14 // लता एव भगिनी, तां = भगिनीस्थानीयां लताम् / आमन्त्रयिष्ये = तदनुहो रही है-यह बात नहीं है, किन्तु उपस्थित ( भावी ) तेरे इस वियोग के कारण इस आश्रम की भी देख कैसी दशा हो रही है / देख तो ये हरिण और हरिणियाँ-अपने मुख से कुशा के ग्रासों को भी छोड़कर दुःखित होकर खड़ी हैं। और इन मोरों और मयूरियों ( मोरनी ) ने-नाचना ही छोड़ दिया है / और ये लताएँ भी-अपने पुराने पत्तों को छोड़ने के बहाने से मानों आँसू ही बहा रही हैं / ( रो रही हैं ) // 14 // शकुन्तला-( कुछ याद करके, कण्व से- ) हे तात ! मैं अपनी लताबहिन माधवी ( वासन्ती लता ) से भो मिल आऊँ ? / ( अर्थात्-उससे भी आज्ञा ले आऊँ। उससे भी अनुमति ले आऊँ ? ) / 1 'मृगाः' इति, 'मृग्यः' इति च पा० / 2 'मयूराः' इति 'मयूर्यः' इति च पा० /