________________ 240 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [ चतुर्थोइष्टप्रवासजनितान्यबलाजनेन दुःखानि नूनमतिमात्रदुरुद्वहानि // 3 // . कर्कन्धनामुपरि तुहिनं रञ्जयत्यग्रसन्ध्या, दाभं मुश्चत्युटजएटलं वीतनिद्रो मयूरः / सैवेयं कुमुदती = पूर्वमभिनन्दितसौन्दर्यसौभाग्याऽपि सेयंकुमुदिनी। सम्प्रति दृष्टिं = लोचनं / न नन्दयति = न हर्षयति / चन्द्रे सन्निहिते लोचनलोभनीयसौन्दर्याऽपिकुमुदिनी तस्मिन्नस्तं प्रयाते सति नष्टसौभाग्या लोचनयोहर्ष न दिशतीत्याशयः / इष्टस्य प्रवासनेन जनितानि = स्वप्रियवियोगसमुद्भूतानि / दुःखानि = कष्टानि / अबलाजनेन = प्रमदालोकेन / नूनं = ध्रुवम् / अतिमात्रम् = अत्यन्तं / दुःखेनोद्वह. नीयानि = कष्टेन सोढव्यानि भवन्ति। [अत्र शकुन्तलादुष्यन्तव्यापारसमारोपात्समासोक्तिः। 'संस्मरणीयशोभा दृष्टिं न नन्दयतीति काव्यलिङ्गम् / अर्थान्तरन्यासः / एषामङ्गाङ्गिभावसङ्करः / 'वसन्ततिलकं वृत्तम्' ] / // 3 // अत्र तु कुमुदिनीतुल्या शकुन्तला / चन्द्रतुल्यो दुष्यन्त इति तृतीयं पताकास्थानकं बोध्यम् / कर्कन्धूनामिति / अग्रसन्ध्या = प्रभातमन्ध्या / कर्कन्धूनां = बदरीपत्राणाम् / की बात रह गई है / अर्थात्-इसकी वह शोभा चली गई है और अब यह नेत्रों को वैसा आनन्द नहीं देती है। ठीक ही है, अबला जनों के लिये ( स्त्रीजनों के लिए तथा कुमुदिनी के लिये ) अपने प्रिय के ( प्राणप्यारे के, तथा प्रकृत में अपने प्रिय चन्द्रमा के ) वियोग से जनित दुःख का सहन करना बड़ा ही कठिन होता है। प्रिय के वियोग में स्त्रियों की यही हालत हो जाती है। [ कुमुदिनी ( 'कोई') का फूल चन्द्रमा को देखकर रात्रि को खिलता है और चन्द्रमा के अस्त होते ही उसकी शोभा चली जाती है, और वह संकुचित हो जाता है / यही हाल शकुन्तला का भी दुष्यन्त के वियोग में हो रहा है-यह भी इससे सूचित होता है ] // 3 // और भी देखो-झाडियों के पत्तोंके ऊपर गिरे हुए ओस के बिन्दुओं को यह प्रभातकालिक सन्ध्या-अरुण वर्ण ( लाल रंग ) का कर रही है / मयूर भी निद्रा