________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 247 अनसूया-तदो तदो ? / [ ततस्ततः ? ] / प्रियंवदा-तदो एणं लज्जावणदमुहीं परिस्सइअ सअं तादकण्णेण एवं अहिणन्दिदं-'वच्छे ! दिद्विआ धूमोवरुद्ध दिट्ठिणो वि जजमाणस्स पावअस्स ज्जेव मुहे आहुदी णिपडिदा / सुसिस्सपरिदिण्णा विअ विज्जा असोअणीआसि मे संवुत्ता / अज्ज ज्जेव तुम इसिपरिरक्खिदं करिअ भत्तुणो सआसं विसज्जेमित्ति / [तत एनां लज्जावनतमुखीं परिष्वज्य स्वयं तातकण्वेनैवमभिनन्दितं-'वत्से ! दिष्टया धूमोपरुद्धदृष्टेरपि यजमानस्य पावकस्यैव मुखे आहुतिर्निपतिता / सुशिष्यपरिदत्तेव विद्या अशोचनीयाऽसि मे संवृत्ता। अद्यैव त्वामृषिपरिरक्षितां कृत्वा भर्तुः सकाशं विसर्जयामि' इति ] / या पृच्छति सा सुखशयनपृच्छिका। यावत् = साकल्येन / लज्जयाऽवनतं मुखं यस्याः सा, तां-लज्जावनतमुखीं = व्रीडानम्रवदनाम् / परिष्वज्य = आलिङ्गय / अभिनन्दितं = तत्कृतं स्वविवाहकर्म प्रशंसितम् / धूमेन आकुलिता दृष्टिर्यस्य तस्य-धूमाकुलित दृष्टेः- आज्यधूमोपहत दर्शनशक्तेरपि / यजमानस्य = होतुः / प्रकृते तवेति यावत् / पावक एव = अग्नावेव / कामवशीभूतयाऽपि त्वया योग्ये पात्रे एवात्मा समर्पित इत्याशयः / सुशिष्यपरिदत्ता = योग्यशिष्यसमर्पिता / प्रकृते अनसूया-हाँ हाँ, कहो तब क्या हुआ ? / प्रियंवदा-तब वहाँ पर आकर स्वयं तातकण्व ने लज्जा से अवनतमुखी ( नीचे मुख किए हुए ) उस शकन्तला को छाती से लगाकर उसके विवाह की बात का यों अभिनन्दन किया, कि-'हे वत्से ! बड़े ही हर्ष की बात है, किधुएँ से अवरुद्ध दृष्टि वाले यजमान के हाथ से भी छोड़ी हुई आहुति सौभाग्य से अग्नि के ही मुख में पड़ी / अर्थात्-कामोपहतबुद्धि होकर भी तैने अपने को योग्य वर (दुष्यन्त ) के ही हाथ में सौंपा है / अस्तु, जैसे योग्य शिष्य को दी हुई विद्या अशोचनीय होती है, उसी प्रकार 'योग्य पात्र के हाथ में तूं गई है' 1 'ऋषिरक्षितां' पा०।