________________ 258 अभिज्ञान-शाकुन्तलम् [चतुर्थो. (शकुन्तला- लजां नाटयति ) / हारीतः—यावदिमां वनस्पतिसेवामभिषेकार्थ मालिनीमवतीर्णाय तत्रभवते कण्वाय निवेदयामि / ( -इति निष्क्रान्तः ) / अनसूया-सहि ! अणणुभूदभूसणो अअं जणो कधं तुम अलङ्करेदि ? / ( चिन्तयित्वा, विलोक्य च-) चित्तपरिचएण दाणिं दे अङ्गसु आहरणविणिओअं करेम। [सखि ! अननुभूतभूषणोऽयं जनः कथं त्वामलङ्करोतु। (चिन्तयित्वा, विलोक्य च ) चित्रपरिचयेनेदानीं तेऽङ्गेष्वाभरणविनियोगं कुर्वः ] / आकस्मिकोऽनायासेन वा लाभः / वनस्पतिसेवां = वनस्पतिभिर्दत्तान्याभरणजालानि / अभिषेकाय = स्नातुम् / न अनुभूतानि भूषणानि येनासौ-अननुभूतभूषणः = भूषणपरिधानपरिधारनाद्यनभिज्ञः / कथमलङ्करोत = कथं भूषणविन्यासं करोतु | चित्रैः परिचयस्तेन = चित्रपटेषु नृपति-राजमहिष्यादिदर्शनाजातेन परिचयेन / आभरणानां विनियोग = की प्राप्तिरूप इस शकुन से ) तो यही सिद्ध होता है, कि-'तूं पति के घर में जाकर राजलक्ष्मी का उपभोग करेगी। [शकुन्तला-लज्जा का अभिनय करती है ] / हारीत-वनस्पतियों द्वाग इस प्रकार रत्नाभरण देकर की गई सेवा को मालिनी नदी में स्नान करने गए हुए तात कण्व को जाकर मैं सुनाता हूँ। (जाता है) अनसूया-हे सखि ! आभूषण कैसे पहिने-पहिनाए जाते हैं, यह तो हम गों को कृष्ण राष्ट्र - इको टहरा शानो को--- सोचकर और देखकर ) हाँ, हमने चित्रों में गहने पहिने हुए राजा-रानियों की तस्वीर अवश्य देखी हैं, उसी के आधार पर हम तुम्हारा आभरण . विन्यास करती हैं। ( हम तुम्हें गहने पहिनाती हैं ) / 1 करोति' पा०।