________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 249 - (संस्कृतमाश्रित्य--) दुष्यन्तेनाऽऽहितं तेजो दधानां भूतये भुवः / * अवेहि तनयां ब्रह्मन्नग्निगर्भा शमीमिव // 6 // अनसूया--(प्रियंवदामाश्लिष्य- ) सहि पिअं मे (s) पिकं / किन्तु अज जेव सउन्तला णीअदि ति उक्कण्ठासाहारणं परिदोषं अणुभवेमि / [(प्रियंवदामाश्लिष्य-) सखि ! प्रियं मे प्रियम् / किन्त्वद्यैव शकुन्तला संस्कृतमाश्रित्येति / 'विद्वद्भिः प्राकृतं कार्य कारणात्संस्कृतं वचिदिति मातृगुप्ताचार्योक्तेरत्र प्रियंवदया संस्कृतभाषया श्लोकपाठः कृत इत्यवधेयम् / दुष्यन्तेनेति। ब्रह्मन् = हे महर्षे कण्व ! भुवः = पृथिव्याः / भूतये - अभ्युदयाय / कल्याणाय / दुष्यन्तेन आहितं = निषिक्तं, तेजः = वीर्य, वह्निरूपं धाम, ज्योतिश्च / दधानां = धारयन्तीम् / अग्निः गर्भे यस्याः सा, ताम्-अग्निगर्भा = वैश्वानरगी / शमीमिव = मक्त फलामिव / तनयां = स्वपुत्रीं शकुन्तलाम् / अवेहि = त्वं जानीहि / [ श्लेषसङ्कीर्णोपमा / अनुप्रासः / ‘भूतार्थवचनं चैष मार्ग इत्यभिधीयते' इत्युक्तेर्मार्गो नाम गर्भसन्ध्यङ्गम् ] // 6 // प्रियं मे प्रियं = नितरामिदं मे प्रियं जातम् / प्रियं मेऽप्रियमिति पाठे तु प्रियं = शकुन्तलाया एवं पित्राऽभिनन्दनं प्रियमपि / सम्प्रति मेऽप्रियं = ममाऽनिष्ट . [संस्कृत भाषा में श्लोकबद्ध रूप से-] हे ब्रह्मन् ! तुम अपनी कन्या शकुन्तला को, दुष्यन्त के द्वारा, पृथ्वी (प्रजा) के कल्याण के लिए, अपना तेज (वीर्य) इसमें स्थापित कर देने से, उसी प्रकार गर्भवती समझो, जिस प्रकार अग्नि ( के तेज) से शमी ( जांटी, छोंकरा, ) गर्भवती होती है / [ शमी वृक्ष में अग्नि का निवास रहता है / अत एव-शमी के गर्भ से (शमी वृक्ष के काष्ठ से ) अरणि बनाकर पीपल के दण्डे से उसे मथकर यज्ञ आदि में अग्नि उत्पन्न की जाती है ] // 6 // - अनसूया-( प्रियंवदा को छाती से चिपटाकर ) हे सखि ! तूने मुझको यह तो बहुत ही प्रिय बात सुनाई है। किन्तु, आज ही शकुन्तला जा रही है,