________________ 234 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [चतुर्थो[ ( प्रविश्य-)सखि ! शरीरीव कोपः कस्य अनुनयं स गृह्णाति / किश्च पुनः-- स अनुकम्पितो मया]। प्रियंवदा-एदं ज्जेव तस्सि बहुहरं / ता कधेहि कधं तए पसादिदो ? / [एतदेव तस्मिन् बहुतरं / तत्कथय कथं त्वया प्रसादितः ? ] / अनसूया-जदो णिउत्तिदंदु ण इच्छदि तदो पाएसुं पडिअ विण्णविदो मए-भअवं पढमं त्ति पेक्खिअ अविण्णादतवप्पहावस्स दुहिदिजणरस अअं अवराहो भभदा मरिसिव्वो त्ति। [यदा निवर्तितुं नेच्छति, तदा पादयोः पतित्वा, विज्ञापितो मया,-'भगवन् ! प्रथममिति प्रेक्ष्याऽविज्ञाततपःप्रभावस्य दुहितृजनस्याऽयमपराधो भवता मर्षयितव्य' इति / ' प्रियंवदा-तदो तदो ? / [ ततस्ततः ? ] / चरति / शरीरी = मूर्तिमान् / कोप इव = क्रोध एव / अनुनयं = प्रार्थनाम् / किञ्च पुनः = किन्तु / अनुकम्पा सञ्जाता अस्य अनुकम्पितः= दयाद्रहृदयः / तदेव = प्रसादनमपि / बहुतरम् = अत्यधिकं / निवर्तितुं = पुनरातिथ्यग्रहणायाऽऽगन्तुं / विज्ञापितः: = प्रार्थितः। प्रथमः = सकृदयमपराधः। प्रेक्ष्य = विचार्य / अविज्ञातः तपसः प्रभावो येन तस्य-अविज्ञाततपःप्रभावस्य = अज्ञातत्वत्तपोवीर्यस्य / अनुनय-विनय ( मनावना, वापिस आने की प्रार्थना ) सुनता था ! परन्तु बड़ी ही कठिनता से मैंने उन्हें किसी तरह कुछ दयाई (राजी) कर ही लिया। प्रियंवदा-चलो, दुर्वासा के विषय में यही बहुत है। कहो, कैसे उन्हें तूं ने प्रसन्न (राजी ) किया?। अनसूया-जब बहुत प्रार्थना करने पर भी वे (दुर्वासा) वापिस आश्रम में आने को राजी नहीं हुए, तब मैंने उनके पैरों में पड़कर, उनसे प्रार्थना की, कि-हे भगवन् ! आपके तप के प्रभाव को नहीं जानने वाली, आपकी पुत्री.के समान उस शकुन्तला का यह पहिला ही पहिला अपराध है, अतः इस अपराध को तो आप अवश्य क्षमा करें। प्रियंवदा-हाँ, तब क्या हुआ, तब उन्होंने क्या कहा ? / .