________________ 232 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [चतुर्थोप्रियंवदा-हही हद्दी / तं ज्जेव संवुत्तं जं मए चिन्तिदं / कस्सि पि / पूआरिहे अवरद्धा सुण्णहिअआ सउन्तला। [हा धिक् हा धिक् ! तदेव संवृत्तं यन्मया चिन्तितं, कस्मिन्नपि पूजाहेऽपराद्धा शून्यहृदया शकुन्तला]। / अनसूया-(पुरोऽवलोक्य-) ण क्षु जस्सि कस्सि पि, एसो दुव्वासा सुलहकोवो महेसी / तथा सविअ अविरलपादतुवराए गदीए पडिणिउत्तो / [( पुरोऽवलोक्य-) न खलु यस्मिन् कस्मिन्नपि / एष दुर्वासाः सुलभकोपो महर्षिः, तथा शप्त्वाऽविरलपादत्वर यो गत्या प्रतिनिवृत्तः] / प्रियंवदा-को अण्णो हुदवदाहो पहवहि दहिदु / ता गच्छ पाएसुं पडिअ णिउत्तावेहि / जाव से अहं पि अग्घोद उवकप्पेमि / ___उभे = सख्यौ / संवृतं = जातं / पूजाहें = पूजनीयेऽतिथिविशेषे / अपराधे हेतुः-शून्यहृदयेति / यस्मिन् कस्मिन् = साधारणे। सुलभः कोपो यस्यासौ सुलभकोपः = अतिकोपनः / तथा = विचिन्तयन्तीत्यादिरीत्या / अविरलाः पादा यस्यां त्वरायां सा, तया-अविरलपादत्वरया = अविच्छिन्न चरणविन्यासशालिन्या प्रियंवदा-हा धिक् , हा धिक् ( हाय ! हाय !) यह तो-वही हुआ, जो मैं पहिले ही से समझ रही थी। मालूम होता है-पूजा के योग्य किसी अतिथि विशेष को शून्यहृदया ( भर्तृगतमानसा) शकुन्तला ने अप्रसन्न कर दिया है / वही इस प्रकार उसे शाप दे रहा है। अनसूया-(सामने की ओर देखकर ) किसी ऐसे वैसे साधारण मनुष्य का ही शकुन्तला ने अपराध किया है यह बात नहीं है, किन्तु यह तो सुलभकोप = बहुत शीघ्र क्रुद्ध होनेवाले अत्यन्त क्रोधी, दुर्वासा महर्षि हैं, जो कि-इस प्रकार शकन्तलाको शाप देकर जल्दीर लम्बेर पैर रखते हुए वापिस जा रहे हैं। प्रियंवदा-हे सखि ! ठीक कहती हो। भला, अग्नि के बिना दाह कौन 1 'वेगबलोत्फुल्लया दुर्वारया गत्या'-पा० /