________________ 230 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [ चतुर्थोप्रियंवदा-जुजदि / [ युज्यते ] / ( -इति तदेव कर्माभिनयतः) / (नेपथ्ये-) .. अयमहं भोः!। अनसूया-( कर्ण दत्त्वा-) सहि ! अदिधिणा विअ णिवेदिदं / [ ( कर्ण दत्वा-) सखि ! अतिथिनेव निवेदितम् ] / प्रियंवदा—णं उडए सण्णिहिदा सउन्तला / [ ननूटजे संनिहिता शकुन्तला] / अनसूया-आं, अज्ज उण असण्णिहिदा हिअएण / तेन हि भोदु, एत्तिकेहिं कुसुमेहिं पओअणं (-इतिं प्रस्थिते ) / युज्यते = युक्तमुक्तम् / आवश्यकमेवैतत्कर्मेति तदुक्तानुमोदनं / तदेव = पुष्पावचयमेव / नेपथ्ये = जवनिकायाम् / / ___ अयमहं भोः = भो गृहस्वामिन् ! अहं समुपस्थितस्ते गृहद्वारि / दुर्वाससो वाक्यमेतत् / निवेदितं = स्वागमनसूचकं वचः / ननुरत्र प्रश्ने, निश्चये, स्मरणे वा / हृदयेन = मनसा / दुष्यन्तगतमानसेति भावः / एवञ्च साऽतिथिसत्कारे न दत्तावधाना भवेदतः / एतावद्भिरेव कुसुमैः प्रयोजनं = कार्य भवतु / अस्माभिः कुसुमाऽवचयं विहाय शीघ्रमेव तत्र गन्तव्यमिति सूचितं / प्रस्थिते = चलिते। हिता कन्याएं, तथा बहुएं-प्रतिदिन तथा पर्व त्यौहार पर अपने सौभाग्य की वृद्धि के लिए देवी-देवताओं का पूजन किया करती हैं, उसी की ओर अनसूया का यह संकेत है। प्रियंवदा- ठीक बात है / ( फिर फूल तोड़ने लगती हैं ) / [नेपथ्य में-] यह मैं ( अतिथि दुर्वासा ) आकर द्वारपर खड़ा हूँ। अनसूया-( कान लगाकर सुनती हुई ) हे सखि ! यह तो अतिथि की तरह ही कोई बोल रहा है। प्रियंवदा-तो ठीक है, वहाँ कुटी में शकुन्तला तो है ही। अनसूया-हाँ, है तो अवश्य / परन्तु आज उसका हृदय तो कहीं दूसरी