________________ 216 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [तृतीयोराजा-कर्णोत्पलसन्निकर्षादीक्षणमूढोऽस्मि / (-इति मुखमारुतेन चक्षुः सेवते ) / . . शकुन्तला-भोदु / पइदित्थदंसणमि संवुत्ता। लज्जेमि उण अणुवआरिणी पिअआरिणो अजउत्तस्स / [भवतु / प्रकृतिस्थदर्शनाऽस्मि संवृत्ता। लज्जे पुनरनुपकारिणी प्रियकारिण आर्यपुत्रस्य]। राजा-सुन्दरि ! किमन्यत्इदमप्युपकृतिपक्षे सुरभि मुखं ते यदाघातम् / ननु कमलस्य मधुकरः सन्तुष्यति गन्धमात्रेण // 37 // = विचारेण, मन्दं प्रवृत्त इव / कर्णोत्पलस्य / सन्निकर्षात् = सान्निध्यात् / ईक्षणे = नेत्रपरिज्ञाने / इदं नेत्रमिदं वेति परिज्ञानाऽभावात् / एतेन लोचनस्य नीलोत्पलसादृश्यं सूचितम् / मूढोऽस्मि = असंजातनिश्चयोऽस्मि / अथवा ईक्षणे = प्रेक्षणे / सेवते = फूत्करोति / प्रकृतिस्थं दर्शनं लोचनं-यस्याः सा = रेण्वपगमात्स्वस्थलोचना / संवृत्ता = जाता / प्रियं कर्तुं शीलमस्य-तस्य-प्रियकारिणः = उपकारपरायणस्य भवतः। अनुपकारिणी = अप्रत्युपकारकारिणी / अन्यत् = उपकारान्तरम् / "भवेदिति शेषः / इदमिति / सुरभि = सुगन्धि / ते = तव / मुखं = वदन कमलं / यदाघ्रातं = राजा-तुमारे नेत्र के समीप में, कान में लटकते हुए कान के भूषण-कमल में और तुमारे नेत्रों में कोई भेद नहीं होने से, मुझे पता ही नहीं लग रहा है कि कौन सा तुमारा नेत्र है, और कौन सा कर्णोत्पल है ! / [मुख से शकुन्तला की आँखों में फूंक देता है ] / शकुन्तला-बस हो गया रहने दीजिए / मेरी आँखें अब ठीक हो गई। परन्तु हे प्राणनाथ ! मेरा इतना प्रिय ( उपकार ) करने वाले आपका तो मैं कछ भी प्रिय (प्रत्युपकार) नहीं कर सक रही हूँ, इस कारण से मैं बहुत लजित हूँ। राजा-हे सुन्दरि ! तुमारे इस सुगन्धित मुख कमल का जो मैंने इस प्रकार आघ्राण किया (उसे मैंने सूंघा)-यह क्या मेरा कम प्रत्युकार है ? / भ्रमर तो