________________ 138 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [द्वितीयोउभौ-(उपगम्य- ) विजयस्व राजन् ! / राजा--( आसनादुत्थाय-) अभिवादये भवन्तौं। .. उभौ--स्वस्ति भवते ( इति फलान्युपहरतः ) / . राजा--( सप्रणामं परिगृह्म-) आगमनप्रयोजनं श्रेतुमिच्छामि / उभौ--विदितो भवानिहस्थस्तपस्विनाम् / ते च भवन्तमभ्यर्थयन्ते। मपि युद्धेषु साहाय्यमाचरतीति-माहात्म्यातिशयोऽस्योक्तः / [ 'अनेन भुजबलात् सर्वे शत्रवो जिता' इति कारणे वक्तव्ये, कार्यमात्रं भूवलयविजय एवोक्त इति-पर्यायाक्तम् / 'नैतचित्र'मित्यर्थं प्रति उत्तरवाक्यार्थस्य हेतुत्वाकाव्यलिङ्गञ्च / समुच्चयः / उपमा च] // 16 // ___उपगम्य = समीपमुपसृत्य / अभिवादये = प्रणतोऽस्मि / उपनयतः = अपंवतः। इहस्थः = आश्रमपरिसरे स्थितः / तपस्विनाम् = आश्रसवासिनां मुनीनां / आश्चर्य ही क्या है, इसकी सहायता की अपेक्षा तो दैत्यों के साथ होनेवाले युद्ध में देवतागण व इन्द्र भी करते हैं / अर्थात् स्वर्ग में जाकर यह इन्द्र की भी युद्ध में सहायता करता है // 16 // ___ दोनों ऋषिकुमार-( राजा के पास जाकर-) हे राजन् ! आपकी विजय हो। राजा-( आसन से उठकर ) मैं आप लोगों को अभिवादन ( वन्दन करता हूं और आप लोगों से शुभ आशीर्वाद की याचना) करता है। दोनों ऋषिकुमार-राजन् ! तुम्हारा कल्याण हो / (दोनों ऋषिकुमार राजा को फल भेंट करते हैं ) / राजा-(प्रणाम पूर्वक फल लेकर ) मैं आप लोगों के आने का उद्देश्य सुनना चाहता हूं। दोनों ऋषिकुमार-आपका आना यहाँ के तपस्वियों को ज्ञात हो गया है, अतः वे आपसे यह अभ्यर्थना (प्रार्थना ) करते हैं, कि