________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 185 राजा-अवसरः खल्वयमात्मानं दर्शयितुम् / ( सहसोपसृत्य-) तपति तनुगात्रि ! मदनस्त्वामनिशं, मां पुनदेहत्येव / ग्लपयति यथा शशाङ्क, न तथा हि कुमुद्वतों दिवसः // 20 // उपसृत्य = तस्याः समीपं समेत्य / तपतीति / तनु गात्रं यस्याः सा तनुगात्री / तत्सम्बुद्धौ तनुगात्रि ! = हे तन्वनि ! हे तन्वि! मदनः = कामः / त्वाम् = भवतीम् / अनिशम् = निरन्तरम् / तपति = सततं सन्तापयत्येव / पुनः = तु | मांदुष्यन्तन्तु / दहत्येव = भरमीकुरुत एव / हि = यतः / दिवसः = घस्रः। यथा शशाङ्क = याहा चन्द्रमस, ग्लपयति = म्लापयति / न तथा =न तादृक् / कुमुद्वतीं = कुमुदिनी-ग्लपयति / दिवसे चन्द्रस्य यादृशी ग्लानिस्तथा न कुमुदिन्या इति कामेनाऽहमेव बलवत् पीड्ये, न पुनर्भवतीत्याशयः / [वाक्ययोर्बिम्बप्रतिबिम्बभावाद् दृष्टान्तालङ्कारः / मदनः = हर्षदः, सोपि तपतीति विरोधाभासः, 'मदन'पदस्य मन्मथपरत्वात् / 'तनुगात्रीति पुनरुक्तवदाभासः / अनुप्रासः / यतस्तनुगात्री, अतस्तपतीति पदार्थहेतुकं काव्यलिङ्गञ्च / आर्या ] // 20 // राजा-अपने को प्रकट करने का यही अच्छा मौका है। ( सहसा शकुन्तला के पास पहुँच कर-) हे तनुगात्रि ! = हे कृशाङ्गि ! तुमको तो कामदेव रातदिन केवल सन्ताप ही पहुँचाता है, परन्तु मेरे को तो वह जला ही रहा है। क्योंकि--जितना दिवस का आगमन-(सूर्य का उदय ) चन्द्रमा को मलिन और हतप्रभ कर ग्लानि पहुँचाता है, उसे निष्प्रभ कर देता है, उतना कुमुदिनी को नहीं। [ सूर्य के उदय होने से यद्यपि चन्द्रमा और कुमुदिनी दोनों को हानि व सन्ताप पहुँचता है / परन्तु कुमुदिनी की तो केवल यही हानि होती है, कि वह सङ्कुचित हो जाती है,पर उसकी शोभा तो बनी रहती है, परन्तु चन्द्रमा की तो सारी शोभा ही नष्ट हो जाती है। सूर्य को देखकर कुमुदिनी सङ्कुचित हो जाती है, और चन्द्रमा को देखकर कुमुदिनी खिल उठती है / पर सूर्योदय होने से चन्द्रमा की तो चाँदनी व शोभा दोनों ही नष्ट हो जाती हैं / अतः कुमु. दिनी की अपेक्षा दिन से (सूर्य से) चन्द्रमा की अधिक हानि होती है] // 20 //