________________ 162 अभिज्ञानशाकुन्तलम् - [तृतीयोयावद्विटपान्तरेणाऽवलोकयामि। ( तथा कृत्वा, सहर्षम्-) अये ! लब्धं नेत्रनिर्वाणम् / एषा मनोरथप्रिया में सकुसुमास्तरणं शिलापट्टमधिशयाना, सखीभ्यामुपास्यते / भवतु / लताव्यवहितः शृणोमि विस्रम्भकथितान्यासाम् / (-इति विलोकयन् स्थितः)। (ततः प्रविशति यथोक्तव्यापारा सह सखीभ्यां शकुन्तला ) / सख्यौ-( उपवीज्य-) हला सउन्तले ! अबि सुहाअदि दे णलिणी. बत्तबादो?। [( उपवीज्य- )हला शकुन्तले ! अपि सुखायते ते नलिनीपत्रवातः?]। विटपस्य = शाखायाः / अन्तरंग = व्यवधानेन, मध्यभागेन / तथा कृत्वा = विटपान्तरेण विलोक्य / 'सहर्ष निति क्रियाविशेषणम् / नेत्रयोनिर्वाणं = लोचनसुखं। शकुन्तलेति यावत् / मनोरथैः, मनोरथानां वा प्रिया = सङ्कल्पप्रिया / अद्य यावद्रतेरलाभात् / कुसुमानामास्तरणेन सहितं-सकुसुमास्तरणं = पुष्पास्तरणसनाथं, पुष्पास्तीर्णम् / शिलायाः पट्टे = शिलाफलकम् / अधिशयाना = अधितिष्ठन्ती। विनम्भेण कथितानि-विस्रम्भ कथितानि = निश्शङ्काऽऽलापान् / 'समो विस्रम्भ. विश्वासौ' इत्यमरः / इति = इत्थमभिधाय / यथोक्तं व्यापारो यस्याः सा-यथोक्तव्यापारा = शिलाफलकमधिशयाना / उपवीज्य = व्यजनं दोलयित्वा / 'अपिरत्र प्रश्ने / 'गर्हासमुच्चय प्रश्नशङ्कासम्भावनास्वपिः' इत्यमरः / सुखायते अच्छा, तब तक इसे मैं वृक्षों की शाखाओं को आड़ से देखता हूँ। (देखकर, सहर्ष-) ओह ! मेरे नेत्र इसे देखकर तृप्त हो गए / मैंने नेत्रों का परमसुख पा लिया / यह मेरी मनोरथ विषयीभूता ( अभीष्टा )प्राणप्रिया शकुन्तला फूलों की सेज से अलंकृत शिलातल पर लेटी हुई है, और इसकी दोनों ही सखियाँ इसके पास बैठी हैं। अच्छा, मैं इस लता की आड़ में होकर इनके आपुस के विश्वस्त वार्तालाप को सुनता हूँ। ( इनकी ओर टकटकी लगाकर देखता हुआ खड़ा होकर बातें सुनता है)। [ोक्त प्रकार से शिलातल पर बिछी हुई फूलों की सेज पर लेटी हुई, दोनों सखियों सहित शकुन्तला का प्रवेश ] / दोनों सखियां-( कमल की लता के पत्तों से हवा करके ) हे सखी 1 'विश्वस्त कथितानि' पा० / 2 'सुखयति' 'सुखाय ते' पा० /