________________ 112 अभिज्ञान-शाकुन्तलम्- [द्वितीयोराजा-रैवतक ! सेनापतिस्तावदाहूयताम् / . दौवारिकः-तह / (-इति निष्क्रम्य सेनापतिना सह प्रविश्य-) एदु एदु अजो, एस आलावदिण्णकण्णो भट्टा इधज्जेव चिढदि, उव्यसप्पदु णं अजो। [तथा / ( इति निष्क्रम्य, सेनापतिना सह प्रविश्य ) एतु एतु आर्यः, एष' आलापदत्तकर्णो भर्ता इहैव तिष्ठति, उपसर्पत्वेनमार्यः] / सेनापतिः-(राजानमवलोक्य, स्वगतं--) दृष्टदोषाऽपि मृगया स्वामिनि केवलं गुणायैव संवृत्ता / तथा हि देवः अनवरतधनाऽऽस्फालनकरवर्मा, __रविकिरणसहिष्णुः, स्वेदलेशैरभिन्नः। नामेदम् / आलापे दत्तौ करें येनासौ = विदूषकेन सहालपन् / दृष्टाः = शास्त्रेषु निर्दिष्टाः, दोषाः = हिंसाजन्यपापादयो यस्यां सा-अनेकदोनिन्दिताऽपि / [यद्वादृष्टाः = संभाविता, दोषा यया सा-दृष्टदोषा = भूरिदोषजननीत्यर्थः] / संवृत्ता = जाता / तदेव दर्शयति-तथा हीति / देवः = महाराजः / 'देवेति नृपतिर्वाच्यो भृत्यैः, प्रकृतिभिस्तथेति भरतः / पदमेतत्-श्लोकस्थेन 'बिभर्ती'त्यनेन सम्बध्यते / राजा-रैवतक ! जाओ सेनापति को बुला लाओ दौवारिक ( द्वारपाल)-जो आज्ञा महाराज की / अभी बुलाता हूँ। (बाहर जाकर, सेनापति को साथ लेकर भीतर आकर सेनापति से) आर्य ! आप भीतर पधारिए, महाराज आपकी प्रतीक्षा में आपको कुछ आज्ञा देने के लिए ( हमारी बाते कान लगाकर सुनते हुए) यहाँ ही विराज रहे हैं / आप इनके पास पधारिए। सेनापति-( राजा को देखकर, मनही मन-) यद्यपि शिकार खेलने में बहुत दोष हैं, क्योंकि शिकार खेलना भी एक व्यसन (दुर्गुण) ही है, परन्तु हमारे प्रभु ( महाराज ) के लिए तो यह व्यसन भी गुणदायक ही हो 1. 'एष आज्ञावचनोत्कण्टः, इत एव दत्तदृष्टिः' पा० / अयं पाठः शोभनः /