________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भापाटीका-विराजितम् 125 विदपकः-(विहरय-) भो ! जधा पिण्डीखर्जू रेहि उज्वेजिदस्स तिन्तिडीए सद्धा भोदि, तथा अन्तेउर-इथिआरअणपरिभोइणो भअदो इअं पत्थणा / [भोः ! यथा पिण्डोखजूरैरुद्वेजितस्य तिन्तिड्यां श्रद्धा भवति, तथा अन्तःपुरस्त्रीरत्रपरिभोगिनो भवत इयं प्रार्थना / राजा-सखे ! ताव देनां न जानासि, येन त्वमेवमवादीः / 'सुतः पुत्रः स्त्रियान्त्वमी / आहुर्दुहितरं सर्वेऽपत्यं तोकं तयोः समे-इत्यमरः / एवञ्च पालकत्वादेव कण्वस्य शकुन्तलापितृत्वं, न तु तदात्मजेयमिति स्वविवाहयोग्यत्वमस्यां प्रकटितम् / [ कुसुममिवेत्युपमा, अनुप्रासश्च ] // 9 // विहस्येति / वनेऽस्मिन् क विशिष्टस्त्रीरत्नसम्भव इति, अन्तःपुरगतरमणीयरमणीरत्नसम्भोगवतोऽप्यन्यत्र भवतो बद्धाभिलाषितोपहासायैवेति भावः / पिण्डीखर्जूरैः = मधुरतरैः खजूरप्रभेदैः, मिष्टान्नप्रभेदैश्च / उद्वेजितस्य, तिन्तिड्याम् = अम्लिकायाममधुरायामम्लायामपि, श्रद्धा = अभिलाषः। अन्तःपुरे यानि स्त्रीरत्नानि, तानि-परिभुङ्क्ते तच्छीलः, तस्य = त्रैलोक्यसौन्दर्यशालिप्रमदारत्नभोगशीलस्य भवतः, इयं = शकुन्तलाविषयिणी, प्रार्थना = अभिलाषः / तस्यामनुराग इति यावत् / मधुरेणोद्विग्नो यथाऽहृद्यमम्लं चिञ्चाफलं बहु मन्यते, तथैव त्वयापि वनवासिनी तापसकन्या शकुन्तला प्रशस्यते इति भावः / मिली है, कण्व ने तो केवल इसका पालन किया है, इसीलिए यह कण्व मुनि की कन्या कहलाती है। अतः कण्व मुनि के पास तो यह उसी प्रकार आ गई है, जैसे आक ( मदार ) के पौधे के ऊपर नवमालिका ( नेवारी-वासन्ती ) का फूल आकर टपक पड़े // 9 // विदूषक-हे मित्र ! मीटे 2 पिण्ड (पेड़ा) और खजूरों (बर्फी, मिठाई का भेद 'खजूर' आदि) को खाते 2 जब मनुष्य का मन उचट (भर) जाता है, तब उसकी खट्टी इमली खाने की भी इच्छा होती है। मालूम होता है, अन्तःपुर की सुन्दर 2 स्त्रीरत्नों के उपभोग करनेवाले आपकी भी वैसे ही इस वन (जंगली) कन्या के ऊपर इच्छा हुई है। राजा-मित्र ! तुमने उसे देखा नहीं है, इसीलिए तुम ऐसा कह रहे हो /