________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 127 विदषकः-सव्वधा पच्चादेशो वतु सा रूववदीणं / सर्वथा प्रत्यादेशः खलु सा रूपवतीनाम् ! ] / राजा-इदञ्च मे मनसि वत्तते-- अन्योऽपि कुशलः शिल्पी,-आत्मनः सर्वतोऽनुभूतैः सिद्धप्रयोगैमेहता संरम्भेग विशिष्ट सामग्रीसम्भारात्सारतरमाकृष्य पूर्व कल्पितस्वशिल्प जाला दुत्कृष्टं वस्तु सम्पादयति, तथैव भगवान् प्रजापतिरपि सकललो कसृष्टिलब्धानुभूतिविशेषबलान्महता बुद्धियोगेन स्मारं स्मारं चित्रान्यागानिमां शकुन्तलां निर्ममे, कथमन्यथा जगदति शायिरूपसम्पदस्तस्याः सृष्टिब्रह्मणा कत्तं शक्येत, अद्य यावदीदृशसृष्टेस्तेनाऽकल्पनादिति शकुन्तलायाः सर्वतोऽपि वैशिष्ट्यं ध्वनितम् / 'चित्रे निवेश्ये'त्यादि पाटेतु-वित्रे-प्रतिरूपके / निवेश्य = आलिख्य / परिकल्पितसत्त्वयोगा = आहितप्राणा / मनसैव ब्रह्मणा कृता, न तु हस्तादिना / हस्तादिस्पर्श हि नेदृशभनिन्ध कामलापसीमातिगं रूपं सम्भवेदित्यों बोध्यः / 'रूपं स्वभाव सौन्दर्य'इति मेदिनी। 'योगः सन्नहनोपायध्यानसङ्गतियुक्तिषु' इत्यमरः / [ अपरा-सकलस्त्रीसृष्टिविलक्षणेत्यभेदे भेदारोपात्-अभेदे भेदरूपाऽतिशयोक्तिः। श्रति-वृत्त्यनुपासो। पूर्वाद्ध वाक्यार्थे उत्तरार्द्धवाक्यार्थस्य हेतुत्वात् काव्यलिङ्गञ्च / अनेन गुणकीर्तनं नाम नाथ्यलक्षणमुक्तम् ] // 10 // यद्येवं तर्हि-सर्वथा = रूपेण / लावण्येन, गुणैश्च सर्वतो मावेन / रूपवतीनां = सुन्दरीणां वरवभिनीनां / प्रत्या देशः = प्रत्याख्यानम् / रूपगर्वस्येत्यर्थाद् बोध्यम् / 'प्रत्या देशो निराकृतिः' इत्यमरः। कि-ब्रह्माजी ने आज तक जितने भी सृष्टि के उत्पादन के उत्तम 2 योग जाने और सीखे हैं, उन सब योगों को चित्त में रखकर, और अपनी सम्पूर्ण कारीगरी खर्च कर, रूप और सौन्दर्य की राशि ( के व्यय ) से इस कृशाङ्गो को बनाया है। अतः ब्रह्माजी की वर्तमान सभी स्वा-सृष्टियों से अलग यह तो कोई अपूर्व स्त्री-सृष्टि है // 10 // विदूषक-तो फिर यह शकुन्तला तो सभी (देवाङ्गना, मनुष्यस्त्री आदि) रूपवती स्त्रियों का प्रत्याख्यान ( मानमर्दन करनेवालो ) है-यही समझना चाहिए / अर्थात् तब तो यह संसार की स्त्रीजाति मात्र से बढ़ी-चढ़ी है ! राजा हाँ, मित्र ! मेरे मन में तो यहाँ तक यह बात उठ रही है कि