Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || वन्दे श्री गुरु तारणम् ॥ आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्य महाराज द्वारा रचित तारण तरण श्री श्रावकाचारजी अध्यात्म जागरण टीका स्वामी ज्ञानानंद Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || नमामि गुरु तारणम् ।। आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्य महाराज द्वारा रचित श्री श्रावकाचारजी अध्यात्म जागरण टीका अध्यात्म शिरोमणी पूज्य श्री ज्ञानानंद जी महाराज संपादक: अध्यात्म रत्न प.पू.श्री बसन्त जी महाराज :प्राप्तिस्थल: ब्रह्मानंद आश्रम संत तारण तरण मार्ग पिपरिया (होशंगाबाद) म.प्र. : प्रकाशक: स्व.महात्मा गोकुलचंद तारण साहित्य प्रकाशन मूल्य ६०/ समिति, जबलपुर (म.प्र.) . . .. .. . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी प्रकाशकीय धन्य हैं, मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर वे अनंत आत्मायें, जिन्हें निज स्वभाव सत्ता की अनुभूति हुई, संसार से विरक्ति का भाव हुआ। ऐसी पवित्र आत्माओं का जीवन धन्य हुआ ही है साथ ही वे संसार के भवभ्रमण में उलझी आत्माओं के लिये ज्ञान-ध्यान, साधना सहित प्रेम, दया, करुणा का मंगलमय संदेश प्रदान करती हैं, उन्हीं के पदचिन्हों पर चलकर अनंत आत्मायें मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर होती हैं। SYA YA FAN ART YA. विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में हुए महान अध्यात्मवादी वीतरागी संत, आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज स्वयं के तारणहार बने और संसार के सभी जीवों को तरने के लिये नौका समान, सम्यक्ज्ञान से परिपूर्ण चौदह अनमोल ग्रंथों की रचना की। इन चौदह ग्रंथों में परम पूज्य गुरुदेव तारण स्वामी की प्रयुक्त भाषा शैली प्राकृत एवं संस्कृत से सुसज्जित मिश्रित, शांति रस से ओतप्रोत, पद्यमय संगीत की अनुपम धुनों से युक्त सरल भाषा का सुन्दरतम रूप है 1 वर्तमान के व्यस्ततम जीवन में दुरूह ग्रंथों का अध्ययन कठिन है, धर्ममार्ग के पथिक गुरुभाई सहज भाषा में ज्ञानार्जन कर मुक्तिमार्ग की ओर अग्रसर हो सकें, ऐसी परिस्थितियों का संतों को आभास है। इन्हीं संतजनों ने स्वयं संसार शरीर भोगों को तिलांजलि देकर अपना जीवन कल्याण किया इसके साथ ही उनकी भावनायें उन जीवों पर करुणा की हैं, जो ज्ञान के अभाव में संसार के क्षणिक सुखाभास को सुख मान रहे हैं। सकल तारण समाज एवं जैन जगत के गाँव-गाँव, नगरों महानगरों में परम पूज्य गुरुदेव के चौदह अनमोल ग्रंथों में निहित पावन अमृत वचनों का सार तत्व-तारण स्वामी का शुभ संदेश तू स्वयं भगवान है, की सिंह 5 गर्जना करने वाले परम श्रद्धेय आत्म साधनारत, अध्यात्म शिरोमणि 'पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज का यह जयघोष विगत २० वर्षों से साधक संघ - श्री संघ के साधकों एवं आदरणीय ब्रह्मचारिणी बहिनों के माध्यम से जन-जन को धर्म की ओर आकृष्ट कर रहा है। अध्यात्म साहित्य प्रकाशन से आत्म कल्याण की भावना प्रकाशकीय - और शास्त्र स्वाध्याय की प्रवृत्ति में दिन दूनी रात चौगुनी अभिवृद्धि हो रही है । महात्मा श्री गोकुलचंद जी परम पूज्य श्री गुरु महाराज के प्रति पूर्ण समर्पित थे। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में आपने श्री संघ के भ्रमण कार्यक्रमों में अप्रतिम योगदान देकर अपने जीवन को साधनामय बनाते हुए श्री सेमरखेड़ी जी तीर्थक्षेत्र पर समाधि को प्राप्त हुए। उनकी पवित्र भावनानुसार इस समिति के माध्यम से पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज द्वारा अनुवादित श्री पंडितपूजा ग्रंथ की भाव प्रवण अध्यात्म सूर्य टीका तथा अनुपम कृति अध्यात्म किरण (१००८ प्रश्नोत्तर) का प्रकाशन कराया जा चुका है। वर्ष १९९२ में पूज्य श्री ने परम पूज्य श्री गुरु महाराज के आचारमत के अनुपम ग्रंथ श्री तारण तरण श्रावकाचार जी की सुन्दरतम टीका लिखी थी, आज उस टीका ग्रंथ के प्रकाशन का सौभाग्य इस समिति को प्राप्त हो रहा है। हम पूज्य श्री के प्रति श्रद्धानवत हैं, साथ ही बहुत-बहुत आभारी हैं अध्यात्म रत्न बा.ब्र. पूज्य श्री बसन्तजी महाराज के, जिन्होंने अथक परिश्रम पूर्वक इस ग्रंथ का सुन्दरतम संपादन करके यह अनमोल निधि जन-जन के हितार्थ प्रदान की है। भगवान महावीर स्वामी के पश्चात् सर्वप्रथम शुद्धात्मा का स्वरूप आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने स्पष्ट किया, श्री अमृतचन्द्राचार्य जी ने उस आत्ममंदिर का शिखर बनाया और उसमें अनमोल चौदह अध्यात्म ग्रंथों का सृजन कर स्वर्ण मंडित कलश चढ़ाया परम पूज्य श्रीमद् जिन तारण तरण देव ने उन अध्यात्म ग्रंथों का अमृत रस पीकर, आत्मा का साक्षात्कार कराने वाले इन ग्रंथों की भावप्रवण टीकायें लिखकर जन-जन तक सहज सरल प्रवाहमान प्रांजल भाषा में पहुंचाने का कठिनतम कार्य किया है- अध्यात्म शिरोमणि पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज ने। पूज्य श्री का यह उपकार तारण समाज व जैन जगत के इतिहास में धर्म साधना मय बनायें यही भावना है। स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। सभी आत्मायें इसका स्वाध्याय कर अपने जीवन को विनीत अध्यक्ष / मंत्री स्व. महात्मा गोकुलचंद तारण साहित्य प्रकाशन समिति जबलपुर (म. प्र. ) दिनांक- ५.२.२००१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान दाता सूची CNX 004 श्री श्रावकाचार जी । जागरण गीत। जागो हे भगवान आत्मा, जागो हे भगवान ।। मोह नींद में क्यों सो रहे हो । अपनी सत्ता क्यों खो रहे हो ॥ तुम हो सिद्ध समान आत्मा, जागो हे भगवान ॥१॥ नर भव में यह मौका मिला है । सब शुभ योग सौभाग्य खिला है ॥ क्यों हो रहे हैरान आत्मा, जागो हे भगवान ॥२॥ इस शरीर से तुम हो न्यारे । चेतन अनन्त चतुष्टय धारे ॥ तोड़ो मोह अज्ञान आत्मा, जागो हे भगवान ॥३॥ पर के पीछे तुम मर रहे हो । पाप परिग्रह सब कर रहे हो । भुगतो नरक निदान आत्मा, जागो हे भगवान ॥४॥ तुम हो शुद्ध बुद्ध अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखराशी ॥ कर लो भेद विज्ञान आत्मा, जागो हे भगवान ||५|| आयु तक का सब नाता है । मोह यह तुमको भरमाता है । देख लो सब जग छान आत्मा, जागो हे भगवान ॥६॥ कर्म प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करहिं सो तस फल चाखा। करो धरम पुण्य दान आत्मा, जागो हे भगवान ॥७॥ तारण तरण हैं तुम्हे जगा रहे । मुक्ति मार्ग पर तुम्हें लगा रहे ॥ पाओ पद निर्वाण आत्मा, जागो हे भगवान ॥८॥ आचारमत: अनमोल रत्न देव स्वरूप देव जिनेश्वर ज्ञान मय, चौदह प्राण संजोत । चार चतुष्टय युक्त वह, मानत शिव सुख होत ॥ देवालय यह देह है,देव निजातम शुद्ध। परम पूज्य परमेष्ठि वह, कहें जिनेश्वर शद्ध। दर्शन ज्ञान संयुक्त यह, चरण वीर्य मय आप। निराकार है देव शुभ , देह दिवालय माप ॥ रत्नत्रय महिमा कह्यो तत्व श्रद्धान को, सम्यक दर्शन सार। तत्व निजातम स्वयं है, अर्थ तिअर्थ विचार ।। ज्ञान नेत्र हैं भव्य के, वस्तु स्वरूप दिखाय। जिनवाणी में भक्ति अति, भेदज्ञान बल पाय ।। थिर हो शुभ चारित्र में, शुद्ध तत्व पहिचान । ओंकार अनुभव करो,शाश्वत शिवसुख मान ।। सम्यक् दर्शन शुद्ध यह, सम्यक् ज्ञान चरित्र । कर श्रद्धा अज्ञान ज, सम्यक् वन्त पवित्र ।। सत्यधर्म द्रव्यार्थिक नय शुद्ध कर, चेतन लक्षण वन्त । कर्म मुक्त कर जीव को, वही धर्म शिव पंथ ।। धर्म आत्म गुण है सदा, रत्नत्रय मय जान। कर्म विवर्जित जीव को,करे ताहि पहिचान ।। धर्म वही उत्तम कह्यो, जो खंडे मिथ्यात । शुद्ध तत्व चेतन तनो, करै प्रकाश सुहात ।। समाजरल स्व.पू.श्री जयसागर जी महाराज कृत 'आचारमत' से साभार. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ puी आपकाचार जी सम्पादकीय Ooक सम्पादकीय श्री गुरु तारण स्वामी की संयम साधना और आध्यात्मिक क्रान्ति के बारे में भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक क्षितिज पर विक्रम संवत् १५०५ की मिति उल्लेख करते हुए सिद्धांतशास्त्री स्व. पं. श्री फूलचंद जी ने ज्ञान समुच्चय सार ग्रंथ की अगहन सुदी सप्तमी को एक महान क्रांतिकारी ज्ञान रवि के रूप में आध्यात्मिक भूमिका में लिखा है कि "जैसा कि हम पहले बतला आए हैं अपने जन्म समय से लेकर उद्धात्मवादी संत श्रीमट जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज का उदय हा। पिछले तीस वर्ष स्वामी जी को शिक्षा और दूसरे प्रकार अपनी आवश्यक तैयारी में बचपन से ही पूर्व संस्कार संयुक्त होने से विलक्षण प्रतिभा संपन्न श्री जिन तारण तरण, लगे। इस बीच उन्होंने यह भी अच्छी तरह जान लिया कि मूल संघ कुंद-कुंद आम्नाय पूण्य संपृक्त अपनी बाल सुलभ चेष्टाओं के द्वारा सभी को सुखद अनुभव कराते हए दज 2 के भट्टारक भी किस गलत मार्ग से समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करते हैं। उसमें के चन्द्रमा की भाँति वद्धि को प्राप्त होने लगे। वे जब पाँच वर्ष के थे तब राज्य में कांति. उन्हें मार्ग विरुद्ध क्रियाकाण्ड की भी प्रतीति हई अत: उन्होंने ऐसे मार्ग पर चलने का कोषालय में आग लगना तथा तारण स्वामी द्वारा पुन: कागजात तैयार करवा देनाS निर्णय लिया जिस पर चलकर भट्टारकों के पूजा आदि संबंधी क्रियाकाण्ड की अयथार्थता उनके "बाल्यकालादति प्रा" होने का बोध कराता है। कागजात तैयार कराने का को समाज हृदयंगम कर सके; किन्तु इसके लिए उनकी अब तक जितनी तैयारी हुई थी कारण यह कि उनके पिता श्री गढ़ाशाह जी पुष्पावती नगरी के राजा के यहाँ कोषाधीश उसे उन्होंने पर्याप्त नहीं समझा। उन्होंने अनुभव किया कि जब तक मैं अपने वर्तमान पद पर कार्यरत थे। जीवन को संयम से पुष्ट नहीं करता, तब तक समाज को दिशादान करना संभव नहीं “मिथ्याविली वर्ष ग्यारह" श्री छमस्थ वाणी जी ग्रंथ के इस सत्रानसार है। यही कारण है कि तीस वर्ष की उम्र में सर्वप्रथम वे स्वयं को व्रती बनाने के लिए (१/१७ ) उन्हें ग्यारह वर्ष की बालवय में आत्म स्वरूप के अनुभव प्रमाण बोध पूर्वक , अग्रसर हुए।" मिथ्यात्व का विलय और सम्यक्त्व की प्रगटता हई, जैसा कि सम्यक्त्व का महात्म्य उनकी आत्म साधना पूर्वक निरंतर वृद्धिगत होती हुई वीतरागता, सेमरखेड़ी के आचार्य प्रणीत ग्रंथों में उपलब्ध होता है कि सम्यक्त्व रूपी अनुभव संपन्न सूर्य के उदय निर्जन वन की पंचगुफाओं में ममल स्वभाव की साधना उन्हें एक ओर अपने आत्मकल्याण होने पर मिथ्यादर्शन रूपी रात्रि विलय को प्राप्त होती है, सम्यक्त्व के प्रकाश में मिथ्यात्व और मुक्त होने के लक्ष्य की ओर अग्रसर होने में प्रबल साधन बन रही थी, वहीं दूसरी ओर आदि विकार टिकते नहीं हैं। आत्म अनुभव के जाग्रत होने पर अनादि कालीन अज्ञान उनके सातिशय पुण्य के योग से सत्य धर्म, अध्यात्म मार्ग की प्रभावना हो रही थी और अंधकार का अभाव हो जाता है तथा संसार, शरीर, भोगों से सहज वैराग्य होता है। यह लाखों जिज्ञासु आपके अनुयायी बन रहे थे, जिसमें जाति-पांति का कोई भेदभाव नहीं सब श्री तारण स्वामी के जीवन में हआ और आत्मबल की वृद्धि होने के साथ-साथ था। इस मार्ग को स्वीकार करने का आधार था-सात व्यसन का त्याग और अठारह वैराग्य भाव की वृद्धि भी होने लगी इसी के परिणाम स्वरूप उन्होंने डकीस वर्ष की क्रियाओं का पालन करना। किशोरावस्था में बाल ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने का संकल्प कर लिया और सेमरखेडी अनेक भव्य जीवों का जागरण, निष्पक्ष भाव से हो रही धर्म प्रभावना, आध्यात्मिक वन, जो विदिशा जिले में सिरोंज के निकट स्थित है, की गुफाओं में आत्म साधना क्रांति का रूप धारण कर रही थी। यह सब, भट्टारक और धर्म के ठेकेदारों को रुचिकर ९ करने लगे। नहीं लगा फलत: योजनाबद्ध ढंग से श्री तारण स्वामी को जहर पिलाया गया और ॐ माँ की ममता और पिता का प्यार भी उनकी आध्यात्मिक गति को बाधा नहीं बेतवा नदी में डुबाया गया किन्तु इन घटनाओं से भी वे विचलित नहीं हुए बल्कि यह पहुँचा सका और निरंतर वृद्धिगत होते हुए वैराग्य के परिणाम स्वरूप श्री तारण स्वामी सब होने के पश्चात् तारण पंथ का अस्तित्व पूर्ण रूपेण व्यक्त और व्यवस्थित हो गया ने तीस वर्ष की युवावस्था में सप्तम ब्रह्मचर्य प्रतिमा के व्रतों को पालन करने की दीक्षा तथा वट वृक्ष की तरह विराट् स्वरूप धारण कर लिया। प्रभावना आदि का विशेष योग ग्रहण की। होते हुए भी श्री गुरू तारण स्वामी का बाह्य राग और प्रपंचों से कोई संबंध नहीं था। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6226 श्री आवकाचार जी उनकी वीतराग भावना इतनी उत्कृष्ट होती गई कि साठ वर्ष की उम्र में उन्होंने निर्ग्रन्थ दिगम्बर जिन दीक्षा धारण कर ली । श्री गुरुदेव १५१ मण्डलों के प्रमुख आचार्य होने से मण्डलाचार्य पद से अलंकृत हुए । उनके श्री संघ में ७ निर्ग्रन्थ मुनिराज (साधु), और ३६ आर्यिकायें अपनी आत्म साधना में रत थीं, जिनके नाम इस प्रकार हैं। तारण तरण श्री संघ के ७ साधु - १. श्री हेमनन्दि जी महाराज ३. श्री समंतभद्र जी महाराज ५. श्री समाधि गुप्त जी महाराज ७. श्री भुवनन्द जी महाराज ३६ आर्यिका माताजी के नाम १. कमल श्री ५. सुवन श्री ९. अभय श्री १३. आनन्द श्री १७. अलष श्री २. चरन श्री ३. करन श्री ६. औकास श्री ७. दिप्ति श्री १०. स्वर्क श्री ११. सर्वार्थ श्री १४. समय श्री १५. हिय उत्पन्न श्री १८. अगम श्री १९. सहयार श्री २२. उत्पन्न श्री २३. षिपन श्री २६. समय श्री २७. सुन्न सुनन्द श्री ३०. श्रेणि श्री ३१. जैन श्री ३४. भद्र श्री ३५. उवन श्री इस प्रकार श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज के श्री संघ में ७ साधु, ३६ आर्यिका माताजी के साथ-साथ २३१ ब्रह्मचारिणी (सुवनी) बहिनें तथा ६० ब्रह्मचारी व्रती श्रावक एवं १८ क्रियाओं का पालन करने वाले सद्ग्रहस्थ श्रावक लाखों की संख्या में थे । उनके शिष्यों की कुल संख्या ४३४५३३१ थी । यह संपूर्ण विवरण श्री नाममाला ग्रंथ में उपलब्ध है । ३६. पय उवन श्री श्री गुरुदेव तारण स्वामी साधु पद पर ६ वर्ष, ५ माह, १५ दिन तक प्रतिष्ठित रहे, पश्चात् विक्रम संवत् १५७२ की ज्येष्ठ वदी छठ को समाधि धारण कर सर्वार्थ सिद्धि को प्राप्त हुए। २१. रमन श्री २५. विन्द श्री २९. जान श्री ३३. लीन श्री २. श्री चंद्रगुप्त जी महाराज ४. श्री चित्रगुप्त जी महाराज ६. श्री जयकीर्ति जी महाराज विचार मत में - आचार मत में ४. हंस श्री ८. स्वयं दिप्ति श्री १२. विक्त श्री १६. हिय रमन श्री २०. उवन श्री २४. ममल श्री २८. हिययार श्री ३२. लवन श्री उन्होंने पाँच मतों में चौदह ग्रंथों की रचना की जो इस प्रकार हैं - श्री मालारोहण, पण्डितपूजा, कमलबत्तीसी जी। श्री श्रावकाचार जी । SYARAT YAAAAAT FAR AS YEAR. सम्पादकीय 10 श्री ज्ञान समुच्चय सार, उपदेश शुद्ध सार, त्रिभंगी सार जी । श्री चौबीस ठाणा, ममल पाहुड़ जी । श्री खातिका विशेष, सिद्ध स्वभाव, सुन्न स्वभाव, छद्मस्थवाणी तथा नाममाला ग्रंथ हैं। इन पाँच मतों में विचारमत में साध्य, आचारमत में - साधन, सारमत में - साधना, ममलमत में - सम्हाल ( सावधानी) और केवल मत में -सिद्धि का मार्ग प्रशस्त किया है। इसके लिये आधार दिया है क्रमश: भेदज्ञान, तत्वनिर्णय, वस्तुस्वरूप, द्रव्य दृष्टि और ममलस्वभाव का, जिनसे उपरोक्त साध्य आदि की सिद्धि होती है। सार मत में - ममलमत में - केवल मत में - यह अध्यात्म ज्ञान मार्ग अपने शुद्धात्म स्वरूप के आश्रय से ही प्रशस्त होता “है। इसमें पर पर्याय, कर्मादि संयोग, शरीर या बाह्य क्रियाकाण्ड यहाँ तक कि परमात्मा भी पर हैं, इनकी तरफ दृष्टि भी इस मार्ग में बाधा है, इसलिये श्री जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज पर की समस्त पराधीनता के लिये वज्रपात थे । वे समस्त बंधनों से परे होकर चले तथा वीतराग जिन धर्म के अनाद्यनन्त सिद्धांत वस्तु स्वातंत्र्य और पुरुषार्थ से मुक्ति की प्राप्ति का, स्वयं परमात्मा होने के विधान का शंखनाद किया। उनका जीवन गौरवपूर्ण था, वे छल-प्रपंच से बहुत दूर सत्य निष्ठ थे, भय का उनके जीवन में कहीं नाम निशान भी नहीं था। उनके द्वारा की गई अध्यात्म क्रांति उनकी वीतरागता, निस्पृहता, निर्भयता और जन-जन को धर्म और पूजा के नाम पर फैल रहे आडम्बर, जड़वाद, पाखण्डवाद से मुक्त कर सत्य अध्यात्म धर्म में स्थिर कर देने की भावना का परिणाम थी। उनकी विशुद्ध आध्यात्मिक परंपरा में ज्ञान मार्ग पर निरंतर अग्रणी, आत्म साधना के सतत् प्रहरी, अध्यात्म शिरोमणि पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज अहर्निश अपने आत्म चिंतन साधना में रत रहते हुए हम सभी भव्यात्माओं के आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं, यह हमारा महान सौभाग्य है। श्री गुरु तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज द्वारा विरचित चौदह ग्रंथों में से पूज्य श्री द्वारा अनूदित श्री मालारोहण ग्रंथ की अध्यात्म दर्शन टीका, श्री पण्डित पूजा ग्रंथ की अध्यात्म सूर्य टीका और श्री कमलबत्तीसी ग्रंथ की अध्यात्म कमल टीका का प्रकाशन हुआ, साथ ही अध्यात्म अमृत (चौदह ग्रंथ जयमाल एवं भजन), अध्यात्म आराधना, अध्यात्म भावना तथा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VA Our श्री बाचकाचार जी चौपड़ा (महाराष्ट्र) से अध्यात्म धर्म (धम्म आयरन फूलना-सार्थ ) का प्रकाशन हुआ, इस प्रकार सम्यक्दृष्टि का विशेष कथन करते हुए कहा है कि आत्मानुभवी सम्यक् ८ जिससे समाज में स्वाध्याय की रुचि और भावनायें जाग्रत हुई हैं । स्वाध्याय का एक श्रद्धानी ही धर्म के सत् स्वरूप को समझता है । इसे स्पष्ट करते हुए धर्म और अधर्म के । व्यवस्थित क्रम बना है। इसके साथ ही देश के कोने-कोने में दिगम्बर-श्वेताम्बर जैन लक्षणों का विवेचन किया है। श्री गुरु कहते हैं कि अपनी आत्मा का चैतन्य लक्षण स्वभाव तथा जनतर बधु भा लगन पूर्वक इन ग्रथा का स्वाध्याय मनन कर अपन आपका धर्म है, यही संसार से पार लगाने वाला है। इसके विपरीत अधर्म है जिसके पांच लक्षण सौभाग्यशाली समझ रहे हैं। इस साहित्य से देश के लोगों में श्री गुरुदेव को और उनको -चार विकथा. सातव्यसन. आठ मद. आर्त-रौद्रध्यान, अनंतानुबंधी कषाय, इनमें रत ' वाणी को जानने की जिज्ञासायें प्रबल हुईं हैं जो हमारे लिए प्रसन्नता और गौरव का गाव का होकर जीव पाप कर्मों का बंध करके संसार में जन्म-मरण करता है। अन्य विषयों के विषय है। ? अंतर्गत इस ग्रंथ और टीका में धर्म ध्यान के चार भेद, जिनागम के तीन लिंग, त्रिविध पूज्य श्री महाराज जी ने सन् १९९१-९२ में मौन साधना कर विशेष अनुभव रत्न उपलब्ध किये थे, यह टीकायें भी उसी साधना के अंतर्गत सहज ही लिपिबद्ध हो र आत्मा, सम्यक्ढष्टि की विशेषता, त्रेपन क्रियाओं का वर्णन, जघन्य श्रावक की अठारह गई, जो आज हमारे लिये मार्गदर्शक सिद्ध हो रहीं हैं। सहसाब्दि वर्ष २००० में तीन क्रियाओं का विशद् विश्लेषण, तीन पात्र और चार दान की महिमा का वर्णन स्यादवाद बत्तीसी जी के प्रकाशन के पश्चात् नई शताब्दि वर्ष २००१ के नवप्रभात के प्रारम्भ में पद्धति से किया गया है। पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज द्वारा अनूदित श्री त्रिभंगीसार जी ग्रंथ की अध्यात्म सम्यक्दृष्टि श्रावक दैनिक चर्या में षट् आवश्यक कर्मों का पालन करता है, यह प्रबोध टीका आपको स्वाध्याय हेतु उपलब्ध कराते हुए अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो। षट् कर्म का विवेचन श्री जिन तारण स्वामी के मौलिक चिंतन और विशेषताओं के रहा है। श्री गुरू तारण स्वामी द्वारा विरचित श्री श्रावकाचार जी ग्रंथ ४६२ गाथाओं में 5 साथ स्पष्ट हुआ है, जो अन्य श्रावकाचारों में नहीं मिलता। यहाँ षट् कर्म के दो भेद किये निबद्ध, आचार मत का ग्रंथ है। द्वादशांग वाणी के बारह अंगों में भी आचारांग नाम का हैं- शुद्ध षट् कर्म और अशुद्ध षट् कर्म, इनके पालनकर्ता, उसका परिणाम आदि विषय एक अंग है, जिसमें चर्या आचरण संबंधी उल्लेख है, तदनुसार ही 'कथितं जिनेन्द्रैः' को क्रम मनन करने योग्य है । इसी प्रसंग में शुद्ध षट्कर्म के अंतर्गत एक मोक्षमार्गी तारण प्रमाण करके श्री गुरू ने अनेकों रहस्य स्पष्ट किये हैं ; और हमारे महान सौभाग्य से पूज्य पंथी श्रावक किस प्रकार देवपूजा करता है ? यह स्पष्ट किया है । इस विधि में पचहत्तर श्री महाराज जी ने इस ग्रंथ की अध्यात्म जागरण टीका करके हम सभी भव्यात्माओं पर गुणों का विवेचन गाथा ३२३ से ३६६ तक है, जो देवपूजा के संबंध में समस्त मिथ्या परम उपकार किया है । टीका ग्रंथ में गाथाओं के हार्द को स्पष्ट कर पूज्य श्री ने यह ग्रंथ भ्रांतियों को ध्वस्त करने वाला है। इसमें देवपूजा का स्वरूप सहज ही स्पष्ट हो गया है। सभी के लिये सहज सरल बना दिया है। 3 'श्रावक चर्या' इस ग्रंथ का मूल प्रतिपाद्य विषय है; इसलिये अव्रती श्रावक की इस ग्रंथ में प्रथम चौदह गाथाओं में सच्चे देव गुरु शास्त्र का स्वरूप बताते हुए चर्या का विशद् विवेचन करके व्रती श्रावक की चर्या के अंतर्गत दर्शन आदि ग्यारह उनकी भक्ति पूर्वक बंदना करके ग्रंथ कहने की प्रतिज्ञा की है कि अव्रत सम्यकदृष्टि के प्रतिमाओं का अपूर्व साधना मय स्वरूप विश्लेषित किया गया है । ग्यारह प्रतिमा और लिये श्रावकाचार ग्रंथ कहूँगा। आगे स्पष्ट किया है कि सम्यक्दृष्टि श्रावक संसार, शरीर, " पांच अणुव्रतों का क्या संबंध है ? यह भी श्री गुरु ने करुणा करके समझाया है । ग्रंथ के भोगों से विरक्त रहता है, उसके जीवन में संसार में परिभ्रमण कराने वाले कारणों का अंतिम चरण में साधु पद में होने वाली वीतराग दशा, साधु चर्या का स्वरूप बताकर यह त्याग हो जाता है । सम्यक्दर्शन के पच्चीस दोषों से रहित सम्यक्दृष्टि श्रावक निर्मल निर्णय दिया है कि सम्यक्दर्शन होने पर ही धर्म का प्रारंभ होता है । सम्यक्दृष्टि अवती सम्यक्त्व का धारी होता है। श्रावक ही व्रती और महाव्रती होकर विकारों का त्याग करके धर्म शुक्ल ध्यान में लीन Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You श्री आचकाचार जी सम्पादकीय Oo होकर केवलज्ञानी होता हआ, सिद्धि मुक्ति को प्राप्त करता है । इस प्रकार संक्षेप में ग्रंथ संसार है। चार गति चौरासी लाख योनियों का परिभ्रमण, जन्म-मरण का चक्र ही संसार की विषय वस्तु का उल्लेख किया है, विशेष आनंद की उपलब्धि तो ग्रंथ का स्वाध्याय, है, जहां भय और दु:ख ही दु:ख भरा है। (गाथांश-१५) मनन करने पर ही होगी। क्षमा धर्म का नाश करने वाला क्रोध ही है । क्रोध का मूल आधार-बुरा लगना है, इस श्रावकाचार की विशेषता यह है कि "साध न्यान मयं ध्रुवं" अर्थात् अपनी मनचाही बात न होने से क्रोध आता है, कोई इच्छानुसार न चले तो क्रोध आता ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की श्रद्धा, साधना को श्रावक चर्या का आधार बनाया है, जिसका है, कोई नुकसान हो जाये, कोई अपमान कर दे तो क्रोध आ जाता है । बहिर्दृष्टि होने से अभिप्राय है कि द्रव्यानुयोग के आश्रय पूर्वक चरणानुयोग का विधान दिया है। ८. ही क्रोध आता है और जब तक क्रोध की तीव्रता रहती है तब तक धर्म का जागरण नहीं इसी ग्रंथ में स्वयं श्री गुरु ने कहा है कि हैं हो सकता, कुछ भी देखने में बुरा लगता है तब तक सम्यक्दर्शन नहीं हो सकता। जस्व संमिक्त हीनस्य, उग्रं तब ब्रत संजुतं । (गाथांश-२५) संजम क्रिया अकाऊंच,मूल बिना वृक्षं जथा ॥ २०८॥ * जिसमें निराकुलता निश्चितता रहे, सुख होवे वह धर्म है और जिसमें आकुलता, जिस जीव को सम्यकदर्शन नहीं है अर्थात् सम्यक्त्व से रहित जीव घोर व्रत आदि भय, चिन्ता हो, द:ख होवे वह सब अधर्म है। यही जीवन का प्रमुख विषय है, जिस पर को धारण करे; किन्तु उसकी संयम की समस्त क्रियायें अकार्यकारी हैं, उसका आचरण वर्तमान और भविष्य निर्भर है, अगर सत्य धर्म उपलब्ध हो जाये तो वर्तमान जीवन ऐसा ही है जैसे जड़ के बिना वृक्ष। में सुख, शांति, आनंदमय रहे और भविष्य में परमानंद मयी मुक्ति की प्राप्ति हो । यही कारण है कि श्री गुरु महाराज ने अव्रती सम्यक्दृष्टि के लिये यह ग्रंथ कहने (गाथांश-९७) की प्रतिज्ञा की है; क्योंकि सम्यक्दर्शन ज्ञान पूर्वक होने वाला आचरण ही सम्यक्चारित्र निज शुद्धात्मा को छोड़कर अन्य अचेतन द्रव्य में रत्नत्रय नहीं रहता है, रत्नत्रय नाम पाता ह । आत्म श्रद्धान अनुभव से रहित मात्र ऊपरी क्रियाय मोक्षमार्ग में कार्यकारी अर्थात् सुख, शांति, आनंद ; इसलिये रत्नत्रय मयी आत्मा को निश्चय से मोक्ष का नहीं हैं । शुभ-अशुभ क्रिया मात्र पुण्य-पाप बंध की कारण होती हैं, उससे धर्म का संबंध 5 कारण जानो, यही सत्य धर्म है। (गाथांश-१०६) नहीं है।'धर्मच आत्म धर्म इसी ग्रंथ के इस सूत्रानुसार धर्म तो मात्र आत्म धर्म ही है, मिथ्यात्व से जन्म-मरण होता है, मोह-राग से कर्म बंध होता है। जब तक अपने अन्य कुछ भी धर्म नहीं है । सम्यक्त्वी श्रावक ऐसे आत्म धर्म, सत्य धर्म का श्रद्धानी ई सत् स्वरूप शुद्ध तत्व निज शुद्धात्मा का श्रद्धान अनुभूति नहीं होती तब तक यह अनुभवी साधक होता है, यही धर्ममार्ग है। अहंकार-ममकार तो होते ही हैं। मिथ्यात्व अज्ञान दशा में कितने ही तप करो, अनेक आध्यात्मिक संत अध्यात्म शिरोमणि पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज ने इस शास्त्र पढ़ो परंतु उससे तपमद, ज्ञानमद ही बढ़ता है, आत्म कल्याण नहीं होता। ग्रंथ की अध्यात्म जागरण टीका में अव्रती और व्रती श्रावक की चर्या के संबंध में ग्रंथ (गाथांश-१५०) की गाथाओं के अभिप्राय और हार्द को अपनी सहज सरल सुबोध भाषा में स्पष्ट कर हम - द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म आदि पुद्गल द्रव्यों में अपनी कल्पना करना संकल्प भव्य आत्माओं के मोक्षमार्ग को प्रशस्त किया है। टीका में आये हुए कुछ अनुभूति पूर्ण है और ज्ञेयों के भेद से ज्ञान में भेदज्ञान होना विकल्प है ऐसा शुद्ध नय आत्म स्वभाव को अनमोल रत्न यहाँ चिन्तन मनन हेतु प्रस्तुत हैं प्रगट करता है। आत्मा पांच प्रकार से अनेक रूप दिखाई देता हैपरिवार के कारण-मोह, शरीर के कारण-राग, धन के कारण-द्वेष होता है, यही १. अनादिकाल से कर्म पुदगल के संबंध से बंधा हुआ, कर्म पुद्गल के स्पर्श Detakervedaki. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७% ॐ श्री आवकाचार जी वाला दिखाई देता है । २. कर्म के निमित्त से होने वाली नर-नारक आदि पर्यायों में भिन्न-भिन्न स्वरूप दिखाई देता है । ३. शक्ति के अविभाग प्रतिच्छेद (अंश) घटते भी हैं, बढ़ते भी हैं, यह वस्तु स्वभाव है इसलिये वह नित्य-नियत एक रूप दिखाई नहीं देता है । ४. दर्शन ज्ञान आदि अनेक गुणों से विशेष रूप दिखाई देता है । ५. कर्म के निमित्त से होने वाले मोह, राग-द्वेष आदि परिणामों कर सहित वह सुख-दु:ख रूप दिखाई देता है । (गाथांश - १६९) निर्विकल्प होना ही ममल स्वभाव में रहना है, वीतरागी ही निर्विकल्प हो सकता है। जहाँ मोह, राग-द्वेष है वहां वीतरागता है ही नहीं। मोह, राग-द्वेष के अभाव को ही वीतरागता कहते हैं यही ममल स्वभाव धर्म है। विशेष सूत्र - १. भेदज्ञान के अभ्यास से एकत्वपना मिटता है । २. तत्वनिर्णय के अभ्यास से अपनत्वपना मिटता है । ३. पाप-पुण्य के विकल्प प्रक्षालन से कर्तृत्वपना मिटता है । ४. तत्समय की योग्यता के निर्णय से चाह मिटती है । ५. सर्वज्ञ की सर्वज्ञता, क्रमबद्ध पर्याय के निर्णय से लगाव मिटता है तभी वीतरागता आती है, निर्विकल्प दशा होती है, वही ममल स्वभाव में रहना धर्म है। (गाथांश - १७३) सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान होना पुरुषार्थ का जागना है और सम्यक्चारित्र पुरुषार्थ करना है । दर्शनोपयोग का अपने स्वरूप को देखना और उस मय होना ही सम्यक्चारित्र है और यह व्यवहार चारित्र की शुद्धि होने पर ही होता है । द्रव्य संयम बगैर भाव संयम नहीं होता, श्रद्धान ज्ञान अलग बात है, चारित्र में निश्चय-व्यवहार का समन्वय आवश्यक है तभी सम्यक्चारित्र होता है । गाथांश- ३५५) इस प्रकार के अनेकों रहस्य पूज्य श्री ने इस टीका ग्रंथ में स्पष्ट किये हैं। अन्वयार्थ, विशेषार्थ, सम्यक्दृष्टि श्रावक की स्थिति, ज्ञानी साधक की चर्या, साधना के मार्ग में आगे बढ़ने का उपाय तथा साधक, जिज्ञासु के मन में सहज ही उत्पन्न होने वाले प्रश्नों का अपनी भाषा में समाधान करके गूढ रहस्यों को सरलता पूर्वक समझाया है । इस २७ JY GAA YA AYA. सम्पादकीय X प्रकार की रचनायें, टीकायें स्वाध्यायी मुमुक्षु भव्य आत्माओं के लिए विशेष उपलब्धि है। इन टीका ग्रंथों में क्या है ? यह रहस्य तो इनके स्वाध्याय चिंतन-मनन पूर्वक ही जाना जा सकता है। सिद्धांत, सत्य किसी मत पक्ष से बंधा नहीं होता, वह त्रैकालिक सत्य, एकरूप सार्वभौम होता है, जिसका निष्पक्ष दृष्टि से चिंतन करके ही उसे समझा जा सकता है । सामूहिक रूप से इन ग्रंथों का स्वाध्याय मनन करना तथा अपनी दृष्टि आत्मोन्मुखी बनाना, यही इन टीकाओं का यथार्थ सदुपयोग है । पूज्य श्री द्वारा अनूदित यह टीकायें आत्मार्थी जीवों के लिये विशेष देन है और उनका परम उपकार है कि इस विषम पंचम काल में हम सभी भव्यात्माओं के लिए सत्य वस्तु स्वरूप समझने और आत्म कल्याण करने का मार्ग प्रशस्त किया है। श्री श्रावकाचार जी ग्रंथ की प्रस्तुत " अध्यात्म जागरण टीका " का स्वाध्याय चिंतन-मनन करके सभी जीव सत्य धर्म और शुद्ध दृष्टि प्राप्त कर श्रावक की व्रती चर्या मय जीवन बनायें तथा सिद्धि मुक्ति के मार्ग पर चलकर इस दुर्लभ मनुष्य भव को सफल सार्थक करें यही पवित्र भावना है। श्री तारण तरण अध्यात्म प्रचार योजना केन्द्र ६१, मंगलवारा, भोपाल (म. प्र. ) दिनांक - ५.२.२००१ ब्र. बसन्त धर्म चर्चा का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है । भेदज्ञान के द्वारा जानकर जो इसका ध्यान करता है उसको प्रत्यक्ष अनुभूति में आता है कि यह शरीर आदि पुद्गल भिन्न है और मैं चैतन्य लक्षण जीव आत्मा भिन्न हूँ तथा यह कर्म भी मुझसे भिन्न हैं, मैं तो सिद्ध स्वरूपी परम ब्रह्म परमात्मा हूँ । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री श्रावकाचार जी चलते चरण Rao श्री संघ के बढ़ते चरण... ग्रंथों के मूल पाठ का संपादन श्री निसई जी तीर्थक्षेत्र पर सन् १९८६ में सम्पन्न हुआ। इस कार्य हेतु आध्यात्मिक क्रांति के जनक आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ब्र.श्री वसंत जी द्वारा महाराष्ट्र से विक्रम संवत् १५८५ से १६०० तक की लगभग २० हस्तलिखित जन-जन में अध्यात्म चेतना के प्राणों का संचार करने वाले वीतरागी संत थे। निष्पक्ष भाव से सत्य चौदह ग्रंथों की पाण्डुलिपियों फैजपुर (महाराष्ट्र) से लाई गई थीं, पश्चात् संवत् १५७२ की ममलपाहड धर्म का स्वरूप बताने वाले, अध्यात्म की अलख जगाने वाले ऐसे निस्पृह संत विरले ही होते हैं. और तीन बत्तीसी की दुर्लभ प्रति भी प्राप्त हुई थी, यह सभी प्रतियाँ निसई जी में सुरक्षित हैं। इसके उनके द्वारा सृजित चौदह ग्रंथ युगों-युगों तक जग जीवों का मार्गदर्शन करते रहेगे। पूज्य गुरुदेव की अलावा संपादन कार्य हेतु अन्य अनेक स्थानों से चौदह ग्रंथों की हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ मंगाई वाणी में संसार के मानव मात्र के लिए आत्म कल्याण करने, मुक्ति को प्राप्त करने का मंगलमय संदेश गइ था, जातपादन के पश्चात् ससम्मान यथास्थान लाटा दा गइ । आत्मसाधना क साथ-साथ सन् है, उन्होंने अपने ग्रंथों में वीतराग धर्म जिन सिद्धांत का अनभव प्रमाण कथन किया है। उनकी १९८८ में भ्रमण तथा सन् १९८९ में राष्ट्रीय स्तर पर तारण तरण अध्यात्म चज प्रवर्तन का सम्पूर्ण मंगलमय वाणी आत्म साधना की अनुभूतियों से ओतप्रोत जिनवाणी का सार है। है समाज में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र प्रांत में भ्रमण और गाँव-गाँव, नगर-नगर में पालकी जी पूज्य गुरुदेव की वाणी को जन-जन में प्रचार करने हेतु गुरुदेव के प्रति समर्पित साधक महोत्सव, सामाजिक संगठन, धर्म प्रभावना के अनेकों शुभ कार्य संपन्न हुए। इसी वर्ष ध्वज प्रवर्तन श्रीसंघ, अध्यात्म शिरोमणि आध्यात्मिक संत पूज्य श्री ज्ञानानंद जी महाराज के मार्गदर्शन में अपनी के अवसर पर सिलवानी में बा.ब. श्री सरला जी ने एवं बीना में बा.व. श्री उषा जी ने आजीवन आत्म साधना के मार्ग पर चलते हुए विभिन्न आयामों के माध्यम से सद्गुरू की वाणी को संपूर्ण देशब्रह्मचय व के माध्यम से सगरूकीवाणीको ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। में प्रचार-प्रसार करने में संलग्न है। साधक श्री संघ द्वारा निस्पृहवृत्ति पूर्वक अखिल भारतीय तारण सन् १९९० में भी भ्रमण और प्रभावना की निरन्तरता बनी रही। धर्म की महिमा प्रभावना समाज एवं संपूर्ण देश में किये जा रहे अध्यात्म धर्म प्रभावना कार्यों से समाज में अपूर्व जागरण, धर्म मात्र चर्चा और बाह्य औपचारिकताओं से नहीं होती, इसके लिये धर्म के आचरण की विशेषता होती निष्ठा, गुरूभक्ति, आम्नाय के प्रति समर्पण की भावना और संगठन निर्मित हुआ है, वहीं दूसरी ओर है। इसी भावना से सन् १९९१ में जबलपुर में ४९ दिवसीय पाठ, वेदी प्रतिष्ठा महोत्सव के अवसर हा इसा भावना स सन् १९९१ म जबलपुर म देश के कोने-कोने में गुरुवाणी की प्रभावना का योग बना है। पर पू.अ. श्री स्वरूपानन्द जी महाराज ने सातवीं प्रतिमा की दीक्षा ग्रहण की और आत्म कल्याण के इस महान कार्य का शुभारंभ करते हुए सन् १९८० से १९८४ के बीच साधकों ने समाज के मार्ग में अग्रसर हुए। श्री गुरु महाराज की वाणी की प्रभावना के निमित्त सन् १९९१ से १९९६ तक विभिन्न अंचलों में अनेक समूहों में भ्रमण कर सामाजिक जागरण और धर्म प्रभावना का बीजारोपण पूज्य व. श्री बसंतजी महाराज ने सम्पूर्ण देश में भ्रमण कर भारतवर्ष में दिगम्बर-श्वेताम्बर, किया था। इसके साथ ही अध्यात्म क्रांति का सूत्रपात तब हुआ जब सन १९८४ में बरेली (म.प्र.) जैन-अजैन सभी वर्गों में गुरुवाणी का शंखनाद किया, जिससे सम्पूर्ण भारतवर्ष में तारण समाज की में आयोजित श्री मालारोहण शिविर में दिनांक ७ फरवरी १९८४, बसंत पंचमी को पूज्य श्री पहिचान बनी। ज्ञानानन्द जी महाराज की सप्तम प्रतिमा की दीक्षा हुई तथा अनेक भव्य आत्माओं ने ब्रह्मचर्य व्रत : श्री संघ के बढ़ते चरण निरंतर गतिमान होते गए तथा सन् १९९६ में ही गंजबासौदा में लेकर प्रभावना में सहयोग करने का संकल्प किया। इसी वर्ष पूज्य ब. श्री सुशीला बहिन जी पीना "तारण की जीवन ज्योति" का प्रभावना पूर्णवांचन, श्री संघ की स्थापना एवं दिनांक ७.१.१९९६ ने भी सातवीं प्रतिमा की दीक्षा ग्रहण की। यह क्रम शनैः-शनै: वृद्धि को प्राप्त होने लगा और सन् * रविवार को प्र. श्री आत्मानन्द जी की सातवीं प्रतिमा की दीक्षा, अ. मुन्नी बहिन जी का ब्रह्मचर्य व्रत १९८५ में पू.व. श्री वसंतजी महाराज एवं स्व. पू.अ. श्री सहजानन्द जी महाराज (बाबाजी) ने जन तथा अन्य भव्य जीवों द्वारा ब्रत नियम संयम लिये गए, पश्चात् लगभग २०० श्रावक-श्राविकाओं जागरण अभियान के अंतर्गत समाज के प्रत्येक नगर और गाँव-गाँव जाकर सामाजिक जागरण और 5 का संघ पदयात्रा पूर्वक श्री सेमरखेड़ी जी पहुंचा, वह अभूतपूर्व प्रभावना का अवसर था। इसी वर्ष । धर्म प्रभावना की, इससे अनेक उपलब्धियाँ हुईं। इसी वर्ष पिपरिया में ब्रह्मानन्द आश्रम की स्थापना होशंगाबाद में ब्र. बसंतजी एवं ब्र. आत्मानन्द जी के वर्षावास समापन अवसर पर या.ज. नंदश्री (रचना) ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का संकल्प कर अपना जीवन धर्म के लिये समर्पित किया। इन सभी व्यवस्थित कार्यों के होने से प्रभावना की विशेष कड़ियाँ जुड़ने लगीं, इसी क्रम में श्री गुरु महाराज की आम्नाय और आत्म कल्याण की भावना से समर्पित साधक श्री संघ का एक विशिष्ट उपलब्धि के रूप में चिर प्रतीक्षित श्री गुरुदेव तारण तरण स्वामी जी द्वारा विरचित चौदह सन् १९९७ में देश व्यापी अध्यात्म चक्र भ्रमण कार्यक्रम संपन्न हुआ। भमण और प्रभावना की Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You श्री आचकाचार जी बढ़ते चरण O ur विशेष श्रृंखला में सन १९९८ में अखिल भारतीय तारण समाज के स्थानों पर "संस्कार शिविरों" हैं, यह सत साहित्य देश के कोने-कोने में अध्यात्म धर्म की धूम मचा रहा है। के आयोजन से सामाजिक परिवेश में अपूर्व क्रांतिकारी परिवर्तन, संगठन, प्रभावना एवं संस्कार साहित्य प्रकाशन प्रभावना के साथ-साथ आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि सन् १९९१ जागरण हुआ। संस्कार शिविर श्रृंखला के भोपाल में प्रभावना पूर्ण समापन के पश्चात् श्री संघ का , से २००० के बीच जियागंज, कलकत्ता, भीलवाड़ा, अजमेर, भोपाल, बीना, छिन्दवाड़ा आदि वर्षावास श्री सेमरखेड़ी जी तीर्थ क्षेत्र पर हुआ। इसमें चौदह ग्रंथों का ४९ दिवसीय वाचन समारोह स्थानों पर अध्यात्म रत्न वा. व. पूज्य बसंत जी के मधुर स्वरों में- भजन, फूलना, मालारोहण, तथा तारण की जीवन ज्योति का वाचन हुआ। इस महा महोत्सव के समापन अवसर पर दिनांक तत्वार्थ सूत्र, देव गुरु शास्त्र पूजा, चौदह ग्रंथ जयमाल, बारह भावना, बाहुबली वैराग्य (आल्हा, ५.९.९८ अनंत चतुर्दशी को पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज ने दसवीं अनुमति त्याग प्रतिमा की गायन शैली) आदि अनेकों कैसेट बनाए गए, जो सम्पूर्ण देश में प्रभावना के साधन बने हैं। दीक्षा धारण की तथा बाल ब्र.श्री शांतानन्द जी ने एवं स्व.व. श्री सहजानन्द महाराज (बाबाजी) ने जून माह सन् २००० में तारण तरण श्री संघ की चारों तीर्थ क्षेत्रों की तीर्थ वंदना यात्रा सप्तम ब्रह्मचर्य प्रतिमा की दीक्षा ग्रहण की, इसके साथ ही अन्य १०० भव्य जीवों ने व्रत, नियम, सैकड़ों साधर्मी गुरु भाइयों के साथ अत्यंत प्रभावना पूर्वक सम्पन्न हुई जो चिर स्मरणीय संयम लिये, जागरण का वह अपूर्व अवसर चिर स्मरणीय रहेगा। इसी वर्ष महात्मा गोकुलचंद तारण रहेगी। इसी वर्ष सिरोंज की वेदी प्रतिष्ठा में दिनांक ११.१२.२००० को व. श्री परमानन्द जी साहित्य प्रकाशन समिति की स्थापना हुई। सातवीं प्रतिमा धारण कर संयम के मार्ग में अग्रसर हुए। प्रभावना की इन विभिन्न श्रृंखलाओं के बीच पूज्य श्री के सान्निध्य में ब्र. श्री नेमी जी की नई शताब्दी का शुभारम्भ आदरणीय व.श्री नेमी जी की दीक्षा से हुआ, उन्होंने श्री सेमरखेड़ी प्रेरणा से बा.ब. श्री बसंत जी महाराज द्वारा- बरेली, सिलवानी, गंजबासौदा, जबलपुर, सेमरखेड़ीजी तीर्थक्षेत्र पर बसंत विराग महोत्सव में तिलक के अवसर पर दिनांक ३१.१.२००१ को सप्तम जी में चौदह ग्रंथों के ४९ दिवसीय पाठ किये गए, जिससे गुरुवाणी की महिमा प्रभावना में वृद्धि हुई ब्रह्मचर्य प्रतिमा की दीक्षा ग्रहण की। तथा साधकों के वर्षों से विभिन्न स्थानों पर हो रहे वर्षावास से अनेक उपलब्धियाँ सहज ही हो, श्री गुरु महाराज की प्रभावना का शुभ योग बना है और यह सब प्रभावना सहज ही हो रही रही हैं। है, मनुष्य भव आत्मसाधना, आत्मकल्याण के लिए मिला है, इसमें भेदज्ञान, तत्व निर्णय का वर्ष १९९९ भी श्री संघ के बढ़ते चरण में एक सोपान के रूप में सहयोगी बना । इस वर्ष अभ्यास ही कल्याणकारी है, स्वयं गुरु महाराज ने हमें अध्यात्म मार्ग में दृढ़ होने की प्रेरणा दी है, तारण तरण अध्यात्म क्रांति जन जागरण अभियान के अंतर्गत सभी साधक बंधु एवं ब्रह्मचारिणी क्योंकि यही धर्म साधना का आधार है इसी से आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है, इसलिए अंत बहिनों ने नगर-नगर, गाँव-गाँव भ्रमण कर सम्पूर्ण समाज में अध्यात्म और गुरुवाणी की अलख में यही निवेदन है किजगाई, जिससे सामाजिक, धार्मिक सभी कार्य सहज ही बने और विशेष प्रभावना हुई। दो पातन को याद रखो,जो चाहो कल्याण । साहित्य प्रकाशन व प्रभावना की कड़ी में यह वर्ष विशेष साधक सिद्ध हआ। वैसे तो साहित्य । तत्व निर्णय को हृदय घर, करो मेदविज्ञान ॥ के क्षेत्र में ब्रह्मानन्द आश्रम पिपरिया से विगत वर्षों में साहित्य प्रकाशन होता रहा तथा ३१ मार्च इस धर्म साहित्य का स्वाध्याय चिंतन मनन कर सभी जीव अपने जीवन को सम्यक् दर्शन १९९९ को भोपाल में श्री तारण तरण अध्यात्म प्रचार योजना केन्द्र की स्थापना हुई और तीव्र गति ज्ञान चारित्र मय बनाकर आत्म कल्याण का पथ प्रशस्त करें, यही शुभ भावना है। से साहित्य प्रकाशन हो रहा है, इस क्रम में पूज्य श्री गुरु महाराज के ग्रंथों की- पूज्य श्री द्वारा की गई तीन बत्तीसी श्री मालारोहण, पंडितपूजा, कमलबत्तीसी जी की टीका, अध्यात्म अमृत (चौदह ग्रंथ ब्र. आत्मानन्द २. गंजबासौदा 5 दिनांक -१९.३.२००१ संयोजक जयमाल एवं भजन), अध्यात्म किरण (जैनागम १००८ प्रश्नोत्तर ) तथा पूज्य ब. श्री बसंतजी तारण तरण श्री संघ महाराज द्वारा सृजित अध्यात्म आराधना देव गुरु शास्त्र पूजा, अध्यात्म भावना का हजारों की संख्या में प्रकाशन हो चुका है। चौपड़ा (महाराष्ट्र) से अध्यात्म धर्म-धर्माचरण फूलना सार्थ का निश्चय नय के अभिप्राय अनुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिये तन्मय होना ही निश्चय सम्यक्चारित्र है, ऐसे चारित्रशील योगी को प्रकाशन भी इसी श्रृंखला की एक कड़ी है । अत्यंत प्रसन्नता है कि सन् २००० इस शताब्दी का | ही निर्वाण की प्राप्ति होती है। समापन हम श्री तारण तरण श्रावकाचार जी और श्री त्रिभंगीसार जी ग्रंथ के प्रकाशन के साथ कर रहे Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय वस्तु O0 श्री तारण तरण श्रावकाचार विषय वस्तु : गागर में सागर Sou श्री श्रावकाचार जी अपनी बात सन् १९८8 बसंतपंचमी परदीक्षा के बाद ज्ञान ध्यान साधनास्वाध्याय आदिचलता रहा, सन् १९८६ में तीर्थक्षेत्र श्री निसईजीमल्हारगढ़ में अध्यात्म वाणी जी का संपादन हुआ, जिसमें विक्रम संवत् ११७२-१५८५ की हस्तलिखित चौदह गंथों की प्रतियों से मिलान कर संशोधन किया गया, उस समय इन गथों को पढ़ने समझने का विशेष अवसर प्राप्त हुआ तथा उसी समय से ऐसी भावना हुई कि गुरु गंथों की विशिष्ट टीकायें होना चाहिये। इसी बीच श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचारकी श्रीपं. सदासुखदासजी द्वारा की गई टीका के स्वाध्याय करने का योग बना, टीका पढ़ते-पढ़ते पुन: ऐसे भाव आये कि श्री गुरु महाराज के श्रावकाचार की भी ऐसी टीका होना चाहिये। ब. नेमीजी से चर्चा हुई, उन्होंने टीका लिखने के लिये प्रोत्साहन दिया और सहज में टीका लिखने का योग बन गया। विशेष योग्यताऔरपढ़े लिखेन होने के कारण बहुत सावधानी रखते है हए आगम गंथों के आधार से टीका लिखने का प्रयास किया है। श्री गुरुमहाराज की अध्यात्म दृष्टि साधना का अनुभव तथा वर्तमान समय में धर्म के नाम पर होने वाले बाह्य आडम्बर कियाकाँड से हटकर सत्य धर्म साधना, अध्यात्म दृष्टि, सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग: का वास्तविकस्वरूपक्या है? वह इस श्रावकाचारगंथ में निश्चय-व्यवहार के समन्वय पूर्वक प्रतिपादित किया है। अपनी बुद्धि और पात्रतानुसार बहुत सावधानी से टीका करने का प्रयास किया है फिर भी भूल औरगल्तियाँ होना स्वाभाविक है, पहला प्रयास है। विज्ञजन ज्ञानी साधक भूल सुधार कर पढ़ेंगे, जो गल्तियाँ हो उससे अवगत करायेंगे तथा श्री गुरुमहाराज के अनुभव का लाभ लेते हुए अपने जीवन में सत्यधर्म और संयम काबीजारोपण करमुक्तिमार्ग प्रशस्त करेंगे ऐसी पवित्र भावना है, गल्तियों के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ। tododernetsadeiral १. देव गुरु शास्त्र को उनके स्वरूप सहित नमस्कार - गाथा १ से १४ तक २. अव्रत सम्यक्दृष्टि द्वारा वस्तु स्वरूप का चिन्तन गाथा १५ से ४६ तक ३. आत्मा के तीन रूप और उनका स्वरूप गाथा ४७ से १९४ तक बहिरात्मा का स्वरूप गाथा ५० से १६७ तक अन्तरात्मा का स्वरूप गाथा १६८ से १९४ तक ४. अन्तरात्मा के तीन लिंग और त्रेपन क्रियाओं का वर्णन गाथा १९५ से ४६० तक अ.जघन्यलिंग अव्रत सम्यक्दृष्टि का आचरण, अठारह क्रियाओं का पालन गाथा १९५ से ३७५ तक ब. मध्यमलिंग व्रती सम्यक्दृष्टि का आचरण, ग्यारह प्रतिमा, पाँच अणुव्रत गाथा ३७८ से ४४४ तक स. उत्तमलिंग महाव्रती रत्नत्रय के साधक साधु का आचरण गाथा ४४५ से ४६० तक ५. ग्रन्थ रचना का उद्देश्य गाथा ४६१ से ४६२ तक २ बरेली, दिनांक-६.१.२००१ ज्ञानानन्द Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७५-९० ९१,९२ ९३-९७ गाथा + १-७ 0 TOP 18 १८-२२ २३-२७ 04 श्री आवकाचार जी विस्तृत विषयानुक्रम विषय जयमाल मंगलाचरण. देव का स्वरूप और नमस्कार गुरू का स्वरूप और नमस्कार जिनवाणी का स्वरूप और नमस्कार अव्रत सम्यकदृष्टि के लिये श्रावकाचार का कथन : प्रतिज्ञा वैराग्य भावना चिन्तन. संसार का स्वरूप शरीर का स्वरूप भोगों का स्वरूप संसार भ्रमण का कारण- तीन मिथ्यात्व चार कषाय - लोभ , क्रोध, मान , माया तीन मूढता - लोक मूढता, देव मूढता, पाखंड मूढता दु:ख के कारण-शंकादि आठ दोष, आठ मद आदि मिथ्यात्व की महिमा वैराग्य भावना सप्त प्रकृति का क्षय सम्यक्त्व का उदय सम्यक्दृष्टि की श्रद्धा आत्मा के तीन रूप और उनका स्वरूप. आत्मा तीन प्रकार कहा गया है परमात्मा का स्वरूप अन्तरात्मा का स्वरूप बहिरात्मा का स्वरूप बहिरात्मा की विशेषता कुदेव और मिथ्या देव की मान्यता अदेव की पूजा भक्ति सद्गुरू का स्वरूप Deytaservedadi.erupeetaas.erveytable ९८,९९ १०० १०१.१०२ १०३ १०४-१०६ १०७ १०८ १०९-११२ ११३-११७ ११८ ११९-१२८ १२९-१३४ १३५-१४२ १४३,१४४ १४५-१५० १०. विषयानुक्रम विषय २५. कुगुरु की मान्यता और उसका फल कुगुरु के बन्धन से कुधर्म का सेवन अधर्म को धर्म मानना संसार का कारण अधर्म के लक्षण. विकथा स्त्री कथा राज कथा भोजन (भय कथा) चोर कथा सात व्यसन, विकथा और व्यसन का संबंध जुआँ खेलना क्या है? मांस भक्षण क्या है? मद्य पान किसे कहते हैं ? ३७. वेश्यागमन क्या है? शिकार खेलना क्या होता है? चोरी करना क्या है? पर स्त्री रमण क्या है? आठ मद आठ मद के नाम और उनका स्वरूप (जाति, कुल,रूप, अधिकार, ज्ञान , तप, बल , विद्या) अनन्तानुबंधी कषाय लोभ किसे कहते हैं ? मान क्या है? माया कैसी होती है? क्रोध क्या है? अधर्म विवेचन की अंतिम गाथा शुद्ध धर्म क्या है जो अन्तरात्मा को होता है. शुद्ध धर्म का वर्णन धर्म ध्यान क्या है? उत्तम क्षमा ममल धर्म १११ ५३. उत्तम धर्म ५४. धर्म का क्या प्रयोजन है? ११४ ११. १२. १३. १५१ १५२-१५४ १५५-१६० १६१-१६५ १६६ १६७ ३४-४६ CHANCHAL २१. २२. २३. २४. ५२. ५१ ५२-५९ ६०-६४ ६५-७४ १६८,१६९ १७०,१७१ १७२ १७३ १७४ १७५,१७६ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय गाथा १७७ १७७-१८२ १८३,१८४ १८५-१८७ १८८,१८९ १९०-१९४ १६८ १२३ १६८ १९५ १९६ १७० १९७ विषय धर्म ध्यान के चार भेद ११५ पदस्थ ध्यान का स्वरूप ११५ पिंडस्थ ध्यान का स्वरूप ११८ रूपस्थ ध्यान का स्वरूप १२० रूपातीत ध्यान का स्वरूप १२२ सम्यक्दृष्टि की विशेषता अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि के तीन लिंग और त्रेपन क्रिया. तीन लिंग-उत्तम, मध्यम, जघन्य उत्तम जिनरूपी, मध्यम मति श्रुत वाला श्रावक, जघन्य तत्व श्रद्धानी सम्यक्दर्शन की विशेषता से ही यह तीन लिंग कहे हैं जघन्य अव्रती-अठारह क्रियाओं का १३२ पालन करने वाला है अठारह क्रियाओं के नाम-धर्म की सच्ची श्रद्धा, १३२ आठ मूलगुण, चार दान, रत्नत्रय की साधना रात्रि भोजन त्याग, पानी छानकर पीना पैतीस क्रिया - (ग्यारह प्रतिमा, बारह व्रत, १३२ बारह तप) सच्ची श्रद्धा, अटल विश्वास होना, पाँच सम्यक्त्व १३४ का स्वरूप अठारह क्रियाओं में प्रथम सम्यक्त्व का स्वरूप १३५ अष्ट मूल गुण : पाँच उदम्बर, तीन मकार १४९ रत्नत्रय की साधना. १५३ सम्यक्दर्शन का स्वरूप, तीन मूढता आदि १५४ पच्चीस दोषों से रहित. सम्यक्ज्ञान और स्वरूपाचरण चारित्र का अभ्यास १५९ ७३. तीन पात्रों को चार प्रकार का दान देना १६२ ७४. उत्तम पात्र -निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु १६२ ७५. मध्यम पात्र - देशव्रती श्रावक १६३ ७६. जघन्य पात्र - अव्रत सम्यक्दृष्टि श्रावक १६४ ७७. पात्र दान का फल और सम्यक्त्व की महिमा १६६ Kerrervedakorrenvedoeserrervedaki. १९८ १९९,२०० विषयानुक्रम COOO गाथा अट्ठावन लाख योनियों से छूट जाना १६६ २६८ पात्र दान से दु:खों का अभाव १६६ २६९ चार प्रकार का दान और दान की महिमा १६७ २७०-२७२ (ज्ञानदान, आहारदान, औषधिदान, अभयदान) पात्रदान की महिमा, विशेषता २७३ पात्र और कुपात्र दान का विचार १६८ २७४ कुपात्र की पहिचान १६८ २७५ कुपात्र दान का फल १६८ २७६ पात्र और कुपात्र दान फल का भेद २७७ पात्र दान की भावना का फल १६८ २७८-२८३ कुपात्र दान की भावना का फल २८४,२८५ पात्र दान की शुद्धता का परिणाम १७१ २८६-२८९ मिथ्यादृष्टि का दान, पात्र ग्रहण नहीं करता १७२ २९०-२९५ मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की महिमा १७३ २९६ और विशेषता रात्रि भोजन त्याग का स्वरूप १७४ २९७-३०३ पानी छानकर पीना ३०४-३०६ गृहस्थ श्रावक के षट्कर्म. षट्कर्म शुद्ध और अशुद्ध के भेद से १७७ ३०७ दो प्रकार के होते हैं शुद्ध और अशुद्ध षट्कर्म की मान्यता १७७ ३०८,३०९ तथा उसका परिणाम अशुद्ध षट्कर्म. अदेव पूजा ३१०,३११ १ ९६. कुगुरुकी मान्यता ३१२,३१३ ४ ९७. अशुद्ध स्वाध्याय का स्वरूप ३१४ अ ९८. अशुद्ध संयम का स्वरूप ३१५ 5 ९९. अशुद्ध तपका स्वरूप ३१६ १००. अशुद्ध दान का स्वरूप ३१७ १०१. अशुद्ध षट्कर्म का परिणाम ३१८,३१९ शुख षट्कर्म, १०२. शुद्ध षट्कर्म का स्वरूप ३२० १०३. शुद्ध षट्कर्म के नाम (देवपूजा, गुरू उपासना, १८४ ३२१,३२२ १७६ २०१ २०३-२२४ २२५-२३४ २३५ २३६-२४९ २५०-२५५ २५६ २५७-२५९ २६०-२६३ २६४-२६६ २६७ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम गाथा पा २२० २२२ २३१ १८५ १९५ २०० २०० २०० २०१ ३२३-३३९ ३४०-३४५ ३४६ ३४७ ३४८,३४९ ३५०-३५३ ३५४,३५५ ३५६, ३५७ ३५८ ३५९-३६४ श्री आचकाचार जी विषय शास्त्र स्वाध्याय, संयम, तप, दान) १०४. देव और देव पूजा का स्वरूप कथन १०५. पंच परमेष्ठी पद की आराधना १०६. श्रुत पूजा का स्वरूप १०७. चार अनुयोग १०८. प्रथमानुयोग का स्वरूप १०९. करणानुयोग का स्वरूप ११०. चरणानुयोग का स्वरूप १११. द्रव्यानुयोग का स्वरूप ११२. चारों अनुयोगों को जानने का फल ११३. श्रेष्ठ सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की आराधना ११४. पचहत्तर गुणों से देव पूजा की सम्पन्नता ११५. गुरू उपासना का स्वरूप ११६. स्वाध्याय का स्वरूप ११७. संयम का स्वरूप ११८. तप का स्वरूप ११९. दान का स्वरूप १२०. शुद्ध षट्कर्म पालन का परिणाम मध्यम लिंग देशव्रती सम्यक्दृष्टि श्रावक. १२१. ग्यारह प्रतिमा और पांच अणुव्रत का पालन करने से व्रती श्रावक होता है १२२. ग्यारह प्रतिमाओं के नाम १२३. पांच अणुव्रतों के नाम १२४. दर्शन प्रतिमा का स्वरूप (पच्चीस दोष रहित) १२५. तीन मूढता रहित १२६. छह अनायतन रहित २ १२७. आठ मद और आठ शंकादि दोष रहित १२८. तीन कुज्ञान रहित 7१२९. शुद्ध सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र से संयुक्त होने की महिमा १३०. सम्यक्दर्शन से रहित व्रत तप संयम तथा अनेक पाठ पढ़ना, अनेक क्रिया करना, दान देना व्यर्थ है २०७ २०८ २०८ २०९ SOON गाथा ४००-४०४ ४०५ ४०६,४०७ ४०८-४१४ ४१५-४१७ ४१८,४१९ ४२०-४२५ ४२६-४३१ ४३२ ४३३ ४३४,४३५ ४३६ ४३७ ४३८ ४३९ ४४० ४४१,४४२ ४४३ ४४४ ३६५, ३६६ ३६७, ३६८ ३६९, ३७० ३७१,३७२ ३७३ ३७४ ३७५-३७७ reatreoniorrectarekriorrectaneonorrector विषय १३१. शुद्ध दृष्टि का जागरण ही सार्थक कार्यकारी है १३२. व्रत प्रतिमा का स्वरूप १३३. सामायिक प्रतिमा का स्वरूप १३४. प्रोषधोपवास प्रतिमा का स्वरूप १३५. सचित्त प्रतिमा का स्वरूप १३६. अनुराग भक्ति प्रतिमा का स्वरूप १३७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा का स्वरूप ११३८. आरम्भ त्याग प्रतिमा का स्वरूप १३९. परिग्रह त्याग प्रतिमा का स्वरूप १४०. अनुमति त्याग प्रतिमा का स्वरूप १४१. उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा का स्वरूप १४२. ग्यारह प्रतिमा जिन नाम कही १४३. पंच अणुव्रत के नाम, उनकी पूर्णता १४४. अहिंसाणुव्रत का स्वरूप २१४५. सत्याणुव्रत का स्वरूप १४६. अचौर्याणुव्रत का स्वरूप १४७. ब्रह्मचर्याणुव्रत का स्वरूप * १४८. परिग्रह प्रमाण अणुव्रत का स्वरूप १४९ अणुव्रतों का पालन करने वाला उत्कृष्ट श्रावक होता है उत्तम लिंग नियन्ध वीतरागी साधु. १५०. रत्नत्रय से संयुक्त वीतरागी साधु १५१. महाव्रती साधु पूर्ण त्रेपन क्रियाओं का पालन करने वाला होता है १५२. ध्यान योग की साधना १५३. साधु संयमी होता है १५४. साधु महाव्रती होता है 5 १५५. साधु धर्म ध्यान से संयुक्त जिन वचनों का प्रकाश करने वाला होता है १५६. साधु तीन मिथ्यात्व, तीन कुज्ञान और राग-द्वेषआदि से मुक्त होता है १५७. साधु स्वयं तरने वाला और भव्य जीवों को तारने वाला होता है २१२ ३७८ २४५ २४६ ४४५ ४४६ २१३ २१४ २१४ २४८ ३७९,३८० ३८१ ३८२ ३८३-३८५ ३८६-३८८ ३८९ ३९० ३९१-३९७ ४४७ ४४८ ४४९ ४५० २१६ २४८ २१७ २४८ ४५१ raPAG २१९ ३९८,३९९ २५० ४५२ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 कल्याण कल्याण ध्रुव तत्व शुद्धातम हूँ मैं, इसका ज्ञान श्रद्धान किया। त्रिकाली पर्याय क्रमबद्ध, इसको भी स्वीकार लिया । ज्ञायक ज्ञान स्वाभावी चेतन,खुद आतम भगवान है। ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है । २५३ २५३ 0 श्री आचकाचार जी क्र. विषय गाथा १५८. मन और भावों की शुद्धता ४५३ १५९. रत्नत्रय की साधना से मनः पर्यय ज्ञान ४५४ की प्राप्ति १६०. साधु अरिहंत पद का साधक होता है २५० ४५५,४५६ १६१. अरिहंत सर्वज्ञ पद, केवलज्ञान की प्राप्ति ४५७,४५८ १६२. शाश्वत अविनाशी सिद्ध ध्रुव पद की सिद्धि ४५९ १६३. शुद्ध सम्यक्त्व सहित जो जीव परमेष्ठी ४६० पद की साधुना करेंगे वे कर्मों को क्षय करके मोक्षगामी होंगे। १६४. तीन प्रकार के पात्रों का स्वरूप कहा,जो २५३४६१ भव्य जीव अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की साधना करेंगे वह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष स्वरूप परमेष्ठी पद को प्राप्त करेंगे। १६५. आनन्द परमानन्द की प्राप्ति हो, मुक्ति मार्ग ४६२ पर चलकर अविनाशी शाश्वत सिद्ध पद मिले इसी एक उद्देश्य से जिन तारण ने इस श्रावकाचार ग्रंथ की रचना की है। १६६. ध्रुव तत्व वंदना और सम्यकदृष्टि का विवेक २५५ १६७. व्रत परिचय (अणुव्रत और महाव्रत) २५६ १६८. पदवी सतक्षरी- तारण पंथ अर्थात् मोक्षमार्ग की। २५७ आध्यात्मिक साधना पद्धति का विधान १६९. साधक की स्थिति २५८ १७०. रत्नत्रय सिखांत सूत्र २५९-२६८ १७१. आध्यात्मिक भजन २६९-२८६ १७२. तारण की जीवन ज्योति : संक्षिप्त परिचय २८७-२९८ वस्तु स्वरूप सामने देखो, शुद्ध तत्व का ध्यान धरो । पर पर्याय तरफ मत देखो, कर्मोदय से नहीं डरो ॥ ध्रुव तत्व की धूम मचाओ, पाना पद निर्वाण है। ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है ॥ सिद्धोहं सिद्ध रूपोहं का, शंखनाद जयकार करो । अभय स्वस्थ्य मस्त होकर केसाधू पद महाव्रत धरो । अब संसार तरफ मत देखो, सब ही तो श्मशान है। ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है ।। ज्ञेय मात्र सब ही भ्रांति है, भावक भाव भ्रम जाल हैं। पर्यायी अस्तित्व मानना, यही तो सब जंजाल है ।। निज सत्ता स्वरूप को देखो, कैसा सिद्ध समान है। ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है ।। मन के अन्दर ही भगवान पूर्णानन्द का नाथ विराजमान है। वह सर्वोत्कृष्ट आश्चर्यकारी है । वह सर्वोत्कृष्ट परमेष्ठी है। अपरिमित, अमर्यादित, ज्ञान दर्शन आदि अनन्त शक्तियों का पिंड सर्वोत्कृष्ट आत्मा है। ऐसे महिमामय निज तत्व को जो दृष्टि स्वीकार करती है वह शुद्ध दृष्टि है। छहों खंड चक्रवर्ती राजा, तीर्थंकर महावीर हुए। कौन बचा है यहां बताओ, राम कृष्ण भी सभी मुए । अजर अमर अविनाशी चेतन, ज्ञायक ज्ञान महान है। ममल स्वभाव में लीन रहो, बस इसमें ही कल्याण है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २. ३. ४. ५. ६. श्री आवकाचार जी श्री श्रावकाचार जी जयमाल देवों के जो देव परम जिन, परमातम कहलाते हैं । नमन सदा हम करते उनको, जो सत्मार्ग बताते हैं । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण ही मुक्ति का आधार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ " भेदज्ञान से स्व पर जाना, वह अव्रत सम दृष्टि है । पाप विषय कषाय में रत है, अभी जगत में गृहस्थी है ॥ अन्याय अनीति अभक्ष्य का त्यागी, वह नर जग सरदार है। सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ जो पच्चीस मलों का त्यागी, शुद्ध सम्यक्त्वी होता है । अठदश क्रिया का पालन करता, विषय-कर्ममल धोता है ॥ सप्त भयों से मुक्त हो गया, निःशंकित सदा उदार है। सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ श्रद्धा विवेक क्रिया का पालक, वह श्रावक कहलाता है । द्वादशांग का सार जानता, धर्म-कर्म बतलाता है । उपाध्याय पदवी का धारी, रहा न मायाचार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ धर्मध्यान व्रत संयम करता, मक्ति का अभिलाषी है। दृष्टि में शुद्धातम दिखता, अभी जगत का वासी है । परमारथ में रुचि लगी है, खलता अब घरद्वार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ षट् आवश्यक शुद्ध पालता, मुक्ति के जो कारण हैं । व्यर्थ आडम्बर छूट गया सब उसके सद्गुरु तारण हैं ॥ " sexdawei jaberrys.cimyoca १६ ७. ८. ९. जयमाल सहजानंद में रत रहता है, शुद्ध आचार-विचार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ ज्ञानानंद स्वभाव का रुचिया, अब व्रत प्रतिमा धरता है । पंच अणुव्रत ग्यारह प्रतिमा, निजहित पालन करता है ॥ ख्याति लाभ पूजादि चाह का, जहाँ न अंश विकार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ शक्ति अनुसार मार्ग पर चलता, निस्पृह जगत उदासी है। अपने में आनन्दित रहता, वह शिवपुर का वासी है ॥ ब्रह्मचर्यरत रहता हरदम, सम्यक् ही व्यवहार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ निश्चय व व्यवहार शाश्वत, दोनों का ही ज्ञाता है । त्रेपन क्रियाओं का पालक, आचार्य पदवी पाता है । निश्चय धर्म शुद्ध आतम ही, जिसका एक आधार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ १०. धर्म ध्यान में रत रहता है, अनुमति उद्दिष्ट का त्यागी है । निश्चय नय की साधना करता, शुद्धातम अनुरागी है ॥ साधू पद धारण करने को, अन्तर में तैयार है । सावधान अपने में रहना, यही श्रावकाचार है ॥ दोहा सम्यदृष्टि ज्ञानी का, सम्यक् हो व्यवहार । कथनी करनी एक सी, जिनवाणी अनुसार ॥ तारण स्वामी रचित यह, ग्रन्थ श्रावकाचार । सही सही पालन करो, हो जाओ भव पार ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O1 COOक श्री श्रावकाचार जी ध्यात्म का शंखनाद DOO अध्यात्म का शंखनाद कल्याण होने वाला नहीं है। अपने चैतन्य लक्षण स्वभाव की पहिचान प्रथम युग चेतना के प्रणेता, जन - जन में अध्यात्म और स्वतंत्रता करना ही धर्म है। आत्मधर्म ही सत्य धर्म है। यही धर्म , समस्त कर्म बन्धनों J का शंखनाद कर भारतीय जनमानस के लिये आत्मकल्याण का सर्वश्रेष्ठ 5 से मुक्त कराने वाला है क्योंकि शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से चैतन्य लक्षण रूप पथ प्रशस्त करने वाले शुद्धात्मवादी वीतरागी संत आचार्य प्रवर श्रीमद - आत्मधर्म समस्त कर्मों से रहित है इसलिये शुद्ध स्वभाव ,धर्म के आश्रय से जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज सोलहवीं सदी में हए महान ही आत्मकल्याण मुक्ति होती है। यह जिनवाणी का मर्म,सत्य वस्तुस्वरूप आध्यात्मिक क्रांतिकारी संत थे। विक्रम संवत् १५०५ की मिति मार्गशीर्ष ८ 2 तीर्थंकर भगवंतों की दिव्य देशना का सार है। जब इतना सूक्ष्म और यथार्थ निर्णय अनाद्यनंत सिद्धांत मुक्ति का आधार हमें भगवान ने बतलाया है; शुक्ल सप्तमी को पिताश्री गढ़ाशाह जी, माताश्री वीरश्री देवी के घर जन्म। लेकर उन्होंने भारतीय वसुन्धरा को पवित्र किया। ११ वर्ष की अवस्था S फिर जैन दर्शन में किसी की पराधीनता, परतंत्रता, परावलंबपने का स्थान में आत्मबोध सम्यकदर्शन सहित अपने आत्मकल्याण का पथ प्रारंभ ही कहाँ है ? अपने आत्मस्वरूप के श्रद्धान , ज्ञान और आचरण रूप रत्तत्रय किया, पश्चात् २१ वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्य व्रत,३० वर्ष की उम में ब्रह्मचर्य ४ की एकता ही शाश्वत मोक्षमार्ग है। ऐसी सत्य वस्तुस्वरूप की देशना सुनकर प्रतिमा एवं ६० वर्ष की आयु में निर्धथ दिगम्बर जिन दीक्षा धारण कर 5 लाखों भव्य जीव जाति-पांति के बन्धनों से परे होकर अपने कल्याण के ४ मार्ग में अबसर होने लगे। इसको सहन नहीं कर पाने के कारण भट्टारकीय जिनशासन की आचार्य परंपरा को सुशोभित किया। उनका जीवन ग्रंथों की गाथा मात्र नहीं है बल्कि ज्ञान और संयम है , प्रपंच ने षडयंत्र का रूप धारण किया और श्रीजित तारण स्वामी को जहर की प्रयोगशाला एवं चारित्रमय प्रकाश स्तंभ है। उनके द्वारा विरचित दिया गया, बेतवा नदी में डुबाया गया जहां तीन बार अलग-अलग स्थानों चौदह थ युगों-युगों तक आत्मार्थी जिज्ञासु साधकों के लिये आत्म पर डुबाने से तीन टापू बन गये , अंत में इस आध्यात्मिक क्रांति ने तारण साधना का पथ प्रशस्त करते रहेंगे। पंथ का रूप धारण कर लिया। सोलहवीं शताब्दी का समय, धर्म और देवपूजा के नाम पर बाह्य 5 तारण पंथ अर्थात् संसार से तरने का मार्ग और वह रत्नत्रय आडम्बर, क्रियाकांड और प्रपंच के अंधकार से पूर्ण था, भट्टारक रामपूर्ण सम्यकदर्शन , ज्ञान , चारित्र की एकता रूप। यह मोक्षमार्ग ही तारणपंथ क्रियाओं को धर्म कहते थे, जड़पूजा को देवपूजा सिद्ध कर रहे थे, सत्य है। तारणपंथ कोई चहारदीवारी, मत या सम्प्रदाय नहीं है। संसार सागर धर्म का लोप करके वीतराग धर्म को हास की ओर ले जा रहे थे, ऐसे समय र से तरने का मार्ग ही तारणपंथ है। ऐसा महिमामय आत्मकल्याण का में श्रीजिन तारण स्वामी ने सूर्य की तरह उदित होकर आध्यात्मिक क्रांति मार्ग प्रशस्त कर श्रीगुरूदेव ने हम सभी जीवों पर अनन्त-अनन्त उपकार कर जनमानस को आत्मकल्याण का यथार्थ मार्ग बताया कि वीतरानी। किया है। भारत कृतज्ञ है कि उसकी गोदी में ऐसा महानतम नक्षत्र करुणा तीर्थकर भगवंतों की शुद्धाम्नाय में वीतरामता और स्वाश्रय की प्रमुखता और ज्ञान का संदेश लेकर आया तथा अपनी महानता से भारत को महान 2 है। जिनेन्द्र के मत में द्रव्य की स्वतंत्रता,पुरुषार्थ से मुक्ति की प्राप्ति की। बना गया। जैन जनत भी धन्य-धन्य है कि जन-जन में सम भाव, ९ देशना है। एक द्रव्य , दूसरे द्रव्य का कुछ करता नहीं है , एक ही द्रव्य की। स्नेह ,करुणा , समता और संयम का कीर्तिमान उपस्थित करने वाले एक पर्याय,दूसरी पर्याय की कर्ता नहीं है,पराधीनता और पराश्रितपने से संत आचार्य श्रीजिन तारण स्वामी अपने आपमें अनूठे महापुरुष हुए। ... उनका चारित्र इतना भव्य था, उनकी वाणी अध्यात्म रस से ओत्योत Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You श्री आचकाचार जी अनुपम उपलब्धि Oo और इतनी सशक्त थी कि वर्षों से अध्यात्म अमृत रसमय आत्मोन्नति अध्यात्म जागरण : एक अनुपम उपलब्धि का पथ प्रशस्त करती आ रही है और करती रहेगी। परम वीतरागी तीर्थकर भगवान श्री महावीर स्वामी की वीतरागता सम्पन्न श्रीगुरू महाराज के चौदह ग्रंथों में से अध्यात्म शिरोमणी पूज्यश्री ५ शुद्धाम्नाय में जिनवाणी के जिस परम श्रुतलेखन का सूत्रपात आचार्य द्वय पूज्यवर स्वामी ज्ञानानंदजी महाराज ने श्री मालारोहण जी, पंडितपूजा जी X 3 भूतबली पुष्पदंत जी महाराज ने किया था, आगम की इस शाखा का उद्योतन करने कमलबत्तीसी जी , श्रावकाचार जी, त्रिभंगीसार जी , उपदेशशुद्धसार जी वाले इन आचार्य भगवन्तों के साथ ही, प्रखर अध्यात्म शैली के श्रुत विभाग का ग्रंथ की टीकायें.चौदह ग्रंथ जयमाल आदि सुजित कर सभी भव्य जीवों तक वाले प्रदान आचार्य श्री कन्द-कन्ट देव अमतचन्दाचार्य देव. आचार्य पर महान उपकार किया है जिसे शब्दों की सीमाओं में बांधा जाना संभवयोगीन्ददेव आदि ज्ञानी महापुरुषों ने वीर प्रभु से प्राप्त अनाद्यनन्त ज्ञानमार्ग, नहीं है। अध्यात्मरत्न बाल ब्र. पूज्य श्री बसन्त जी महाराज ने देव गुरु आध्यात्मिक साधना, वीतराग धर्म की अक्षुण्ण परम्परा को, स्वयं उस मार्ग पर शास्त्र पूजा , अध्यात्म आराधना षट्आवश्यक कर्म भाव पूजा , रत्नत्रय चलते हुए प्रकाशित किया था। आराधना , बारह भावना हमें प्रदान कर हमारी भाव पूजा के मार्ग को इन महापुरुषों ने आत्मानुभव से जाना कि आत्मा स्वभाव से शुद्ध ज्ञान, प्रशस्त किया है। दर्शन, सुख, वीर्यमय परमात्म स्वरूप है । यह आत्मा रागद्वेषादि भाव कर्म, पूज्य गुरुदेव की मंगलमय जनकल्याणकारी वाणी को जन-जन में ज्ञानावरणावि द्रव्य कर्म एवं शरीरादि नो कर्म से भिन्न है। इसी रत्नत्रयमयी आत्म पहुंचाने के लिये तारण तरण श्रीसंघ कृत संकल्पित है। इस हेतु भमण समाधि के द्वारा अपने को बंधन रहित मुक्त करके परमानंद में स्थापित किया जाता तथा शिविर कार्यक्रम एवं श्री तारण तरण अध्यात्म प्रचार योजना केन्द्र है। ज्ञान गरिमामय इस आचार्य परम्परा में परम पूज्य जिन शासन धर्म प्रभावक, जैन भोपाल , ब्रह्मानन्द आश्रम पिपरिया, महात्मा गोकलचन्द समैया तारण दर्शन के प्रखर अनुभवी, सर्वार्थ सिद्धि में विराजित शुद्धात्मवादी रत्नत्रय विभूषित साहित्य प्रकाशन समिति जबलपुर आदि स्थानों से तथा अन्य दान दाताओं परम वीतरागी आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज का के सहयोग से साहित्य प्रकाशन कर संपूर्ण देश में प्रचार-प्रसार करके नाम अग्रगण्य है, जो यथा नाम तथा गुण के अनुरूप शोभायमान हो रहा है। श्री गुरु R. महाराज ने अपनी आत्म साधना के अंतर्गत पांच मतों में चौदह ग्रंथों की रचना की गुरुवाणी की अलख जगाई जा रही है। हमारा एक ही उद्देश्य है- "शुकवाणी को घर-घर में पहुंचाना है" इसके लिये विभिन्न परम पूज्य गुरुदेव द्वारा रचित यह श्री तारण तरण श्रावकाचार जी ग्रंथ आचार आयामों से गुरुवाणी का प्रचार-प्रसार करने की भावना है। यह सब मत का ग्रंथ है। अव्रती सम्यक्दृष्टि की चर्या, देशव्रती श्रावक का आचरण इस ग्रंथ नि:स्वार्थ भाव से सहज ही हो रहा है। का मूल प्रतिपाद्य विषय है। ग्रंथ के अंत में साधु पद अरिहन्त एवं सिद्ध पद का सभी जीव इन टीका ग्रंथों का स्वाध्याय मनन करके सत्य धर्म की संक्षिप्त स्वरूप बतलाया गया है। आचार्य तारण स्वामी जी द्वारा रचित ग्रंथों में से समझ जगाकर अपने आत्मकल्याण का पथ प्रशस्त करेंयही पवित्र भावना श्री मालारोहण जी.पंडितपूजा जी.कमलबत्तीसी जी, त्रिभंगीसार जी, उपदेश शुद्धसार । बाल ब्र. उषा जैन एम. ए. जी ग्रंथों की भावप्रवण टीकायें वर्तमान समय के ज्ञानयोगी, अध्यात्म शिरोमणी बीना संयोजिका पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज द्वारा की गई हैं। इसी श्रृंखला में पूज्य श्री द्वारा दिनांक-३.५.२००० अनूवित श्री तारण तरण श्रावकाचार जी ग्रंथ की अध्यात्म जागरण टीका अध्यात्म तारण तरण श्रीसंघ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री बाचकाचार जी अनुपम उपलब्धि भाव पूर्ण सिद्धांत साधना सम्पन्न, वस्तु स्वरूप का यथार्थ परिज्ञान कराने वाली का शुद्धस्वरूप है, ऐसा निज शुद्धात्म तत्व ही सच्चा देव है, जो इष्ट और प्रयोजनीय अपने आपमें अद्वितीय टीका है। श्री गुरुदेव जिन तारण स्वामी ने यह ग्रंथ मोक्षमार्ग है। टीकाकार ने उन षट्कर्मों की क्रियाओं को शुद्धात्मा की साधना में हेतु और बनाने के लिये, कर्मों को क्षय करने और एक मात्र मुक्ति को प्राप्त करने के लक्ष्य से , परम्परा से मोक्ष का कारण बने, यह अनुपम बात लिखकर टीका ग्रंथ को सजीवता लिखा है। जैसा कि ४६२ वीं गाथा में उन्होंने स्वयं कहा है ॐ प्रदान कर दी है। आगे स्पष्ट किया है कि जिन सिद्धांत जैन दर्शन में कोई परमात्मा "एकोदेस उवदेसं च, जिन तारण मुक्ति पथं श्रुतं" २. किसी का कुछ नहीं करता, वस्तु का स्वतंत्र परिणमन, पुरूषार्थ से मुक्ति की प्राप्ति, ग्रंथ के भाव के अनुरूप यह कृति अध्यात्म जागरण टीका एक ऐसी अनुपम कर्तृत्व का अभाव, ज्ञातृत्व शक्ति का जागरण जैन आगम का मूल आधार है। कृति है, जिसमें टीकाकार ने अव्रती श्रावक की अवस्था से मोक्ष तक का मार्ग किस जैन दर्शन में अनेकों श्रावकाचार प्रचलित हैं उन सबके मध्य तारण तरण प्रकार बनता है, इसका साधना परक अनुभवगम्य मार्मिक अंशों का विषय बार ! श्रावकाचार ग्रंथ जाज्वल्यमान मणिरत्ल की तरह शोभा को प्राप्त है। निरूपण किया है। इसलिये यह टीका ग्रंथ अध्यात्म के रुचिवान भव्य जीवों के लिये आत्मा के पांच पद-अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु यह देव के परम हितकारी है। इस ग्रंथ में श्रावक के लिये षट्कर्मों का विशिष्ट मौलिक चिन्तन पांच गुण पांच परमेष्ठी हैं, जो अपने आत्म स्वरूप में शक्ति रूप से विद्यमान हैं, जो प्रस्तुत किया गया है, यह विवेचन अभी तक किसी भी श्रावकाचार में पढ़ने को नहीं पूज्यता की अपेक्षा से प्रसिद्ध हैं। इन पांच पदों की प्रगटता के लिये ग्रंथ में आत्म मिला। इस विषय के अंतर्गत आवश्यक षट्कर्मों को शुद्ध और अशुद्ध-दो प्रकार साधना की प्रमुखता से उपाध्याय, आचार्य, साधु, अरिहन्त और सिद्ध पदवी का से भेद करके समझाकर मुमुक्षुजनों के लिये आत्महित का पथ प्रशस्त कर दिया है। दुर्लभ विश्लेषण किया गया है जो जैनागम में अद्वितीय प्रसंग है। श्रावक के प्रथम आवश्यक कर्म देवपूजा के संबंध में तारण पंथी मोक्षमार्गी गुरुदेव तारण स्वामी इस सहस्राब्दी में हुए साधना ज्ञान और प्रभावना के क्षेत्र श्रावक द्वारा पचहत्तर गुणों पूर्वक की जाने वाली देवपूजा का अलौकिक स्वरूप ४३१ में वीतरागी व्यक्तित्व से सम्पन्न अनूठे संत थे। इस ग्रंथ में एक ओर सम्यक्दर्शन, गाथाओं में बताया गया है, जिससे यह स्पष्ट हो गया है कि श्री जिनेन्द्र भगवान की ज्ञान, चारित्र में दृढ़ता पूर्वक प्रवृत्ति करने की आत्मीय भावना पूर्ण प्रेरणा श्री गुरु कही हुई वे छह क्रियायें ही यथार्थ हैं जो शुद्धात्मा की ओर ले जावें, जिनागम परम महाराज के वात्सल्य भावको व्यक्त करती है, तो दूसरी ओर धर्माचरण में शिथिलता, पूज्य आचार्य ऋषियों के द्वारा निर्मापित है, इसका मूल स्रोत तीर्थंकर परमात्मा का अतिचारपूर्ण चर्या का उन्मूलन करने हेतु सैद्धांतिक निर्णय की दृढ़ता पूज्य गुरुदेव उपदेश है। के आध्यात्मिक अनुशासन का प्रतीक है, यह विशेषता विरले ही ज्ञानी सद्गुरुओं ____सच्चे गुरू ही सन्मार्ग दर्शक होते हैं इसलिये सच्चे गुरु और कुगुरु का स्वरूप । में होती है। बताते हुए कुगुरु से बचने की प्रेरणा देते हुए लिखा है कि जो जिनेन्द्र परमात्मा के इस टीका ग्रंथ का सभी आत्मार्थी जिज्ञासु भव्य जीव गहराई से अध्ययन,मनन वचनों का लोप करके अर्थ का अनर्थ कर उपदेश करते हैं, वीतराग विज्ञानमयी धर्म* कर अंतर में विद्यमान अपने आत्मदेव का दर्शन कर परम्परा से मोक्ष को प्राप्त होवें, को न तो वे स्वयं पालते हैं, न दूसरों को उस मार्ग पर ले जाते हैं, वे कुगुरु पाषाण इस पावन भावना सहित पूज्य गुरुदेव एवं पूज्य श्री के चरणों में नमन कर विराम ० नौका के समान हैं, जो स्वयं डूबते हैं और बैठने वालों को भी डुबाते हैं। लेता हूँ। शुद्ध षट्कर्म में जो देवपूजा का स्वरूप बतलाया है वह कितना विशेष है और पं. राजेन्द्रकुमार जैन लोग पूजा के नाम पर आज जिस मार्ग में बेतहासे भागे जा रहे हैं वह समझने योग्य दिनांक-८.२.२००१ संयोजक है, जो देवों के अधिपति सौ इन्द्रों से भी पूज्य हैं वह देव हैं। व्यवहार से अरिहन्त अखिल भारतीय तारण तरण जैन सर्वज्ञ परमात्मा जो वीतरागी हितोपदेशी हैं वे सच्चे देव हैं और निश्चय से आत्मा विद्वत् परिषद्, अमरपाटन (म.प्र.) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री बाचकाचार जी सम्यक् प्रेरणा HD धर्मदिवाकर:चिंतम सूत्र चरणानुयोग१.हे भव्य ! तू भेदज्ञान के बल से आत्मज्ञान प्राप्त करके उसी में रमण कर, सम्यक् आचरण की सम्यक प्रेरणा ऐसा करने से ध्यान में प्रीति होगी और तेरे परिणाम सिद्धि अर्थात् सफलता को प्राप्त होंगे। S श्रीमद् जिन तारण स्वामी जी के द्वारा उपदिष्ट पञ्चमतों में आचार मत की। २.धर्म या मोक्षमार्ग कहीं बाहर नहीं है, आत्मा में ही है व आत्मीक अनुभवसम्यक् व्याख्या श्री श्रावकाचार बांध में विस्तार पूर्वक की गई है। सांसारिक से ही वह प्राप्त होता है यही जिन सिद्धांत है। जीवन में आत्मानुशासन, इन्द्रिय निब्रह और सदाचार-संसार से पूर्ण निवृत्ति ३. अपने मन की चंचलता और राग-द्वेष, मोह की प्रबलता तथा या अनगार साधना का प्रथम सोपान है। श्रावक का साधक जीवन श्रावकाचार संकल्प- विकल्प मन में बने रहना इत्यादि मात्र मन के दोषों के कारण ही यह प्राणी से ही प्रारंभ होता है। संसार में जन्म-मरण कर रहा है। श्री गुरुदेव ने श्री श्रावकाचार जी ब्रांथ में दो प्रकार के चारित्र की चर्चा ४. आत्मानन्द प्राप्त होने पर संसार भ्रमण का कारण जो दर्शनमोहनीय कर्म विशेष रूप से की है- १. भावात्मक २. क्रियात्मक । जैसे-जल छानने की तथा संकल्प-विकल्प, मिथ्यात्व, कुज्ञान आदि जितने भी कारण हैं वे सब दूर हो विधि के पूर्व आचार्य श्री अपने परिणामों (भावों) को छानकर विशुद्ध करने की जाते हैं। साधक को प्रेरणा प्रदान करते हैं। जल छानकर पान करना शारीरिक स्वास्थ्या ५. आत्म प्रकाश की स्वाभाविक दृष्टि का यह महात्म्य है कि उसके प्रकाश में 5 R और व्यवहार चारित्र के लिये आवश्यक है, जिससे संयम और स्वास्थ्य की इष्ट स्वभाव जाग्रत हो जाता है अर्थात् उसकी स्वाभाविक परिणति इष्ट कहिये रक्षा होती है, इसी प्रकार परिणामों की विशुद्धता से अध्यात्म की अन्तर्मुखी कल्याण रूप हो जाती है जबकि आत्म प्रकाश के अभाव में मनुष्य की समस्त परिणतियां चाहे वे पापरूप हों या पुण्यरूप सभी शुभाशुभ बंध करके संसार भ्रमण ५ यात्रा का मार्ग प्रशस्त होता है। श्रावक से साधक बनने के उपायों को प्रस्तुत Sग्रंथ में सरलता के साथ स्पष्ट किया गया है। के कारण स्वरूप रहती हैं। ६.शास्त्र ज्ञान मात्र से मुक्ति नहीं मिलती, शास्त्र ज्ञान से जब वैराग्य भावनायें ब्रांथ के यशस्वी टीकाकार अध्यात्म शिरोमणी पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी जाग्रत होकर आत्मानन्द झलकने लगता है तब ज्ञान, भेदज्ञान कहलाता है, यही महाराज वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध के साथ ही तपोनिष्ठ भी हैं। उनके द्वारा स्वान्तः भेदज्ञान मुक्ति प्रदायक होता है। सुखाय के लिये किये गए इस कार्य से प्रत्येक जीव की आध्यात्मिक यात्रा का ७. नाशवान संसार की चिंताओं को छोड़कर आत्म कल्याण की चिंता करो, मार्ग सम्यकरूपेण प्रशस्त हो यही मंगल भावना है। आत्म कल्याण का मार्ग एक मात्र आत्म ध्यान ही है। ब्रथ के कुशल संपादन और सुंदर प्रकाशन में अध्यात्म रत्न बाल ब्र. श्री जिस ज्ञानी पुरुष को श्री अरिहंत का उपदेश हृदयंगम हो जाता है, वह बसन्त जी का मनोयोग पूर्ण सतत् प्रयत्न प्रसंशनीय है। उस उपदेश रूपी सरोवर में मम्न हो जाता है और स्वयं की आत्मा को उपदेश रूप बना लेता है तथा अपनी ही आत्मा में उत्पन्न हुए उपदेश रूपी सरोवर में रमण. ९ करता है, वह ज्ञानी आनंद का भोग करता हुआ मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। राजेन्द्र सुमन संपादक- तारण ज्योति शिवराजपुर (सतना) संकलन (मासिक) दिनांक-२९ जनवरी २००१ बालब. शांतानन्द दिनांक १४.३.२००१ सिंगोड़ी, (छिन्दवाड़ा) म. प्र. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी ॥ ॐ नमः सिद्धं तारण तरण श्रावकाचार अध्यात्म जागरण - टीका मंगलाचरण चेतना लक्षर्ण आनन्द कन्दनं, वन्दनं वन्दनं वन्दनं वन्दनं ॥ शुद्धातम हो सिद्ध स्वरूपी । ज्ञान दर्शन मयी हो अरूपी ॥ शुद्ध ज्ञानं मयं चेयानन्दनं वन्दनं वन्दनं वन्दनं वन्दनं..... " द्रव्य नो भाव कर्मों से न्यारे । मात्र ज्ञायक हो इष्ट हमारे ॥ सुसमय चिन्मयं निर्मलानन्दनं, वन्दनं वन्दनं वन्दनं वन्दनं ...... पंच परमेष्ठी तुमको ही ध्याते । तुम ही तारण तरण हो कहाते ॥ शाश्वतं जिनवरं ब्रह्मानन्दनं, वन्दनं वन्दनं वन्दनं वन्दनं ...... दोहा ध्रुव शुद्ध निज आत्मा, ममलह ममल स्वभाव | अनुभव में आवे तभी, मिटते सभी विभाव ॥ पूर्ण शुद्ध हूँ सिद्ध सम, यह प्रतीति है धर्म । सद्गुरु को वन्दन करूँ, मिटे सभी भव भर्म ॥ मंगलाचरण SYAN FAA YA ART YEAR. " देव देवं नमस्कृतं लोकालोक प्रकासकं । त्रिलोकं भुवनार्थ जोति, उवंकारं च विन्दते ।। १ ।। अन्वयार्थ (उवंकारं च विन्दते) ऊँकार स्वरूप पंच परमेष्ठी जिसका अनुभव 5 करते हैं (लोकालोक प्रकासक) जो लोकालोक को प्रकाशित करने वाला (त्रिलोकं भुवनार्थं जोति) तीन लोक में ज्ञानमयी सूर्य समान ज्योति है (देव देवं नमस्कृतं) ऐसे देवों के देव निज शुद्धात्म तत्व को नमस्कार करता हूँ। विशेषार्थ - ॐ शुद्ध सत्ता चैतन्य ज्योति परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप को कहते गाथा-१ हैं, ॐकार उन्हें कहते हैं जिन्होंने उस सत्ता स्वरूप को उपलब्ध कर लिया है या करने वाले हैं; क्योंकि उन्होंने उस सत्तास्वरूप को जान लिया है, इसमें पंच परमेष्ठी अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु आते हैं जो उस सत्तास्वरूप का वेदन- अनुभव करते हैं। चतुर्थ, यहाँ कोई प्रश्न करे कि शुद्ध सत्तास्वरूप चैतन्य तत्व निज शुद्धात्मा को तो पंचम गुणस्थानवर्ती सम्यक्दृष्टि व्रती-अव्रती श्रावक ने भी जान लिया है, वह भी उसका अनुभव करते हैं, फिर यहाँ पंच परमेष्ठी को ही क्यों लिया, उनको भी क्यों नहीं लिया ? - उसका समाधान करते हैं कि चौथे पाँचवें गुणस्थानवर्ती श्रावक ने भी शुद्ध सत्ता निज चैतन्य तत्व को जान लिया है, अनुभव में आ गया है पर वह निरन्तर अनुभव नहीं करते और न कर सकते हैं क्योंकि अभी वे अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान कषाय के आवरण से युक्त हैं तथा मोह राग का सद्भाव है, कर्म संयोगी दशा में रह रहे हैं, पाप परिग्रह में लगे हैं इसलिये वह अपने शुद्धात्म स्वरूप का निरन्तर अनुभव नहीं करते। जो वीतरागी निर्ग्रन्थ महाव्रती छठे सातवें गुणस्थानवर्ती साधु हैं, वही इसका अनुभव करते हैं, उस श्रेणी में उपाध्याय आचार्य आते हैं। अरिहन्त और सिद्ध तो स्वयं परमात्मा हैं वह तो निरन्तर उसी मय हैं। अब वह शुद्ध सत्ता स्वरूप कैसा है ? लोकालोक को प्रकाशित करने वाला अर्थात् देखने जानने वाला है। केवलज्ञान की एक समय की पर्याय में समस्त लोकालोक प्रत्यक्ष जानने में आता है, यह उसकी शक्ति है। और कैसा है ? तीन लोक में ज्ञानमयी सूर्य समान प्रकाशमान ज्योति पुंज है अर्थात् ज्ञानमयी जीव तत्व ही ऐसी शक्ति है जिसके कारण जगत के छहों द्रव्य देखने जानने में आते हैं और तीनों लोक का परिणमन भी उसी की सत्ता शक्ति से चलता है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि इससे तो तीन लोक का परिणमनकर्ता जीव तत्व कहो या परमात्मा कहो एक शक्ति ही हो गई, इससे तो एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता हो गया तथा अन्यमती का एक सत्ता कर्तावाद का पोषण हो गया ? उसका समाधान करते हैं कि इस तत्व को समझने के लिये जगत के स्वरूप को जानना होगा। छह द्रव्यों के समूह को विश्व या जगत कहते हैं। वह छह द्रव्य-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल हैं। जिनमें एक चेतन और पाँच अचेतन हैं तथा पुद्गल-स्पर्श रस गंध वर्ण वाला रूपी पदार्थ है और अन्य पाँच Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी अरूप हैं तथा जीव अनंत, पुद्गल अनंतानंत, धर्म एक, अधर्म एक, आकाश एक • और काल असंख्यात कालाणु हैं। इसमें विशेष बात जो समझने की है वह यह है कि जीव के विभाव परिणमन से पुद्गल परमाणु स्कन्ध रूप तथा कर्म वर्गणारूप होता है, ऐसा निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है और छहों द्रव्य का एक क्षेत्रावगाह संयोग संबंध अनादिकाल से है। जीव में तथा पुद्गल में ही स्वभाव-विभाव रूप परिणमन करने की शक्ति है बाकी चार द्रव्य तो अपने स्वभावमय त्रिकाल शुद्ध ही हैं। अब कहो कि यह जीव के विभाव रूप परिणमन के कारण ही तीन लोक का परिणमन चल रहा है या अपने आप चल रहा है ? इसमें एक विशेष महत्वपूर्ण समझने की ध्यान में रखने की बात यह है कि जगत में जो अनंत जीव हैं, यह अनादि से विभाव रूप ही हैं इन्हें अपने स्वभाव का, स्वसत्ता शक्ति का पता ही नहीं है। जिन्हें अपने स्वभाव सत्ता शक्ति का पता लग जाता है वह स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। उनका संसार का जन्म-मरण का चक्र छूट जाता है। यहां जीव तत्व की शक्ति अपेक्षा बात की जा रही है कि जीव की शक्ति से ही तीन लोक ज्योतिर्मय प्रकाशित हो रहा है। ऐसा जीव तत्व निज शुद्धात्मा जो देवों का देव अर्थात् सौ इन्द्र, देवता गण जिसकी सेवा नमस्कार वंदना करते हैं। जब केवलज्ञान होता है तो सौ इन्द्र और तीन लोक से वन्दनीय तीर्थंकर परमात्मा होते हैं और जो जीव जाग जाता है, जिसे अपने सत्ता स्वरूप का बोध हो जाता है, उसकी भी वन्दना सेवा भक्ति तीन लोक और देवता भी करते हैं; तो ऐसे जीव तत्व निज शुद्धात्म स्वरूप को मैं नमस्कार करता हूँ क्योंकि यही मुझे इष्ट और प्रयोजनीय है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह तो श्री तारण स्वामी ने लौकिक व्यवहार के विरुद्ध कार्य किया क्योंकि जिस देव, गुरू, शास्त्र के माध्यम से उन्हें अपने सत्ता स्वरूप का बोध हुआ था, पहले उन्हें नमस्कार करना चाहिये फिर जो अपना इष्ट था उसकी साधना आराधना करते ? उसका समाधान है कि जैसे कोई पथिक अपने स्वस्थान का मार्ग भूलकर भटक रहा हो और कोई सज्जन पुरुष उसे उसके स्थान का मार्ग बता दे और वह पथिक उस मार्ग पर चलकर अपने गन्तव्य स्थान को पहुँच जावे तो वह क्या करता है ? सबसे पहले तो वह स्वस्थान के लक्ष्य और मार्ग का स्मरण रखता है और सावधानी पूर्वक अपने गन्तव्य की ओर चलता है। कभी-कभी मार्ग बताने वाले का rock resist. joannash गाथा-१ भी स्मरण कर लेता है। उसका बहुमान-सम्मान करता है परन्तु मुख्यता तो अपने लक्ष्य की ही रखता है। इसी प्रकार मुक्तिमार्ग के पथिक साधक अपने लक्ष्य, अपने इष्ट का ही ध्यान रखते हैं और इस मार्ग पर चलने की सावधानी निरन्तर वर्तते हैं। मुक्ति का मार्ग क्या है ? इसे तत्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वामी ने बताया है- जो जैन दर्शन का मूल आधार है- सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग: । निज शुद्धात्म तत्व की अनुभूति सम्यक्दर्शन, निज सत्ता शक्ति का ज्ञान सम्यक्ज्ञान और निज स्वभाव में रमणता, स्थिरता ही सम्यक्चारित्र है और यही मुक्ति का मार्ग है; तो जो अध्यात्म का साधक है जिसे अपने शुद्धात्म तत्व की अनुभूति हो गई है, वह तो अपने इष्ट निज शुद्धात्म स्वरूप की ही साधना-आराधना वन्दना भक्ति करेगा । उसका लक्ष्य और इष्ट तो वही एक है और उसी के निरन्तर स्मरण ध्यान करने से वह अपने गन्तव्य को प्राप्त करेगा; इसलिये पहले तो वह अपने इष्ट का ही स्मरण वन्दन नमस्कार करेगा। श्री तारण स्वामी ने व्यवहार की अवहेलना नहीं की, जिनके माध्यम से अपने लक्ष्य, इष्ट को पाया उनका भी स्मरण किया है। वन्दना नमस्कार किया है, हमेशा बहुमान किया है लेकिन अपना लक्ष्य निश्चय रत्नत्रयमयी निज शुद्धात्मा ही रखा है। आगे छटवीं गाथा में भगवान महावीर को नमस्कार किया है। सातवीं गाथा में समस्त केवली और अनन्त सिद्ध भगवंतों को नमस्कार किया है। उनका लक्ष्य निश्चय प्रधान निज शुद्धात्मा ही रहा है और इसी अपेक्षा से निश्चय प्रधान रखते हुए उन्होंने इस ग्रन्थ में कथन किया है। अध्यात्म साधक, समस्त आचार्य परम्परा श्री कुन्दकुन्द देव, योगीन्दुदेव, अमृतचन्द्राचार्य आदि के अनुसार ही वह उस मार्ग पर चले हैं और वैसा ही कथन किया है क्योंकि तारण स्वामी को ग्यारह वर्ष की अवस्था निज शुद्धात्मानुभूति, निश्चय सम्यक्दर्शन हो गया था और इसी क्रम में बढ़ते हुए वीतरागी मार्ग पर चले। बीस वर्ष की आयु में ब्रह्मचर्य व्रत और तीस वर्ष की आयु में ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण की और आगे चलकर छठे - सातवें गुणस्थानवर्ती वीतरागी साधु पद और आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। इसी क्रम में यह चौदह ग्रन्थों की रचना की जिसमें स्व का लक्ष्य प्रमुख रखा है। साधक कैसा होता है, साधक के मार्ग में क्या और कैसी बाधायें आती हैं, साधना का क्रम और मार्ग क्या है ? यह स्वयं के जीवन में अनुभव करते हुए अनुभव प्रमाण कथन किया है। इस श्रावकाचार ग्रन्थ में आगे बड़ी अपूर्व बातें आयेंगी, जो आगम शैली के ग्रन्थों में कहीं नहीं मिलेंगी । 65c5 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी आगे मंगलाचरण की दूसरी गाथा कहते हैं उवं हियं श्रियं चिन्ते, सुद्ध सद्भाव पूरितं । संपूर्ण सुर्य रूपं, रूपातीत विंद संजुतं ॥ २ ॥ अन्वयार्थ (सुद्ध सद्भाव पूरितं) शुद्ध स्वभाव से भरा हुआ (संपून सुयं रूपं ) अपने स्वरूप में परिपूर्ण (रूपातीत विंद संजुतं) रूपातीत दशा में भाव मोक्ष में लीन ( उवं ह्रियं श्रियं चिन्ते) ऐसे ॐ ह्रीं श्रीं स्वरूप का चिन्तवन करता हूँ। विशेषार्थ- शुद्ध निश्चय नय के साधक परम वीतरागी सन्त अपने निज शुद्धात्म स्वरूप का अनुभवन करते हुए यहाँ उसका वर्णन कर रहे हैं जो अपने शुद्ध स्वभाव से भरा हुआ है अर्थात् त्रिकाल शुद्ध है, अपने स्वरूप में परिपूर्ण है अर्थात् जिसमें कहीं से कोई कमीं नहीं है। जिसे पर के अवलम्बन की आवश्यकता नहीं है, जब वह अपने स्वरूपमय रूपातीत दशा में होता है तो भाव मोक्ष अर्थात् परमानंद में लीन रहता है । ऐसा ॐ शुद्ध सत्ता चैतन्य तत्व, ह्रीं केवलज्ञानमयी सर्वज्ञस्वभावी परमगुरू तीर्थंकर, श्री अर्थात् शोभनीक, मंगलीक जय-जयवन्त, कल्याणकारी महासुखकारी, मोक्षलक्ष्मी स्वरूप निज शुद्धात्मा जयवन्त हो, यही चिन्तवन करने योग्य है, मैं इसी का चितवन आराधन करता हूँ। इसी क्रम में और गहरे डूबते हुए आगे कहते हैं नमामि सततं भक्तं, अनादि आदि सुद्धये । प्रतिपूर्वं तिअर्थं सुद्धं, पंचदिप्ति नमामिहं ॥ ३ ॥ अन्वयार्थ- (पंचदिप्ति नमामिहं) पंच ज्ञानमयी ज्योति को नमस्कार करता हूँ (अनादि आदि सुद्धये) जो आत्मा अनादि से शुद्ध है (प्रतिपूर्वं तिअर्थं सुद्धं) जो द्रव्य गुण पर्याय से पूर्ण शुद्ध है (नमामि सततं भक्तं) हमेशा भक्ति पूर्वक उसको नमस्कार करता हूँ । विशेषार्थ - यहां बड़ी अपूर्व बात कह रहे हैं कि जो पंच ज्ञानमयी अर्थात् जिसमें पाँचों ज्ञान-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञान वर्तमान में प्रत्यक्ष हैं; कहीं से लाना नहीं है, कहीं से आना नहीं है इसी समय अभी मौजूद हैं, उस शुद्ध तत्व को मैं नमस्कार करता हूँ। जो आत्मा अनादिकाल से शुद्ध है, जो कभी अशुद्ध हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं तथा जो द्रव्य गुण पर्याय से पूर्ण शुद्ध है, ऐसा निज शुद्धात्म तत्व उसे मैं हमेशा बारम्बार श्रद्धा भक्ति पूर्वक नमस्कार करता हूँ। यह है सम्यदृष्टि ज्ञानी का 5 SYS GEAR GAN AR YE ३ गाथा-२,३,४ GY लक्ष्य, उसकी दृष्टि जो वर्तमान में कर्म संयोग, अशुद्ध दशा में रहता हुआ भी अपने को परिपूर्ण शुद्ध केवलज्ञानमयी देखता है। जैसा अमृतचन्द्राचार्य ने समय सार कलश में कहा है : नमः समय साराय, स्वानुभूत्या चकासते । चित्स्वभावाय भावाय, सर्वभावांतरच्छिदे ॥ समय अर्थात् जीव नामक पदार्थ उसमें सार जो द्रव्य कर्म, भावकर्म, नो कर्म रहित शुद्ध आत्मा उसे मेरा नमस्कार हो । शुद्ध सत्ता स्वरूप वस्तु है, जिसका स्वभाव चेतना गुण रूप है अर्थात् अपने को अपने से ही जानता है, प्रगट करता है, स्वत: अन्य सर्व जीवाजीव चराचर पदार्थों को सर्व क्षेत्र काल संबंधी सर्व विशेषणों के साथ एक ही समय में जानने वाला है। इस प्रकार के विशेषणों से शुद्ध आत्मा को ही इष्टदेव सिद्ध करके नमस्कार किया है। भावार्थ- यहाँ मंगल के लिये शुद्ध आत्मा को नमस्कार किया है, यदि कोई यह प्रश्न करे कि किसी इष्टदेव का नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया ? तो उसका समाधान इस प्रकार है- वास्तव में इष्ट देव का सामान्य स्वरूप सर्व कर्म रहित सर्वज्ञ वीतरागी शुद्ध आत्मा ही है इसलिये इस अध्यात्म ग्रन्थ में 'समयसार' कहने से इसमें इष्टदेव का समावेश हो गया। स्वावादी जैनों को तो सर्वज्ञ वीतरागी शुद्ध आत्मा ही इष्ट है, फिर चाहे भले ही इष्टदेव कहो, परमात्मा कहो, परमज्योति कहो, परमेश्वर, परब्रह्म, शिव, निरजंन, निष्कलंक, निराबाध, सिद्ध, सत्यात्मा, चिदानंद, सर्वज्ञ वीतराग, अर्हत, जिन, आप्त, भगवान, समयसार इत्यादि हजारों नामों से कहो, स्यादवादी को कोई विरोध नहीं है। (समयसार कलश) इस प्रकार शुद्ध अध्यात्मवादी सन्तों की दृष्टि तो अपने पर रहती है। इसी क्रम में आगे और कहते हैं परमिस्टी परंजोति, आचरनं नंत चतुस्टयं । न्यानं पंच मयं सुद्धं देव देवं नमामिहं ॥ ४ ॥ अन्वयार्थ - (परमिस्टी परंजोति) परम इष्ट परमज्योति (आचरनं नंत चतुस्टयं) जिसका आचरण अनंत चतुष्टय में हो रहा है तथा जो (न्यानं पंच मयं सुद्धं ) पंच ज्ञानमयी शुद्ध है (देव देवं नमामिहं) ऐसे देवों के देव शुद्धात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी विशेषार्थ परमइष्ट, परमज्योति स्वरूप शुद्धात्मा जो अनंत चतुष्टय अर्थात् अनंत दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त बल जिसकी निज सत्ता शक्ति है, जो निरन्तर उसमें ही रमण कर रहा है, जो पंच ज्ञानमयी शुद्ध है अर्थात् जिसमें पाँचों ज्ञान हमेशा वर्तते हैं। जिसका भाव, ज्ञान स्वभाव ही है ऐसे देवों के देव शुद्धात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। यहाँ कोई प्रश्न करे कि शुद्धात्मा कोई भिन्न स्वतंत्र सत्ता है जो त्रिकाल शुद्ध पंच ज्ञानमयी देवों का देव है, तो या तो यह तीर्थंकर केवली परमात्मा हो सकते हैं। या सिद्ध परमात्मा हो सकते हैं, क्या यह शुद्ध आत्मा कोई स्वतंत्र शक्ति है, क्योंकि वर्तमान में जो जीव है वह तो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मोही, रागी-द्वेषी कर्म संयोगी दशा में बड़ा असहाय पराधीन है फिर यह निज शुद्धात्मा या शुद्ध आत्मा क्या है ? इसका समाधान यह है कि वर्तमान में जो संसारी जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मोही रागी -द्वेषी कर्माधीन है, निश्चय से यही सिद्ध के समान शुद्ध ध्रुव अविनाशी परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप है, यह अपने ऐसे निज शुद्ध सत्ता स्वरूप को भूलकर भटक रहा है और संसारी अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मोही रागी -द्वेषी कर्माधीन बना हुआ है। - अब यहाँ जब यह जीव ऐसे अपने निज सत्ता स्वरूप का बोध करे और इसी की साधना, आराधना में रत रहे तो यह सब कर्मादि से मुक्त होकर स्वयं देवों का देव अरिहन्त सिद्ध परमात्मा हो जाता है। जिन जीवों ने ऐसी अपनी निज सत्ता शक्ति का श्रद्धान अनुभवन किया वही अरिहन्त सिद्ध परमात्मा हो गये तथा उन्हीं को परमात्मा आदि विभिन्न नामों से कहते हैं, यह शुद्ध आत्मा जीव की स्वसत्ता शक्ति ही है अलग से कोई स्वतंत्र सत्ता शक्ति नहीं है । यहाँ प्रश्नकर्ता पुन: प्रश्न करता है कि यह बात तो समझ में नहीं आई कि संसारी जीव की स्वसत्ता शक्ति ही परम ब्रह्म परमात्मा सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा देवों का देव अनन्त चतुष्टय का धारी पंच ज्ञानमयी भगवान आत्मा स्वयं है, अगर यह ऐसा है तो फिर इसे संसारी अज्ञानी कर्माधीन किसने बनाया- क्यों बना ? यदि कोई स्वतंत्र सत्ता परमात्मा अलग से नहीं है तो फिर इसको ऐसा करने वाले और इनसे छूटने का उपाय बताने वाले देव गुरू शास्त्र कहाँ से आये और यह जो भी जीव परमात्मा बने यह कहाँ से कैसे बने ? इसका समाधान करते हैं कि भाई! यह परमतत्व की बात है, यह अध्यात्म की SYA YAAN YAN A YEA गाथा-४ जड़ है और इसको सत्यता से जान लेने पर ही धर्म का प्रारम्भ होता है अर्थात् जीवन में सुख शांति आती है, इस संसार और कर्म बन्धन से छूटने का मार्ग बनता है। जरा शान्त होकर सुनो, समझो, अनुभव में लो तो समझ में आ सकती है वैसे यह बहुत गूढ़ रहस्य है। मात्र शब्दों से न समझाया जा सकता है, न शब्दों से समझ में आ सकता। प्रश्नकर्ता कहता है कि बताइये, समझाइये हम शान्त होकर समझने की कोशिश करेंगे और अपने अनुभव से प्रमाण करेंगे। तो पहले जीव की स्वतंत्र सत्ता की चर्चा करते हैं कि अनन्त जीव अलग-अलग हैं। सबकी सत्ता स्वतंत्र है या किसी एक सत्ता के आधीन है ? अब इसमें सबसे पहले जीव है और वह कैसा है, इसकी चर्चा करते हैं, यह बताओ कि वर्तमान में हम जो यह शरीर मनुष्य भव में हैं इसमें कितने द्रव्य हैं ? इसमें दो द्रव्य हैं- जीव और पुद्गल या चेतन और अचेतन। वह कैसे ? यह शरीर पुद्गल अचेतन है और इसके भीतर एक चैतन्य शक्ति जीव द्रव्य है। यह कैसे जानने में आया ? जब जीव इस शरीर में से निकल जाता है, तब यह शरीर निष्क्रिय निष्प्राण मुर्दा हो जाता है जिसे श्मशान में जला आते हैं तब यह प्रत्यक्ष अनुभव में आता है कि यह शरीर अलग है और चैतन्य शक्ति जीव आत्मा अलग है। जब जीव इस शरीर से निकल जाता है तब इस शरीर में क्या फर्क पड़ता है ? शरीर में ऊपरी तौर से कोई फर्क नहीं पडता, जैसे का तैसा रहता है। मात्र चैतन्य शक्ति निकल जाने से निष्प्राण हो जाता है। अब यह बताओ कि वह जो चैतन्य शक्ति जीवात्मा इस शरीर में से निकल जाता है क्या वह देखने जानने में आता है ? नहीं देखने में तो नहीं आता परन्तु जानने में आ जाता है कि वह चैतन्य शक्ति निकल गई। , किसके जानने में आता है- चेतन के या अचेतन के ? चेतन के जानने में आता है- अचेतन क्या जाने । अब यह बताइये कि वह चैतन्य तत्व जीव आत्मा कहाँ गया ? इस शरीर से निकलकर किसी दूसरे भव में दूसरे शरीर में चला गया। यह बात कैसे और कहां से जानने में आई ? यह बात देव गुरू और शास्त्र के माध्यम से जानने में आई क्योंकि इसका प्रत्यक्ष तो हमको अनुभव नहीं है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री श्रावकाचार जी गाथा-४ ON यह देव गुरू शास्त्र कौन हैं और कहां से आये? परमात्मा हुआ, यह अलग-अलग जीव आत्मा हुए या एक ही जीव आत्मा हुआ? सच्चे ज्ञानी गुरुओं द्वारा लिखी हुई शब्द रचना को शास्त्र कहते हैं तथा जिन्होंने कहने और देखने में तो यह अलग-अलग जीव आत्मा हुए, पर --- सच्चे देव या परमगुरू की बात सुनकर शुद्धात्मा की सच्ची श्रद्धा कर ली, जिन्हें हाँ-हाँ कहो, स्पष्ट कहो, यहाँ डरने संकोच करने की क्या बात है जब तत्व भेदज्ञान निज शुद्धात्मानुभूति हो गई तथा जो वीतरागी हो गये वह गुरू कहलाते हैं को समझने का प्रयास कर रहे हैं तो इसमें भय संकोच कैसा? विवाद थोड़े ही तथा सच्चे देव परमगुरू आप्त वह कहलाते हैं जो केवलज्ञानी वीतरागी सर्वज्ञ करना है, समझना है बोलो क्या बात है? हितोपदेशी सशरीरी होते हैं तथा अशरीरी अविकारी निष्कलंक पूर्ण शुद्ध सिद्ध यहाँ दो बातें हैं- जैन दर्शन तो कहता है कि अनन्त जीव हैं और सब जीव परमात्मा होते हैं। स्वसत्ता शक्ति से स्वतंत्र हैं, स्वयं ही आत्मा से परमात्मा होते हैं तथा वैदिक हिन्द सच्चा गुरू जैसा तुमने बताया यह कोई मनुष्य होता है या जीव आत्मा होता दर्शन तथा अन्य दर्शन यह कहते हैं कि परमात्मा एक है और यह सब जीव उसके S अंश हैं उसने ही पैदा किये हैं और इन सबका कर्ता-धर्ता वह परमात्मा है, जब मनुष्य भव में जो मनुष्य हैं इनमें से ही कोई विरला मनुष्य होता है। ॐ जिसको जैसा करना चाहता है वही करता है,जीव की स्वतंत्र सत्ता शक्ति अलग से तो कोई विरला मनुष्य शरीर गुरू होता है या उसके अन्दर जो चैतन्य तत्व कुछ नहीं है तो इस कारण यह भेदभाव कुछ समझ में नहीं आता। जीव आत्मा है, इसका स्वबोध जागता है ज्ञान का विकास होता है तो वह गुरू ठीक है हम इसको भी समझने की कोशिश करेंगे क्योंकि मन में जरा सी भी होता है ? कोई शंका हो तो चित्त में बात नहीं बैठती। उस शंका के कारण मन बार-बार जिसको स्वबोध जागता है, ज्ञान का विकास होता है वह गुरू होता है। अस्थिर इधर-उधर होता रहता है। जब तक मन की शंका का समाधान न हो तब तो वह कौन होता है; शरीर या जीव आत्मा? तक आगे बात करना-सुनना व्यर्थ है। अब हम इस पर ही चर्चा करेंगे। जीव आत्मा। अब यह बताओ कि इस शरीर से भिन्न चैतन्य शक्ति जीव आत्मा है, यह तो अब यह बताओ जो सच्चे देव परमगुरू आप्त कहलाते हैं जो सशरीरी समझ में आ गई है? केवलज्ञानी वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी होते हैं वह कौन होते हैं ? हाँ,यह तो बिल्कुल स्पष्ट समझ में आ गई है। मनुष्य भव में ही कोई जीव आत्मा होते हैं। अब यह बताओ कि वह जीव आत्मा सब शरीरों में एक ही है कि अलग-अलग है? जो अशरीरी अविकारी निष्कलंक पूर्ण शुद्ध सिद्ध परमात्मा होते हैं वह कौन वैसे तो सब शरीरों में अलग-अलग ही जीव आत्मायें हैं क्योंकि कभी कोई होते हैं? हमरता है तो अकेला मरता है, दूसरा या सब एक साथ नहीं मरते तथा यहाँ वर्तमान वह भी जीव आत्मा-चैतन्य तत्व ही होते हैं। १ में भी कोई सुखी-दुःखी, गरीब-निर्धन, कोई धनवान, कोई रोगी-निरोगी, कोई यह ज्ञानी गुरू सच्चे देव सर्वज्ञ परमात्मा और पूर्ण शुद्ध मुक्त सिद्ध परमात्मा - छोटा-बड़ा, कोई मोटा-दुबला होता है। इससे तो यही पता लगता है कि सब जीव कौन हुए? - अलग-अलग हैं। मनुष्य भव में से ही कोई-कोई जीव आत्मा। और यह पशु-पक्षी हैं, छोटे-बड़े जीव जन्तु हैं इनमें भी जीव आत्मा है या 0 यह ज्ञानी शुद्ध मुक्त होने की शक्ति जीव आत्मा में स्वयं है या किसी के करने नहीं है ? कराने से हुई? इन सबमें भी चेतन शक्ति जीव आत्मा है, क्योंकि यह भी मरते-जीते हैं। नहीं, यह शक्ति तो स्वयं ही जीव आत्मा में है। तो यह भी सब अलग-अलग जीव आत्मा हैं या एक ही हैं? कोई ज्ञानी गुरू हुआ, कोई केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा हुआ, कोई सिद्ध नहीं, यह सब भिन्न अलग-अलग जीव आत्मा हैं। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी तो अब यह बताओ कि यह सब भिन्न अलग-अलगजीव आत्मा ऐसे क्यों हैं. तो आप इस संबंध में,जो अपना विषय चल रहा है इसे तो बताइये? अर्थात् मनुष्य भव में भी यह नाना विभिन्नतायें और पशु-पक्षी आदि जीव भी ऐसे देखो भैया, इसे हम संक्षेप में बता रहे हैं कि वास्तविकता क्या है। विशेष क्यों हैं? जानने के लिये स्वयं ही चिन्तन मनन अध्ययन करना। तो सर्वप्रथम शरीर की और कहते हैं यह सब अपने-अपने कर्मों के अनुसार होते हैं। जीव की भिन्नता भासित हो गई कि यह शरीर अलग है और जीव आत्मा अलग है इसका क्या मतलब है, स्पष्ट बताओ? और यह जीव आत्मा ही परमात्मा होता है । यह सभी दर्शनों में कहा है, कथन ऐसा कहते हैं और देखने में भी आता है कि जो जीव जैसे अच्छे-बुरे, पद्धति भिन्न-भिन्न है। बात एक ही है और धर्म का मूल आधार भी यही है कि इस पाप-पुण्य कर्म करता है, उसी अनुसार उसका फल भोगता है। इस संसार में जीव की दृष्टि पर से हटकर अपनी तरफ होवे, अपने आत्मकल्याण का लक्ष्य बनावे चारगति, चौरासी लाख योनियाँ हैं और उनमें अनन्त जीव अनादिकाल से भ्रमण तो जीवन में सुख शांति आवे और राग-द्वेष, पापादि विषय-कषाय, मोह के छूटने कर रहे हैं। S पर कर्म बन्ध और जन्म-मरण से छुटकारा होजावे। सिद्धांत यह है कि प्रत्येक जीव तो अब यह बताओ कि यह अनन्त जीव अनादिकाल से ऐसा परिभ्रमण क्यों में स्वतंत्र है और यही आत्मा से परमात्मा होता है। प्रत्येक जीवात्मा में परमात्म शक्ति कर रहे हैं? अगर एक ईश्वर के अंश होते तो सबको एक समान एक सा ही होना विद्यमान है। यह निज सत्ता शक्ति का श्रद्धान, ज्ञान, आचरण करे तो परमात्मा हो चाहिये था, सबको एक साथ जीना-मरना, सुखी-दुःखी होना चाहिये था, फिर जावे। संसार की परम्परा में सभी एक मत हैं कि जो जीव जैसे कर्म करता है, उस यह विभिन्नतायें क्यों हैं? R अनुसार वह सुख-दुःख भोगता है। चारगति चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कहते हैं यह सब उस परमात्मा की लीला है। २ करता है तथा जीव के सत्ता स्वरूप को भी सबने एक सा ही माना है। जीव, अरूपी, पर लीला का मतलब तो यह होता है कि एक व्यक्ति अनेक रूप धारण करे, निराकार,अजर-अमर, अविनाशी चैतन्य लक्षण वाला ज्ञान और आनन्द मयी सुख अनेक प्रकार के स्वांग करे; लेकिन एक समय में एक प्रकार का ही रूप और स्वभावी है। यह बात सभी दर्शन स्वीकार करते हैं। शरीर की रचना जन्म-मरण, स्वांग कैसे कर सकता है, यह एक समय में ही अनन्त रूप और अनन्त स्वांग और कर्मफल भोगना सबमें एक समान है। शब्दों की भिन्नता से अज्ञानियों ने मत-मतान्तर अलग-अलग दशाओं में परिणमन होना कैसे सम्भव है? तथा एक जीव से दूसरे भेदभाव पैदा कर दिये हैं। जीव को जाति सम्प्रदाय के बंधनों में उलझा दिया। ज्ञानी जीव की प्रकृति परिस्थिति कर्मोदय सब अलग-अलग ही होते हैं। इस कारण यह को तो कभी भेदभाव होता ही नहीं है। जो अध्यात्मवादी हैं अर्थात् आत्मकल्याण के किसी भी युक्ति आगम प्रमाण से ठीक नहीं बैठता है? इच्छुक हैं उन्हें तो कोई भेदभाव नहीं है । सत्य और परमतत्व तो एक ही है परंतु तो अब आप ही बताओ कि यह सब क्या है और कैसा है, यह भेदभाव संसारी, अज्ञानी जीवों के अनेक मत और भेदभाव हैं। यहाँ अपने समझने की बात मान्यता कैसे मिटे, इसे समझाओ? १ समझें,सत्य को स्वीकार करें तो अपना भला होवे। देखो भैया, संसार तो अनादि अनन्त है और अनन्त जीव हैं। सबकी बुद्धि आपकी चर्चा से तो सब बात ही स्पष्ट हो गई, कोई भेदभाव की बात ही नहीं होनहार कर्मोदय परिस्थिति भी भिन्न-भिन्न हैं तो सबको एक करना तो असम्भव रही। अब जो भेदभाव माने उसकी वह जाने परन्तु आत्म कल्याण का मार्ग तो है। हाँ,जो भव्य जीव समझना चाहे वह सत्य को समझकर अपना भला कर सकता 5 सबका एक ही है कि अपने सत्स्वरूप की श्रद्धा करे, ज्ञान करे और तदनुसार आचरण 9 है। यहां किसी को समझाया नहीं जा सकता, परन्तु जो समझना चाहे, सुधरना करे तो प्रत्येक जीव आत्मा परमात्मा हो सकता है। चाहे वह समझ सकता है. सुधर सकता है, ऐसा शुभ योग वर्तमान में मिला है। मनुष्य इसी अभिप्राय को लेकर तारण स्वामी ने प्रत्येक मानव मात्र को आत्म कल्याण भव है, बुद्धि है, विवेक है, सद्गुरू और सत्शास्त्र के माध्यम से अपना भला कर करने के लिये प्रेरित किया, उन्होंने सब जाति-पांति के बन्धनों को तोड़कर मानव सकता है। मात्र को धर्म का वास्तविक स्वरूप बताया और इसी की साधना आराधना में रत Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You श्री आचकाचार जी गाथा-५,६ DOO रहकर वह स्वयं मुक्ति मार्ग पर चले। नमस्कार करता हूँ। इसी क्रम में आगे भी इसको और स्पष्ट करते हैं विशेषार्थ- मैं भगवान महावीर को नमस्कार करता हूँ। किसे ? क्या राजा अनंत दर्सनं न्यानं, वीज नंत अमूर्तयं । . सिद्धार्थ के बेटे महावीर को? नहीं। तो क्या जिस शरीर का नाम महावीर था उसे? विस्व लोकं सुयं रूपं, नमामिहं धुव सास्वतं॥५॥ * नहीं,जो केवलज्ञान, केवलदर्शन में अपने अरूपी,शाश्वत, अविनाशी, सिद्ध स्वरूप ७ अन्वयार्थ- (नमामिहं धुव सास्वतं) मैं उस ध्रुव शाश्वत शुद्धात्म तत्व को १२ को प्रत्यक्ष व्यक्त रूप में देख रहे हैं अर्थात् जो ज्ञानानंद स्वभावमय ही हैं। तारण ॐ स्वामी यहाँ उसे नमस्कार कर रहे हैं जो जीव का शुद्ध स्वरूप है, क्यों कर रहे हैं? नमस्कार करता हूँ (विस्व लोकं सुयं रूपं) जो समस्त विश्व में स्व रूपवान है इसलिये कि यह उन्हें भी इष्ट प्रयोजनीय है। वह भी वैसे ही होना चाहते हैं इसलिये (अनंत दर्सनं न्यानं) अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञान (वीर्ज नंत अमूर्तयं) अनन्त वीर्य है उस स्वरूप को नमस्कार कर रहे हैं। अनन्त सुखमयी अमूर्तीक है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि इससे तो यही सिद्ध हआ कि पर के निमित्त, पर के विशेषार्थ- ध्रुव अर्थात् त्रिकाली, शाश्वत अर्थात् अनादि अनन्त काल तक र आश्रयपने से ही स्व का बोध होता है। पर के अवलम्बन से ही धर्म और मोक्ष की रहने वाला समस्त विश्व लोक में स्वरूपवान अर्थात् जो हमेशा अपने स्वरूप में ही पाप्ति होती है। रहता है। जो अनादि से अचेतन पुद्गल के साथ रहता हुआ भी जिसका एक प्रदेश उसका समाधान करते हैं कि यहाँ तो समझ में ही विपरीतपना हो गया। किस भी अचेतन-पुद्गल रूप नहीं हुआ। जिसने ज्ञानमयी स्वसत्ता को कभी छोड़ा नहीं 2 अभिया नहा अभिप्राय अपेक्षा से क्या बात कही जा रही है इसको भी ध्यान में रखना चाहिये; है। जो अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान,अनन्त सुख, अनन्त वीर्यमयी अमूर्तीक है, ऐसेयोकि वायमचा अमृताकह, ए, क्योंकि जैनागम में चार अनुयोग और निश्चय-व्यवहार नय की अपेक्षा कथन है, शुद्धात्म तत्व अर्थात् निज के सत्स्वरूप को मैं नमस्कार करता हूँ। यह है ज्ञानी. र करता है। यह हशाना उसका ज्ञान होना आवश्यक है इस ज्ञान के बिना तत्व के निर्णय, वस्तु स्वरूप को साधक की अपने इष्ट की आराधना । वर्तमान कर्म संयोग में रहता हुआ भी अपने "मरहता हुआ भा अपन नहीं समझा जा सकता। यहाँ तारण स्वामी को मूल में तो अपना स्वलक्ष्य ही है और सत्स्वरूप को ऐसा देखता है और उसी की सतत् वन्दना भक्ति करता है क्योंकि 8 अपने सत्स्वरूप की साधना-आराधना में ही रत हैं। धर्म और मोक्ष की उपलब्धि कहा है- यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी । जो जैसी भावना करता है, अस्व के लक्ष्य से ही होती है। जब तक पर का लक्ष्य, पर का अवलम्बन रहेगा, तब उसको वैसा ही फल मिलता है। 2 तक तीन काल में भी धर्म और मोक्ष नहीं मिल सकता। यहाँ तो जिन्होंने अपने उस बंधा मिला है बंधे को,छूटे कौन उपाय । सत्स्वरूप को उपलब्ध कर लिया है। अपने में उस सत्स्वरूप का बहुमान जगाने के कर सेवा निबंध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ ९. लिये उनका स्मरण और नमस्कार किया है कि देखो उन्होंने भी इस मार्ग से, इस इसी क्रम में तारण स्वामी ने उन भगवान महावीर को नमस्कार किया है प्रकार ऐसे अपने सत्स्वरूप को पा लिया, तुम भी पुरुषार्थ करो, इस अभिप्राय से जिन्होंने ऐसे अपने सत्स्वरूप को पा लिया, उसी मय हो गये। स्मरण और नमस्कार किया है तथा व्यवहार में अपनी कृतज्ञता प्रगट की है ; क्योंकि नमस्कृतं महावीरं, केवलं दिस्टि दिस्टितं । तारण स्वामी, भगवान महावीर स्वामी के समवशरण के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं। भगवान विक्त रूपं अरूपं च, सिद्ध सिद्धं नमामिहं ॥६॥ 5 महावीर की दिव्य ध्वनि में जो धर्म का स्वरूप आया, इसे तारण स्वामी ने सुना अन्वयार्थ- (नमस्कृतं महावीरं) महावीर भगवान को नमस्कार करता हूँ समझा है और धर्म की महिमा अतिशय को प्रत्यक्ष देखा है, इस उपकार को चुकाने (केवलं दिस्टि दिस्टितं) जो केवल दर्शन में देख रहे हैं (विक्त रूपं अरूपं च) जी के लिये नमस्कार किया है। धर्म की उपलब्धि स्व का बोध सम्यक्दर्शन, पर के अपने अरूपी स्वरूप को प्रत्यक्ष व्यक्त रूप में (सिद्ध सिद्धं नमामिहं) इसी से आश्रय पर के अवलम्बन से कभी नहीं होता। वह तोस्व के आश्रय,स्व के अवलम्बन अपने सिद्ध स्वरूप को सिद्ध कर लिया,पा लिया है, मैं ऐसे सिद्ध स्वरूप को र से ही होता है। निमित्त का बहुमान, स्वीकारता ही ज्ञानी की पहिचान है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी इसी क्रम में इसी अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिये आगे की गाथा कहते हैं - केवली नंत रूपी च सिद्ध चक्र गर्न नमः । बोच्छामि त्रिविधि पार्त्र च, केवल दिस्टि जिनागमं ॥ ७ ॥ अन्वयार्थ (केवली नंत रूपी च) अनन्त चतुष्टय स्वरूप को प्राप्त केवलज्ञानी तथा (सिद्ध चक्र गनं नमः) सिद्धों के समूह को मैं नमस्कार करता हूँ (केवल दिस्टि जिनागमं) केवलज्ञानी भगवान के अनुसार जिनागम में वर्णित (बोच्छामि त्रिविधि पात्रं च) तीन प्रकार के पात्रों को कहता हूँ। विशेषार्थ - अनन्त केवली और उस रूपधारी अर्थात् निर्ग्रन्थ दिगम्बर, वीतरागी साधु और सिद्धों का समूह अर्थात् अनन्त सिद्ध परमात्मा वीतराग मार्ग, जिनागम में वन्दन योग्य कहे गये हैं क्योंकि साधुपद से ही वीतरागता प्रारंभ होती है। साधु पद से ही अरिहन्त, सिद्ध पद होता है। साधु पद में आचार्य, उपाध्याय, साधु यह तीन गुरू कहलाते हैं। अरिहन्त और सिद्ध देव कहलाते हैं। अरिहन्त सशरीरी होते हैं उन्हें परमगुरू भी कहते हैं, देव भी कहते हैं तथा उनकी दिव्य ध्वनि, वाणी को ही जिनवाणी कहते हैं। इसी को शब्दों में गुंथित करने को शास्त्र कहते हैं। सिद्ध परमात्मा अशरीरी परम देव होते हैं क्योंकि यही जीव का वास्तविक सत्स्वरूप है, जो जीव ऐसे अपने सिद्ध स्वरूप की श्रद्धा करता है उसको ही सम्यक्दर्शन होता है । व्यवहार में यह तीन माध्यम हैं- केवली परमात्म देव, वीतरागी साधु गुरू तथा जिनवाणी शास्त्र, जिनके द्वारा हमें अपने स्वरूप को जानने, धर्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है। सिद्ध परमात्मा परम देव, श्रद्धा और आराधना के माध्यम हैं। निश्चय से सिद्ध के समान शुद्ध बुद्ध अविनाशी परमानंदमयी मेरा सत्स्वरूप है, ऐसी प्रतीति और अनुभूति ही सम्यक्दर्शन है; इसलिये निश्चय में अपनी स्व श्रद्धा होवे और मुझे भी इसी प्रकार वीतरागी बनना है, मुक्त होना है यह लक्ष्य होवे तो यह हमारे लिये माध्यम, सहयोगी उपकारी हैं तथा इस भावना से नमस्कार करना सार्थक है। तारण स्वामी ने निश्चय अपना निज शुद्धात्म तत्व ही सच्चा देव है, वही इष्ट है, इस अभिप्राय से पहले अपने शुद्धात्म तत्व को नमस्कार किया और व्यवहार में जिन्होंने उस सत्स्वरूप को पा लिया है, उन्हें नमस्कार किया है। Y YA YA YA. ८ गाथा ७-१० इसी क्रम में गुरू का स्वरूप बताते हुए उन्हें नमस्कार किया है - साधऊ साधु लोकेन, ग्रंथ खेल विमुक्तयं । रत्नत्रयं मयं सुद्धं, लोकालोकेन लोकितं ॥ ८ ॥ संमितं सुद्ध धुवं दिस्टा, सुद्ध तत्त्व प्रकासकं । ध्यानं च धर्म सुकलंच, न्यानेन न्यान लंकृतं ॥ ९ ॥ आरति रौद्र परित्याजं, मिथ्या त्रिति न दिस्टिते । सुद्ध धर्म प्रकासी भूतं, गुरं त्रैलोक वंदितं ।। १० ।। अन्वयार्थ - (लोकालोकेन लोकितं) जो लोकालोक को देखने जानने वाला है (रत्नत्रयं मयं सुद्धं) रत्नत्रयमयी शुद्ध है (साधऊ साधु लोकेन) साधु ऐसे निज शुद्धात्म तत्व को देखता और साधता है (ग्रंथ चेल विमुक्तयं) समस्त पाप परिग्रह और वस्त्रादि के बंधनों से मुक्त होकर (संमिक्तं सुद्ध धुवं दिस्टा) सम्यक्त्व से शुद्ध अपने ध्रुव स्वभाव को देखता है (सुद्ध तत्त्व प्रकासकं ) शुद्ध तत्व का प्रकाश करता है (ध्यानं च धर्म सुकलं च) धर्म और शुक्ल ध्यान को धारण करता है (न्यानेन न्यान लंकृतं) ज्ञान विज्ञान की साधना में लीन रहता है (आरति रौद्र परित्याजं) आर्त रौद्र ध्यान जिसके छूट गये हैं (मिथ्या त्रिति न दिस्टिते) तीनों मिथ्यात्व भी जिसको दिखाई नहीं देते (सुद्ध धर्म प्रकासी भूतं) जो शुद्ध धर्म अर्थात् अपने शुद्ध स्वभाव के प्रकाशन में ही रत रहता है (गुरं त्रैलोक वंदितं) ऐसा गुरू तीन लोक में वन्दनीय है। विशेषार्थ जो लोकालोक को देखने जानने वाला है अर्थात् ज्ञान स्वभावी जीव तत्व, जो रत्नत्रयमयी अर्थात् सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मयी शुद्ध है। समस्त पाप परिग्रह और वस्त्रादि के बंधनों से मुक्त होकर साधु ऐसे निज शुद्धात्म तत्व को देखता और साधता है। यहाँ साधु किसे कहते हैं, यह बताया जा रहा है कि जो जीव आत्मा मनुष्य भव में निज शुद्धात्म तत्व के आश्रय अर्थात् सम्यक्दर्शन होने पर समस्त पाप-परिग्रह, पाँच पाप-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, और परिग्रह तथा चौबीस परिग्रह ( दस बाह्य और चौदह अंतरंग) और समस्त वस्त्रादि के बन्धनों से मुक्त होकर वीतरागी, निर्ग्रन्थ दिगम्बर, महाव्रती साधु होते हैं, वे अपने रत्नत्रयमयी शुद्धात्म तत्व को साधते हैं। सम्यक्त्व से शुद्ध अपने ध्रुव स्वभाव 9 को ही देखते हैं, शुद्ध तत्व का ही प्रकाश करते हैं अर्थात् हमेशा आत्मा की ही चर्चा करते हैं तथा ज्ञान, ध्यान में ही रत रहते हैं। आर्त-रौद्र ध्यान जिनके विला गये हैं, Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आचकाचार जी गाथा-११,१२,१३R O O धर्म और शुक्ल ध्यान की साधना में ही लीन रहते हैं, तीनों मिथ्यात्व का अंश भी बुद्धि रूप सरस्वती का प्रकाश हुआ है। उनमें नहीं दिखता । शुद्ध धर्म के प्रकाशन में प्रयत्नशील हैं अर्थात् अपने शुद्ध (कुन्यानं तिमिरं पून) कुज्ञान रूपी अन्धकार से भरे हुए नेत्रों में जो (अंजनं स्वभाव की स्थिरता, लीनता का ही पुरुषार्थ करते रहते हैं। ऐसे गुरू अर्थात् जो , न्यान भेषजं) ज्ञानांजनशलाका औषधि लगाकर (केवल दिस्टि सुभावंच) केवली स्वयं तरते और अन्य जीवों के मार्गदर्शक हैं वे तीन लोक में वन्दनीय हैं,कहा भी के समान अपने स्वभाव को दिखाती है (जिन कंठं सास्वती नम:) जिन अर्थात् जिनेन्द्र देव अथवा सम्यक्दृष्टि के कंठ में विराजमान सरस्वती को नमस्कार करता गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय। बलिहारी गुरु आपकी,गोविन्द दियो बताय॥ ८ विशेषार्थ- कमलासन पर कंठ में स्थित सरस्वती अर्थात् सुबुद्धि । व्यवहार तारण स्वामी ने भी कहा है है में तीर्थंकर के मुख कमल से निकली दिव्य ध्वनि रूप वाणी को गणधरों ने गूंथा, जो बिन सुने सयानो होय, तो गुरु सेवा करे न कोय ।। सुन्न स्वभाव-८ शब्दों द्वारा विस्तार किया और शास्त्र रूप लिखा उसे जिनवाणी या सरस्वती सच्चे गुरू ही आप तरें और पर को तारने वाले हैं, सद्गुरू का सत्संग जिस कहते हैं, जिसमें धर्म का वास्तविक स्वरूप बताया जाता है। जिसके स्वाध्याय, जीव को मिल जाये उसका कल्याण निश्चित ही है। अपना अन्तरात्मा ही अपना मनन-चिन्तन करने से अज्ञान रूप अन्धकार क्षय हो जाता है, इसे व्यवहार से मार्गदर्शक और मुक्ति का साधक है, वही सच्चा गुरू है जो हमेशा साथ रहता है, नमस्कार करते हैं। तारण स्वामी यहाँ निश्चय नय से उस सुबुद्धि रूपी सरस्वती को शुभाशुभ प्रवृत्ति से बचाता, सावधान करता रहता है। अन्तरात्मा का जागरण ही नमस्कार कर रहे हैं, जिसके द्वारा भेदज्ञान होने पर अपना शाश्वत ॐ ह्रीं श्रीं से सद्गुरू का मिलना है। है शुद्ध,द्रव्य गुण पर्याय से पूर्ण,कुज्ञान और मिथ्यात्वादि से मुक्त,सर्वज्ञ स्वभावी, आगे इसी क्रम में सरस्वती अर्थात् निर्मल बुद्धि को नमस्कार किया है- S केवलज्ञानमयी, अपना ध्रुव स्वभाव दिखाई देता है। ऐसी सुबुद्धि के जागरण होने सरस्वती सास्वती दिस्टं, कमलासने कंठ स्थितं। Sपर जीव का संसार टिकता ही नहीं है। संसार, शरीर, भोगों से विरक्ति, अरुचि हो उर्व हियं श्रियं सुख, तिअर्थ प्रति पूर्नितं ॥११॥ जाती है, अपने ममल ध्रुव ज्ञानानंद स्वभाव की रुचि जाग जाती है, अतीन्द्रिय कुन्यानं त्रि विनिर्मुक्तं, मिथ्या छाया न दिस्टते । आनंद और मुक्ति का ही एक मात्र लक्ष्य रहता है। जिसका स्व का अध्ययन, मनन, 2 चिन्तन ही चलता रहता है, जो निरन्तर भीतर बोलती रहती है, जो स्व-पर का, सर्वन्यं मुष वानी च, बुद्धि प्रकास सास्वती नमः ॥१२॥ २ हित-अहित का विवेक कराती है, वही सुबुद्धि रूपी सरस्वती जिनवाणी वन्दनीय कुन्यानं तिमिरं पून, अंजनं न्यान भेषजं । 5 नमस्कार करने योग्य है। केवल दिस्टि सुभावंच, जिन कंठं सास्वती नमः॥१३॥ यहाँ कोई प्रश्न करे कि सच्चे देव में निश्चय से निज शुद्धात्म तत्व को नमस्कार अन्वयार्थ- (सरस्वती सास्वती दिस्ट) सरस्वती अर्थात् निर्मल बुद्धि, किया और व्यवहार में जिन्होंने उस शुद्धात्म तत्व को उपलब्ध कर लिया है उन्हें विशुद्धमति अपने शाश्वत ध्रुव स्वभाव को देखती है, जो कैसा है (उवं हियं श्रियं । नमस्कार किया यह तो ठीक तथा सच्चे गुरू में निश्चय से अन्तरात्मा का जागरण 5 और व्यवहार से वीतरागी साधु को नमस्कार किया, यह भी ठीक था; लेकिन यह १ सुद्ध) ॐ ह्रीं श्रीं स्वरूप से शुद्ध है (तिअर्थं प्रति पूनितं) द्रव्य गुण पर्याय से पूर्ण है " सरस्वती जिनवाणी में तो एक मात्र सत्शास्त्रही आते हैं.यह सबद्धि कहाँ से आ गई (कमलासने कंठ स्थितं) कमलासन पर कंठ में स्थित है। (कुन्यानं त्रि विनिर्मुक्तं) तीनों कुज्ञान से बिल्कुल मुक्त है (मिथ्या छाया न और इससे क्या प्रयोजन सिद्ध होता है, यह कुछ समझ में नहीं आया? दिस्टते) जहाँ मिथ्यात्व की छाया भी दिखाई नहीं देती (सर्वन्यं मुष वानीच) सर्वज्ञ इसका समाधान करते हैं कि पहले तो यह समझो कि बुद्धि किसे कहते हैं? 7 २ अर्थात् केवलज्ञानी तीर्थंकर की दिव्य ध्वनि वाणी से (बुद्धि प्रकास सास्वती) जिस मति, श्रुतज्ञान की पर्याय को बुद्धि कहते हैं। इसमें कुमति कुश्रुत की पर्याय कुबुद्धि Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री श्रावकाचार जी कहलाती है और सुमति-सुश्रुतज्ञान की पर्याय सुबुद्धि कहलाती है। मिथ्यात्व सहित रहती है। इस प्रकार सच्चे देव, सच्चे गुरू और सत्शास्त्र का स्वरूप बताकर निश्चय जो ज्ञान है वह कुज्ञान है और सम्यक्त्व सहित जो ज्ञान है वह सुज्ञान है। अब यहाँ को प्रधान रखते हुए व्यवहार भी निभाया है। बाहर में सत्शास्त्र का स्वाध्याय किया, प्रवचन सुने, यहाँ तक कि साक्षात् तीर्थकर . इसी क्रम में पुन: देव, गुरू, शास्त्र की वन्दना कर शास्त्र लिखने का अभिप्राय के समवशरण में उनकी दिव्यध्वनि सुनी, पर क्या हुआ? ॐ कहते हैं - देशनालब्धि हो गई। देवं गुरं श्रुतं वन्दे, न्यानेन न्यान लंकृतं। भाई ! देशना लब्धि भी किसको कहते हैं, जो बात हमने सुनी वह बात समझ बोच्छामि श्रावगाचारं, अविरत संमिक दिस्टितं ॥१४॥ में आ जावे, चित्त में बैठ जावे उसका नाम देशना लब्धि है अर्थात् अपने समझने की अन्वयार्थ- (न्यानेन न्यान लंकृत) जो ज्ञान ही ज्ञान से शोभायमान अर्थात् पात्रता, बाहर के यह सुनने-पढ़ने से कुछ नहीं होता। तो यहाँ जिसकी सुबुद्धि हो । गई बस उसे ही जिनवाणी सरस्वती का सब रहस्य समझ में आ गया, फिर मात्र ज्ञानमयी है (देवं गुरं श्रुतं वन्दे) ऐसे शुद्धात्मतत्व देव, गुरू और शास्त्र को उसकी सुबुद्धि ही उसे सब कुछ बताती है। तारण स्वामी अध्यात्मवादी साधक थे, नमस्कार करता हूँ (अविरतं संमिक दिस्टितं) अव्रत सम्यक्दृष्टि के लिये (बोच्छामि श्रावगाचार) श्रावकाचार कहता हूँ। उन्होंने अपने जीवन में स्वयं का अनुभव किया और आगम को अनुभव प्रमाण सिद्ध किया; क्योंकि आगम में किस अपेक्षा क्या लिखा गया है और लिखने वाले ने विशेषार्थ- यहाँ ज्ञान ही ज्ञान से शोभायमान अर्थात् शुद्धात्म तत्व को तीन वर्तमान देश, काल, परिस्थिति, भाषा के अनुसार क्या लिखा है, उसका अभिप्राय - रूपों में अर्थात् देव शुद्धात्मा, गुरू अन्तरात्मा और शास्त्र सुबुद्धि का पुनः स्मरण क्या है ? जब तक यह स्वयं के अनुभव में न आवे, तब तक कार्यकारी सार्थक नहीं ४ करते हुए वंदना की है और अव्रत सम्यक्दृष्टि के लिये श्रावकाचार लिखने का करत हुए है। यहाँ तो तारण स्वामी ने अपूर्व रहस्य उद्घाटित किये हैं, जो एकान्तवादी अभिप्राय व्यक्त किया है;अर्थात् जिसे अपने तत्व की श्रद्धा और निज शुद्धात्मानुभूति हठाग्रह आर साम्प्रदायिक दुराग्रह को छोडकर देखो समझो तो समझ में आ ही गई, उस आग बढन कालय प्ररित करते हुए श्रावकाचार अर्थात श्रावक के जीवन का परम रहस्य अपूर्व आनंद उपलब्ध होवे। 3 आचरण का त्रेपन क्रियाओं का वर्णन करते हैं कि निश्चय से तो जो निज यहाँ एक प्रश्न और है कि यह मति, श्रुतज्ञान की पर्याय बुद्धि कहलाती है ही शुधारमा शुद्धात्मानुभूति की लीनता रमणता, स्थिरता की साधना करता है और व्यवहार में और इसमें कुज्ञान-सुज्ञान की अपेक्षा कुबुद्धि-सुबुद्धि हो जाती है, तो यहाँ यह वेपन क्रियाओं का पालन करता है वह अव्रती से व्रती और महाव्रती होता हुआ, किसी को बहुत ज्ञान है, किसी को कम ज्ञान है, किसी की स्मरण शक्ति तीव्र विशेष • अपने सिद्ध पद को पाता है। है, किसी की मंद है यह क्या है? यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह अव्रत सम्यक्दृष्टि के लिये श्रावकाचार कहने का यह ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की विशेषता है, जिसके ज्ञानावरणीय 9 प्रयोजन रखा है तो जो सम्यक्दृष्टि हो गया हो अर्थात् जिसे निज शुद्धात्मानुभूति कर्म का उघाड़ क्षयोपशम ज्यादा है उसे बाहर में बहुत ज्ञान है, बहुत स्मरण शक्ति हो गई हो, वही इस श्रावकाचार को पढ़े और वही यह त्रेपन क्रियाओं का पालन करे, है, सब बातें कंठाग्र हो जाती हैं और जिसके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं जिससे अव्रती से व्रती, महाव्रती होता हुआ अपने सिद्ध पद को पावे, सामान्य है उसे कितना ही पढ़ते, स्मरण करते, स्मरण नहीं रहता। यह क्षायोपशमिक ज्ञान संसारी जीव के लिये तो यह कोई उपयोगी कार्यकारी नहीं है? कहलाता है जो कभी भी छूट सकता है। बुद्धि तो मति, श्रुतज्ञान की पर्याय है, जो उसका समाधान करते हैं कि बात तो यथार्थ सत्य है; क्योंकि जिसे भेदज्ञान, हमेशा जीव के साथ रहती है, इसमें यही विशेषता है कि यह पाँच इन्द्रिय और मन । सम्यकदर्शन हो गया है, वही तो आत्मा से परमात्मा बनेगा, जिसे अपने स्व स्वरूप की विशेषता से कम-ज्यादा होती है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक तो होती ही नहीं है, का बोध ही नहीं है कि मैं जीव हूँ, तो उसे धर्म की उपलब्धि कैसे होगी और मुक्ति सैनी पंचेन्द्रिय को होती है, उसमें भी कर्मफल चेतना, कर्मचेतना की विशेषता का मार्ग कैसे बनेगा। जीवन में सुख शान्ति चाहते हैं, जन्म-मरण के चक्र से छूटना चाहते हैं, संसार में दुःख और दुर्गति नहीं भोगना चाहते तो इसके लिये धर्म का M Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७७ 9 श्री आवकाचार जी आश्रय तो लेना ही पड़ेगा। अब यहाँ तारण स्वामी की महानता की विशेष बात जो इस ग्रन्थ के प्रारंभ में लिखी है, बड़ी अपूर्व बात है। सम्यक्दृष्टि कौन है, कौन नहीं है, यह बात तो स्वयं जाने या सर्वज्ञ जाने, दूसरा तो जान ही नहीं सकता और संसारी कर्म संयोग, गृहस्थ दशा में मोहादि की प्रबलता होने के कारण जीव को भी संशय विभ्रम हो जाता है कि ऐसी दशा में कैसे सम्यकदृष्टि हूँ, ना मालूम सम्यदृष्टि हुआ भी या नहीं हुआ। इस शंका, संशय भ्रम के निवारणार्थ, तारण स्वामी उस जीव की दशा का वर्णन करते हैं कि जिसे सम्यक्दर्शन, निज शुद्धात्मानुभूति हो गई, उसकी कैसी दशा होती है, उसकी श्रद्धा लक्ष्य और दृष्टि कैसी होती है, इस अन्तरंग परिणति का अपूर्व वर्णन किया है। जो सभी जीवों को सुनने, समझने, पढ़ने, चिन्तन करने की आवश्यकता है । यहाँ पहले सम्यकदृष्टि कैसा होता है, उसकी अन्तरंग दशा का वर्णन किया है, फिर बहिरात्मा अज्ञानी कैसा होता है उसका वर्णन किया है, आगे फिर अन्तरात्मा ज्ञानी कैसा होता है उसका वर्णन किया गया है और उसके बाद फिर अव्रती का आचरण कैसा होता है, व्रती का आचरण क्या है और महाव्रती कैसा होता है, यह बहुत ही अपूर्व वर्णन किया है, जो सामान्यत: अन्य श्रावकाचार में मिलना दुर्लभ है। तारण स्वामी ने जैन दर्शन के मर्म को भगवान महावीर के स्याद्वादी अनेकान्त मार्ग का निश्चय-व्यवहार के समन्वय पूर्वक वर्णन किया है, जो सभी जीवों को पठनीय, मननीय आचरणीय है। सामान्य गृहस्थ, अव्रत सम्यकदृष्टि की अन्तरंग दशा, भावना और श्रद्धान तथा लक्ष्य क्या होता है, इसका वर्णन प्रारंभ करते हैं - संसार का स्वरूप क्या है, इसे सम्यकदृष्टि कैसा मानता है - संसारे भय दुष्यानि, वैरागं जेन चिंतये । अनृतं असत्यं जानंते, असरनं दुष भाजनं ॥ १५ ॥ अन्वयार्थ - (संसारे भय दुष्यानि) संसार में भय और दुःख ही दुःख हैं (वैरागं जेन चिंतये) उस मुमुक्षु द्वारा वैराग्य भाव का चिन्तन चलता है (असरनं दुष भाजनं ) संसार अशरण तथा दुःखों का घर है (अनृतं असत्यं जानंते) नाशवान और झूठा है, ऐसा जानते हैं। विशेषार्थ - यहाँ सम्यकदृष्टि की अंतरंग दशा, भावना कैसी होती है, यह बताया जा रहा है कि उसे संसार में भय और दुःख ही दुःख लगता है और इससे छूटने का हमेशा विचार चलता रहता है। यहाँ संसार अर्थात् निश्चय से 'संसरति संसार:' 20 SYA YA YA ART YEAR. ११ गाथा १५ अपने स्वभाव से खिसक जाना, विभाव परिणमन करना फिर उसे अच्छा नहीं लगता; क्योंकि विभाव परिणमन चलने से भय, चिन्ता और दुःख होता है। व्यवहार में संसार का अर्थ है- धन, शरीर, परिवार। यह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि को तो सुख रूप और इष्ट लगते हैं; परंतु सम्यक्दृष्टि ज्ञानी को यह दुःखदाई, अनिष्ट कर लगते हैं, वह उन्हें अपने भी नहीं मानता, एकत्वपना भी टूट चुका है, लेकिन इन्हीं संयोगों में रहना पड़ रहा है। धन, शरीर, परिवार धन- संसार में जीव का कर्मोदायिक पाप-पुण्य रूप परिणमन चलता है, जिससे धनादि का हानि-लाभ होता है। आवश्यकतानुसार न होने से खेद खिन्नता, चिन्ता रहती है। धन का अभाव, धन की चाह पाप कराती है। धन के अभाव में चिन्ता, परेशानी रहती है, धन की बहुलता में विषय- कषायों की प्रवृत्ति बढ़ती है। नाम यश आदि की चाह बढ़ती है, परिग्रह का फैलाव अधिक होने से हमेशा आकुलता बनी रहती है। रोटी, कपड़ा और मकान यह जीवन की आवश्यकतायें हैं, इनका अभाव दुःखी रखता है, सद्भाव भयभीत चिन्तित रखता है। संसार में जीने के लिये धन आवश्यक है; क्योंकि धन के बिना संसार का कोई काम नहीं होता, संसार •में धन सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है और यही सारे पाप, अनर्थ, अत्याचार, अन्याय, भ्रष्टाचार कराने वाला है। शरीर- जब तक जीव संसार में है तब तक शरीर का संयोग तो रहता ही है क्योंकि अशरीरी सिद्ध परमात्मा होते हैं। सशरीरी, कर्मसंयोगी संसारी होते हैं । शरीर ही मैं हूँ, ऐसी मान्यता तो मिथ्यात्व है, लेकिन शरीर मेरा है यह मान्यता भी अज्ञान है, इसी से जीवन में अशान्ति और दुःख होता है, वीतरागी होने के पूर्व तक शरीर का संबंध और राग का सद्भाव रहता है। शरीर स्वस्थ्य रहे, रोगादि न हो, इसकी चिन्ता रहती है, खाने-पीने, पहनने ओढ़ने, रहने आदि की चिन्ता लगी रहती है, पाँचों इन्द्रियों के विषय-भोग, अशान्त उद्विग्न करते रहते हैं, मन की कल्पनायें, चाह तो निरन्तर ही लगी रहती है। शरीर का बचपन, जवानी, बुढ़ापा रूप परिणमन चलता है। शरीर की असक्तता, शिथिलता, बुढ़ापा, बीमारी, कुरूपता, अंग-भंग हीनता आदि हमेशा ही दुःखी और भयभीत रखती हैं। विषय, पाप आदि सब शरीर से ही होते हैं। जब तक शरीर का लगाव - आसक्ति रहती है, तब तक जीव निरंतर ही भयभीत, भ्रमित, अशांत, परेशान दुःखी रहता है। परिवार - यह सब अनर्थों की जड़ है, जीव की दुर्गति का कारण परिवार ही Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी है। परिवार के पीछे ही पाप, अन्याय, परिग्रह आदि करना पड़ते हैं और मोह ही संसार के साथ शरीर के स्वरूप का भी विचार करता है कि यह शरीर कितना. संसार का राजा है, मोह ही सब कर्मों का राजा है, मोह में फँसा जीव पागल, अन्धा अपवित्र मलमूत्र का घर है, इसी बात को इस गाथा में कहते हैंहोता है, दु:ख का एक मात्र कारण मोह है। असत्यं असास्वतं दिस्टा, संसारे दुष भीरुहं। परिवार के कारण-मोह, शरीर के कारण-राग,धन के कारण-मेष होता सरीरं अनृतं दिस्टा, असुच अमेव पूरितं ॥१६॥ है यही संसार है। चार गति चौरासी लाख योनियों का परिभ्रमण, जन्म-मरण का चक्र ही संसार अन्वयार्थ- (संसारे दुष भीरुह) संसार के दुःखों से भयभीत होकर (असत्यं । है,जहाँ भय और दुःख ही दुःख भरा है। मिथ्यादृष्टि तो मूच्छित, बेहोश है. उसे तो असास्वतं दिस्टा) इसको असत्य झूठा अशाश्वत क्षणभंगुर नाशवान देखता है इसका कुछ पता ही नहीं है, वह तो इसी में सुख की आशा से डूबता-मरता रहता है। ४ (असुच अमेव पूरित) अशुचि अपवित्र मलमूत्रादि से भरा हुआ (सरीरं अनृतं दिस्टा) (असुच अमवपू सम्यक्दृष्टि इससे छूटने का वैराग्य भावना का चिन्तवन करता है परन्त कर्मों की यह शरीर अनित्य है ऐसा विचार करता है। बलवत्ता के कारण छूट नहीं पाता, फिर भी निरन्तर इसके स्वरूप का विचार करता विशेषार्थ- सम्यक्दृष्टि ज्ञानी संसार के दु:खों से भयभीत होकर इसको रहता है, संसार नाशवान और झूठा है, ऐसा जानता है। संसार नाशवान है अर्थात् असत्य, क्षणभंगुर, नाशवान ही देखता है, इससे छूटने का ही विचार करता है। परिवर्तनशील है, क्षणभंगुर है, इसका परिणमन प्रति समय चलता और बदलता चक्रवर्ती की सम्पदा, इन्द्र सरीखे भोग। रहता है। यहाँ स्थिर, स्थायी, अविनाशी कोई भी कुछ भी नहीं है, धन, शरीर, काक बीट सम लखत ४,सम्यवृष्टि लोग। परिवार का भी परिणमन परिवर्तन होता रहता है। यहाँ का संयोग संबंध सब सिंह पीजरा में दियो, जोर चले कहु नाहिं। नाशवान, झूठा है। जैसे-वृक्ष पर पक्षी रैन बसेरा करते हैं, प्रात: सब अलग-अलग . छटपटात नित रहत है,पड़ो पीजरा माहि॥ उड़ जाते हैं, वैसे ही इस पर्याय में मनुष्य भव और यह परिवार के संयोग में जब तक यह है अव्रत सम्यकदृष्टि जीव की दशा, जहाँ संसारी जीव इसी में सुख की जिसकी, जितनी आयु है उतने समय तक रहता है, और फिर अपने कर्मों के अनुसार कल्पनायें करता रहता है, वहाँ सम्यकदृष्टि जीव निरन्तर छूटने के लिये छटपटाता अपने ठिकाने चला जाता है। यहाँ न एक जीव से दूसरे जीव का कोई संबंध है. न रहता है। संसारी जीव को जहाँ सुन्दर, स्वस्थ्य शरीर मिल जाये तो वह इतना परिवार का ठिकाना है, न शरीर स्थायी है और न धनादि ही स्थिर और स्थायी है। मगन हो जाता है कि फिर उसे आगे-पीछे की कुछ सुध नहीं रहती, इस क्षणिक पाप-पुण्य के उदयानुसार धनादि का परिणमन होता रहता है, सब स्वार्थका संसार सुख,पुण्य की विष्ठा को ही आनंद मानता है। सामान्य जन से जब व्यवहार में पूछा है। सम्यक्दृष्टि इस बात को जानता है। मिथ्यादृष्टि इसके धोखे में ही फंसा रहता जाता है कि सब कुशल-आनंद में हो, तो वह बड़े प्रसन्न होकर कहता है कि हाँ है। यहाँ संसार में कोई शरण नहीं है अर्थात् कोई शरण देने वाला रक्षा करने वाला भगवान की दया है, आपका आशीर्वाद है, खूब आनंद में हैं, सब बात का आनंद नहीं है। * है। वहीं सम्यकदृष्टि को यह सब संसारी अनुकूलता जहर जैसी लगती है वह तो दल-बल देवी देवता, माता-पिता परिवार। अपने अतीन्द्रिय आनंद-निजानन्द में मगन रहना चाहता है, उसे तो किसी को मरती विरिया जीव को, कोईन राखनहार॥ देखना, बोलना, मिलना भी अच्छा नहीं लगता। संसार में इस जीव का सहायी, साथी, रक्षक कोई नहीं है. यह जीव अपनी जा सम्यग धारी की, मोहि रीति लगत है अटापटी। अज्ञानता से पर को अपना मानता है और स्वयं दु:खी रहता है। अब यह मौका इस बाहर नारकीकृत दुःख भोगत, भीतर समरस गटागटी। संसार के बन्धन और जन्म-मरण से छूटने का मिल गया है, अपने शुद्धात्म स्वरूप रमत अनेक सुरनि पे नित, छ्टन की है छटापटी॥ के चिन्तवन, मनन, आराधन में लगे रहकर इन सबसे छटना है. ऐसी वैराग्य भावना यह मनुष्य शरीर पाकर संसारी प्राणी कितना विषयान्ध हो जाता है, वहीं का चिन्तवन सम्यकुदृष्टि ज्ञानी करता रहता है। .. सम्यक्दृष्टि जीव, इस शरीर की अपवित्रता, नाशवानपने का विचार करता रहता है। soehue Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी कि देखो, यह शरीर कितनी अपवित्र गन्दी वस्तुओं का बना और भरा हुआ है, यह हड्डी का ढाँचा, मांस और खून से भरा हुआ पुतला है, जिसमें से नवद्वारों से मल निकलता रहता है। शरीर की रचना १. यह शरीर दुर्गन्ध और ऐसी ही वस्तुओं से भरा हुआ है। दुर्गन्ध स्वेद-मूत्रादि पदार्थ निकलते रहते हैं, यह शरीर विष्ठा से व्याप्त तृण की झोंपड़ी के समान है। २. इस मनुष्य के शरीर में तीन सौ हड्डियाँ दुर्गन्ध मज्जा धातु से भरी हैं, इसमें तीन सौ संधियां हैं। ३. शरीर में नौ सौ स्नायु, सात सौ शिरा और पाँच सौ मांसपेशियाँ हैं। ४. शिराओं के चार जाल, सोलह कंडरा, छह शिराओं के मूल, शरीर में दो मांस रज्जु (आतें हैं। ५. शरीर में सात त्वचा, सात कालेयक, अस्सी लाख कोटि रोम हैं। ६. पक्वाशय और आमाशय में सोलह आतें और शरीर में दुर्गन्ध मल के सात आशय हैं। ७. देह में तीन स्थूल, एक सौ सात मर्म स्थान, नौ व्रण मुख हैं, जिनसे नित्य दुर्गन्ध निकलती है। ८. शरीर में मस्तिष्क एक अंजुली प्रमाण है, मेद और ओज (शुक्र) दोनों स्व अंजुली प्रमाण समझना चाहिये । ९. वसा धातु शरीर में तीन अंजुली प्रमाण है, पित्त छह अंजुली प्रमाण और कफ भी इतना ही है और रुधिर आधा आढक प्रमाण है। १०. मूत्र का एक आढ़क, विष्ठा छह प्रस्थ प्रमाण, नख की संख्या बीस, दाँत की संख्या बत्तीस यह प्रमाण स्वभाव से ही होते हैं। ANGGANAN YES. ११. जैसा व्रण कीटाणुओं से भरा होता है, वैसा ही शरीर भी सर्वत्र कृमियों से भरा reennesh गाथा-१६ (रस) यह मल मुख में और मूत्र विष्ठा और वीर्य यह उदर में उत्पन्न होते हैं। शरीर के सम्पूर्ण रोम रंधों से चर्मकार के सचिक्कण पदार्थ के समान स्वेद निकलता है, इससे युकालिक्षा और चर्मयूका उत्पन्न होती है। जैसे- विष्ठा से भरे हुए घड़े के चारों तरफ से दुर्गन्ध निकलता है, क्रमियों से भरा हुआ व्रण सड़कर गलता है, उसी प्रकार इस शरीर से सदैव दुर्गन्ध मल मूत्रादिक पदार्थ निकलते रहते हैं। जितनी गन्दी अपावन चीजें, बस्ती में न वन में । वे सब भरी हुई हैं सारी, पुद्गल पिण्ड इस तन में ॥ हाड़ का पिंजरा बना, खूं इसकी रग-रग में भरा । मैल बदबूदार आठों पहर, जारी वरमला ॥ है नहीं ये जिस्म, बल्कि है गिलाजत का घड़ा। साफ ऊपर से किया, चन्दन लगाया क्या हुआ । जो न होती इसके ऊपर, चाम की चादर मढ़ी। तब तो इसको काग-कुत्ते, नोचते हर-हर घड़ी ॥ शरीर क्षणिक, नाशवान है, जब तक की आयु है, तब तक ही रहने वाला है। आयु समाप्त होते ही यह गल जायेगा, जल जायेगा। आयु का कोई पता नहीं है, अगली स्वास आये, न आये। बचपन, जवानी, बुढ़ापा रूप तो इसका परिवर्तन हो ही रहा है, यह अनेक रोगों का घर है, पाँच इन्द्रिय और मन के कारण यह नाटक घर बना हुआ है, पाँच इन्द्रियों की विषयाशक्ति और मन की चाह के कारण यह जीव दुःखी हो रहा है। स्पर्शन इन्द्रिय के वशीभूत हाथी । रसना इन्द्रिय के वशीभूत-मछली । घ्राण इन्द्रिय के वशीभूत-भौंरा । चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत- पतंगा और कर्ण इन्द्रिय के वशीभूत- हिरण मारा जाता है फिर जो पाँचों इन्द्रिय के वशीभूत हैं उनका क्या है और शरीर पाँच वायुओं से घिरा रहता है। १३. मख्खी के पंख के समान पतली त्वचा से शरीर ढँका है, यह त्वचा न होती तो इस दुर्गन्ध युक्त शरीर को कोई भी स्पर्श न करता । १२. पूर्वोक्त प्रकार से शरीरांगोपांग अशुभ पुद्गल परमाणु से निर्मित हैं, इसमें होगा ? तथा पाँचों इन्द्रियों का राजा मन, जिसके कारण यह मानव, दानव बना हुआ कोई भी अवयव पवित्र नहीं है। है, क्योंकि कहा है- मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः । जो मन के आधीन है वह मनुष्य है, जिसने मन को जीत लिया वह मानव है, वही भगवान बनेगा। इस शरीर संयोग के कारण ही इस जीव की दुर्दशा हो रही है और जब तक इस शरीर की आसक्ति लगाव रहेगा, तब तक निरन्तर चिंतित, दुःखी, भयभीत रहेगा। जो जीव नाक का मल, थूक, पित्त, कफ, वमन, जिह्वा का मल, दन्त मल और लाला 3 १३ पंचेन्द्रिय के विषयों में फैंस, जीवन होत दुधारो । हाथी, मछली, भ्रमर, पतंगा, हिरन जात है मारो ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 श्री आचकाचार जी गाथा-१६ Oo अपना आत्मकल्याण करना चाहते हैं, मुक्ति मार्ग पर चलना चाहते हैं, उन्हें संसार, प्रकार की अनुकूलता है और भीतर किसी प्रकार का भय हो, तो क्या वह सुखी शरीर भोगों से विरक्त होना अत्यन्त आवश्यक है। सम्यकदर्शन होने के बाद भी जब आनंद में है ? नहीं है। तो अब विचार करो कि संसार में जो सुख शांति आनंद तक इस शरीर की विषयाशक्ति और पाप-परिग्रह नहीं छूटते,तब तक जीव सुख , दिखाई देते हैं, क्या वह वास्तविक सत्य है, मात्र मन की संतुष्टि और अपने को शान्ति में नहीं रह सकता, आनंद तो संयम तप करने, वीतरागी होने पर ही आता देखने का धोखा है, यह तो उस व्यक्ति से पूछा जाये कि क्या वास्तव में तुम सुखी हो, तो सब संसार रोता, दुःखी ही नजर आयेगा, क्योंकि कहा हैयहाँ कोई प्रश्न करे कि इस संसारी जीवन में जो पुण्यादि की अनुकूलता से दाम बिना निर्धन दु:खी,तृष्णा वश धनवान। सुख शान्ति आनंद मिलता है, इसमें और सम्यक्दर्शन होने, मुक्ति मार्ग पर चलने, कहूंन सुख संसार में, सब जग देखो छान॥ संयम तप करने वीतरागी बनने पर जो सुख शान्ति आनंद होता है उसमें क्या अंतर, इस प्रकार संसार में कहीं सुख है ही नहीं, सुख तो अपने में अपनी आत्मा में है? क्योंकि हमें तो ऐसा लगता है कि जो संसार में सुख है, पुण्यादि की अनुकूलता है, आत्मा ही सुख स्वभावी ज्ञानानंदमयी है। पर में सुख की कल्पना तो अज्ञान में जो शान्ति आनंद है, वह खाना पीना छोड़ने, भूखे रहने ,व्रत संयम लेने, मिथ्यात्व दशा है, जिसमें संसारी जीव निरंतर लगा हुआ है। सम्यक्दर्शन अर्थात् त्यागी साधु होने वालों को तो हो ही नहीं सकता क्योंकि हम देखते हैं कि संसार में आत्म श्रद्धान,आत्मानुभूति होने पर जो सुख,शांति,आनंद होता है,वह वास्तविक जो वैभवशाली हैं, जिनके पुण्य का अच्छा उदय है, वह हमेशा प्रसन्न, स्वस्थ्य, सत्य होता है, वह पराधीन इन्द्रियों का सुख नहीं होता, स्वाधीन अतीन्द्रिय सुखी आनंद में दिखाई देते हैं और व्रत नियम संयम तप त्याग करने वाले, त्यागी,साधु सुख होता है, जो हमेशा रहता है तथा सम्यक्दर्शन होने के पश्चात् सम्यक्ज्ञान, हमेशा उदास-मायूस, दु:खी, खेद, खिन्न अस्वस्थ्य दिखाई देते हैं। जितनी संयम-तप होने से शांति और सम्यकचारित्र वीतराग होने पर आनंद आता है; और कषाय,ईर्ष्या, द्वेष संसारी जीवों में नहीं होती, उससे ज्यादा त्यागी, साधुओं में मुक्ति में इसी की परिपूर्णता, परम सुख,परम शांति,परमानंद होता है। सम्यक्दर्शन दिखाई देती है, यह सब क्या है ? अरहित कोई त्याग, वैराग्य ,संयम आदि करे ,त्यागी साधु हो जावे तो भी उसे सच्चा इसका समाधान करते हैं कि सुख शांति आनंद किसे कहते हैं, उसकी सुख,शान्ति, आनंद मिलने वाला नहीं है, वह तो शुभ क्रियाओं में लगकर पुण्य बन्ध परिभाषा क्या है, पहले इसे समझ लो, तो फिर सब बात अपने आप समझ में आ करेगा, उससे क्या मिलने वाला है ? क्योंकि कहा है - जायेगी। सुख अर्थात् जहाँ कोई आकुलता विकल्प न हो, दु:ख के अभाव को सुख, आतम को हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये। कहते हैं। शांति अर्थात् जहाँ कोई शल्य, चिन्ता न हो, चिन्ता के अभाव को शांति आकुलता शिव माहिनतातें,शिवमग लाग्यो चाहिये ॥ कहते हैं। आनंद अर्थात् जहाँ कोई भय, चाह न हो, भय के अभाव को आनंद कहते बाहर की क्रिया से सुख-दुःख का कोई संबंध नहीं है, अन्तरंगपरिणति में जो हैं। संसार में जो सुख शांति आनंद दिखाई देते हैं यह वास्तविक स्थायी नहीं हैं, यह १ आकुलता विकल्प है वही दुःख है, शल्य-चिन्ता है वही अशान्ति है तथा भय, चाह तो मात्र मन की संतुष्टि होने से ऐसा लगने लगता है, अनुकूल परिस्थिति में सुख आदि है, वही घबराहट, बेचैन दशा है और जहाँ यह नहीं हैं, वहीं सुख शांति आनन्द और प्रतिकूल परिस्थिति में दुःख; तो यह सुख तो पराधीन परिस्थिति के आधीन है। सम्यक्दृष्टि जीव तो हर समय, हर दशा में सुखी, प्रसन्न रहता है, उसकी दशा हुआ। जैसे कोई बाहर से शान्त बिल्कुल फुरसत में बैठा हो और उसके अंतर में तोशल्य, विकल्प चल रहे हों तो क्या वह सुख शांति में है? नहीं है। इसी प्रकार कोई गेही पे ग्रह में न रचे,ज्यों जल से भिन्न कमल है। भोजन कर रहा हो और सब प्रकार के अच्छे स्वादिष्ट व्यंजन बने हों परन्तु कहीं नगर नारि को प्यार यथा, कादे में हेम अमल है॥ जाने की शल्य लगी हो, भीतर किसी प्रकार के विकल्प चल रहे हों, कोई चिन्ता हो बाहर में कैसा रहता है, क्या करता है, यह ज्ञानी की अपूर्व दशा है, जो तो क्या उसे भोजन में आनंद आयेगा? नहीं। बाहर खूब पुण्य का वैभव है, सब सहज शब्दों से या बाहर से जानने में नहीं आती। सम्यक्दृष्टि संयम तप करे, १४ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ YOU श्री आचकाचार जी गाथा-१७ SOO त्यागी-साधु होवे, तो वह तो दूर से ही खिलता कमल जैसा प्रसन्न, हंसमुख दिखाई है, निरन्तर उसी के विकल्प चलते हैं, प्राप्त करने के लिये बड़ी-बड़ी योजनायें देगा, उसका चेहरा चमकता हुआ प्रफुल्लित रहेगा । कषाय, राग-द्वेष, ईर्ष्या, बनती हैं। इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति नहीं होने तक खाना, पीना, सोना छूट जाता। बैर-विरोध सम्यक्दृष्टि त्यागी साधु के जीवन में हो ही नहीं सकते। जिन्हें सम्यक्दर्शन , है, रात-दिन उसी के विकल्प चलते हैं, बड़ी आकुलता, पीड़ा, वेदना, दु:ख होता नहीं हुआ और जो बाहर से संयम तप कर रहे हैं, त्यागी साधु बने हैं, उनकी दशा है। इस प्रकार यह विषय भोगों के दुःख बहुत ही दुष्ट खतरनाक होते हैं, यह मरने कैसी भी कुछ भी हो सकती है। यहाँ तो सम्यकदृष्टि ज्ञानी की बात बताई जा रही भी नहीं देते, जीने भी नहीं देते, रात-दिन चिंतित दु:खी रखते हैं, यह महान । है, उसकी दशा का वर्णन किया जा रहा है कि वह संसार शरीर भोगों को कैसा अनर्थकारी हैं। मानता है। विषय भोगों की आदत ही व्यसन कहलाती है। किसी भी विषय की लत आगे भोगों के स्वरूप का कथन करते हैं - पड़ जाती है, वह फिर सहज में नहीं छूटती.यह अनर्थ कराती है। धर्म का, आत्म भोर्ग दुषं अती दुस्टा, अनर्थ अर्थ लोपितं । S हितका लोप करने वाली है। विषयों की चाह, धन और धर्म दोनों को नष्ट करने वाली एहै, जीते जी संसार में दु:ख दुर्गति और वेदना भी कराती है, मरने पर नरक और संसारे सवते जीवा, दारुनं दुषभाजन ॥१७॥ 2 निगोद के दुःख भोगना पड़ते हैं। इससे ही चारों गति रूप संसार में भ्रमण करना अन्वयार्थ- (भोगं दुषं अती दुस्टा) भोग दुःखदाई अति दुष्ट हैं (अनर्थं अर्थ पड़ता है, जहाँ दारुण दु:ख, अति भयानक कष्ट भोगना पड़ते हैं। चारों गति में कैसे लोपित) अनर्थ करने वाले, अर्थ, प्रयोजन आत्मा के हित का लोप करने वाले हैं , दु:ख हैं, इसका वर्णन करते हैं(संसार सवते जीवा) इन्हीं के कारण यह जीव चार गति चौरासी लाख योनि रूप १.तियंचगति-सर्वप्रथम तो यह जीव निगोद में है रहता है, जहाँ एक क्षुद्र संसार में परिभ्रमण करता है तथा (दारुनं दुष भाजन) दारुण दु:ख, अति भयानक , ९ शरीर में असंख्यात निगोदिया जीव रहते हैं। जो एक स्वास में अठारह बार कष्ट भोगता है। 3 जन्मते-मरते रहते हैं और इस प्रकार ऐसे ही अनन्त काल तक रहना पड़ता है। वहाँ विशेषार्थ- भोग अर्थात् पाँचों इन्द्रियों के विषय, कान से अच्छे मधुर प्रिय से निकलकर स्थावर काय-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति में असंख्यात समय, शब्द और स्वर सुनना, आँखों से सुन्दर मनोहर पदार्थों को देखना, नाक से सुगंधित अनन्त काल तक वेदना दु:ख भोगते हुए रहना पड़ता है। पृथ्वीकाय की आयु बाईस वस्तु को सूंघना, मुख से स्वादिष्ट प्रिय पदार्थों को खाना तथा बोलना, शरीर से 5 हजार वर्ष होती है, जिसमें अन्तर्मुहूर्त में १२०२४ बार जन्म-मरण करना पड़ता है, चलना-फिरना, अच्छे वस्त्रादि पहिनना, सुन्दर वस्तुओं का भोग करना यह विषय इसी प्रकार वनस्पतिकाय की आयु दस हजार वर्ष होती है, जिसमें अन्तर्मुहूर्त में कहलाते हैं और इनको भोगने की लालसा-वासना मन में होती है। यह विषय १८०३६ बार जन्म-मरण करना पड़ता है। जलकाय कीआयु सात हजार वर्ष होती जितने भोगने में आते हैं, उतनी ही कामना-वासना बढ़ती जाती है, इनकी कभी पूर्ति है. इसमें भी अन्तर्मुहूर्त में १२०२४ बार जन्म-मरण होता है। वायुकाय की आयु और तृप्ति नहीं होती। जो चीज एक बार भोगने में आ जाती है, उसकी और बार-बार * तीन हजार वर्ष होती है. जिसमें अन्तर्मुहूर्त में १२०२४ बार जन्म-मरण होता है। भोगने की इच्छा होती है। एक बार जो भी विषय भोगने में आ जाते हैं उनको बार-बार अग्निकाय की आय तीन दिन की होती है, इसमें भी अन्तर्मुहूर्त में १२०२४ बार भोगने की चाह पैदा हो जाती है, अच्छे-अच्छे नये-नये पदार्थ भोगने की चाहजन्म-मरण होता है। इससे निकलकर बस पर्याय बहुत दर्लभ है जन्म-मरण होता है। इससे निकलकर त्रस पर्याय बहुत दुर्लभ है, जिसमें दो इन्द्रिय, निरन्तर बढ़ती जाती है। जैसे-अग्नि में तेल या घी डालो तो अग्नि और प्रज्वलित तीन इन्द्रिय,चार इन्द्रिय यह विकलत्रय कहलाते हैं, जो हमेशा विकल, दु:खी और होती है, वैसे ही जितने विषय-भोग भोगने में आते हैं, उनको भोगने की वासना, चाह भयभीत रहते हैं। दो इन्द्रिय की आयु-१२ वर्ष, तीन इन्द्रिय की आयु-४९ दिन निरन्तर बढ़ती जाती है। एक विषय भोगा, उसी समय उससे अच्छा दूसरा विषयभोगने और चार इन्द्रिय की आयु ६ माह होती है, यह लट, केंचुआ,इल्ली, चींटी, मख्खी, की इच्छा पैदा हो जाती है और यह कामना-वासना, इच्छा, चाह-दाह पैदा करती है, मच्छर आदि नाना प्रकार के होते हैं जिनकी दुर्दशा, दुर्गति प्रत्यक्ष आँखों के सामने इच्छित वस्तुन मिलने पर बड़ी आकुलता वेदना होती है फिर और कुछ सुहाता नहीं १६ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-१७ Oo देखने में आती है। जो हमेशा विकल अर्थात् विकल्पों में दु:खी रहते हैं, वह विकलत्रय हैं, जिन्हें सात नरक कहते हैं- रत्नप्रभा,शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा,धूम होते हैं। "विकलस्य विकलत्रय"(तारण स्वामी) पंचेन्द्रिय तिर्यंच में सैनी-असैनी प्रभा, तम प्रभा, महातम प्रभा, यह सात नरकों के नाम हैं। जिनमें पहले नरक से दोनों प्रकार के होते हैं, इन सब के दुःख प्रत्यक्ष देखने में आते हैं। चूहे को बिल्ली . पाँचवें नरक तक उष्ण वेदना होती है, छठे और सातवें में शीत वेदना होती है। मारती है, बिल्ली को कुत्ता मारता है, कुत्ता को भेड़िया मारता है, भेड़िया को शेर पहले नरक की जघन्य आयु दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट आयु एक सागर की होती मारता है, इसी प्रकार एक पशु दूसरे पशु का घात करता है। चिड़िया छोटे-छोटे है। दूसरे नरक की उत्कृष्ट आयु तीन सागर, तीसरे नरक की सात सागर, चौथे की। कीड़े मकोड़े खाती है, मकड़ी, मख्खी-मच्छर खाती है तथाशीत-उष्ण,ताड़न, दस सागर, पाँचवें की सत्रह सागर, छटवें की बाईस सागर और सातवें की तैंतीस बध-बन्धन के दु:ख प्रत्यक्ष देखने में आते हैं। इस प्रकार के यह दु:ख, यह जीव इस सागर की आयु होती है। पिछले नरकों में जो उत्कृष्ट आयु है यही अगले नरकों की तिर्यंच गति में भोगता है, यहाँ से निकलता है तो अति संक्लेश भाव से मरने के कारण जघन्य आयु होती है। जैसे-पहले नरक की उत्कृष्ट आयु एक सागर की है, यही नरक में चला जाता है और वहाँ जो दु:ख भोगता है वह आगे वर्णन करते हैं। आयु दूसरे नरक की जघन्य आयु होती है। नारकियों की जितनी आयु होती है, २. नरक गति- नरक में जाने का कारण और वहाँ के दु:खों का वर्णन करते उतने समय तक उन्हें वहाँ रहना और दुःख भोगना पड़ते हैं, वहाँ अकाल मरण हैं। पाप कर्म के उदय से यह जीव नरक में जन्म लेता है। जो प्राणियों का घात नहीं होता।नारकी सब नपुंसक ही होते हैं, वहाँ स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं होता, करता है, झूठ बोलता है, दूसरों का धन हरता है, परनारियों को बुरी निगाह से वैक्रियक शरीर होता है। वहाँ के बिलों की संख्या-पहले नरक में ३० लाख बिल, देखता है, परिग्रह में आसक्त रहता है। बहुत क्रोधी, मानी, कपटी और लालची। दूसरे नरक में २५ लाख बिल, तीसरे नरक में १५ लाख बिल, चौथे नरक में २० होता है, कठोर वचन बोलता है। दूसरों की चुगली करता है, रात-दिन धन संचय लाख बिल,पाँचवेंनरक में ३ लाख बिल,छटे में पाँच कम एक लाख बिल और सातवें में लगा रहता है, साधुओं की निन्दा करता है, नीच और खोटी बुद्धि वाला है, कृतघ्नी में पाँच बिल, ऐसे ८४ लाख बिल होते हैं जिनमें यह पैदा होते और वहाँ से नीचे की है, बात-बात पर शोक तथा दु:ख करना जिसका स्वभाव है, वह जीव नरक गति ओर गिरते हैं। नारकियों को क्रूर सिंह व्याघ्रादि अनेक प्रकार के रुपधारण करने की जाता है। वहाँ पाँच प्रकार के दुःख सहता है - १. असुर कुमारों द्वारा दिया गया - विक्रिया होती है। नारकियों का शरीर वैक्रियक होने पर भी उनके शरीर के वैक्रियक दु:ख । २. शारीरिक दुःख ।३. मानसिक दु:ख । ४. क्षेत्र से उत्पन्न होने वाला पदगल मल-मूत्र, कफ, वमन,सड़ा हुआ माँस, हाड़ और चमड़ी वाले औदारिक शीत-उष्ण आदि का दु:ख । ५. परस्पर में दिया गया दु:ख । यह सब निरन्तर शरीर से भी अत्यन्त दुर्गंधित अशुभ होते हैं। भोगना पड़ते हैं। : तीसरे नरक तक अम्ब, अम्बरीष जाति के असुर कुमार देव जाकर नारकी छहढाला में कहा है जीवों को दुःख देते हैं, नारकी आयु पर्यन्त भूख-प्यास की वेदना सहते हैं क्योंकि तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो,बीछू सहस उसैं नहीं तिसो। १ वहाँ खाने-पीने को कुछ है ही नहीं, इस प्रकार यह संक्षेप में नरक गति के दुःखों का तहाँ राध श्रोणित वाहिनी, कृमि कुल कलित देह दाहिनी॥ 8 वर्णन किया। सेमर तरु दल जुत असि पत्र, असि ज्यों देह विदारै तत्र। ३. मनुष्य गति-(शरीर उत्पत्ति) मनुष्य शरीर की उत्पत्ति गर्भ में रज और मेरु समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय ।। वीर्य से होती है, यह दोनों ही अपवित्र हैं। माता के उदर में वीर्य का प्रवेश होने पर १ तिल-तिल कर देह के खण्ड, असुर भिड़ावें दुष्ट प्रचंड। दस दिन पर्यन्त उसकी (वीर्य की) कललदशा होती है। जैसे-ताम्र और चाँदी का सिंधु नीर से प्यास न जाय, तो पण एक न बूंद लहाय॥ रस मिलाने पर जो अवस्था होती है वही अवस्था माता के रज के संयोग से वीर्य की तीन लोक को नाज जुखाय, मिटैन भूख कणा न लहाय। होती है, उसको कलल अवस्था कहते हैं, इसके अनन्तर दस दिन पर्यन्त उसकी ये दु:ख बहु सागर लौ सहे, करम जोग नरगति लहै॥ कलुष अवस्था होती है, तदनन्तर दस दिन पर्यन्तर स्थिरता आती है, यह तीन इस प्रकार के दु:ख नरकगति में यह जीव भोगता है, नरक में सात स्थान होते. अवस्थायें प्रथम मास में होती हैं। veaadierra Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री बाचकाचार जी गाचा-१७GC दूसरे महिने में वीर्य की अवस्था बुलबुले जैसी हो जाती है. पुनः एक मास में जौवन ने विदा लीनी, जरा ने जुहार कीनी। वह घट्ट बन जाता है, चतुर्थ मास में उसको मांसपेशी की आकृति प्राप्त होती है। हानी भई सुधि बुधि, सवै बाम ऊनी सी॥ पाँचवें मास में मांसपेशीरुप पिंड में पाँच पुंलव अर्थात् अंकुर उत्पन्न होते हैं, इनमें से तेज घट्योताव घट्यो,जीवन को चाव घट्यो। नीचे के दो अंकुरों से दो पैर, ऊपर के दो अंकुरों से दो हाथ और बीच के अंकुर से * और सब घट्यो, एक तिस्ना दिन दूनी सी॥ मस्तक की रचना होती है तथा आँख, कान,आदि उपांगों की भी रचना होती है। इस वृद्धावस्था में यह हालत हो जाती है कि कोई बात पूछने वाला, बात करने । प्रकार गर्भस्थ बालक के आंगोपांगों का, अवयवों का निर्माण होता है। छटवें मास में वाला भी नहीं मिलता। मोह-लोभ बढ़ जाता है, किसी को खाने-पीने की इच्छा उन अवयवों पर चर्म और रोम की उत्पत्ति होती है, हाथ-पैर में नख उत्पन्न होते हैं। बढ़ जाती है और खाया हुआ हजम नहीं होता। कफ,खाँसी आदि अनेक परेशानियाँ सातवें मास में कमल नाल उत्पन्न होता है, माता के द्वारा भक्षण किये हुए आहार के होने लगती हैं। रस को ग्रहण करता है। आठवें मास में उस गर्भ में हलन-चलन, बलन होने लगता ४. देवगति-जहाँ ऋद्धि आदि के योग से शारीरिक सुख के सब साधन है। नवमें-दसमें महिने में बालक गर्भ से बाहर आता है अर्थात बच्चे का जन्म होता सहज में उपलब्ध हों उसे देवगति कहते हैं। देवगति पुण्य के उदय, संयम, तप है।आमाशय और पक्वाशय के मध्य,जाल के समान मांस और रक्त से लिप्त हुआ, करने से प्राप्त होती है। वह गर्भ में नव मास पर्यन्त रहता है। इस प्रकार नौ मास तक इतना कष्ट भोगता है, सरागसंयम संयमासंयमाकामनिर्जरा बालतपसि वैवस्य ॥ जिसका वर्णन करना अशक्य है। बालपने में क्या दशा रहती है. यह तो प्रत्यक्ष (तत्वार्थ सूत्र-६/२०) देखने में आता है, ज्ञान न होने से किस प्रकार दुःख तकलीफ होने पर कह नहीं देवगति में वैक्रियक शरीर होता है, वहाँ गर्भजन्म नहीं होता, उप्पाद शय्या सकता, बता नहीं सकता और किसी को अशुभ, पाप कर्म का उदय होवे तो क्या पर जन्म होता है। नरक में बिलों में जन्म होता है। मनुष्य और तिर्यंच गति में गर्भ होता है, यह तो जगत में प्रत्यक्ष ही है। माता-पिता आदि का मर जाना या किसी और संमूर्छन जन्म होता है। प्रकार का शरीर अंग-भंग हो जाना, गरीबी आदि की दशा में पराधीन-पराश्रित: देवों के चार भेद है-१. भवनवासी, २. व्यन्तर, ३.ज्योतिषी. ४. वैमानिक। रहना पड़ता है। जवानी के जोश में होश नहीं रहता, विषयादि सेवन में लग जाता चार प्रकार के देवों में सामान्य दस भेद हैंहै। पापादि करने में तल्लीन रहता है, घर-परिवार की जिम्मेदारी, दुनियादारी के १.इन्द्र,२. सामानिक,३.त्रायस्त्रिश,४. पारिषद,५. आत्मरक्ष,६.लोकपाल, जाल में ऐसा फँस जाता है कि फिर अपना तो कोई होश रहता ही नहीं है।४७. अनीक,८.प्रकीर्णक, ९. आभियोग्य, १०.किल्विषिक। हित-अहित का विवेक खो जाता है, मोह का साम्राज्य बढ़ता है, तब अपनी सब . भवनवासी देवों के दस भेदसुध-बुध खोकर उसी में पागल-अन्धा हो जाता है। आवश्यकतायें जिम्मेदारियाँ ११.असुर कुमार, २. नाग कुमार, ३. विद्युत कुमार, ४. सुपर्ण कुमार, ५. अग्नि बढ़ती हैं, फिर रात-दिन चिन्तित भयभीत रहता है. आगे पीछे के संकल्प-विकल्पों कुमार, ६. वात कुमार, ७. स्तनित कुमार, ८. उदधि कुमार, ९. द्वीप कुमार, में उलझा रात-दिन दुःखी रहता है, रोग और बुढ़ापा आने पर तो हालत ही बिगड़ १०.दिक् कुमार। जाती है। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मनुष्य तो निरन्तर चिंतित और दुःखी ही रहता है। 5 व्यन्तर देवों के आठ भेद होते हैंरूपको न खोज रह्यो,ज्यों तुषार दह्यो। १.किन्नर, २. किंपुरुष, ३. महोरघ, ४. गंधर्व, ५. यक्ष, ६.राक्षस,७. भूत, ८. पिशाच। भयो पतझार किधो, रही तार सूनी सी॥ पहले नरक रत्नप्रभा की पृथ्वी के तीन भाग हैं - कूबरी भई है कटि, दूबरी भई है देह। १. खर भाग, २. पंक भाग, ३. अब्बहुल भाग । पहले और दूसरे भाग में ऊबरी इतेक आयु, सेर मांहि पूनी सी॥ व्यन्तर और भवनवासी देवों के निवास हैं, तीसरे अब्बहुल भाग में प्रथम नरक के Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PO4 श्री श्रावकाचार जी नारकी रहते हैं। यह व्यन्तर और भवनवासी देव मध्यलोक की पृथ्वी के वृक्ष, कोटर, यहाँ परम शुक्ल लेश्या होती है, यहाँ सम्यक्दृष्टि जीव ही जन्म लेते हैं, श्मशान और सूने घरों में भी रहते हैं। इनकी आयु कम से कम दस हजार वर्ष और इनकी आयु ३१ सागर से ३२ सागर तक होती है। अधिक से अधिक एक सागर होती है। पाँच अनुत्तर के नाम -१.विजय २.वैजयन्त ३.जयन्त ४.अपराजित ज्योतिषी देवों के पाँच भेद १५.सर्वार्थ सिद्धि। १.सूर्य, २. चन्द्रमा, ३. ग्रह,४.नक्षत्र, ५.प्रकीर्णक (तारे)। यह आकाश के मध्य यहाँ परम शुक्ल लेश्या होती है, यहाँ एक भवावतारी सम्यकदृष्टि जीव ही भाग में रहते हैं, इनके विमान होते हैं, इनकी आयु एक पल्य होती है। भवनवासी, आते हैं, यहाँ की आयु ३३ सागर होती है। यहाँ से जाने के बाद मनुष्य भव से जीव व्यन्तर और ज्योतिषी इन तीन निकायों में मिथ्यादृष्टि जीव ही होते हैं। सीधे मोक्ष जाते हैं। वैमानिक देव- इनमें कल्पवासी देवों के सोलह स्वर्ग होते हैं। आगे नव ग्रैवेयक, देव, नारकी, तिर्यंच यह कोई भी सीधे मोक्ष नहीं जा सकते,एक मात्र मनुष्य नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान हैं। जगत में तीन लोक कहलाते हैं-अधोलोक, भव ही ऐसा है, जहाँ से जीव सीधे मोक्ष जा सकते हैं,जाते हैं। मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक। अधोलोक में-सात नरक। मध्यलोक में- नन्दीश्वर पवित्र वैक्रियक शरीर के धारी देव कभी भी मनुष्यों के अपवित्र औदारिक द्वीप, भरत क्षेत्र आदि मनुष्य और तिर्यंचों के रहने के स्थान हैं। ऊर्ध्वलोक शरीर के साथ काम सेवन नहीं करते । देवों के मांस, मदिरा आदि का सेवन नहीं में-वैमानिक देवों के सोलह स्वर्ग, नवग्रैवेयक,नवअनुदिश, पाँच अनुत्तर और इनके होता। देवों को कंठ से झरने वाला अमृत का आहार होता है। कल्पवृक्षों से उनकी अन्त में सिद्ध शिला है, जहाँ सिद्ध मुक्त जीव रहते हैं, यहीं तक लोकाकाश है, सब इच्छाओं की पूर्ति होती है। देवों में संतति की उत्पत्तिगर्भ द्वारा नहीं होती तथा इससे आगे आलोकाकाश है। यहाँ ऊर्ध्व लोक का वर्णन चल रहा है। उनका शरीर वीर्य और दूसरी धातुओं से बना हुआ नहीं होता । उनका वैक्रियक कल्पवासी सोलह स्वर्ग के नाम -१. सौधर्म, २. ईशान, ३. सानत्कुमार, शरीर होता है और किसी भी रूप होने की विक्रिया होती है। केवल मन की काम ४. माहेन्द्र, ५. ब्रह्म, ६. ब्रह्मोत्तर, ७. लान्तव, ८. कापिष्ट, ९. शुक्र, भोग रूप वासना तृप्त करने के लिये वह यह उपाय करते हैं। नीचे के देवों की १०. महाशुक्र,११. सतार, १२. सहसार,१३. आनत, १४.प्राणत, १५. आरण, वासना तीव्र होती है तथा मानसिक दुःख से दुःखी रहते हैं। हमेशा दूसरे देवों की १६. अच्युत। ऋद्धि, समृद्धि देखकर झुरते रहते हैं और मृत्यु से पूर्व छह माह पहले माला मुरझा सोलह स्वर्ग के देव कल्पवासी देव कहलाते हैं, इनके सोलह स्वर्ग विमान जाने से बहुत विकल्पित दुःखी होते हैं। देवगति में सब देव एक समान नहीं होते, होते हैं,यहाँ मिथ्यादृष्टि और सम्यक्दृष्टि दोनों ही प्रकार के जीव होते हैं,यहाँ की वहाँ भी ऊँच-नीच का भेदभाव और पुण्य-पाप के उदयानुसार सारी व्यवस्था होती आयु दो सागर से लेकर बाईस सागर तक होती है, यहाँ तक देव और देवी दोनों है है। इस प्रकार संसारी, मिथ्यादृष्टि जीव कहीं भी सुखी नहीं रहता और कहीं भी सुखी प्रकार के जीव होते हैं,स्वर्गों में कोई नपुंसक नहीं होता। यहाँ सब पीत, पद्म,शुक्ल १ नहीं हो सकता ; क्योंकि जिसकी दृष्टि बाहर पर की तरफ पराधीन है, वह कैसे सुखी लेश्या वाले होते हैं। इससे आगे कल्पातीत देव विमान होते हैं। * हो सकता है, कहा भी है-" पराधीन सपनेहु सुख नाहीं"। नव ग्रैवेयक के नाम -१. सुदर्शन, २. अमोघ, ३. सुप्रबुद्ध, ४. यशोधर, सुख तो एक मात्र अपने निज स्वभाव में है, अपने आत्मस्वरुप का श्रद्धान २५. सुभद्र, ६. विशाल,७. सुमन, ८. सोमन, ९. प्रीतिंकर। 5 सम्यक्दर्शन ही सुख का मूल आधार है इसलिये सद्गुरु इस मनुष्य भव में जीवों ७ नवग्रैवेयक में शुक्ललेश्या होती है, यहाँ तक मिथ्यादृष्टि जीव भी जाते हैं, को जगाते हैं, अपना आत्महित करने सुखी होने का मार्ग बताते हैं - इनकी आयु २२ सागर से ३१ सागर तक होती है। जे त्रिभुवन में जीव अनंत, सुख चाहँ दुखत भयवन्त । नवअनुदिश के नाम-१. आदित्य, २. अर्चि, ३. अर्चिमाली, ४. वेरोचन, तारौं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणाधार ॥ ५. प्रभास, ६. अर्चिप्रभ, ७. अर्चि मध्य, ८. अर्चिरावर्त, ९. अर्चिर्विशिष्ठ। ताहि सुनो भविमन थिर आन,जो चाहो अपनो कल्याण ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय आहार नाम बराबर oक श्री श्रावकाचार जी गाथा- १८७ संसार में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव रूप पंच परावर्तन चलता है, इस मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व से परिपूर्ण है (संमिक्तंसुद्धलोपन) शुद्ध सम्यक्त्व पंच परावर्तन रूप संसार में काल अपना विशेष महत्व रखता है। इस कालचक्र का अर्थात् अपने शुद्धात्म स्वरूप को भूला हुआ है (संसार सरन संगते) संसार अर्थात् छह कालों से युक्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के द्वारा भरत और ऐरावत क्षेत्र में , धन, शरीर, परिवार, विषयादि के आश्रय लगा हुआ है, रंजायमान हो रहा है, इससे जीवों के आयु, काय, बुद्धि की वृद्धि-हानि होती रहती है। बीस कोडाकोड़ी सागर का (अनादि भ्रमते जीवा) अनादिकाल से यह जीव भ्रमण कर रहा है। एक कल्पकाल होता है, उसके दो भेद हैं-१.उत्सर्पिणी-जिसमें जीवों के ज्ञानादि विशेषार्थ-संसार अर्थात् चार गति,चौरासी लाख योनियों में यह जीव दु:ख की वृद्धि होती है। २. अवसर्पिणी-जिसमें जीवों के ज्ञानादि का हास होता है। भोगता हआ अनादिकाल से क्यों भ्रमण कर रहा है? यह प्रश्न पूछने पर श्री गुरु भरत-ऐरावत क्षेत्र में काल चक्र का परिवर्तन तारण स्वामी अपूर्व समाधान कर रहे हैं-जैन दर्शन का मर्म, जीव के संसार में क्रम काल का| मनुष्यों की आयु ऊँचाई हैं भ्रमण का मूल कारण, अपने सत्स्वरुप का विस्मरण और यह शरीर ही मैं हूँ. यह प्रारंभ में अन्त में | प्रारंभ में | अन्त में शरीरादि मेरे हैं तथा मैं इनका कर्ता हूँ . ऐसी तीन प्रकार की मिथ्या मान्यता ही संसार परिभ्रमण का कारण है। यहाँ जैन दर्शन के मर्म को समझने के लिये गहराई सुषमा-|४ कोड़ा कोडी |३ पल्य २ पल्य |३ कोस |२ कोस | चौथे दिन बेर बराबर में उतरना होगा, अनादि से जीव का और कर्म का संयोग है अर्थात् मिले हुए हैं, सुषमा | सागर सुषमा |३ को. को. सा. २ पल्य |१पल्य २ कोस |१कोस । एक दिन अंतर बहेडा बराबर र कैसे मिले हुए हैं? जैसे -स्वर्ण और पाषाण। सुषमा-२ कोडा कोड़ी |१ पल्य |१ कोटी १ कोस |५००धनुष| एक दिन के अंतर आयला यहाँ कोई प्रश्न करे कि स्वर्ण और पाषाण तो पुद्गल, रूपी पदार्थ हैं मिल दुषमा | सागर पूर्व र सकते हैं; परंतु जीव चेतन और अरूपी.कर्म पदगल अचेतन और रूपी.यह कैसे दुषमा- ४२ हजार वर्षकम १ कोटी १२० वर्ष ५००धनुष ७ हाथ | रोज एक बार S मिले? इसका समाधान है कि जीव भी द्रव्य है और पुद्गल भी द्रव्य है और द्रव्य का | सुषमा |१को. को. सा. पूर्व एक विशेष गुण है, द्रवित होना अर्थात् एक दूसरे में मिल जाना, यद्यपि अपनी सत्ता दुषमा |२१हजार वर्ष |१२० वर्ष २० वर्ष ७ हाथ | कई बार 3 स्वरूप से सदा भिन्न रहते हैं, परंतु मिलने की शक्ति होने के कारण जीव चेतन ६. | दुषमा- २१ हजार वर्ष २० वर्ष १५ वर्ष २ हाथ | १ हाथ अतिप्रचुर वृत्ति, मनुष्य नग्ना, मछली आदि का आहार, मुनि अरूपी होता हुआ भी द्रव्य होने के कारण कर्म पुद्गल रूपी द्रव्य में मिला हुआ है। दुषमा आवकों का अभाव, धर्म व नाश यहाँ और विशेष महत्त्वपूर्ण बात समझने की है कि कर्मों में सबसे प्रबल सबका राजा असंख्यात अवसर्पिणी बीत जाने के बाद एक हुंडावसंर्पिणी काल आता है, मोहनीय कर्म है और उसके दो भेद हैं-दर्शन मोहनीय, चारित्र मोहनीय । दर्शन इस समय हुंडावसर्पिणी का पांचवां काल चल रहा है। सम्यक्दृष्टि जीव इन सब 5 मोहनीय की तीन प्रकृति हैं- मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति बातों का विचार कर इनसे छूटने की वैराग्य भावना भाता है। संयम, तप के मार्ग पर 3 मिथ्यात्व, यह जीव के दर्शन गुण का घात करती हैं और जीव इन तीनों में पूरा का आगे बढ़ता है, जबकि संसारी मिथ्यादृष्टि जीव इसी चक्र में घूमता रहता है। > पूरा डूबा है। डूबा है अर्थात् लिप्त एकमेक हो रहा है और अपने शुद्धात्म स्वरूप को यहाँ कोई प्रश्न करे कि ऐसे दुःख रूप भयानक संसार में यह जीव अनादि से भूला है, लोप कर दिया है। र क्यों भ्रमण कर रहा है ? इसके उत्तर में श्री जिन तारण स्वामी स्वयं आगे उसका यहाँ कोई प्रश्न करे कि जीव और पुद्गल द्रव्य होने के कारण मिले हैं ; परंतु, वर्णन करते हैं यह कर्म तो पुद्गल की अशुद्ध दशा है, कर्म कोई द्रव्य तो नहीं है तथा पुद्गल अनादि भ्रमते जीवा, संसार सरन संगते। परमाणु, जीव की अशुद्धता, विभाव परिणमन के निमित्त से कर्मरूप होते हैं और मिथ्या त्रिति संपून, संमिक्तं सुद्ध लोपनं ॥१८॥ जीव का विभाव परिणमन कर्मोदय के निमित्त से होता है. ऐसा निमित्त-नैमित्तिक । संबंध है, तो यह बताइये कि यह पुद्गल कर्म रूप कैसे हुआ और जीव अशुद्ध, अन्वयार्थ- (मिथ्या त्रिति संपून) तीन मिथ्यात्व अर्थात् मिथ्यात्व, सम्यक् , २हाथ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७७ श्री आवकाचार जी विभावरूप परिणमित कैसे हुआ ? तथा इनमें पहले कौन हुआ और कैसे हुआ ? उसका समाधान करते हैं कि ऐसा अनादि से है। कैसे अनादि से ? जैसे - वृक्ष और बीज । वह कहाँ से आया, कैसे हुआ ? यह अनादि की प्राकृतिक स्वतंत्र व्यवस्था है, इसी सिद्धांत से पूरे विश्व का परिणमन स्वतंत्र है, यहाँ कोई किसी का कर्ता नहीं है, सब अपने आप तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है। ठीक है, यह अनादि से है और सब तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है तो फिर अब क्या होगा ? अब इस बात को समझ लो कि मैं परमात्म स्वरूप हूँ और यह सब माया है। माया कहो या कर्म कहो एक ही बात है और इससे छूटने का भाव हो तब बात बने; क्योंकि अभी एक समस्या और है कि यह संसार में विमोहित हो रहा है। श्री तारण स्वामी कहते हैं- संसार सरन संगते, संसार की शरण में रंजायमान हो रहा है। अर्थात् इसी के चक्कर में घूम रहा है। इसी को पं. दौलतराम जी ने छहढाला में कहा है । मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि ॥ जैसे जाति का बंदर और ऊपर से शराब पिये हो फिर देखो कितनी उछल कूद, उठापटक करता है। इसी प्रकार यह जीव मिथ्यात्व से अंधा हो रहा है और साथ में लगा है मोह, माया का प्रपंच, अब छूटे तो कैसे छूटे ? और फँसा है कैसे चक्कर में, इन सब बातों को सुनो तब पता लगे, तारण स्वामी तो यहाँ जड़ खोदकर बता रहे हैं, संसार भ्रमण का कारण पूछा है तो पूरी बात सुनो, क्योंकि जीव कितने गहरे में फँसा है, डूबा है। जब तक पूरी बात सुनेंगे, समझेंगे नहीं, तब तक काम चलने वाला नहीं है और ऐसे सहज में छुटकारा होने वाला भी नहीं है। यह मिथ्यात्व के साथ ही मिथ्या देव, गुरू, धर्म के चक्कर में फँसा है, मिथ्यात्व माया में विमोहित हो रहा है, शरीरादि अचेतन से राग कर रहा है, इससे संसार में भ्रम रहा है, इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं - SYA GARAAN FÅR A YEAR. मिथ्या देव गुरं धर्म, मिथ्या माया विमोहितं । अनृतं अचेत रागं च, संसारे भ्रमनं सदा ।। १९ ॥ अन्वयार्थ - ( मिथ्या देव गुरं धर्म) मिथ्या देव, गुरू, धर्म के चक्कर में फँसा है (मिथ्या माया विमोहितं) मिथ्या माया में मोहित हो रहा है (अनृतं अचेत रागं च) २० गाथा १९ और क्षणभंगुर नाशवान जो शरीरादि हैं इनमें राग कर रहा है (संसारे भ्रमनं सदा) इससे हमेशा संसार में भ्रमण कर रहा है और करेगा । विशेषार्थ - एक कहावत है- गुरवेल और नीम चढ़ी, गुरवेल वैसे ही कड़वी होती है और नीम पर चढ़ी हो तो ज्यादा कड़वी हो जाती है। इसी प्रकार जीव अनादि से मिथ्यात्व में तो फँसा ही है और ऊपर से मिथ्यादेव गुरू धर्म का ही आश्रय मिला, जो संसार में भटकने की पाप-पुण्य की ही चर्चा करते हैं। कभी सच्चे देव गुरू धर्म का सत्संग नहीं मिला, जो धर्म का वास्तविक स्वरूप बताते, आत्मा का श्रद्धान भेदज्ञान कराते । यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह बात तो समझ में नहीं आई; क्योंकि कई बार भगवान के समवशरण में भी गये, भगवान की दिव्य ध्वनि सुनी और वर्तमान में जैन कुल में वीतरागी देव गुरू धर्म के सानिध्य में हैं, आत्मा की भी चर्चा सुन रहे हैं फिर यह कैसे हो सकता है ? उसका समाधान करते हैं कि भगवान के समवशरण में गये पर देखा किसे ? दिव्यध्वनि सुनी, परंतु भगवान की सुनी या अपने भीतर जो भरी थी उसे ही सुनते रहे ? क्योंकि जो जादि अरहंतं, दव्वत्त गुणत्त पज्जयत्तेहि । सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥ ( प्रवचन सार गाथा - ८० ) जो अरिहन्त को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व से जानता है वह आत्मा को जानता है और उसका मोह नाश को प्राप्त होता है। इसलिये जिसे जीवादि तत्वों का श्रद्धान नहीं है उसे अरिहन्तादि का भी सच्चा श्रद्धान नहीं है। बाहर से शरीर की पूजा वंदना भक्ति स्तुति से कोई लाभ नहीं है । यही समयसार जी में कहा है तं णिच्छयेण जुज्जदिण सरीरगुणा हि होति केवलिणो । केवलि गुणो थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि ॥ २९ ॥ वह स्तवन निश्चय में योग्य नहीं है क्योंकि शरीर के गुण केवली के गुण नहीं होते, जो केवली के गुणों की स्तुति करता है वह परमार्थ से केवली की स्तुति करता है। वर्तमान में जैन कुल मेंआये हैं, वीतरागी देव, गुरू, धर्म का योग मिला है, पर हमारी दशा क्या हो रही है, क्या हम जैन हैं ? निश्चय से जिसने अपने को जान Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w o श्री आचकाचार जी गाथा-२० C o A लिया, वह जैन है। व्यवहार में जिसने इन्द्रियों को जीत लिया,वह जैन है। हमारे तो इसमें जीव क्या करे? आचरण क्या हैं, यह स्वयं देखें तथा वीतरागी देव, गुरू, धर्म का योग मिला, पर इसका समाधान करते हैं कि यह अनादि से तो लगे हैं परंतु अब तुम्हें यह हमारी मान्यता और श्रद्धा क्या है, तथा हम क्या हैं? जरा स्वयं को देखें। ऊपर से , मनुष्य भव और विवेक बुद्धि मिली है, अब तुम वस्तु स्वरूप को समझो, भेदज्ञान बाहर से पुण्य के उदय से सब शुभ योग मिले और ऐसे कई बार मिले होंगे; परन्तु करो, अपने सत्स्वरूप को पहिचानो तो इन सब झंझटों से छूट जाओगे और क्या हमने सच्चे देव, गुरू, धर्म के स्वरूप को समझकर कभी सच्ची श्रद्धा की है? आनंदमय मुक्त हो जाओगे। जैसे अन्य, अपने देव गुरू धर्म की श्रद्धा भक्ति करते हैं, वैसे ही हम भी करते हैं, तो परन्तु अज्ञानी प्राणी क्या करता है? वह वस्तु स्वरूप का विचार चिन्तन तो क्या भेद हुआ? क्योंकि हमारी मान्यता, श्रद्धान ही उल्टा विपरीत है, तो क्या नहीं करता और उल्टा चिन्तन करता है। कैसा क्या करता है? इस बात को आगे होगा? यहाँ तो कहते हैं कि सच्चे देव गुरू धर्म का एक बार भी सत्संग हो जाये तो , गाथा में कहते हैंबेड़ा पार हो जाये, कहा है अनूतं विनासी चिंते, असत्यं उत्साहं कृतं । जिन वयन उवएस, केई पुरिसस्य मनिरयन वित्थरनं । अन्यानी मिथ्या सद्भावं, सुद्ध बुद्धं न चिंतए॥२०॥ मनुवा पंषि अनेयं, चंचु आक्रिनि लेवि सं उडियं ॥ अन्वयार्थ- (अनृतं विनासी चिंते) अशाश्वत और विनाशीक संयोग का उपदेशसुद्धसार गाथा-४ जिनेन्द्र भगवान के वचन रूप उपदेशरत्न को मणिरत्न की भाँति कोई विरले 5 चिन्तवन करता है (असत्यं उत्साहं कृतं) असत्य झूठी बातों और झूठी क्रिया में पुरुष विस्तार को प्राप्त कर पाते हैं। भगवान के समवशरण में मनुष्य रूपी पक्षी तो बड़ा उत्साह करता, उत्साहित रहता है (अन्यानी मिथ्या सद्भाव) अज्ञानी इन्हीं अनेक होते हैं किन्तु कोई विरले भव्य जीव जिनेन्द्र भगवान के वचनोपदेश रूपी. झूठे कार्यों में, भावों में लगा रहता है (सुद्धबुद्धं न चिंतए) अपने शुद्ध-बुद्ध, अविनाशी मणिरत्न को कर्णरूपी चोंच में लेकर उड़ जाते हैं अर्थात् जो जीव भगवान की वाणी शुद्धामस्वरूप का चिन्तवन नहीं करता। को ग्रहण कर लेते हैं यही सत्संग की सार्थकता है। विशेषार्थ- यहाँ जीव के संसार भ्रमण का क्या कारण है ? यह प्रश्न पूछे जाने सत्संग उसे कहते हैं, जब हमारी दृष्टि पलट जाये, अपने ब्रह्म स्वरूप की सुरत पर सद्गुरू तारण स्वामी उसका विवेचन कर रहे हैं कि मूल कारण तो मिथ्यात्व है, हो जाये और संसार से विरक्तता आ जाये, यह है सत्संग की महिमा । सत्य की। इसके साथ संसार शरीर भोगों में रंजायमान होना, मिथ्या देव, गुरू, धर्म का सेवन स्वीकारता, सत्य की श्रद्धा ही सच्चे देव गुरू धर्म का मिलना है और यह अभी तक करना, मिथ्या माया मेंमोहित रहना और क्षणभंगुर नाशवान शरीरादि अचेतन पदार्थों इस जीव को हुआ नहीं है तथा मिथ्या माया में मोहित हो रहा है। माया के तीन रूप में राग करना । यहाँ इसी बात को खुलासा कर रहे हैं कि जीव इन सबमें लगा है हैं- कंचन, कामिनी और कीर्ति। इनके चक्कर में संसारी प्राणी भ्रमित हो रहा है, तथा इन्हीं अशाश्वत, विनाशीक पदार्थों का चिन्तवन करता है, इन्हीं के झूठे और यह सब झूठी मन की भ्रमना छल है। न यह कुछ साथ आती है और न साथ प्रपंचों में अति उत्साहित रहता है तथा इन्हीं की चर्चा और इन्हीं के भाव करने में जाती है और न इससे किसी का भला होता है, मात्र छल धोखा है जिसमें अज्ञानी लगा रहता है। अपने शुद्ध-बुद्ध, अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा का तो प्राणी मोहित हो रहा है और इसकी चाह में व्याकुल हो रहा है। यह माया ही इस जीव चिन्तवन करता ही नहीं है। को मोहित किये हुए है, यही अपने ब्रह्म स्वरूप का साक्षात्कार नहीं होने दे रही है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि जब अपने शुद्ध-बुद्ध अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान यह जीव क्षणभंगुर नाशवान शरीरादि अचेतन पदार्थों में राग कर रहा है, इससे आत्मा का ही पता नहीं है, कभी उसे जाना नहीं, अनुभव नहीं किया तो उसका अनादि से संसार में भ्रमण कर रहा है। चिन्तवन कैसे करें? जो जानने में आया जिससे संबंध है, उसी का चिन्तन ) यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह अनादि से ही मिथ्यात्व माया, मोह आदि लगे हैं, चलता है वैसे ही भाव होते हैं, इसमें कोई क्या करे? इसका समाधान समयसार चलता जी में आया है Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P O4 श्री श्रावकाचार जी सुद परिचिदाणुभूदा सव्वस्सवि कामभोग बंध कहा। विशेषार्थ- यहाँ संसार भ्रमण का कारण क्या है ? यह बताया जा रहा है कि एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण, सुलहो विहत्तस्स ॥४॥ जीवझूठे राग में फँसकर संसार में दु:ख का बीज बोता है। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान । सर्वलोक को कामभोग संबंधी बंध की कथा तो सुनने में आ गई है, परिचय में , और मिथ्याचारित्र में लगा रहता है। मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र क्या है? आ गई है और अनुभव में भी आ गई है इसलिये यह सुलभ है; किन्तु भिन्न आत्मा ऐसे मिथ्याग ज्ञान वर्ण वश, भ्रमत भरत दुःख जन्म-मरण। का एकत्व होना कभी न तो सुना है,न परिचय में आया है और न अनुभव में आया है। तातें इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूँ बखान ॥ इसलिये एक मात्र वही सुलभ नहीं है। और भी आगे कहा है जीवादि प्रयोजनभूत तत्व, सर तिनमाहि विपर्ययत्व। तं एयत्त विहत्त, दाएह अप्पणो सविहवेण । चेतन को है उपयोग रूप, बिन मूरति चिन्मूरति अनूप ॥ जदिवाएज्ज पमाण, हिज्ज छलं ण घेत्तव्यं ॥५॥ पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनते न्यारी है जीव चाल। उस एकत्व विभक्त आत्मा को मैं आत्मा के निज वैभव से दिखाता हूँ , यदि मैं ताको नजान विपरीत मान, करि कर देह में निज पिछान ।। दिखाऊँ तो प्रमाण (स्वीकार) करना और यदि कहीं चूक जाऊँ तो छल ग्रहण नहीं ॐ मैं सुखी दुःखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव। करना। मेरे सुत तिय मैं सबल दीन,बेरूप सुभग मूरख प्रवीन । यहाँ यही तो समझना है कि हम चाहते क्या हैं?अगर आत्मकल्याण करना तन उपजत अपनी उपज जान,तन नशत आपको नाशमान। चाहते हैं, सुख शांति आनंद में रहना चाहते हैं तो जिसके आश्रय से वह मिलने रागादि प्रगट ये दु:ख देन, तिनहीको सेवत गिनत चैन। वाला है, उस ओर का प्रयास पुरुषार्थ करें, इसके लिये चार बातें ध्यान में रखें, शुभ अशुभ बंध के फल मंझार, रति अरति करे निजपद विसार। इनका अभ्यास करें, तो अवश्य काम बनेगा- १. आगम का सेवन, २. युक्ति का रोके न चाहनिज शक्ति खोय,शिव रूप निराकुलतानजोय।। अवलम्बन, ३. पर और अपर गुरू का उपदेश, ४. स्व संवेदन। याहीप्रतीति जत कछुक ज्ञान,सो दु:खदायक अज्ञान जान। हम क्या कर रहे हैं, इस बात को तारण स्वामी अगली गाथा में कहते हैं इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्या चरित्र ।। मिथ्या दर्सनं न्यानं, चरनं मिथ्या उच्यते।। इस प्रकार धर्म के विपरीत आचरण कर संसार का ही कारण बनाता है तथा अनृतं राग संपून, संसारे दुष वीर्जय ॥२१॥ र संयम तप के नाम पर मिथ्या संयम, मिथ्या तप करता है। संयम पाँच इन्द्रिय और मिथ्या संजम हदयं चिंते, मिथ्या तप ग्रहनं सदा। * मन को वश में करना तथा पाँच स्थावर और त्रस जीवों की रक्षा करना है. सोयह तो ९ करता नहीं और अपनी मनमानी से बाह्य आचरण उल्टा सीधा करता है जिससे अनंतानंत संसारे, प्रमते अनादि कालयं ॥२२॥ निराकुलता के बजाय आकुलता और विकल्प का कारण बनाता है, स्वयं परेशान - (अनृतराग सपून) झूठ रागमफसकर (ससारदुषवाजेय) संसार रहता है और दूसरों को परेशान करता है। के दुःख का बीज बो रहे हैं (मिथ्या दर्सनं न्यानं) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान (चरनं तप का वास्तविक स्वरूप-'इच्छा निरोध: तप: इच्छाओं के निरोध को मिथ्या उच्यते) और मिथ्याचारित्र को धर्म कहते हैं। 5 तप कहते हैं। तप के बारह भेद हैं-छह बाह्य तप- १. अनशन, २. उनोदर, (मिथ्या संजम हदयं चिंते) मिथ्या संयम का हृदय में चिन्तन करते हैं (मिथ्या ३. वृत्ति परिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. विविक्त सय्यासन, ६.कायक्लेश। तप ग्रहनं सदा) मिथ्या तप को सदा ग्रहण करते हैं इससे (अनंतानंत संसारे) छह अन्तरंग तप-१.प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैयावृत्य , ४. स्वाध्याय, अनन्तानंत संसार में (भ्रमते अनादि कालय) अनादि काल से भ्रमण कर रहे हैं और ५.व्युत्सर्ग,६.ध्यान।। करते रहेंगे। 'तपसा निर्जराच'तप से कर्मों की निर्जरा होती है सो यह तो करता नहीं, reakinorrecto Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री श्रावकाचार जी गाथा-२३,२४ P Ooan अपनी मनमानी मिथ्या आडम्बर करता है,स्वयं संक्लेशित रहता है तथा दूसरों के का बन्ध होता है। लिये संक्लेश का कारण बनता है इससे अनंतानंत संसार में अनन्त काल तक विशेषार्थ-यहाँ संसार भ्रमण का मूल कारण मिथ्यात्व तो है ही उसके साथ परिभ्रमण करता है। र अनन्तानुबंधी चार कषाय लोभ, क्रोध, मान, माया भी लगी रहती हैं. इन्हीं से यहाँ कोई प्रश्न करे कि अन्यमती में तो नाना भेष बनाते हैं और मिथ्या आडम्बर * अनन्त कर्मों का बन्ध होता है। यहाँ विशेष बात समझने की है कि पहले मोहनीय करते हैं, भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक नहीं रखते, पंचाग्नि तप करते हैं और नाना प्रकार कर्म के दो भेद बताये थे. पहले दर्शन मोहनीय जिसके तीन भेद- मिथ्यात्व, सम्यक्. का ढोंग रचते हैं, परंतु अपने यहाँ तो ऐसा कुछ नहीं करते, भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार मिथ्यात्व. सम्यक प्रकति मिथ्यात्व। दूसरे चारित्र मोहनीय के पच्चीस भेद होते हैं, रखते हैं, सही तप भी करते हैं फिर यह मिथ्या संयम मिथ्या तप क्यों कहा है? जिन्हें कषाय कहते हैं। कषाय चार होती हैं- क्रोध, मान, माया, लोभ इनकी उसका समाधान करते हैं कि पहली बात तो यह है कि सम्यक्त्व से हीन । तीव्रता मंदता के चार भेद हैं, अनन्तानुबंधी,अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन अर्थात अपनी आत्मश्रद्धा से रहित जो भी संयम तप है वह सब मिथ्या संयम, ४४४१६. नौ नो कषाय होती हैं- हास्य,रति, अरति, भय, शोक, मिथ्यातप ही है क्योंकि वह सब संसार के ही कारण हैं, भले ही ऐसे संयम तप से जुगुप्सा,स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद, यह सब पच्चीस हैं। अब इन पच्चीस कषायों पुण्य बन्ध होवे सद्गति होवे, देवगति चला जावे पर उससे लाभ क्या है? ऐसेतो- 3 को दो भेदों में बाँटा है, जिन्हें राग-द्वेष कहते हैं। राग के अंतर्गत तेरह कषाय आती मुनि व्रत धार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो। हैं,माया और लोभ की चौकडी तथा हास्य,रति और तीनों वेद । द्वेष के अंतर्गत बारह पनिज आतमज्ञान बिना,सखलेशन पायो॥ कषाय क्रोध और मान की चौकड़ी तथा अरति,भय,शोक,जगप्सा। अब यहाँ समझने दूसरी बात मन और इन्द्रियों के वश करने को संयम कहते हैं सो यह मन और का विषय है कि मिथ्यात्व के साथ यह अनन्तानुबंधी चार कषाय हमेशा रहती ही हैं। इन्द्रिय तो वश में करता नहीं और खाने-पीने की शुद्धि, बाह्य आडम्बर करता है, जो जीव को कमाँ से कसे बांधे उसे कषाय कहते हैं। इन्हीं को संयम कहता है तथा तप, इच्छा के निरोध करने को कहते हैं. सो इच्छा अब विशेष बात जो हमेशा स्मरण रखना हैका निरोध तो करता नहीं और तप के नाम पर नाना प्रकार के फैलाव फैलाता है। १. संसार में जीव को दु:खी करने वाला-मोह है। वैसे प्रतिदिन सामान्य भोजन करता है, परंतु व्रत के दिन नाना प्रकार के व्यंजन २.संसार में जीव को रुलाने वाला भ्रमण कराने वाला-मिथ्यात्व है। बनाता है। जबकि संयम तप करने वाले को तो सहज, सरल,आकिंचन्य निस्पृह ३.संसार में जीव को कर्म बन्ध का कारण-कषाय या राग-द्वेष है। होना चाहिये,जो कुछ जैसा अपने नियम के अनुकूल मिल जाये उसमें ही सन्तोष तीन मिथ्यात्व और चार अनन्तानुबंधी कषाय के छूटने पर ही जीव को अपने और तृप्त रहना चाहिये परन्तु वर्तमान में क्या हो रहा है, यह सब देख ही रहे हैं, इस स्वरूप का भान, सम्यक्दर्शन होता है, जब तक यह नहीं टूटती-छूटती तब तक प्रकार यह मिथ्या संयम, मिथ्या तप में लगा जीव संसार भ्रमण ही करता है। अब जीव को संसार में ही भ्रमण करना पड़ेगा। मिथ्यात्व के साथ चार अनन्तानुबंधी कषायों में लगे रहने से अनन्त कर्मों का अनुबन्ध अब आगे चार कषायों में पहले लोभ का स्वरूप कहते हैंकरता है, उसका स्वरूप कहते हैं लोभं कृतं असत्यस्या,असास्वतं दिस्टते सदा। मिथ्या दिस्टिच संगेन, कसायं रमते सदा। अनृतं कृत आनंद, अधर्म संसार भाजनं ॥ २४ ॥ लोभं क्रोध मयं मान,गृहितं अनंत बंधनं ॥२३॥ अन्वयार्थ- (लोभं कृतं असत्यस्या) लोभ करना बिल्कुल झूठा है, अधर्म है अन्वयार्थ- (मिथ्या दिस्टि च संगेन) मिथ्यात्वमय दृष्टि के संग से (कसायं (असास्वतं दिस्टते सदा) लोभ करने वाला हमेशा क्षणभंगुर, नाशवान पदार्थों को रमते सदा) कषायों में हमेशा रमण करता है (लोभं क्रोधं मयं मानं) लोभ, क्रोध, ही देखता है (अनृतं कृत आनंद) और इन्हीं सब नाशवान पदार्थों को इकठ्ठा करने, माया, मान के (गृहितं अनंत बंधनं) अनन्तानुबंधी बंधन में लगे रहने से अनन्त कर्मों . vedase Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०७ GYANCY श्री आवकाचार जी बनवाने में आनंद मानता है (अधर्म संसार भाजनं) यही अधर्म, पाप, संसार का पात्र बनाता है। विशेषार्थ यहाँ चार कषायों में पहले लोभ कषाय का वर्णन चल रहा है। कषाय करने वाला कैसा होता है उसका एक सूत्र है क्रोधी अन्धा होता है, मानी बहरा होता है। लोभी नकटा होता है, मायाचारी गूंगा होता है ॥ - पापों की माँ- माया और पापों का बाप लोभ होता है। लोभ तृष्णा को कहते हैं, संग्रह करने की वृत्ति लोभ है। मानसिक अशान्ति, चिन्ता, भय और दुःख का कारण लोभ है। लोभ करने वाले को किसी से प्रेम स्नेह नहीं होता। लोभ का मूल आधार धन, वैभव, परिग्रह है। लोभी को हित-अहित, पाप-पुण्य का कोई विचार, विवेक नहीं होता। धन संग्रह करना ही उसका एक मात्र लक्ष्य होता है। लोभ के कारण ही परिवार में कलह अशान्ति होती है। अनीति अन्याय, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी सब धन और लोभ के कारण होती है। लोभी न खाता है, न सोता है, हमेशा भयभीत रहता है। लोभी कभी व्रत धारण नहीं कर सकता। क्रोध और मान तो बाहर से दिखाई देते हैं, पकड़ में आ जाते हैं, परन्तु लोभ और माया बाहर से दिखाई नहीं देते, सहजता से पकड़ में नहीं आते। नरक में ले जाने का एक मात्र कारण लोभ ही है। बाहर में धन-वैभव परिग्रह होवे न होवे, यह पाप-पुण्य के उदयाधीन है, पर लोभ की प्रवृत्ति, लोभ कषाय तो अन्तरंग परिणति है जो भीतर ही भीतर काम करती रहती है, लोभी को किसी का विश्वास नहीं होता । पुत्र, पत्नि, भाई तक का विश्वास नहीं करता। धन की बहुत पकड़ होती है। लोभी को निरन्तर रौद्र ध्यान चलता रहता है। लोभी को बाहरी फैलाव धन-वैभव, परिग्रह ही दिखता है और इनके इकट्ठा करने, होने में ही आनंद मानता है। उसे अपने सत्स्वरूप आत्मा की तो कोई खबर ही नहीं होती, अधर्म में पापो में लगा हुआ संसार का पात्र बनता है। mosh remnach woh news noch यहाँ कोई प्रश्न करे कि कषायों में तो क्रोध, मान, माया, लोभ का क्रम है, यहाँ तारण स्वामी ने लोभ को पहले क्यों रखा ? 5 उसका समाधान है कि यहाँ तारण स्वामी ने जीव की परिणति और कषाय के मूल आधार को पकड़ा है; क्योंकि लोभ से ही क्रोध, मान, माया होते हैं और यह जीव के साथ दसवें गुणस्थान तक रहता है, लोभ ही पाप का बाप, पापों की जड़ है, २४ गाथा २५ लोभ से ही संसार का सब चक्र चलता है। लोभ का प्राण धन है और यही संसार का प्राण है। धन और धर्म की अत्यन्त विपरीतता है, जिसे धन इष्ट और प्रिय होगा, उसे धर्म उपलब्ध हो ही नहीं सकता। पुण्य-पाप की जड़ धन है, धर्म से तो इसका कोई संबंध है ही नहीं, धर्म मार्ग का सबसे बड़ा बाधक कारण धन है। जिन्हें धर्म मार्ग पर चलना था, मुक्त होना था, उन्होंने इस पाप-परिग्रह का त्याग किया तभी मुक्त हो सके। बड़े-बड़े राजा, महाराजा, तीर्थंकर, चक्रवर्ती इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। आगे लोभ से ही क्रोध होता है, और वह आत्मा धर्म रत्न को जलाता है, इसका वर्णन करते हैं - कोहाग्नि प्रजुलते जीवा, मिध्यातं घृत तेलयं । कोहाग्नि प्रकोपनं कृत्वा, धर्म रत्नं च दग्धये ।। २५ ।। अन्वयार्थ (कोहाग्नि प्रजुलते जीवा) जब जीव क्रोध की अग्नि में जलता है (मिथ्यातं घृत तेलयं) मिथ्यात्व, घी और तेल का काम करता है (कोहाग्नि प्रकोपनं कृत्वा) इससे क्रोधाग्नि बहुत बढ़ जाती है, उसका प्रकोप अति प्रबल हो जाता है (धर्म रत्नं च दग्धये) जिससे धर्म रत्न भस्म हो जाता है । - विशेषार्थ यहाँ संसार भ्रमण के कारण मिथ्यात्व के साथ अनन्तानुबंधी कषाय का वर्णन चल रहा है, यहाँ क्रोध का स्वरूप बताया जा रहा है कि जब जीव को अनन्तानुबंधी क्रोध उत्पन्न होता है तो उसमें मिथ्यात्व घी और तेल का काम करता है, इस क्रोधाग्नि में जीव अन्धा हो जाता है, फिर उसे अपने-पराये का, अच्छे-बुरे का कोई होश नहीं रहता। क्रोध की तीव्रता में बड़ा अनर्थ कर डालता है, परघात, अपघात तक की स्थिति बन जाती है। मिथ्यात्व सहित अनन्तानुबंधी क्रोध का उदाहरण द्वीपायन मुनि थे, जिन्होंने पूरी द्वारिका को और स्वयं को भी उसी में भस्म कर दिया। क्रोधी जीव को हानि-लाभ का, भले-बुरे का छोटे-बड़े का, घर-बाहर का कोई होश नहीं रहता। क्रोध के आवेश में जीव क्या से क्या नहीं कर डालता, यह प्रत्यक्ष संसार में देखने में आता है, अपना क्या होगा, इसका तो उसे होश ही नहीं रहता। क्षमा धर्म का नाश करने वाला क्रोध ही है। क्रोध का मूल आधार बुरा लगना है। अपनी मनचाही बात न होने से क्रोध आता है, कोई इच्छानुसार न चले तो क्रोध आता है, कोई नुकसान हो जाये कोई अपमान कर दे तो एकदम Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री बाचकाचार जी गाथा-२६,२७ C al क्रोध आ जाता है। बहिर्दृष्टि होने से ही क्रोध आता है और जब तक क्रोध की कषाय के स्वरूप का भी वर्णन करते हैंतीव्रता रहती है तब तक धर्म का जागरण हो ही नहीं सकता। जदि मिथ्या माया संपून,लोक मूढ़ रतो सदा। कुछ भी सुनने में बुरा लगता है तब तक सम्यक्दर्शन नहीं हो सकता। आगे , लोक मूढस्य जीवस्य, संसारे दुष दारुनं ॥२७॥ इसी के साथ मान का वर्णन करते हैं अन्वयार्थ- (जदि मिथ्या माया संपून)जो मिथ्यात्व मायादि कषाय से पूरा मानं अनृतं रागं, माया विनास दिस्टते। भरा हुआ है (लोक मूढ रतो सदा) वह हमेशा लोक मूढता में रत रहता है (लोक असास्वतं भाव विधंते,अधर्म नरयं पतं ॥२६॥ मूढस्य जीवस्य) और लोक मूढता वाले जीव (संसारे दुष दारुन) संसार में हमेशा अन्वयार्थ- (मानं अनृतं राग) मान कषाय में अशुभ राग अर्थात् शरीरादि घोर दुःख भोगते हैं। और (माया विनास दिस्टते) विनाशीक माया पर पदार्थ ही दिखाई देते हैं (असास्वतं. विशेषार्थ- यहाँ माया कषाय का स्वरूप बताया जा रहा है कि जो मिथ्यात्व भाव विधंते) अशाश्वत भाव अर्थात् संसारी भाव बढ़ जाते हैं (अधर्म नरयं पतं) सहित इन अनन्तानुबंधी कषायों में फँसा है, वह लोक मूढता में ही रत रहता है। और यह अधर्म नरक में ले जाता है। मायाचारी का तात्पर्य छल, कपट बेईमानी करना है, माया कषाय वाला विशेषार्थ-मान, अहंकार घमण्ड को कहते हैं और यह संसारी जीव को आठ कंचन,कामिनी और कीर्ति के जाल में फँसा होता है। इनको प्राप्त करने के लिये ही प्रकार का होता है-जाति मद, कुल मद, रूप मद, बल मद, धन मद, ज्ञान मद, तप छल कपट बेईमानी करता है और इनकी प्राप्ति के लिये ही लोकमठता अर्थात मद, ऋद्धि मद। मान महा विष रूप करहिं नीच गति जगत में,मान कषाय वाले लोगों की देखादेखी जैसा सब संसारी अज्ञानी जीव करते हैं. वैसा ही यह भी करता को किसी की हित की बात भी अच्छी नहीं लगती वह किसी की बात सुनना ही नहीं है, मानता है। यह माया कषाय इतनी सूक्ष्म होती है कि सहज पकड़ में नहीं आती, चाहता, अपनी सुनाना चाहता है। अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझता। इसका सूक्ष्म रूप, चाह,रुचि इच्छा है और यह जगत में पर पदार्थ को देखने से ही माता-पिता, गुरूजनों तक का अनादर करता है, अपने आपको ही सबसे श्रेष्ठ पैदा होती है। माया का इतना सूक्ष्म रूप है और फिर जहाँ अनन्तानुबंधी माया होवे अकल मंद मानता है, अपनी बात सबसे मनवाना चाहता है, अगर उसकी मर्जी के वहाँ कहना ही क्या है ? धन और यश के पीछे ही तो मनुष्य पागल रहता है, धन खिलाफ कुछ होता है तो वह नाराज हो जाता है, असहयोग करता है। मान कषाय 5 क्यों कमाता है, परिवार क्यों पालता है? मेरा नाम रहेगा। इस नाम और यश की वाला सबसे ईर्ष्या, बैर, विरोध रखता है। क्रोधी से मानी तीव्र कषाय वाला होता चाह में दुनिया भर के कुकर्म करता है और खुद नरक निगोद में चला जाता है। नाम, है। क्रोध कषाय वाला तो जिससे कोई लड़ाई झगड़ा विरोध हो, उसी से क्रोध, दाम, काम यह तीनों ही संसार का फैलाव करने वाले हैं और इनके पीछे ही यह जीव करता है। मान कषाय वाला तो सभी से रुष्ट रहता है, उसे कोई अच्छा ही नहीं नाना कर्म करता है, संसार में इन्हीं के लिये क्या-क्या नहीं हो रहा, यह सब प्रत्यक्ष लगता। जो कोई उसकी खुशामद,चापलूसी करे, हाँ में हाँ मिलाये, बस उसी से देखने में आ रहा है। साथ क्या जाना है, काम क्या आना है? इसका तो अज्ञानी संतुष्ट प्रसन्न रहता है। मान कषाय वाले को अपने से अच्छा होशियार तो कोई जीव को कोई विचार ही नहीं आता। इनके पीछे ही लोक मूढता में फँसकर मिथ्या दिखाई ही नहीं देता। मान कषाय के साथ मायाचारी और सारे पाप लगे रहते हैं, देव, गुरू,धर्म का सेवन करता है, कुदेवादि की मान्यता पूजा भक्ति करता है और इसका ज्वलंत उदाहरण-रावण है, जिसने अपनी मान कषाय के पीछे अपने वंश लौकिक व्यवहार में ही लगा रहता है। इसका परिणाम क्या होगा? कुछ सोचता ही को भी मिटा डाला और स्वयं भी दुर्गति में चला गया। नहीं है। समाज का, संसार का, अन्य जीवों का क्या होगा, इसका विचार नहीं करता मान कषाय वाले की दृष्टि हमेशा शरीर और पर पदार्थ पर ही रहती है और और न्याय-अन्याय,धर्म-अधर्म,पाप-पुण्य से जैसे-तैसे अपना काम बनाना चाहता इसके हमेशा खोटे भाव चलते रहते हैं, जिससे नरक में जाता है, इसी क्रम में माया है,धन और यश चाहता है, मेरा नाम अमर रहे इसके लिये संकल्प-विकल्प करता Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री बाचकाचार जी गाचा-२८,२९ C OOO है; जबकि संसार में किसी का नाम अमर हुआ ही नहीं,जो धर्म मार्ग पर चले जिन्होंने किया जाता है यही सब देव मूढता है। आत्म कल्याण किया, भगवान बने वही अमर हो गये, शेष सब तो मरते ही फिर रहे ३. पाषंडी मूढ़ता- ढोंगी, छल छिद्र करने वाले पाप, कषायों में प्रवृत्त हैं। इस प्रकार यह जीव इन कषायों के वशीभूत लोक मूढता आदि में फंस जाता है, .. पाषंडियों की मान्यता,पूजा,वन्दना करना पाषंडी मूढता है । धोखा देने वाले जिससे अनन्त संसार में ही परिभ्रमण करता है। ॐ मायाचारी करने वाले, धनादि ठगने वाले, यह सब पाषंडी होते हैं, इनकी संगति लोक मूढता आदि क्या है, उनका स्वरूप कहते हैं करना, मान्यता करना, पतन का कारण है। मुखों की संगति और मूर्खता दोनों ही लोक मूह रतो जेन, देव मूढस्य दिस्टिते। दुर्गति के कारण हैं। जो जीव इन तीन मूढताओं में फंसे होते हैं, वह निगोद ही जाते पाषंडी मूढ़ संगानि ,निगोयं पतितं पुनः ।। २८॥ ४ हैं; क्योंकि सत्पुरुष ज्ञानी, साधुओं का सत्संग ही जीव को कल्याणकारी है और कुसंग ही पतन का कारण है। संसार भ्रमण की कारणभूत यह तीन मूढतायें हैं। जो अन्वयार्थ-(लोक मूढ रतो जेन) जो जीव लोक मूढता में रत हैं (देव मूढस्य ९ जीव इन मिथ्यात्व कषाय मूढता आदि में फँसे हैं, वह संसार में नरक निगोद आदि दिस्टिते) वह देव मूढताओं को भी देखते हैं, उनमें ही लगे रहते हैं (पाषंडी मूढ के ही दुःख भोगते हैं। संसार भ्रमण के कारण पच्चीस दोष और हैं जिनका वर्णन संगानि) पाषंडी मूढों की संगति करके, पाषंडी मूढताओं के संग लगकर (निगोयं 3 करते हैंपतितं पुन:) पुन: निगोद में चले जाते हैं। अनायतन मद अस्टंच,संकादि अस्ट दूषनं । विशेषार्थ- मूढता तीन होती हैं- लोकमूढता, देवमूढता, पाषंडी मूढता। मलं संपूर्न जानते, सेवनं दुषदारुनं ॥ २९॥ मूढता का अर्थ मूर्खता है, यहाँ पहले इनका स्वरूप बताते हैं। १.लोक मूढता- संसारी लोगों की देखादेखी विवेक रहित क्रिया आचरण अन्वयार्थ- (अनायतन मद अस्टं च) छह अनायतन और आठ मद (संकादि व्यवहार करना लोकमूढता है। जैसे-व्यवहार बाह्य क्रिया कांड को ही धर्म मानना.१ अस्टदूषन) शंका आदि आठ दोष (मलं संपूर्न जानते) तीन मूढताओं सहित पच्चीस नदी आदि में स्नान करने को धर्म मानना, इसकी उसकी पूजा मान्यता करना धर्म मला को सम्यक्दृष्टि जानता है (सेवनं दुष दारुन) कि इनके सेवन करने से ही है ऐसा मानना। लक्ष्मी जी की पूजा करने से धन मिलता है, दकान. दरवाजे आदिदारुण दु:ख भोगना पड़ते हैं। के पैर पड़ना, चाहे जहाँ, चाहे जिसके सामने अपना मस्तक झुका देना। धन यश विशेषार्थ- यहाँ संसार भ्रमण के कारणों का वर्णन चल रहा है, सम्यकदृष्टि आदि की कामना से लौकिक रूढ़ियों को मानना और अपने वंश, समाज परम्परा में इन सबको जानता है और इन सबसे बचता है। यहाँ पच्चीस मल क्या हैं? इनका चली आ रही मान्यता, रूढ़ियों को बिना विवेक के मानना यह सब लोक मूढता है। वर्णन करते हैं-शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन, तीन मूढता - यह २. देव मूढता- किसी भी लौकिक कामना, धन, यश, जय, पुत्रादि की पच्चीस मल हैं। भावना से पूजा, पाठ, स्तुति, वंदना आदि करना देव मूढ़ता है। देव, कुदेव, अदेव * शंकादि आठ दोष- इनका संक्षेप में स्वरूप लिखते हैं। का कोई विवेक विचार न करते हुए, सबकी मान्यता करना। सच्चे देव तो सर्वज्ञ. १.शंका- धर्म में शंका करना (मैं जीव आत्मा हूँ या शरीर हूँ) तत्वों में वीतरागी, हितोपदेशी होते हैं। वह न तो किसी को कुछ देते हैं,न किसी से कुछ लेते श्रद्धान न होना (किसने देखा है, ऐसा है अथवा नहीं) शंका करने वाला हमेशा । हैं,वह तो वास्तविक धर्म का स्वरूप, आत्म कल्याण की बात मुक्ति का मार्ग बताते " सप्त भयों से भयभीत रहता है। २ हैं,उनका तो सम्मान बहुमान ही किया जाता है। किसी प्रकार की कोई भी कल्पना १. इह लोक भय- इस लोक में मेरा क्या होगा, अंतिम समय कौन मेरी सेवा, रक्षा र करके किसी भी प्रकार के आकार आदि स्वरूपकी पूजा आदि करना सब देव मूढता करेंगे, मेरी बुराई, हानि आदिन होवे। है; क्योंकि पूजा अर्थात् कुछ भी चढ़ाना, किसी न किसी कामना के अभिप्राय से ही २.पर लोक भय-पर लोक में नरक, पशुगति न चला जाऊँ, वहाँ मेरा क्या होगा? ... ३. वेदना भय-कोई बीमारी आदि हो जायेगी तो क्या करूंगा? Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Soश्री श्रावकाचार जी गाथा- ३०७ ४. अरक्षा भय- मेरी रक्षा सेवा संभाल कौन करेगा? ८.अप्रभावना-धर्म कार्यों में बाधा डालना. आलोचना करना, किसी को ५. अगुप्ति भय- मेरा धनादि कोई न ले जाये वरना फिर क्या करूँगा? आगे न बढ़ने न देना, पुरानी रूढ़ियाँ, मुखियापन बताना, किसी भी प्रकार धर्म ६. मरण भय- मैं मर न जाऊँ ऐसा हमेशा भय बना रहना। प्रभावना न होने देना। जबकि सम्यक्दृष्टि,धर्म प्रभावना में पूरे तन-मन-धन से ७. अकस्मात् भय- कोई अकस्मात् आपत्ति मेरे ऊपर न आ जाये? मिथ्यादृष्टि सहयोग करता है। प्रचार-प्रसार में आगे रहता है, धर्मी जीवों को आगे बढ़ाता है, को यह शंका और सात भय हमेशा लगे रहते हैं, इसलिये वह हमेशा भयभीत हर प्रकार से धर्म प्रभावना करता ही रहता है, वह प्रभावना अंग का पालन करता है। दुःखी रहता है। सम्यक्दृष्टि को कोई शंका भय नहीं होते वह नि:शंकित, निर्भय आठ मद- १.जाति मद- मैं उच्च जाति का हूँ। रहता है। २.कुल मद- मेरा कुटुम्ब,खानदान बहुत बड़ा है, मेरे कुल में ऐसे-ऐसे लोग २.कांक्षा- भोगों की कामना इच्छा, ऐसा और कर लेता, ऐसा और भोग , हो गये। लेता, हमेशा इन्हीं विचारों में आकुलित रहता है। सम्यक्दृष्टि को संसारी भोग तो ३. बल मद- मैं बड़ा बलशाली हूँ मेरा मुकाबला कौन कर सकता है। विषधर जैसे लगते हैं, वह नि:कांक्षित रहता है। ४. धन मद- मेरे पास इतना धन है, चाहे जिसको ठिकाने लगवा दूँगा। ३. विचिकित्सा - मिथ्यादृष्टि सबसे घृणा करता है, उसे कोई भी कुछ भी ५.तप मद- मैं इतना बड़ा तपस्वी हूँ मैंने इतना घोर तप किया है। अच्छा नहीं लगता । सम्यकदृष्टि को सबसे प्रेम होता है, स्नेह से सेवा करता है, ६.ज्ञान मद-मैं इतना ज्ञानवान हूँ मैंने इतने ग्रन्थ पढ़े हैं मेरे आगे कौन कहाँ किसी से ग्लानि नहीं करता निर्विचिकित्सक अंग पालता है। लगता है? ४. मूढ दृष्टि - मिथ्यादृष्टि हमेशा मूढताओं में लगा रहता है, उसकी दृष्टि में ७.रूप मद-मैं इतना रूपवान स्वस्थ सुन्दर हूँ। सब मूर्ख नजर आते हैं, उसे कोई ज्ञानी,धर्मी दिखाई नहीं देता। जबकि सम्यकदृष्टि ८. ऋद्धि मद-मैंने इतना कला कौशल सीखा है, मैं हर बात में, हर काम में ज्ञानी,धर्मी जीवों का सत्संग सेवा करता है, वह किसी मूढता में नहीं फंसता इसलिये परिपूर्ण हूँ, मेरे आगे कौन क्या बतायेगा? अमूढ दृष्टि है, ज्ञानी है। छह अनायतन- कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र और तीनों के भक्त इनकी संगति ५.अनुपगृहन-मिथ्यादृष्टि दूसरों की निन्दा बुराई करता है, अपनी प्रशंसा करना। करता है, उसे सब में दोष दिखाई देते हैं, अपने में कोई दोष दिखता ही नहीं है। तीन मूढता-लोक मूढता, देव मूढता, पाषंडी मूढता। सम्यक्दृष्टि पर के दोष नहीं,अपने दोष देखता है, अपनी ही निन्दा करता है, दोष यह पच्चीस मल हैं, इनके सेवन करने से दारुण दु:ख भोगना पड़ते हैं, मिटाता है, पर की प्रशंसा करता है, इस प्रकार उपगूहन अंग का पालन करता है। सम्यक्दृष्टि इन सबका स्वरूप जानता है, इनका सेवन संगति कभी नहीं करता। ६.अस्थितिकरण-मिथ्यावृष्टि स्वयं तो धर्म पालता नहीं और दूसरों को मिथ्यादृष्टि इनमें ही रत रहता है, अपने शुद्धात्म स्वरूप को नहीं जानता, इस बात भी पालने नहीं देता,विराधना, आलोचना करता है। जबकि सम्यकदृष्टि स्वयं तो8 को आगे गाथा में कहते हैंधर्म मार्ग पर चलता ही है और अन्य जीवों को भी धर्म मार्ग में लगाता है, धर्म में मिथ्या मति रतो जेन, दोसं अनंतानंतयं । स्थिर करता है, सहयोग देता है, समर्थन करता है, वह स्थितिकरण अंग पालता है। पालता है। सुख दिस्टि न जानते,असुद्धं सुखलोपनं ॥३०॥ ७. अवात्सल्य-मिथ्यादृष्टि सबसे ईर्ष्या द्वेष रखता, बैर-विरोध करता है, अन्वयार्थ- (मिथ्या मति रतो जेन) जो जीव मिथ्या मति में रत है (दोसं आपस में न प्रेम से रहता है न रहने देता है। जबकि सम्यकद्रष्टि सबसे मैत्री प्रेम वात्सल्य रखता है, सबके सुख-दु:ख में सहयोगी परोपकारी दयालु होता है, वह अनंतानंतयं) वह अनन्तानंत दोष, कर्मों का बन्ध करता है (सुद्ध दिस्टि न जानते) वात्सल्य अंग पालता है। शुद्ध दृष्टि, अपने शुद्धात्म स्वरूप को नहीं जानता (असुद्धं सुद्ध लोपन) अशुद्ध दृष्टि होने से शुद्ध दृष्टि का लोप करता है बिला देता है। etaas.erupeetaladieveaad Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ou40 श्री बावकाचार जी गाथा-३१,२८RNOOOK विशेषार्थ- यहाँ मिथ्यामति जीव की दशा को बताया जा रहा है कि जो मिथ्या शुद्धात्मानुभूति हो जाती है। मति में रत है वह अनन्तानन्त कर्मों का बन्ध करता है क्योंकि मिथ्यात्व ही सबसे (मिथ्या समय मिथ्या च) मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और (समय प्रकृति बड़ादोष, सबसे बड़ा पाप है, इसके कारण ही सारे पाप और कर्म बन्ध होते हैं। मिथ्यय) सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व का (कसायं चत्रु अनंतानं) चार अनन्तानुबंधी 0 यहाँ कोई प्रश्न करे कि पहले बताया था कि मिथ्यात्व के कारण जीव संसार कषाय, अनन्तानुबंधी क्रोध,मान,माया,लोभ (तिक्तते सुद्ध दिस्टतं) इनके छूटते में भ्रमण करता है, दु:ख भोगता है, कर्म बन्धका कारण तो कषाय, राग-द्वेष है. कषायही शुद्ध दृष्टि,सम्यक्दर्शन हो जाता है। से ही पाप होते हैं फिर इसे सबसे बड़ा पाप, कर्म बन्ध का कारण क्यों कहा गया है? विशेषार्थ- यहाँ तारण स्वामी अपूर्व बात बता रहे हैं, जो वास्तव में अनुभवी इसका समाधान करते हैं कि तत्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वामी ने कहा है- ज्ञानी साधक ही बता सकते हैं। यहाँ इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं कि संसार भ्रमण मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमावकषाययोगा बन्धहेतवः ।। मिथ्यादर्शन, अविरत, का मूल कारण मिथ्यात्व है और उसके साथ चार अनन्तानुबंधी कषाय हैं, तो प्रमाद, कषाय और योग यह बन्ध के हेतु हैं। यहाँ समझना यह है कि मूल आधार तो इसके लिये क्या करें कि यह मिथ्यात्व छट जाये? मिथ्यात्व ही है क्योंकि मिथ्यात्व के साथ चार अनन्तानुबन्धी कषाय भी लगी हैं श्रीतारण स्वामी यहाँ अपूर्व बात कह रहे हैं कि वैराग्य भावना करो, इस सूत्र और मिथ्यात्व के साथ उनका भी अभाव हो जाता है। मिथ्यात्व के बाद जो कषायादि में सारा रहस्य भर दिया है कि तुम छूटने की भावना तो करो, क्या तुम्हें यह संसार के कारण कर्म बन्ध होता है, वह इतना घातक संसार भ्रमण का कारण नहीं रहता। दु:ख रूप लग रहा है? क्या चार गतियों का दु:ख समझ में आया है ? क्या यह शरीर में एकत्वपना ही सारे पाप-विषय-कषाय आदि का कारण है। जहाँ शरीर से धन,शरीर, परिवार दुःख रूपलग रहे हैं? क्या यह संसार, शरीर, भोग बुरे लग रहे भिन्नत्व भासित हुआ, अपने शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति हुई कि फिर संसार की हैं? जैसे कोई दर्द होवे और डॉक्टर के पास जायें उसे बतावें और वह कहे कि तो मौत ही आ गई, फिर वह अधिक समय टिकता ही नहीं है इसलिये मिथ्यात्व को इसका जल्दी इलाज करो, कैंसर होने की संभावना है तो उसे सुनकर कैसी सबसे बड़ा पाप, अनन्तानंत कर्मों के बन्ध का कारण और संसार भ्रमण का कारण 5 घबराहट,बेचैनीमच जाती है। उसका इलाज कराने के लिये बंबई दौड़ जाते हैं, फिर कहा है। इसके कारण ही अपने शुद्धात्म स्वरूप के दर्शन नहीं होते, शुद्धात्म तत्व घर की, दुकान की, परिवार की, धन की, किसी की कोई परवाह नहीं करते। बस जानने में नहीं आता, इसकी अशुद्धता के कारण शुद्धता का अर्थात् शुद्धात्मा का एक ही भावना रहती है कि कैसे और कितने जल्दी अच्छे हो जायें, इस रोग से छूट लोप हो गया है, छिप गया है। जायें। क्या ऐसी घबराहट बेचैनी यह सद्गुरू की बात सुनकर लग रही है, इससे अब यहाँ प्रश्न आया कि इसके लिये हम क्या करें कि यह मिथ्यात्व छूट छूटने की छटपटाहट है ? छोड़ना चाहते हो, तो वैराग्य भावना करो और यह तीन जाये? इसका समाधान श्री गुरू तारण स्वामी आगे दो गाथाओं में करते हैं- ९ मिथ्यात्व छोड़ो, इनके छूटने पर ही तो सम्यकदर्शन होगा। यह संसार का परिभ्रमण वैराग भावनं कृत्वा, मिथ्या तिक्त त्रिभेदयं । एमिटेगा,यह नरक तिर्यंच गति के दुःख और यह सब जन्म-मरण के दुःख तभी मिटेंगे, कसायं तिक्त चत्वारि, तिक्तते सुख दिस्टतं ॥३१॥ डूबनो वीतरागी अब क्या देखते हो? मन समझाने, मात्र कोरी चर्चा करने से काम 5चलने वाला नहीं है । यह मिथ्यात्व रूपी हाथी को भगाने के लिये सिंह रूपी मिथ्या समय मिथ्या च,समय प्रकृति मिथ्ययं । 5 सम्यक्दर्शन चाहिये और वैराग्य भावना करो, भेदज्ञान करो तो अभी सम्यकदर्शन कसायं चत्रु अनंतानं, तिक्तते सुद्ध दिस्टतं ॥ ३२॥ हो सकता है; लेकिन भीतर इतनी छटपटाहट होवे, तब बात है। अन्वयार्थ- (वैराग भावनं कृत्वा) वैराग्य भावना करके (मिथ्या तिक्त त्रि तीन मिथ्यात्व क्या हैं, इसका स्वरूप बताते हैंभेदयं) तीन प्रकार के मिथ्यात्व को छोड़ो (कसायं तिक्त चत्वारि) चार प्रकार की १. मिथ्यात्व-यह शरीरादि ही मैं हूँ, ऐसी मान्यता का नाम ही मिथ्यात्व कषायों को छोड़ो (तिक्तते सुद्ध दिस्टतं) इनके छोड़ने पर शुद्ध दृष्टि अर्थात है।इनशरीरादि से भिन्न में एक अखंड अविनाशी शुद्ध बुद्ध ज्ञायक स्वभावी भगवान २८ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oक श्री श्रावकाचार जी गाथा- ३३O O आत्मा हूँ, ऐसा न मानना ही मिथ्यात्व है और यह अगृहीत अर्थात् अनादिकाल से आलोचना करता रहे। बैर-विरोध रखना जिसका स्वभाव हो, जिसे किसी की बात लगा है। यह नाम रूप शरीरादि संयोग ही मैं हूँ, इनसे भिन्न चैतन्य तत्व जीवात्मा अच्छी न लगे, जो अपने आपको सबसे श्रेष्ठ माने, हमेशा अपने आपमें फूला रहे, मैं हूँ ऐसा नहीं मानना ही मिथ्यात्व है। तत्वार्थ का अश्रद्धान अर्थात् प्रयोजनभूत , जिसके चेहरे पर कठोरता बनी रहे, यह अनन्तानुबंधी मान है, जो पत्थर के खम्भे के जीव तत्व का श्रद्धान न होना ही मिथ्यात्व है। र समान होता है। २. सम्यक् मिथ्यात्व- यह शरीर भी मैं हूँ और जीव आत्मा भी मैं हूँ ऐसा ४.अनन्तानुबंधी माया- छल-कपट, बेईमानी, मायाचारी करना जिसका । मिला-जुला श्रद्धान ही सम्यकमिथ्यात्व है। शरीर और मैं एक साथ ही पैदा हुए स्वभाव हो, निष्प्रयोजन खुशामदी बातें करना, इसको उसको उलझाकर मजा देखना, और दोनों एक साथ ही मरेंगे, एक के बिना दूसरा रहता ही नहीं है, दोनों के मिले रहने ८ नाम,दाम,काम के प्रति तीव्र आसक्त रहना,जनरंजन राग का विशेषपना, लौकिक पर ही सब काम होते हैं, ऐसी मान्यता ही सम्यक् मिथ्यात्व है। मूढता,रूढ़ियों का तीव्र पक्षपाती, अपने मन में सदा प्रपंच दंद-फंदरचते रहना, ३. सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व- मैं जीव आत्मा तो हूँ, पर यह शरीरादि का यह अनन्तानुबंधी माया है जो बाँस की जड़ के समान तीव्र टेढ़ी-मेढ़ी होती है। कर्ता मैं ही हूँ, मैं न करूँ तो कुछ हो ही नहीं सकता, इसका नाम सम्यक् प्रकृति इन तीन मिथ्यात्व और चार अनन्तानुबंधी कषाय के छोड़ने,छूटने पर मिथ्यात्व है। यह अशुद्ध पर्याय भी मेरी है और मैं भी अशुद्ध हूँ, मेरे ऊपर कर्मों ही सम्यक्दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति होती है, जिससे संसार का भवभ्रमण का आवरण चढ़ा है। कर्मों की जब तक सहूलियत न मिले तब तक कुछ हो ही जन्म-मरण का चक्र मिटता है। जीव सुख, शांति, आनंद में रहता है, मुक्ति का नहीं सकता, ऐसी मान्यता का नाम सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व है। अशुद्ध दशा में मार्ग बनता है, सिद्ध पद, परमानन्द की उपलब्धि होती है। अपने आपको शुद्ध मानना गलत है, निमित्त और व्यवहार के बिना कैसे काम है यहाँ प्रश्न कर्ता पुन: प्रश्न करता है कि गुरुदेव! यह तीन मिथ्यात्व और चार चलेगा ऐसी मान्यता सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व है। इसके चल, मल, अगाढ़ तीन अनन्तानुबंधी कषाय के छोड़ने पर छूटने पर सम्यकदर्शन होता है या सम्यकदर्शन दोष भी होते हैं। होने पर यह छूटते हैं, इसका क्रम क्या है? चार अनंतानुबंधी कषाय उनके नाम और स्वरूप यह महत्वपूर्ण प्रश्न है, जिसका समाधान श्री जिन तारण स्वामी करते हैं१.अनन्तानुबंधी लोभ-अनन्त अनुबंध करने को अनन्तानुबंधी कहते सप्त प्रकृति विछिदो जत्र, सुद्ध दिस्टि च दिस्टिते। हैं। लोभ-तृष्णा, चाह को कहते हैं। जिसके रहते किसी वस्तु की सीमा की चाह न रहे वह अनन्तानुबंधी लोभ है। असीम चाह, असीम तृष्णा, कितना ही कुछ भी श्रावकं अविरतं जेन,संसार दुष परान्मुष ॥ ३३॥ होवे, लेकिन उससे तृप्ति न होवे, सन्तोष का न होना ही अनन्तानुबंधी लोभ है.6 अन्वयार्थ-(सप्त प्रकृति विछिदो जत्र) जिस समय सातों प्रकृति का इसके सद्भाव में ही क्रोध, मान,माया, अधिक प्रबल होते हैं। अनन्तानुबंधी लोभ विच्छेद-क्षय, क्षयोपशम, उपशम होता है (सुद्ध दिस्टि च दिस्टिते) उसी समय डामर के समान न मिटने वाला होता है। * शद्धदष्टि दिखाई देने लगती है अर्थात् निज शुद्धात्मानुभूति, अपने शुद्ध ध्रुव स्वभाव २.अनन्तानुबंधी क्रोध-जो क्रोध अपने आपशान्त न हो, प्रतिद्वंदी विरोधी का दर्शन हो जाता है (श्रावकं अविरतं जेन) वही जीव अविरत श्रावक अर्थात् ० को देखते ही चाहे जब भड़क उठे, बदला लेने की भावना निरन्तर बनी रहे, किसी सम्यक्दृष्टि हो जाता है (संसार दुष परान्मुषं) संसार के दु:खों से छूट जाता है. . के अपराध को बदला लिये बगैर माफ न कर सके, जिसके हमेशा रौद्र ध्यान चलते परांगमुष अर्थात् संसार से विमुख हो जाता है। रहें,रौद्र रूप बना रहे, यह अनन्तानुबंधी क्रोध है, जो पत्थर की लकीर के समान न विशेषार्थ- यहाँ उस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं जो शिष्य ने किया था कि मिटने वाला होता है। मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों के छूटने पर सम्यक्दर्शन होता है या सम्यक्दर्शन ३. अनन्तानुबंधी मान- जो झुकना न जाने, जो हमेशा दूसरों की निन्दा होने पर यह सात प्रकृतियाँ छूटती हैं? Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You श्री आचकाचार जी गाथा-३३ POS श्री तारण स्वामी यहाँ जैन दर्शन का मर्म बता रहे हैं कि जिस समय सातों स्वभाव, निमित्त, पुरुषार्थ,काल लब्धि और नियति। प्रकृतियों का विच्छेद यह बहुत महत्त्वपूर्ण शब्द है, विच्छेद अर्थात् अलग होना, संधि इन पाँचों के एक साथ एक समय में एक से होने पर ही कार्य होता है। अब होना, जिसे क्षय,उपशम, क्षयोपशम भी कहते हैं, जिस समय यह होता है,उसी , इनका भिन्न-भिन्न स्वरूप इस प्रकार है - समय सम्यकदर्शन दिखाई देने लगता है अर्थात् अपना शुद्ध स्वरूप दिखाई दे १.स्वभाव-द्रव्य की शक्ति,जो कार्यरूप से परिणत हो। जाता है। २.निमित्त-सामने वाली शक्ति, जो कार्य होते समय उपस्थित रहे। यहाँ कोई प्रश्न करे कि इसका क्या प्रयोजन हुआ, यह क्यों नहीं कहते कि ३. पुरुषार्थ-उपादान की शक्ति। सात प्रकृतियों का क्षय,उपशम, क्षयोपशम होने पर ही सम्यक्दर्शन होता है ? ४.काललब्धि-तत्समय की योग्यता अर्थात उसी समय होना है। - इसका समाधान करते हैं कि ऐसा नहीं है, यह मिथ्यात्व आदि पुद्गल कर्म ५.नियति-सब निश्चित है, जिस समय जो होना है वह निश्चित है। पाँच वर्गणायें हैं,जीव चेतना स्वरूपी है, यह दोनों द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं, दोनों की सत्ता समवाय के इकठे हुए बिना कोई कार्य नहीं होता। जैसे- किसी मकान के दरवाजे शक्ति स्वतंत्र है । जीव-जीवमय है, पुद्गल-पुद्गलमय है। जीव जिस समयॐ पर पाँच ताले लगे हों और पाँचों की चाबी अलग-अलग व्यक्तियों के पास हों तो अपने शुद्ध स्वरूप को देखता है, उसे ही सम्यक्दर्शन कहते हैं। सात प्रकृतियों जब तक पाँचों व्यक्ति एक साथ एक समय में इकट्ठे नहीं होते तब तक दरवाजा के क्षय, उपशम, क्षयोपशम मात्र का नाम सम्यकदर्शन नहीं है; परन्तु ऐसा नहीं खुल सकता। इसी प्रकार जगत के प्रत्येक कार्य में यह पाँच समवाय सक्रिय हैं, निमित्त-नैमित्तिक संबंध है कि जिस समय जीव अपने स्वरूप को देखता है, उसी इनके बिना कोई कार्य नहीं होता। जैनदर्शन का स्याद्वाद तो इसी पाँच समवाय के समय इन सात प्रकृतियों का भी उपशम आदि होता ही है। जैसे-रात्रि का विलय र आधार पर टिका है, जो इसे नहीं जानता-मानता,वह तत्व का निर्णय, वस्तु स्वरूप और सूर्य का उदय, अब इसमें कौन आगे,कौन पीछे है, कौन पहले,कौन बाद में? ९. समझ ही नहीं सकता। कहने में एक समवाय की प्रधानता से बात कही जाती है जैसे-एक समय में यह होता है, वैसे ही एक समय में सम्यक्त्व होता है, मिथ्यात्व ए परन्तु साथ में चार समवाय भी गौण रहते हैं,यदि उन्हें भुला दिया तो एकान्तवाद विलाता है, कहने में तो कोई भी आगे पीछे कहने में आयेगा क्योंकि एक समय में हो जाता है, फिर अनेकान्त रह नहीं सकता। यह जगत की प्राकृतिक स्वतंत्र एक ही बात कही जाती है। यहाँ जीव और पुद्गल का निमित्त-नैमित्तिक संबंध है, व्यवस्था के पाँच आधार हैं, जिसके अनुसार पूरे विश्व का परिणमन चल रहा है। कर्ता-कर्म संबंध नहीं है, यदि कर्ता कर्म सम्बन्ध मानेंगे तो द्रव्य की स्वतंत्रता जो ऐसा प्रश्न करता है कि ऐसा क्यों हुआ, ऐसा नहीं ऐसा होना था, उसे अभी वस्तु समाप्त हो जायेगी, एक द्रव्य का दूसरा द्रव्य कर्ता बन जायेगा जो सिद्धान्त स्वरूप का ज्ञान नहीं है, पाँच समवाय की खबर नहीं है, वह अभी अज्ञानी है। विरुद्ध है। अब प्रश्न कर्ता कहता है कि इस बात से तो यह सब समस्या सुलझ गई यहाँ प्रश्न कर्ता पुन: प्रश्न करता है कि यह एक समय में कैसे और क्यों हुआ परन्तु अब एक प्रश्न और है कि यह सम्यक्दर्शन जीव को कब और कैसे होता है, क्योंकि जब दो द्रव्य स्वतंत्र और भिन्न हैं फिर दोनों का ऐसा परिणमन एक समय में क्या इसका भी कोई विधान है? क्योंकि चाहते तो सभी जीव हैं कि हमें सम्यक्दर्शन क्यों हुआ? हो जाये, हम मुक्त हो जायें यह संसार के दु:खों में तो कोई रहना ही नहीं चाहता, इसका समाधान करते हैं कि इस बात को समझने के लिये जैनदर्शन का मूल पर कोई विरला जीव ही छूट पाता है,इसका क्या कारण है? आधार जो पाँच समवाय हैं, उसे जानना बहुत जरूरी है क्योंकि उसके जाने बिना इसका समाधान करते हैं कि अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल शेष रहने पर यह बात समझ में ही नहीं आयेगी। काललब्धि आने पर सम्यकदर्शन होता है और काललब्धि पाँचलब्धियों की पूर्णता यहाँ प्रश्न कर्ता कहता है कि यह पाँच समवाय क्या हैं इन्हें संक्षेप में समझाइये? होने पर आती है। समवाय अर्थात् बराबरी की स्वतंत्र शक्ति और वह पाँच हैं। यह अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल और पाँच लब्धियाँ क्या हैं इनका संक्षेप में . नाबना Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी गाथा-३४ OO स्वरूप बताईये? भाव जो इसके पूर्व कभी न हुए हों। अनिवृत्ति करण-शुभ-अशुभ दोनों भावों से 6 पंच परावर्तन रूप संसार का परिणमन चल रहा है, वह पंच परावर्तन बचने छूटने और अपने शुद्ध स्वभाव की तीव्र लगन होना और ऐसे ही समय में । हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव। यह पंच परावर्तन और चार गति,यही पूरा संसार . काललब्धि आती है तथा अपने स्वरूप का दर्शन, निर्विकल्पदशा हो जाती है, यही का चक्र है और इसी में यह जीव अनादि से परिभ्रमण कर रहा है। परावर्तन का * सम्यकदर्शन है। वर्णन तो बड़ा विशद् और सूक्ष्म है, जो त्रिलोक प्रज्ञप्ति में स्वाध्याय करने से र यहाँ प्रश्न यह है कि अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल और प्रायोग्य लब्धि के । पता लगेगा। संक्षेप में यह है कि पुद्गल द्रव्य अनन्तानंत परमाणु हैं। अब जीव से अंतर्गत अन्त: कोड़ाकोड़ी सागर के भीतर कर्मों का सत्ता में रह जाना, इसमें क्या जितने पुदगल परमाणु का संयोग हुआ, उन परमाणुओं को एक-एक क्रम से पुन: भेट है? भोगता है और जब वह पूरे होते हैं, तब वह पुद्गल द्रव्य परावर्तन कहलाता है।। अर्द्ध पदगल परावर्तन काल में काल की अपेक्षा बात है कि अब इस जीव का इसी प्रकार जितने जीवों से संबंध हुआ, उसी क्रम से वह चलता है तथा ऐसे ही थोडे काल का ही संसार में भमण रह गया अब यह मक्त होने वाला है तथा अन्तः क्षेत्र-भरत ऐरावत आदि, काल-उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप, भाव-औदयिक कोडाकोडी सागर के भीतर कर्मों का शेष रह जाना अर्थात् अब कर्मों की सत्ता भी आदि, भव-चारोंगति । इन सबका पूरा भ्रमण एक-एक परावर्तन कहलाता है। थोड़ी रह गई क्योंकि कर्मों की सत्ता ज्यादा तीव्र होवे तो भी जीव कुछ नहीं कर अब इसमें पुद्गल द्रव्य का अर्द्धपरावर्तन काल शेष रहने पर अर्थात् इस जीव को सकता। कर्मों का क्षय होने पर ही जीव की मुक्ति होती है, ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संसार में थोड़े समय ही रहना है, इसकी मुक्ति का समय आ गया, तब काललब्धि संबंध है। आने पर सम्यक्दर्शन अर्थात् निज शुद्धात्मानुभूति होती है। काललब्धि, पंचलब्धि " अब यहाँ जिस जीव को अपने स्वरूप का श्रद्धान अनुभूति हुई, वही में करणलब्धि के अन्त समय में आती है, यह पाँच लब्धियाँ इस प्रकार हैं-क्षयोपशम सम्यकदृष्टि अव्रती श्रावक कहलाता है और वह संसार के दु:खों से परान्मुख हो लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि और करण लब्धि, अब इनका जाता है फिर वह संसार के दुःख भोगता नहीं है। आत्मीय आनंद में मगन रहता है, स्वरूप कहते हैं 3 एक तरह से तो वह संसार के दुःखों से मुक्त हो ही गया क्योंकि अब दो चार दस भव १. क्षयोपशम लब्धि- सब कर्मों का क्षयोपशम होना, मनुष्य भव आदि में मुक्त हो जायेगा। अब कोई भी शक्ति कर्मों की सत्ता उसे संसार में नहीं रोक शुभ योग की प्राप्ति होना। सकती, उसका तो पूरा जीवन ही बदल जाता है, उसकी दृष्टि उसका लक्ष्य ही २. विशुद्धि लब्धि-कषायों की मंदता, भावों की निर्मलता। बदल जाता है, अपूर्व स्थिति हो जाती है, जो बाहर से तो एकदम देखने में नहीं ३. देशना लब्धि-धर्म के स्वरूप को सुनने समझने और धारण करने की है आती परन्तु अन्तरंग परिणति क्या होती है, सम्यकदृष्टि जीव कैसा होता है, योग्यता। उसकी दृष्टि और लक्ष्य क्या होता है, इसका वर्णन करते हैं४. प्रायोग्य लब्धि-पूर्व बद्ध कर्मों का अन्त: कोडाकोड़ी सागर प्रमाण रह संमिक दिस्टिनो जीवा, सुख तत्त्व प्रकासकं । जाना। यह थोड़ा सूक्ष्म विषय है, सामान्यत: यह समझ में नहीं आता परन्त जिसके होने पर धर्म मार्ग पर चलने, धर्म साधना करने आत्म कल्याण करने, व्रत, नियम,5 परिनाम सुखसंमिक्तं,मिथ्या दिस्टि परान्मुकं ॥ ३४॥ संयम के भाव होने लगते हैं, यह बाहर से इसकी पहिचान है। अन्वयार्थ-(संमिक दिस्टिनो जीवा) सम्यक्दृष्टि वाला जीव (सुद्ध तत्त्व ५. करण लब्धि-परिणाम, भावों की पकड़ और संभाल होने लगना। प्रकासकं) शुद्ध तत्व का प्रकाश करता है अर्थात् शुद्ध तत्व का अनुभव करता है, इसके तीन भेद हैं- अध: करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति करण। उसे जानता है (परिनाम सुद्ध संमिक्त) परिणामों में शुद्ध सम्यक्त्व ही होता है अध:करण-निम्न स्तर के सामान्य परिणाम होना । अपूर्व करण- विशुद्ध अर्थात् आत्मा का ही विचार चिन्तन चलता है (मिथ्या दिस्टि परान्मुषं) मिथ्यादृष्टि Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८०७८० श्री आवकाचार जी से विमुख हो गया है, छूट गया है। विशेषार्थ - यहां सम्यक दृष्टि जीव कैसा होता है, उसकी दृष्टि और लक्ष्य क्या होता है, इसका वर्णन चल रहा है। सम्यकदृष्टि जीव शुद्ध तत्व का प्रकाश करता है। अब यहाँ तत्व किसे कहते हैं इसे समझना है। सार वस्तु या शुद्ध द्रव्य को तत्व कहते हैं, रहस्य को भी तत्व कहते हैं। जो तत्व को जानता है, तत्व में भी शुद्ध तत्व को जानता है, यह शुद्ध तत्व क्या है ? सारभूत तो निज शुद्धात्मा है, सम्यकदृष्टि अपने शुद्ध आत्म तत्व को जानता है, वह कैसा है ? ब्रह्म स्वरूपी निरंजन चेतन लक्षण, मात्र ज्ञान स्वभावी है। यह ब्रह्म स्वरूप तारण स्वामी की विशेष उपलब्धि है, क्योंकि ब्रह्म अनादि अनंत है, सिद्ध सादि अनन्त है। जो त्रिकाल शुद्ध ध्रुव अविनाशी चैतन्य लक्षण वाला ब्रह्म स्वरूपी अर्थात् परमात्म स्वरूप है, वह मेरा सत्स्वरूप शुद्धात्म तत्व है, ऐसा जानता है और व्यवहार में सात तत्वों का यथार्थ निर्णय करता है । यह सात तत्व क्या हैं और इनका स्वरूप क्या है, यह लिखते हैं, तत्वार्थसूत्र में आया है- तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यक् दर्शनं । जीवाजीवासव बन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वं । (१/२, ३) जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष यह सात तत्व हैं १. जीव तत्व- जिसमें चेतना ज्ञान-दर्शन शक्ति है, जो मात्र ज्ञायक स्वभावी है जो अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त बल का भण्डार है, जिसमें परम सुख, परमशान्ति, परम आनन्द रूप रत्नत्रय भरे हैं, जो केवलज्ञानमयी है, वह जीव तत्व है। - . २. अजीव तत्व जिसमें ज्ञान-दर्शन चेतना नहीं है, जो अचेतन है, जिसके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह पाँच भेद हैं, वह अजीव तत्व है। ३. आसव तत्व- जीव का अजीव की तरफ देखने से जो कर्मों का आना होता है, वह आस्रव तत्व है। ४. बन्ध तत्व- जीव का अजीव की तरफ देखकर राग-द्वेष करना इससे कर्मों का बन्ध होता है, वह बन्ध तत्व है। ५. संवर तत्व - जीव का अपने शुद्ध स्वरूप की तरफ देखना पर की तरफ न देखना, इससे कर्मों का आना रुकता है, वह संवर तत्व है। ६. निर्जरा तत्व - जीव का अपने शुद्ध स्वभाव में रहने से बन्धे हुए कर्मों का क्षय होता है, वह निर्जरा तत्व है। SYA YA YA ART YEAR. ३२ गाथा-२६ ७. मोक्ष तत्व- जीव और अजीव का अपने शुद्ध स्वभाव मय रहना मोक्ष तत्व है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह आपने जीवादि तत्वों की परिभाषा बताई, ऐसा तो कोई नहीं बताता, वहाँ तो सामान्य परिभाषा ही बताई जाती है फिर इसमें यह अन्तर क्या है ? इसका समाधान करते हैं कि पहले तो सम्यक्दृष्टि ऐसे शुद्ध तत्व को जानता है, उस अपेक्षा यह परिभाषा है। दूसरी जैनदर्शन में तत्व, द्रव्य, पदार्थ, अस्तिकाय इन चार भेदों से जीवादि के स्वरूप का वर्णन किया है, तो एक सामान्य परिभाषा में तो सब गड़बड़ हो जाता है, फिर तत्व, द्रव्य, पदार्थ, अस्तिकाय में क्या भेद है ? यह जीवादि को चार भेद रूप क्यों कहा ? यह समझने, विचार करने, चिन्तन में लेने की बात है क्योंकि तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यक्दर्शनं कहा है। इस बात को तारण स्वामी ने न्यान समुच्चय सार ग्रंथ की गाथा क्रं. ७६५ से ८३२ तक खूब खुलासा किया है। यहाँ तत्व की अपेक्षा परिभाषा बताई है। यह तत्व की भूल से ही जैन धर्म में पर की पूजा, वन्दना, भक्ति, पराश्रितपना आ गया है। सम्यक्दृष्टि के भावों में तो शुद्ध सम्यक्त्व अर्थात् अपना निज शुद्धात्म तत्व ही आता है। वह उसी की साधना-आराधना करता है। वह मिथ्यादृष्टिपने से विपरीत हो गया है अर्थात् अब पर से मेरा भला होगा, कोई दूसरा मेरा इष्ट परमात्मा है, ऐसी मान्यता छूट गई है। अब तो वह अपने निज शुद्धात्म तत्व को ही अपना इष्ट परमात्मा मानता है, अपने ही आश्रय से अपना भला होगा, ऐसा मानता है। और सम्यकदृष्टि क्या मानता है, क्या करता है ? इसे आगे की गाथा में कहते हैं संमिक देव गुरं भक्तं संमिक धर्म समाचरेत् । संमिक तत्व वेदते मिथ्या विविध मुक्त ।। ३५ ।। अन्वयार्थ- (संमिक देव गुरं भक्तं) सच्चे देव, गुरू की भक्ति करता है (संमिक धर्म समाचरेत्) सच्चे धर्म का ही आचरण पालन करता है (संमिक तत्त्व वेदंते) सच्चे तत्व का ही अनुभव करता है (मिथ्या त्रिविध मुक्तयं) तीनों प्रकार के मिथ्या देव, गुरू, धर्म से मुक्त हो गया, छूट गया है। विशेषार्थ- यहाँ सम्यदृष्टि कैसा होता है, उसकी दृष्टि और लक्ष्य क्या होता Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५७ श्री आवकाचार जी है तथा वह क्या करता है इसका वर्णन चल रहा है। सम्यक्दृष्टि सच्चे देव, गुरू, धर्म की भक्ति करता है। सच्चा देव कौन है ? निज शुद्धात्मा। सच्चा गुरू कौन है ? निज अन्रात्मा, वीतराग परिणति । इनकी भक्ति करता है अर्थात् इन्हीं के स्मरण-ध्यान में लगा रहता है। व्यवहार में सच्चे देव सर्वज्ञ वीतरागी हितोपदेशी, केवलज्ञानी सशरीरी और अशरीरी सिद्ध परमात्मा तथा वीतराग निर्ग्रन्थ दिगम्बर ज्ञानी साधु की भक्ति करता है। सच्चे धर्म का पालन करता है, सच्चा धर्म क्या है ? अपना शुद्ध स्वभाव ही सच्चा धर्म है, इसका पालन करता है। व्यवहार में अहिंसा परमोधर्म का पालन करता है, दशलक्षण रूप धर्म का आचरण करता है। सच्चे तत्व का अनुभव करता है अर्थात् सत्संग, स्वाध्याय द्वारा तत्व का सही निर्णय करता है। मिथ्या देव, गुरू, धर्म के चक्कर से छूट गया, मुक्त हो गया है अर्थात् अब वह इनकी मान्यता, वन्दना, भक्ति नहीं करता । यहाँ कोई प्रश्न करे कि सम्यकदृष्टि, मिथ्यादेव, गुरू धर्म के चक्कर से छूट गया है अब इनकी मान्यता, वन्दना, भक्ति नहीं करता तो फिर विराधना, विरोध तो करता है, आलोचना तो करता है कि ऐसे हैं यह सब बताता है या नहीं ? उसका समाधान करते हैं कि सम्यक्दृष्टि ज्ञानी को किसी की विराधना, विरोध आलोचना करने की क्या जरूरत है ? वह तो सत्य का उपासक है, उसने सत्य वस्तु स्वरूप को जाना है, वह तो उसकी साधना आराधना करता है। पर के प्रपंच में पर की तरफ देखने की जरूरत ही क्या है। जो जैसा है, वह उसके लिये है, जो जैसा करेगा उसका परिणाम वह भोगेगा। जगत तो अनादि अनंत है, जगत में अनन्त जीव हैं और सबका परिणमन अपनी पात्रता, तत्समय की योग्यतानुसार चल रहा है और चलेगा, उसे बदल भी कौन सकता है। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी ने वस्तु स्वरूप जाना और वह वहाँ से हट गया। कहने बताने में आयेगा तो वह सत्य वस्तु स्वरूप बतायेगा, कोई माने या न माने, वह किसी का बैर-विरोध, आलोचना नहीं करता । यहाँ पुनः प्रश्न है कि फिर तारण स्वामी ने कुदेवादि का विरोध क्यों किया? उसका समाधान है कि तारण स्वामी ने सच्चे देव, सच्चे गुरू, सच्चे धर्म का स्वरूप बताया है, वहीं मिथ्या देव, मिथ्या गुरू, मिथ्या धर्म का स्वरूप बताया है पर उन्होंने किसी की विराधना विरोध नहीं किया। किसी को यह नहीं कहा यह गलत है, यह सही है, उन्होंने तो स्वरूप बताया है कि अब देख लो, समझलो, फिर SYKAAT GESTAAN GAN ANAT YEAR. most 5 ३३ गाथा-३६ जिसे जो मानना हो मानो। उन्होंने यहाँ अभी सम्यदृष्टि, मिथ्यादृष्टि की परिभाषा बतलाई; परन्तु यह नहीं कहा कि तुम मिथ्यादृष्टि हो या हम सम्यकदृष्टि हैं, उन्होंने तो यह बताया है कि जो यथार्थ वस्तु स्वरूप है वह ऐसा है, अब हम स्वयं अपने को देख लें, अपने देव गुरू धर्म की मान्यता को देख लें। तारण स्वामी ने आज तक किसी के विरोध में एक शब्द नहीं कहा, व्यक्तिगत आलोचना नहीं की । मालारोहण ग्रंथ की पाँचवीं गाथा में स्पष्ट कहा है - शल्यं त्रियं चित्त निरोध नित्वं, जिन उक्त वानी ह्रिदै चेतयत्वं । मिथ्यात देवं गुरु धर्म दूरं, सुद्धं सरूपं तत्वार्थ सार्धं ॥ परन्तु इतना अवश्य है कि जिसने सत्य को जाना, सत्य को उपलब्ध किया वह तो सत्य वस्तु स्वरूप ही कहेगा, कोई माने अथवा न माने, इसके लिये प्रत्येक जीव स्वतंत्र है। - यहाँ सम्यक्दृष्टि कैसा होता है, उसकी मान्यता और साधना क्या है ? इसका विवेचन चल रहा है, इसी क्रम में आगे उसका और वर्णन करते हैंसंमिक दर्सनं सुद्ध न्यानं आचरन संजुतं । " सार्द्धं त्रिति संपूर्न, कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं ॥ ३६ ॥ अन्वयार्थ - (संमिक दर्सनं सुद्धं) सम्यक्दर्शन शुद्ध होने पर (न्यानं आचरन संजुतं) ज्ञान और चारित्र भी सम्यक् हो जाते हैं (सार्द्धं त्रिति संपूर्णं) सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों की पूर्णता ही मोक्ष है और तीनों की साधना ही मोक्षमार्ग है (कुन्यानं त्रिविधिमुक्तयं) तीनों प्रकार के कुज्ञान से मुक्त हो जाता है, छूट जाता है। विशेषार्थ- यहाँ शुद्ध सम्यक्दर्शन होते ही, ज्ञान भी सम्यक्ज्ञान और चारित्र भी सम्यक्चारित्र हो जाता है यह बतलाया जा रहा है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि सम्यक्दर्शन होते ही ज्ञान, सम्यक्ज्ञान और चारित्र सम्यक् चारित्र कैसे हो जाता है ? क्योंकि अभी तो वह मोह, राग-द्वेषादि अज्ञानमय है तथा पा विषय- कषायों में लगा है तो यह सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र कैसे हुआ ? उसका समाधान करते हैं कि जब तक जीव मिथ्यात्व सहित था तब तक कितने ही ग्रन्थों का पठन करने वाला, यहाँ तक कि ग्यारह अंग और नौ पूर्व का जानने वाला भी मिथ्यात्व सहित मिथ्याज्ञानी है और श्रावक के व्रत, संयम और साधु के अट्ठाईस मूलगुण का निरतिचार पालन करना भी मिथ्यात्व सहित, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PO4 श्री श्रावकाचार जी गाथा-३७,३८ POOO मिथ्याचारित्र है क्योंकि इससे मुक्ति का मार्ग नहीं बनता और न आत्मा में सुख शांति निर्भय निद आनंद में रहना ही एकमात्र लक्ष्य है और इसके लिये जैसी अनुकूलता होती है तथा सम्यकदर्शन निज शुद्धात्मानुभूति होते ही भले ही वह कितना ही मूढ परिस्थिति देखता है. अपनी पात्रतानुसार वैसा परिणमन करता है। अज्ञानी हो अनपढ़ हो, कुछ भीनजानता हो,मोह,राग-द्वेष में लिप्त हो फिर भी वह यहाँ कोई प्रश्न करे कि ऐसा तो सभी कहते हैं और करते हैं परन्तु देखने में तो उतने समय सम्यकज्ञानी है और बाहर में भले ही वह पापों में विषय-कषायों में लिप्त सब विपरीत आता है। संयम.तप.साधना के नाम पर और अधिक विकल्प आकुलता हो, पर वह उतने समय सम्यक्चारित्र वाला है; क्योकि उसने अपने शुद्ध शुद्धात्म में ही रहते हैं. कषाय करते हैं तथा दूसरों को भी आकुलता-विकल्प के कारण बनते स्वरूप को देख लिया है. जान लिया है, मान लिया है। एक समय का स्वरूपाचरण हैं फिर यह सब क्या है? हो गया है और मोक्षमार्ग में यही सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र कार्यकारी इसका समाधान करते हैं कि यहाँ सम्यकदृष्टि की दशा का वर्णन चल रहा है है। इसी से आत्मा में सुख शांति आनंद की उपलब्धि होती है। यह बात ध्यान में रखना है। यहाँ यह बताया जा रहा है कि सम्यकद्रष्टि ज्ञानी ऐसा __ अब यहाँ एक बात जो महत्वपूर्ण समझने की है वह यह कि सम्यक्दर्शन में होता है, उसका एक मात्र लक्ष्य निराकुल, निर्विकल्प आत्मीय आनंद में रहने का भले ही उपशम सम्यक्त्व होवे, उसमें और सिद्ध परमात्मा के सम्यक्त्व में कोई भेद होता है। वह संकल्प-विकल्प के कारणों से बचता है सब बन्धनों से दूर रहता है, नहीं है, श्रद्धा दोनों की एक सी अपने ध्रुव तत्व की बराबर होती है। ज्ञान और चारित्र क्योंकि जिसे एक बार अमृत रस पीने को मिल जाये, फिर क्या वह जहर पियेगा? में क्रमश: विकास होता है क्योंकि इनके बाधक कारण ज्ञानावरणीय, मोहनीय शः विकास हाताह क्याकि इनक बाधक कारण शानावरणाय, माहनाय मजबूरी, कर्मोदायिक परिस्थिति में रहना और करना पड़ता है। परन्तु वह तो फिर अभी मौजूद हैं तथा बाहर के ज्ञान और चारित्र को सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्र नहीं संसार में एक समय के लिये भी नहीं रहना चाहता, सब बन्धनों से छूटने का नाम ही कहते। यह कर्मों के क्षयोपशम से होता है, उस भूमिका, पात्रतानुसार बाहर में वसा मक्ति है। जो पाप परिग्रह रूप ग्रन्थियाँ खोल देता है उसे ही निर्ग्रन्थ साधु कहते हैं आचरण अपने आप होता है, न होवे ऐसा तो होता नहीं है, हो ही नहीं सकता। इसी और जो सब कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाता है वह सिद्ध परमात्मा कहलाता है। यहाँ बात को आगे की गाथा में कहते हैं सम्यक्दृष्टि की बात समझना है और अपने को देखना है, इसके अतिरिक्त कौन संमिक संजमं दिस्टा, संमिक तप सार्द्धयं । क्या कर रहा है, कैसा रह रहा है, उसकी वह जाने; क्योंकि यह तो संसार है। यहाँ परिनै प्रमानं सुद्ध, असुद्ध सर्व तिक्तयं ॥३७॥ धर्म के नाम पर जीव क्या-क्या नहीं कर रहे, क्या-क्या नहीं हो रहा,यह सब अन्वयार्थ- (संमिक संजमंदिस्टा) सम्यक संयम देखने में आता है (संमिक प्रत्यक्ष ही है तो फिर बिचारे संयम-तप के नाम पर जो कुछ कर रहे हैं. उसका तप सार्द्धयं) सम्यक् तप की साधना करता है (परिनै प्रमानं सुद्ध) उसका परिणमन ! पार परिणाम तो वह भोग रहे हैं और भोगेंगे। यहाँ तारण स्वामी सम्यक्दृष्टि की बात कर रहे हैं, अपनी ओर देखने के लिये प्रामाणिक शुद्ध होता है (असुद्धं सर्व तिक्तयं) सर्व अशुद्ध परिणमन को छोड़ देताहै। ' ई कह रहे हैं। इसी क्रम में सम्यक्दृष्टिको और क्या होता है, इसे आगे कहते हैं - विशेषार्थ- सम्यक्दर्शन सहित ज्ञान, सम्यक्ज्ञान और चारित्र तो सम्यक्चारित्र हो ही जाता है। सम्यक्दर्शन सहित संयम भी सम्यक संयम होता है और तप भी षट् कर्म संमिक्तं सुद्धं,संमिक अर्थ सास्वतं। सम्यक् तप होता है। उस सम्यक्दृष्टि का सब परिणमन प्रामाणिक शुद्ध होता है संमिक्तं धुर्व साद्ध, संमिक्तं प्रति पूर्नितं ॥३८॥ अर्थात् जिस भूमिका, गुणस्थान में होता है उस रूप ही सारा परिणमन होता है, वह अन्वयार्थ- (षट् कर्म संमिक्तं सुद्ध) शुद्ध षट्कर्म भी सम्यक्दृष्टि को होते हैं स्वच्छन्दता-मनमानी नहीं करता, लौकिक सामाजिक रूढ़ियों का बंधा नहीं होता। (संमिक अर्थ सास्वतं) सम्यक्त्व ही प्रयोजनवान शाश्वत है (संमिक्तं धुवं सार्द्ध) देश, काल, परिस्थिति के अनुसार निराकुल, निर्विकल्प रहने का नाम ही संयमतप सम्यक्त्वी ही शुद्ध ध्रुव स्वभाव की साधना करता है (संमिक्तंप्रति पूनितं) सम्यक्त्व है। बाह्य आडम्बर को ओढ़ता नहीं है, सहजता में निराकुल, निशल्य, निश्चित, ही यथार्थ परिपूर्ण होता है। ३४ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DON श्री श्रावकाचार जी गाथा-३० विशेषार्थ- सम्यकदर्शन की बड़ी अपूर्व महिमा है। सम्यक्दृष्टि को ही शुद्ध सुद्धप्पा अरु जिणवरह, भेउ म किं पि वियाणि। षट्कर्म होते हैं, षट्कर्म अर्थात् गृहस्थ श्रावक के आवश्यक छह कर्तव्य-देवपूजा, मोक्खहँ कारण जोइया,णिच्छइएउ विजाणि ॥ गुरूभक्ति,शास्त्र स्वाध्याय, संयम,तप और दान। (योगसार गाथा-२०) मुनियों के भी छह नित्य कर्म हैं- प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, संस्तुति,* शुद्धात्मा और जिन भगवान में कुछ भी भेद न समझो मोक्ष का कारण एकमात्र ७ वन्दना,सामायिक, कायोत्सर्ग। यह षट्कर्म भी सम्यक्दर्शन होने पर ही शुद्ध होते यही है, ऐसा निश्चय से जानो । जो राग-द्वेष से विमुक्त, छूटा हुआ है अर्थात् , हैं। सम्यकदर्शन ही प्रयोजनवान शाश्वत है, सम्यक्त्वी ही अपने शुद्ध ध्रुव स्वभाव जिसके स्वभाव में राग-द्वेष है ही नहीं, जो अरूपी है, शुद्ध है, आनंद स्वरूपी है, की साधना करता है, यथार्थ में सम्यक्दर्शन ही महत्वपूर्ण है। ऐसा शुद्धात्म तत्व सच्चा देव मैं ही हूँ, ऐसे अपने निज शुद्ध स्वभाव की उपासना, सम्यक्त्व अर्थात् आत्म श्रद्धान बिना, बाहर में कितना भी कुछ भी करता रहे, साधना करता है। होता रहे जीव को कभी सुख शान्ति मिलने वाली नहीं, मुक्ति होने वाली नहीं। यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह तो स्वच्छन्दीपना हो गया इससे तो जगत में मिथ्यादृष्टि जीव हर समय, हर दशा में भले ही वह चक्रवर्ती इन्द्र भी क्यों न होवे, देव,गुरू,धर्म की मर्यादा मान्यता ही समाप्त हो जायेगी तथा वर्तमान में जो आकुल-व्याकुल और दु:खी ही रहता है। 3 राग-द्वेष में लिप्त.अशद्ध है और अपने को ही शुद्ध सिद्ध परमात्मा, परमदेव माने ___सम्यकदृष्टि जीव किसी दशा में कैसा ही रहे, हमेशा सुख साता में रहता है तो यह कैसा ज्ञानी, सम्यकदृष्टि है ? क्योंकि उसे इस शरीरादि कर्मों से भिन्न अपने एक अखंड अविनाशी ध्रुव तत्वशुद्धात्मा इसका समाधान करते हैं कि जैसे हम कोई सोने का आभूषण लेकर स्वर्णकार का श्रद्धान अनुभवन हो गया है, यही महत्वपूर्ण, प्रयोजनवान शाश्वत सत्य है,ऐसा के पास जायें और उससे कहें कि इसे बेचना है तो वह क्या देखता है और किसकी सम्यकदृष्टि जीव अपने आपको कैसा जानता, मानता है, इस बात को आगे गाथा में 5 कीमत करता है ? भले ही अपना आभूषण दस तोले का हो, कितना ही सुन्दर कहते हैं अच्छा बना हो परन्तु वह उसमें शुद्ध सोने को देखता है और उसकी कीमत करता संमिक देव उपाचंते,राग दोष विमुक्तयं । है। मैल सहित होने पर भी वह शुद्ध सोने की कीमत आँकता है. इसी प्रकार अरूपं सास्वतं सुद्धं, सुयं आनंद रूपयं ॥३९॥ सम्यक्दृष्टि कैसी ही दशा में होवे, उसकी दृष्टि में तो अपना शुद्ध स्वरूप ध्रुव तत्व अन्वयार्थ- (संमिक देव उपाद्यंते) सच्चे देव की उपासना करता है (राग दोष ही झलकता है, वह उसी की उपासना करता है; क्योंकि उसके आश्रय ही उसकी मुक्ति होने वाली है। इसी बात को समयसार गाथा १४ में कहा हैविमुक्तयं) जो राग द्वेष से विमुक्त है (अरूपं सास्वतं सुद्ध)जो अरूपी है, शाश्वत है, जो पस्सदि अप्पाणं,अबद्ध पुढे अणण्णय णियदं। शुद्ध है (सुयं आनंद रूपयं) वह आनंद स्वरूपी मैं स्वयं हूँ। अविसेसमसंजुत्तं,तं सुद्ध णयं वियाणीहि ॥ विशेषार्थ- सम्यक्दृष्टि सच्चे देव की उपासना करता है, वह सच्चा देव कैसा जो अपनी आत्मा को बन्ध रहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्व रहित, है, कौन है? चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग रहित, ऐसे पाँच भाव रूप से आतम ही है देव निरंजन, आतम ही सदगुरु भाई। 5 देखता है, उसे शुद्ध निश्चयनय जानो। आतम शास्त्र धर्म आतम ही, तीर्थ आत्म ही सुखदाई॥ आगे इसी बात को और स्पष्ट किया हैआत्म मनन ही है रत्नत्रय, पूरित अवगाहन सुख धाम। जो पस्सदि अप्पाणं,अबद्ध पुढे अणण्णमविसेसं। ऐसे देव शास्त्र सद्गुरुवर,धर्म तीर्थ को सतत् प्रणाम ।। अपदेस सन्त मजा,पस्सदि जिण सासणं सध्वं ॥१५॥ (तारण त्रिवेणी-चंचल जी) जो अपनी आत्मा को अबद्ध स्पृष्ट, अनन्य, अविशेष, नियत और असंयुक्त Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wcono० श्री श्रावकाचार जी गाथा-४०.४२ SOON देखता है वह सर्व जिन शासन को देखता है। जो जिन शासन बाह्य द्रव्य श्रुत और (देवं चन्यान रूपेन) देव जो मात्र ज्ञान स्वरूप है (परमिस्टीच संजुतं) आभ्यंतर ज्ञान रूपभावश्रुत वाला है। जैसे- स्वर्णकार शुद्ध स्वर्ण को प्राप्त करने के जो परमेष्ठी मयी है (सो अहं देह मध्येषु) ऐसा देवों का देव अरिहंत परमात्मा, सबसे लिये आभूषण को गलाता है, इसी प्रकार सम्यक्दृष्टि इस शुद्ध तत्व के ध्यान में लीन ५ श्रेष्ठ निरंजन अशरीरी ब्रह्म स्वरूप सिद्ध परमात्मा जिसकी सब स्तुति वंदना करते। होकर इन राग-द्वेषादि कर्म पापों को क्षय करता है। र हैं,ऐसा मैं शुद्धात्म तत्व इस देह के मध्य में हूँ (यो जानाति स पंडिता) ऐसा जानने अहमिक्को खलु सुद्धो,णिम्ममओ णाण दसण समग्गो। वाला ही पंडित ज्ञानी सम्यकदृष्टि है। तम्हि ठिओ तच्चित्तो, सब्वे एदे खयं णेमि ॥७३॥ 5 विशेषार्थ- यहाँ अत्यंत महत्वपूर्ण बात बताई जा रही है कि सम्यक्दृष्टि क्या ज्ञानी विचार करता है कि निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ,ममतारहित हूँ, जानता मानता है. उसकी श्रद्धा का क्या लक्ष्य है। देवदेवाधिदेव तीर्थंकर अरिहन्त ज्ञानदर्शन से पूर्ण हूँ, उस स्वभाव में रहता हुआ, उसमें लीन होता हुआ मैं इन सर्व सर्वज्ञ परमात्मा जो अनन्त चतुष्टय सहित हैं, जो हमेशा अपने शाश्वत ध्रुव स्वभाव रागादि दोषों को क्षय को प्राप्त कराता हूँ। ५ में रहते हैं, ओंकार स्वरूप का वेदन करते हैं तथा इनसे आगे जो अपने सिद्ध यह जैन दर्शन का मर्म है, जिसको जानने पर ही मुक्ति होती है। अनादि से स्वभावमय ही रहते हैं जिनकी सम्पूर्ण जगत के जीव स्तुति वन्दना करते हैं ऐसे जीव ने पराश्रितपने के कारण ही संसार के दुःख भोगे हैं। जो जीव ऐसे अपने शुद्ध सिद्ध परमात्मा हैं. ऐसे देव जो मात्र ज्ञान स्वरूप ही हैं, परम इष्ट, परमेष्ठी सहित हैं, तत्व का आश्रय करता है वही सम्यक्दृष्टि है। वह अपने आपको और कैसा जानता, वह मैं शुद्धात्म तत्व इस देह में विराजमान हूँ, ऐसा जो जानता है वही सम्यक्दृष्टि मानता है, इसे आगे गाथा में कहते हैं ज्ञानी पंडित है। देव देवाधिदेवं च, नंत चतुस्टै संजुतं । बड़ी अपूर्व बात है,ऐसा सुनना ही बहत कठिन है. ऐसा मानना और जानना उवंकारं च वेदंते, तिस्टितं सास्वतं धुवं ॥ ४० ॥ तो बड़े गजब की बात है, यह लोहे के नहीं,फौलाद के चने हैं, जिनको हजम करना उर्वकारस्य ऊर्धस्य, ऊर्थ सद्भाव तिस्टतं । सामान्य जीव के वश की बात नहीं है, यह तो एक मात्र सम्यकदृष्टि की बात है और र यह उसकी दृष्टि श्रद्धा का विषय है। ऐसा उसने अपनी अनुभूति में लिया है कि मैं उवं हियं श्रियं वन्दे, त्रिविधि अर्थच संजुतं ॥४१॥ अरिहन्त सिद्ध के समान परमदेव परमात्मा मैं स्वयं हूँ ऐसा जो जानता है, वह पंडित है। देवं च न्यान रूपेन, परमिस्टी च संजुतं । ८ यहाँ कोई प्रश्न करे कि फिर ठीक है यह पंडित जी को उठाकर ही वेदी में सो अहं देह मध्येषु,यो जानाति स पंडिता॥४२॥ बिठा दो, यह देव,गुरू,शास्त्र और उनकी पूजा भक्ति करने से क्या लाभ है? इनकी अन्वयार्थ- (देव देवाधिदेवं च) देवो के देव, सौ इन्द्रोंकर पूज्य परम देव जो ही पूजा भक्ति करो, फिर यह मंदिर जाने और यह कुछ भी व्रत संयम आदि करने से (नंत चतुस्टै संजुतं) अनन्त चतुष्टय सहित हैं (उर्वकारं च वेदंते) जो ओंकार स्वरूप ॐ क्या प्रयोजन है ? जब देवों के देव परमदेव परमात्मा स्वयं ही हैं तो अब और क्या करना है? तथा सब पापादि अन्याय, अत्याचार करते रहो और कहो कि मैं भी का ही अनुभव करते हैं (तिस्टितं सास्वतं धुवं) जो हमेशा अपने शाश्वत ध्रुव स्वभाव शुद्धात्मा,परमात्मा हूँ, जब सब जीव आत्मा परमात्म स्वरूप हैं तो अब और क्या र मय ही रहते हैं। (उर्वकारस्य ऊर्धस्य) पंच परमेष्ठियों में श्रेष्ठ सिद्ध परमात्मा (ऊर्ध सद्भाव करना है? इसका समाधान करते हैं कि यह ऐसे कहने मानने की बात नहीं है परन्तु तिस्टतं) जो हमेशा सिद्ध स्वभाव में रहते हैं (उवं हियं श्रियं वन्दे) ऐसे उर्वकार हियंकार श्रियंकार स्वरूपकी मैं वंदना करता हूँ (त्रिविधि अर्थंच संजुतं) जो रत्नत्रय, जिसे सम्यक्दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति होजाती है, उसकी मान्यता दृष्टि और लक्ष्य । में यही होता है, यह जरा कठिन बात तो है,परन्तु है अटल सत्य क्योंकि ऐसी सम्यक्दर्शन,सम्यक्ज्ञान,सम्यक्चारित्र में लीन हैं। स्वीकारता, श्रद्धा के बगैर सम्यक्दृष्टि भी नहीं होता। यह मात्र पढ़ने से तोता रटन्त vedodio Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You श्री आचकाचार जी गाथा-४०- ४२७ हो जाने का नाम पंडित नहीं है और न इससे कुछ भला होने वाला है तथा यह बाह्य त्यक्ताष्ट कर्म कायोऽहं जगज्ज्येष्ठोऽहमञ्जसा। में कितने ही व्रत,नियम,संयम करते रहो इनसे कुछ भी होने वाला नहीं है। जब तक जिनोऽहं परमार्थेन ध्येयो वंधो महात्मवान ।।१५८॥ शुद्धात्मानुभूति नहीं होती तब तक तीन काल भी आत्मकल्याण, मुक्ति होने वाली (श्रीमद् सकल कीर्ति गणी रचित समाधि मरणोत्साह दीपक से) नहीं है और न ही कभी जीवन में सुख शान्ति आने वाली है। यह तो वस्तु स्वरूप मैं सिद्ध हूँ, सिद्ध रूप हूँ, मैं गुणों से सिद्ध के समान हूँ, महान हूँ, त्रिलोक के धर्म के मर्म को समझने की बात है। अनादि से इस जीव ने पर की तरफ देखा है, पर अग्रभाग पर निवास करनेवाला हूँ,अरूपी हूँ, असंख्यात प्रदेशी हूँ। के आश्रय सब कुछ किया है, पर आज तक भला नहीं हुआ। अरे ! यहाँ मन्दिर में ___ मैं शुद्ध हूँ. मैं निष्कर्मा हूँ, मैं भवातीत हूँ , संसार को पार कर चुका हूँ मैं पूजा भक्ति करने से क्या होता है ? साक्षात् समवशरण में तीर्थंकर परमात्मा की पूजा ८ मन,वचन,काय से दूर हूँ, मैं अतीन्द्रिय हूँ, इन्द्रियों से परे हूँ, मैं क्रिया रहित निष्क्रिय भक्ति की तब भी कुछ भला नहीं हुआ; क्योंकि अपनी तरफ लक्ष्य गया ही नहीं, निज हूँ। मैं अमूर्त हूँ, ज्ञानरूप अनन्त गुणात्मक हूँ, मैं अनन्त दर्शन, अनन्तवीर्य और कारण परमात्मा की तरफ दृष्टि जावे तो कार्य बने, धर्म की उपलब्धि होवे। अनन्त सुख का धारक हूँ। मैं अनन्त ज्ञानरूप नेत्र का धारक हूँ, मैं अनन्त महिमा यहाँ यह बात तारण स्वामी ही नहीं कह रहे, इस बात को तो भगवान महावीरों का आश्रय हूँ, आधार हूँ, मैं सर्ववित् हूँ, सर्वदर्शी हूँ, अनन्त चतुष्टय का धारक हूँ। ने कहा है, तीर्थंकरों ने कहा है और कुन्दकुन्दाचार्य, योगीन्दुदेव, अमृतचन्द्राचार्य मैं परमात्मा हूँ, मैं प्रसिद्ध हूँ, मैं बुद्ध हूँ, मैं स्वचैतन्यात्मक हूँ, मैं परमानंद हूँ, मैं आदि सभी आचार्यों ने यही कहा है। सबने यही बात बताई है। देखो,सुनो,पढ़ो तब सर्वप्रकार के कर्मबन्धनों से रहित हूँ। मैं एक हूँ, अखंड हूँ, निर्ममत्वरूप हूँ, मैं समझ में आवे। आचार्यों ने कहा है वह सुनो उदासीन हूँ, मैं ऊर्जस्वी हूँ, मैं निर्विकल्पहूँ, आत्मज्ञहूँ, केवलदर्शन और केवलज्ञान सिद्धोऽहं सिद्ध रूपोऽहं, गुणैः सिद्ध समो महान। रूप दो नेत्रों का धारक हूँ। मैं ज्ञान दर्शन रूप उपयोगमय हूँ, मैं कल्पनातीत वैभव त्रिलोकान निवासी, चारूपोऽसंख्य प्रदेशवान ॥१५०॥ ८ का धारक हूँ, मैं स्वसंवेदन गम्य हूँ, मैं सम्यकज्ञान गम्य हूँ, मैं कल्पनागोचर हूँ, मैं शुद्धोऽहं विशुद्धोऽह, नि:कर्माऽहं भवातिगः। ॐ सर्वज्ञ हूँ, सर्ववेत्ता हूँ,सर्वदर्शी हूँ, सनातन हूँ, मैं जन्म जरा और मृत्यु से रहित हूँ, मैं मनोवाक्काय दूरोऽहं,चात्यक्षोऽहं गतः क्रियः ॥१५१॥ सिद्धों के अष्ट गुणों का धारक हूँ। मैं अष्ट कर्मरूप काय से. कार्माण शरीर से और अमूर्तो ज्ञान रूपोऽहं, अनन्त गुण तन्मयः । 5 सर्वकर्मों से रहित हूँ, मैं निश्चयत: जगज्ज्येष्ठ हूँ, मैं जिन हूँ, परमार्थ से मैं ही स्वयं अनन्त दर्शनोऽनन्त, वीयोऽनंत सुखात्मकः ॥१५॥ 5 ध्यान करने योग्य हूँ. वन्दना करने के योग्य हूँ और अतिशय माहात्म्य का अनन्त ज्ञान नेत्रोऽहमनन्त महिमाऽऽश्रयः। धारक हूँ। सर्व वित्सर्वदर्शी चाहमनन्त चतुष्टयः ॥१५३॥ इसी बात को योगीन्दुदेव योगसार ग्रन्थ में कहते हैंपरमात्मा प्रसिद्धोऽहं युद्धोऽहं स्वचिदात्मकः। अरहन्तु वि सो सिद्ध फुड,सो आयरिउ वियाणि। परमानन्द भोक्ताऽहं विगताऽखिल बन्धनः ।।१५४॥ सो उवझायउ सो जि मुणि, णिच्छइ अप्पा जाणि॥१०४॥ एकोऽहं निर्ममत्वोऽहमुदासीनोऽमूर्जितः। सो सिउ संकरु विण्ड सो, सो रुद वि सो युद्ध । निर्विकल्पोऽहमात्मज्ञोऽहं दुक्केवल लोचनः ॥१५॥ सो जिणु ईसबभु सो, सो अणंतु सो सिख ॥१०॥ उपयोगमयोऽहं च कल्पनातीत वैभवः । एव हि लक्खण लक्खियउ,जो परुणिकलु देउ। स्वसंवेदन संज्ञान गम्योऽहयोग गोचरः॥१५६ ॥ देहह माहि सोवसइ,तासु ण विज्जइ भेउ॥१०६॥ सर्वज्ञः सर्ववेत्ताऽहं सर्वदर्शी सनातनः।। निश्चय नय से आत्मा ही अर्हन्त है, वही निश्चय से सिद्ध है और वही आचार्य 2 जन्म मृत्यु जरातीतोऽहं सिद्धाष्ट गुणात्मकः ।।१५७॥ है और उसे ही उपाध्याय तथा मुनि समझना चाहिये। वही शिव है, वही शंकर है, ३७ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 श्री श्रावकाचार जी गाथा- ४३७ वही विष्णु है, वही रुद्र है, वही बुद्ध है, वही जिन है, वही ईश्वर है, वही ब्रह्मा है, इस सत्य को स्वीकार कर इसी में समा जायें, यही मनुष्यभव की सार्थकता वही अनन्त है और सिद्ध भी उसे ही कहना चाहिये । इन लक्षणों से युक्त परम । है। इसी क्रम में आगे गाथा कहते हैंनिष्कल देव जो देह में निवास करता है, उसमें और इनमें कोई भेद नहीं है। कर्म अस्ट विनिर्मुक्त,मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते। परमात्म प्रकाश में आचार्य योगीन्दुदेव इसी बात को कहते हैं सो अहं देह मध्येषु, यो जानाति स पंडिता ॥४३॥ अप्पिं अप्पु मुणतु जिउ सम्मादिडि हवेइ। 5 अन्वयार्थ- (कर्म अस्ट विनिर्मुक्तं) आठों कर्मों से रहित सिद्ध परमात्मा सम्माइद्विउ जीवडउला कम्मई मुच्चे॥७६॥ २ (मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते) जो मुक्ति स्थान, सिद्ध क्षेत्र में विराजते हैं (सो अहं देह अपने को अपने से जानता हुआ यह जीव सम्यक्दृष्टि होता है और सम्यक्दृष्टि मध्येष) वहीं मैं सिद्ध परमात्मा इस देह में विराजमान हूँ (यो जानाति स पंडिता) जीव शीघ्र ही कर्मों से छूट जाता है। आगे इसी बात को और स्पष्ट करते हैं .जो तत्व ज्ञानी ऐसा जानता है, वही पंडित है। एहुजु अप्पा सो परमप्या, कम्म विसेसें जायउ जप्या। अहकर्म क्षय कर जीती जिनने,जन्म मरण की पीड़ा। जामइ जाणई अप्पे अप्पा,तामइ सो जि देउ परमप्पा ॥१७४॥% सिद्ध क्षेत्र में करते ऐसे, सिद्ध जिनेश्वर क्रीड़ा॥ यह प्रत्यक्षभूत स्वसंवेदन ज्ञानकर प्रत्यक्ष जो आत्मा वही शुद्ध निश्चयनयर मैं भी तो हूँ सिद्ध प्रभु, यह तन मेरा मन्दिर है। कर अनन्त चतुष्टय स्वरूप क्षुधा आदि अठारह दोष रहित निर्दोष परमात्मा है, वह जो जाने यह मर्म वही गर, पंडित प्रज्ञाधर है। (चंचल जी) व्यवहार नय कर अनादि कर्मबन्ध के विशेष से पराधीन हुआ दूसरे का जप करता विशेषार्थ-यहाँ अव्रत सम्यक्दृष्टि ज्ञानी वस्तु स्वरूप का कैसा चिन्तन करता है, परन्तु जिस समय वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानकर अपने को जानता है, है। संसार, शरीर, भोगों को कैसा मानता है और अपने आपको कैसा जानता उस समय यह आत्मा ही परमात्म देव है। र मानता है, इसका वर्णन चल रहा है। निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न हुआ जो परम आनंद उसके अनुभव में - आठों कर्मों से रहित सिद्ध परमात्मा, जो सिद्ध क्षेत्र मुक्ति में विराजमान हैं, क्रीड़ा करने से देव कहा जाता है, यही आराधने योग्य है। जो आत्मदेव शुद्ध निश्चय ऐसा ही में इस देह में विराजमान हूँ, ऐसा जानने वाला ही पंडित है। बड़ी अपूर्व बात नय कर भगवान केवली के समान है, ऐसा परमदेव शक्ति रूप से देह में है.जो देह में 5है,जो अष्ट कर्मों से रहित सिद्ध परमात्मा सिद्ध क्षेत्र मुक्ति में विराजमान हैं. ऐसा ही न होवे तो केवलज्ञान के समय कैसे प्रगट होवे। . मैं अर्थात् सिद्ध के समान धुव अविनाशी शाश्वत परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप इस देह जो परमप्या णाणमउ सो हउ देउ अणंतु । देवालय में विराजमान हूँ। द्रव्यार्थिक नय से सभी जीव आत्मायें समान गुणधारी जो हउँ सो परमप्पु परू एहउ भावि णिभंतु ॥ १७५॥ शुद्ध हैं, यद्यपि प्रदेशों की अपेक्षा या व्यक्तिपने की अपेक्षा हर एक आत्म द्रव्य की जो परमात्मा ज्ञान स्वरूप है, वह मैं ही हूँ, जो कि अविनाशी देव स्वरूप हूँ। * सत्ता भिन्न-भिन्न रूप है तथापि गुण व स्वभाव शक्ति अपेक्षा सब एक रूप हैं। ऐसा वही उत्कृष्ट परमात्मा है, इस प्रकार निस्संदेह भावना कर। १. सम्यकदृष्टि ज्ञानी देखता-जानता है। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी इसी प्रकार सिद्ध परमात्मा के समान अपने आत्मस्वरूप यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह बात ठीक है परन्तु जो ज्ञानी सम्यक्दृष्टि साधु एका चिन्तन करता है, ऐसा जानता मानता है.अगर इसमें जरा भी शंका संशय पद में विराजमान है, वह ऐसा जाने माने, अनुभव करे यह बात तो अँचती है." 5 करता है तो सम्यक्दृष्टि नहीं हो सकता। सम्यकदर्शन की बड़ी अपूर्व महिमा है समझ में आती है परंतु पापादि में रत विषय-कषायों में लिप्त अव्रती श्रावक ऐसा मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी,या बिन ज्ञानचरित्रा। जाने-माने कहे यह बात तो जंचती नहीं उचित भी नहीं है, इससे तो धर्म का 5 सम्यक्तान लहे सो दर्शन,धारो भव्य पवित्रा॥ अवमूल्यन होता है, क्योंकि जब तक वैसा आचरण न हो, तब तक ऐसा कहना Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TO श्री आचकाचार जी गाथा-४३ Oo शोभा नहीं देता। यह सम्यक्दर्शन का विषय है, जब तक ऐसी श्रद्धा न होगी तब तक किसके इसका समाधान करते हैं कि यह श्रद्धा और ज्ञान का विषय है, यहाँ चारित्र आश्रय क्या करेगा। मिथ्यादृष्टि तो पर के आश्रय संसार में जन्म-मरण करता चला। की बात नहीं है । सम्यक्दर्शन तो मात्र श्रद्धा, दृष्टि का विषय है, जब तक यह आ रहा है। जिसने स्व का आश्रय किया वह सम्यक्दृष्टि है और वही इस संसार के सहीन हो तब तक ज्ञान और चारित्र भी कोई कार्यकारी नहीं है। श्रद्धान दृष्टि के * दु:ख तथा जन्म-मरण से छूटता है। यहाँ जो सम्यकदृष्टि है, वह तो ऐसा सही होते ही, ज्ञान और चारित्र भी सही हो जाते हैं, उनका क्रमिक विकास होताजानता,मानता ही है तथा जिसे सम्यक्दृष्टि होना है, सम्यक्दर्शन को इष्ट हितकारी है। यहाँ सम्यक्दर्शन की प्रमुखता है और उसी अपेक्षा यह वर्णन चल रहा है कि मानता है उसे भी ऐसा श्रद्धान करना, मानना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि पर के वह ऐसा जानता मानता है,यह उसकी अन्तरंग परिणति श्रद्धा की बात है। आश्रय से कभी भला होने वाला नहीं है। आचरण में तो जैसी पात्रता गुणस्थान बढ़ेगा वैसा आयेगा, यहाँ तो निर्णय करने, यहाँ कोई प्रश्न करे कि ऐसा मानने से स्वच्छन्दी निश्चयाभाषी एकान्तवादी स्वीकार करने की बात है, क्योंकि जब तक ऐसा निर्णय, ऐसी स्वीकारता न न हो जायेंगे? होगी तब तक सम्यकदर्शन भी नहीं हो सकता। धर्म का मुक्ति का मूल आधार तो उसका समाधान करते हैं कि अभी तक पर का आश्रय किया उससे क्या सम्यक्दर्शन है। साधु पद से तो वह ऐसा अनुभव करने लगता है, यहाँ अनुभव मिला? तथा जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है यह तो अनाद्यनिधन करने की प्रमुखता है, कहने की बात नहीं है। यहाँ तो जिसे एक समय का सिद्धांत है। जब तक कारण ही विपरीत रहेगा तो कार्य भी विपरीत होगा और जब उपशम सम्यक्त्व हुआ है, जो अव्रती है, परन्तु उसकी श्रद्धा ज्ञान में यह बात कारण सही होगा तो कार्य भी सही होगा। अपने को संसार का अभाव करना है, आ गई है, वह सम्यक् दृष्टि है। इसी बात को आचार्य देवसेन तत्वसार में कहते है मुक्त होना है तो इसका जो सच्चा कारण है उसका आश्रय न करेंगे तो सच्चा कार्य S भी कैसे होगा। मल रहिओणाणमओ, णिवसइ सिद्धिएजास्सिो सिद्धा। इसी बात को सद्गुरू तारण स्वामी ने न्यानसमुच्चयसार में स्पष्ट किया हैतारिसओ देहस्थो, परमो बंभो मुणेयवो ॥२६॥ कारण कार्ज सिद्धच, कारण कार्ज उद्यम । जैसा कर्म मल से रहित ज्ञानमय सिद्धात्मा सिद्ध लोक में निवास करता है सकारण कार्ज सिद्धं च,कारण कार्ज सदा बुधैः ।।८०॥ वैसा ही परम ब्रह्म स्वरूप अपना आत्मा देह में स्थित जानना चाहिये। इसी बात को कारणं दर्सनं न्यानं,चरनं सुद्ध तर्प धुवं । आगे और स्पष्ट करते हैं सुखात्मा चेतना नित्यं, कार्ज परमात्मा धुर्व ॥८॥ णो कम्म कम्मरहिओ,केवलणाणाइ गुण समिद्धो जो। कारण से कार्य की सिद्धि होती है, जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य का सोहं सिद्धो सुद्धो, णिच्चो एक्को णिरालंबो ॥२७॥ उद्यम होता है, यदि कारण सही है तो कार्य भी सही होता है, ऐसा ही कारण-कार्य जो सिद्ध जीव शरीरादि नो कर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म तथा राग-द्वेषादि संबंध है। कारण शुद्ध दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप होगा तो कार्य भी अपने शुद्धात्मा भाव कर्म से रहित है, केवलज्ञानादि अनन्त गुणों से समृद्ध है, वही मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध परमात्मपद की प्राप्ति होगी। रहूँ, नित्य हूँ, एक स्वरूप हूँ और निरालंब हूँ। आगे और यही बात कहते हैं निश्चयाभासी की स्वच्छन्दता क्या है, मोक्षमार्ग प्रकाशक में पं. टोडरमल 2 सिद्घोहं सुखोह, अणतणाणाइ समिद्धोह। जी कहते हैंदेह पमाणो णिच्चो, असंखदेसो अमुत्तो य ॥२८॥ मोक्षमार्ग में तो रागादिक मिटाने का श्रद्धान, ज्ञान, आचरण करना है। वह मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, अनन्त ज्ञानादि से समृद्ध हूँ, देह प्रमाण हूँ, मैं नित्य हूँ, तो विचार ही नहीं है, अपने शुद्ध अनुभवन में ही अपने को सम्यक्दृष्टि मानकर असंख्य प्रदेशी और अमूर्त हूँ। अन्य सब साधनों का निषेध करता है। शास्त्राभ्यास करना निरर्थक बतलाता है। vedasenavidasi ३९ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी द्रव्यार्थिक के तथा गुणस्थान मार्गणा त्रिलोकादिक के विचार को विकल्प ठहराता है, तपश्चरण करने को वृथा क्लेश करना मानता है, व्रतादिक धारण करने को बन्धन में पड़ना ठहराता है, पूजादि कार्यों को शुभास्रव जानकर हेय प्ररूपित करता है, इत्यादि सर्व साधनों को उठाकर प्रमादी होकर परिणमित होता है, यह निश्चयाभासी की स्वच्छन्दता है। (केवल निश्चयाभास के अवलम्बी जीव की प्रवृत्ति: मोक्षमार्ग प्रकाशक) एक शुद्धात्मा को जानने से ज्ञानी हो जाते हैं, अन्य कुछ भी नहीं चाहिये। ऐसा जानकर कभी एकान्त में बैठकर ध्यान मुद्रा धारण करके मैं सर्व कर्मोपाधि रहित सिद्ध समान आत्मा हूँ, इत्यादि विचार से संतुष्ट होता है; परन्तु यह विश्लेषण किस प्रकार सम्भव है, ऐसा विचार नहीं है अथवा अचेतन, अखण्ड, अनुपमादि विश्लेषण द्वारा आत्मा को ध्याता है सो यह विशेषण अन्य द्रव्यों में भी संभवित हैं तथा यह विशेषण किस अपेक्षा से हैं सो विचार नहीं है तथा कदाचित् सोते-बैठते जिस - तिस अवस्था में ऐसा विचार रखकर अपने को ज्ञानी मानता है तथा ज्ञानी के आस्रव बन्ध नहीं है, ऐसा आगम में कहा है इसलिये कदाचित् विषय-कषाय रूप होता है, वहाँ बन्ध होने का भय नहीं है। स्वच्छन्द हुआ रागादि रूप प्रवर्तता है। यदि अपना अभिप्राय गलत होगा तो अपना ही अहित होगा, संसार के दुःखों से छूटना तो दूर रहा और नरक निगोद में जाना पड़ेगा। स्वच्छन्दी, निश्चयाभासी कैसा होता है, इस बात को मोक्षमार्ग प्रकाशक में पंडित टोडरमल जी ने जैसा बताया है उस अनुसार देख लो अपनी प्रवृत्ति क्या है ? क्योंकि यहाँ तो अपनी-अपनी देखने अपनी-अपनी संभालने की बात है। संसार में तो अनन्त जीवों का परिणमन चल ही रहा है, मोक्षमार्ग में तो एकाकी जीव आत्मा का प्रवेश है, वहाँ साथ चलता ही नहीं है। जब तक साथ है तब तक संसार है, बन्धन है । सब बन्धनों के छूटने का नाम ही मुक्ति है। यहाँ तो नर की बात है - संसार दुष्यं जे नर विरक्तं, ते समय सुद्धं जिन उक्त दिस्टं । निध्यात नय मोह रागादि बंडं, ते सुद्ध विस्टी तत्वार्थ साधं ॥ मालारोहण जी गाथा - ४ इसी क्रम में सम्यक्दृष्टि और कैसा मानता है, वह कहते हैं mesh remo sow.civya.ei ४० गाथा-४४ परमानंद सा दिस्टा, मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते । सो अहं देह मध्येषु सर्वन्यं सास्वतं धुवं ॥ ४४ ॥ अन्वयार्थ - (परमानंद सा दिस्टा) परमानंद का अनुभव करने वाले, हमेशा परम आनंद में लीन रहने वाले सिद्ध परमात्मा हैं (मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते) मुक्ति स्थान सिद्ध शिला पर विराजमान हैं (सो अहं देह मध्येषु) वैसे ही सिद्ध समान मैं इस देह में विराजमान हूँ (सर्वन्यं सास्वतं धुवं ) सर्वज्ञ हूँ, शाश्वत हूँ, ध्रुव हूँ। विशेषार्थ बड़ी अपूर्व बात है जो परमानंद में हमेशा लीन हैं अर्थात् परम आनंदमयी हैं, सिद्ध परमात्मा जो लोकाग्र में सिद्ध शिला पर विराजमान हैं, ऐसा ही मैं इस देह में विराजमान हूँ, सर्वज्ञ हूँ, शाश्वत हूँ, ध्रुव हूँ। यह किस दृष्टि से देखा जा रहा है ? शुद्ध निश्चय नय द्रव्य दृष्टि से देखा जा रहा है, क्योंकि वर्तमान में अशुद्ध पर्याय, कर्म संयोगी है। पर्याय में आनंद भी नहीं है, जबकि सिद्ध भगवान की पर्याय में परम आनंद चल रहा है। वह परम आनंद जिसके आश्रय प्रगट होना है, उस शुद्ध द्रव्य शुद्धात्म तत्व को देखा जा रहा है और अपने को वैसा माना जा रहा है। अब यहाँ कोई प्रश्न करे कि बस यही तो समस्या है, जब पर्याय अशुद्ध है तो द्रव्य कैसे शुद्ध होगा ? द्रव्य की ही पर्याय होती है, कहीं अलग से तो नहीं आती। अशुद्ध द्रव्य है तभी तो पर्याय अशुद्ध है फिर यह मान्यता कैसे सम्यक् हो सकती है ? इसका समाधान करते हैं कि यही अपूर्व रहस्य है, जैन दर्शन का मर्म समझने के लिये बड़ी सूक्ष्म सुबुद्धि चाहिये। अब यहाँ पहले द्रव्य को समझना पड़ेगा कि द्रव्य क्या है ? द्रव्य किसे कहते हैं ? इसका स्वरूप क्या है, तभी यह बात समझने में आयेगी। देखो, अनाद्यनिधन वस्तु जिसका कभी नाश न हो ऐसी सत् वस्तु को द्रव्य कहते हैं। जैसा तत्वार्थसूत्र में कहा है सत् द्रव्य लक्षणम् । उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत् । गुण पर्यय वत् द्रव्यम् । उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यपना जिसमें है वह सत् है तथा गुण, पर्याय सहित ही द्रव्य होता है । उत्पाद व्यय पर्याय का होता है, धौव्य तत्व अपने में त्रिकाल शुद्ध परिपूर्ण रहता है तथा गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं। गुणों के परिणमन को पर्याय कहते हैं। यह छह द्रव्य हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७७ १२ श्री आवकाचार जी काल, इनके समूह को ही विश्व कहते हैं। इनमें चार द्रव्य-धर्म, अधर्म, आकाश और काल तो द्रव्य, गुण, पर्याय तीनों से त्रिकाल शुद्ध हैं। जीव और पुद्गल दो द्रव्य ऐसे हैं, जो द्रव्य गुण से शुद्ध होते हुए भी पर्याय से अशुद्ध हैं । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि द्रव्य-गुण से शुद्ध हैं तो पर्याय से अशुद्ध कैसे हैं ? इसी बात को समझना है यह समझ में आ जावे तो सारी समस्या सुलझ जावे। देखो, यह बिजली के बल्व पर लाल कागज लगा है तो इसका प्रकाश कैसा होगा ? लाल होगा। क्यों ? क्योंकि उस पर लाल कागज लगा है, अगर लाल कागज न होवे तो प्रकाश कैसा है ? सफेद है, शुद्ध है। इसी प्रकार द्रव्य के गुणों पर कर्मों का आवरण होने से पर्याय अशुद्ध है। अब यहाँ फिर प्रश्न हो सकता है कि गुणों पर कर्मों का आवरण कैसे है ? तो उसका समाधान है कि जब जीव विभाव परिणमन करता है, तब कर्मों का आस्रव बन्ध होता है और वह गुणों पर छा जाता है। जैसे- सूर्य का प्रकाश पानी पर पड़ने से उसमें से भाप बनती है और वह उड़कर सूर्य के ऊपर छा जाती है जो बादल कहलाते हैं, जिनसे फिर पानी बरसता है तो जैसे बिजली का प्रकाश और उसकी शक्ति शुद्ध है पर लाल कागज लगने से पर्याय अशुद्ध हो गई। सूर्य का प्रकाश, सूर्य की शक्ति अपने में परिपूर्ण शुद्ध है पर बादल छा जाने से उसकी पर्याय प्रकाशत्वपने में अन्तर आ जाता है इसी प्रकार जीव द्रव्य भी अपने गुणों सहित त्रिकाल शुद्ध है, कर्मों का आवरण होने से पर्याय अशुद्ध । ज्ञानी सम्यक दृष्टि पर्याय से भिन्न अपने द्रव्य और गुणों को त्रिकाल शुद्ध देखता और जानता मानता है, यही भेदविज्ञान की महिमा है। इसी बात को अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार कलश में कहा है भेद विज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन् । अस्यैवाभावतो बद्धा, बद्धा ये किल के चन् ॥५/१३१|| भेद विज्ञान से ही सिद्ध होते हैं और कोई भी जीव सिद्ध हो सकता है। संसार में जो जीव कर्मों से बंधे हैं वह भेदविज्ञान के अभाव के कारण बंधे हैं। जो जीव भेदविज्ञान का पुरुषार्थ करे वह भेदविज्ञान की महिमा से ही सम्यक्दृष्टि और परम्परा सिद्ध हो सकता है। यहाँ से धर्म का प्रारम्भ होता है। हम यहाँ-वहाँ की बातों से, यहाँ-वहाँ की क्रियाओं में उलझकर अपने समय का और जीवन का दुरुपयोग करते हैं; इसीलिये इतने सब शुभयोग पाते हुए संसार में भटक 24 SYANA V G GS AT YEAR AXT YEAR. ४१ गाथा ४५ रहे हैं और दुःखी अशान्त हो रहे हैं। पं. बनारसीदास जी ने समयसार नाटक में कहा है भेदविज्ञान जग्यो जिनको घट, शीतल चित्त भयो जिमि चन्दन | केलि करें शिव मारग में जग मांहि, जिनेश्वर के लघु नन्दन ॥ सत्य स्वरूप प्रगट्यो जिनके मिट्यो मिथ्यात अवदात निकन्दन । शान्त दशा तिनकी पहिचान, करें कर जोर बनारसी वन्दन ॥ प्रमुख बात धर्म के मर्म को समझकर भेदविज्ञान का पुरुषार्थ करें तो सब सहज में हो सकता है। जिनको भेदविज्ञान के द्वारा सम्यक्दर्शन हो गया, उनकी दशा का वर्णन सद्गुरुदेव तारण स्वामी कर रहे हैं। इसी क्रम में और आगे कहते हैं दर्सन न्यान संजुक्तं चरनं वीर्ज अनन्तयं । मय मूर्ति न्यान संसुद्धं, देह देवलि तिस्टिते ।। ४५ ।। अन्वयार्थ - (दर्सन न्यान संजुक्तं) दर्शन ज्ञान सहित (चरनं वीर्ज अनन्तयं) अनन्त वीर्य का धारी, चारित्रमयी (मय मूर्ति न्यान संसुद्धं) ज्ञानमयी मूर्ति, परम शुद्ध, अरिहंत परमात्मा (देह देवलि तिस्टिते) इस देह देवालय में ही विराजमान है । विशेषार्थ- यहाँ अरिहंत परमात्मा को देह देवालय में देखा जा रहा है, जो अनन्त वीर्य के धारी, सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्रमयी हैं। ज्ञानमयी मूर्ति परम शुद्ध हैं, जो केवल ज्ञानमय ही हैं वही अरिहंत परमात्मा इस देह देवालय में विराजमान हैं बाहर नहीं हैं, जो बाहर हैं, पर हैं, वह अपने लिये अपने में, अपने अरिहंत परमात्मा हैं, मेरा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं है और न वह मेरा कुछ भला-बुरा कर सकते। मेरा अपना देव अरिहंत परमात्मा तो मैं स्वयं हूँ। इसी बात को योगीन्दुदेव योगसार में कहते हैं तित्थहिं देवलि देउ णवि, इम सुइ के वलि वुत्तु । देहा देवलि देउ जिणु, एहउ जाणि णिरुन्तु ॥ ४२ ॥ श्रुतकेवली ने कहा है कि तीर्थों में, देवालयों में देव नहीं है, जिनदेव तो देह देवालय में विराजमान है, इसे निश्चय समझो। देहा देवलि देउ जिणु, जणु देवलिहिं णिए । हास महु पडिहाई इहु, सिद्धे भिक्ख भमेई ॥ ४३ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ spoorner Rao श्री आचकाचार जी __ जिनदेव देह देवालय में विराजमान है परन्तु जीव (ईंट पत्थरों के) देवालयों में सकते हैं। जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया है उनकी दृष्टि, श्रद्धान क्या होता है, उनके दर्शन करता है, यह मुझे कितना हास्यास्पद मालूम होता है। यह बात ऐसी ही वह अपने आपको कैसा जानते, मानते हैं इसका वर्णन किया जा रहा है। हमें भी । है, जैसे कोई मनुष्य सिद्ध हो जाने पर भिक्षा के लिये भ्रमण करे। . सत्य को उपलब्ध करना है तो ऐसा श्रद्धान किये बिना काम चलने वाला नहीं है। मूढा देवलि देउ णवि, णवि सिलि लिप्पइवित्ति। सत्य को उपलब्ध सम्यक्दृष्टि का अंतर श्रद्धान कैसा होता है, इसका वर्णन देहा देवलि देउ जिणु,सो बुज्यहि समवित्ति॥४४॥ आगे की गाथा में करते हैंहे मूढ ! देव किसी देवालय में विराजमान नहीं है, इसी प्रकार किसी पत्थर अरिहंत देव तिस्टंते, हींकारेन सास्वतं । लेप अथवा चित्र में भी देव विराजमान नहीं है। जिनदेव तो देह देवालय में रहते हैं. उवं ऊर्ध सद्धावं, निर्वानं सास्वतं पदं ॥४६॥ इस बात को तू समचित्त से समझ। तित्थाइ देउलि देउ जिणु, सव्वु वि कोइ भणेई। अन्वयार्थ-(निर्वानं सास्वतं पदं) निर्वाण, अनाद्यनिधन शाश्वत पद है (उवं देहा देउलि जो मुणइ, सो बाहको विहवे॥४५॥ ऊर्ध सद्भाव) जिसमें ब्रह्म स्वरूप सिद्ध परमात्मा हमेशा रहते हैं (हींकारेन सास्वतं) सब कोई कहते हैं कि जिनदेव तीर्थ में और देवालय में विद्यमान है परन्तु जोर तीर्थकर स्वरूप निज शुद्धात्मा भी शाश्वत है (अरिहंत देव तिस्टते) जो अरिहंत जिनदेव को देह देवालय में विराजमान समझता है, ऐसा पंडित कोई विरला ही देव स्वरूप इस देह में विराजमान हैं। होता है। र विशेषार्थ- गजब की बात है, निर्वाण शाश्वत पद है- जिसमें ब्रह्म स्वरूप यहाँ कोई प्रश्न करे कि ऐसी मान्यता से तो फिर यह देव, गुरू, शास्त्र तीर्थ, , शुद्धात्मा हमेशा रहते हैं, वही मेरा स्वरूप शाश्वत है अर्थात् मैं ही निर्वाण स्वरूप मन्दिर आदि का कोई महत्व ही नहीं रहा, इनकी पूजा, वन्दना, भक्ति करने की क्या हूँ, जो अरिहन्त देव तीर्थंकर स्वरूप इस देह में विराजमान हूँ। मैं स्वयं निर्वाण जरूरत है ? तीर्थ यात्रा, मंदिर आदि जाने की क्या जरूरत है ? जब स्वयं देह स्वरूप हूँ, मुझे निर्वाण भी नहीं चाहिये। देवालय में देव विराजमान है और वह मैं स्वयं हूँ तो अब रह ही क्या गया? फिर यह इसी बात को कुन्दकुन्दाचार्य नियमसार में कहते हैंकुछ भी करने की क्या जरूरत है? णिइंडो णिबंदो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो। उसका समाधान करते हैं कि बात तो यथार्थ सत्य यही है, जो ऐसा स्वीकार णीरागो णिहोसो णिम्मूढो णिभयो अप्पा ।। ४३ ॥ करता है, जिसकी अनुभूति में अपना शुद्धात्म तत्व आ गया उसके लिये तो फिर आत्मा निर्दड, निद्वंद्व, निर्मम, नि:शरीर, निरालंब,नीराग, निर्दोष, निर्मूढ कुछ है ही नहीं और जिसे ऐसा स्वीकार नहीं है, जिसका लक्ष्य अभी बाहर पर की और निर्भय है। तरफ है, वह कितना ही कुछ भी करता रहे, पर उससे क्या होता है? क्या उसका णिगंथो णीरागो णिस्सल्लो सयल दोस णिम्मुक्को। आत्म कल्याण हो सकता है, मुक्ति का मार्ग बन सकता है ? कभी नहीं। एक मात्र णिलामो णिकोहो णिम्माणो हिम्मदो अप्पा ॥४४॥ अपने निज शुद्धात्म तत्व के आश्रय ही धर्म और धर्म की साधना तथा मुक्ति की प्राप्ति आत्मा निर्ग्रन्थ, नीराग, नि:शल्य, सर्वदोष विमुक्त, निष्काम, नि:क्रोध, होती है। 5 निर्मान और निर्मद है। हम अपनी अज्ञानता मिथ्या मान्यता से बंधे हैं, वस्तु का सत्स्वरूप जारिसिया सिद्धप्या भव मल्लियजीव तारिसा होति। सुनने,समझने में जाति-पांति, सम्प्रदाय बाधक और बन्धन बना हआ है। सत्य को जरमरण जम्म मुक्का अट्टगुणा किया जेण ॥४७॥ समझने और उपलब्ध करने के लिये अपनी संकीर्ण मनोभावना और उपचार धर्म जैसे सिद्धात्मा हैं, वेसे ही भवलीन संसारी जीव हैं, जिससे वे संसारी जीव (पूजा उपासना पद्धति) के बन्धन को तोड़ना पड़ेगा तभी सत्य धर्म उपलब्ध कर सिद्ध आत्माओं की भाँति जन्म,जरा, मरण से रहित और आठ गुणों से अलंकृत हैं। ४२ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ oA श्री आचकाचार जी गाथा-४७ DOO असरीरा अविणासा अणिदिया णिम्मला विसुखप्पा। यहाँ फिर प्रश्न है कि आत्मा स्वभाव से स्वयं परमात्मा है फिर यह ऐसा क्यों जह लोयग्गे सिखा तह जीवा संसिदी णेया॥४८॥ हो रहा है, इसका कारण क्या है? जिस प्रकार लोकाग्र में सिद्ध भगवान अशरीरी अविनाशी अतीन्द्रिय निर्मल ५ इसका उत्तर सद्गुरू तारण स्वामी यहाँ दे रहे हैंऔर विशुद्धात्मा हैं, उसी प्रकार संसार में सर्व जीव जानना। आत्मा त्रिविधि प्रोक्तंच,परु अंतरु बहिरप्पयं। यहाँ शुद्ध भाव अधिकार में कुन्दकुन्दाचार्य देव जो बात कह रहे हैं वही श्री परिणाम जंच तिस्टंते, तस्यास्ति गुन संजुतं ॥७॥ तारण स्वामी इस गाथा में कह रहे हैं और एक बड़ी अपूर्व बात यह है कि मैं अकेला अन्वयार्थ-(आत्मा त्रिविधि प्रोक्तंच) आत्मा तीन प्रकार कहा गया है (परु ऐसा नहीं हूँ, संसार में जितने जीव आत्मा हैं वह भी निश्चय से ऐसे ही हैं ऐसा: अंतरु बहिरप्पयं) परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा (परिणामं जं च तिस्टते) सम्यक्दृष्टि जानता है। . जो जैसे परिणामों में ठहरा हुआ है (तस्यास्ति गुन संजुतं) वह उस समय उस गुण यहाँ कोई प्रश्न करे कि अभी तक तो अपनी ही बात थी, अब सब संसारी सहित है। जीव भी ऐसे हैं तो फिर धर्म कर्म की क्या जरूरत है ? यह दया, दान, पुण्य,धर्म * विशेषार्थ- यहाँ उस प्रश्न का उत्तर दिया जा रहा है कि जीव को संसार का करने से क्या लाभ है? सब भगवान ही भगवान हैं तो संसार में क्या रह गया। फिर कहाँ का सुख, कहाँ का दु:ख, किसका जन्म, किसका मरण और किसको क्या : सब स्वरूप दिखाई दे रहा है, जानने में आ रहा है और वह इस दुःख से छूटना लेना देना? फिर अब क्या करना है? २ चाहता है परन्तु उसे अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान शुद्धात्मानुभूति क्यों नहीं होती? इसका समाधान करते हैं कि यही तो समझना है.करना तो काळ है ही नहीं। यह एसा क्या हो रहा है, इसका क्या कारण है? न जीव कुछ करता है, न कर सकता है बस अपने सत्स्वरूप को भूला है सो कर्ता सद्गुरू तारण स्वामी यहाँ इसका मूलाधार बता रहे हैं कि यह जीव आत्मा बन कर मरता है। यहाँ यही बात तो बताई जा रही है कि जो सम्यकदृष्टि ज्ञानी होता तीन प्रकार का कहा गया है-परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा। जो जीव जैसे है, वह अपने सत्स्वरूप को ऐसा जान लेता है फिर करने का और कुछ नहीं करने परिणामों (भावों) में ठहरा हुआ है, वह उस समय उस गुण सहित है अर्थात् उस का कोई प्रश्न ही नहीं है। अज्ञानी जीव कर्ता बनकर मरता है और पाप-पुण्य के चक्कर में भ्रमता रहता है, अपने सत्स्वरूप को जान ले तो फिर करने धरने की बात यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह आत्मा तीन प्रकार का कैसे कहा गया है, जीव ही खत्म हो जाये । सत्य को उपलब्ध करने वाला तो भगवान बनता है, मुक्त हो । : आत्मा तो एक ही प्रकार का होता है। अरस, अरूपी, ज्ञान-दर्शन चेतना वाला ज्ञान स्वभावी ही आत्मा है। भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा दो प्रकार से कहते जाता है। है-संसारी और मुक्त। उसमें संसारी अपेक्षा चारगति और पांच इन्द्रिय आदि भेद जो निगोद में सो ही मुझमें, सो ही मोक्ष मंझार। * हैं,पर यह एक आत्मा को तीन प्रकार कहने का क्या तात्पर्य है? निश्चय भेद कछु भी नाहि, भेद गिने संसार॥ उसका समाधान करते हैं कि यही तो रहस्यपूर्ण बात है। कहने में किस हमारी अज्ञानता और मिथ्या मान्यता के कारण ही यह सब हो रहा है, जहाँ ९ ऐसे अपने सत्स्वरूप की श्रद्धा, अनुभूति हई कि बेड़ा पार है। ४ अपेक्षा क्या कहा जा रहा है इसका जानना बहुत जरूरी है। इसीलिये वक्ता से । यहाँ कोई प्रश्न करे कि फिर ऐसा सत्श्रद्धान होता क्यों नहीं है? श्रोता के लक्षण दीर्घ कहे हैं। जीव आत्मा के वास्ततिक स्वरूप और मर्म को समझने । उसका समाधान करते हैं कि भाई! तू ऐसा सत्श्रद्धान करना ही नहीं चाहता, के लिये यह जैन दर्शन का मूल आधार है। यहाँ आत्मा के तीन प्रकार बताये हैं कि जब सत्य वस्तु स्वरूप सुनने में ही भय लगता है तो स्वीकार करना, श्रद्धान करना। जिस समय यह जीव जैसे परिणामों मय होता है. उस समय वह वैसा है। यहाँ एक 5 जीव की शक्ति अपेक्षा यह भेद कहे हैं कि यह परमात्म शक्ति वाला जीव वर्तमान । तो बड़ा मुश्किल है। रूप है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आचकाचार जी गाथा-४८,५१ COOa में बहिरात्मा बना हुआ है। अपने सत्स्वरूप को जानले तो अन्तरात्मा हो जाये और अर्थात् परमानंदमय है और जब अपने शुद्धस्वभाव में पूर्ण स्थिर हो जाये तो परमात्मा अपने शुद्धस्वभावमय हो जाये तो परमात्मा हो जाये। यह अनादि से मिथ्या मान्यता, है, परमानंद मय है। मिथ्यात्व सहित होने के कारण अपने आपको भूला हुआ है और अभी भी अपने यहाँ कोई प्रश्न करे कि इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ? सत्स्वरूप को जानने का प्रयास, पुरुषार्थ नहीं कर रहा है, संसारी माया मोह में ही उसका समाधान करते हैं, यहां यह प्रयोजन सिद्ध हुआ कि पंच परमेष्ठी को ७ लिप्त तन्मय हो रहा है इसलिये अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान शुद्धात्मानुभूति नहीं हो नमस्कार करते हैं तो उसमें अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु आते हैं, रही है। विपरीत कारणों में लगा है इसीलिये बहिरात्मा है, अनुकूल कारणों में लग 5 तो यहां साधु आदि को नमस्कार करने का उद्देश्य यही है कि-जिस समय वह जाये तो अन्तरात्मा हो जाये, अपने में लीन स्थिर हो जाये तो परमात्मा हो जाये। निर्विकल्प दशा में है तब परमात्मा के बराबर है इसलिये नमस्कार करते हैं। बाहर वैसे स्वभाव से परमात्म शक्ति स्वरूप तो है ही। इसी बात को श्री तारण स्वामी ने , का कोई भेष, व्रत, संयम आदि वंदनीय नहीं है, आत्मा की वह शुद्ध परिणति ही न्यान समुच्चयसार जी में बहुत स्पष्ट कहा है वंदनीय है और निर्विकल्प दशा, वीतरागी साधु होने पर ही होती है। इसी बात को ममात्मा मम सुख,ममात्मा सखात्मन । देवसेनाचार्य तत्वसार में कहते हैंदेहस्थोपि अदेहीच , ममात्मा परमात्म धुर्व ॥४४॥ जो अप्पाणझायदि, संवेयण चेयणाई उवजुत्तो। अब यहाँ किन परिणामों से कैसा होता है उसका वर्णन करते हैं सो हबा वीयराओ,णिम्मल रयणत्तओ साहू॥४४॥ प्रथम, परमात्मा का स्वरूप कहते हैं जो स्व संवेदन चेतनादि से युक्त साधु आत्मा को ध्याता है वह निर्मल रत्नत्रय आत्मा परमात्म तुल्यं च,विकल्प चित्तन कीयते। , का धारक वीतराग हो जाता है। सुद्ध भाव स्थिरी भूतं,आत्मनं परमात्मनं ।। ४८॥ दसण णाण चरित, जोई तस्सेह णिच्छय भणइ। जो प्रायदि अप्पाणं, सचेयणं सब भाव? ॥४५॥ अन्वयार्थ- (आत्मा परमात्म तुल्यं च) आत्मा, परमात्मा के बराबर है जब जो योगी सचेतन और शुद्धभाव में स्थित आत्मा को ध्याता है उसको इस (विकल्प चित्त न कीयते) चित्त में कोई विकल्प न करता हो (सुद्ध भाव स्थिरी लोक में निश्चय दर्शन, ज्ञान, चारित्र कहते हैं। निश्चय से वर्तमान में भी यह आत्मा भूतं) शुद्ध स्वभाव में हमेशा के लिये स्थिर हो जाये तब (आत्मनं परमात्मन) आत्मा - परमात्मा है, स्वानुभूति से इसकी सिद्धि होती है। ही परमात्मा है। आगे अन्तरात्मा किसे कहते हैं उसके स्वरूप का वर्णन आगे की गाथा में हैविशेषार्थ- यहाँ परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया जा रहा है, बड़ी अपूर्व विन्यानं जेवि जानते, अप्पा पर परषये। बात कही जा रही है, क्योंकि जिस समय जैसे भावों में आत्मा है, उस समय वह परिचये अप्प सहावं,अंतर आत्मा परषये ॥४९॥ वैसा है; तो यहां यह बताया जा रहा है कि जिस समय चित्त में कोई विकल्प न कर रहा हो अर्थात् निर्विकल्प दशा में हो, उस समय आत्मा परमात्मा के समान है, जो अन्वयार्थ- (विन्यानं जेवि जानते) जो कोई भेदविज्ञान जानता है (अप्पा पर हमेशा के लिये अपने शुद्धस्वभाव में स्थिर हो जाये वह आत्मा ही परमात्मा है। 5 परषये)आत्मा और पर को पहिचानता है (परिचये अप्प सद्भाव) जिसे अपने आत्म यहाँ दो बातें महत्वपूर्ण समझने की है कि जब चित्त में कोई विकल्प न करता स्वभाव का परिचय, अनुभूति हो गई (अंतर आत्मा परषये) वही अंतर आत्मा हो तो आत्मा परमात्मा के बराबर है- तो संसार में मिथ्यात्व दशा में कभी एक समय कहलाता है। के लिये भी जीव विकल्प शून्य होता ही नहीं है सम्यक्दर्शन होने पर निर्विकल्प विशेषार्थ- यहां अंतरात्मा किसे कहते हैं उसका स्वरूप बताया जा रहा है। दशा बनती है। जब चेतना निर्विकल्प दशा में है, उस समय वह परमात्मा के समान जो जीव भेदविज्ञानजानता है अर्थात् इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड, अविनाशी Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-५० R OO चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं। इस प्रकार यहाँ फिर प्रश्न है कि आत्मा और पर को पहिचानने का क्या प्रयोजन है? आत्मा और पर को पहिचानता है अर्थात् आत्मा और कर्मों के स्वरूप को पहिचानता उसका समाधान हैं कि जो भेदज्ञानी है, वह अपने को और पर को दोनों को। है कि मैं सिद्ध के समान ध्रुव अविनाशी, परमब्रह्म परमात्मस्वरूपहूँ और यह शरीरादि पहिचानता है,तभी तो भिन्नता भासित होती है । जगत में दो द्रव्य सक्रिय हैंपुद्गल द्रव्य का सब परिणमन कर्म उदयाधीन चल रहा है। कर्म, अचेतन पुद्गल एक चेतन, एक अचेतन, अथवा जीव-पुद्गल या आत्मा और कर्म, यह शरीरादित अजीव तत्व हैं, मैं चेतन जीव तत्वहूँ. दोनों का भिन्न-भिन्न स्वरूप पहिचानता है पौद्गलिक पदार्थ जगत सब कर्मोदायिक पुद्गल की रचना है। इसमें चेतन तत्व तथा जिसे आत्म स्वभाव का परिचय शुद्धात्मानुभूति हो गई है वह अन्तरात्मा है,उसे जीव ज्ञान स्वभावी देखने जानने वाला है। स्वभाव सत्ता शक्ति अपेक्षा जीव और ही सम्यक्दृष्टि ज्ञानी कहते हैं। पुद्गल एक-एक द्रव्य है, पर संख्या की अपेक्षा अनन्त हैं,तो भेदज्ञानी शरीरादि यहाँ कोई प्रश्न करे कि भेदविज्ञान जानने का उपाय क्या है? है पुद्गल को तो पर जानता ही है; क्योंकि वह रूप,रस, गंध, वर्ण वाला अचेतन द्रव्य उसका समाधान करते हैं कि जैसे-संसार में किसी को डाक्टर बनना होता है तो वह है तथा अपने से भिन्न अन्य जो जीव हैं, वह भी पर ही हैं क्योंकि एक जीव का दूसरे विज्ञान का अध्ययन करता है, उसका अभ्यास करता है, तब डाक्टर बनता है। इसी जीव से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसकी सत्ता शक्ति स्वतंत्र भिन्न है, कर्म बन्धोदय प्रकार जिसे संसार के दु:खों से छूटना हो, मुक्त होना हो,परमात्मा बनना हो, तो आदि भी भिन्न है। एक शुद्ध सत्तामात्र स्वतंत्र जीव आत्मा मैं हूँ और बाकी जो कुछ उसे भेद विज्ञान जीव-अजीव की भिन्नता जानना होगी। बाहर पर में नहीं, अपने है वह सब पर ही है। ऐसा जानना ही भेदविज्ञान का जानना सच्चा है और इसी से इस शरीर में भेदज्ञान के द्वारा निर्णय करना होगा कि यह शरीर भिन्न है और इसमें मैं सम्यक्दर्शन अन्तरात्मपना होता है। जीव आत्मा चेतन तत्व भिन्न हूँ। यह भेदविज्ञान आध्यात्मिक शास्त्रों के स्वाध्याय जो अपने को नहीं जानता और पर प्रपंच में लगा है वह बहिरात्मा है। जो और ज्ञानी सत्पुरुषों की सत्संगति से प्राप्त होता है और इसे स्वयं के जीवन में प्रयोग अपने को जानता है और पर को भी जानता है अपने में लगा है, वह अन्तरात्मा है। करना पड़ता है। जो अपने में ही लीन हैं, वह सिद्ध परमात्मा हैं तथा जो अपने में तो लीन हैं पर जिन्हें इसी बात को अमृतचन्द्राचार्य जी ने समयसार कलश में कहा है तीनों लोकालोक का ज्ञान है, वह अरिहन्त सर्वज्ञ परमात्मा हैं। सम्यकदृष्टि ज्ञानी को अयि कथमपि मृत्वा तत्व कौतूहली सन, ही अन्तरात्मा कहते हैं। मिथ्यादृष्टि अज्ञानी को बहिरात्मा कहते हैं। अब यहाँ अनुभव भवमूर्त: पाचवी मुहूर्तम् । बहिरात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हैंप्रथगथ विलसन्तं स्वं समालोक्ययेन, बहिरप्पा पद्गलं दिस्टा,रचनं अनन्त भावना। त्यजसिमगिति मूर्त्या साकमेकत्व मोहम् ॥२३॥ परपंचं जेन तिस्टंते, बहिरप्पा संसार स्थितं ॥५०॥ हे भाई! तू किसी प्रकार महाकष्ट से अथवा मरकर भी तत्वों का कौतूहली होकर इस शरीरादि मूर्तद्रव्य का एक मुहूर्त (दो घड़ी) पड़ौसी होकर आत्मानुभव अन्वयार्थ- (बहिरप्पा पद्गलं दिस्टा) बहिरात्मा पुद्गल को ही देखता है कर कि जिससे अपने आत्मा के विलासरूप, सर्व पर द्रव्यों से भिन्न देखकर, इस (रचनं अनन्त भावना) अनन्त भावों को रचता रहता है अर्थात् नाना प्रकार की शरीरादि मूर्तिक पुद्गल द्रव्य के साथ एकत्व के मोह को शीघ्र ही छोड़ देगा। कल्पनायें किया करता है (परपंचं जेन तिस्टंते) जो जीव प्रपंच में ही लगा रहता है कल विशेष - यदि यह आत्मा दो घड़ी पुद्गल द्रव्य से भिन्न अपने शुद्ध स्वरूप (बहिरप्पा संसार स्थितं) ऐसा बहिरात्मा संसार में ही स्थित रहता है। का अनुभव करे (उसमें लीन हो) परीषह के आने पर भी डिगे नहीं तो घातियाकर्म विशेषार्थ- यहाँ बहिरात्मा का स्वरूप बता रहे हैं कि बहिरात्मा कैसा होता का नाश करके केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष को प्राप्त हो। आत्मानुभव की ऐसी है। बहिरात्मा हमेशा पुद्गल को ही देखता है अर्थात् शरीर, स्त्री, पुत्र, परिवार,धन, महिमा है तब मिथ्यात्व का नाश करके सम्यक्दर्शन की प्राप्ति होना तो सुगम है। वैभव, महल, मकानादि बाह्य पदार्थों को ही देखता है तथा इनको ही बनाने करने ४५ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री श्रावकाचार जी की अनन्त भावना नाना कल्पनायें करता रहता है, इन्हीं के लिये मायाचारी, झूठ, जाने है, इन्द्रिय द्वारनिकरि निरन्तर प्रवर्तन करे है, अपना स्वरूप की सत्यार्थपहिचान बेईमानी, छलकपट, पापादि प्रपंच में लगा रहता है। उसे संसार, पर पदार्थ, जाके नाहीं है, देह ही कू आत्मा माने है, देवपर्याय में आपकू देव, नरक पर्याय में । व्यवहारादि ही दिखता है और उसी में संलग्न रहता है। उसे अपने आत्म स्वरूप आपकू नारकी, तिर्यंच पर्याय में आपकू तिर्यच, मनुष्य पर्याय में आपकू मनुष्यजाति की खबर ही नहीं है, ऐसा बहिरात्मा हमेशा संसार में ही स्थित रहता है अर्थात् पर्याय के व्यवहार में तन्मय होय रहा है। पर्याय तो कर्म कृत पुद्गलमय प्रत्यक्ष चारगति चौरासी लाख योनियों के चक्कर लगाता रहता है। ज्ञानरूप आत्मा से भिन्न दीखे है तो हू, कर्म जनित उदय में आपाधारि पर्याय में यहाँ कोई प्रश्न करे कि जब जीव अरस, अरूपी, ज्ञान चेतना वाला है, मात्र तन्मय हो रहता है। मैं गोरा हूँ, साँवला हूँ, अन्यवर्ण हूँ, मैं वैश्य हूँ,मैं राजा हूँ, मैं ज्ञाता दृष्टा है फिर वह ऐसा क्यों हो रहा है इनमें क्यों लगा रहता है? . सेवक हूँ, मैं निर्बल हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ , मैं शूद्र हूँ, मैं मारने वाला हूँ, उसका समाधान करते हैं कि यही तो समझना है कि जीव अरस, अरूपी, जिवावने वाला हूँ,धनाढ्य हूँ, दातार हूँ, त्यागी हूँ, गृहस्थी हूँ, मुनि हूँ, तपस्वी ज्ञान चेतना वाला मात्र ज्ञाता दृष्टा है; पर वह अपने को ऐसा जानता मानता कब हूँ, दीन हूँ, अनाथ हूँ, समर्थ हूँ , असमर्थ हूँ , कर्ता हूँ , अकर्ता हूँ , बलवान हूँ, है? वह तो अपने आपको नाम रूप शरीरादि ही मान रहा है और सब संसार का कुरूपहूँ,स्त्री हूँ,पुरुष हूँ ,नपुंसक हूँ ,पण्डित हूँ,मूर्ख हूँ इत्यादिक कर्म के उदय कर्ता-धर्ता बना है। शरीर पांच इंन्द्रियों और उनके विषय भोगों में ही लिप्त तन्मयजनित पर पुद्गलनि की विनाशीक पर्यायनि में आत्म बुद्धि जाके होय सो बहिरात्मा हो रहा है और इनके निमित्त स्त्री, धन, पुत्र, परिवार, महल,मकानादि वैभव,परिग्रह मिथ्यादृष्टि है। जो शरीर में आत्मबुद्धि है सो इहाँ हुशरीर का संबन्धी जो स्त्री-पुत्र, की संभाल रक्षा और विस्तार करने में लगा है। इन सबसे भिन्न मैं जीव आत्मा हूँ, मित्र-शत्रुइत्यादिक तिनमें राग-द्वेष, मोह-क्लेशादि उपजाय आर्त-रौद्र परिणाम इसकी तो खबर ही नहीं है, अपने आपको भूला हुआ है इसीलिये बहिरात्मा है। से मरण कराय संसार में अनन्त काल जन्म-मरण करावे है तथा पुद्गल की पर्याय इसी बात को देवसेनाचार्य तत्वसार में कहते हैं S में आत्मबुद्धि है सो पुदगल में जड़ रूपएकेन्द्रिय योनि में अनन्त काल भ्रमण करावे मुक्खो विणासरूवो,यण परिवज्जओ सया देहो। है। तातें अब बहिरात्म बुद्धि कू छोड़ि अन्तरात्मपना अवलंबनकरि परमात्मपना तस्य ममत्ति कुणतो, बहिरप्पा होइ सो जीवो ॥४८॥ 23 पावने में यत्न करा। शरीर सदा काल जड़ है, विनासरूप है,चेतना से रहित है,जो उसकी ममता बहिरात्मा अपने परमात्म स्वरूप को छोड़े बैठा है और क्या कर रहा है यह करता है वह बहिरात्मा है। निज आत्म तत्व से बाहरी विषय में जिसका आत्मा र आगे कहते हैंअर्थात् चित्त संलग्न हो वह बहिरात्मा कहलाता है। बहिरप्पा परपंच अर्थ च, तिक्तते जे विचषना। इसी बात को स्वामी कार्तिकेय, कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहते हैं अप्पा परमप्पयं तुल्यं, देव देवं नमस्कृतं ॥५१॥ मिच्छत परिणवप्पा, तिव्य कसाएण सद् आविडो। जीवं देहं एक्क,मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥ १९३॥ अन्वयार्थ- (अप्पा परमप्पयं तुल्यं) आत्मा परमात्मा के समान है (देव देवं जो जीव मिथ्यात्व कर्म के उदयरूप परिणत हो, तीव्र कषाय से अच्छी तरह नमस्कृत) जो देवों के देव इन्द्रों द्वारा वन्दनीय है (तिक्तते जे विचषना) ऐसी ९ आविष्ठ हो और जीव तथा देह को एक मानता हो वह बहिरात्मा है। 5 विलक्षण अनुपम अमूल्य निधि चिन्तामणि रत्न को छोड़कर (बहिरप्पा परपंच बहिरात्मा का स्वरूप रत्नकरण्ड श्रावकाचार में पं. सदासुखदास जी अर्थच) बहिरात्मा संसारी प्रपंच के प्रयोजन में लगा हुआ है। कहते हैं विशेषार्थ- यहाँ बहिरात्मा अपने सच्चे देव परमात्म स्वरूप को छोड़कर क्या जिनमें जाके बाह्य शरीरादिक पुद्गल की पर्यायनि में आत्मबुद्धि है सो कर रहा है यह बता रहे हैं कि अपना आत्मा ही परमात्मा है, जो देवों के देव इन्द्रों 2 बहिरात्मा है। जाकी चेतना मोहनिद्रा करि अस्त हो गई.पर्याय ही कं अपना स्वरूप द्वारा नमस्कृत्य, वन्दनीय है, तीन लोक का नाथ अनन्त चतुष्टय का धारी रत्नत्रय onorrect Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी स्वरूप भगवान आत्मा है। ऐसे विलक्षण अमूल्य चिन्तामणि रत्न को छोड़कर बहिरात्मा संसार के प्रपंच के अर्थ लगा है अर्थात् संसार के कार्यों में दत्त-चित्त है, अपने आत्मस्वरूप को भूला है और धन, पुत्र, परिवार, मकान, जमीन-जायदाद, दुनियांदारी के प्रपंच में लगा है। उन्हीं को संभालने बनाने करने में लगा है, अपनी कोई सुध-बुध ही नहीं है । यहाँ कोई प्रश्न करे कि जब शरीर, धन, पुत्र, परिवार आदि का संयोग है तो इनकी व्यवस्था संभाल करे या न करे ? जब तक शरीर संयोग है, संसार में है तब तक रोटी, कपड़ा और मकान तो चाहिये और इसके लिये कोई न कोई उद्यम व्यापार आदि करना आवश्यक है और इसके लिये यह दुनियांदारी के प्रपंच करना ही पड़ते हैं। यह न करें तो कैसे काम चलेगा, इसके लिये क्या किया जाये ? इसका समाधान करते हैं कि यहाँ करने या नहीं करने की बात नहीं है। वह तो जो जिस भूमिका, जैसे कर्मोदय संयोग में है, वह तो सब करना ही पड़ता है, वैसा ही सब होता है। यहाँ तो यह समझना है कि इन सबको ही इष्ट, उपादेय हितकारी और अपना सब कुछ समझकर कर रहा है, इन सबसे भिन्न मैं जीव आत्मा हूँ, इसकी तो खबर ही नहीं और सबका कर्ता बना है यही बहिरात्मपना है, जो संसार का मूल आधार है धरम न जानत बखानत भरमरूप, ठौर ठौर ठानत लराई पच्छपात की। भूल्यो अभिमान में न पांउ धरे धरनी में, हिरदे में करनी विचारे उतपात की ॥ फिरे डाँवाडोल सौं' करम के कलोलिन में, रही अवस्था बघूले कैसे पात की। जाकी छाती ताती कारी कुटिल कुवाती भारी, ऐसो ब्रह्मचाती है मिथ्याती महापातकी ॥ (समयसार नाटक) अर्थ- जो वस्तु स्वभाव से अनभिज्ञ है, जिसका कथन मिथ्यात्वमय है और एकान्त का पक्ष लेकर जगह-जगह लड़ाई करता है। अपने मिथ्यात्व ज्ञान के अहंकार में भूलकर (धरती पर पाँव नहीं टिकाता और चित्त में उपद्रव ही सोचता है) कर्म के झकोरों से संसार में डाँवाडोल हुआ फिरता है अर्थात् विश्राम नहीं पाता सो ऐसी दशा हो रही है, जैसे- वघरूले (आंधी) में पत्ता उड़ता फिरता है। जो हृदय में क्रोध SYA YA YA AKAN YA. ४७ गाथा ५२ से तप्त रहता है, लोभ से मलिन रहता है, माया से कुटिल रहता है, मान से बड़े बोल बोलता है। ऐसा आत्मघाती और महापापी मिथ्यात्वी बहिरात्मा होता है। संसारी कार्य करने का विरोध नहीं है, पर अज्ञानी कर्ता और जिम्मेदार बनकर करता है, इससे स्वयं दु:खी, चिन्तित भयभीत रहता है। नाना प्रकार के कर्म पापादि करके स्वयं अनन्त कर्मों का बन्ध कर दुर्गति में जाता है। यहाँ समझना यह है कि हमें जो यह अवसर मिला है यह मानुष पर्याय, सुकुल सुनियो जिनवाणी । इह विधि गये न मिले, सुमणि ज्यों उदधि समानी ॥ इसका सदुपयोग करें, भेदज्ञान, तत्व अभ्यास, शास्त्र स्वाध्याय, सत्संग का पुरुषार्थ कर वस्तु स्वरूप समझें कि इस शरीरादि से भिन्न, मैं एक अखंड, अविनाशी, चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ। यह जो कर्मोदायिक संयोग है, जो भी परिणमन चल रहा है इसका मैं कर्ता नहीं हूँ। कार्य करने में कोई आपत्ति नहीं है पर सेठ और मुनीम की अपेक्षा है, जैसे- सेठ कुछ नहीं करता हुआ भी मालिक जिम्मेदार है और मुनीम सब कुछ करता हुआ भी मालिक नहीं है, बंधा नहीं है । धर्म मिलकियत नहीं ; मालकियत छुड़ाता है और इसी से यह जीव सुखी आनंद मय होता हुआ मुक्त हो सकता है। यह बहिरात्मा इसी संसारी व्यामोह प्रपंच में फंसा हुआ कुदेवादि की मान्यता करता है इसका वर्णन करते हैं कुदेवं प्रोक्तं जेन, रागादि दोस संजुतं । कुन्यानं त्रिति संपूर्न, न्यानं चैव न दिस्टते ॥ ५२ ॥ अन्वयार्थ - (कुदेवं प्रोक्तं जेन) कुदेव उनको कहते हैं (रागादि दोस संजुतं) जो रागादि दोषों सहित होते हैं (कुन्यानं त्रिति संपून) तीनों कुज्ञान- कुमति, कुश्रुत, कुअवधि से पूर्ण होते हैं (न्यानं चैव न दिस्टते) उनमें ज्ञान का अंश भी दिखलाई नहीं देता । विशेषार्थ - यहाँ यह बताया जा रहा है कि बहिरात्मा संसारी व्यामोह प्रपंच में फंसा हुआ सच्चे देव, अपने आत्म स्वरूप को तो जानता ही नहीं है। अपनी अमूल्य निधि चिन्तामणि रत्न निज शुद्धात्मा को छोड़ बैठा है, भूला हुआ है और संसारी कामना की पूर्ति हेतु कुदेवादि की मान्यता पूजा भक्ति करता है। कुदेव किन्हें कहते Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी हैं. वह कैसे होते हैं, उनका स्वरूप बताया जा रहा है-जो रागादि दोषों से संयुक्त, (कर्मना असहभावस्य) क्रिया और भावों से जो हमेशा अशुभ में ही प्रवर्तन करते हैं तीन कुज्ञान से परिपूर्ण, वैक्रियक शरीर के धारी देव- भूत, पिशाच, यक्ष, व्यन्तर (कुदेवं अनृतं परं) यह सब झूठे कुदेव ही हैं। आदिभवनवासी, व्यन्तर,ज्योतिषी देव हैं, यह सब कुदेव हैं क्योकि इनमें सम्यक्ज्ञान विशेषार्थ-यहाँ कदेवों का वर्णन चल रहा है कि कुदेव किसे कहते हैं? कुदेव का अंश भी नहीं होता है, यह सब मिथ्यादृष्टि ही होते हैं तथा वैमानिक देव इन्द्रादि कैसे होते हैं? जिनका आर्त और रौद्र रूप स्वभाव ही है। जो हमेशा मायाचारी में लगे भी पूर्णज्ञानी सच्चे देव नहीं होते। इनमें कोई सम्यकदृष्टि भी होवे तो देवगति में सब रहते हैं, क्रोधी होते हैं, जो क्रिया से भी अशुभ प्रवर्तन करते हैं तथा जिनके हमेशा असंयमी चतुर्थ गुणस्थानवर्ती होते हैं। जहाँ संयम भी नहीं होता, इन्हें किसी भी 5 खोटे भाव ही रहते हैं यह सब झूठे कुदेव हैं। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी यह लोकिक कामना से पूजना मानना, गृहातआर अगृहातमिथ्यात्व का पाषण करनाह तीनों मिथ्यादृष्टि ही होते हैं और मिथ्यादृष्टि हमेशा आर्त-रौद्र ध्यान और अशुभ जो दुर्गति का कारण है। है भावों में ही रत रहते हैं यह सब झूठे कुदेव हैं। यह कुदेव और कैसे होते हैं ? इसको कहते हैं इन कुदेवों की जो मान्यता पूजा भक्ति करता है, उसका क्या होता है इसको माया मोह ममत्तस्य,असुहभाव रतो सदा। कहते हैंतत्र देवं न जानते, जत्र रागादि संजुतं ॥५३॥ अनंत दोष संजुक्त,सुद्धभाव न दिस्टते। अन्वयार्थ- (माया मोह ममत्तस्य ) जो माया, मोह और ममता में लीन हैं कुदेवं रौद्र आरूढं, आराध्यं नरयं पतं ॥५५॥ (असुह भाव रतो सदा) सदा अशुभ भावों में ही रत रहते हैं (जत्र रागादि संजुतं) कुदेवं जेन पूजते,वन्दना भक्ति तत्परा। जहाँ तक रागादि सहित जो हैं (तत्र देवं न जानते) वहाँ तक किसी को देव मत, ते नरा दुष साहंते,संसारे दुष भीरुहं ॥५६॥ जानो। विशेषार्थ- कुदेव कैसे होते हैं यह बताया जा रहा है कि जो माया मोह और कुदेवं जेन मानते, स्थानं जेवि जायते । ममता में लीन हैं अर्थात् वैक्रियक शरीर द्वारा नाना प्रकार मायाचारी शरीरादि की ते नरा भयभीतस्य, संसारे दुष दारुनं ॥ ५७॥ रचना करते हैं. मोह और ममता में लीन रहते हैं तथा हमेशा अशुभ भावों में ही रत अन्वयार्थ- (अनंत दोष संजक्तं) जो अनंत दोषों सहित हैं (सुद्ध भाव न रहते हैं, ऐसे भूत पिशाच व्यन्तर आदि सभी देव कुदेव हैं तथा जहाँ तक जो भी दिस्टते) जिनके कभी शुद्ध भाव नहीं दिखते (कुदेवं रौद्र आरूढं) जो रौद्र रूप ही राग-द्वेष आदि से संयुक्त हैं वे सब कुदेव हैं, उन्हें देव नहीं मानना चाहिये; क्योंकि धारण किये रहते हैं वे सब कुदेव हैं (आराध्यं नरयं पतं) इनकी आराधना करने से सच्चा देव निश्चय से तो निज शुद्धात्म तत्व ही है और व्यवहार में जो वीतरागी, ९ नरक में पतन होता है। सर्वज्ञ, हितोपदेशी अरिहन्त परमात्मा हैं, वही सच्चे देव हैं। अन्य किसी को भी (कुदेवं जेन पूजते) कुदेवों कीजो जीव पूजा करते हैं (वन्दना भक्ति तत्परा) सच्चा देव मानना संसार का ही कारण है। कुदेव की और क्या विशेषता होती है २ वन्दनाभक्ति में तत्पर रहते हैं (तेनरा दुष साहंते) वे मनुष्य दुःख भोगते हैं (संसारे इसे अगली गाथा में कहते हैं 5 दुष भीरुह) संसार में दु:खी और भयभीत रहते हैं। आरति रौद्रं च सद्भाव, माया क्रोधं च संजुतं । (कुदेव जेन मानते) कुदेवों को जो जीव मानते हैं (स्थानं जेवि जायते) कर्मना असुह भावस्य, कुदेवं अनृतं परं ॥५४॥ उनके स्थानों पर जाते हैं (ते नरा भयभीतस्य) वे मनुष्य बहत भय से भयभीत । अन्वयार्थ-(आरति रौद्रं च सद्भाव) जिनका आर्त और रौद्र रूप रहना स्वभाव रहते हैं (संसारे दुष दारुन) संसार में दारुण दु:ख भोगते हैं। रही है (माया क्रोधं च संजुतं) जो हमेशा मायाचारी में लगे रहते हैं, क्रोधी होते हैं । विशेषार्थ- यहाँ कुदेवों का स्वरूप और उनके मानने वालों की दशा का Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०७ ॐ श्री आवकाचार जी वर्णन किया जा रहा है। जो अनन्त दोषों सहित हैं, जिनके कभी शुद्ध भाव होते ही नहीं हैं। जो रौद्र भयानक विकराल रूप धारण किये रहते हैं वे सब कुदेव हैं। इनकी आराधना करने से नरक में पतन होता है। जो जीव कुदेवों की पूजा करते हैं उनकी वन्दना भक्ति में लगे रहते हैं वे मनुष्य दुःख भोगते हैं, संसार में दु:खी और भयभीत रहते हैं। जो जीव कुदेवों को मानते हैं उनके स्थानों पर जाते हैं, वे मनुष्य बहुत भय से भयभीत रहते हैं, संसार में दारुण दुःख भोगते हैं। इसी बात को रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है Svoceive you.eive Yoo वरोपलिप्सयाशावान्, राग द्वेष मलीमसाः । देवता यदुपासीत्, देवता मूढमुच्यते ॥ २३ ॥ अर्थ- अपने वांछित होय ताकूं वर कहिये। वर की वांछा करके आशावान हुआ संता जो रागद्वेष करि मलीन देवता कूं सेवन करै सो देवमूढ़ता कहिए है । विशेष- संसारी जीव हैं ते इस लोक में राज्य सम्पदा, स्त्री-पुत्र, आभरण, वस्त्र, वाहन, धन, ऐश्वर्यनि की वांछा सहित निरन्तर वर्त्ते हैं। इनकी प्राप्ति के अर्थ रागी -द्वेषी, मोही, देवन का सेवन करें सो देवमूढ़ता है। जाते राज्य सुख संपदादिक सो सातावेदनीय का उदय तें होय है। सो साता वेदनीय कर्म कूं कोऊ देने को समर्थ है नाहीं तथा लाभ है सो लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम तै होय है। अर भोग सामग्री, उपभोग सामग्री का प्राप्त होना सो भोगोपभोग नामक अन्तराय कर्म के क्षयोपशम ते होय है। अर अपने भावनि कर बांधे कर्मनि कूं कोऊ देवी देवता देने को तथा हरने कूं समर्थ है नाहीं । बहुरि कुल की वृद्धि के अर्थ कुल देवी कूं पूजिये है अर पूजते- पूजते हू कुल का विध्वंस देखिये है। अर लक्ष्मी के अर्थि लक्ष्मी देवी कूं तथा रुपया, मोहरनिकूं पूजते हू दरिद्र होते देखिये है तथा शीतला का स्तवन पूजन करते हू सन्तान का मरण होते देखिये है । पितरनिकूं मानते हू रागादिक बधै है तथा व्यन्तर क्षेत्रपालादिकनि कूं अपना सहाइ माने है सो मिथ्यात्व का उदय का प्रभाव है । प्रथम तो भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी इन तीन प्रकार के देवनि में मिथ्यादृष्टि 5 ही उपजे है । सम्यदृष्टि का भवनत्रिक देवनि में उत्पाद ही नाहीं । अर स्त्रीपना पावें ही नाहीं । सो पद्मावती, चक्रेश्वरी तो भवनवासी अर स्त्री पर्याय में अर क्षेत्रपालादिक यक्ष वे व्यन्तर, इनमें सम्यक्दृष्टि का उत्पाद कैसे होय ? इनमें तो नियम तै मिथ्यादृष्टि ही उपजै हैं। ऐसा हजारांबार परमागम कहे है। (पंडित सदासुखदास टीका) गाथा - ५८.६० इस प्रकार बहिरात्मा, संसार के प्रपंच के अर्थ कुदेवादि की मान्यता वंद पूजा भक्ति करता हुआ स्वयं दुःखी भयभीत रहता है और नरक निगोद के दुःख भोगता है तथा बहिरात्मा मिथ्यादेव, अदेवों की पूजा भक्ति करता है और नरक निगोद आदि में जाता है। मिथ्यादेव, अदेव क्या हैं ? और इसकी मान्यता से क्या होता है ? यह कहते हैं मिथ्या देवं च प्रोक्तं चन्यानं कुन्यान दिस्टते । दुरबुद्धि मुक्ति मार्गस्य, विस्वासं नरयं पतं ॥ ५८ ॥ जस्स देव उपार्थते, क्रियते लोकमूढयं । तत्र देवं च भक्तं च विस्वासं दुर्गति भाजनं ॥ ५९ ॥ अन्वयार्थ - (मिथ्या देवं च प्रोक्तं च) अब मिथ्या देव अर्थात् कल्पित देवों का स्वरूप कहते हैं (न्यानं कुन्यान दिस्टते) जहाँ ज्ञान कुज्ञान कुछ नहीं दिखता (दुरबुद्धि मुक्ति मार्गस्य) दुरबुद्धि जीव उन्हें मोक्षमार्गी कहते हैं, वीतरागी देव कहते हैं (विस्वासं नरयं पतं) इनका विश्वास करने वाले जीव का नरक में पतन होता है। (जस्स देव उपाद्यंते) जो देव बनाये जाते हैं (क्रियते लोक मूढयं) लोक मूढ़ता से कराये जाते हैं (तत्र देवं च भक्तं च) ऐसे देवों का और उनके भक्तों का (विस्वासं दुर्गति भाजनं) विश्वास करना दुर्गति का पात्र बनाता है। विशेषार्थ यहां बहिरात्मा जीव की दशा का वर्णन चल रहा है कि वह अपने आपको तो जानता ही नहीं है और यह शरीरादि ही मैं हूँ ऐसा मानता है और फिर संसारी प्रपंच के अर्थ क्या-क्या करता है, क्या मानता है ? बड़ी ही विचित्र दशा है । संसारी प्रयोजन के अर्थ कुदेवों की पूजा भक्ति मान्यता करता है तथा जो कल्पना करके अचेतन जड़ पत्थर आदि के अदेव मिथ्यादेव बनाये जाते हैं, उनकी पूजा भक्ति करता है। अपने को मोक्षमार्गी मानता है। (उन्हें वीतरागी देव कहता है) क्योंकि लोकमूढ़ता वश फंसा है, उनके बनवाने वाले, स्थापना करने वालों ने ऐसा जाल फैलाया हुआ है। संसारी प्रलोभन दिये हैं और जीवों को फंसाये हैं। * इससे क्या होता है ? यह आगे गाथा में कहते हैं अदेवं देव प्रोक्तं च, अंधं अंधेन दिस्टते । मार्गं किं प्रवेसं च, अंध कूपं पतंति ये ॥ ६० ॥ ४९ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 श्री आवकाचार जी अदेवं जेन दिस्टंते, मानते मूढ संगते । तेरा तीव्र दुष्यानि, नरयं तिरयं च पर्त ।। ६१ ।। अन्वयार्थ - (अदेवं देव प्रोक्तं च ) जो अदेवों को देव कहते हैं अर्थात् जिनमें कोई देवत्वपना तो दूर चेतनपना भी नहीं है। जो जड़ पत्थर के बनाये गये हैं उनको देव कहता है, मानता है वह तो ऐसा है जैसे (अंधं अंधेन दिस्टते) कोई अंधा अंधे को देखे (मार्ग किं प्रवेसं च) और उससे मार्ग पूछे कि यह रास्ता कौन सा है (अंध कूपं पतंति ये) वह उसे हाथ पकड़कर ले जाये और दोनों अंधे कुएँ में गिर पड़ें। इसी प्रकार (अदेवं जेन दिस्टंते) जो जीव अदेवों को देखता है दर्शन करता है (मानते मूढ संगते) और मूर्खों की संगति से उनकी मान्यता करता है (ते नरा तीव्र दुष्यानि) वह मनुष्य तीव्र दुःखों को भोगता हुआ (नरयं तिरयं च पतं) नरक और तिर्यंचगति में चला जाता है। चैतन्यता से हीन जो, अज्ञान जड़ स्वयमेव है। उनको बना आराध्य ये नर, कह रहे ये देव हैं । अन्धों को अन्धेराज ही यदि, स्वयं पथ दिखलायेंगे । तो है सुनिश्चित वे पथिक जा, कूप में गिर जायेंगे ॥ जिन मूढ़ पुरुषों पर, कुसंगति का अकाट्य प्रभाव है। जिनके हृदय में राज्य करता, भेदज्ञान अभाव है । वे देव सी करते अदेवों की, सतत् आराधना । नर्क स्थली या तियंच गति पा, दुःख वे सहते घना ॥ विशेषार्थ यहाँ अदेवों की मान्यता कैसी है, इसका उदाहरण देकर बताया जा रहा है कि एक अंधा दूसरे अंधे से मार्ग पूछे और वह अंधा उसका हाथ पकड़कर मार्ग बताने चले और दोनों अंधे कुएँ में गिर पड़ें। यही दशा संसारी बहिरात्मा जीव की हो रही है कि वह तो वस्तु स्वरूप जानता नहीं है, धर्म-कर्म का कोई विवेक नहीं है और अन्य अन्धों का अनुकरण करता है। मूर्खों की संगति से अदेवों की पूजा मान्यता करता है, इससे संसार में दुःख भोगता हुआ नरक और तिर्यंच गति में चला जाता है। यहाँ सद्गुरू अदेवों के दर्शन करने को भी बहिरात्मपना बता रहे हैं। जो उनकी मान्यता वन्दना पूजा करते हैं वह तो दुर्गति का ही कारण बनाते हैं, यहाँ तो अदेवों का दर्शन करना, मान्यता करना, ु ( चंचलजी) yo.viyo. newsne ५० गाथा ६१-६४ मूर्खों की संगति पतन का कारण है। अदेवों को देव कहने और उनकी मान्यता करने का क्या परिणाम होता है यह आगे की गाथा में कहते हैं अनादि काल भ्रमनं च, अदेवं देव उच्यते । अनृतं अचेत दिस्टंते, दुर्गति गमनं च संजुतं ।। ६२ ।। अनृतं असत्य मानं च, विनासं जत्र प्रवर्तते । ते नरा थावरं दुषं इन्द्री इत्यादि भाजनं ।। ६३ ॥ मिथ्यादेव अदेवं च, मिथ्या दिस्टी च मानते । मिथ्यातं मूढ दिस्टी च, पतितं संसार भाजनं ॥ ६४ ॥ अन्वयार्थ - (अदेवं देव उच्यते) जो अदेवों को देव कहते हैं (अनादि काल भ्रमनं च ) उनका अनादिकाल तक संसार में ही भ्रमण होता है (अनृतं अचेत दिस्टंते) जो ऐसे झूठे अचेतन अदेवों को देव मानकर दर्शन करते हैं ( दुर्गति गमनं च संजुतं) वे संसार में तो भ्रमण करेंगे ही पर दुर्गतियों में ही गमन होगा और उन्हीं से संयुक्त रहेंगे। (अनृतं असत्य मानं च) जो झूठे मिथ्या और अचेतन अदेवों को देव मानते हैं (विनासं जत्र प्रवर्तते) वह विनाश की ओर ही प्रवर्तते हैं अर्थात् विनाश की ओर ही चले जाते हैं (ते नरा थावरं दुषं) ऐसे मनुष्य स्थावर काय का दुःख भोगते हैं (इन्द्री इत्यादि भाजनं ) जहां मात्र स्पर्शन इन्द्रिय होती है, अत्यन्त पराधीन रहते और बहुत वेदना पाते हैं। (मिथ्यादेव अदेवं च ) ऐसे कल्पित मिथ्यादेव और अदेवों को ( मिथ्या दिस्टी च मानते) मिथ्यादृष्टि ही मानते हैं (मिथ्यातं मूढ दिस्टी च) ऐसे मिथ्यात विपरीत मान्यता में फंसा हुआ मिथ्यादृष्टि जीव जो बहिरात्मा है वह (पतितं संसार भाजनं ) संसार रूपी कूप में पड़ा रहता है। विशेषार्थ यहाँ अदेवों को देव कहने और उनकी मान्यता करने का क्या परिणाम होता है यह बताया जा रहा है। जो अदेवों को देव कहते हैं झूठे, अचेतन, जड़, पत्थर आदि के दर्शन करते हैं। बहिरात्मा संसारी मायामोह में फंसा लोकमूढ़ता के वश मूर्खों की संगति में अदेवों को देव मानकर पूजता है। जैसे-चाकू, मूसल, चूल्हा, देहली, तलवार, कलम, दावात, वही आदि को देव मानकर पूजा मान्यता cnca Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७७ श्री आवकाचार जी करता है। इससे संसार में तो भ्रमण करेगा ही परंतु दुर्गतियों में जाना पड़ेगा । मिथ्या को सच मान लेना बड़ा भारी अज्ञान है। इसी से प्राणी का नाश होता है। जैसे- कोई रस्सी को सर्प माने तो वृथा भयभीत हो दुःख उठावे। ऐसे ही मिथ्यादेवों को देवों को तथा अदेवों को देव माने उसका इस जन्म में भी नाश होगा, धर्म से वंचित रहेगा तथा परलोक में दुर्गति के महान दुःख प्राप्त होंगे। मिथ्यात्व की तीव्रता से स्थावर काय में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति होना पड़ता है, जहाँ अनन्त काल तक रहना पड़ता है; अतएव जो स्थावरों के कष्टों में आत्मा को नहीं डालना चाहते उनको भूलकर भी अदेवों की भक्ति नहीं करना चाहिये । ऐसे कल्पित मिथ्यादेव, अदेवों को मिथ्यादृष्टि ही मानते हैं और इस मिथ्यात्व और मूढदृष्टि होने से संसार में डूबे हुए उसके पात्र बने रहते हैं। इसी बात को ब्र. शीतलप्रसाद जी ने श्रावकाचार टीका में कहा है अनंत संसार के भ्रमण का कारण मिथ्यात्व है। जो संसार में आसक्त है वही संसार में भ्रमण करता है। जो शरीर का रागी है, विषय भोगों का लोलुपी है, वह रात-दिन विषय की तृष्णा में फंसा हुआ विषय सामग्री मिलने पर हर्ष व वियोग होने पर विषाद किया करता है। वह इन्द्रिय सुख को ही अमृत समझता है। जैसे-मृग, मृगतृष्णा में चमकती हुई रेत को भ्रम से जल समझकर आकुल-व्याकुल होता है। प्यास बुझाने के स्थान पर और बढ़ा लेता है। इसी प्रकार यह मूढ प्राणी आत्माधीन अतीन्द्रिय सुख को न पहिचान कर इन्द्रिय सुखों में तन्मय होकर, दुःख भोगता हुआ, तृष्णा की दाह बढ़ा लेता है। यह मूर्ख प्राणी दु:ख, आकुलता व बंध के कारणभूत इन्द्रिय सुख को सुख मानकर उसी की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार उपाय करता है। बहुत से मिथ्या उपाय भी करता है। उन ही मिथ्या उपायों में कुदेवों का व अदेवों का पूजन है। इस भक्ति में अपनी शक्ति को व अपने धन को व्यर्थ खोता है और बहुत पाप का संचय करता है। नरक, निगोद, पशु गति में व दीन-हीन मनुष्य गति में व कांतिहीन क्षुद्र देवों में पैदा होकर अनेक शारीरिक और मानसिक दुःख उठाता है। जैसे-अंधकूप में गिर जाने से निकलना बड़ा कठिन है, उसी प्रकार भयानक संसार में पतन होने से इससे निकलने का साधन जो सम्यक्दर्शन है, इसका पाना कठिन है। ऐसा जानकर कुदेवों की व अदेवों की भक्ति कभी नहीं करना चाहिये । इसी बात को पंचाध्यायी में पं. राजमल्ल जी कहते हैं SYA YA YA YES. ५१ गाथा- ६१-६४ अदेवे देव बुद्धिः स्यादधर्मे धर्म धीरिह । अगुरौ गुरू बुद्धिर्याख्याता देवादि मूढ़ता ॥ ५९५ ॥ कुवैवाराधनं कुर्यादिडिक श्रेयसे कुधीः । मृषा लोकोपचारात्वाद श्रेया लोक मूढ़ता ॥ ५९६ ॥ अस्ति श्रद्धान मेकेषां लोक मूढ़ वशादिह । धनधान्य प्रदानूनं सम्यगाराधि ताम्बिका ॥ ५९७ ॥ अपरेऽपि यथाकामं देवानिच्छन्ति दुर्धियः । सदोषानपि निर्दोषानिय प्रज्ञापराधतः ।। ५९८ ।। नोक्तस्तेषां समुद्देशः प्रसंगादपि संगतः । लब्धवणों न कुर्याद्वै निःसारं ग्रन्थ विस्तरम् ।। ५९९ ॥ अधर्मस्तु कु देवानां यावानाराधनोद्यमः । तैः प्रणीतेषु धर्मेषु चेष्टा वाक्काय चेतसाम् ॥ ६०० ॥ जीव को जो अदेव में देवबुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि और अगुरू में गुरू बुद्धि होती है वह देवादि मूढ़ता कही जाती है। मिथ्यादृष्टि जीव दैहिक सुख के लिये कुदेव की आराधना करता है, यह झूठा लोकाचार है; अत: लोकमूढ़ता अकल्याणकारी मानी गई है। लोकमूढ़ता वश किन्हीं पुरुषों का ऐसा श्रद्धान है कि अम्बिका की अच्छी तरह आराधना करने पर वह धन-धान्य देती है। इसी तरह अन्य मिथ्यादृष्टि जीव भी अज्ञानवश सदोष देवों को भी निर्दोष देवों के समान इच्छानुसार मानते हैं। प्रसंगानुसार सुसंगत होते हुए भी उनका निर्देश यहां पर नहीं किया है; क्योंकि जिसे चार अक्षर का ज्ञान है वह निष्प्रयोजन ग्रन्थ का विस्तार नहीं करता । कुदेवों की आराधना के लिये जितना भी उद्यम है, वह और उनके द्वारा कहे गये धर्म में- वचन, काय और मन की प्रवृत्ति यह सब अधर्म है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि वर्तमान में तो सच्चे देव तीर्थंकर अरिहन्त परमात्मा हैं नहीं और सिद्ध परमात्मा अशरीरी होते हैं फिर हम देवपूजा करने के लिये क्या करें ? क्योंकि देवपूजा करने से हमारे भावों में शुभता रहती है तथा पुण्य बन्ध भी होता है। इसके लिये फिर क्या करें? हम कुदेवादि को तो मानते नहीं, सच्चे वीतरागी देव को ही मानते हैं। उनकी ही मूर्ति बनाकर पूजते हैं फिर इसमें क्या दोष है ? इसका समाधान करते हैं कि देव का अर्थ है इष्टपुरुष परमात्मा, जिनका आदर्श मानकर हम जीवन जियें । यहाँ वैदिक आदि दर्शन देव को विश्व को रचने १७०७ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w श्री आचकाचार जी गाथा-६०.६४ DO. वाला, रक्षा करने वाला, संहार करने वाला और सब जीवों के दुःख-सुख मुक्ति मोक्षमार्गस्य नेतार, भेत्तारं कर्म भूभृताम्। आदि का नियन्ता मानते हैं इसीलिये वह उनकी पूजा प्रार्थना करते हैं। उनके यहाँ शातारं विश्वतत्वाना, वंदे तद्गुण लब्धये ॥ भगवान परमात्मा अवतार लेकर समय-समय पर प्रगट होते हैं और वर्तमान समय इस सम्बंध में विरधीलाल सेठी जयपुर वालों ने बहुत स्पष्ट लिखा हैमें अधर्म का उन्मूलन, दुष्टों का संहार और धर्म की स्थापना करते हैं ऐसी उनकी अन्य धर्मों वाले महानुभाव जो संसार की कर्ता-धर्ता. ईश्वर जैसी शक्ति में मान्यता है। विश्वास करते हैं वे उस शक्ति से प्रार्थना भी करते हैं; परंतु जैन धर्म के अनुसार तो , जैन दर्शन प्रत्येक जीव की स्वतंत्र सत्ता मानता है। सबमें परमात्म शक्ति ऐसी कोई शक्ति ही नहीं है जो कुछ दे सके। हमारी आत्मा में ही इतनी शक्ति है कि है। प्रत्येक जीव आत्मा ही अपनी शक्ति जाग्रत कर परमात्मा होता है। कोई परमात्मा , हम उसे जगाकर अपने ही पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकते हैं, इसके लिये संकल्प स्वतंत्र शक्ति जगत की नियन्ता कर्ता नहीं है। जगत का परिणमन स्वतंत्र है। अपने । पूर्वक भावना करने का ही महत्व है। किसी दूसरी शक्ति से प्रार्थना करने का आशय क्रम से स्वयं अपने आप चल रहा है और देव भी वीतरागी, हितोपदेशी, सर्वज्ञ, है कि हमें अपनी शक्ति में विश्वास नहीं है, हममें हीनता की भावना है। ऐसी स्थिति अरिहंत परमात्मा को माना गया है। पूर्ण शुद्ध सच्चे देव तो सिद्ध परमात्मा हैं,जो में तीर्थंकरों की प्रार्थना से हमारे अंतर की सुप्त शक्ति कभी नहीं जाग सकती। वह सर्व कर्म मलों से मुक्त, अशरीरी, अपने परमानंदमय हैं और यही प्रत्येक जीव तो अपनी आत्म शक्ति में विश्वास रखकर उसे जगाने की बार-बार भावना करने आत्मा का अपना निज स्वभाव है तथा जैन दर्शन में एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ पर ही जाग सकती है; परन्तु भक्ति के नाम पर हमने तीर्थंकरों को अलौकिक बना नहीं करता सबकी स्वतंत्र सत्ता है। पर के आश्रय, परावलंबन से कभी धर्म होता ही दिया और उससे हममें हीनता की धारणा पैदा हो गई, हम अपनी आत्मशक्ति के प्रति नहीं है। अपनी स्वयं की शक्ति जाग्रत करें, अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान, ज्ञान तथा श्रद्धाहीन हो गए। तद्रूप आचरण करें तो स्वयं परमात्मा हो सकते हैं। अपने ही शुभाशुभ भावों से 5 ईश्वरवादी धर्मों का मार्ग भक्ति और समर्पण का है कि वे अपने को नगण्य पुण्य-पापबन्ध होता है तथा अपने ही सदाचार संयम, दस धर्मों का पालन करने से इ मानकर सब कुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ देते हैं; परन्तु जैन धर्म का मार्ग ठीक इसके जीवन में समता शान्ति आती है, सद्गति और मुक्ति का मार्ग बनता है, आत्म विपरीत है, वह पुरुषार्थ का मार्ग है, वह कहता है कि कोई हाथ नहीं जो तुम्हें ऊँचा शक्ति जाग्रत होती है आत्मा परमात्मा बनता है। उठा सके, तुम्हें अपने ही पुरुषार्थ के बल पर आगे बढ़ना होगा। जैसा करोगे वैसा विषय, कषाय, पापादि अन्याय अत्याचार करने से आत्मा का पतन होता फल भी भोगोगे, तुम्हारे पापों को कोई माफ नहीं कर सकता। इस मार्ग में ईश्वरवादी है। दुःख भय चिन्ता रहती है और नरकादि दुर्गतियों के दुःख भोगना पड़ते हैं। जैसी भक्ति और प्रार्थना का कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार जैन तीर्थंकरों ने तो वीतरागी देव हमारे आदर्शमार्गदर्शक हैं। इष्ट सच्चा देव तो अपना निज शुद्धात्मतत्व ईश्वर कर्तृत्व के विरुद्ध क्रांति की थी; परन्तु उनके अनुयायियों ने कर्तृत्व उन ही है। उसके ही श्रद्धान से धर्म का प्रारंभ होता है। अब स्वयं निर्णय करें कि देवपूजा तीर्थंकरों में ही थोप दिया। वे उनसे प्रार्थनायें करके तरह-तरह की मांगें करने लगे, करने का क्या औचित्य हैक्योंकि पूजा का अर्थ कुछ न कुछ चढाना है और उसके पाप की माफी मांगने लगे, इस विचार के साथ कि ईमानदारी का जीवन न होने मूल में कुछ न कुछ कामना, वासना होती है तो जब वीतरागी देव न कुछ लेते हैं और पर भी केवल भक्ति से ही उनके पाप माफ हो जायेंगे । अधिकांश हिन्दी के न किसी का भला-बुरा करते हैं तो किसी प्रकार की मूर्ति बनाकर पूजन करने का पूजा-पाठ में यही लेने-देने का भाव भरा है। उदाहरण के लिये- पूजा के अन्त में 9 क्या प्रयोजन है ? इसी से तो हमारी आत्म शक्ति हीन होती है, पराधीनता आती प्रार्थना की जाती हैहै तथा मिथ्यात्व आदि ही बढ़ता है। सुख देना दुख मेटना, यही तुम्हारी बान। देव की स्तुति आराधना उनके गुणों की प्राप्ति के लिये की जाये तो उससे मो गरीब की वीनती, सुन लीजे भगवान ॥ आत्मशक्ति जागती है, भावना शुभ होती है। जैसा तत्वार्थ सूत्र का मंगलाचरण है आलोचना पाठ में पढ़ते हैं कि CLAG Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी द्रोपदी को चीर बढ़ायो, सीता प्रति कमल रचायो । अंजन से किये अकामी, दुःख मेटो अन्तरयामी ॥ पार्श्वनाथ स्तोत्र में प्रार्थना की गई है कि महासंकटों से निकारे विधाता, सवै इसी प्रकार - नाथ मोहि जैसे बने वैसे तारो, उपरोक्त से प्रगट होता है कि जैन कर्ता-धर्ता ईश्वर का रूप दे दिया है। दरिद्रीन को द्रव्य के दान दीने, अपुत्रीन को तू भले पुत्र कीने । संपदा सर्व को देही दाता ।। मोरी करनी कछु न विचारो । तीर्थंकरों को उनके अनुयायियों ने (जैन मूर्तिपूजा में व्याप्त विकृतियाँ) इस प्रकार की अनेक बातें हैं, अनेक कारण हैं, जिनसे हम वास्तविक धर्म को भूल बैठे हैं और विपरीत मान्यता लोकमूढ़ता आदि दोषों में फंस गये हैं। यह देवपूजा भी इसी प्रकार की मान्यता है। हम विवेक से काम लें, वस्तु स्वरूप को समझें, सत्य-असत्य का निर्णय करें और सही धर्म मार्ग पर चलकर आत्म कल्याण करें, मानव जीवन को सफल बनायें। छहढाला में कहा है दौल समझ सुन घेत सयाने, काल वृथा मत खोवे। यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहीं होवे ॥ यहां कोई प्रश्न करे कि ऐसी स्थिति में हम क्या करें, जबकि चारों तरफ से सामाजिक, व्यवहारिक, साम्प्रदायिक, सांसारिक बंधनों में जकड़े हुए हैं, न चाहते हुए भी करना पड़ता है, इनसे छूटने का उपाय क्या है ? इसका समाधान है- सद्गुरु की शरण, सत्संग और पुरुषार्थ करो तो छूट सकते हो। यहां फिर प्रश्न है कि गुरु में भी सद्गुरू, कुगुरू आदि का झगड़ा है ? उसका समाधान है कि हां गुरू में भी सद्गुरू, कुगुरू, अगुरू आदि होते हैं। इनके स्वरूप को जानो, उनसे बचो और सद्गुरू का शरण गहो तो इन बन्धनों से छूट सकते हो। फिर प्रश्न है कि इनका स्वरूप क्या है ? सर्वप्रथम यहां सद्गुरू कैसा होता है उसके स्वरूप का वर्णन तारण स्वामी आगे कर रहे हैं, उसके बाद कुगुरू का स्वरूप बतायेंगे । संमिक गुरु उपाद्यंते, मिक्तं सास्वतं धुवं । लोकालोकंच तत्वार्थ, लोकितं लोक लोकितं ॥ ६५ ॥ SYAA AAAAAN FAN ART YEAR. ५३ गाथा ६६-६७ ऊर्ध आर्ध मध्यं च, न्यान दिस्टि समाचरेत् । सुद्ध तत्व स्थिरी भूतं न्यानेन न्यान लंकृतं ॥ ६६ ॥ सुद्ध धर्म च सद्भावं सुद्ध तत्व प्रकासकं । सुद्धात्मा चेतना रूपं, रत्नत्रयं लंकृतं ।। ६७ ।। अन्वयार्थ - (संमिक गुरु उपाद्यंते) सच्चे गुरु उपासना करते हैं (संमिक्तं सास्वतं धुवं) सम्यक् अर्थात् निज शुद्धात्मा की जो शाश्वत है ध्रुव है (लोकालोकं च तत्वार्थं) लोकालोक में जो एकमात्र प्रयोजनभूत तत्व है (लोकितं लोक लोकितं ) जो समस्त लोक को देखता जानता है। (ऊर्ध आर्ध मध्यं च) तीनों लोक और तीनों काल में (न्यान दिस्टि समाचरेत्) जो ज्ञानदृष्टि सम्यक् ज्ञान का ही व्यवहार आचरण करते हैं (सुद्ध तत्व स्थिरी भूतं ) शुद्ध आत्मीक तत्व में निश्चल रमण करते हुए (न्यानेन न्यान लंकृतं) ज्ञान ही ज्ञानमय शोभायमान रहते हैं। (सुद्ध धर्मं च सद्भावं) निज शुद्धात्म भाव जो अपना स्वभाव है (सुद्ध तत्व प्रकासकं ) उस शुद्ध तत्व का ही अनुभव करते हैं (सुद्धात्मा चेतना रूपं) शुद्धात्मा जो चैतन्य स्वरूपी है (रत्नत्रयं लंकृतं) तथा रत्नत्रय से अलंकृत हैं अर्थात् सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान सम्यक्चारित्रमयी है। ऐसे निज शुद्धात्म तत्व की ही साधना आराधना उपासना करते हैं। बिशेषार्थ- यहाँ सच्चे गुरू के स्वरूप का वर्णन चल रहा है। गुरू अर्थात् मार्गदर्शक । गुरू पद वह बीच की कड़ी है जो स्वयं आत्मा से परमात्मा बनने की ओर बढ़ रहा हो तथा जीवों को अपने परमात्म स्वरूप का ज्ञान करावे । परमात्मा बनने मुक्त होने की विधि बतावे । व्यवहार में ज्ञान देने वाले को गुरू कहते हैं। जिससे कुछ सीखते हैं उसे भी गुरू कहते हैं। परमार्थ में सच्चा गुरू वह है जो स्वयं मुक्ति मार्ग पर चल रहा हो और अन्य भव्य जीवों को मुक्ति का सम्यक्मार्ग बतावे। जिसकी कथनी करनी एक हो । निश्चय और व्यवहार में सम्यक् आचरण हो, जो स्वयं ऊपर उठ चुका हो, पाप परिग्रह विषय कषाय से हट गया हो । संसारी प्रपंच से मुक्त हो गया हो जो किसी प्रकार के सामाजिक, व्यवहारिक, सांसारिक, राजनैतिक बन्धन में न बंधा हो, साम्प्रदायिकता से ऊपर उठ गया हो। जिसका जाति-पांति का भेदभाव मिट गया हो, जिसका सब जीवों के प्रति ु Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wcono श्री श्रावकाचार जी गाथा-६८, ९ SOON समता भाव हो। जिसके अन्तर में समस्त जगजीवों के प्रति करुणा बहती हो तथा जो मुक्त हो गये हैं (मिथ्या माया न दिस्टंते) अब मिथ्या माया दिखते ही नहीं अपने आत्मीय आनंद में निमग्न रहता है। जिसका चेहरा खिलता हआ कमल जैसा हैं (संमिक्तं सुद्ध दिस्टितं) शुद्ध सम्यक्त्व ही अर्थात् अपना निजशुद्धात्मा ही देखते। प्रफुल्लित दिखाई देवे। जो वीतरागी हितोपदेशी और समभावी हो वह सच्चा गुरू ५ है वही दिखता है। होता है। वह क्या करता है? यह सद्गुरू तारण स्वामी बता रहे हैं कि वह अपने निज (संसारे तारनं चिंते) संसार से तरने, मुक्त होने का विचार करते हैं (भव्य ७ शुद्धात्मा जो शाश्वत है, ध्रुव है, लोकालोक में सारभूत तत्व है। जो सबको देखने- लोकैकतारकं) और संसारीप्रत्येक भव्य जीव के तारणहार हैं (धर्मस्य अप्प सद्भाव) जानने वाला है तीन लोक तीन काल में हमेशा ज्ञानमयी ही रहता है। जो अपने में धर्म तो आत्मा का शुद्ध स्वभाव ही है (प्रोक्तं च जिन उक्तयं) जैसा जिनेन्द्र ही रमण करता है, लीन रहता है,ज्ञान ही ज्ञान से शोभायमान है। जिसका शद्ध परमात्मा ने कहा वैसा कहते हैं। स्वभाव त्रिकाली है जो हमेशा अपने में ही रहता है, वह शुद्धात्मा जो चैतन्य स्वरूपी विशेषार्थ- यहाँ पहले तो सद्गुरु किसे कहते हैं ? कौन होते हैं ? उनका रत्नत्रयमयी है। ऐसे निजशुद्धात्मा की साधना, आराधना, उपासना में ही रत रहते हैं स्वरूप बताया जा रहा है। जो ज्ञान, ध्यान, तप, साधना में ही लीन रहते हैं जो धर्म ऐसे सद्गुरू होते हैं। * का उपदेश देते हैं। साधु तो बहुत होते हैं, गुरू बहुत थोड़े होते हैं। जिनके अंतर में इसी बात को रत्नकरण्ड श्रावकाचार में समन्तभद्राचार्य कहते हैं संसार के दुःखों की पीड़ा लगती है, वह तो स्वयं उससे छूट ही रहे हैं और जगत के . विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । भव्य जीव भी क्यों न इससे मुक्त हो जायें ऐसी करुणा उनके अन्तर में बहती है ज्ञानध्यान तपो युक्तस्तपस्वीस प्रशस्यते॥१०॥ ८. और जैसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है वैसे शुद्ध आत्म धर्म का उपदेश जगत के जीवों जो पांच इन्द्रियों के विषयों की आशा-वांछा से रहित, छह काय के जीवों के को देते हैं वह सद्गुरू कहलाते हैं। घात करने वाले आरम्भ से रहित, अन्तरंग-बहिरंग समस्त परिग्रह से रहित हो जिसे ज्ञान ही ज्ञान का अवलम्बन है, अन्तर में ज्ञान स्वभावी आत्मा और तथा ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहता है। ऐसा तपस्वी सच्चा गुरू ही प्रशंसनीय 5 बाहर में जिनवाणी का स्वाध्याय, मनन, चिन्तन, मात्र इतना ही कार्य है। जो तीनों कुज्ञानों से मुक्त हो गया अर्थात् कुमति, कश्रत, कुअवधि ज्ञान छट गये, अब तो यहाँ कोई प्रश्न करे कि जो अपने ज्ञान ध्यान में लीन रहते हैं। शुद्धात्मा की ही सुमति, सुश्रुत और सुअवधि का आधार है। जिसकी तीनों शल्ये मिथ्या, माया, साधना आराधना उपासना में रत रहते हैं। उनसे हमारा क्या संबन्ध है, उनसे हमें निदान भी बिला गई हैं । मिथ्यात्वादि से तो छूट ही चुका है। जिसे अपनाशुद्धात्म क्या लाभ मिला? स्वरूप हमेशा दिखाई देता रहता है। इसके साथ संसार के दु:खों का भी विचार इसका समाधान सद्गुरू तारण स्वामी आगे की गाथाओं में करते हैं- चलता रहता है कि देखो इस जीव ने अपनी जरा सी भूल की, इसने अपने आत्म न्यानेन न्यानमालंब्यं,कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं । स्वभाव को नहीं जाना जो सच्चा धर्म है, इसके कारण कैसे जन्म-मरण के दुःख मिथ्या माया न दिस्टते, संमिक्तं सुद्ध दिस्टितं ॥१८॥ भोगे। चारों गति नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति में कैसे-कैसे दुःख भोगे और हमेशा भयभीत चिन्तित रहा। यह संसारी प्राणी भी इस सच्चे धर्म अपने आत्म संसारे तारनं चिंते, भव्य लोकैक तारकं । 5 स्वभाव को जाने बिना कसे दुःखी हो रहे हैं। यह भी अपने आत्म स्वभाव को जान लें। धर्मस्य अप्प सद्भाव, प्रोक्तं च जिन उक्तयं ॥१९॥ तो सब सुखी हो जायें, मुक्त हो जायें। देखो जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि अपना अन्वयार्थ- (न्यानेन न्यानमालंब्यं) ज्ञान ही ज्ञान का जिनको अवलम्बन है शुद्ध स्वभाव ही धर्म है। बाहर में कोई क्रिया धर्म नहीं है। यह सभी भव्य जीव अपने । अर्थात् ध्यान में अपने ज्ञानानंद स्वभाव में लीन रहते हैं तथा ज्ञान में अपने आत्म स्वरूप का बोध कर लें। इसके लिये सभी भव्य जीवों को अपने आत्म स्वरूप की। स्वरूप का चिन्तवन करते हैं (कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं) तीनों प्रकार के कुज्ञान से महिमा बताते हैं, संसार के दु:ख बताते हैं, परमात्म स्वरूप का बोध कराते हैं। स्वयं poato.come Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSON श्री श्रावकाचार जी गाथा-७०, १POON तरते हैं और दूसरों को तारते हैं इसलिये सद्गुरू तारण तरण कहलाते हैं। १. मतिज्ञान-पांच इन्द्रियों और मन के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जो ऐसे सदगुरू का सुयोग इस जीव को मिल जाये तो बेड़ा पार हो जाये। सद्गुरू ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं। मुख्य रूप से तो अपने ज्ञान-ध्यान, आत्म साधना में लीन रहते हैं। उन्हें तो . २.श्रतज्ञान- मतिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ को विशेष रूप से जानना केवलज्ञान और सिद्ध पद ही इष्ट रहता है। आचार्य, उपाध्याय और साधु यह तीन श्रतज्ञान है। गुरू कहलाते हैं। अरिहन्त, परमगुरू कहलाते हैं। ३. अवधिज्ञान-जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा सहित इन्द्रिय अथवा शुद्धात्म स्वरूप का साधक सदगुरू अपनी साधना में लीन आगे बढ़ता है। मन की सहायता के बिना रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। उससे क्या होता है? यह कहते हैं ४.मन:पर्ययज्ञान-जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा सहित इन्द्रिय न्यानं त्रितिय उत्पन्न, ऋजु विपुलं च दिस्टते। " अथवा मन की सहायता के बिना ही दूसरे पुरुष के मन में स्थित रूपी पदार्थों को मनपर्जयं च चत्वारि, केवलं सिद्धि साधकं ॥७॥ प्रत्यक्ष जानता है उसे मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं। रत्नत्रयं सुभावं च, रूपातीत ध्यान संजुतं । ५.केवलज्ञान-समस्त द्रव्य और उनकी सर्व पर्यायों को एक साथ प्रत्यक्ष जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। सक्तस्य विक्त रूपेन, केवलं पदर्म धुवं ॥१॥ प्रत्येक संसारी जीव को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तो होते ही हैं। मिथ्यात्व के अन्वयार्थ- (न्यानं त्रितिय उत्पन्न) सद्गुरू जो अपनी साधना में लीन रहते ८ कारण वह कुमति, कुश्रुत कहलाते हैं और किसी संसारी जीव को अवधिज्ञान भी हो हैं, उन्हें तीसरा ज्ञान अवधि ज्ञान उत्पन्न हो जाता है (ऋजु विपुलं च दिस्टते), सकता है, वह कुअवधिज्ञान कहलाता है । सम्यकदर्शन होने पर सुमति, और रिजुमति विपुतमति भी दिखने लगता है (मनपर्जयं च चत्वारि) यह मन: मर्यय सुश्रुत,सुअवधि कहलाते हैं। चौथा ज्ञान है (केवलं सिद्धि साधक) केवलज्ञान की सिद्धि की साधना तो चल ही मन:पर्यय और केवलज्ञान सम्यक्दृष्टि साधु को ही होते हैं। इस प्रकार ज्ञान रही है। के आठ भेद होते हैं- कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, मति, श्रुत, अवधि, मन: पर्यय (रत्नत्रयं सुभावं च) रत्नत्रयमयी स्वभाव है ही (रूपातीत ध्यान संजुत) जब और केवलज्ञान। रूपातीत ध्यान में लीन होते हैं तब (सक्तस्य विक्त रूपेन) अपनी शक्ति प्रगट देव और नारकियों को जन्म से हीमति, श्रुत, अवधिज्ञान होता है पर मिथ्यात्व रूप में दिखने लगती है (केवलं पदम धुवं) जो केवलज्ञान मयी पद स्वरूप शुद्धं सहित होने से कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ही कहलाता है। सामान्य मनुष्य और प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं और ध्रुव है। तिर्यचों को मति श्रुतज्ञान तो होता ही है, अवधिज्ञान भी हो सकता है। विशेषार्थ- यहाँ सद्गुरू जो अपनी शुद्धात्म साधना में लीन रहते हैं, उन्हें अवधिज्ञान की विशेषता- स्वयं की और पर की अगले पिछले जन्मों की तीसरा ज्ञान अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है और चौथा मनःपर्यय ज्ञान बातों को जान लेना यह विशेषता रहती है। मनः पर्ययज्ञान में-अगले पिछले जन्मों रिजुमति,विपुलमति भी दिखने लगता है। केवलज्ञान की सिद्धि की साधना तो करने की बातों के ज्ञान के साथ किसी के भी मन की बात जान लेने की विशेष क्षमता होती ही रहे हैं। 5 है। केवलज्ञान में तीन लोक, तीन काल की सर्व द्रव्यों की सर्व पर्यायें प्रत्यक्ष दिखाई ज्ञान पाँच होते हैं। जैसा तत्वार्थ सूत्र में कहा है देती हैं। मति श्रुतावधि मन:पर्यय केवलानि ज्ञानम्॥९॥ सद्गुरू अपने स्वरूप की साधना करते हैं तो मति श्रुतज्ञान के साथ उन्हें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान यह पांच अवधि और मन:पर्यय ज्ञान भी प्रगट हो जाते हैं। चार ज्ञान तक के धारी आचार्य २ ज्ञान होते हैं। उपाध्याय और साधु होते हैं। गणधर भी इसी श्रेणी में आते हैं और यह सब छठे.. 40 C Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w श्री आचकाचार जी गाथा-७०,७१R OO सातवें गुणस्थानवर्ती होते हैं और यह सब गुरू कहलाते हैं। सद्गुरू रत्नत्रय से जीव के भावों के निमित्त से कर्म बंधते हैं और कमों के उदय के निमित्त युक्त तो होते ही हैं अर्थात् सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से युक्त होकर से जीव के भाव होते हैं, ऐसा ही अनादि निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। अपने रत्नत्रयमयी स्वभाव का ध्यान करते हैं और जब रूपातीत ध्यान में लीन होते . अब, जब जीव ने अपने सत्स्वरूप को पहिचाना, भेदज्ञान के द्वारा वस्तु हैं तो अपनी शक्ति जो केवलज्ञानमयी ध्रुव तत्व शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्व है वह * स्वरूप और इस निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध को जाना तथा फिर उसने अपने स्वभाव ७ प्रत्यक्ष व्यक्त स्वरूप अनुभव में आती है। में रहने का पुरुषार्थ किया तो आसव-बंध रुक गया, संवर हो गया और पूर्व बद्ध इसी प्रकार ज्ञान ध्यान की साधना में रत रहने से कर्म अपने आप छूटते, कर्मों की निर्जरा होने लगी क्योंकि कर्मों का स्वभाव गलने विलाने का है, प्रति समय गलते, विलाते जाते हैं, आत्म ज्ञान बढ़ता जाता है। सम्यकदर्शन की प्रखरता होती उनका निर्झरण होता रहता है। इस बात को कमलबत्तीसी जी में श्री तारण स्वामी ने है, अपने ज्ञानानन्द स्वभाव में निरन्तर आनन्द मगन रहते हैं। । बताया है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि अपने स्वभाव की साधना से कर्म कैसे गलते विलाते हैं? कम्म सहावं विपन, उत्पत्ति षिपिय दिस्टि सभावं । इसका समाधान करते हैं कि कर्म कैसे बंधते हैं यह समझलो तो फिर कर्म कैसे चेयन रूव संजुत,गलिय विलिय ति कम्म बंधान ॥ गलते, विलाते हैं, यह अपने आप समझ में आ जायेगा। तो देखो, जब जीव पर की (कमल बत्तीसी गाथा-६) तरफ देखता है तो कर्मों का आस्रव होता है अर्थात कर्म वर्गणायें आती हैं तथा जीव कर्मों का स्वभाव षिपने, क्षय होने का है। इनकी उत्पत्ति और क्षय जीव की जब राग-द्वेष करता है, तो वह बंध जाती हैं। बंध चार प्रकार का होता है, योग से दृष्टि के सद्भाव पर है, यदि जीव की दृष्टि बाहर पर में है तो कर्मों की उत्पत्ति होती अर्थात् मन वचन काय का हलन-चलन और जीव के विभाव परिणमन से प्रकृति है और जीव की दृष्टि अपने स्वभाव पर है तो कर्मों का क्षय होता है। जीव अपने और प्रदेश बन्ध होता है तथा कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ, अनन्तानुबंधी, चैतन्य स्वरूप शुद्ध स्वभाव में लीन हो जाये तो तीनों प्रकार के बंधे हुए कर्म गल अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान,संज्वलन तथा नोकषाय हास्य, रति, अरति,शोक,भय, जाते हैं बिला जाते हैं। जुगुप्सा,स्त्रीवेद,पुरुषवेद, नपुंसकवेद इनसे स्थिति और अनुभाग बन्ध होता है। यह सिद्धान्त करणानुयोग के ग्रन्थ गोम्मटसार, धवल-महाधवल का सार अब यहाँ कोई पूछे कि जीव और पुद्गल दोनों भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं और एक है। कर्म तीन प्रकार के होते हैं-द्रव्य कर्म, भाव कर्म और नो कर्म । द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, सब द्रव्य अपने-अपने में पूर्ण स्वतंत्र हैं फिर द्रव्य कर्म-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय,मोहनीय, अन्तराय, नाम, आयु, यह कैसे होता है, यह तो सिद्धान्त विरुद्ध हो गया? तो उससे कहते हैं कि भाई! यह गोत्र और वेदनीय यह आठ होते हैं। सिद्धान्त विरुद्ध नहीं है। ऐसा जीव और पुद्गल का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। भाव कर्म- मोह, राग-द्वेष रूप जीव के विभाव परिणमन को कहते हैं। इसी के कारण यह जगत का परिणमन चलता है, अन्यथा सब संसार ही बिला नो कर्म- शरीरादि पुदगल की रचना नो कर्म कहलाती है। जब सद्गुरू जाये। हाँ,यह बात अवश्य समझना है और वह सत्य है कि जीव का परिणमन जीव अपने ध्यान में लीन होते हैं तो इन कर्मों में आग लग जाती है। इनकी असंख्यात में होता है। पुदगल का परिणमन पुदगल में होता है, वह दोनों अपने द्रव्य, गुण, गुणी निर्जरा होती है। यह जीव के पुरुषार्थ की शक्ति है। आत्मा तो अनन्त चतुष्टय पर्याय, सत्ता शक्ति से त्रिकाल भिन्न ही रहते हैं। एक क्षेत्रावगाह रहते हुए भी एक 5 का धारी परमब्रह्म परमात्म स्वरूप है, अपनी सत्ता शक्ति को भूला है। स्वयं का द्रव्य दूसरे द्रव्य को स्पर्श भी नहीं करता यह स्वतंत्र सत्ता है परन्तु एक दूसरे का ही विस्मरण हो गया इससे संसार में यह दुर्दशा हो रही है। इन सब बातों की निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। जैसे-सूर्य के प्रकाश तापसे पानी भाप बनकर उड़ता जानकारी सद्गुरू द्वारा ही होती है और जिस जीव की होनहार अच्छी होती है,X है और बादल बन जाता है, इसी प्रकार पुद्गल कर्मवर्गणा जीव के विभाव परिणमन से उसका कल्याण हो जाता है, सद्गुरू निमित्त कहलाते हैं। सद्गुरू के भीतर तो। कर्म रूप बंध जाती हैं। करुणा बहती है वह तो समस्त जगत का कल्याण चाहते हैं। सब जीवों को सुखी Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ou4 श्री श्रावकाचार जी गाथा-७२ POOO आनंदमय ही देखना चाहते हैं उन्हें किसी से कोई भेद भाव होता ही नहीं है। अविनाभाव रखने वाला द्रव्य इन तीन रूप ही होता है। आशय यह है कि आत्मा का इस प्रकार जब सदगुरू अपने आत्म स्वरूप के ध्यान में लीन होते हैं तो उनके जोशुद्ध भाव निर्जरा आदि का कारण है वही परम पूज्य है और उससे युक्त आत्मा । समस्त कर्म गलते बिलाते हैं, इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं . ही परमगुरू है।न्यायानुसार गुरुपने का कारण केवल दोषों का नाश हो जाना ही है। कर्म त्रि विनिर्मुक्त, व्रत तप संजम संजुतं । 3 ।जो निर्दोष है वही जगत का साक्षी है और वही मोक्षमार्ग का नेता है. अन्य नहीं। ७ सुद्ध तत्वं च आराध्यं,दिस्टतं संमिक दर्सनं ॥७२॥ २ मुनि की यह छद्मस्थता भी गुरुपने का नाश करने के लिये समर्थ नहीं है; क्योंकि 5 रागादि अशुद्ध भावों का कारण एक मोह कर्म माना गया है। अन्वयार्थ- (सुद्ध तत्वं च आराध्यं) सद्गुरू शुद्ध तत्व, शुद्धात्म स्वरूप की ही यहाँ प्रश्न है कि छद्मस्थ गुरुओं में दोनों आवरण कर्म और वीर्य का नाश आराधना करते हैं (दिस्टतं संमिक दर्सन) जैसा सम्यक्दर्शन में आया था वैसा देखते हैं करने वाला अन्तराय कर्म नियम से है इसलिये उनमें शुद्धता कैसे हो सकती है? , हैं (व्रत तप संजम संजुतं) व्रत तप और संयम में लीन रहते हैं (कर्म त्रि विनिर्मुक्तं) S उसका समाधान करते हैं कि यह बात ठीक है किन्तु इतनी विशेषता है कि इससे तीनों प्रकार के कर्म अपने आपछूटते जाते हैं। * उक्त तीनों कर्मों का बन्ध, सत्व, उदय और क्षय मोहनीय कर्म के साथ अविनाभावी विशेषार्थ- सद्गुरू शुद्ध तत्व की आराधना करते हैं। जैसा सम्यक्दर्शन में है। खुलासा इस प्रकार है कि मोहनीय का बन्ध होने पर उसके साथ-साथ अपने शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव किया था उसे ही देखते हैं। व्रत, तप, संयम में लीन ज्ञानावरणादि कर्म का बन्ध होता है। मोहनीय के सत्व रहते इनका सत्व रहता है। रहते हैं, इससे तीनों कर्मों-द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्मों से मुक्त होते जाते हैं। मोहनीय का पाक होते समय इनका पाक होता है और मोहनीय के क्षय होने पर इसी बात को पंचाध्यायी में गाथा ६२१ से ६३६ में स्पष्ट किया है - इनका क्षय होता है। यदि कोई ऐसी आशंका करे कि छास्थ अवस्था में ज्ञानावरणादि अरहंत और सिद्धों से नीचे जो अल्पज्ञ हैं और उसी रूप अर्थात् दिगम्बरत्व, कर्मों का क्षय होने के पहले ही मोहनीय का क्षय हो जाता है सो ऐसी आशंका करना वीतरागत्व, हितोपदेशित्व को धारण करने वाले हैं वे गुरू हैं, क्योंकि इनमें ठीक नहीं है: क्योंकि मोहनीय का एकदेश क्षय होने से इनका एकदेश क्षय होता है न्यायानुसार गुरू का लक्षण पाया जाता है। यह उनसे भिन्न और कोई दूसरी और मोहनीय का सर्वथा क्षय होने से इनका भी सर्वथा क्षय हो जाता है। सम्यक्दृष्टि अवस्था को धारण करने वाले नहीं हैं। इनमें अवस्था विशेष पाई जाती है। यह बात के समस्त कर्मों की निर्जरा होती है, यह बात असिद्ध भी नहीं है क्योंकि दर्शन यक्ति अनुभव और आगम से सिद्ध है; क्योंकि उनमें शेष संसारी जीवों से कोई मोहनीय के उदय के अभाव होने पर वहां से लेकर वह उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी विशेष अतिशय देखा जाता है। भावि नैगमनय की अपेक्षा से जो होने वाला है वह होने लगती है इसलिये छद्मस्थ गुरुओं के यद्यपि वर्तमान में तीनों कर्मों का सद्भाव उस पर्याय से युक्त की तरह कहा जाता है क्योंकि उसमें नियम से भाव की व्याप्ति कहा गया है तथापि राग-द्वेष और मोह का अभाव हो जाने से उनमें गुरुपना माना पाई जाती है इसलिये ऐसा कहना युक्ति युक्त है। उनमें दर्शन मोहनीय कर्म की गया है। उपशान्ति अर्थात् उपशम, क्षय, क्षयोपशम हो जाने से सम्यक्दर्शन भी पाया जाता यहां देव के स्वरूप आदि का निर्देश करके गुरू के स्वरूप का विचार किया है और चारित्रावरण कर्म का एकदेश क्षय (क्षयोपशम) हो जाने से सम्यक्चारित्र भी गया है। पाया जाता है इसीलिये उनमें स्वभाव से ही शुद्धता सिद्ध होती है और इसकी पुष्टि जो संसारी अवस्था से उठ रहा है किन्तु देवत्व को नहीं प्राप्त हुआ है उसकी 2 करने वाला हेतु भी पाया जाता है क्योंकि उनके मोहनीय कर्म का उदय नहीं है, गरु संज्ञा है। यह संसारी जीव की देवत्व से कड़ी जोड़ता है इसलिये आदर्श के वहाँ मोहनीय कर्म का कार्य भी नहीं पाया जाता है। उनकी यह शुद्धता नियम से समान होने से गुरु इस संज्ञा को प्राप्त होता है। इसमें उन सब गुणों का विकास संवर, निर्जरा का कारण है और क्रम से मोक्ष दिलाने वाली है। यह बात सुप्रसिद्ध है प्रारंभिक अवस्था में प्रयोग रूप से देखा जाता है जो विशेष रूप से देव में पाये जाते अथवा वह शुद्धत्व ही नियम से स्वयं निर्जरा आदि तीन रूप है; क्योकि शुद्ध भावों से हैं। वे गण मख्यतया दिगम्बरत्व, हितोपदेशित्व और वीतरागत्व हैं। यद्यपि इन गुणों Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री बाचकाचार जी गाथा-७२, ४ का बीजारोपण सम्यक्दृष्टि के हो ही जाता है परन्तु यह इनको प्रयोग में लाने लगता जिन्हें संसार के दु:खों की पीड़ा का अनुभव है तथा जिन्हें संसारी जीवों के प्रति करुणा है। इसे देखकर यह स्पष्ट ज्ञान होता है कि यह स्वातन्त्र्य पथ का अद्वितीय पथिक बहती है और निज आत्म स्वभाव ही सच्चा धर्म है इसका सदुपदेश देते हैं। है। इसके इन गुणों के साथ समता, शान्ति, क्षमा, ज्ञान, आत्मीक शक्ति, आत्मीक . सम्यक्दर्शन, निजशुद्धात्म स्वरूप की महिमा बताते हैं। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान सुख आदि दूसरे गुणों का भी विकास होने लगता है; क्योंकि इन गुणों का मुख्य और सम्यक्चारित्र की एकता मात्र मोक्ष का मार्ग है इसके बिना कभी त्रिकाल मुक्ति हो ७ प्रतिबन्धक कर्म मोहनीय माना गया है। इसके दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय नहीं सकती। जो सत्य का स्वयं पालन करते हैं और सब जीवों को इसी का उपदेश इन दोनों प्रकार के मोहनीय कर्म का उपशम, क्षयोपशम या क्षय हो जाता है। देते हैं। जो स्वयं संसार से मुक्त हो ही रहे हैं और भव्य जीवों को भी उसी मुक्ति मार्ग __इस प्रकार सद्गुरू की यह विशेषतायें होती हैं। ऐसे गुरू ही स्वयं तरते हैं पर लगा रहे हैं वही सद्गुरू तारण तरण होते हैं,श्रीममलपाहुड जी ग्रंथ के गुरु दिप्त और भव्य जीवों को तारते हैं। वही गुरू तारण तरण हैं. इसी बात को आगे दो । गाथा में कहा हैगाथाओं में कहते हैं गुरु उवएसिउ गुपित रुइ, गुपित न्यान सहकार। तस्य गुनं गुरुस्चैव,तारनं तारकं पुनः। तारन तरन समर्थ मुनि,गुरु संसार निवार॥१॥ मान्यते सुख दिस्टिच,संसारे तारनं सदा॥७३॥ संसय सल्य विमुक्कु गुरु, भय विलय अभय जिन उत्तु । अभय न्यान सह गुपित रुई,न्यान विन्यान संजन्तु ॥२॥ जावत् सुद्ध गुरं मान्ये,तावत् गत विभ्रम। गुरू जाग्रत करता है। गुप्त आत्मा को अपने गुप्त ज्ञान से मिलाता है जो सल्यं निकंदनं जेन , तस्मै श्री गुरवे नमः ।। ७४॥ १ सद्गुरू (मुनि) स्वयं तर रहा है, वही दूसरों को तारने में समर्थ होता है। गुरु ही इस अन्वयार्थ-(तस्य गनं गरुस्चैव) ऐसे गणों के धारीजो सदगरू होते हैं (तारनं भव संसार जन्म-मरण के चक्कर, दुर्गतियों के दु:खों का निवारण करता है। क्योंकि तारकं पुन:) वह स्वयं तरते हैं और अन्य भव्य जीवों को तारते हैं (मान्यते सद्ध उसके ज्ञान में, अनुभव में सब है,उस सत्य को बताता है। दिस्टिच) जिनकी मान्यता में सम्यक्दर्शन ही (संसारे तारनं सदा) हमेशा संसार से गुरु स्वयं संशय और शल्यों से मुक्त होता है। आत्म स्वरूप का जागरण तारने वाला है। होने से उसके भय विला गये हैं। अभय होकर ज्ञान स्वरूपी अपने अरूपी गुप्त (जावत् सुद्ध गुरं मान्ये) जो कोई ऐसे सच्चे गुरु को मानते हैं ( तावत गत आत्मा को भेद विज्ञान से प्रत्यक्ष अनुभूति में ले लिया है तथा उसी में लीन रहते विभ्रमं) उनका विभ्रम-बहिरात्मपना बिला जाता है (सल्यं निकंदनंजेन) उनकीशल्यें हैं। ऐसे सद्गुरू के शरण और सत्संग से इस जीव का कल्याण होता है। बहिरात्मा भी छूट जाती हैं (तस्मै श्री गुरवे नम:) ऐसे श्री सद्गुरू को बारम्बार नमस्कार है। से अन्तरात्मा होता हुआ परमात्मा बनता है। विशेषार्थ- यहां उस प्रश्न का समापन है जो बहिरात्मा संसार के व्यामोह में ॐ 3 यहाँ कोई प्रश्न करे कि यदि सद्गुरू के योग और सत्संग से जीव का कल्याण फंसा कुदेव, अदेव आदि की पूजा करता है। मिथ्या मान्यता और मिथ्यात्व के जाल * होता है तो भगवान आदिनाथ के समवशरण में मारीचि का क्यों नहीं हुआ तथा में फंसा अपना अनन्त संसार बढ़ाता है, दुर्गतियों का कारण बनाता है। उससे छूटने ॐ भगवान महावीर के समवशरण में हम जैसे बहुत से जीव थे फिर हमारा कल्याण का क्या उपाय है ? इसका उत्तर था सद्गुरू की शरण गहें, उनका सत्संग करें तो 5 क्यों नहीं हुआ? उसका समाधान करते हैं कि भाई ! सत्संग किया ही नहीं तो कल्याण कैसे 9 इस माया जाल से छूट सकते हैं। होगा? सत्संग का अर्थ है सत्य का संग। जिस आत्म स्वरूप का उन्होंने उपदेशX सद्गुरू कैसे होते हैं? यह पूछे जाने पर यहां सद्गुरू का स्वरूप बताया है कि जो अपने रत्नत्रय स्वरूप निज शद्धात्मा की साधना में लीन रहते हैं। संसारी प्रपंच, दिया जो अनाद्यनिधन सत्य शाश्वत है। उस परमब्रह्म परमात्म स्वरूप निज आत्मा । विषय-कषाय, मोह, राग-द्वेष छोड़कर जो निज आत्म स्वभाव में संलग्न रहते हैं, की ओर तो देखा ही नहीं तो सत्संग कहां हुआ? तथा सदगुरू को भी पहिचाना र Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O ७ श्री श्रावकाचार जी गाथा-CUO कब? क्योंकि कुगुरुस्य गुरुं प्रोक्तं, मिथ्या रागादि संजुतं । जो जाणदि अरहंत, दव्यत्त गुणत्त पज्जयत्तेहि। कुन्यानं प्रोक्तं लोके,कुलिंगी असुह भावना ॥५॥ सो जाणदि अप्पाणं,मोहो खलु जादितस्स लयं ॥ अन्वयार्थ- (मिथ्या रागादि संजुतं) मिथ्यात्व, राग-द्वेष सहित हैं (कुन्यानं (प्रवचनसार गाथा-८०) जो अरिहंत को द्रव्यत्व, गुणत्व, पर्यायत्व से जानता है वह अपनी आत्मा को प्रोक्तं लोके) संसार में सब लोगों को कुज्ञान का अधर्म का उपदेश देते हैं (कुलिंगी असुह भावना) कुलिंग को धारण कर झूठा भेष बनाकर अशुभ भावों में रत रहते हैं । जानता है और उसका मोह नाश को प्राप्त होता है। २ (कुगुरुस्य गुरुं प्रोक्तं) ऐसे कुगुरु अपने आपको गुरु कहते हैं। सत्संग और सद्गुरू का समागमतोतब कहलायेगा जब हम जागजायें, अपनी ओर दृष्टि हो जाये और संसार से विरक्तता आजाये उसका नाम सद्गुरू का सत्संग । है विशेषार्थ- यहाँ कुगुरु का स्वरूप बताया जा रहा है कि जो गुरु नहीं है, है। हम नजागें अपनी ओर नदेखें,जो बताया जा रहा है उसे स्वीकार न करें, तो अनंत S जिनमें गुरुपना नहीं है, जो मिथ्यात्व और राग-द्वेष में लीन रहते हैं, संसारी जीवों काल बीत गया और अनंत काल बीत जायेगा । अनन्त सद्गुरू मिले और चले गये, को कुज्ञान और अधर्म की बातें कहते हैं। झूठा भेष बनाकर अशुभ भावों में रत रहते और चले जायेंगे। बात अपनी है अपनी ओर देखें। हैं और अपने आपको गुरु बताते हैं, वह सब कुगुरु हैं। उपदेश देने वाले को, धर्म यथार्थ में तो अपना अन्तरात्मा ही अपना सच्चा सद्गुरू है। जो हमेशा साथ में है। मार्ग पर चलने वालों को संसारी जीव गुरु कहते हैं। लौकिक कामनाओं की सिद्धि उसकी ओर देखें,उसकी सुनें तो अभी बेड़ा पार होजाये, बाहर पर का तो निमित्त कहने 2 के लिये मंत्र-तंत्र आदि पूजा आडम्बर फैलाने वालों को भी लोग गुरु कहते हैं। पर में आता है। सत्य तो स्वयं अपना सत्स्वरूप है। इसका सत्संग करें तो अभी कल्याण हो , गुरु का वास्तविक स्वरूप क्या है ? गुरु की क्या महिमा है ? संसारी जीव के लिये जाये। बाहर तो निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने के कारण कहने में आता है तथा जैसा गुरु कितना महत्वपूर्ण है ? इन बातों का कोई विचार विवेक न करते हुए किसी भी कारण निमित्त होता है वैसा ही कार्य भी होता है यह सब व्यवहार की बातें हैं। हम 5 नाम रूप भेषधारी को गुरु मानना, उसकी बातों में लगना, उस पर विश्वास करना वर्तमान में जिस दशा, जिस भूमिका में बैठे हैं वहां स्वयं अपने आपको देखें और स्वयं का x सबसे बड़ा धोखा है, जो जीव को संसार में पतन का कारण है। जो अपने आपको गुरु निर्णय करें यही कार्यकारी है। १७ बताते हैं ,गुरु कहलवाते हैं, गुरु बनते हैं। अपने ज्ञान की या संयम तप की या अब यहां पुन: प्रश्न है कि सद्गुरू का स्वरूप तो बता दिया अब कुगुरु का 5 अपनी प्रभावना सिद्धि आदि की महंतता बताते हैं सबसे बड़े कुगुरु वही हैं; फिर वह स्वरूप और बताइये; क्योंकि धोखा तो यहीं हो जाता है। अभी हम अज्ञानी हैं, चाहे कोई भी भेष रूप धारी हो। किसी भी प्रलोभन किसी के भी जाल में फंस जाते हैं, यह सब जानने पर कम से गुरु का शाब्दिक अर्थ है भारी या बड़ा, जिसमें भारीपन, गम्भीरता हो कम सतर्क सावधान तो रहेंगे? 9 बड़ापन-बड़प्पन हो, विवेक हो ऐसे सच्चे ज्ञानी को ही गुरु कहते हैं। समाधान-जब तक पर पुद्गलादि संसार की तरफ दृष्टि रहेगी तब तक फंसने : मोक्षमार्ग प्रकाशक में इसी बात को कहा हैकी तो हमेशा ही संभावना है। सतर्कता सावधानी वरतो तो फिर कहना ही क्या है? जो जीव विषय-कषायादि अधर्म रूप तो परिणमित होते हैं और मानादिक रविवेक का जागरण ही मुक्ति का प्रथम सोपान है। इतना जानकर, समझकर इस पर से अपने को धर्मात्मा मनवाते हैं। धर्मात्मा के योग्य क्रिया नमस्कारादि कराते । विचार चिन्तन करने लगें क्योंकि सत्य-असत्य का, सच्चे-झूठे का, हित-अहित है अथवा किंचित् धर्म का कोई अंग धारण करके बड़े धर्मात्मा कहलाते हैं। बड़ेका निर्णय करना ही मूल्यवान है। यही तो मानवता की निशानी है और इसीसे सब कुछ धर्मात्मा योग्य क्रिया कराते हैं। इस प्रकार धर्म का आश्रय करके अपने को बड़ा होना है। सम्यक्दर्शन, धर्म, संयम, साधना और मुक्ति सब इसी पर आधारित है। मनवाते हैं, उन सबको कुगुरु जानना।धर्म पद्धति में तो विषय-कषायादि छूटने पर 2 सद्गुरू तारण स्वामी अब आगे कुगुरु का स्वरूप बता रहे हैं जैसे धर्म को धारण करे, वैसा ही अपना पद मानना योग्य है। A CHACROTION Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Wia puी आचकाचार जी गाथा-७६-७४ Oo कुगुरु कैसे होते हैं इसको और आगे बताते हैं सम्यक्दर्शन है ; इसलिये जो सम्यक्दर्शन से रहित हो उनकी वन्दना नहीं करना कुगुरुं राग संबंधं, मिथ्या दिस्टी च दिस्टितं । चाहिये। राग दोष मयं मिथ्या,इन्द्री इत्यादि सेवनं ॥७६॥ दसण मूलो धम्मो, उवइठो जिणवरेहिं सिस्साणं। त सोऊण सकण्णे,दसण हीणो णवदिव्यो॥२॥ मिथ्या समय मिथ्यं च, प्रकृति मिथ्या प्रकासये। जिनवर सर्वज्ञ देव ने अपने शिष्यों को उपदेश दिया है कि सम्यक्दर्शन ही सुद्ध दिस्टीन जानते , कुगुरु संग विवर्जितं ॥७७॥ धर्म का मूल है। बिना सम्यक्दर्शन अर्थात् निजशुद्धात्मानुभूति के धर्म होता ही नहीं अन्वयार्थ- (कुगुरुं राग संबंध) कुगुरु राग के सम्बन्ध से (मिथ्या दिस्टी च है; इसलिये हे विज्ञ पुरुषो! दर्शन हीन की वन्दना नहीं करना चाहिये, उनकी वंदना दिस्टितं) मिथ्यादृष्टि रहते हैं और शरीरादिपर कोही देखते हैं (राग दोष मयं मिथ्या), मत करो। क्योंकिहमेशा राग-द्वेषमय मिथ्या भावों में लगे रहते हैं (इन्द्री इत्यादि सेवनं) पांचों इन्द्रिय दसण भट्टा भट्टा, दसण भट्टस्स णस्थि णिव्वाणं। के विषयों के सेवन में रत रहते हैं। सिमंतिपरियभट्टा,दसण भट्ठाण सिमंति॥३॥ (मिथ्या समय मिथ्यं च )मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व (प्रकति मिथ्या जो पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे भ्रष्ट हैं। जो दर्शन से भ्रष्ट हैं उनको निर्वाण नहीं प्रकासये) तथा प्रकृति मिथ्यात्व का ही पोषण करते हैं (सुद्ध दिस्टी नजानते) शुद्ध होता; क्योंकि जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वह तो कभी सुलट सकते हैं और मुक्ति प्राप्त दृष्टि को जानते ही नहीं हैं अर्थात् जिन्हें अपने आत्म स्वरुप की खबर ही नहीं है, कर सकते हैं, पर जोदर्शन से भ्रष्ट हैं वह कभी नहीं मुक्त हो सकते बगैर सम्यक्दर्शन (कुगुरु संग विवर्जितं) ऐसे कुगुरुओं का संग वर्जित है, नहीं करना चाहिये, दूर से ' के यह बाह्य वेष, साधुपद आदि कोई कार्यकारी नहीं है। इसलियेही छोड़ देना चाहिये। सम्मत्त सलिल पवहो, णिच्च हियए पवट्टए जस्स। विशेषार्थ- यहां कुगुरु का स्वरूप बतलाया जा रहा है कि कुगुरु कैसे कम्म वालुय वरणं, बन्धुच्चिय णासए तस्स ॥७॥ होते हैं। कुगुरु राग के संबंध से अर्थात् शरीराशक्ति के कारण मिथ्यादृष्टि रहते जिस पुरुष के हृदय में सम्यक्त्व रूपी जल का प्रवाह निरंतर प्रवर्तमान है हैं। शरीरादि पर को ही देखते हैं। शरीर की देखभाल संभाल खाने-पीने में ही लगे उसके कर्म रूपी रज का आवरण नहीं लगता तथा पूर्वकाल में जो कर्मबंध हुआ हो रहते हैं अर्थात् नाना प्रकार के व्यंजन पौष्टिक पदार्थ, रस, मलाई आदि खाने के वह भी नाश को प्राप्त होता है; इसलिये अपना भला चाहते हैं तोलिये ही लालायित रहते हैं। हमेशा राग-द्वेष मय मिथ्या भावों में लगे रहते हैं। जे देसणेसु भट्टा,णाणे भट्टा चरित्त भट्टाय। कषाय का वातावरण बैर-विरोध, ईर्ष्या, द्वेष करना-कराना ही जिनका काम रहता एदे भट्ट वि भट्टा,सेसपि जणं विणासंति ॥८॥ है। जो पांचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन में हीरत रहते हैं। जो दर्शन से भ्रष्ट हैं, ज्ञान से भ्रष्ट हैं, चारित्र से भ्रष्ट हैं वे जीव भ्रष्ट से भी भ्रष्ट है। ऐसे कुगुरु मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व का ही उनका संग मत करो, क्योंकि वह अपना तो अहित आत्म घात कर ही रहे हैं: पर जो पोषण करते हैं अर्थात् इन्हीं भावों में स्वयं लगे रहते हैं तथा दूसरों को भी इन्हीं में जीव उनका उपदेश मानते हैं, संग करते हैं, उनका भी पतन, नाश हो जाता है। इस उलझाये रहते हैं। इनका ही उपदेश देते हैं,जो शुद्धदृष्टि को जानते ही नहीं हैं अर्थात् प्रकार कुगुरु का संग कदापि नहीं करना चाहिये, होवे तो छोड़ देना चाहिये । कुगुरु जिन्हें अपने आत्म स्वरूप की खबर ही नहीं है। जो सम्यक्दर्शन की बात करना, क्या करते हैं? इस बात को आगे कहते हैंसुनना भी पसंद नहीं करते, व्यर्थ चर्चा में लगे रहते हैं। ऐसे कुगुरुओं का संग वर्जित कुगुरुं कुन्यानं प्रोक्तं, सल्यं त्रि दोष संजुतं । है अर्थात् ऐसे कुगुरु का संग नहीं करना चाहिये, वैसा योग होवे तो दूर से ही छोड़ देना कसायं बर्धनं नित्यं, लोक मूहस्य मोहितं ।। ७८॥ चाहिये इसी बात को कुन्दकुन्दाचार्य दर्शन पाहुड़ में कहते हैं कि धर्म का मूल Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी इन्द्रियानां मनोनाथा, पसरंतं प्रवर्तते । विसयं विषम दिटं च ममतं मिथ्या भूतयं ।। ७९ ।। अनृतं उत्साहं कृत्वा, अभावं असुहं परं । माया अनृत असत्यस्य, कुगुरुं संसार स्थितं ॥ ८० ॥ आलापं असुहं वाक्यं, आरति रौद्र संजुतं । क्रोध लोभ अनंतानं, कुलिंगी कुगुरुं भवेत् ॥ ८१ ॥ अन्वयार्थ - (कुगुरुं कुन्यानं प्रोक्तं) कुगुरु कुज्ञानमयी झूठी-सच्ची अनर्गल बातें कहता है (सल्यं त्रि दोष संजुतं) और तीन शल्यों-माया, मिथ्या, निदान के दोष सहित होता है (कसायं बर्धनं नित्यं) हमेशा कषाय के वातावरण को ही बढ़ाता रहता है (लोक मूढस्य मोहितं) लोकमूढ़ता में स्वयं मोहित रहता है तथा मूढ़ लोगों को मोहित करता रहता है अर्थात् इधर-उधर की बातों में भ्रमाता रहता है । (इन्द्रियानां मनोनाथा) मन, इन्द्रियों का राजा होता है (पसरंतं प्रवर्तते) वह हमेशा फैलता और दौड़ता रहता है (विसयं विषम दिस्टं च) व्यसन और विषयों को ही देखता है (ममतं मिथ्या भूतयं) ममत्व का मिथ्या भूत लगा रहता है। (अनृतं उत्साहं कृत्वा) क्षणभंगुर, नाशवान पौद्गलिक जड़ पदार्थों के बनवाने, करवाने में बड़ा उत्साहित रहता है (अभावं असुहं परं) पर के प्रति हमेशा अशुभ भाव करता रहता है (माया अनृत असत्यस्य) माया-संसारी पदार्थ तो सब नाशवान झूठे हैं लेकिन (कुगुरुं संसार स्थितं) कुगुरु इन्हीं संसारी पदार्थों में लिप्त रहकर संसार में स्थित रहता है। (आलापं असुहं वाक्यं) अशुभ झूठे कुबोल बोलता है (आरति रौद्र संजुतं) आर्त, रौद्र ध्यान में लगा रहता है, इन्हीं में लीन रहता है (क्रोध लोभ अनंतानं) अनन्तानुबन्धी क्रोध, लोभ, माया और मान चारों कषायें उसके सिर पर चढ़ी रहती हैं (कुलिंगी कुगुरुं भवेत् ) ऐसा कुलिंगी, झूठा वेषधारी कुगुरु होता है। विशेषार्थ - यहाँ कुगुरु कैसे होते हैं, और क्या करते हैं, यह बताया जा रहा है। कुगुरु, धर्म के विपरीत झूठी-सच्ची कुज्ञानमयी बातें कहता है। मिथ्या, माया, निदान इन तीन शल्यों के दोष सहित होता है। अब क्या होगा ? ऐसा न हो जाये ? ऐसा करो तो ऐसा हो जायेगा। इन्हीं शल्यों में निरंतर लगा रहता है। लोगों को 3 A GAS A YEA renes ६१ गाथा - ७८.८१ लड़ाना, बैर-विरोध पैदा करना, सामाजिक वातावरण को दूषित करना, आपस में मन मुटाव पैदा करना, इधर की उधर लगाना, इन्हीं बातों में लगा लोगों को उलझाता रहता है। स्वयं लोक मूढ़ता में रत रहता है और लोकमूढ़ता का ही पोषण करके लोगों को फंसाता रहता है। इन कुगुरुओं का जाल संसार में फैला है। इनका कोई वेष, रूप नहीं होता। जो संसार के गर्त में डालें, संसारी व्यवहार का उपदेश देवें, पाप विषय कषायों में फंसावें वह कुगुरु होते हैं और संसार में इस जीव को इन पांच कुगुरुओं का संग मिला हुआ है, वे हैं - १. माता, २ . पिता, ३. पत्नि, ४. मित्रबन्धु, ५. धर्म के गुरु, इनसे जो बचे छूटे और सद्गुरु का सत्संग करे वही मुक्त हो सकता है । मन, इन्द्रियों का नाथ होता है, वह हमेशा फैलता और दौड़ता रहता है। व्यसन और विषयों को ही देखता है। कुगुरु मन के आधीन होता है, मन का संचालन माया और मोह के द्वारा होता है। इसको ममता का मिथ्याभूत लगा रहता है इसलिये सबको अपना मानता है। मन वाले प्राणियों के मन ही मुख्य होता है। मन की प्रेरणा से इन्द्रियाँ काम करती हैं। यह मन ऐसा चंचल या अनर्थ काम करने वाला है कि बड़ेबड़े कठिन इन्द्रियों के विषयों की तरफ अपनी दृष्टि डालता है। उनको प्राप्त करने की व उनको भोगने की चाहना किया करता है। यदि इस चंचल घोड़े (मन) पर संयम रूपी लगाम न हो, तब तो यह कहाँ-कहाँ जाता है, क्या-क्या चाहता है, इसकी कोई मर्यादा सीमा नहीं है। वृहत् सामायिक पाठ में श्री अमितगति आचार्य मन का चारित्र कहते हैंभजसि दिविजयोषा यासि पाताल भंग | भ्रमसि धरणिष्ट, लिप्स्यसे स्वांत लक्ष्मीम् ॥ अभिलषसि विशुद्धां व्यापिनी कीर्तिकांतां । प्रशम मुख सुखाग्धि, गाहसे त्वं न जातु ॥२८॥ हे मन ! तू देवियों को भोगना चाहता है, कभी पाताल में जाता है, कभी सारी पृथ्वी पर घूमता है, मनमानी लक्ष्मी चाहता है, जगत व्यापिनी निर्मल कीर्ति चाहता है, तू चाह की दाह में ही जला करता है किन्तु सुख शान्तिमय निज आत्म स्वरूप अमृत समुद्र में कभी भी गोता नहीं लगाता है। संसारी नाशवान क्षणभंगुर पौद्गलिक पदार्थों को बनवाने, करवाने में बड़ा उत्साहित रहता है। मंदिर, तीर्थ, क्षेत्र, धर्मशाला आदि धर्म के नाम पर पापारम्भ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-४२-४५ करता है। पर के प्रति हमेशा अशुभ भाव करता रहता है। किसी का भला विचारता जो मुनि राग अर्थात् अभ्यंतर पर द्रव्यों से प्रीति वही हुआ संग अर्थात् परिग्रह है, किसी का बुरा विचारता है। जो सेवा सत्कार आदि करता है, उसे आशीर्वाद देता उससे मुक्त हैं और जिन भावना अर्थात् शुद्ध स्वरूप की भावना से रहित हैं, वे द्रव्य है। जो सेवा सत्कार, सम्मान आदि नहीं करता, उसके प्रति अशुभ भाव करता है। निग्रंथ हैं, तो भी निर्मल जिन शासन में जो समाधि अर्थात् धर्म शुक्ल ध्यान और माया, संसारी पदार्थ धन, वैभव, पद, प्रतिष्ठा, नाम आदि तो सब नाशवान झूठे हैं, बोधि अर्थात् सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग को नहीं पाते हैं। सब मिट जाने वाले हैं लेकिन कुगुरु इन्हीं संसारी प्रपंचों में स्थित लिप्त रहता है। ऐसे वेषधारी ही कुगुरु होते हैं जो स्वयं संसार में परिभ्रमण करते हैं तथा अन्य __अशुभ झूठे कुबोल बोलता है। कटुक कठोर अपशब्द बोलता है। आर्त-रौद्र जीवों को भी पतन के कारण होते हैं। इनके संग से कितना अहित होता है, इसको ध्यान में लीन रहता है। उसे निरन्तर आर्त भाव-इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, पीड़ा उदाहरण सहित आगे कहते हैंचिन्तवन, निदान बंध रूप परिणाम चलते रहते हैं तथा रौद्र भाव-हिंसानंदी, कुगुरुं पारधी संजुक्तं, संसारे वन आश्रयं । मृषानंदी, चौर्यानंदी, परिग्रहानंदी रूप परिणाम चलते रहते हैं। क्रोध, लोभ, माया, लोक मूढस्य जीवस्य, अधर्म पासि बंधनं ॥८२॥ मान रूप चारों कषायें सिर पर चढ़ी रहती हैं, इन्हीं में लिप्त रहता है। ऐसा कुलिंगी, झूठा वेषधारी कुगुरु होता है। इसी बात को भाव पाहुड में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने आरंडते वनं जीवा, वृष डाल पारधी करें। कहा है विस्वासं अहं बंधे, लोकमूहस्य किं पस्यते॥८३॥ अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण । कुगुरुं अधर्म पस्यंतो, अदेवं कृत ताड़की। पेसुण्णहासमच्छरमाया बहुलेण सवणेण ॥६९॥ विकहा राग दंड जालं,पास विस्वास मूत्यं ।। ८४॥ हे मुने! तेरे ऐसे नग्नपने से तथा मुनिपने से क्या साध्य है? कैसा है-पैशून्य अर्थात् दूसरे के दोष कहने का स्वभाव, हास्य अर्थात् दूसरे की हंसी करना, मत्सर वन जीवा गणं रुदनं, अहं बंधति जन्मयं । अर्थात् अपने बराबर वाले से ईर्ष्या रखकर दूसरे को नीचा करने की बुद्धि, माया अगुरुं लोक मूढस्य,बंधते जन्म जन्मयं ॥८५॥ अर्थात् कुटिल परिणाम यह भाव उसमें प्रचुरता से पाये जाते हैं, इसीलिये पाप से अन्वयार्थ- (कुगुरुं पारधी संजुक्त) कुगुरु पारधी शिकारी के समान होते हैं मलिन है और अयश अर्थात् अपकीर्ति का भाजन है। धर्म की हंसी कराने वाला (संसारे वन आश्रय) संसार वन में आश्रय निवास करने वाले (लोक मूढस्य जीवस्य) है। आगे इसी को और कहते हैं लोकमूढता वाले जीवों को (अधर्मं पासि बंधन) अधर्म रूपी जाल में फांसकर बांध धम्मम्मिणिप्पवासो दोसा वासोय उच्छफल्लसमो। - लेते हैं। णिप्फलणिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूवेण ॥७१॥ (आरंडते वनं जीवा) घोर भयानक संसार रूपी वन में जीव (वृष डाल पारधी धर्म अर्थात् अपना स्वभाव तथा दस लक्षण स्वरूप में जिसका वास नहीं है। करं) कुगुरु रूपी पारधी के द्वारा चारों तरफ फैलाये गये अधर्म रूपीजाल में (विस्वासं वह जीव दोषों का आवास है अथवा जिसमें दोष रहते हैं, वह इक्षु के फूल समान अहं बंधे) विश्वास करके खुद बंध जाते हैं (लोक मूढस्य किं पस्यते) लोक मूढ़ता र है। जिसमें न तो कुछ फल ही लगते हैं और न उसमें गंधादिक गुण ही पाये जाते हैं; वाला जीव कुछ नहीं देखता है। इसलिये ऐसा मुनि तो नग्न रूप धारण करके नटश्रमण अर्थात् नाचने वाले भाँड़ के (कुगुरुं अधर्म पस्यंतो) कुगुरु अधर्म बताते हैं (अदेवं कृत ताड़की) स्वाँग के समान है। आगे इसी को और कहते हैं अदेवों-कुदेवों के भय बताकर जीवों को भयभीत करते हैं (विकहा राग दंड जालं) जे राय संगजुत्ता जिणभावण रहिय वव्वणिगंथा। झूठी कथायें मनगढंत बातें बताकर कि ऐसी मान्यता करने से उसका ऐसा हो गया, ण लहंति ते समाहि बोहिं जिणसासणे विमले ॥७२॥ उसने ऐसा नहीं माना तो उसका ऐसा अहित हो गया। ऐसे राग का और दंड का Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७७ ॐ श्री आवकाचार जी जाल फैलाते हैं (पास विस्वास मूढयं) इनका विश्वास करके मूढ़ लोग फंस जाते हैं। (वनं जीवा गणं रुदनं) वन के जीव हिरन आदि जाल में फंसने के बाद रुदन करते हैं (अहं बंधंति जन्मयं) अब हमारी मौत आ गई, हम इस जन्म में नहीं छूट सकते (अगुरुं लोक मूढस्य) अगुरु खोटे गुरु के जाल में फंसे लोकमूढ़ता वाले जीव (बंधते जन्म जन्मयं) जन्म जन्मान्तर के लिये बंध जाते हैं। A YA YESU Ar yr. बिशेषार्थ - कुगुरु का स्वरूप क्या है, उनका संग कितना दुःखदायी होता है यहां इसका उदाहरण दिया जा रहा है कि जैसे- पारधी शिकारी, हिंसक होते हैं। जो नाना वेष बनाये हमेशा अपने साथ जाल और शिकार का सामान लिये रहते हैं तथा चारों तरफ शिकार के लिये नाना प्रकार के जाल फैलाये रहते हैं। वह भी जंगल में और उसके आस-पास ही रहते हैं और हमेशा शिकार की खोज में ही घूमते रहते हैं। इसी प्रकार इन कुगुरुओं की भी एक जमात होती है। इनके साथी अनुयायी भी इस प्रकार संसारी जीवों को अधर्म रूपी जाल में फंसाने के लिये चारों तरफ घूमते रहते हैं। इस भयानक घोर संसार रूपी वन से निकलने के लिये जीव छटपटाते हैं। और इन कुगुरुओं के जाल में फंस जाते हैं। यह ऐसा विश्वास दिलाते हैं, इतना छल छिद्र मायाचारी फैलाते हैं कि लोग इनके जाल में फंस जाते हैं ऐसी झूठी कपोलकल्पित बातें गढ़ते हैं कि अमुक जगह अमुक देव गड़े थे, उनने स्वप्न • दिया । वहाँ ऐसी मूर्ति निकली उसमें ऐसे चमत्कार हैं। उसकी मान्यता करने से फलाँ का यह हो गया, किसी को धन मिल गया, किसी को पुत्र पैदा हो गया, किसी का रोग दूर हो गया, उसने ऐसी मान्यता की थी तो उसका ऐसा काम हो गया, उसने विराधना की तो उसे ऐसा दंड मिला, पुत्र मर गया, धन चला गया आदि नाना प्रकार के प्रलोभन और भय दिखाकर कुदेव, अदेव आदि की पूजा मान्यता में फंसा लेते हैं। संसारी जीव इनके विश्वास में फंस जाते हैं। जंगल में फंसे हुए हिरन आदि तो एक जन्म के लिये ही रुदन करते हैं परंतु इन कुगुरु, अगुरुओं के जाल में फंसे जीव तो जन्म-जन्मान्तर तक रोते रहते हैं; क्योंकि उनका फिर इस संसार रूपी वन से निकलना मुश्किल हो जाता है। > पारधी के पाल में फंसकर पशुओं को एक जन्म में ही रुदन कर-करके दुःख उठाना पड़ते हैं परन्तु जो कुगुरु रूपी पारधी के जाल में फंस जाते हैं, वे जन्म-जन्म में दुःख उठाते हैं। मूढ़ प्राणी संसार शरीर भोगों का लोलुपी होते हुए कुगुरु के अधर्ममय उपदेश का और कुगुरु का विश्वास कर लेते हैं। अनेक कुदेवों 24 गाथा- ८६-८७X को व अदेवों को पूजते हैं, मन में भय रखते हैं कि यदि इनको न मानेंगे तो यह हमसे नाराज होकर हमारा अनिष्ट कर देंगे। इस तरह कुदेव, कुगुरु, कुधर्म को मानते हुए विकथाओं के राग में फंसे रहते हैं। 'विकहा अधर्म मूलस्य' विकथा अधर्म की जड़ है, जिसमें मूढ प्राणी फंसे रहते हैं। झूठी-सच्ची कपोल कल्पित मनगढन्त इधर-उधर की सुनी सनाई बातें करना, राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा, भोजन कथा में अपना समय बरबाद करना, कथा कहानी पढ़ना इनसे भय और भ्रम पैदा होता है। यह जीवन को अशान्त उद्विग्न और भयभीत बना देती हैं। इनमें फंसे जीव हमेशा भयभीत रहते हैं । विकथाओं का विश्वास करने से मिथ्यात्व का पोषण होता है, घोर पाप बन्ध होता है, जिससे मरकर दुर्गति में जाना पड़ता है। कुगुरुओं के जाल में फंसा जीव इसी प्रकार के नाना कष्ट भोगता दुर्गतियों में रुलता रहता है, यहाँ भी नाना प्रकार के दुःख भोगता है, हमेशा चिन्तित भयभीत रहता है और आगे क्या होता है ? वह आगे कहते हैं अगुरस्य गुरुं मान्ये, मूढ़ दिस्टि च संगता । नरा नरयं जांति, सुद्ध दिस्टी कदाचना ॥ ८६ ॥ अनृतं अचेतं प्रोक्तं, जिन द्रोही वचन लोपनं । विस्वासं मूढ जीवस्य, निगोयं जायते धुवं ॥ ८७ ॥ अन्वयार्थ - (अगुरस्य गुरुं मान्ये) कुगुरुओं को गुरु मानने वाले (मूढ़ दिस्टि च संगता) और मूढ़ मिथ्यादृष्टियों की संगति करने वाले (ते नरा नरयं जांति) जो मनुष्य हैं वह नरक ही जाते हैं (सुद्ध दिस्टी कदाचना) उन्हें कभी भी सम्यक्दर्शन आत्म श्रद्धान नहीं होता । (अनृतं अचेतं प्रोक्तं ) जो अचेतन अर्थात् मूर्ति आदि की पूजा उपासना करने और बाह्य क्रिया करने को धर्म कहते हैं, उपदेश देते हैं (जिन द्रोही वचन लोपनं) वह जिनद्रोही जिनेन्द्र के वचनों का लोपन करने वाले हैं (विस्वासं मूढ जीवस्य ऐसे मूढ़ जीवों का विश्वास करने से (निगोयं जायते धुवं) निश्चय ही निगोद जाना पड़ता है। विशेषार्थ - यहाँ कुगुरु की मान्यता संगति करने का क्या परिणाम होता है, यह बताया जा रहा है। जो ऐसे कुगुरुओं को, जो पारधी जैसे हैं, गुरु मानते हैं। ऐसे ६३ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी मूढ़ मिथ्यादृष्टियों की संगति करते हैं, वे जीव नरक जाते हैं। उन्हें शुद्धदृष्टि आत्म श्रद्धान नहीं होता तथा जो अचेतन मूर्ति आदि की पूजा वन्दना भक्ति करने और बाह्य क्रिया करने को धर्म कहते हैं, वे जिनद्रोही जिनेन्द्र के वचनों का लोप करने वाले हैं; क्योंकि जिनेन्द्र परमात्मा ने तो शुद्धात्म स्वरूप को धर्म कहा है एगो मे सासदो अप्पा, णाण दंसण लक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ॥ | नियमसार गाथा - १०२ ॥ निश्चय कर मेरा आत्मा एक अविनाशी है, ज्ञान दर्शन लक्षण का धारी है। मेरे आत्मीक भाव के सिवाय अन्य सर्व भाव मुझसे बाहर हैं तथा सर्व ही भाव संयोग लक्षण हैं। इसके अतिरिक्त अरहंत सिद्ध चेदिय, पवयण गणणाण भक्ति संपण्णो । बंधदि पुणं बहुसो, गहु सो कम्मक्खयं कुणदि ॥ ॥ पंचास्तिकाय - १६६ ॥ देव शास्त्र गुरु धर्म में, करता भक्ति महान । पुण्य बंध बहुविधि करे, नहीं कर्म क्षय जान ॥ तो जो धर्म के वास्तविक स्वरूप का लोप करते हैं, ऐसे मूढ़ जीवों का विश्वास करने से निश्चित ही निगोद में जाना पड़ता है। जिनेन्द्र भगवान ने जैसा अनेकान्त स्वरूप वस्तु को बताया है, शुद्धोपयोग को धर्म बताया है। संसार शरीर भोगों से वैराग्य सिखाया है। अहिंसा पालने को मुख्य कर्तव्य बताया है। वीतरागता ही इष्ट हितकारी है इत्यादि श्री जिन का जो उपदेश है, उस उपदेश का लोप करके जैन गुरु नाम धराकर जो ऐसे विपरीत, राग-द्वेष वर्धक, मिथ्यात्व पोषक उपदेश देना श्री जिनेन्द्र भगवान के साथ मानो द्रोह करना है, उनकी विराधना करना है। ऐसे मूढ़ कुगुरुओं के कथन पर जो विश्वास करते हैं उनके अनुसार चलते हैं, वे जीव नरक निगोद जाते हैं। वहाँ से निकलना बहुत दुर्लभ होता है। मकान, मठ, खेत, बाग आदि रखते हुए उनकी व्यवस्था और संभाल करते हुए तथा गद्दी तकिये पर शयन करते हुए राग वर्द्धक कथा वार्तालाप करते हुए पालकी आदि पर चढ़कर चलते हुए भी अपने को दिगम्बर जैन का गुरु मानकर लोगों से उसी समान भक्ति पूजा वन्दना करवाना, अपने को आचार्य समझना, अपने आडंबर के लिये लोगों को धर्म के नाम पर लूटना, धन पैसा इकट्ठा करना, खान-पान में मनमानी करना आदि क्रियायें श्री जिन वचनों का उल्लंघन करने वाली हैं। २०७ SYA YA YA YA. ६४ गाथा ८८-९० G जिनवाणी में परिग्रह को पाप कहा है। आरम्भ-परिग्रह रहित परम वैराग्यवान, इन्द्रिय विजयी, शुद्धात्म रमी को जिन साधु कहा है। जो अपने को जैन साधु मानकर जिन आज्ञा लोप कर विपरीत कहते, मानते व चलते हैं, भक्तों को भी यही विश्वास कराते हैं ऐसे जिन द्रोही, मिथ्यावादी कुगुरु पाषाण की नौका के समान स्वयं भी भव सागर में डूबते हैं, नरक निगोद जाते हैं तथा जो इनका विश्वास करते हैं, वह जीव भी भव संसार में डूबते, नरक निगोद जाते हैं; इसलिये ऐसे कुगुरुओं को नहीं मानना चाहिये। किसी भी लाज, भय, आशा, स्नेह, व्यवहारिकता से मानना दुर्गति का कारण है, इसी बात को आगे कहते हैं दर्सन भुस्ट गुरुस्वैव, अदर्सनं प्रोक्तं सदा । मानते मिथ्या दिल्टी च, न मानते सुद्ध दिस्टितं ॥ ८८ ॥ कुगुरुं संगते जेन, मानते भय लाजयं । आसा स्नेह लोभं च, मानते दुर्गति भाजनं ॥ ८९ ॥ कुगुरुं प्रोक्तं जेन, वचनं तस्य विस्वासतं । विस्वासं जेन कर्तव्यं, ते नरा दुष भाजनं ॥ ९० ॥ अन्वयार्थ (दर्सन भृस्ट गुरुस्चैव) सम्यक्दर्शन से भ्रष्ट गुरु को ही (अदर्सनं प्रोक्तं सदा) हमेशा मिथ्यादृष्टि कहा है (मानते मिथ्या दिस्टी च) ऐसे मिथ्यादृष्टि कुगुरुओं को मिथ्यादृष्टि ही मानते हैं (न मानते सुद्ध दिस्टितं) सम्यकदृष्टि कभी नहीं मानते। (कुगुरुं संगते जेन) जो जीव कुगुरु की संगति करते हैं (मानते भय लाजयं) तथा किसी लाज या भय से मानते हैं (आसा स्नेह लोभं च) अथवा किसी आशा स्नेह लोभ के वशीभूत होकर मानते हैं (मानते दुर्गति भाजनं) वे मनुष्य दुर्गति के पात्र होते हैं अर्थात् दुर्गतियों में रुलते रहते हैं । उनके वचनों पर विश्वास करते हैं (विस्वासं जेन कर्तव्यं) उसका विश्वास करना (कुगुरुं प्रोक्तं जेन) जो जीव, कुगुरुओं ने जो कहा है (वचनं तस्य विस्वासतं) अपना कर्तव्य मानते हैं (ते नरा दुष भाजनं) वे मनुष्य दुर्गति के पात्र बनते हैं अर्थात् दुर्गति में जाते हैं। विशेषार्थ जो जिन आज्ञा का उल्लंघन करके, और का और जाने, माने तथा उपदेश करे अर्थात् अचेतन अदेवादि की पूजा उपासना व बाह्य क्रिया को धर्म ७०७ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POOO श्री बावकाचार जी कहे, उसका जिन वचनों पर श्रद्धान न होने से वह व्यवहार से भी रहित है। निश्चय करके वीतराग मार्ग के पथिक बनते हैं बाह्य में नग्न दिगम्बर रहते हैं: पर मिथ्यात्व सम्यक्दर्शन तो उसके पास हो ही नहीं सकता। ऐसे कुगुरु सदा ही मिथ्यादर्शन से और विपरीत आचरण होने से वह भी कुगुरु हैं। जो कुदेवादि की मान्यता पूजादि को लिप्त रहते हैं। उनको जिन वचनों का भय नहीं रहता वे मनमानी करते और धर्म कहते हैं। यंत्र-तंत्र, गण्डा,ताबीज आदि देते हैं, बताते हैं। धनादि संग्रह करते स्वच्छन्दता वरतते हैं। सम्यक्दर्शन से रहित भ्रष्ट गुरुओं को मिथ्यावृष्टि ही मानते हैं, साम्प्रदायिक द्वेष फैलाते हैं वे सब कुगुरु हैं। इसी बात को अमृतचन्द्राचार्य ने ७ हैं, सम्यकदृष्टि कभी नहीं मानते। जो जीव कुगुरुओं की संगति करते हैं तथा किसी समयसार कलश में कहा हैलाज या भय से मानते हैं अथवा किसी आशा, स्नेह, लोभ के वशीभूत होकर मानते 5 सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमई जातु बंधो न मे स्या। हैं, वे मनुष्य दुर्गति के पात्र होते हैं अर्थात् दुर्गतियों में ही रुलते हैं। इसी बात को वित्युत्तानोत्पुलक वदना रागिणोडप्या परन्तु ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है आलम्बन्ता समिति परत ते यतोऽद्यापि पापा। भयाशा स्नेह लोभाच्च, कुदेवागम लिंगिनाम्। आत्मानात्मावगम विरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः॥ १३७॥ प्रणाम विनयं चैव, न कुर्यु शुद्ध दृष्यः ॥ ३०॥ जो रागी होते हुए भी ऐसा माने कि मैं तो सम्यक्दृष्टि हूँ, मुझे तो कभी बंध हो सम्यकदृष्टि किसी भी भय, आशा, स्नेह, लोभ से कभी भी किसी कदेव, ही नहीं सकता और घमण्ड में रहे, चाहे जैसा आचरण करे अथवा बाहर से ईर्या कुशास्त्र व कुगुरु को प्रणाम, विनय नहीं करता। जिन कुगुरुओं का स्वरूप ऊपर आदि पांच समिति को भी पाले तो भी वह पापी ही है। सम्यक्त्व से खाली है, कहा गया है, वे सब मोक्षमार्ग के सच्चे स्वरूप के न स्वयं श्रद्धावान हैं और न उसको क्योंकि उसको आत्मा-अनात्मा का सम्यक् भेदज्ञान नहीं हुआ है। यथार्थ कहते हैं; किन्तु एकांत, विपरीत, विनय, संशय, अज्ञान रूप कुनय मिथ्यात्व। र मोक्षमार्गी स्वाद्वादी होता है। जो ज्ञान और क्रिया दोनों के साथ यथासम्भव के पोषक उनके वचन होते हैं। वे वचन विश्वास करने योग्य नहीं हैं। जो कोई मढS मैत्री, समन्वय रखता हुआ चलता है। मनुष्य कुगुरु को कुगुरु जानते-मानते हुए भी किसी के भय से कोई लाज से.या में स्यावाद कौशल सुनिश्चल संयमाभ्या, किसी आशा सेव किसी के स्नेहवशयालोभ के कारण उनकी भक्ति करते हैं, उनको यो भावयत्य हरहः स्वमिहोप युक्तः। मानते हैं, उनकी संगति करते हैं या उनके वचनों पर विश्वास करते हैं, वे मानव ज्ञान क्रियानय परस्पर तीव्र मैत्री, मिथ्यात्व की पुष्टि या अनुमोदना के दोषी होते हुए, घोर पाप बांधकर नरक निगोदर पात्रीकृतः श्रयति भूमि मिमांस एकः ॥२६७ ॥ पशुगति आदि में जाकर कष्ट पाते हैं। जो जीव कुगुरुओं ने जो कहा है उनके वचनों जो स्याद्वाद में चतुर है व संयम में निश्चल है और उपयोगवान होकर निरन्तर पर विश्वास करते हैं। उनका विश्वास करके उनके कथनानुसार अपना कर्तव्य आत्मा की भावना करता है, वह ज्ञान दृष्टि और क्रियादृष्टि इनमें परस्पर मैत्री रखता मानते हैं, वे मनुष्य दुर्गति के पात्र बनते हैं, क्योंकि कुगुरु बाह्य क्रियाकांड पूजादि हुआ इस मोक्षमार्ग की भूमि को आश्रय करने वाला है। या बाह्य आचरण,खान-पान, रहन-सहन को ही धर्म बताते हैं। साम्प्रदायिक द्वेष इसी बात को श्री तारण स्वामी ने पंडित पूजा की ३२ वीं गाथा में कहा हैफैलाते हैं। जाति-पांति का विरोध और आपस में मन मुटाव तथा मनुष्यों में धर्म के एतत् संमिक्त पूजस्या, पूजा पूज्य समाचरेत। नाम पर भेदभाव पैदा करते हैं। राग-द्वेष का वातावरण बनाते रहते हैं। जो इनकी मुक्ति श्रियं पथं सुद्ध, विवहार निस्चय सास्वतं ॥३२॥ बातों में लगते हैं, इनके कथनानुसार आचरण करते हैं, वह वर्तमान में भी भयभीत सच्ची पूजा क्या है? सच्ची पूजा वह है जहाँ पूज्य के समान पूजक का अशान्त रहते हैं और भविष्य में दुर्गति में जाते हैं। आचरण हो। मुक्ति का मार्ग क्या है ? मुक्ति का श्रेष्ठ मार्ग वह है जो शुद्ध व्यवहार और सामान्यत: साधु को ही गुरु कहते हैं और मानते हैं। इनमें कुवेषधारी जटाजूट, निश्चय से शाश्वत है, जहाँ दोनों की परस्पर मैत्री है। यही बात पुरुषार्थ सिद्धयुपाय लाल, पीले वस्त्रधारी आदि तो प्रत्यक्ष ही असाधु. कगुरु हैं पर जो जिनलिंग धारण मेंकहते हैं Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ poun श्री श्रावकाचार जी येनाशेन सुदृष्टिस्तेनाशेनास्य बन्धनं नास्ति। की मान्यता पूजा दर्शन आदि की बात करते हैं, नियम कराते हैं। या किसी लौकिक येनाशेन तु रागस्तेनाशेनास्य बन्धनं भवति ॥२१२॥ मूढता में फंसाते हैं। उनके जाल में फंसना कदेव अदेव आदि की पूजा, मान्यता, जितने अंश परिणामों में सम्यक्दर्शन है, उतने अंश में बंध नहीं होता है। र दर्शन आदि का नियम लेना और गुरुमानकर आहारदान आदि देना घोर मिथ्यात्व के जितने अंश रागभाव है, उतने अंश बंध होता है। इस बात को सम्यक्त्वी भले प्रकार बंध और नरक निगोद जाने का कारण हैं क्योंकि कुदेव अदेवादि की पूजा मान्यता जानता है, उसी प्रकार आचरण करता है, रागादि के निमित्तों से बचता है। वीतरागमय ग्रहीत मिथ्यात्व है। ढोंगी साधु भ्रष्ट आचरण करने वाले को दानादि देना पापबंध का रहने का पुरुषार्थ करता है। जो स्वयं ऐसा है, ऐसा रहे, ऐसा कहे-वही सच्चा गुरू है। कारण है; इसलिये बड़े विवेक से काम करना चाहिये, जिसमें अपनी श्रद्धा विचलित इसके विपरीत सब कुगुरु हैं। मूढ लोग ऐसे कुगुरु को गुरू मानकर ठगाये जाते हैं। न हो, किसी कुमार्ग में न फंस जायें। लौकिक प्रलोभन आत्मा का घात करने वाला है सम्यक्दृष्टि कभी भी कुगुरुओं को गुरू नहीं मानते। है क्योंकि कुगुरु-कुधर्म, अधर्म का पोषण करने वाले होते हैं। जो इनकी बातों में लगते यहाँ कोई प्रश्न करे कि ठीक है कुगुरु की मान्यता वन्दना भक्ति नहीं करना हैं, इनकी आराधना भक्ति करते हैं, वह संसार में रुलते नाना दुःख भोगते हैं। इसी चाहिये, उनकी बात नहीं मानना चाहिये, उनकी बातों का विश्वास नहीं करना बात को आगे गाथा में कहते हैंचाहिये, परन्तु अभी हम गृहस्थ, संसारी व्यवहार में बैठे हैं तो लौकिक व्यवहार में कुगुरु ग्रंथ संजुक्तं, कुधर्म प्रोक्तं सदा। नमस्कार आदि करना चाहिये या नहीं? तथा आहारदान आदि देना चाहिये या नहीं? असत्य सहितो हिंसा,उत्साहं तस्य क्रीयते ॥११॥ उसका समाधान करते हैं कि लौकिक व्यवहार धार्मिक व्यवहार से भिन्न है। धार्मिक व्यवहार में सम्यक्त्वी धर्म पद्धति से व्यवहार करेगा; परन्तु लौकिक व्यवहार ते धर्म कुमति मिथ्यातं,अन्यानं राग बंधनं । में लौकिक रीति से व्यवहार करेगा । लौकिक व्यवहार को लौकिक मानते हुए वS आराध्य जेन केनापि, संसारे दुष कारनं ॥ १२॥ लोक में प्रचलित लौकिक विनय करते हुए सम्यक्त्वी को श्रद्धान में कोई दोष नहीं अन्वयार्थ- (कुगुरु ग्रंथ संजुक्तं) कुगुरु बन्धन सहित होते हैं अर्थात् चौबीस आता । जैसे- राजा, हाकिम, अपने से बड़े सेठ आदि के पास जाते हुए या किसी प्रकार के परिग्रह में बंधे होते हैं (कुधर्म प्रोक्तं सदा) वे हमेशा कुधर्म की ही चर्चा त्यागी,साधु आदि को देखकर यथायोग्य विनय नमस्कार आदि करना, यह तोव्यवहार करते हैं, उसी में रत रहते हैं (असत्य सहितो हिंसा) हिंसा, झूठ आदि सहित होते विनय है। इससे लौकिक व्यवहार भी ठीक रहता है तथा विनम्रता आती है। लौकिक हैं (उत्साहं तस्य क्रीयते) और उत्साह पूर्वक यही सब करते रहते हैं। विनय करने से धार्मिक श्रद्धान में बाधा नहीं आती। व्यवहार में कटुता और द्वेष न २ (ते धर्म कुमति मिथ्यातं) वे कुमति मिथ्यात्व आदि को ही धर्म कहते हैं तथा फैले, इसकी संभाल सम्यक्त्वी रखता है । परस्पर प्रेम, मैत्री, सद्भावना विनय जो इसी को धर्म मानते हैं (अन्यानं राग बंधनं) अज्ञान और राग के बन्धन में बंधे रहते लोक प्रसिद्ध है, उसके करने से सबसे प्रेम मैत्री रहती है और सबको सुखदाई हैं (आराध्यं जेन केनापि) जो कोई भी ऐसे कुगुरुओं की, कुधर्म की आराधना करता हितकारी होती है। जहाँ धर्म की दृष्टि से कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र व कुधर्म की विनय हैया करेगा (संसारे दष कारनं) वह संसार में दुःख भोगेगा और दुर्गतियों में जायेगा। का भाव आयेगा उसको वह नहीं करेगा। किसी भय, आशा, स्नेह, लाज,लोभवश विशेषार्थ-जो परिग्रहधारी कगुरु हैं वह हमेशा कुधर्म को ही धर्म कहते हैं। भी विनय नहीं करेगा। इतनी दृढ़ता और विवेक आवश्यक है। 7 परिग्रह चौबीस प्रकार का होता है-दस बाह्य का और चौदह अन्तरंग का। गृहस्थ श्रावक को आहारदान आदि तो निरन्तर ही देना चाहिये परन्तु पात्र, दस बाह्य परिग्रह-क्षेत्र (तीर्थ, मन्दिर, मठ,जमीन आदि), मकान, चांदी, कुपात्र, अपात्र की पहिचान कर लेना चाहिये। किसी भूखे को, असहाय को, वह सोना, धन, धान्य, दासी, दास, वस्त्र और बर्तन। किसी भी जाति, सम्प्रदाय का हो करुणा पूर्वक आहारदान आदि देना पुण्य बन्धका । चौदह अंतरंग परिग्रह-मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, कारण, गृहस्थ का कर्तव्य है; परन्तु जो कुगुरु हैं जो जाल फैलाते हैं, कुदेवादि अरति.शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DON श्री श्रावकाचार जी गाथा-९३,९४ you इस प्रकार चौबीस प्रकार के परिग्रह में लिप्त साधु कुगुरु होते हैं। वह हमेशा क्रोधादि विकार रूप बहुत दोष पाये जाते हैं, वह तो मुनि का वेष धारण करता है,तो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह रूप पांचों पापों में लगे रहते हैं यही कुधर्म कहा भी श्रावक के समान नहीं है । श्रावक सम्यक्दृष्टि हो और गृहस्थाचार के पाप है और इसमें वह बड़े उत्साह पूर्वक लगे रहते हैं और इसी को धर्म कहते हैं। तीर्थ, . सहित हो तो भी उसके बराबर वह केवल वेषधारी साधु-मुनि नहीं है। मन्दिर, मठ आदि बनवाना, जमीन-जायदाद आदि परिग्रह इकट्ठा करना, धर्म के जे धीर वीर पुरिसा खमदम खम्गेण विप्फुरतेण। नाम पर धन जोड़ना, पुण्य को धर्म कहना। भगवान, परमात्मा, गुरु आदि का नाम दुज्जयपबल बलुबरकसायभड णिज्जिया जेहिं ॥१५६॥ लेकर समाज को गुमराह करना, धर्म से विमुख करना और अपनी मनमानी चलाना, युद्ध में जीतने वाले शूरवीर तो लोक में बहत हैं: परन्तु कषायों को जीतने कुमति मिथ्यात्व, अज्ञान, रागादि को धर्म कहना और लौकिक व्यवहार मूढ मान्यताओं वाले विरले हैं। वे मुनि श्रेष्ठ हैं और वे ही शूरवीरों में प्रधान हैं, जो सम्यक्दृष्टि में बंधे रहना तथा इन्हीं बन्धनों में और सबको बांधना, फंसाना यही इनका काम है। होकर, कषायों को जीतकर, चारित्रवान होते हैं वे ही मोक्ष पाते हैं। जो कोई भी जीव ऐसे कुगुरुओं की आराधना, वन्दना,भक्ति करता है, वह कुधर्म के कुगुरु अधर्म को धर्म कहता है, अज्ञान को ज्ञान कहता है। अचेतन अदेवादि जाल में फंसकर संसार में नाना प्रकार के दु:ख भोगता है और दुर्गति में जाता है।ॐ की वन्दना करता है। शरीर की क्रिया को धर्म कहता है। यह सब संसार के ही कुगुरु स्वयं तो संसार में रुलता और नरक निगोद आदि दुर्गतियों में जाता है कारण अधर्म हैं। इसी बात को आगे कहते हैंपरंतु जो जीव इनकी आराधना, वन्दना भक्ति करते हैं, इनकी संगति करते हैं, अधर्म धर्म प्रोक्तंच,अन्यानं न्यान उच्यते। इनकी बात पर विश्वास करते हैं, वह भी संसार में रुलते दुर्गति जाते हैं। अचेतं असास्वतं वंदे,अधर्म संसार भाजनं ॥१३॥ हिंसा का परिणाम आचार्य कुन्दकुन्द भावपाहुड में कहते हैंपाणिवहेहि महाजस चउरासी लक्ख जोणि मज्झम्मि। कुगुरुं अधर्म प्रोक्तंच,कुलिंगी अधर्म संचितं । उपजत मरतो पत्तोसि णिस्तर दुक्ख ॥ १३५॥ मानते अभव्य जीवस्य, संसारे दुष कारनं ॥ ९४ ।। जिनमत के उपदेश के बिना जीवों की हिंसा से यह जीव चौरासी लाख योनियों अन्वयार्थ-(अधर्मधर्म प्रोक्तंच) अधर्म,जो धर्म है ही नहीं उसे धर्म बताता में उत्पन्न होता है और मरता है। हिंसा से कर्म बन्ध होता है। कर्म बन्ध के उदय से है(अन्यानंन्यान उच्यते) अज्ञान को ज्ञान कहता है (अचेतं असास्वतं वंदे) अचेतन उत्पत्ति मरण रूप संसार होता है। इस प्रकार जन्म-मरण के दु:ख सहता है। और अशाश्वत की वंदना करता है (अधर्म संसार भाजन) यह सब अधर्म संसार मिथ्यात्व सहितसाधुदुर्गति जाता है का ही पात्र बनाता है। कुच्छिय धम्मम्मि रओ कुच्छिय पासंडि भत्ति संजुत्तो। (कुगुरुं अधर्म प्रोक्तं च) कुगुरु अधर्म की ही चर्चा करता है, अधर्म को ही कुच्छिय तवं कुणतो कुच्छिय गइभायणो होइ॥१४०॥ ॐ धर्म कहता है (कुलिंगी अधर्म संचित) कुलिंगी अधर्म को ही संचित करता अर्थात् जो कुत्सित अर्थात् निंद्य मिथ्याधर्म में रत है, जो पाखंडी निंद्य भेषियों की अधर्म का ही पालन करता है (मानते अभव्य जीवस्य) अभव्य जीव ही इनकी भक्ति संयुक्त है। जो निंद्य मिथ्याधर्म पालता है, मिथ्यादृष्टियों की भक्ति करता है मान्यता श्रद्धान करते हैं (संसारे दुष कारनं) यह संसार में रुलाने वाले दु:ख के 0 और मिथ्या अज्ञान तप करता है, वह दुर्गति ही पाता है। 5 कारण हैं। ते च्चिय भणामि हंजे सयल कलासील संजम गुणेहिं। विशेषार्थ- यहाँ बहिरात्मा के स्वरूप का वर्णन चल रहा है कि बहिरात्मा बहुदोसाणावासो सुमलिण चित्तो ण सावयसमो सो॥१५५॥ संसाराशक्त शरीरादि संयोगों को चाहने वाला कुदेवादि की मान्यता पूजा करता जो सम्यक्दृष्टि हैं, शील (उत्तर गुण) और संयम (मूलगुण) सहित हैं वह है तथा कुगुरुओं के जाल में फंसकर संसार में चारगति चौरासी लाख योनियों के मुनि हैं। जो मिथ्यादृष्टि है अर्थात् जिसका चित्त मिथ्यात्व से मलिन है और जिसमें । जन्म-मरण का दु:ख भोगता है। कुगुरु कैसे होते हैं यहाँ उनका स्वरूप बताया चार Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी जा रहा है। कुगुरु अधर्म को धर्म बताता है। हिंसादि पाप हैं और वह हिंसा की क्रिया को धर्म कहता है। परिग्रह भी पाप है, वह आरंभ परिग्रह को धर्म बताता है, अदेव कुदेवादि की पूजा भक्ति को धर्म बताता है, बाह्य शुभाचरण संयम तप को धर्म कहता है। पाप और पुण्य दोनों कर्म हैं, कर्म को ही धर्म बताना यही तो अधर्म है। धर्म तो एकमात्र अपना चेतन लक्षण शुद्ध स्वभावी आत्मा ही है। इसकी साधना आराधना धर्म की साधना आराधना है, इसके विपरीत जो कुछ भी है वह तो कर्म, अधर्म ही है। अज्ञान को ज्ञान कहता है, जो जैसा है नहीं उसे वैसा जानना ही अज्ञान है। संसार में सुख है ही नहीं, संसार अनादि अनन्त होते हुए भी क्षणभंगुर नाशवान, परिणमनशील है, इसमें सब वस्तुयें अनित्य हैं, संसार को सुखरूप मानना, जो अपना है ही नहीं उसे अपना मानना यही तो अज्ञान है। मैं एक अखण्ड अविनाशी चेतनतत्व ज्ञानानंद स्वभावी भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं यह मेरे नहीं, ऐसा जानना मानना ही सम्यक्ज्ञान है, इसके विपरीत जो कुछ है वह सब अज्ञान है। इसी बात को अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार कलश में कहा है आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम् । परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ॥ ६२ ॥ आत्मा ज्ञान स्वरूप है, स्वयं ज्ञान ही है, वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य क्या करे ? आत्मा परभाव का कर्ता है, ऐसा मानना तथा कहना सो व्यवहारी जीवों का मोह अज्ञान है। इसी बात को कुन्दकुन्दाचार्य समयसार में कहते हैं ववहारेण दु आदा करेदि धडपडरथाणि दव्वाणि । करणाणि य कम्माणि य णो कम्माणीह विविहाणि ॥ ९८ ॥ व्यवहार से अर्थात् व्यवहारी जन मानते हैं कि जगत में आत्मा घट, पट, रथ इत्यादि वस्तुओं को और इंद्रियों को अनेक प्रकार के क्रोधादि तथा द्रव्य कर्मों को और शरीरादिनो कर्मों को करता है, ऐसी मान्यता ही व्यामोह भ्रांति अथवा अज्ञान है । अज्ञानी जीव कैसे होते हैं वह कहते हैं - अज्ञानात्मृग तृष्णकां जलधिया धावन्ति पातुंमृगाः, अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः । mesh remnach news re roces ६८ गाथा- २३,१४ अज्ञानाच्च विकल्प चक्र करणाद्वातोत्तरंगान्धिवत्, शुद्ध ज्ञानमया अपि स्वयममी कर्त्रीभवन्त्याकुलाः ॥ ॥ समयसार कलश ५८ ॥ अज्ञान के कारण मृग मरीचिका में जल की बुद्धि होने से हिरण उसे पीने को दौड़ते हैं, अज्ञान के कारण ही अन्धकार में पड़ी हुई रस्सी में सर्प का अध्यास होने से लोग भय से भागते हैं। इसी प्रकार अज्ञान के कारण यह जीव पवन से तरंगित समुद्र की भांति विकल्पों के समूह को करने से, यद्यपि वे स्वयं शुद्ध ज्ञानमय हैं तथापि आकुलित होते हुए अपने आप कर्ता होते हैं। इसी प्रकार कुगुरु स्वयं अज्ञानी हैं अर्थात् उन्हें सत्य वस्तु स्वरूप का ज्ञान ही नहीं है, वह स्वयं अज्ञानमय हैं इसीलिये वह अनित्य और असत्य वस्तु को नित्य और सत्य कहते हैं, एकांत पक्ष का समर्थन करते हैं। अचेतन अदेवादि की वन्दना भक्ति करते हैं अशाश्वत, नाशवान शरीरादि की क्रिया, बाह्य वेष, बाह्य आचरण को वन्दनीय इष्ट मानते हैं, यह सब अधर्म में रत होने के कारण संसार को बढ़ाने वाला है। कुगुरु अधर्म को धर्म कहता है, कुलिंगी अधर्म में ही रत रहता है। यहाँ बहुत महत्वपूर्ण बात समझने की है कि कुगुरु अधर्म को धर्म कहता है। कैसा होता है ? क्या करता है ? यह वर्णन तो सब पूर्व में आ गया है। यहाँ विशेष बात जो समझने की है वह यह है कि कुलिंगी अधर्म में ही रत रहता है। अब यहाँ कुगुरु और कुलिंगी में क्या भेद है यह समझना है। . गुरू- जो कुछ सिखाता है, बताता है, उपदेश देता है उसे गुरु कहते हैं। जो सम्यक्ज्ञानी होता है जिसे वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान होता है, जिसे सत्य का निज शुद्धात्मा, परमात्मा का दर्शन अनुभूति हो गई है वही सद्गुरु है। शेष जो भी हैं वे सब कुगुरु ही हैं, क्योंकि जिसे स्वयं बोध नहीं है, वह पर को क्या बोध कराये, वैसे सामान्यतः साधु को ही गुरु कहते हैं। इसमें जाति सम्प्रदाय की अपेक्षा नाना वेषधारी साधु होते हैं। कोई नग्न दिगम्बर मुनि होते हैं, कोई सफेद वस्त्रधारी साधु मुनि होते हैं। कोई भगवा वस्त्रधारी जटाधारी नाना वेष के होते हैं। ज्ञानी सद्गुरू - किसी जाति सम्प्रदाय वेष से बंधा नहीं होता, वह अपन स्थिति परिस्थिति के अनुसार रहता है। ज्ञानी का जीवन प्रामाणिक होता है, उसकी कथनी-करनी एक होती है। जैसी पात्रता होती है उस रूप उसका आचरण होता है, वैसा ही कथन करता है। उसे लौकिक प्रभावना जनरंजन राग नहीं होता, वह Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSON श्री श्रावकाचार जी गाथा-९३,९४ SO0 करुणा बुद्धि से जीवों को सही धर्म का स्वरूप बताता है और सम्यक् आचरण करने सम्मूहदि रक्खेदि य अट्ट झाएदि बहुपयत्तेण। की प्रेरणा देता है। सो पाव मोहिदमदी तिरिक्ख जोणी ण सो समणो॥५॥ कुगुरु-इसके विपरीत कुगुरु होता है। जिसका पूर्व में वर्णन आ ही चुका है। जो निर्ग्रन्थ लिंग धारण करके अर्थात् नग्न दिगम्बर साधु होकर परिग्रह को लौकिक प्रभावना जनरंजन धन संग्रह आदि कार्य धर्म के नाम पर कुगुरु ही करते हैं। संग्रह रूप करता है अथवा उसकी वांछा चिंतवन ममत्व करता है और उस परिग्रह कुलिंगी धार्मिक आचरण करने, धर्म मार्ग पर चलने के लिये जो कोई भी रूपकी रक्षा करता है उसका बहुत यत्न करता है। उसके लिये आर्त ध्यान निरन्तर वेष बनाता है। नग्न रहे, वस्त्र पहने, जटा जूट रखे, परन्तु जो धर्म के विपरीत ध्याता है, वह पाप से मोहित बुद्धि वाला है, वह तिर्यंचगति जायेगा। वह अज्ञानी आचरण करता है, अधर्म में रत रहता है, वह कुलिंगी है; तथा जो सच्चा ज्ञानी है, साधु भी नहीं है। धर्म का यथार्थ स्वरूप समझता है और सम्यक् आचरण करता है, वह सुलिंगी है; भाव शुद्धि के बिना गृहस्थ पद छोड़कर साध हो जाये तो नरक जाता हैक्योंकि धर्म मार्ग पर चलने के लिये संसारी प्रपंच माया, मोह,पाप, परिग्रह से छूटने जो जोडेदि विवाह किसि कम्मवणिज्जजीवघादं च । के लिये बाह्य में संयम, नियम, त्याग, वैराग्य आदि तो करना ही पड़ते हैं क्योंकि बच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगि लवेण ॥ ९॥ द्रव्य संयम होने पर ही भाव संयम होता है। इसीलिये त्याग वैराग्य मय जीवन गृहस्थ पद छोड़कर शुभ भाव के बिना लिंगी (साधु, त्यागी) हुआ था, इसके आवश्यक है और उसमें बाह्य वेष का परिवर्तन भी आवश्यक है। बगैर साधु त्यागीभाव की वासना मिटी नहीं, तब लिंगी का रूप धारण करके भी गृहस्थी के कार्य हए धर्म मार्ग पर चल भी नहीं सकते। अब इसमें जो सच्चा होता है, वह सुलिंगी करने लगा। आप विवाह नहीं करता है तो भी गृहस्थों के सम्बन्ध कराकर विवाह मोक्षमार्गी है, जो झूठा है वह संसारी है और धार्मिक वेष बनाकर स्वयं का पतन , कराता है; तथा खेती व्यापार जीव हिंसा आप करता है और गृहस्थों को कराता है आत्मघात करता है, दुर्गतियों का कारण बनाता है, धर्म को बदनाम करता है। इसी तब पापी होकर नरक जाता है। ऐसे भेष धारने से तो गृहस्थ ही भला था, पद का बात को आचार्य कुन्दकुन्द लिंग पाहुड में कहते हैं ॐ पाप तो नहीं लगता। धम्मेण होइ लिंग ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती। आगे कहते हैं कि जो लिंग धारण करके लिंग योग्य कार्य करता हुआ दःखी जाणेहि भावधम्म किं ते लिंगेण कायव्यो ॥२॥ रहता है। उन कार्यों का आदर नहीं करता, वह भी नरक जाता है। धर्म सहित तो लिंग होता है परन्तु लिंग मात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं होती;2 दसण णाण चरिते तव संजमणियम णिच्चकम्मम्मि । इसलिये हे भव्य जीव! तू भाव रूपधर्म को जान और केवल लिंग(बाह्य भेष) से ही पीडयदि वट्टमाणो पावदि लिंगी णरयवासं ॥११॥ तेरा क्या कार्य होता है, अर्थात् कुछ भी नहीं होता है। जो लिंग धारण करके इन क्रियाओं को करता हुआ बाध्यमान होकर पीड़ा आगे कहते हैं कि जो जिनलिंग, निर्ग्रन्थ, दिगम्बर रूप को ग्रहणकर कुक्रिया 3 पाता है , दुःखी होता है, वह लिंगी नरकवास को पाता है। वे क्रियायें क्या हैं? करके हंसी कराते हैं वे जीव पाप बुद्धि हैं प्रथम तो दर्शन, ज्ञान, चारित्र में इनका निश्चय-व्यवहार रूप धारण करना। तप, जो पावमोहिदमदी लिंग घेत्तूण जिणवरिंदाणं। अनशनादिक बारह प्रकार के तप शक्ति अनुसार करना। संयम, इन्द्रियों को और उवहसदि लिंगिभाव लिंगिम्मिय णारदो लिंगी॥३॥ 5 मन को वश में करना तथा जीवों की रक्षा करना। नियम अर्थात् नित्य कुछ त्याग 2 जो जिनवरेन्द्र अर्थात् तीर्थंकर देव के लिंग नग्न दिगम्बर रूप को ग्रहण करना और नित्य कर्म आवश्यक आदि क्रियाओं को नियत समय पर नित्य : करके लिंगीपने के भाव को हास्य मात्र समझता है, वह लिंगी अर्थात् भेषी जिसकी करना यह लिंग के योग्य साधु की क्रियायें हैं। जो इन क्रियाओं को नहीं करता है बुद्धि पाप से मोहित है, वह नारद जैसा है तथा अन्य साधु मुनियों को लजाने, या करता हुआ खेद-खिन्न दु:खी होता है वह नरक जाता है। लिंग तीन प्रकार के बदनाम करने वाला है। कहे गए हैं- साधु, श्रावक, आर्यिका या अव्रती सम्यकदृष्टि । इसमें वीतरागता Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्री आवकाचार जी वैराग्य की प्रधानता होती है। जो कोई सा भी भेष (लिंग) धारण कर उसके विपरीत आचरण करता है वह कुलिंगी है। धर्म के विपरीत आचरण करने से नरक जाता है । नशा, व्यसन, हिंसादि पाप करने वाला तो प्रगट में ही कुलिंगी है परंतु जो वीतरागी मार्ग का पथिक बनकर अपने पद के विपरीत आचरण करता है वह भी कुलिंगी नरकगामी है। इनकी मान्यता करने वाले अभव्य जीव ही होते हैं; क्योंकि इनकी मान्यता, वन्दना, भक्ति करने से अनन्त संसार में रुलना पड़ता है और नाना दुःख भोगना पड़ते हैं। भव्य जीव किसे कहते हैं ? इसे भावपाहुड़ में कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैंमुयइ पडि अभव्वो सुठु वि आयण्णिऊण जिणधम्मं । गुडदुद्ध पि पिवता ण पण्णया णिव्विसा होति ॥ १३८ ॥ अभव्य जीव भले प्रकार जिन धर्म को सुनकर भी अपनी प्रकृति को नहीं छोड़ता है। यहाँ दृष्टान्त है कि सर्प, गुड़ सहित दूध को पीते रहने पर भी विष रहित नहीं होता। इसी प्रकार अभव्य जीव अनेकान्त तत्व स्वरूप को सुनते हुए भी मिथ्यात्व स्वरूप भाव नहीं बदलता । मिथ्यात्व से जिसकी बुद्धि, दुर्बुद्धि हो रही है उसे सत्य वस्तु स्वरूप नहीं रुचता, एकान्त पक्ष से अपनी मनमानी करता है, यह अभव्य जीव के चिन्ह हैं। यथार्थ तो सर्वज्ञ ही जानते हैं। कुगुरु की संगति से और अपनी ऐसी दशा होने से यह जीव अनन्त संसार में रुलता है और नाना प्रकार के दुःख भोगता है; इसलिये इन कुगुरु और कुलिंगियों से सावधान रहकर अपना आत्महित करने के लिये विवेक से काम लेना चाहिये । कुगुरु के जाल में फंसा बहिरात्मा जीव अधर्म का सेवन करता है; क्योंकि कुगुरु अधर्म का ही पोषण करते हैं और उसका ही उपदेश देते हैं। अब अधर्म किसे कहते हैं ? अधर्म क्या है ? इसके स्वरूप का वर्णन करते हैं१. आर्त- रौद्र ध्यान में लगे रहना यही सबसे बड़ा अधर्म है अधर्म लक्षणस्चैव, अनृतं अचेतं श्रुतं । उत्साहं सहितो हिंसा, हिंसानंदी जिनागमं ।। ९५ ।। हिंसानंदी अनृतानंदी, स्तेयानंद अबंभयं । रौद्र ध्यानं च संपूर्न, अधर्म दुष दारुनं ।। ९६ ।। 34 mesh remnach new mohanmoh ७० गाथा ९५.९७ आरति रौद्र संजुक्तं, ते धर्म अधर्म संजुतं । रागादि मिश्र संपूर्न, अधर्मं संसार भाजनं ।। ९७ ॥ अन्वयार्थ (अधर्मं लक्षणस्चैव) अधर्म का लक्षण बताते हैं (अनृतं अचेतं श्रुतं) अप्रामाणिक असत्य शास्त्रों का पढ़ना सुनना (उत्साहं सहितो हिंसा) उत्साह सहित हिंसादि पाप करना (हिंसानंदी जिनागमं ) हिंसा में आनंद मानना ही जिनागम में अधर्म बताया गया है। (हिंसानंदी अनृतानंदी) हिंसा में आनंद मानना, झूठ बोलने में आनंद मानना (स्तेयानंद अबंभयं) चोरी करने में आनंद मानना और अब्रह्म कुशील सेवन में आनंद मानना (रौद्र ध्यानं च संपून) यह सब रौद्र ध्यान हैं (अधर्मं दुष दारुनं) यही सबसे बड़ा अधर्म दारुण दुःख देने वाला है। (आरति रौद्र संजुक्तं ) जो जीव आर्त-रौद्र ध्यानों में लीन रहते हैं, हमेशा इन्हीं भावों में बहते रहते हैं ( ते अधर्म संजुतं) वे जीव आत्मा अधर्म में लीन रहते हैं (रागादि मिश्र संपून) इससे राग-द्वेष मोह आदि मलों में पूर्णतया डूबे रहते हैं (अधर्म संसार भाजनं ) यही अधर्म संसार में रुलाने वाला संसार का पात्र बनाने वाला है। बिशेषार्थ - यहाँ अधर्म का लक्षण बताया जा रहा है कि अधर्म किसे कहते हैं ? जो धारण किया जाता है, जीवन के आचरण में आता है उसे धर्म कहते हैं। सत् वस्तु स्वरूप की धारणा ही सत्धर्म है। सत्धर्म की धारणा से जीवन में सुख शान्ति आनंद की उपलब्धि होती है। असत् धर्म कुधर्म या अधर्म की धारणा से जीवन दुःखमय, अशान्त, भय, चिंता से भरा हुआ होता है। जगत का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। संसार में कहीं सुख नहीं है क्योंकि पर वस्तु, पुद्गल आदि में सुख की मान्यता ही अज्ञानता अधर्म है। सुख स्वभावी तो यह जीव आत्मा स्वयं है परन्तु अपने निज स्वभाव को भूला हुआ पर में सुख की कल्पना करता है। जैसे- कुत्ता हड्डी चूसता है और उसमें रसादि सुख की कल्पना करता है। स्वयं के मुख से निकलते खून को हड्डी में से निकलता हुआ मानता है वह अज्ञानी पशु है। इसी प्रकार प्रत्येक मानव भी पर में सुख की कल्पना करता हुआ पर में लगा हुआ है। धनादि में सुख मानता है। शरीर के विषय भोगों में सुख मानता है और उसके लिये नाना प्रकार के कुकर्मों में हिंसादि पापों में लगा हुआ स्वयं दुःखी रहता है यही अधर्म है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to श्री श्रावकाचार जी जिसमें निराकुलता निश्चिन्तता रहे सुख होवे, वह धर्म है। जो आत्म ज्ञान से रहित शास्त्र आदि का ज्ञान भी है, उस ज्ञान से कुछ काम जिसमें आकुलता भय चिन्ता होदःख होवे, वह सब अधर्म है। नहीं; क्योंकि वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान रहित तपशीघ्र ही जीव को दु:ख का कारण यही जीवन का प्रमुख विषय है, जिस पर वर्तमान और भविष्य निर्भर है। , होता है। निदान बंध आदि तीन शल्यों को आदि ले समस्त विषयाभिलाष रूप अगर सत्धर्म उपलब्ध हो जावे तो वर्तमान जीवन सुख शान्ति आनंदमय रहे और * मनोरथों के विकल्प जाल रूपी अग्नि की ज्वालाओं से रहित जो निज सम्यकज्ञान ७ भविष्य में परमानंद मुक्ति की प्राप्ति हो। अधर्म का आश्रय होने से वर्तमान जीवन है, उससे रहित बाह्य पदार्थों का शास्त्र द्वारा ज्ञान है, उससे कुछ काम नहीं होता। दु:खी अशांत भयभीत चिन्तित रहता है और भविष्य भी अंधकारमय है। कार्य तो एक निज आत्मा के जानने से होता है। सद्गुरू तारण स्वामी यहाँ अधर्म का लक्षण बता रहे हैं कि यह जीव कुगुरुओं यहाँ प्रश्न किया कि निदान बंध रहित आत्म ज्ञान बतलाया यह निदान बंध के जाल में फंसकर अधर्म का सेवन करता है। अधर्म क्या है ? उसका स्वरूपकिसे कहते हैं ? बताया जा रहा है। कुगुरुओं द्वारा लिखे अप्रामाणिक असत्य शास्त्रों को पढ़ना समाधान-जो देखे सुने और भोगे हुए इन्द्रियों के भोगों में जिसका चित्त रंग सुनना और इससे हिंसादि कार्यों में उत्साह पूर्वक लगे रहना जबकि हिंसा में आनंद रहा है, ऐसा अज्ञानी जीव रूप लावण्य सौभाग्य का अभिलाषी, वासुदेव चक्रवर्ती मानना ही जिनागम में अधर्म बताया गया है। पद के भोगों की वांछा करे,दान, पूजा, तपश्चरणादिकर भोगों की अभिलाषा करे, चित्त के किसी एक वस्तु या विषय पर एकाग्र होने को ध्यान कहते हैं। संसारी वह निदान बंध है, यह बड़ी शल्य अर्थात् कांटा है। इस शल्य से रहित जो आत्म जीव के साथ आर्त-रौद्र ध्यान संस्कारित अपने आप होते रहते हैं। हिंसा करने में ज्ञान उसके बिना शब्द शास्त्रादिक ज्ञान मोक्ष का कारण नहीं है; क्योंकि वीतराग आनंद मानना, झूठ बोलने में आनंद मानना, चोरी करने में आनंद मानना, अब्रह्म स्वसंवेदन ज्ञान रहित तप भी दुःख का कारण है इसलिये अज्ञानियों का तप और कुशीलादि के सेवन में आनंद मानना और इनके भावों में बहना यही रौद्र ध्यान है श्रुत यद्यपि पुण्य का कारण है तो भी मोक्ष का कारण नहीं है। और यह नरक गति का कारण है तथा आर्त ध्यान-इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, धर्म, मोक्ष का हेतु मोक्ष देने वाला होता है । अधर्म, कुधर्म संसार में दुर्गति पीड़ा चिन्तवन और निदान बंध इन्हीं योग संयोग में अथवा इनके भावों में बहना कराने वाला दारुण दुःख देने वाला होता है। इसी बात को मोक्षमार्ग प्रकाशक में और हमेशा दुःखी रहना यह आर्त ध्यान तिर्यंच गति के बन्ध का कारण है। कहा है बुरे कामों में, बुरे भावों में लगे रहना, कठोर दुहप्रवृत्ति रौद्र ध्यान है। जहाँ हिंसादि पाप उत्पन्न हो व विषय कषायों की वृद्धि हो वहाँ धर्म माने सो हमेशा दु:खी शोक भय आर्त परिणामों में रहना आर्त ध्यान है। कुधर्म जानना । यज्ञादिक क्रियाओं में महाहिंसादिक उत्पन्न करें, बड़े जीवों का आर्त-रौद्र के भावों में बहना संसार में दुर्गति का कारण है और इससे मोह, घात करें और इन्द्रियों के विषय पोषण करें। उन जीवों में दुष्ट बुद्धि करके रौद्र राग-द्वेष आदि बढ़ते हैं। यह जीव आत्मा इनमें डूबा संसार के दारुण दु:ख भोगता ध्यानी हो तीव्र लोभ से औरों का बुरा करके अपना कोई प्रयोजन साधना चाहे है यह सब अधर्म है। धर्म तो एक मात्र निज चैतन्य सत्ता स्वरूप शुद्ध स्वभाव यही और ऐसे कार्य करके वहाँ धर्म माने सो कुधर्म है तथा तीर्थों में व अन्यत्र स्नानादि अपना सच्चा धर्म है। इसके श्रद्धान ज्ञान और आचरण से ही जीवन में सुख शान्ति कार्य करे वहाँ छोटे-बड़े बहुत से जीवों की हिंसा होती है। शरीर को चैन मिलता है आनंद होता है। इसके विपरीत जो कुछ भी है वह सब अधर्म, कुधर्म ही है, जो इसलिये विषय पोषण होता है और कामादिक बढ़ते हैं। कुतूहलादिक से वहाँ 9 संसार का कारण दारुण दु:ख देने वाला है। कषाय भाव बढ़ता है और धर्म मानता है सो यह कुधर्म है। इसी बात को आचार्य योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते हैं प्रत्येक वस्तु या जीव आत्मा का जो निज शुद्ध स्वभाव है वही प्रत्येक जीव X जं णिय बोहहँ बाहिर णाणु वि कज्जुण तेण। का अपना धर्म है। धर्म में कोई भेद नहीं होता। जैसे- सत्य एक होता है वैसे ही धर्म दुक्खई कारणु जेण तउ, जीवहं होइ खणेण ॥७५॥ भी एक होता है और वह प्रत्येक जीव का अपना स्वतंत्र होता है। धर्म में भेद करना Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You श्री आचकाचार जी गाथा-९४-१०. Oo ही संसार है। पर के धर्म से किसी का भला नहीं होता, स्वधर्म से ही सबका भला होता चर्चा करने से क्या लाभ है ? बाह्य आचरण सत्कर्म करना ही धर्म है वह ऐसा कहता है। निज शुद्ध स्वभाव के श्रद्धान ज्ञान आचरण के विपरीत और जो कुछ भी है, वह है। सब शुभाशुभ कर्म, अधर्म ही है, जो संसार का कारण है। विकथा करने वाले के परिणाम अशुभ रहते हैं, वह अशुभ भावना करने में ही श्री तारण स्वामी ने यहाँ अधर्म के लक्षण में सबसे पहले आर्त-रौद्र ध्यान * आनंद मानता है, आनंदित रहता है। काम-भोग, रूप-रंग, ममत्व भाव,मायाचारी ७ को बताया, आगे विकथायें भी अधर्म हैं, इस बात को कहते हैं की चर्चायें बड़ी विशेषता से वर्णन करता है। नये-नये नाटक, उपन्यास लिखता २. विकथा, व्यर्थ चर्चा करना अधर्म है है। श्रृंगार रस की कामभाव बढ़ाने वाली नई-नई कथायें कहता है और हमेशा विकहा राग संबंध, विसयं कषायं सदा । विषय-कषाय में लगा रहता है। इन विकथाओं के कहने सुनने, इन्हीं चर्चाओं में अनूतं राग आनंद,ते धर्म अधर्म उच्यते ॥ १८॥ में लगे रहने का क्या परिणाम होता है वह आगे कहते हैं स्त्री कथा करने वाला नरक जाता हैविकहा प्रमानं असुहं च, नंदितं असुह भावना। स्त्रियं काम रूपेन, कथितं वन विसेषितं । ममतं काम रूपेन, कथितं वन विसेषितं ॥ ९९॥ ते नरा नरयं जांति, धर्म रत्न विलोपितं ॥१०॥ अन्वयार्थ- (विकहा राग संबंध) विकथा, व्यर्थ चर्चा का राग से सम्बन्ध होता है (विसयं कषायं सदा) हमेशा विषय-कषायों में रत रहता है (अनृतं राग आनंद) अन्वयार्थ- (स्त्रियं काम रूपेन) स्त्रियों की, काम की रूप की चर्चा (कथितं व्यर्थ चर्चा करने वाला झूठे राग में आनंद मानता है (ते धर्म अधर्म उच्यते) वह धर्म वन विसेषित) नाना प्रकार से बड़ी विशेषता से वर्णन करता है (ते नरा नरयं जांति) को अधर्म कहता है, आत्मा की बात उसे रुचती नहीं है। ९ वह मनुष्य नरक जाता है (धर्म रत्नं विलोपित) धर्म रत्न का लोप करके; क्योंकि (विकहा प्रमानं असुहं च) विकथा करने वाले के परिणाम हमेशा अशुभ ॐ इन चर्चाओं से आत्मा की कोई सुध नहीं रहती परिणाम बड़े अशुभ निकृष्ट होते हैं, इन रहते हैं (नंदितं असुह भावना) अशुभ भावना में ही आनंदित रहता है (ममतं काम ना में ही आलित रखता इससे नरक जाता है। रूपेन) ममत्व, मायाचारी, काम-भोग, रूपरंग की (कथितं वर्न विसेषित) चर्चा में विशेषार्थ- यहाँ विकथा का वर्णन चल रहा है। विकथा अधर्म की जड़ है। कथायें बड़ी विशेषता से वर्णन करता है। > अधर्म में रत जीव हमेशा दुःखी चिंतित भयभीत रहता है और नरक. निगोदादि विशेषार्थ- विकथा, व्यर्थ चर्चा को कहते हैं। यह चार होती हैं- राजकथा, दुगातया म जाता है। यहा विकथा म स्त्राकथा का वर्णन चल रहा चोरकथा, स्त्रीकथा, भोजनकथा । जिनसे कुछ लेना देना नहीं, कुछ होना नहीं, स्त्रियों की, काम भोग की, रूपरंग की, श्रृंगार रस की कथाओं में रत रहता है, निष्प्रयोजन ही जिससे अपने जीवन और समय का दुरुपयोग होता है। अज्ञानी १ नाना प्रकार से बड़ी विशेषता से वर्णन करता है, वह उसमें ही तन्मय लीन रहता है संसाराशक्त बहिरात्मा जीव इन्हीं व्यर्थ चर्चाओं में लगा रहता है। विकथाओं का राग फिर उसे अपने आत्म स्वरूप, धर्म की कोई सुध-बुध नहीं रहती। वह सब लोप से सम्बन्ध होता है। इन चर्चाओं को करने वाले हमेशा विषय-कषायों में रत रहते हो जाती है और वह इन्हीं निकृष्ट अशुभ भावों में रत रहने के कारण नरक जाता है। हा हैं, झूठे राग में आनंद मानते हैं। व्यक्तियों को खश करने जनरंजन राग में ही रावण इसी स्त्री कामभाव के पीछे सीताजी का अपहरण करके ले गया। जिसके बहिरात्मा जीव आनंद मानता है। मन की सन्तुष्टि, प्रसन्नता, मन को रंजायमान कारण अपना राजपाट खोया, पूरा वंश नष्ट हुआ, अपमान सहन किया और नरक करने में लगा रहता है। वह धर्म को अधर्म कहता है, अधर्म को धर्म कहता है। आत्मा गया। की चर्चा उसे अच्छी नहीं लगती। कहाँ आत्मा-आत्मा लगा रखी है, यह सब व्यर्थ स्त्रीकथा आत्म स्वरूप को भुलाने वाली,धर्म रत्न को लोप करने वाली नरक बकवास है ऐसा कहता है, पहले अपनी क्रिया आचरण देखो यह व्यर्थ आत्मा की ले जाने वाली है, इसलिये इन विकथाओं से हमेशा बचते रहना चाहिये। जिसे servedaberrease ७२ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 श्री आचकाचार जी गाथा-१०१-१०५ अपना आत्महित करना है, मुक्त होना है उसे निष्प्रयोजन व्यर्थ चर्चायें तो कभी लड़ाई-झगड़े चल रहे हों (अनृतानंद असास्वतं) लूटमार द्वंद-फंद हो रहे हों करना ही नहीं चाहिये। शान्त मौन रहना ही श्रेष्ठ हितकारी है। (कथितं असुह भावेन) इनके कहने सुनने से तीव्र अशुभ भाव होते हैं (संसारे भ्रमनं आगे राजकथा का वर्णन करते हैं . सदा) जिससे हमेशा संसार में भ्रमण करना पड़ता है। राज्यं राग उत्पाद्यन्ते, ममतं गारव स्थितं । (भयस्य भयभीतस्य) लड़ाई, झगड़े, मारपीट, विदेशी आक्रमण आदि की रौद्र ध्यानंच आराध्य,राज्यं वन विसेषितं ॥१०१॥ १२ चर्चा सुनकर बहुत भय से भयभीत हो जाते हैं (अनृतं दुष भाजन) अब क्या होगा, यह तो बड़े दु:ख के कारण बन गये (भावं विकलितं जांति) ऐसे भाव से निरंतर अन्वयार्थ- (राज्यं राग उत्पाद्यन्ते) राजकथा करने से राग पैदा हो जाता है " विकल्पित रहते हैं (धर्म रत्नं न सूझते) फिर वहाँ अपने आत्म स्वरूप की कोई सुध यत) ममत्व आर अहकार बढ़ जाता हरा ध्यानचआराध्या नहीं रहती यह राजकथा कहने सुनने का परिणाम है। रौद्र ध्यान लड़ने, मरने-मारने के भाव चलने लगते हैं, उसी में आनंद आने लगता विशेषार्थ- राजकथा बड़ी ही खतरनाक होती है। लड़ाई-झगड़े युद्धादि हो है (राज्यं वन विसेषितं) राज्य वैभव आदि का विशेषता से वर्णन करने से रौद्र * रहे हों तो वहाँ हिंसा के भाव चलते हैं। राजनीति की उलट-पुलट चल रही हो तो ध्यान बढ़ता है, जिससे नरक जाना पड़ता है। २ वहाँ छल, कपट, बेईमानी के भाव चलते हैं। अपने को कुछ लेना-देना नहीं है, कोई विशेषार्थ- विकथाओं में प्रमुख अनिष्टकारी स्त्रीकथा है। इसके बाद राजकथा) सम्बन्ध नहीं है, परन्तु राजकथा कहने सुनने से अशुभ भाव होने ही लगते हैं। होती है, जो अनिष्टकारी राग पैदा करती है। ममत्व और अहंकार को बढ़ाती है। हाता हा जिससे हमेशा संसार में भ्रमण करना पड़ता है। लड़ाई-झगड़े, हिंसा आदि मारपीट हिंसा रूप लड़ने, मारने-मरने के रौद्र परिणाम चलने लगते हैं। राज्य से संबन्धित धत विदेशी आक्रमण आदि की चर्चा सुनकर सब जीव भय से भयभीत हो जाते हैं, हर प्रकार के वातावरण देश-विदेश के समाचार और वर्तमान परिस्थिति के 14 पास्यात घबराहट मच जाती है, अब क्या होगा? यह तो बड़े दुःख के पहाड़ टूट पड़े। अब अनुसार नाना प्रकार के रौद्र ध्यान रूप परिणाम चलते हैं। इसमें छल, फरेब, हमारी रक्षा कौन करेगा? ऐसे में कैसे बचेंगे, अब क्या करें? आदि नाना प्रकार के मायाचारी, भ्रष्टाचार, अनीति, अन्याय आदि के नये-नये समाचार कहने सुनने में विकल्प चिन्ता भय के भाव चलने लगते हैं, जिससे अपने आत्म स्वरूप की कोई आते हैं। जिससे जीवन में बड़ी अशान्ति विषमता पैदा होती है। आजकल रेडियो सुध ही नहीं रहती। मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, मेरा सुनना, अखबार पढ़ना, सिनेमा आदि देखना सब इसी के अंतर्गत आते हैं। कोई नहीं है, कुछ नहीं है। जो होना है वह सब क्रमबद्ध निश्चित है यह सब भूल जाते इनसे परिणामों में बड़ी निकृष्टता भयभीतपना आता है, यह सब अधर्म है, दुःख हैं और इन्हीं भावों में विकल्पित होते रहते हैं। हिंसा, छल, बेईमानी आदि के नाना और दुर्गति के ही कारण हैं, आत्म कल्याण का प्रमुख बाधक कारण है और धर्म का ८ 5 प्रकार के रौद्र ध्यान चलते रहते हैं जिससे दुर्गति का बन्ध हो जाता है और संसार में घात करने वाला है। भ्रमण करना पड़ता है, निष्प्रयोजन व्यर्थ चर्चा विकथा करने का यह परिणाम है। राजकथा से और क्या होता है वह आगे कहते हैं आगे चोर कथा के स्वरूप का वर्णन करते हैंहिंसानंदी च राज्यं च, अनृतानंद असास्वतं। चौरस्य उत्पाद्यते भावं,अनर्थ सो संगीयते। कथितं असुह भावेन, संसारे भ्रमनं सदा॥१०२॥ असुद्ध परिनाम तिस्टंते,धर्म भाव न दिस्टते॥१०४॥ भयस्य भयभीतस्य, अनृतं दुष भाजनं । चौरस्य भावनं दिस्टा, आरति रौद्र संजुतं । भावं विकलितं जांति,धर्म रत्नं न सूझते ॥१०३॥ स्तेयानंद आनंद, संसारे दुष दारुनं ॥ १०५॥ अन्वयार्थ- (हिंसानंदी च राज्यं च) राज्य में, देश में, युद्ध हो रहा हो अन्वयार्थ- (चौरस्य उत्पाद्यते भावं) चोरों की कथा कहने, सुनने से वैसे भाव Parinirector Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री बाचकाचार जी गाथा-१.४. १०५ ७ पैदा होने लगते हैं (अनर्थ सो संगीयते) जो बड़े अनर्थकारी और दुष्ट होते हैं (असुद्ध तरफ दृष्टि हो तो पाप परिग्रह करने धरने के भाव होने लगते हैं। देश की परिनाम तिस्टते) अशुद्ध भावों में ठहरने पर (धर्म भाव न दिस्टते) धर्म भाव दिखाई तरफ देखो तो राजनीति बंद-फंद, लड़ने-मरने के भाव होने लगते हैं। नहीं देता। , अपनी तरफ देखो तो समता शान्ति आनंद में रहो। (चौरस्य भावनं दिस्टा) चोरी की भावना करने से (आरति रौद्र संजुतं) आर्त* यह जीवन में स्वयं के अनुभव की बातें हैं क्योंकि इन्हीं के कारण तो यह जीव ७ रौद्र ध्यानों में लीन हो जाते हैं (स्तेयानंद आनंद) और ऐसे चोरी करने के भावों में संसार में फंसा कर्मों से बंधा पराधीन हो रहा है। इनसे बचने छूटने का पुरुषार्थ ही आनंदित हो गये, आनंद मानने लगे (संसारे दुष दारुनं) यही संसार के दारुण दु:ख ज्ञानी का आचरण है और यही मुक्ति का मार्ग, सुख-शान्ति, आनंद में रहने का भोगने का कारण है। ८. कारण है। जैसे कारण में रहो, वैसा कार्य होता है। इसी बात को प्रशमरति प्रकरण विशेषार्थ- विकथा अधर्म ही है और इनका परिणाम क्या होता है, इसका। में उमास्वामी देव कहते हैंवर्णन चल रहा है। विकथा कोई क्रिया नहीं. मात्र चर्चा है। जिससे भावों में अशुभता आक्षेपणी विक्षेपणी विमार्गवाधन समर्थ विन्यासा। निकृष्टता आती है। संक्लेश परिणाम होते हैं। आर्त-रौद्र ध्यानरूप भाव चलते हैं* श्रोतुजन श्रोत्र मनः प्रसाद जननी यथा जननी॥१८२॥ जिससे नरक निगोदादि जाना पड़ता है। यहाँ चोर कथा का स्वरूप बताया जा रहा संवेदनी च निवेदनी च धा कथा सदा कुर्यात् । है कि जब चोरों की चोरी करने की कथा कहते सुनते हैं तो वैसे भाव पैदा होने लगते स्त्रीभक्त चौरजन पद कथाश्च दूरात्परित्याज्याः॥१८३॥ हैं जो बड़े अनर्थकारी और दुष्ट होते हैं और उन्हीं अशुद्ध भावों में ठहरने पर फिर उन्मार्ग का उच्छेद करने में समर्थ रचना वाली और श्रोताजनों के कानों और धर्म भाव, अपना आत्म स्वरूप दिखाई नहीं देता; क्योंकि जब तक यह आर्त-रौद्र, मन को माता की तरह आनंद देने वाली आक्षेपणी, विक्षेपणी. संवेदनी और निवेदनी रूप भाव चलते हैं, तब तक जीव को अपनी सुध-बुध नहीं रहती। S धर्म कथा सदैव करनी चाहिये तथा स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा को स्त्री कथा कहने सुनने से अब्रह्मानंद के भाव चलते हैं. भोजन कथा दूर से ही छोड़ देना चाहिये। कहने सुनने से विषयानंद के भाव चलते हैं। राजकथा कहने सुनने से 8 जो कथा जीवों को धर्म की ओर अभिमुख करती है उसे आक्षेपणी कहते हैं। हिंसानंद, अनृतानंद के भाव चलते हैं,चोर कथा कहने सुनने से चौर्यानंद जो कथा जीवों को काम भोग से विमुख करती है उसे विक्षेपणी कहते हैं। जो कथा के भाव चलते हैं। 2 जीवों को संसार से भयभीत करती है उसे संवेदनी कहते हैं तथा संसार शरीर भोगों जब ऐसे भाव चलते हैं तब उपयोग इन्हीं में लिप्त तन्मय हो जाता है,भयभीत से वैराग्य उत्पन्न कराती है उसे निवेदनी कहते हैं। जैसे-नरक गति में सर्दी-गर्मी होने लगता है, अशान्त होने लगता है, घबराहट मच जाती है क्योंकि यह विभावों का बड़ा कष्ट है। एक क्षण के लिये भी उस कष्ट से छुटकारा नहीं होता, कम से कम का तूफान बहुत तीव्र होता है। ऐसे में अपने स्वभाव की खबर ही नहीं रहती, धर्म 8 दस हजार वर्ष तक और अधिक से अधिक तैंतीस सागर तक वहाँ का कष्ट भोगना भाव दिखाई ही नहीं देता। संसारी जीव के साथ यही तो समस्या है और यह बड़ा पड़ता है। तिर्यंच गति में भी सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास और अतिभार के दु:ख के साथ गुप्त रहस्य है, जिसे सुलझाना सहज नहीं है। बुद्धि पूर्वक व्यर्थ चर्चा करने का सवारी में जुतना, डंडे वगैरह से पीटा जाना, नासिका वगैरह का छेदा जाना आदि का ९ परिणाम क्या होता है, इसका वर्णन चल रहा है। बुद्धिपूर्वक क्रिया कितनी घातक दु:ख भोगना पड़ता है। बाधक होती है, वह वर्णन आगे आयेगा । बुद्धि पूर्वक पर की तरफ देखने मात्र से मनुष्य गति में भी काना, लँगडा, बौना, नासमझ, बहरा, अंधा, कुबड़ा और कैसे भाव होने लगते हैं, इसे कहते हैं कुरूप होने के सिवाय ज्वर, कोढ़, यक्ष्मा, खांसी, दस्त तथा हृदय के रोगों का कष्ट घर परिवार की तरफ देखने से मोह माया के भाव चलने लगते हैं। भी उठाना पड़ता है तथा प्रियजन का वियोग अप्रियजन का संयोग, इच्छित वस्तुओं शरीर की तरफ देखने से विषय विकार के भाव होने लगते हैं। धन वैभव की कान मिलना, गरीबी, अभागापन,मन की खेद-खिन्नता और बध-बंधन आदि के ७४ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाचा-१०॥ Oo अनेक दु:खों को भी भोगना पड़ते हैं। चोरी कृत व्रतधारी च, जिन उक्तं पद लोपन । देवगति में अन्य देवों का उत्कर्ष और अपना अपकर्ष देखकर दु:ख होता है तथा बलवान देव की आज्ञा में अन्य अल्प पुण्य वाले देव हाथी, बैल, घोड़ा और मयूर । असास्वतं अनृतं प्रोक्तं, धर्म रत्न विलोपितं ।। १०६॥ आदि का रूप धारण करके सवारी के काम में लाये जाते हैं तथा जब स्वर्ग से च्युत अन्वयार्थ- (चोरी कृत व्रतधारी च) व्रतधारी होकर और चोरी करना (जिन होने में छह माह बाकी रह जाते हैं तो अवधिज्ञान से अपने गन्दे और भद्दे जन्म स्थान उक्तं पद लोपन) जिनेन्द्र के वचनों का और पद का लोप करना विपरीत कहना, को जानकर वे बड़े दुःखी होते हैं। इस प्रकार की संवेदनी कथा से यह जीव चतुर्गति विपरीत आचरण करना (असास्वतं अनृतं प्रोक्तं) इधर-उधर की झूठी मान्यतायें, रूप संसार से विरक्त होकर मोक्ष में लगता है तथा वर्तमान मनुष्य भव में स्त्री आदि ८ आचरण जो शाश्वत और सत्य नहीं हैं, मिथ्या हैं, झूठे हैं उन्हें कहना और करना से रति करने वाला मोह के उदय से उसी तरह सुख मानता है,जैसे-खाज का रोगी (धर्म रत्न विलोपित) धर्म रत्न अपने आत्म स्वभाव को लोप करना चुराना है। खाज को खुजाने में सुख मानता है; अत: मनुष्य को इन काम भोगों से विरक्त होकर विशेषार्थ- यहाँ यह बताया जा रहा है कि विकथाओं को कहना सुनना अधर्म मोक्ष प्राप्ति की साधना करनी चाहिये। है। इससे जीव दुर्गति जाता है, संसार के दु:ख भोगता है। उसमें चोर कथा के इस प्रकार इन धर्म युक्त कथाओं को करना चाहिये क्योंकि कथायें कुमार्ग का अन्तर्गत चोरी करने के परिणाम से संसार में दारुण दुःख भोगना पड़ते हैं क्योंकि नाश करने में समर्थ होती हैं। जैसे-माता सुखकर हितकारी कथायें उपदेश देकर उससे आर्त-रौद्र ध्यान चलता है जो महा दु:खदायी होता है। बालक के मन को प्रसन्न करती है। उसी प्रकार यह कथायें सुनने वालों के कान और यहाँ प्रश्न है कि जिन्होंने अणुव्रत, महाव्रतधारण कर लिये हैं जो व्रतधारी हो मन को आनंदित करती हैं और स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा को दूर गये हैं, उन्हें तो फिर चोरी हिंसादि पाप नहीं लगते? उसके उत्तर में श्री तारण से ही छोड़ देना चाहिये। स्त्रियों के रूप, यौवन, लावण्य, वेषभूषा तथा चाल-ढाल स्वामी कह रहे हैं कि जिन्होंने व्रत धारण कर लिये हैं,जो अणुव्रती श्रावक, महाव्रती की चर्चा करने को स्त्रीकथा कहते हैं। दाल, भात,शाक,खांड,खाजा आदि भोजन साधु हो गये हैं परंतु यदि वह जिनेन्द्र के वचनों का लोप करते हैं। अपने पद के की चर्चा को भोजनकथा कहते हैं। चोर अमुक प्रकार से गड्ढे खोदते हैं, ताले विपरीत आचरण करते हैं तो वह भी चोर हैं, ऐसे कुदेव-अदेवादि की पूजा मान्यता खोलते हैं, दूसरों को ठगते हैं इत्यादि चर्चा को चोरकथा कहते हैं। अमुक देश में यह करना और शारीरिक आचरण, व्रत, संयम, खान-पान की शुद्धि आदि को धर्म होता है, अमुक देश में यह होता है, अमुक देश में यह हो रहा है, अमुक जगह यह हो कहना और धर्म मानकर उन्हीं में लगे रहना, अपने धर्म रत्न का लोप करना, आत्म रहा है, आजकल यह चल रहा है, ऐसा होने वाला है ऐसी चर्चा को देशकथा,राजकथा स्वभाव को चुराना, आत्मा का घात करना, महा हिंसा और पाप है; क्योंकि सत्य कहते हैं। ९ वस्तु स्वरूपको कहना, वैसा ही श्रद्धान करना मानना कि मैं एक अखंड अविनाशी इन विकथाओं से परिणामों में विकृति आती है। भय, चिन्ता व्याप्त रहती चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं मेरे नहीं, मेरा शुद्ध स्वभाव है। आर्त-रौद्र ध्यान चलते हैं। अब क्या होगा? ऐसे संक्लेश भाव रहते हैं। जिससे शुद्धात्म स्वरूप यही मेरा सच्चा धर्म है। इसी की साधना, आराधना धर्म की साधना वर्तमान जीवन भी दु:खमय रहता है और भविष्य भी दु:खमय बनता है ; इसलिये आराधना है और इसी से जीवन में सुख शान्ति आनंद और मुक्ति की प्राप्ति होती र इन कथाओं को वचनों से कहना तो दूर, मन से भी नहीं सोचना चाहिये। 5 है। इसके अतिरिक्त यह दया, दान, संयम,तप, पूजा, भक्ति आदि बाह्य आचरण दूसरों के गुण-दोषों के प्रगट करने में मन के लगे रहने से कर्म बन्ध होता है, सब पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ कर्म संसार के कारण अधर्म ही हैं। इनसे कभी भी यह विकथायें कहना सुनना तो अधर्म पाप कर्म बन्ध और दुर्गति का कारण है ही तीन काल धर्म नहीं हो सकता। जैसे-पानी के विलोने से कभी मक्खन नहीं निकल तथा जिनेन्द्र के वचनों का लोपन करना,व्रतधारण करके विपरीत आचरण करना, सकता, नमक को खाते-खाते कभी मिश्री का स्वाद नहीं आ सकता। ऐसे ही यह धर्म के विरुद्ध कहना भी चोरी है। इसे आगे कहते हैं बाह्य आचरण शारीरिक क्रिया करते हुए कभी भी तीन काल धर्म नहीं हो सकता। ७६ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी जिनेन्द्र परमात्मा ने तो अपना इष्ट निज शुद्धात्मा ही कहा है। अपना चैतन्य लक्षण शुद्ध स्वभाव ही धर्म कहा है और धर्म तो श्रद्धान अनुभूति का विषय है। जो स्वयं में स्वयं को स्वयं से होता है। इसी बात को नेमिचन्द्राचार्य ने द्रव्य संग्रह में कहा है सम्महंसण णाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे । ववहारा णिच्छयदो तत्तियमइओ णिओ अप्पा ॥ ३९ ॥ रणतयं ण वह अप्पार्ण मुयन्तु अण्णदवियन्हि । ह्या तत्तिय मइओ होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा ॥ ४० ॥ व्यवहार नय से सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों के समुदाय को मोक्ष का कारण जानो और निश्चय से सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनों स्वरूप जो निज आत्मा है वही मोक्ष का कारण है। निज शुद्धात्मा को छोड़कर अन्य अचेतन द्रव्य में रत्नत्रय नहीं रहता है। रत्नत्रय अर्थात् सुख शान्ति आनंद । इस कारण रत्नत्रय मय आत्मा को ही निश्चय से मोक्ष का कारण जानो यही सत्य धर्म है। जिनेन्द्र के वचनों का लोप करना और अपनी मनमानी करना यह चोरी ही है, महान पाप है। जिस धर्मरत्न से आत्म कल्याण होता है उसको इसने चुरा लिया, छिपा लिया अधर्म में फंस गया और धर्म का चोर बन गया। YAAN YANA GANART YEAR. महाव्रती साधु होकर परिग्रह रखना, रुपया पैसा रखना, खेती कराना, लेन-देन करना, वस्त्रादि रखना, पालकी आदि पर चढ़ना यह सब क्रिया मुनिधर्म को लोप करने वाली है, ऐसी क्रियाओं को करते हुए अपने को साधु पद में कहना, मुनिधर्म को लोप करके धर्म की चोरी करना है। इसी प्रकार श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं में जो-जो आचरण जिस-जिस प्रतिमा योग्य है उसको भले प्रकार न पालकर और का और पालना व अपने को व्रती श्रावक मानना, धर्मरत्न को चुराना अर्थात् अपना आत्मघात करना है; क्योंकि सौभाग्य से ऐसा शुभयोग मिला और उसे भी अज्ञान मिथ्यात्व अधर्म और कुगुरुओं के जाल में फंसकर कुदेव - अदेवादि की पूजा भक्ति में ही गंवा दिया अपना आत्महित नहीं किया, सत्य वस्तु स्वरूप धर्म को नहीं जाना तो फिर इस मनुष्य भव को पाने का लाभ ही क्या मिला ? यहाँ कोई प्रश्न करे कि हम सत्य वस्तु स्वरूप समझना और सत्य धर्म को उपलब्ध करना चाहते हैं और इसीलिये यह बाह्य में नियम-संयम व्रतादि पालते हैं ७६ गाथा - १०६ फिर इसमें भूल कहाँ है जो हम भटक जाते हैं या सत्य धर्म निज शुद्धात्मानुभूति नहीं कर पाते इसका कारण क्या है ? इसका समाधान करते हैं कि इसमें हमारी मानसिक अस्थिरता, धर्म के संबंध में उतावलीपन करना है, जबकि यह हमारे जीवन का विशेष महत्वपूर्ण विषय है। धर्म के निर्णय पर ही हमारा वर्तमान जीवन और भविष्य आधारित है। इसके लिये हमें साम्प्रदायिक जाति-पांति के बंधन को तोड़ना होगा, विवेक बुद्धि से काम लेना होगा, दृढ़ता और गंभीरता आवश्यक है। जैसे- हम किसी वस्तु को खरीदना चाहते हैं, बाजार जाते हैं तो दस दुकान पर तपास कर अच्छा और सही मूल्य देखकर खरीदते हैं। वहाँ जाति-पांति का विचार नहीं करते और न इस बंधन में रहते कि इसी दुकान से लेंगे चाहे जैसे मिले। उधार वाला तो बंधा होता है, जैसी जो कुछ मिले वह मजबूर है; परंतु नगद वाला बंधा नहीं होता, हमें भी मनुष्य भव बुद्धि विवेक मिला है इसमें भी इन साम्प्रदायिक बन्धनों में बंधे रहे तो सत्य वस्तु स्वरूप प्राप्त नहीं कर सकते। यह तो हमारे विवेक बुद्धि और पुरुषार्थ की बात है कि सत्य की खोज करें, ज्ञानी सद्गुरुओं की खोज करें, सत्संग करें और स्वयं के विवेक से सत्य को उपलब्ध करें। यहाँ एक बात का और विशेष ध्यान रखना है कि निज शुद्धात्मानुभूति कब होती है, सम्यक्दर्शन कब और कैसे होता है, इसके विकल्प में न फंसें, वह तो हमारी पात्रता काललब्धि आने पर स्वयमेव होगा लेकिन सत्य वस्तु स्वरूप को समझ तो लेवें कि वास्तव में सत्यधर्म क्या है ? क्योंकि जब मान्यता ही विपरीत होगी, आचरण ही उल्टा होगा तो सत्य की उपलब्धि भी नहीं होगी। बाजार में दो रुपये का घड़ा ठोक बजाकर देखकर लेते हैं और धर्म के सम्बन्ध में कोई विवेक नहीं रखते हैं। जो वंश परम्परा या साम्प्रदायिक आचरण चल रहा है उसे ही धर्म मानकर करते रहते हैं, यही तो सबसे बड़ा धोखा है। धर्म के लिये बड़ी जागरूकता हिम्मत और विवेक की आवश्यकता है। अनेकों ज्ञानी महापुरुषों ने इस सत्य धर्म को अपना जीवन समर्पित करके स्वयं का कल्याण करते हुए हमारा मार्गदर्शन किया। हम भी विवेक बुद्धि से काम लें, समझने की कोशिश करें, चाहे जिसकी बातों में न लगें, तो सब सहज में सुलभ हो सकता है। यहाँ विशेष महत्वपूर्ण बात जो निर्णय करने की है वह यह है कि अशुभ भाव और अशुभ क्रिया संसारी आरंभ, परिग्रह, विषयादि, यह सब पाप अशुभ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PO4 श्री श्रावकाचार जी कर्म संसार में रुलाने वाले दुःख देने वाले नरक और तिथंच गति ले जाने वाले संचित) व्यसन तो अधर्म में ही रत रहना है (जे नरा भावं तिस्टते) जो मनुष्य इनके ४ तथा शुभ भाव और शुभ क्रिया दया, दान, व्रत, नियम, संयम, पूजन, भावों में लगे रहते हैं अर्थात विकथा और व्यसनों में ही रत रहते हैं (दुष दारुनं पुन: ५ भजन आदि पुण्य शुभकर्म संसार में संसारी सुख देवगति, मनुष्य गति के पुनः) वे बार-बार दारुण दुःख भोगते हैं। कारण हैं। यह दोनों पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ कर्म संसार के ही कारण हैं, यह विशेषार्थ- यहाँ अधर्म का वर्णन चल रहा है। संसाराशक्त बहिरात्मा कुदेवादि कोई भी धर्म नहीं है, अधर्म ही हैं। की मान्यता पूजा, कुगुरु की वंदना भक्ति करता है और अधर्म में रत रहता है। इसलिये धर्म तो एकमात्र चैतन्यमयी शब स्वभाव ही अपना सत्य धर्म है। पर अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। स्वभाव से सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा का शुद्ध स्वभाव उसका अपना धर्म है। उससे भी न मेरा कोई संबंध है और ६ परमब्रह्म परमात्मा है परंतु अपने आपको भूला हुआ पुद्गलशरीरादि को ही देख रहा है न उससे मेरा भला होने वाला। जैसे- एक चेतन जीव द्रव्य है और पुदगल' और इनके पीछे ही यह कुकर्म करके स्वयं संसार में रुल रहा है, दु:ख भोग रहा है। यहाँ अचेतन द्रव्य है तो एक जीव से पुद्गल तो भिन्न है ही, परंतु दूसरा चेतन अधर्म की जड़ विकथा है यह बताया जा रहा है और इसके साथ सातव्यसन तो अधर्म जीव भी अचेतनवत् भिन्न है। ऐसे ही वस्तु स्वभाव तो धर्म है परन्तु मेरा चैतन्य लक्षण निज शब स्वभाव ही मेरा धर्म है। शेष सभी पर द्रव्य, पर जीव व्यसन-बुरी आदत या लत को व्यसन कहते हैं। किसी चीज का नशा लग के शुद्धस्वभाव भी मेरे लिये अचेतनवत् भिन्न हैं। ऐसा निर्णय,ऐसीस्वीकारता जाना, बार-बार उसे ही करने के भाव होना तथा वैसी क्रिया करना व्यसन कहलाता हीधर्म की सच्ची स्वीकारता है। इसी से कल्याण होता है,यह है जैन दर्शन है। व्यसन सात होते हैं-१. जुआँ खेलना, २. माँस खाना, ३. शराब पीना, का मूल आधार, स्वतंत्रता की घोषणा, जिनेन्द्र परमात्मा की देशना जो इसे ४. वेश्या सेवन करना.५.शिकार खेलना, ६. चोरी करना,७. परस्त्री रमण करना। स्वीकार करता है, इस अनुसार चलता है वह जिनेन्द्र का उपासक, धर्म 5 जुआं खेलना मांस मद, वेश्या व्यसन शिकार। श्रद्धानी, व्रतधारी, मोक्षमार्गी है। जो इसके विपरीत है वह चोर है,व्रतधारी चोरी परस्त्री रमण, सातों व्यसन निवार । हो या महाव्रतधारी हो परन्तु उससे आत्म कल्याण होने वाला नहीं है। वह यह व्यसन महा दु:खदाई होते हैं। वर्तमान जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं संसार में ही रुलता रहेगा। धर्म को धर्म जानो, कर्म को कर्म मानो,यही सत्य और भविष्य में दुर्गति दुःख दाता होते हैं। जिन बुरी आदतों में मनुष्य आसक्त हो की स्वीकारता कल्याण का कारण है। जावे तथा जिनके सेवन से इस लोक में धन हानि, यश हानि, शरीर हानि और धर्म इसलिये संसार में पर वस्तु की चोरी आदि पाप तो दुःख और दुर्गति के र दुगात क हानि उठाना पड़े तथा तीव्र पाप बांध कर नरक आदि के दुःख उठाना पड़े तथा एक कारण हैं ही, उन्हें छोड़कर यदि धर्म के नाम पर चोरी करते हैं तो यह तो आत्मा का ८ बार नहीं। बार नहीं, बार-बार दु:खों को भोगने वाली पर्यायों में जन्म-मरण करना पड़े ऐसे ही घात करना है। धर्म रत्न का लोप करने से अनन्त संसार में भटकना पड़ेगा। विकथा और व्यसनों से आत्म कल्याणार्थी को दूर रहना चाहिये, बचना चाहिये। पापों का परित्याग कर सही धर्म मार्ग पर चलें तो कल्याण होगा। इन सात व्यसनों के सेवन करने से क्या दुर्दशा दुर्गति होती है ? उसका अधर्म में आर्त-रौद्र ध्यान, चार विकथा तो मूल आधार हैं। सात व्यसनों में कमशः वर्णन करते हैंर रत रहना तो अधर्म में ही रत रहना है। इसी बात को आगे कहते हैं जुआं व्यसन का परिणाम कहते हैं३. सात व्यसनों का सेवन करना अधर्म है जूआ असुद्ध भावस्य,जोइत अनृतं सुतं । विकहा अधर्म मूलस्य, विसनं अधर्म संचितं । परिणय आरति संजुक्तं,जूआ नरस्य भाजनं ॥ १०८॥ जे नरा भावं तिस्टंते, दुष दारुनं पुनः पुनः ॥१०॥ अन्वयार्थ- (जूआ असुद्ध भावस्य) अशुद्ध भावों को जुआं कहते हैं (जोइतं अन्वयार्थ- (विकहा अधर्म मूलस्य) विकथा अधर्म की जड़ है (विसनं अधर्म Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री श्रावकाचार जी गाथा-१०९.११२ SOON अनृतं सुतं) मिथ्या शास्त्रों को पढ़ना जिससे अशुद्ध भाव हो वह भी जुआं है (परिणय संपूर्ण इन्द्रियों वाला होकर भी किसी के द्वारा कुछ नहीं जानता है। वह झूठी शपथ आरति संजुक्तं) आर्त भावों में लगे रहना और उन्हीं का बार-बार विचार करना भी करता है, झूठ बोलता है, अति दुष्ट वचन कहता है और क्रोधान्ध होकर पास में जुआं है (जूआ नरस्य भाजन) जुआं नरक का पात्र बनाता है। खड़ी हुई बहिन, माता और बालक को भी मारने लगता है। जुआँरी मनुष्य निरन्तर विशेषार्थ- यहाँ व्यसन के प्रकरण में जुआ खेलना व्यसन के स्वरूप का * चिन्तातुर रहता है। जुआं खेलने में उक्त अनेक भयानक दोष जान करके दर्शन गुण ७ चिन्तातुर रहता है। जुआ खलन वर्णन चल रहा है। ताश, चौपड़, शतरंज या अन्य खेल जिनमें धनादि का दांव को धारण करने वाले उत्तम पुरुष को जुआं का हमेशा के लिये त्याग करना चाहिये। लगाकर हार-जीत का खेल खेला जाता है उसे जुआँ खेलना कहते हैं। इससे (वसुनन्दि श्रावकाचारगाथा ६० से ६९तक) वर्तमान जीवन दु:खमय बनता है और भविष्य में नरक जाना पड़ता है। यह तो आगे मांस भक्षण के दोष कहते हैंत्याज्य है ही क्योंकि इससे परिणामों में निकृष्टता रहती है। यहाँ तारण स्वामी कहते . मासं रौद्र ध्यानस्य, संमूर्छन जन तिस्टते। हैं कि जो बाहर में तो जुआं नहीं खेलते परन्तु अशुद्ध भावों में रमण करते हैं यह भी जलं कंद मूलस्य, साकं संमूर्छनस्तथा ॥ १०९॥ जुआ खेलना है क्योंकि जीव के शुद्ध भावों से मुक्ति और अशद्ध भावों से संसार स्वादं विचलितं जेन,संमूर्छनं तस्य उच्यते । मिलता है इसलिये जीव का सबसे बड़ा जुआं तो यही है। बाहर में जुआं खेलना तो प्रत्यक्ष ही अशुद्धभाव रूप निंदनीय त्याज्य है। खोटे शास्त्र, कथा, कहानी, उपन्यास जे नरा तस्य भुक्तंच, तियचं नरय स्थितं ॥ ११०॥ आदि पढ़ना भी भावों को अशुद्ध करने वाला व्यसन जुआं ही है। विदल संधान बंधानं,अनुरागंजस्य गीयते। आर्त भाव-इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, पीड़ा चिन्तवन, निदान बंध इन भावों मनस्य भावनं कृत्वा, मासं तस्य न सुद्धये ।। १११ ।। में लगे रहना, दु:खी शोकमय खेद-खिन्न रहना भी जुआं जैसा ही है। यह भाव ही फलं संपूर्न भुक्तं च, संमूर्छन ब्रस विभ्रमं । नरक का पात्र बनाते हैं, क्रिया और भाव यही तो कर्मबन्ध के कारण हैं। 'जुआं खेलने वाले पुरुष को क्रोध मान माया लोभ यह चारों कषाय तीव्र जीवस्य उत्पन्नं दिस्टा,हिंसानंदी मांस दूषनं ॥११२॥ होती हैं, जिससे जीव अधिक पाप को प्राप्त होता है। उस पाप के कारण यह जीव अन्वयार्थ- (मासं रौद्र ध्यानस्य) रौद्र ध्यानों का होना और उनमें ही लगे जन्म, जरा, मरण रूपी तरंगों वाले दःख रूप सलिल से भरे हए और चतर्गति गमन रहना मांस खाना है (संमूर्छन जत्र तिस्टते) जहाँ संमूर्च्छन जीव रहते. ठहरते हैं रूप आवर्ती (भावों) से संयुक्त ऐसे संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है। उस संसार (जलं कंद मूलस्य) ऐसे जल और कंद मूलों को (साकं संमूर्च्छनस्तथा) तथा साक में जुआं खेलने के फल से यह जीव शरण रहित होकर छेदन-भेदन,कर्तन आदि के भाजी को जिसमें संमूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति होती है उसे खाना मांस खाने अनन्त दु:ख को पाता है। जुआं खेलने से अन्धा हुआ मनुष्य इष्ट मित्र को कुछ नहीं के समान है। गिनता है। न गुरु को, न माता को और न पिता को ही कुछ समझता है किन्तु (स्वाद विचलितं जेन) जिन खाद्य पदार्थों, भोजन, फल व रसादि का स्वाद स्वच्छन्द होकर पापमयी बहुत से अकार्यों को करता है। जुआ खेलने वाला परुष बिगड़ जावे (संमूर्छनं तस्य उच्यते) उनमें संमूर्च्छन व त्रस जीव पैदा होने लगते हैं स्वजन में, परजन में, स्वदेश में, परदेश में, सभी जगह निर्लज्ज हो जाता है। जआं ऐसा कहते हैं (जे नरा तस्य भुक्तं च) जो मनुष्य ऐसे स्वाद बिगड़े खाद्य पदार्थों को 9 खेलने वाले का विश्वास उसकी माता तक भी नहीं करती है। इस लोक में अग्नि, खाता है (तिर्यंचं नरय स्थितं)उसे तिर्यंच और नरक गति जाना पड़ता है। विष, चोर और सर्प तो अल्प दु:ख देते हैं; किन्तु जुआं खेलना मनुष्य के हजारों (विदल संधान बंधानं) द्विदल, दो दाल वाली वस्तु दूध-दही के साथ अचार लाखों भवों में दु:ख को उत्पन्न करता है। आँखों से रहित मनुष्य यद्यपि देख नहीं मुरब्बा आदि (अनुरागंजस्य गीयते) जो इन वस्तुओं को बड़ी रुचि राग पूर्वक खाते हैं सकता है तथापि शेष इन्द्रियों से तोजानता है परंतु जुआ खेलने में अंधा हआ मनुष्य (मनस्य भावनं कृत्वा) मन से खाने की भावना करते हैं (मासं तस्य न सुद्धये) वह ७८ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री बाचकाचार जी गाथा-११३ R OO मांसाहार के त्यागी होते हुए भी उन्होंने मांस खाना छोड़ा नहीं है। देखकर नहीं खाते वह भी मांसाहारी हैं तथा हिंसा में आनंद मानना भी मांस का दूषण (फलं संपूर्न भुक्तंच) जो साबुत फल को बिना देखे शोधे खाता है (संमूर्छन है इसलिये जो जीव अपना आत्म कल्याण करना चाहते हैं, संसार के दु:ख नरक त्रस विभ्रमं) उसमें संमूर्छन त्रस जीवों के होने का संशय रहता है (जीवस्य उत्पन्नं निगोद आदि दुर्गतियों से बचना चाहते हैं उन्हें इन विकथाओं का, व्यसनों का, उनके 0 दिस्टा) क्योंकि फलों में संमूर्च्छन और त्रस जीवों को पैदा होते देखा जाता है * अतिचार सहित सर्वथा त्याग कर देना चाहिये तथा हमेशा अपने भावों की संभाल ७ (हिंसानंदी मांस दूषन) उनका सेवन करना तथा हिंसा में आनंद मानना यह सब रखना चाहिये; क्योंकि परिणाम ही कर्म हैं। भावों से ही कर्म बंधते हैं और इसी से यह मांस खाने के दोष कहे गये हैं। जीव संसार में रुलता है। विशेषार्थ- सप्त व्यसन में दूसरा व्यसन मांस खाना है। किसी भी प्राणी के मांस के दोषों को बचाने के लिये यह बात बहुत जरूरी है कि जिस किसी शरीर का घात करके अथवा मरे हुए शरीर का मांस खाना यह महानिंद्य कर्म महान । वस्तु में सम्मूर्च्छन त्रस जन्तु पैदा हों उसको नहीं खाना चाहिये। हर एक भोजन जो हिंसा का कारण नरक ले जाने वाला है। मांस खाने वाला रौद्र ध्यानी, कठोर, दुष्ट बना हुआ ताजा होगा वह अपने स्वाद में रहेगा । बासी होने पर रस चलित हो चित्त वाला होता है। मांस में अनन्त संमूर्च्छन और त्रस जीवों की उत्पत्ति होती है, जायेगा, जो फल सड़ जावे, गल जावे वह रस चलित होगा, जो घी या तेल अपने उसके खाने से अनन्त जीवों का घात होता है और महान हिंसा का दोष लगता है। असली स्वाद में न होगा वह रस चलित होगा, ऐसे पदार्थों को खाना श्रावक को यहाँ तारण स्वामी कहते हैं कि जो बाहर से मांसाहार के त्यागी हैं परन्तु जिनके रौद्रर उचित नहीं है। ध्यानों का सद्भाव चल रहा है वह मांसाहारी ही हैं. उन्हें वही मांस खाने के दोष से किसी भी फल को तोड़कर देखकर खाना उचित है क्योंकि उसके भीतर त्रस अनन्त अशुभ कर्मों का बन्ध होता है तथा जो मांसाहार के त्यागी हैं परन्तु जल, जीव पैदा होने की संभावना है। बादाम, सुपारी, जामफल, आम आदि के भीतर कंदमूल, शाक भाजी, जिनमें संमूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति होती रहती है तथा जिस कभी-कभी कीड़ा निकल आते हैं। अच्छी तरह से देखे बिना कोई फल या वस्तु वस्तु का स्वाद बिगड़ जावे, उसमें भी संमूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति होती है, जो नहीं खाना चाहिये, जो बिना देखे खाते-पीते हैं वह हिंसा की परवाह नहीं करते वे मनुष्य इनको खाते हैं वह मांसाहारी ही हैं। वे नरक तिर्यंच गति ही जाते हैं। यहाँ हिंसा में आनंद मानते हैं, उनको मांस का दोष आता है। प्रयोजन यह है कि जिस मांस खाने का त्याग कर देने मात्र से मांसाहार का त्यागी नहीं हुआ; क्योंकि जिन चीज में संमूर्छन, त्रस जीवों की उत्पत्ति हो गई है व होने की संभावना हो उस वस्तु चीजों में संमूर्छन और त्रस जीवों की उत्पत्ति होती है, उनका सेवन करना खाना को दयावान मांसाहार त्यागी को नहीं खाना चाहिये। शुद्ध रसोई खान-पान करने भीमांस खाना है। जैसे-पानी, इसमें संमूर्छन और त्रस जीव रहते ही हैं तो इसकोसे ही श्रावक यथार्थ में मांस के सर्व दोषों से बच सकता है। बिना छाने, शुद्ध प्रासुक किये बिना पीना मांस दूषण है। ऐसे ही कंदमूल- आलू, विकथा वचन की क्रिया होती है, जिससे भाव बिगड़ते हैं। व्यसन शारीरिक मूली, अदरख, घुइयाँ, प्याज आदि जिनमें निरंतर ही संमूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति क्रिया होती है इससे भी भाव बिगड़ते हैं। मन, वचन, काय की क्रिया से आस्रव होती रहती है इन्हें खाना भी मांसाहार है; तथा शाक भाजी, फूल गोभी आदि होता है और जीव के भाव से बन्ध होता है अत: जो आस्रव बन्ध से बचना चाहते हैं जिनमें संमूर्छन जीवों की उत्पत्ति होती है तथा त्रस जीव भी रहते हैं इनका सेवन उन्हें द्रव्य संयम अर्थात् मन, वचन, काय की क्रिया को संयम मय करना होगा तभी करना खाना भी मांसाहार है तथा दो दाल वाली वस्तु दूध-दही आदि में मिलाकर भाव संयम होगा और आस्रव बन्ध रुकेगा। खाना, अचार मुरब्बा आदि जिनमें संमूर्छन जीव पैदा होते हैं. रहते हैं. त्रस जीव आगे मद्य पान के दोषों का वर्णन करते हैंभी पैदा हो जाते हैं, इनको खाना तथा ऐसी चीजों को मन से खाने के भाव करना भी मचं ममत्व भावेन, राज्यं आरूढ़ चिंतनं । मांसाहार का दूषण है तथा साबुत फलों को खाना क्योंकि फलों में तो संमूर्च्छन ही भाषा सुद्धिन जानते,मचं तस्य विसंचितं ॥११३॥ नहीं, त्रस जीवों को पैदा होते देखा जाता है तो जो फलों को भी बनाकर शोधकर Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010 Sotatodiherovetoads 040 श्री श्रावकाचार जी गाथा-११३-११७ POOO अनृतं असत्य भावं च,कार्याकार्य न सूझये। (जिन उक्तं सुद्धतत्वार्थ) जिनेन्द्र परमात्मा ने जो शुद्ध तत्वार्थ अर्थात् शुद्धात्म ते नरा मद्यपा होति, संसारे भ्रमनं सदा॥११४॥ स्वरूप को ही इष्ट और उपादेय कहा है (जेन साधं अव्रतं व्रती) उसका, जो व्रती हो । या अव्रती हो, श्रद्धान और आराधन नहीं करता है (अन्यानी मिथ्या ममत्तस्य) वह जिन उक्तं न सार्धन्ते,मिथ्या रागादि भावना। * अज्ञानी मिथ्या मोह ममत्व में (मद्ये आरूढ़ ते सदा) हमेशा शराब के नशे में उनमत्त ७ अनृतं नृत जानति, ममतं मान भूतयं ॥११५॥ रहता है। सुख तत्वं न वेदंते,असुखं सुख गीयते । विशेषार्थ- यहाँ व्यसनों के प्रकरण में मद्यदोष शराब पीने का वर्णन चल रहा मद्यं ममत्त भावस्य, मद्य दोषं जथा बुधैः॥११६॥ है, संसारी व्यवहार में गुड़, महुआ, मुनक्का, अंगूर आदि को सड़ा-गलाकर जो जिन उक्तं सुख तत्वार्थ, जेन सार्थ अव्रतं व्रती। ! मादक पदार्थ तैयार किया जाता है उसको शराब कहते हैं। इसके पीने से मनुष्य बेसुध, मदहोश, बाबला रहता है, उसे अपनी या किसी की कोई खबर नहीं रहती। अन्यानी मिथ्या ममत्तस्य, मधे आरूढ़ ते सदा॥११७॥ संसार में अज्ञानी जीव गम या थकावट मिटाने के लिये नशा करते हैं। भांग, गांजा, अन्वयार्थ- (मद्यं ममत्व भावेन) ममत्व भाव ही मद्यपान, शराब पीना है अफीम,तम्बाकू, बीड़ी, चाय आदि भी इसी व्यसन के अंतर्गत आते हैं। शराब आदि (राज्यं आरूढ चिंतन) मैं सबका मालिक जिम्मेदार हैं. सब मेरे अधिकार में है. ऐसा नशीले पदार्थों का सेवन करने से मनुष्य की क्या दशा होती है, इसका वर्णन वसुनन्दि चिंतन, इन्हीं विचारों में संलग्न रहना (भाषा सुद्धि न जानते) जिसके बोलने का श्रावकाचार में गाथा ७० से ७९ तक किया है वह लिखते हैंकोई ठिकाना नहीं रहता, चाहे जो कहता है (मद्यं तस्य विसंचितं) उसी को शराबी मद्यपान से मनुष्य उन्मत्त होकर अनेक निंदनीय कार्यों को करता है और कहा जाता है। S इसीलिये इस लोक और परलोक में अनन्त दुःखों को भोगता मद्यपायी उन्मत्त (अनृतं असत्य भावं च) जो मिथ्या और असत्य भावों में लगा रहता है ॐ मनुष्य लोक मर्यादा का उल्लंघन कर बेसुध होकर चौराहे में गिर पड़ता है और इस (कार्याकार्य न सूझये) जिसे कोई कार्य-अकार्य नहीं सूझता, क्या अच्छा है, क्या प्रकार पड़े हुए उसके लार बहते हुए मुख को कुत्ते जीभ से चाटते हैं। उस बेसुध पड़े बुरा है, क्या उचित है, क्या अनुचित है ? जिसको इसकी सुध नहीं रहती, बेभूल है हुए मद्यपायी के पास जो कुछ द्रव्य होता है उसे दूसरे लोग हर ले जाते हैं, पुनः कुछ (ते नरा मद्यपा होति) वह मनुष्य शराब पिये हुए है, शराबी है (संसारे भ्रमनं सदा) होश में आकर गिरता पड़ता बकता जाता है कि जिस बदमाश ने मेरा द्रव्य चुराया ऐसा शराबी अज्ञानी प्राणी सदा संसार में ही भ्रमण करता है। है, मैं तलवार से उसका सिर काटूंगा इस प्रकार कुपित वह गरजता हुआ अपने घर (जिन उक्तं न सार्धन्ते) जिनेन्द्र भगवान ने क्या कहा है, इसका वह श्रद्धान 5 जाकर लकड़ी लेकर बर्तनों को फोड़ने लगता है। वह अपने ही पुत्र को, बहिन को नहीं करता है, अपने आत्म स्वरूप की तरफ नहीं देखता (मिथ्या रागादि भावना) और अन्य भी सबको लात मारने लगता है और नहीं बोलने योग्य वचनों को बकता मिथ्यात्व राग-द्वेषादि के भावों में लगा रहता है (अनृतं नृतंजानंति) क्या शाश्वत है, है। मद्यपान से प्रबल उन्मत्त हुआ वह भले-बुरे को नहीं जानता तथा और भी अनेक क्या अशाश्वत है ? नाशवान क्षणभंगुर को अविनाशी शाश्वत जानता है (ममतं निर्लज्ज कार्यों को करके बहुत पाप का बंध करता है। इस पाप से वह जन्म, जरा, मान भूतयं) ममत्व का और मान का भूत उसके सिर पर चढ़ा रहता है। मरण रूप संसार में अनन्त दु:ख को पाता है। इस तरह मद्यपान में अनेक प्रकार के (सुद्ध तत्वं न वेदंते) शुद्धतत्व अपने शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव अनुभूति दोषों को जान करके मन, वचन, काय तथा कृत, कारित, अनुमोदना से उसका नहीं करता (असुद्धं सुद्ध गीयते) अशुद्ध को ही शुद्ध कहता है, जो कुछ हूँ यही मैं हूँ त्याग करना चाहिये। अर्थात् यह शरीरादि रूपधारी ही में हूँ (मद्यं ममत्त भावस्य) ममत्व भाव की शराब यह तो संसार में मद्यपान का परिणाम है। यहाँ श्री तारण स्वामी कहते हैं कि 9 पिये रहता है (मद्य दोषं जथा बुधैः)ज्ञानी जनों ने इसे ही मद्य का दोष कहा है। जिसने व्यवहार में मद्य त्याग कर दिया है परन्तु जो मोह ममत्व भाव में रत है वह Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-११३-११७ P OON शराबी है। मोहमहामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि' मैं सबका मालिक जो सम्यक्ज्ञान रहित मलिन चित्त है अर्थात् अपनी बड़ाई प्रतिष्ठा लाभ आदि जिम्मेदार हूँ, सब मेरे अधिकार में है। ऐसे अहं के नशे में उन्मत्त रहता है तथा जिसके दुष्ट भावों से जिसका चित्त परिणत हुआ है और मन में ऐसा जानता है कि हमारी बोलने का कोई ठिकाना नहीं है, भाषा शुद्धि ही नहीं जानता, चाहे जो बकता है, उसे दुष्टता को कोई नहीं जान सकता, ऐसा समझकर वीतराग परमानंद सुख रस के वास्तव में शराबी कहते हैं। जो मिथ्या असत्य भावों में लगा रहता है, जिसे * अनुभव रूप चित्त की शुद्धि को नहीं करता तथा बाहर से बगुला जैसा भेषमायाचार ७ कार्य-अकार्य का विवेक नहीं है, क्या उचित है? क्या अनुचित है? जिसे अपनीरूप लोकरंजन के लिये धारण किया है, इसी भेष से हमारा कल्याण होगा इत्यादि, सुध नहीं है, बेभूल है, वह मनुष्य शराबी है। ऐसा शराबी अज्ञानी प्राणी हमेशा संसार अनेक विकल्पों की कल्लोलों से अपवित्र है। ऐसे किसी अज्ञानी के मोक्ष पदवी हे में भ्रमण करता है। जिनेन्द्र परमात्मा ने क्या कहा है ? जिनवाणी में क्या कहा है? जीव! मत देख,अर्थात् बिना सम्यकदर्शन के मोक्ष नहीं होता। उसका दृष्टांत कहते इसका कोई श्रद्धान नहीं करता। अपने आत्म स्वरूप की तरफ नहीं देखता और हैं-बहुत पानी के मथने से भी हाथ चिकना नहीं होता क्योंकि जल में चिकनापन है मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि भावों में लीन रहता है । नाशवान, क्षणभंगुर शरीरादि, ही नहीं, जैसे जल में चिकनाई नहीं है, वैसे ही बाहरी भेष में सम्यक्ज्ञान नहीं है। पौद्गलिक पदार्थों को अविनाशी, शाश्वत जानता है, कहता है। मोह ममत्व और सम्यक्ज्ञान के बिना महान तप करो तो भी मोक्ष नहीं होता क्योंकि सम्यक्ज्ञान का मान का भूत उसके सिर पर चढ़ा रहता है। अपने शुद्ध तत्व शुद्धात्म स्वरूप का लक्षण वीतराग निज शुद्धात्मा की अनुभूति है वही मोक्ष का मूल है। अनुभव विचार चिन्तन नहीं करता और अशुद्ध को ही शुद्ध कहता है। जो कुछ हूँयही आगे ज्ञानी जीवों के निज शुद्धात्मभाव के बिना अन्य कुछ भी आदरने योग्य मैं हूँ अर्थात् यह शरीरादि रूपधारी ही मैं हूँ। इनसे भिन्न अपने शुद्धात्म स्वभाव को नहीं है ,आचार्य योगीन्दुदेव यह कहते हैंजानता ही नहीं है। पर में अपनत्व, एकत्व मानकर शरीर, धन, स्त्री, पुत्र, परिवार अप्पा मिल्लिविणाणियह,अण्णुण सुंदरु वत्थु । के मोह में बेसुध रहता है। ज्ञानीजनों ने इसे ही मद्य दोष कहा है। तेण ण विसयह मणु रमाइ,जाणतह परमत्थु॥७७॥ जिनेन्द्र परमात्मा ने जो शुद्ध तत्वार्थ निज शुद्धात्म स्वरूप को ही इष्ट उपादेय आत्मा को छोड़कर ज्ञानियों को अन्य वस्तु अच्छी नहीं लगती इसलिये कहा है उसकी श्रद्धा साधना नहीं करता; फिर वह बाहर में व्रतधारी हो, महाव्रती परमात्म पदार्थ को जानने वालों का मन विषयों में नहीं लगता। साधु हो या अव्रती श्रावक हो, वह अज्ञानी है। जो मोह ममत्व में रत है, उसे हमेशा मिथ्यात्व रागादिक को छोड़ने से निज शुद्धात्म द्रव्य का यथार्थ ज्ञानकर शराब का ही नशा चढ़ा रहता है, वह शराबी संसार में ही भ्रमण करेगा। 2 जिनका चित्त परिणत हो गया है, ऐसे ज्ञानियों को शुद्ध बुद्ध परम स्वभाव परमात्मा जिनेन्द्र परमात्मा ने क्या कहा है? इस बात को योगीन्दुदेव परमात्मप्रकाश में को छोड़कर दूसरी कोई भी वस्तु सुन्दर नहीं भासती इसीलिये उनका मन कभी कहते हैं है विषय वासना में नहीं रमता। यह विषय कैसे हैं? जो कि शुद्धात्मा की प्राप्ति के शत्रु देउ णिरंजणु इउँ भणइ,णाणिं मुक्खु ण भति। ॐ हैं, ऐसे भव भ्रमण के कारणभूत काम भोग रूप पांच इन्द्रियों के विषय उनमें मूढ णाण विहीणा जीवडा, चिरु संसारु भमंति॥७३॥ जीवों का ही मन रमता है, सम्यक्दृष्टि का मन नहीं रमता। णाण विहीणहँ मोक्खपउ,जीव मकासु विजोइ। कैसे हैं सम्यकद्रष्टि? जिन्होंने वीतराग सहजानंद अखंड सुख मेंतन्मय परमात्म बहुएँ सलिल विरोलियई,करु चोप्पडउण होइ॥७४॥ 5 तत्व को जान लिया है इसलिये यह निश्चय हुआ कि जो विषय वासना के अनुरागी हैं , अनन्त ज्ञानादि गुण सहित और अठारह दोष रहित जो सर्वज्ञ वीतराग देव हैं वे अज्ञानी हैंवे ऐसा कहते हैं कि वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन सम्यकज्ञान से ही मोक्ष होता है, मोह के ममत्व भाव के कारण इस जीव की क्या दशा हो रही है? वह कहते हैंइसमें संदेह नहीं है और स्वसंवेदन ज्ञान कर रहित जो जीव हैं वे बहुत काल तक कालु अणाइ अणाइ जिउ भव सायरुवि अणंतु । संसार में भटकते हैं। जीवि विण्णिण पत्ताई जिणु सामिउ सम्मत्तु ।।१४३॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री श्रावकाचार जी गाथा-११८-१२. OOO घर वासउ मा जाणि जिय दुक्किय वासउ एहु। आरक्तं) वेश्या में आसक्त होना और रमण करना है (नरयंजस्य सद्भाव) नरकगामी पासु कयंते मंडियउ अविचलु णिस्संदेहु ॥१४॥ जीव के जैसे भाव होते हैं (ते भाव विस्वा दिस्टितं) वैसे ही भाव वेश्यागामी के दिखाई । देहु वि जित्थु ण अप्पणउ तहिं अप्पणउ कि अण्णु। देते हैं। पर कारणि मण गुरुव तुहुँ सिव संगमु अवगण्णु ॥ १५ ॥ विशेषार्थ- यहाँ वेश्यागमन दोष का वर्णन चल रहा है, यह भी व्यसन है। ७ (परमात्म प्रकाश) : जिस विषय को भोगने के, करने के बार-बार भाव होते हैं और जो आकलित करते । काल भी अनादि है, जीव भी अनादि है और संसार भी अनादि अनंत है हैं वह व्यसन है। वेश्या, शरीर को बेचने का धंधा करने वाली स्त्रियों को कहते हैं। लेकिन इस जीव ने जिनराज स्वामी और सम्यक्त्व यह दो कभी नहीं पाये। यह मोह इनमें जाति-पांति का, अपने पराये का कोई विचार नहीं होता। यह तो मात्र धन के के चक्कर में ऐसा चकरा रहा है कि जो अपना है नहीं उसे अपना मान रहा है और 1 लिये ही यह धन्धा करती हैं। विषय लम्पटी. कामी जीव अपने घर, परिवार, पत्नी जो अपना निज शुद्ध स्वभाव चैतन्य लक्षण शुद्धात्म स्वरूप है उसे भूला हुआ है। आदि का विचार न करते हुए इनके जाल में फंस जाते हैं। जिससे अपना धन, धर्म हे जीव ! इस गृहवास को अपना मत जान। यह पाप का निवास स्थान दु:खों और जीवन सभी बरबाद कर देते हैं। यहाँ बदनाम होते हैं और परभव में नरक का घर है। यमराज (काल) ने अज्ञानी जीवों को बांधने के लिये यह अनेक फांसों से सास जाते हैं। मंडित बहुत मजबूत बंदी खाना बनाया है इसमें संदेह नहीं है। श्रीमद् जिन तारण स्वामी यहां वेश्यागामी उसे कह रहे हैं, जो जीव हमेशा जहाँ देह भी अपना नहीं, उसमें अन्य क्या अपना हो सकता है। इस कारण कज्ञान में ही रम रहा है। जिसे अपने सत्स्वरूप, सम्यज्ञान का पता ही नहीं है, जो तू मोक्ष का कारण निज शुद्धात्म तत्व को छोड़कर यह शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, वैभव कज्ञानों में ही आसक्त लवलीन है वह वेश्यागामी है; क्योंकि वह अपने ज्ञान स्वरूपी आदि में ममत्व मत कर। यह घर परिवार, संसार, समाज का व्यामोह छोड़ा अपने S आत्मा को भला है। कज्ञानमय संसार शरीर विषय भोगों में लगा है जिससे धन धर्म शुद्धात्म तत्व की भावना कर इसी से भला होगा। 5 और जीवन सब बरबाद हो रहा है तथा जैसे भाव नरकगामी जीव के होते, चलते हैं यह मोह की मदिरा पिये हुए ही यह जीव अनादि से संसार में भ्रमण कर रहा 3 वैसे ही भावों में यह जुड़ा है, उन्हें ही देख रहा है, उनमें ही आसक्त है, परभावों में है और जब तक मोह का बन्धन स्त्री, पुत्र, परिवार, धन, वैभव, मकान आदि का आसक्त वेश्यागामी ही है, वह भी नरक जायेगा। बाहर से वेश्यागमन का जिस सम्बन्ध नहीं छोड़ेगा, भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति नहीं करेगा तब तक ऐसे व्रती-अवतीने त्याग कर दिया परन्त जो कज्ञान में ही रमण कर रहा है, जिसे अपने ही संसार में रुलता रहेगा। बिना धर्म के श्रद्धान, निजशुद्धात्मानुभूति के बगैर बाहर सत्स्वरूप निज शद्धात्मा का श्रद्धान ज्ञान नहीं हुआ है, निज स्वभाव में रमण नहीं में कितना ही व्रत, नियम, संयम धारण किया जावे, मुक्ति होने वाली नहीं है। मद्य. त, नियम, सयम धारण किया जाय, मुक्ति हान वाला नहा हा मद्य कर रहा है, परभावों में ही रत है, वह वेश्यागामी ही है और नरक जायेगा; क्योंकि का त्याग करना है तो अपने मोह ममत्व का त्याग करो तभी निराकुल सुख शान्ति में वह कज्ञान के कारण अशभ निकष्ट भावों में रत है इसलिये वेश्यागमन का त्याग रह सकते हो; क्योंकि व्यसनों के सेवन से आकुलता होती है, विकल्प चलते हैं, करना है. तो कज्ञानों का त्याग करें, सम्यक्ज्ञानी बनें। जीव निरन्तर चिन्तित दु:खी परेशान रहता है। इसी क्रम में शिकार खेलना व्यसन के दोषों का वर्णन करते हैंइसी क्रम में आगे वेश्यागमन व्यसन के दोषों का वर्णन करते हैं पारधी दुस्ट सद्भाव, रौद्र ध्यानं च संजुतं । विस्वा आसक्त आरक्त, कुन्यानं रमते सदा। आरति आरक्तं जेन, ते पारधी च संजुतं ॥११६॥ नरयं जस्य सद्धावं, ते भाव विस्वा दिस्टितं ॥११८॥ मान्यते दुस्ट सद्भाव, वचनं दुस्ट रतो सदा। अन्वयार्थ-(कुन्यानं रमते सदा) हमेशा कुज्ञान में रमना ही (विस्वा आसक्त चिंतनं दुस्ट आनंद,ते पारधी हिंसा नंदितं ॥ १२०॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री श्रावकाचार जी गाथा-११२-१२३ विस्वासं पारधी दुस्टा,मन कूड वचन कूडयं। (संसार पारधी विस्वासं) संसारी पारधी अर्थात् संसार में शिकार खेलने वालों कर्मना कूड कर्तव्यं, विस्वासं पारधी संजुतं ॥१२१॥ का जो विश्वास करे (जन्म मृत्युं च प्राप्तये) तो इस जन्म में मृत्यु को प्राप्त होगा। . अर्थात् मारा जायेगा (जे जीव अधर्म विस्वासं) जो जीव अधर्मी का विश्वास करते हैं । जे जीव पंथ लागते, कुपंथं जेन दिस्टते। अर्थात् ढोंगी साधु कुगुरुओं के जाल में फंसते हैं, उन पर विश्वास करते हैं (तेपारधी विस्वासं दुस्ट संगानि, ते पारधी दुष दारुनं ॥ १२२ ।। जन्म जन्मयं) वे ऐसे पारधी के हाथों में फंस जाते हैं कि जन्म-जन्मान्तर संसार में । संसार पारधी विस्वासं, जन्म मृत्युं च प्राप्तये। ही रुलना पड़ेगा। जे जीव अधर्म विस्वासं,ते पारधी जन्म जन्मयं ॥१२३॥ विशेषार्थ- यहाँ व्यसनों के प्रकरण में पाँचवें व्यसन, शिकार के स्वरूप का अन्वयार्थ- (पारधी दुस्ट सद्भावं) दुष्ट स्वभाव का होना ही शिकारी है? वर्णन चल रहा है। शिकार खेलना जंगली दीन-हीन, पशु-पक्षियों को धोखे से (रौद्र ध्यानं च संजुतं) और रौद्र ध्यान में लीन रहना तथा (आरति आरक्तं जेन) मारना है। मृगया या शिकार खेलना बहुत बड़ी पाप रूप हिंसा है। शिकारी के जो जीव आर्त-रौद्र ध्यान में लगा रहता है (ते पारधी च संजुतं) वह पारधी है और परिणाम सदा ही दुष्ट रहते हैं वह पशु पक्षियों को खोज-खोजकर उनके पीछे शिकार खेलने अर्थात् अपनी आत्मा का घात करने में लगा है। दौड़कर उनका घात करता है, हिंसानंदी रौद्र ध्यान में प्रवर्तता है। जब शिकार हाथ (मान्यते दुस्ट सद्भाव) जो दुष्ट स्वभाव को अच्छा मानता है (वचनं दुस्ट रतो नहीं आता या आकर निकल जाता है तब इष्ट वियोग रूप आर्तध्यान करता है या सदा) दुष्ट वचनों में सदा रत रहता है अर्थात कठोर अपशब्द बोलता है . कहासिह आदि सपाला पड़ जाता है तो अनिष्ट संयोग आर्तध्यान करता है। रन्टिय दुस्ट आनंद) तथा मन से भी दुष्टता का अर्थात् दूसरों का बुरा विचार करता है और विषय की लम्पटता रूपी भाव की आशा में रहने से निदान रूप आर्त ध्यान करता उसी में आनंदित रहता है (ते पारधी हिंसा नंदित) जो हिंसा में आनंद मान रहा है, Sहै। शिकारी अनेक दोषों का पात्र होता है। मृग आदि पशुओं को मारकर उनके वह पारधी शिकारी है। 5 बच्चों को अनाथ बनाता है। शिकारी, माँसाहार वेश्या सेवन आदि व्यसनों में फंसा (विस्वासं पारधी दुस्टा) जो दूसरों को अपना विश्वास देकर धोखा देता है, कोला निनासकोखाजा रहता है। हिंसानंदी खोटे परिणामों से नरक गति को बांध लेता है और दुर्गति में रहता है।। वह दुष्ट पारधी के समान है (मन कूड वचन कूडयं) मन से कुटिल रहता है,वचन से जाकर घोर कष्ट पाता है। एक शिकारी अपने जीवन में हजारों पशुओं का घातक कुटिल मायाचार करता है (कर्मना कूड कर्तव्यं) काय की क्रिया से मायाचार ठगाई र होकर घोर पाप बन्ध करता है। किसी भी मानव को ऐसे खोटे शिकार व्यसन में नहीं कुटिलता का काम किया करता है (विस्वासं पारधी संजुतं) ऐसा पारधी शिकारी, पड़ना चाहिये, यह व्यसन धर्म का नाश करने वाला है; अत: इसका त्यागी तो महादोषों में लीन रहता है। ६ प्रत्येक मनुष्य को होना चाहिये। अहिंसा धर्म को पालने वाले उत्तम क्षमादि धर्म के (जे जीव पंथ लागते) जो जीव मुक्तिमार्ग पर लगना चाहते हैं. अपना आत्म श्रद्धानी को तो कभी इस ओर देखना भी नहीं चाहिये तथा जो दया धर्म को स्वीकार कल्याण करना चाहते हैं (कुपंथं जेन दिस्टते) ऐसे जीवों को जो कुपंथ का मार्ग X करने वाले हैं उन्हें भी सब जीवों पर दया मैत्री भाव रखना चाहिये। करनवालह दिखाता है अर्थात् धर्म से विपरीत अधर्म-कुधर्म में लगाता है (विस्वासं दस्ट संगानि) MANS यहाँ श्रीमद् जिन तारण स्वामी कह रहे हैं कि जो व्यवहार में शिकार व्यसनों विश्वास दिलाता है और दुष्ट संग में कुगुरुओं के जाल में फंसा देता है, मिथ्या 5 के त्यागी हैं परन्तु जिनका दुष्ट स्वभाव है, जो रौद्र ध्यान में लीन रहते हैं, आर्तध्यान, मान्यता कुदेवादि की पूजा आदि के प्रपंच में फंसा देता है (ते पारधी दुष दारुन) वह चलता रहता है, वे भी पारधी के दोषों से संयुक्त हैं। जो दूसरों के साथ दुष्टता करते पारधी शिकारी है जो दारुण दु:खों को भोगेगा और नरक निगोदादि दुर्गतियों में हैं, उनको अच्छा मानते हैं, उनके साथ मित्रता रखते हैं तथा हिंसाकारी कठोर.X जायेगा। पापमय दुष्ट वचन बोलते हैं तथा जिनके चित्त में हमेशा दूसरों को ठगने धोखा देने, घात करने आदि के बुरे विचार चलते हैं। जो हिंसा में आनंद मानते हैं वे भी पारधी Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ 156 ७० श्री आवकाचार जी शिकारी हैं क्योंकि केवल पशु का शिकार करने वाला ही पारधी नहीं है; परंतु जो मानव, मानवों का शिकार करते हैं, दूसरों का नाश करके दूसरों को परस्पर मतभेद कराकर मुकदमा आदि लड़ाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं वे भी शिकार करने वाले पापी हैं। SYARAT YAAN FANART YEAR. जो दूसरों को अपना विश्वास देकर धोखा देता है। मन से कुटिल, वचन से कुटिल और शरीर की क्रिया से भी कुटिल रूप आचरण करता है ऐसा विश्वासघाती, मायाचारी पुरुष भी शिकारी ही है। शिकारी तो पशुओं को छिपकर कष्ट देकर मारता है; किन्तु यह लोगों को विश्वास दिलाकर ठगता है। वचनों में विष भरा होता है, ऊपर से मीठा बोलता है। भोले जीवों को अपने फंदे में फंसाकर ठगने का सदा विचार किया करता है तथा अपने शरीर से ऐसी क्रियायें करता है जिनका हेतु मायाचार है । कोई-कोई प्राणी पर को ठगने के लिये त्यागी, साधु, शास्त्री, पंडित, विद्वान का रूप बना लेते हैं तथा बाहरी जप, तप, पूजा, पाठ आदि क्रिया अपने को धर्मात्मापने का विश्वास जमाने के लिये करते हैं; किन्तु भीतर ठगने का भाव होता है। कुटिल मन, वचन, काय की प्रवृत्ति अनन्त दोषों को उत्पन्न करने वाली होती है। अल्प क्षणिक धनादि के लिये मायाचार करके दूसरों को ठगना शिकारी के दोष ही संयुक्त होना है। जो जीव धर्म मार्ग पर चलना चाहते हैं, अपना आत्म कल्याण करना चाहते हैं, कुगुरु उन्हें विपरीत मार्ग बताकर अधर्म-कुधर्म में फंसा देते हैं। मुक्ति का मार्ग तो एक ही है- 'सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः' निज शुद्धात्मानुभूति करो, अपने शुद्ध स्वभाव का ज्ञान करो और ध्यान लगाओ यही मुक्ति का मार्ग है। भेदज्ञान पूर्वक शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं। ऐसे वीतराग विज्ञानमय मार्ग से छुड़ाकर कुगुरु राग-द्वेषपूर्ण कुमार्ग में लगा देते हैं। कुदेव - अदेव की पूजा आराधना, बाह्य क्रियाकांड, पूजन-भजन, खान-पान आदि शारीरिक क्रियाओं को धर्म बता देते हैं। कुगुरु, कुशास्त्र के जाल में फंसा देते हैं। देखो इस शास्त्र में यह कहा है, 5 इस शास्त्र में यह कहा है, इस आचार्य ने यह कहा है, इस आचार्य ने यह कहा है। ऐसा विश्वास दिलाकर कुमार्ग में लगा हैं। ऐसे मिथ्यामार्ग के प्रचारक भी पारधी के समान हैं। राग-द्वेष वर्धक मार्ग कुमार्ग है। अपना स्वार्थ साधने के लिये, भक्तों से धन लेने के लिये अपने विषयों की कामना की पूर्ति के लिये, पाप-पुण्य को धर्म ८४ गाथा- १२४-१२८ बताकर कुमार्ग का उपदेश देकर पत्थर की नौका का काम करते हैं। स्वयं भी संसार समुद्र में डूबते हैं और दूसरों को भी डुबाते हैं। धन की तृष्णा मानव को अंधा बना देती है। इसके लिये मनुष्य क्या-क्या कुकर्म नहीं करते, जो ऐसा मार्ग बताते हैं, वे घोर पाप का बंध करते हैं और निगोद में, कीटादि विकलत्रय में, नरक आदि दुर्गतियों में जन्म-मरण के दारुण दुःख भोगते हैं, ऐसे मानव भी पारधी हैं। संसार में शिकारी का विश्वास करने पर उसी जन्म में मरना पड़ता है परन्तु जो जीव ऐसे अधर्म और अधर्मी का विश्वास करते हैं, ऐसे शिकारी के जाल में फंसते हैं, उन्हें जन्म-जन्म में मरना पड़ता है। मिथ्यात्व के समान जीव का अहितकर्ता कोई नहीं है। जो जीवों को ग्रहीत मिथ्यात्व अदेवादि मूर्ति पूजा और बाह्य क्रियाकांड को धर्म बताकर फंसाते हैं, कषाय के वातावरण को बढ़ाते हैं, आकुलता मय जीवन बनाते हैं और शुभोपयोग को धर्म बताते हैं वह कुगुरु रूपी पारधी मिथ्यात्व की कीचड़ में फंसकर संसार में गोते लगाते रहेंगे पुनः पुनः जन्म-मरण करेंगे। इसी बात को और आगे कहते हैं मुक्ति पंथं तत्व सार्धं च, लोकालोकं च लोकितं । पंथ भ्रस्ट अचेतस्य, विस्वास जन्म जन्मयं ॥ १२४ ॥ पारधी पासि जन्मस्य, अधर्मं पासि अनंतयं । जन्म जन्मं च दुस्टं च प्राप्तं दुष दारुनं ।। १२५ ।। जिन लिंगी तत्व वेदंते, सुद्ध तत्व प्रकासकं । कुलिंगी तत्व लोपंते, परपंचं धर्म उच्यते ॥ १२६ ॥ लिंगी मूढ दिस्टी च, कुलिंगी विस्वासं कृतं । दुरबुद्धि पासि बंधंते, संसारे दुष दारुनं ।। १२७ ।। पारधी पासि मुक्तस्य, जिन उक्तं सार्धं धुवं । सुद्ध तत्वं च सार्धं च, अप्प सद्भाव चिन्हितं ॥ १२८ ॥ अन्वयार्थ - (मुक्ति पंथं तत्व सार्धं च) मुक्ति का मार्ग तो तत्व श्रद्धान करना है अर्थात् निज शुद्धात्मानुभूति ही मोक्षमार्ग है। केवलज्ञानमयी ध्रुव तत्व सिद्ध स्वरूपी Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-१२४-१२४ P OON शुद्धात्मा मैं स्वयं हूँ ऐसा श्रद्धान करना ही मुक्ति का मार्ग है (लोकालोकं च लोकितं) शिकार खेलने वाले शिकारी (पारधी) का स्वरूप बताया जा रहा है कि संसार में जो जो लोकालोक को देखने-जानने वाला है, ऐसा ज्ञानमयी ज्ञायक स्वभावी मैं हूँ ऐसा शिकार खेलते हैं, जंगली पशु पक्षियों को जाल में फँसाते हैं, मारते हैं वे शिकारी श्रद्धान ही मुक्ति का मार्ग है (पंथ भ्रस्ट अचेतस्य) इसके विपरीत जो पंथ भ्रष्ट अर्थात् , दुष्ट स्वभाव के होते हैं। आर्त-रौद्र ध्यानों में लगे रहते हैं, हिंसा में आनंद मानते मुक्तिमार्ग के विपरीत अज्ञानी कुगुरु आदि हैं जो अधर्म को अर्थात् पाप-पुण्य को, हैं। इससे नरक निगोद आदि दुर्गतियों में जाते हैं और महान कष्ट भोगते हैं तथा जो रागादि बाह्य क्रियाकांड को धर्म कहते हैं तथा अचेतन मूर्तिपूजा को धर्म बताते हैं जीव उनके जाल में फँस जाते हैं उन्हें इस जन्म में ही मरना पड़ता है परंतु यहाँ (विस्वासं जन्म जन्मयं) इनका विश्वास करने से जन्म-जन्मों के लिये संसार में तारण स्वामी कहते हैं कि जिन्होंने बाहर से व्यसनों का त्याग कर दिया है, अणुव्रती रुलना पड़ता है यह बड़े खतरनाक पारधी हैं। & त्यागी, महाव्रती साधु हो गये परन्तु जिनके दुष्ट स्वभाव हैं,जो आर्त-रौद्र ध्यानों में (पारधी पासि जन्मस्य) शिकारीतो एक जन्म की ही फाँसी है (अधर्मं पासि लगे हैं। जो हिंसादि पापों में आनंद मानते हैं और धर्म के नाम पर भोले जीवों को अनंतयं) किन्तु अधर्म अनन्त जन्मों की फाँसी है (जन्म जन्मं च दुस्टं च) अधर्म अधर्म अज्ञान मिथ्यात्व में फँसाते हैं। वे शिकारी बड़े खतरनाक हैं क्योंकि मुक्ति का और कुगुरु रूपी दुष्टों के जाल में फंसने पर जन्म-जन्म में (प्राप्तं दुष दारुनं) मार्ग तो तत्व श्रद्धान करना है, अपने शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति, मैं अरिहंत सिद्ध दारुण दु:ख भोगना पड़ते हैं। के समान केवलज्ञान का धारी लोकालोक को देखने जानने वाला ज्ञानस्वभावी (जिन लिंगीतत्व वेदंते) मोक्षमार्गी निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधुतोशुद्धात्म स्वरूप भगवान आत्मा हूँ, ऐसा श्रद्धान ज्ञान और आचरण ही सम्यदर्शन ज्ञान निज तत्व का अनुभव करते हैं (सुद्ध तत्व प्रकासकं) और उसी शुद्ध तत्व काचारित्राणि मोक्षमार्गः है। इसके विपरीत जो पंथ भ्रष्ट अर्थात् मुक्ति मार्ग के प्रकाश अर्थात् शुद्धात्म तत्व की ही चर्चा उसी का उपदेश करते हैं (कुलिंगी तत्व विपरीत अज्ञानी कुगुरु हैं, जो पाप-पुण्य को धर्म बताते हैं। राग-द्वेषादि बाहरी लोपंते) कुलिंगी अर्थात् जो बाहर से तो दिगंबर साधु हो गए हैं परन्तु जिन्हें अपने क्रियाकांड को धर्म बतलाते हैं। इनका विश्वास करने पर जन्म-जन्मों तक संसार में आत्म तत्व की खबर ही नहीं है, मात्र पेट पूजा,देवपूजा को ही धर्म मानते हैं, वह रूलना पड़ता है। तत्व का लोप करके (परपंचं धर्म उच्यते) संसारी प्रपंच बाहरी क्रियाकांड को धर्म शिकारी तो एक ही जन्म की फाँसी है, जो जीव इसके चंगुल में फंसते हैं, उन्हें कहते हैं। इसी जन्म में अपने प्राण गंवाने पड़ते हैं; परन्तु यह अधर्म अनंत जन्मों की फाँसी है। (ते लिंगी मूढ दिस्टीच) ऐसे मिथ्यादृष्टि भेषधारियों (कुलिंगी विस्वासं कृतं) यह अधर्म विकथा व्यसन और कुगुरु रूपी दुष्टों के जाल में फंसने पर जन्म-जन्म कलिंगियों का विश्वास करना (दुरबुद्धि पासि बंधते) अपनी दुर्बुद्धि से उनके बंधन मेंदारुण दु:ख भोगना पड़ते हैं। मोक्षमार्गी निर्ग्रन्थ दिगंबर साधुतो शुद्धात्म स्वरूप में बंधना है अर्थात् दुर्बुद्धि मूढ अज्ञानी प्राणी इनके जाल में फंस जाते हैं (संसारे दुष, निज तत्व का अनुभव करते हैं तथा इसी शुद्ध तत्व शुद्धात्म स्वरूप का उपदेश दारुनं) जिससे संसार में दारुण दु:ख भोगना पड़ते हैं। देते हैं। धर्म का यथार्थ स्वरूप बताते हैं जो कुलिंगी अर्थात् बाहर से तो (पारधी पासि मुक्तस्य) पारधी के बंधन से मुक्त होना है अर्थात् कुगुरु के नग्न दिगंबर साधु हो गए हैं परन्तु जिन्हें अपने आत्म तत्व की खबर ही नहीं है। मात्र जाल से छूटना है तो (जिन उक्तं साधं धुवं) जिनेन्द्र देव के कहे अनुसार अपने ध्रुव पेटपूजा, देवपूजा, धनसंग्रह मंदिर मठ बनवाना आदि को ही धर्म मानते हैं, वह तत्व एतत्व शुद्धात्म स्वरूप की श्रद्धा साधना करो (सुद्ध तत्वं च सार्धं च) शुद्ध तत्व और कालोप करके संसारी प्रपंच बाहरी क्रियाकांड हाथ के आटे-पानी शुद्धि के भोजन, सच्चे देव गुरू धर्म की श्रद्धा है तो (अप्प सद्भाव चिन्हितं) अपने आत्म स्वभाव को बाहरी भेष को ही धर्म कहते हैं। ऐसे मिथ्यादृष्टि भेषधारी कुलिंगियों का विश्वास पहिचानो कि मैं एक अखंड अविनाशी धुवतत्व सिद्ध स्वरूपी चैतन्य लक्षण परमब्रह्म करना इन्हें गुरू मानना या इनके वचनों पर विश्वास करना अपनी दुर्बुद्धि से फाँसीX परमात्मा हूँ तो यह अधर्म और कुगुरु रूपी शिकारी के जाल से छूट जाओगे। में बंधना है। जैसे-शिकारी के जाल में अज्ञानी पशुपक्षी फँस जाते हैं वैसे ही अपनी विशेषार्थ- यहाँ अधर्म के अंतर्गत व्यसनों का प्रकरण चल रहा है, जिसमें अज्ञानता दुर्बुद्धि से जो जीव इनके जाल में फँस जाते हैं, उन्हें संसार में दारुण दुःख Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी भोगना पड़ते हैं। पारधी शिकारी के जाल से मुक्त होना है अर्थात् इन अधर्म, विकथा, व्यसन और आर्त- रौद्र ध्यान तथा कुगुरुओं के जाल से मुक्त होना है तो जिनेन्द्र देव के कहे अनुसार अपने ध्रुव तत्व शुद्धात्म स्वरूप का श्रद्धान साधना करो। आचार्य कुन्दकुन्द ने दर्शन पाहुड़ में कहा है जिणवयममोसम विसयहविरेवणं अभिदमूर्द जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ||१७|| जिन वचन महौषधि है । विषयसुख का विरेचन अर्थात् निकालने वाली अमृत के समान है । जन्म-मरण की व्याधियों को हरने वाली है तथा सर्व दुःखों को क्षय करने वाली है। जीवादीसहहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं । ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ॥२०॥ जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि जीवादि पदार्थों का श्रद्धान व्यवहार सम्यक्त्व है और अपने आत्मा के श्रद्धान को ही निश्चय सम्यक्त्व कहा है। एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण । सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स ||२१|| इस प्रकार जिनेन्द्र के कहे अनुसार सम्यक्दर्शन रत्न को भाव सहित धारण करो, यही सारभूत रत्नत्रय गुण मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है, शुद्ध तत्व और सच्चे देव गुरू धर्म की श्रद्धा है तो अपने आत्म स्वरूप को पहिचानों क्योंकि सक्कइतं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सदहणं । के वलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ॥ २२॥ केवली जिनेन्द्र परमात्मा के वचनों का श्रद्धान करने वाले को सम्यक्त्व कहा है। जितना तुम कर सकते हो उतना करो अर्थात् जितना संयम तप चारित्र रूप अपने स्वरूप में रमणता कर सकते हो, अणुव्रती महाव्रती साधु हो सकते हो उतना करो। इतना नहीं कर सकते तो अपने आत्म स्वरूप का श्रद्धान तो करो। अपना आत्म स्वरूप कैसा है, इसे समयसार में कहते हैं अस्समरूवमगंधं, अव्वत्तं चेदणागुणमसदं । जाण अलंगग्गह, जीवमणिदिट्ठ संठाणं ॥ ४९ ॥ हे भव्य ! तू अपने आत्म स्वरूप को अरस अरूपी गंधरहित अव्यक्त चेतना गुण सहित (अलिंगी) किसी चिन्ह से ग्रहण न होने वाला, जिसका कोई आकार नहीं SYA GARAAN YAARA YE है, जो मात्र ज्ञानानंद स्वभावी है ऐसा जान अनुभव करने श्रद्धान करने से यह अधर्म रूपी उपाय से मुक्त हो सकते हो। ८६ गाथा - १२४-१२८ अपने आत्म स्वभाव को पहिचानने शिकारी से पीछा छूट जायेगा, इसी यहां कोई प्रश्न करे कि जब यह जीव आत्मा ऐसा है, टंकोत्कीर्ण अप्पा मात्र ज्ञानानंद स्वभावी है तो फिर यह बहिरात्मा संसारी अज्ञानी क्यों हो रहा है, यह अधर्म आदि में क्यों फंसा है ? इसका समाधान करते हैं कि स्वभाव से तो यह जीव आत्मा ऐसा ही है परंतु यह अपने स्वभाव को नहीं जान रहा, भूला है और अनादि से कर्म का संयोग होने से यह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा हो रहा है और इसी भूल के कारण यह अधर्म आदि में फंसा है। यहां पुनः प्रश्न करते हैं कि जब अनादि से ही जीव और कर्म का संयोग है और इसी कारण यह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा हो रहा है और इसी कारण यह अधर्म आदि में फसा है तो फिर यह भूल किसकी है ? इसका समाधान करते हैं कि भूल तो किसी की नहीं है, यह तो जगत का स्वभाव ही है। यहां इतना समझना है कि जीव चेतन है, कर्म जड़ पुदगल हैं। यह जीव, मनुष्य भव में आया है, इसे बुद्धि विवेक आदि का शुभयोग मिला है तो इसे समझाया जा रहा है कि प्रभु ! तेरा सत्स्वरूप तो सिद्ध के समान शुद्ध बुद्ध अविनाशी ज्ञानानंद स्वभाव है। तू यह ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म, रागादि भाव कर्म, शरीरादि नो कर्म रूप नहीं है और न यह तेरे हैं। यह तेरे से सर्वथा भिन्न जड़ पुद्गल अचेतन हैं, इसमें फंसा होने के कारण और इन्हें अपना मानने के कारण तू संसारी सुखी - दुःखी हो रहा है। जन्म-मरण कर रहा है और अनंत संसार में रुल रहा है। अब जिस जीव की समझ में यह बात आ जावे, श्रद्धान कर लेवे तो उसका भला हो सकता है। वह इस संसार के चक्र से छूटकर मुक्त हो सकता है। इस अपेक्षा यह सब कहा जा रहा है अब इसमें भी जिस जीव की होनहार अच्छी हो, काललब्धि आ गई 5 हो वह समझकर सुलट कर मुक्ति के मार्ग में लग जाता है। सद्गुरु ज्ञानियों को तो शुभराग और करुणा होती है। इससे वह कहते, लिखते, बताते हैं। अपनी हम स्वयं देखें, जानें तो अपना भला हो सकता है। क्योंकि - दौल समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवे। यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहीं होवे ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी यहां अपनी बात समझना है। सद्गुरु तो सब स्पष्ट बता रहे हैं। बहिरात्मा जो रौद्रध्यान हो जाता है (कृतं असुद्ध कर्मस्य) शुभाशुभ कर्मों का करना (कूड सद्भाव पुद्गल को देख रहा है, उसकी रचना में लगा है, संसारासक्तधन, स्त्री, पुत्र, परिवार, रतो सदा) कुटिल भावों में सदा रत रहना भी चोरी है। शरीर के विषय भोगों में फंसा है। वह इनकी पूर्ति के लिये पर से मेरा भला होगा, ऐसी (स्तेयं अदत्तं चिंते) बिना दी हुई चीज लेना, चाहना चोरी है (वयनं असुद्धं मिथ्या मान्यता के कारण कुदेव-अदेव आदि की पूजा भक्ति करता है। कुगुरु के जाल सदा) हमेशा अशुद्ध, शुभाशुभ वचन बोलना (हीनकृत कूड भावस्य) खोटे काम में फंसकर नाना प्रकार के कुकर्म-अधर्म आदि करता है। यहां अधर्म के अंतर्गत कुटिल भाव से करना (स्तेयं दुर्गति कारणं) यह सब चोरी है, जो दुर्गति का . आर्त-रौद्र ध्यान, चार विकथा, सप्त व्यसन बताये जा रहे हैं। उनका स्वरूप और कारण है। परिणाम बताया जा रहा है। छूटने मुक्त होने की विधि भी बताई जा रही है। (स्तेयं दुस्ट प्रोक्तंच) दुष्ट अहितकारी कहना भी चोरी है और (जिन वयन आगे चोरी करने के व्यसन के स्वरूप का वर्णन करते हैं , विलोपित) जिन वचनों का लोप करना भी चोरी है (अर्थ अनर्थ उत्पाद्यंते) अर्थ स्तेयं अनर्थ मूलस्य, विटंबं असुह उच्यते । का अनर्थ पैदा करना अर्थात् जो बात जैसी है, उसका उल्टा सीधा अर्थ बताना भी संसारे दुष सद्भाव,स्तेयं दुर्गति भाजनं ।। १२९ ॥ अ चोरी है (अस्तेयं व्रत खंडन) नियम संयम व्रत लेकर उनका खंडन करना, छोड़ देना या विपरीत आचरण, मनमानी करना भी चोरी है। मनस्य चिंतनं कृत्वा, स्तेयं दुर्गति भावना। " (सर्वन्यं मुष वानी च) सर्वज्ञ वीतराग अरिहन्त भगवान के मुखारविंद से कृतं असुद्ध कर्मस्य,कूड सद्भाव रतो सदा ॥१३०॥ प्रगट वाणी के अनुसार (सुद्ध तत्व समाचरेत) शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव करो, स्तेयं अदत्तं चिंते, वयनं असुद्धं सदा। आचरण करो वैसे स्वयं बनो (जिन उक्तं लोपनं कृत्वा) जिनेन्द्र के कहे वचनों का हीनकृत कूडभावस्य,स्तेयं दुर्गति कारणं ॥ १३१ ॥ S लोप करते हो, नहीं मानते (स्तेयं दुर्गति भाजन) यह भी चोरी है, इससे दुर्गति के अपात्र बनोगे। स्तेयं दुस्ट प्रोक्तं च,जिन वयन विलोपितं । (दर्सनं न्यान चारित्र) सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यकचारित्र (मय मूर्ति अर्थ अनर्थ उत्पाचंते, अस्तेयं व्रत खंडनं ॥१३२।। न्यान संजुतं) ज्ञानमयी मूर्ति जो मात्र ज्ञान संयुक्त है (सुद्धात्मा तत्व लोपंते) ऐसे सर्वन्यं मुष वानी च, सुद्ध तत्व समाचरेत् । 2 अपने शुद्धात्मा शुद्ध तत्व का लोप करते हो उसे तो देखते जानते नहीं हो. उसकी जिन उक्तं लोपनं कृत्वा, स्तेयं दुर्गतिभाजनं ॥१३३॥ साधना आराधना नहीं करते और पर में लगे हो (स्तेयं दुर्गति भाजन) यह भी चोरी दर्सन न्यान चारित्रं, मयमूर्ति न्यान संजुतं । . है जो दुर्गति का पात्र बनाती है। चोरी सुनो हे भव्य जन,आपत्तियों का मूल है। सुद्धात्मा तत्व लोपंते,स्तेयं दुर्गति भाजनं ।। १३४ ॥ करती विकल परिणाम यह,उर का खटकता शूल है। अन्वयार्थ- (स्तेयं अनर्थ मूलस्य) अनर्थ की जड़ चोरी करना है (विटंबं असुह इस लोक में तो यह पिलाती है,दु:खों की प्यालिया। एउच्यते) यह महान विपदाओं का घर अशुभ कार्य कहा जाता है (संसारे दुष सद्भाव) उस लोक में भी पर दिखाती,यह कुगति की नालियां। इससे यहां संसार मेंदु:ख मिलता है, दुर्गति होती है (स्तेयं दुर्गतिभाजन) चोरी करना चोरी करूंगा आज मैं,इस भांति करना चिन्तवन। ही दुर्गति का पात्र बनाती है। हे भव्य यह दुर्भावना, करती है दुर्गति का सृजन ॥ (मनस्य चिंतनं कृत्वा) मन से चोरी करने के विचार करना, चिन्तन करना जो इस अशुभतम कर्म में,रहते सदा लवलीन हैं। 9(स्तेयं दुर्गति भावना) चोरी की भावना दुर्गति का कारण है क्योंकि यह चौर्यानन्द उनके हवय छल कपट से, रहते सदैव मलीन हैं। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 श्री श्रावकाचार जी गाथा-१२९-१३४ ) जो चौर्य या कि अदत्त जड़ का,नेक करते चिन्तवन। रहते हैं। किसी भी सरकारी कर्मचारी, इन्सपेक्टर पुलिस आदि को देखते ही हृदय उनके नियम से, अशुभ हो जाते,हवस्तल के वचन॥ धड़कने लगता है, घबराहट मच जाती है। जो सत्यता ईमानदारी का काम करते । माया कपट में बीतता, उनका सदा ही काल है। हैं, वह निर्भय रहते हैं। धनादि की चाह, लोभ के पीछे ही चोरी की जाती है। यह चौर्य दुर्गति हेतु है,यह चौर्य काल कराल है। * चोरी करना महान अनर्थों की जड़ है। घोर विपदाओं का घर और अशुभ कटु क्रूर वचनालाप करना,चौर्य दोष महान है। २. काम कहा जाता है। इससे यहाँ संसार में भी दु:ख मिलता है, दुर्गति होती है, . जिन वचन का आलोप यह भी, चौर्य है असमान है। बदनामी होती है। चोर का कोई विश्वास नहीं करता और परभव में नरक आदि कुछ अर्थ का कुछ अर्थ करना,यह भी चौर स्तेय है। ६. दुर्गतियों में जाना पड़ता है। करना व्रतों का भंग यह भी,एक चोरी हेय है। , मन से चोरी करने के विचार करना, चिन्तन करना, चोरी की भावना ही सर्वज्ञ ने शुखात्म की रे,जो बहाई धार है। दुर्गति का कारण है क्योंकि यही चौर्यानंद रौद्र ध्यान कहलाता है. जो नरक गति के नर कर उसी में तू रमण, वह ही तुझे सुखसार है॥ ॐबन्ध का कारण है। शुभाशुभ खोटे कर्मों का करना, कुटिल भावों में हमेशा रत जो जिन वचन का लोप कर,प्रतिकूल उनके जायेगा। ॐ रहना भी चोरी है। बिना दी हुई चीज लेना चाहना भी चोरी है। हमेशा अशुद्ध खोटे वह पौर्य के कटुपाश में,बंधकर कुगतियाँ पायेगा। वचन बोलना. खोटे काम कुटिल भाव से करना यह सब चोरी है, जो दुर्गति का निर्मूर्त रत्नत्रयमयी, जो शुद्ध आत्मीक धर्म है। कारण है । यह संसार अपेक्षा जानना, इसका तो नियमपूर्वक त्याग होना ही उस धर्म का जो लोप कर, करता महादुष्कर्म है। चाहिये; परन्तु इसके साथ परमार्थ में भी सतर्क रहना चाहिये क्योंकि दुष्ट अहितकारी वह चौर्य के कटु बंधनों से, बांधता निजगात्र है। S कठोर वचन कहना, जिन वचनों का लोप करना भी चोरी है। अर्थ का अनर्थ करना, संसार में बनता कि वह, नाना कुगति का पात्र है॥ S जिस अभिप्राय से जो बात जैसी कही गई है उसके विपरीत अपने मत पोषण के लिये (चंचलजी) 8 उल्टा सीधा अर्थ बताना जिन वचनों की चोरी है तथा व्रत, नियम,संयम लेकर विशेषार्थ- यहाँ चोरी व्यसन का प्रकरण चल रहा है। व्यसन लत या आदत उनका खंडन करना छोड़ देना या विपरीत आचरण करना, जिनवाणी के विपरीत को कहते हैं। स्वभाव या नशा भी इसी के नाम हैं। किसी की गिरी पड़ी भूली या रखी मनमानी करना भी चोरी है। हुई वस्तु को बिना पूछे उठा लेना, रख लेना चोरी है या किसी के घर में सेंध लगाकर सर्वज्ञ केवली अरिहंत परमात्मा ने निज शुद्धात्म स्वरूप का जो विवेचन घुसना,हिंसा लूटपाट से किसी का धन अपहरण करना चोरी है। छिपकर छिपाकर किया है, सत्ता शक्ति बताई है, वैसा ही अनुभव आचरण करो क्योंकिकोई भी कार्य करना चोरी है। धनादि पर वस्तु का अपहरण ही चोरी का प्रमुख कार्य श्री केवलंन्यान विलोकि तत्वं,सुद्धं प्रकासं सुद्धात्म तत्वं । है। चोरी महापाप है। चौर्यानंद रौद्र ध्यान है। पर के प्राणों के समान ही धन होता है। संमिक्त न्यानं चरनंत सुष्य, तत्वार्थ साधं त्वं दर्सनेत्वं ॥ संसारी जीव का ग्यारहवाँ प्राण धन है। धन का चला जाना प्राणों का चला जाना है श्री केवलज्ञानी परमात्मा ने जो तत्व देखा है, वह मात्र शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म इसलिये परधन का हरण करना उसके प्राण हरण करने के समान महापाप है। 5 तत्व है। जो अनन्त चतुष्टय और रत्नत्रयमयी है। ऐसे प्रयोजनभूत तत्व का तुम भी , संसारी प्राणी धन के अभाव को दु:ख और धन के सद्भाव को सुख मानता है। श्रद्धान करो और देखो। यही सत्य धर्म मुक्ति का मार्ग है। इसके विपरीत जो भी है, चोरी करने वाला हमेशा भयभीत रहता है। उसके भीतर हमेशा आकुलता वह सब अधर्म संसार मार्ग है। यदि जिनेन्द्र परमात्मा के वचनों का लोप करते हो - ९ भय संकल्प-विकल्प चलते रहते हैं। आजकल चोरी, गलत काम करने वाले, अर्थात उनके विपरीत आचरण करते हो। सत्य धर्म के विपरीत अपनी मनमानी रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, चोरबाजारी का काम करने वाले हमेशा दु:खी और भयभीत करते हो, तो यह भी चोरी है और इससे दुर्गति के ही पात्र बनोगे। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ON श्री श्रावकाचार जी गाथा-१२९-१३४O OO सम्यकदर्शन, सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्रमयी ज्ञानमूर्ति जो निज शुद्धात्मा है का चिन्तवन करो और सब व्यवहार छोड़ दो, इसी से भव संसार से पार होओगे। यह उसी में लीन रहो। यदि इसका लोप करते हो, और विभावों में पुण्य-पापशुभाशुभ जिनेन्द्र परमात्मा की देशना है। इसके विपरीत जो आचरण करता है, व्यवहार में क्रियाओं में लगते हो, पर पर्याय आदि को देखते हो, मोह, राग-द्वेष आदि में लिप्त , उलझता है. वह अपने शुद्धात्म स्वरूप को लोप करने वाला चोर है। रहते हो, तो यह जिन वचनों की चोरी है और इससे दुर्गति के पात्र बनोगे। बाहर में यहाँ कोई प्रश्न करे कि सब व्यवहार छोड़ दें और आत्मा का चिन्तवन करेंतो यह व्रती श्रावक या महाव्रती साधु हो जाने से क्या होता है ? जिनवाणी के विपरीत २ भव संसार से पार हो जायेंगे, तो यह साधु मुनियों के लिये कहा है कि हम साधारण आचरण करना, अपने शुद्धात्म तत्व का अनुभव न करना और बाहरी प्रपंच में लगे गृहस्थ अव्रती पाप परिग्रह में लगे लोगों के लिये कहा है क्योंकि हम सब व्यवहार रहना या जिन वचनों का लोप करना, महान चोरी है। जिससे दुर्गति के पात्र छोड दें और आत्मा की चर्चा करें तो क्या परिणाम होगा वह तो सब जानते हैं बनोगे। हैं क्योंकि हम तो आत्मा की चर्चा ही कर सकते हैं, चिन्तन,आराधन तो हो ही नहीं इसी बात को योगीन्दुदेव योगसार में कहते हैं सकता क्योंकि सामने कर्म संयोग और मोह-राग का तीव्र सद्भाव है इसलिये इसका सुदधु सचेयणु बुधु जिणु केवलणाण सहाउ। २ स्पष्टीकरण करें? सो अप्पा अणुदिणु मुणहु जइचाहहु सिवलाहु॥२६॥ ॐ इसका समाधान करते हैं कि यहाँ जो चर्चा की जा रही है वह धर्म मार्ग पर यदि मोक्ष पाने की इच्छा करते हो तो निरन्तर ही आत्मा को शुद्ध सचेतन चलने वाले पाप-परिग्रह का त्याग कर महाव्रती साधु होने वालों की अपेक्षा कहा बुद्ध जिन और केवलज्ञान स्वभावमय समझो।। ४ जा रहा है। व्यवहार का त्याग करने के कहने की अपेक्षा यह है कि जो बाहर की जाव ण भावहु जीव तुई, णिम्मल अप्पसहाउ। क्रिया जप,तप,पूजा,पाठ,नियम,संयम,त्यागी साधु आदि होने को धर्म की साधना ताव ण लम्भइ सिवगमणु जहिं भावह तहिं जाउ ॥२७॥ S मान रहे हैं और उसी में लगे हैं. उनसे कहा जा रहा है। अपने शुद्धात्म स्वभाव की हे जीव ! जब तक तू निर्मल आत्म स्वभाव की भावना नहीं करता, तब तक साधना आराधना करो, यह बाह्य की क्रियाकांड में मत उलझो क्योंकि मुक्ति का मोक्ष नहीं पा सकता। अब जहाँ तेरी इच्छा हो वहाँ जा। एक मात्र कारण और आधार तो निज शुद्धात्मानुभूति करना, उसी में लीन रहना है। अप्पा अप्पई जो मुणइ जो पर भाव चएइ। वयतवसंजममूलगुण मूवह मोक्ख ण वुत्ता सो पावइ सिवपुरिगमणु जिणवत एउभणेइ॥३४॥ जाव ण जाणइश्क्क पल सुबउ भाउ पवितु ॥२९॥ जो आत्मा ही आत्मा का चिंतन करता है, जो परभाव को नहीं चाहता वह जब तक अपने एक परम पवित्र शुद्ध स्वभाव को नहीं जानते तब तक हे मूढ ! शिवपुरी में गमन करता है ऐसा जिनवर ने कहा है। ई. यह व्रत, तप, संयम मूलगुण से मोक्ष होना नहीं कहासय्य अचेयण जाणि जिय एक्क सचेयणु सात। जो णिम्मल अप्पा मुणइ वय संजम संजुत्तु । जो जाणेविणु परममुणि लहु पावइ भवपारु॥३६॥ तो लहु पावइ सिद्ध सुहुइउ जिणणाह, वुत्तु ॥३०॥ जितने भी पदार्थ हैं वे सब अचेतन हैं। चेतन तो केवल एक जीव ही है और जिनेन्द्र देव का कथन है कि जो जीव व्रत, संयम से युक्त होकर अपने निर्मल वही सारभूत है। उसके जाने बिना परम मुनि भी भव संसार से पार नहीं हो 5 आत्मा को ध्याता है तो वह शीघ्र ही सिद्धि सुख को पाता है। सकते। यहाँ हमें भी इस बात को समझना है कि हम यह जो पाप-परिग्रह में लगे जइणिम्मलु अप्पा मुणहि छडिवि सहु ववहारु। हैं। मोह-राग में फँसे हैं तो इसका परिणाम क्या होगा? नरक निगोद जाना पड़ेगा X जिण सामिउ एमइ भणइ लहु पावहु भवपारु॥३७॥ और वहाँ कैसे-कैसे दु:ख भोगना पड़ते हैं, यह जिनवाणी के द्वारा सब जानने में जिन स्वामी जिनेन्द्र परमात्मा ऐसा कहते हैं कि हे भव्य ! अपने निर्मल आत्मा आ रहे हैं, हम पर के पीछे मोह-राग और पाप-परिग्रह कर रहे हैं, तो क्या यह eckonerrorrecate Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री श्रावकाचार जी गाथा-१३५-१४२ ) हमारी समझदारी विवेक है ? अरे ! यह सब शुभ संयोग पाया है, ऐसे सद्गुरू के मनादि काय विचलंति, इन्द्रिय विषय रंजितं । शरण में आ गये हैं जो धर्म का यथार्थ स्वरूप, मुक्ति का मार्ग बता रहे हैं : तो हमारी व्रत पंड सर्व धर्मस्य, अनुत अचेत सायं ॥१४१॥ बुद्धिमानी और पुरुषार्थ तो यही है कि हम भी यह सब पाप-परिग्रह छोड़ें। संयम,तप विषयं रंजितं जेन, अनृतानंद संजुतं । धारण करें और अपने आत्म स्वरूप की साधना में लीन हो जायें। यह व्यवहारिकता* निभाने से हमारा भी कभी भला नहीं हो सकता। यह तो भूमिकानुसार होती है, पुन्य सद्भाव उत्पादंते, दोष आनंदनं कृतं ॥१४२॥ चलती है तो चलती रहे ; पर हमें भी अपने आत्म कल्याण करने का पुरुषार्थ करना अन्वयार्थ- (परदारा रतो भावं) पर स्त्री में आसक्त जिसका भाव है (परपंचं चाहिये । धर्म का यथार्थ स्वरूप समझ रहे हैं तो यह पुरुषार्थहीन बने न बैठे रहें। कृतं सदा) वह हमेशा प्रपंच करता रहता है अर्थात् मिलने के नाना प्रकार के जाल पाप-परिग्रह का त्याग कर महाव्रती साधु बनें और अपनी आत्म साधना में लीन । रचा करता है (ममतं असुद्ध भावस्य) उसकी ममता चाह, अशुद्ध भावों की रहती है होकर मुक्ति पावें। इसी में इस मानव जीवन की सार्थकता है। (आलापं कूड उच्यते) और वह मायाचारी वार्तालाप करता है। च्यवहार धर्म संसार है, निश्चय धर्म मुक्ति मार्ग है, इसका हम भी ध्यान (अभं कूड सद्भाव) अब्रह्म का जिसका कुटिल क्रूर स्वभाव है (मन वचनस्य रखें। धर्म में निश्चय-व्यवहार लगा देने से ही बड़ी विडम्बना हो गई है, क्रीयते) मन से वैसा विचार करता है और वचनों से वैसा ही बोलता है (ते नरा व्रत इसका विवेक रखें। धर्म तो एक अपना निज शुख स्वभाव ही हाशेष जो भी हीनस्य) वह मनुष्य ब्रह्मचर्य व्रत से हीन है (संसारे दुष दारुनं) और संसार में वह सब पाप-पुण्य कर्म अधर्म ही है,जो संसार का कारण है। दारुण दुःख भोगता है। आगे सातवाँ व्यसन पर स्त्री रमण के स्वरूप का वर्णन करते हैं (कषायं जेन विकहस्य) जो कषाय सहित राग पूर्वक विकथायें करता है, परदारा रतो भावं, परपंचं कृतं सदा। सुनता है (चक्र इन्द्र नराधिपा) चक्रवर्तियों की, इन्द्रों की, राजा-महाराजाओं की ममतं असुखभावस्य, आलापं कूड उच्यते ॥१३५॥ ॐ कथा करता है (भावन तत्र तिस्टंते) उसकी भावना उन्हीं में लगी रहती है, वह भी 3 वैसे ही भोगादि भोगना चाहता है (पर दारा रतो नरा) वह मनुष्य परदारा में ही रत अबंभ कूड सद्भाव, मन वचनस्य क्रीयते। आसक्त है। ते नरा व्रत हीनस्य, संसारे दुष दारुनं ॥१३६ ॥ R (काम कथा च वर्नत्वं) काम भोग की कथाओं का वर्णन करना (वचनं आलाप कषायं जेन विकहस्य,चक्र इन्द्र नराधिपा। रंजन) बड़ी रुचि पूर्वक आनंद से कहना, सुनना, बताना (ते नरा दुष साहंते) वह भावन तत्र तिस्टंते, पर दारा रतो नरा॥१३७॥ ७ मनुष्य बड़े दुःख सहते हैं, हमेशा आकुल-व्याकुल रहते हैं (पर दारा रतो सदा) वह हमेशा परदारा में आसक्त ही हैं। काम कथा च वर्नत्वं,वचनं आलाप रंजनं । (विकहा अश्रुत प्रोक्तं च) विकथाओं का वर्णन करने वाले कुशास्त्र नहीं, ते नरा दुष साईते, पर दारा रतो सदा ॥१३८॥ 5 अशास्त्र कहे गये हैं (कामार्थं श्रुत उक्तयं) ऐसे काम भाव को पैदा करने वाले विकहा अश्रुत प्रोक्तं च,कामार्थ श्रुत उक्तयं । 5 शास्त्रों का कहना पढ़ना सुनना (श्रुतं अन्यान मयं मूढा) ऐसे उपन्यास कथा पुराण 2 श्रुतं अन्यान मयं मूढा, व्रत पंड दारा रंजितं ॥१३९॥ आदि पढ़ना अज्ञान मय मूढता है (व्रत पंड दारा रंजितं) उसी से ब्रह्मचर्य व्रत परिणाम जस्य विचलंते,विभ्रम रूप चिंतनं । खंडित होता है, स्त्रियों में आसक्ति होती है। (परिणामं जस्य विचलंते) जिससे परिणाम विचलित होवें (विभ्रम रूप आलापं श्रुत आनंदं, विकहा परदार सेवनं ॥१४०॥ चिंतन) ऐसे स्त्रियों के विलास रूपादि का चिन्तन करना (आलापं श्रुत आनंदं) कथा, conomorreckonknorrecto Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-१३५.१४२ P OON कहानी कहना, सुनना वार्तालाप करना, और उसमें आनंदित होना (विकहा परदार जो जीव कषाय सहित राग पूर्वक इन्द्र चक्रवर्ती राजा-महाराजाओं के वैभव सेवनं) यह सब विकथायें हैं इससे परदार सेवन का दोष लगता है। विलास, विषय-भोगादि की विकथाएँ करते हैं। उनकी भावना भी उन्हीं में लगी (मनादि काय विचलंति) मन,वचन, काय सहित विचलित होकर (इन्द्रिय , रहती है। वह भी वैसे ही भोगादि भोगना चाहते हैं। वह मनुष्य भी परदारा रत पाप के विषय रंजितं) इन्द्रिय विषय में रंजायमान हो गये (व्रत षंड सर्वधर्मस्य) तो सब धर्म दोषी भागीदार हैं। कामभोग की कथाओं का वर्णन करना बड़ी रुचि पूर्वक आनंद से चला गया और व्रत भी खंडित हो गया (अनृत अचेत सार्धयं) क्षणभंगुर अचेतनकहना सुनना यह भी मनुष्य को बड़ा क्षोभित, मलिन चित्त, आकुल-व्याकुल कर शरीर के पीछे सब धर्म साधना गंवा दी। देता है। जो किसी विकथाओं को कहते सुनते हैं वह परदारा में रत पापी ही हैं। नाटक __ (विषयं रंजितं जेन) जो जीव विषयों में रंजायमान रहते हैं (अनृतानंद संजुतं), सिनेमा आदि देखना भी इसी के अन्तर्गत आता है तथा अश्लील कामवर्धक वे झूठे विषयों के आनंद में लीन रहते हैं, यही मृषानंदी रौद्रध्यान होता है जो नरक, साहित्य पढ़ना,उपन्यास, कथा-कहानी और ऐसे पुराण भी इसी में आते हैं। इनको ले जाता है (पुन्य सद्भाव उत्पादंते) वे पुण्य का संचय करना चाहते हैं, क्योंकि पुण्य पढ़ने सुनने से भी ब्रह्मचर्य व्रत खंडित होता है और स्त्रियों की आसक्तता बढ़ती है। के उदय से ही यह विषयादि सुख मिलते हैं (दोषं आनंदनं कृतं) वह मूढ संसार के ब्रह्मचर्य के पालने के लिये यह आवश्यक है कि भावों को बिगाड़ने वाले निमित्तों कारण समस्त दोषों को आनंद से करता है। प्रसन्नता पूर्वक मोह, राग-द्वेषादि, से भी बचा जाये; क्योंकि काम भाव की आग का उत्पन्न होना महान अनर्थ और विषय-कषायों में लगा रहता है। दु:खों का कारण है। विशेषार्थ- यहाँ पर स्त्री रमण व्यसन का वर्णन चल रहा है। यहाँ कोई प्रश्न जिससे परिणाम विचलित होवें, ऐसे स्त्रियों के विलास रूपादि का चिन्तन करता है कि वेश्या गमन और पर स्त्री रमण में क्या भेद है ? र करना वार्तालाप चर्चा करना, कथा-कहानी पढ़ना,सुनना और उसमें आनन्दित उसका समाधान करते हैं कि वेश्या बाजारू स्त्री को कहते हैं। जो विवाहित होना यह सब विकथायें हैं, इससे परदार सेवन का दोष लगता है। मन,वचन,काय हो या अविवाहित हो, बाजार में बैठकर अपने शरीर को बेचने का धन्धा करती है 5 सहित विचलित होकर इन्द्रिय विषय में रंजायमान हो गये,लग गये वहाँ तो सब धर्म और पर स्त्री, दूसरे की विवाहित स्त्री को कहते हैं। यह मनुष्य की दुष्ट प्रवृत्ति से होता ही चला गया, व्रत भी खंडित हो गया। क्षणभंगुर इन्द्रिय विषय और अचेतन शरीर है। यहाँ जिसकी दुष्ट प्रवृत्ति है जो कामी जीव है जिसका पर स्त्री में आसक्त भाव है के पीछे सब धर्म साधना ही गवां दी, इससे नरक निगोद में जाना पड़ेगा। जो जीव वह हमेशा प्रपंच में लगा रहता है अर्थात् छल छिद्र मायाचारी से नाना प्रकार के विषयों में रंजायमान रहते हैं, वे मृषानंदी रौद्र ध्यान करके नरक जाते हैं तथा पुण्य जाल रचा करता है। उसकी ममता चाह अशुद्ध भावों में रहती है अर्थात् वह अशुद्ध का संचय करना चाहते हैं। पुण्य को ही धर्म मानते हैं क्योंकि पुण्य के उदय से ही पापपूर्ण काम के भावों में लगा रहता है। वह मायाचारीपूर्ण कुटिल छल छिद्र युक्त यह विषयादि सुख मिलते हैं। ऐसे मूढ संसार के कारण समस्त दोष, पाप, मोह, वार्तालाप करता है । अब्रह्म से जिसका कुटिल क्रूर स्वभाव है। जो मन से वैसे राग-द्वेषादि कषाय को बड़ी प्रसन्नता, आनंद से करते हैं और संसार में दुर्गतियों में विचार करता है और वचनों से वैसा ही कहता है, वह मनुष्य ब्रह्मचर्य व्रत से हीन है रुलते हैं। और संसार में दारुण दुःख भोगता है। पर स्त्री भोग का भाव मन और वचन को कुटिल काम की इच्छा अतिदुष्ट होती है, यह संसार को बढ़ाने वाली, क्लेश को पैदा ९बना देता है। उनके भावों में पर स्त्री का रूप बस जाता है। वे उसे देखने की. उससे करने वाली, धन का नाश करने वाली है। जो जीव ऐसे व्यसनों में फँसे होते हैं 9 बात करने की, उससे मिलने की चिंता में पड़े रहते हैं। उनका पुण्य,धर्म,धन,यशवंश सब नष्ट हो जाता है। यहाँ भी महान दःख भोगते हैं ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिये निमित्तों से बचने की बहुत आवश्यकता है। और परभव में नरक निगोद आदि दुर्गतियों में जाते हैं। स्त्री-पुरुष का एकांत निमित्त बड़े-बड़े महाव्रती मुनि तक के भावों में मलिनता द्रव्य संयम से भाव संयम होता है। परिणामों की संभाल निमित्तों से बचने पर पैदा कर देता है; इसलिये व्रती को एकांत में शय्या व आसन रखने को कहा है। होगी। मन की चंचलता बड़ी विचित्र है। जरा भी विपरीत निमित्त मिलता है तो मन ९१ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOON श्री आचकाचार जी गाथा-१४३-१४४ w r विकारी हो जाता है। मन का विकारी होना ही काम देव का उत्पादक है। असत्यं असास्वतं रागं,उत्साहं परपंच रतो। ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिये तत्वार्थ सूत्र में पाँच भावनायें बताई हैं - सरीरे राग विचंते, ते पुनः दुर्गति भाजन ॥१४॥ स्त्रीराग कथा श्रवण तन्मनोहरांग निरीक्षण पूर्वरतानुस्मरण दृष्येष्ट रस स्वशरीर संस्कार त्यागा: पंचः ।। ७/७॥ अन्वयार्थ- (एतानि राग संबंधं) इस प्रकार राग के सम्बन्ध से (मद अस्टं १. स्त्रियों में राग बढ़ाने वाली कथाओं का सुनना छोड़ना चाहिये। 3 रमते सदा) हमेशा आठ मदों में लगा रहता है (ममतं असत्य आनंदं) झूठे ममत्व में २. स्त्रियों के मनोहर अंगों के देखने का त्याग करना चाहिये। आनंद मानता है (मद अस्टं नरयं पतं) आठों मद नरक में पतन के कारण हैं। ३. पूर्व में भोगे हुए भोगों की स्मृति नहीं करना चाहिये। R (असत्यं असास्वतं रागं) झूठे, क्षणभंगुर राग से (उत्साहं परपंच रतो) प्रपंच ४. कामोद्दीपक पौष्टिक रस नहीं खाना चाहिये। 2 मेंरत रहता है (सरीरे राग विधंते) शरीर का राग बढ़ जाने से (ते पुन: दुर्गतिभाजन) ५. अपने शरीर का श्रृंगार नहीं करना चाहिये। 5वह मनुष्य दुर्गति का पात्र बनता है। सप्तव्यसन जिनके वय, सो नर नीच कहाय । विशेषार्थ- यहाँ बहिरात्मा जो संसार शरीर भोगादि में आसक्त पुद्गल की चूत जुआ आमुख सुरा, आखेटक दु:खदाय ॥ रचना में लगा है वह धन,स्त्री,पुत्र, परिवार के लिये संसारी ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये चोरी पर नारी रता, रामामिखम सोय । कुदेवादि की पूजा भक्ति करता है। कुगुरुओं की मान्यता, वंदना भक्ति करता है और अन्तर दीरथ कल्पना, आध घ्याध दु:खदोय ॥ उनके कथनानुसार अधर्म सेवन में लगा रहता है। सच्चा देव-निज शुद्धात्मा, परिवे कुंभी पाक में, सप्त व्यसन सोपान। सच्चा गुरू-निज अन्तरात्मा और सच्चा धर्म-निज शुद्ध स्वभाव को नहीं निःश्रेणी शम वम दया,सत्यात जप तप दान ॥ जानता मानता । व्यवहार में सच्चे देव-सर्वज्ञ वीतरागी हितोपदेशी अरिहन्त सत्संगति जो कोई करे, सरै सकल ही काम । एसिद्ध परमात्मा, सच्चे गुरु-ज्ञानी वीतरागी निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु, सच्चा और काम की कुण चली,मिले निरंजन राम ॥ धर्म-वस्तु स्वभाव को भी नहीं जानता मानता। मिथ्या देवगुरू धर्म के चक्कर में सप्त व्यसन अधर्म ही है। इनमें फँसा जीव नरक में जाता है इसलिये जो फँसा अधर्म का सेवन करता है और संसार में रुलता रहता है। जीव अपना आत्म कल्याण करना चाहते हैं उन्हें विकथाओं का और व्यसनों का अधर्म क्या है? जो शुभाशुभ कर्म, पाप-पुण्य हैं; यह सभी अधर्म है। इसके त्याग बाहर और भीतर दोनों प्रकार से कर देना चाहिये। आंतरिक परिणति का अन्तर्गत आर्त-रौद्र ध्यान, चार विकथायें, सात व्यसन यह सब अधर्म और दुर्गति के बाह्य क्रिया आचरण पर प्रभाव पड़ता है और बाह्य आचरण क्रिया आंतरिक परिणति कारण हैं। इनमें फंसा जीव संसार के दारुण दु:ख भोगता है, इन्हीं में आठ मद भी का द्योतक होती है। अपना भला करना है तो अन्तर बाह्य दोनों परिणति संभालें आते हैं। इस प्रकार संसार के मोह-राग के सम्बन्ध में फँसा जीव शरीरादि बाह्य और अपने आत्म स्वरूप की रमणता का पुरुषार्थ करें। अध्यात्म भाषा में अपनी संयोग को ही अपना स्वरूप मानता है और उन्हीं का अहंकार, मद करता है, यह मद अशुद्ध पर्याय देखना भी अब्रह्म कुशील सेवन है। पर पर्याय देखना तो व्यभिचारीपना आठ प्रकार के होते हैं, जिनमें हमेशा रमता रहता है। जगत की ममता में फँसा रहता र पर स्त्री सेवन करना है। 5 है। मिथ्या झूठे पदार्थों में आनंद मानता है। इस प्रकार आठ मदों में फंसा जीव नरक आगे अधर्म के स्वरूप में अष्ट मदों का वर्णन करते हैं चला जाता है। जगत की सर्व रचना क्षणभंगुर नाशवान है, परिणमनशील है, प्रति ४. आठ मद करना अधर्म है समय बदलती रहती है। ऐसे क्षणभंगुर नाशवान झूठे पदार्थों में रमण करता है और एतानि राग संबंध, मद अस्टं रमते सदा। हमेशा इन्हीं के प्रपंच में लगा रहता है। वह आत्मा को बिल्कुल भूलकर अपने को शरीर रूप ही माना करता है, इससे शरीर का राग बढ़ता है। स्वस्थ सुन्दर बनाने ममतं असत्य आनंद, मद अस्टं नरयं पतं ॥१४३॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CoOuी आपकाचार हृष्ट-पुष्ट करने विषय-भोग करने में लगा रहता है तथा मैं राजा हूँ, मैं सेठ हूँ, मैं मानं राग संबंध, तप दारुन नंतं श्रुतं। बलवान हूँ, मैं विद्वान हूँ, मैं तपस्वी हूँ, मैं सुन्दर हूँ, मैं बड़े वंश का हूँ इत्यादि सुद्ध तत्वं न पस्यंति, ममतं दुर्गति भाजनं ॥१५०॥ शरीर की मूर्छा में मूञ्छित अहंकार से ग्रसित आठ मदों में लगा तीव्र कर्म बांधकर अन्वयार्थ- (जाति कुल सुरूपं च) जाति मद, कुल मद,रूप मद और दुर्गति में चला जाता है। इस शरीर की आयु गलती जाती है। सब रूप विलय होता जाता है। 8 (अधिकारं न्यानं तपं) अधिकार मद, ज्ञान मद, तप मद, (बलं सिल्प आरूढ़) बल जरा (बुढ़ापा) निकट आता जाता है। रोगों का उदय होता जाता है तो भी मद,शिल्प कला का मद इन पर आरूढ़ अर्थात् अहंकार चढ़ा हुआ (मद अस्टं संसार भाजन) यह आठों मद संसार का पात्र बनाते हैं। यह मूढ मनुष्य कुटुम्ब स्नेह में फंसा हुआ लोभ में जकड़ा रहता है। (जातिं च राग मयं चिंते) जाति, माता पक्ष के रागमय (अनृतं नृत उच्यते) पाप-परिग्रह में लगा रहता है। मोह राग में दु:खी आकुलित चिन्तित भयभीत होता रहता है। अपने आत्म स्वरूप को नहीं देखता पहिचानता और झूठे मोह ९ जो झूठे, मिथ्या हैं उनको शाश्वत कहता है (ममतं स्नेह आनंदं) ममत्व और स्नेह माया के जाल, संसार से छूटने का पुरुषार्थ नहीं करता जबकि यह धन ए में आनंद मानता है (कुल आरूढ़ रतो सदा) हमेशा कुल मद, पितापक्ष के अहंकार संपदा क्षणिक अस्थायी है, यह सब शरीर संयोग, स्त्री, पुत्र, परिवार का & का नशा चढ़ा रहता है और उसी में रत रहता है। सम्बन्ध क्षणभंगुर नाशवान है, आयु का अंत आते ही सब छूट जाता है, (रूपं अधिकारं दिस्टा) सुन्दर रूप को तथा अधिकार को देखकर (रागं शरीर भी जला दिया जाता है। यह सब प्रत्यक्ष आँखों के सामने देखते हुए भी 5 विधंति जे नरा) जो मनुष्य राग बढ़ा लेते हैं (ते अन्यान मयं मूढा) वे अज्ञानमयी मूढ़ मानव नहीं चेतता । गुणवान ज्ञानीजन ऐसा विचार करके अपने शुद्ध 3 मूढ हैं और (संसारे दुष दारुन) संसार के दारुण दु:ख भोगते हैं। आत्म स्वभाव में रमण करते हैं। वास्तव में इन सांसारिक पदार्थों के लिये (कुन्यानं तप तप्तं च) कुज्ञान सहित तप करने वालों का (रागं विधंति ते मानवमुच्छ करना मात्र अज्ञानता है। ५ तपा) उस तप से राग बढ़ जाता है अर्थात् मद और कषाय बढ़ जाती है (ते तानि आठमद क्या हैं और उनका स्वरूप क्या है? इसे आगे की गाथाओं में कहते हैं * मूढ सद्भाव) वे सब मूढ स्वभावी हैं जो (अन्यानं तप श्रुतं क्रिया) अज्ञान तप, सुनी सुनाई क्रिया करते हैं। जाति कुल सुरूपं च, अधिकार न्यानं तपं । (अनेय तप तप्तान) ऐसे अज्ञानमयी, कुज्ञान सहित अनेक तप करते रहो बलं सिल्प आरूढं, मद अस्टं संसार भाजन ॥१४५॥ ८ (जन्मन कोड कोडिभि) करोड़ों-करोड़ जन्मों तक करते रहो (श्रुतं अनेय जानते) जातिं च राग मयं चिंते, अनृतं नृत उच्यते। है अनेक शास्त्रों को भी जानते रहो अर्थात् बहुत आगम ज्ञान हो तो भी (राग मूढ मयं ममतं स्नेह आनंदं, कुल आरूड़ रतो सदा ॥ १४६ ।। सदा) हमेशा राग मयी हमेशा रागमयी होने से वह सब अज्ञानमय है। (मानं राग संबंध) ऐसे मान कषाय और राग से बंधे हुए (तप दारुनं नंतं रूपं अधिकारं दिस्टा,रागं विधति जे नरा। श्रुतं) बहुत कठोर दारुण तप करो और अनन्त शास्त्र पढ़ लो (सुद्ध तत्वं न पस्यंति) ते अन्यान मयं मूढा, संसारे दुष दारुनं ॥१४७॥ जब तक शुद्ध तत्व अपने शुद्धात्म स्वरूप को नहीं जानते उसका अनुभव नहीं कुन्यानं तप तप्तं च, रागं विधति ते तपा। करते तब तक (ममतं दुर्गति भाजन) यह मोह मद दुर्गति का पात्र बनाने वाला है। 1 ते तानि मूढ सद्भावं, अन्यानं तप श्रुतं क्रिया॥१४८ ॥ विशेषार्थ- मद- अहंकार अकड़ घमंड को मद कहते हैं, यह मान कषाय के अनेय तप तप्तानं, जन्मनं कोड कोडिभि। अन्तर्गत होते हैं। जब तक यह आठ मद होते हैं, तब तक जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही होता है। यह सम्यकदर्शन के दोष हैं, इनके रहते सम्यक्दर्शन नहीं होता। यह श्रुतं अनेय जानते, राग मूह मयं सदा॥१४९ ।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-१४५.१५. Oo आठ मद-जातिमद, कुलमद, रूपमद, अधिकारमद, ज्ञानमद, तपमद, बलमद और शिल्प कला, चित्रकारी, संगीत, यंत्र, विद्या आदि का काम जानना और इसमें हमेशा शिल्पमद होते हैं। फूले रहना शिल्प मद है। १.जातिमद- माता पक्ष के अहंकार को जातिमद कहते हैं। माता के र मान कषाय से उत्पन्न जो मद मात्सर्य (ईर्ष्या) आदि समस्त विकल्पों का कुटुम्बीजनों में यह मान करना कि हमारे मामा नाना आदि ऐसे ऐसे हैं। उनके * समूह है, उसके त्यागपूर्वक जो ममकार और अहंकार से रहित शुद्ध आत्मा में भावना धनादि बल को अपना मानकर अहंकार करना जाति मद है। है,वही वीतराग सम्यकदृष्टियों के आठ मदों का त्याग हैं। ममकार और अहंकार के २.कुलमद-पिता पक्ष के अहंकार को कुलमद कहते हैं। पिता के कुटुम्बीजनों लक्षण को कहते हैं-कर्मों से उत्पन्न जो देह, पुत्र-स्त्री आदि हैं, इनमें यह मेरा में दादा, परदादा आदि के धन बल ऐश्वर्य आदि का अहंकार करना कुल मद है। शरीर है, यह मेरा पुत्र है, इस प्रकार की जो बुद्धि है वह ममकार है और उन शरीर ३.रूपमद - शरीर की सुन्दरता आँख,कान,नाक, मुँह आदि की विशेषता , आदि में अपनी आत्मा से भेद न मानकर जो मैं गोरे वर्ण का हूँ, मोटे शरीर का हूँ, सहित सुन्दर रूप गोरारंग, स्वस्थ शरीर आदि का अहंकार करना रूप मद है। राजा हूँ आदि इस प्रकार मानना सो अहंकार है। ४.अधिकार मद-प्रभुताई, बड़प्पन, हुकूमत चलते हुए यह मानना कि मैं शरीर आदि ही मैं हूँ इस मिथ्यात्व से अहंकार मद होता है। यह शरीरादि मेरे जो चाहूँ सो कर सकता हूँ। मैं सबसे सयाना, सबसे बड़ा,घर का, समाज का हैं, यह मोह-ममत्व है इससे पर के प्रति राग आसक्तता रहती है। मुखिया,पदाधिकारी,मंत्री आदि पद का अहंकार करना अधिकार मद है। मिथ्यात्व से जन्म-मरण होता है, मोह-राग से कर्मबन्ध होता है। ५.ज्ञान मद-यह बड़ा खतरनाक होता है। कोराज्ञान, बाहरी विद्या शास्त्रों जब तक अपने सत्स्वरूप शुद्ध तत्व, निजशखात्मा का श्रद्धान अनुभूति नहीं को पढ़ने लिखने आदि सांसारिक बातों का ज्ञान होने पर क्षायोपशमिक ज्ञान का होती, तब तक यह अहंकार-ममकार तो होते ही हैं। मिथ्यात्व अज्ञान दशा अहंकार करना, अपने को होशियार चतुर मानना और सबको मूर्ख, अज्ञानी समझनाS में कुज्ञान सहित कितने ही तप करो, अनेक शास्त्र पढ़ो पर इससे तप मद, ज्ञानमद है। ईशान मद ही बढ़ता है, आत्म कल्याण नहीं होता। ६. तप मद- व्रत, नियम, संयम, तप, उपवास आदि कठोर साधना इन आठ मदों का स्वरूप प्रशमरति प्रकरण में आचार्य उमास्वामी कहते हैंकरना,परीषह सहना, साधु हो जाना, नाना प्रकार के शारीरिक कष्ट सहना, अनेक संसार में भ्रमण करते हुए जीवों को अपने-अपने कर्म के उदय से कभी प्रकार के तप करना और अपने आपको बड़ा तपस्वी,साधु,सबसे श्रेष्ठ मानना।तप ब्राह्मण जाति, कभी चाण्डाल की जाति और कभी क्षत्रिय आदि की जाति होती के मद में चाहे जिससे चाहे जो कह देना, अपने आपको धर्मात्मा महात्मा मानना, है। कोई जाति सर्वदा नहीं रहती यही कहते हैं। लोगों की प्रभावना, प्रसिद्धि की चाह होना और तप से कोई ऋद्धि-सिद्धि हो जाये. ज्ञात्वा भव परिवर्ते जातीनां कोटिशत सहनेषु । उसका दुरुपयोग करना, क्रोधित हो जाना, अपने सामने किसी को कुछ न समझना हीनोत्तम मध्यत्वं को जातिमदं बुधः कुर्यात् ॥८१॥ तपमद है। यह जीव नारकी होकर तिर्यंच योनि अथवा मनुष्य योनि में जन्म लेता है; ७.बल मद-शारीरिक स्वस्थता, पहलवान, हृष्ट-पुष्ट होने पर हमेशा अकड़े पुन: एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चारइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति में उत्पन्न र रहना, अकड़कर चलना, निर्बलों को सताना तथा साथी, समर्थकों के बल से 5 होता है। उसमें भी एकेन्द्रियों में पृथ्वी काय के शर्करा बालुका आदि बहुत से भेद 9 अन्याय,अत्याचार करना तथा धनादि होने पर अनैतिक कार्य करना, सबको अपने हैं। इसी प्रकार जल, अग्नि, वायु और वनस्पति की भी जितनी योनियाँ हैं, उतनी से छोटा हीन समझना बल मद है। ही लाख जातियाँ हैं। देवगति में भी जितनी योनियाँ हैं, उतनी ही लाख जातियाँ८.शिल्प मद- हर काम में होशियार होने पर अकड़े रहना, मैं सब कुछ हैं। देवगति में भी ऐसा ही जानना चाहिये इसलिये संसार को चौरासी लाख योनियों जानता हूँ, सब काम कर लेता हूँ, मेरे मुकाबले कोई भी कुछ भी नहीं जानता। वाला कहा गया है। इस संसार में उत्पन्न हुआ जीव जघन्य, मध्यम और उत्तम कुलों ९४ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सका मद पवार 04 श्री आपकाचार जी में जन्म लेता है। संसार की इस विडम्बना को जानकर कौन विद्वान जाति का मद भी गर्व करने की वस्तु नहीं है। मौत सामने आने पर सभी बल व्यर्थ हो जाते हैं। कर सकता है ? यहाँ किसी की कोई जाति हमेशा नहीं रहती अत: जाति का मद उदयोपशमनिमित्तौ लाभालाभावनित्य को मत्वा। करना ठीक नहीं है। नालाभे वैक्रव्यं न च लाभे विस्मय: कार्य:॥ ८९॥ रूपबल श्रुति मतिशील विभव परिवर्जितास्तथा दरवा। लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से लाभ होता है और लाभान्तराय कर्म के विपुल कुलोत्पन्नानपिननुकुलमान: परित्याज्य: ।। ८३॥ उदय से कुछ भी लाभ नहीं होता अत: लाभ भी नित्य नहीं है और अलाभ भी नित्य, बड़े भारी कुल में जन्म लेने पर भी स्त्री अथवा पुरुष यदि कुरूप हुआ, निर्बल नहीं है। दाता की शक्ति और प्रसन्नता के अनुरूप प्राप्त हुए कुछ उपभोग के योग्य हुआ, अत्यन्त मूर्ख हुआ, हित और अहित का विचार करने की बुद्धि न हुई, जुआँरी, बड़े भारी लाभ से भी मुनीश्वरों को मद नहीं होता है। पर स्त्री गामी, असत्यवादी और चोर हुआ, पास में धन-धान्य सम्पदा न हुई तो । ग्रहणोद्राहणनवकृति विचारणार्थावधारणाद्येषु । सभी उसका तिरस्कार करते हैं अत: कुल का मद करना व्यर्थ है। बुद्धयङ्ग विधिविकल्पेष्वनन्त पर्याय वृद्धेषु ॥ ९१॥ कः शुक्रशोणित समुद्भवस्य सततं चयापचयिकस्य। पूर्वपुरुषसिंहानां विज्ञानातिशयसागरानन्त्यम् । रोग जरापाश्रयिणो मदावकाशोऽस्ति रूपस्य ।। ८५॥ श्रुत्वा साम्प्रतपुरुषाः कथं स्वबुद्धया मदं यान्ति ॥ ९२॥ नित्य परिशीलनीये त्वग्मासाच्छादिते कलुष पूर्णे। अपूर्व सूत्रों और उनके अर्थ को ग्रहण करने में,दूसरों को समझाने में, नवीन निश्चय विनाश धर्मिणि रूपे मद कारणं किं स्यात् ॥८६॥ प्रकरण वगैरह रचने में, सूक्ष्म पदार्थों का विचार करने में, आचार्य वगैरह के मुख से पिता के वीर्य और माता के रज से शरीर बनता है,उत्पन्न होता है। सदैव १ निकले हुए अर्थ को एक बार में अवधारण करने वगैरह में हमारे पूर्वज बड़े दक्ष थे घटता बढ़ता रहता है, रोग और जरा का घर है, इसमें मद करने का क्या है? शरीर तथा शास्त्रों में बुद्धि के सुनने की इच्छा वगैरह जो अंग बताये हैं, उनके भेद मति में नौ मलद्वार हैं,उनसे सदा अपवित्र गंदे पदार्थ बहा करते हैं। रूपवान रागी मनुष्य ज्ञान आदि हैं,जो परस्पर में अनन्त पर्यायों की वृद्धि को लिये हुए हैं; क्योंकि मति हर समय उसकी सफाई का ध्यान रखता है। चर्म और रक्त मांस से यह ढका है और श्रुतज्ञान सब द्रव्यों को विषय करते हैं। अवधिज्ञान समस्त रूपी द्रव्य को किन्तु उसके अंदर मूत्र, विष्ठा,खून,चर्बी,मज्जा,हड्डी, नसें आदि गन्दी चीजें भरी जानता है और मन: पर्ययज्ञान उसके अनन्तवें भाग रूपी द्रव्य को जानता है। इस 2 प्रकार परस्पर में अनन्त पर्यायों की वृद्धि को लिये हए जो बद्धि के भेद हैं वे भी हमारे तेल, उबटन, स्नान, लेप और अच्छे-अच्छे खान-पान से इसकाउन चौदह पूर्व के पाठी से लेकर ग्यारह अंग के ज्ञाता पूर्व में जो पाये जाते थे। इस लालन-पालन करने पर भी यह प्राय: नष्ट ही होता है। अन्त में यह या तो कीड़ों का प्रकार उनका ज्ञान सागर के समान गंभीर और अनन्त था। उनके इस ज्ञानातिशय ढेर बन जाता है या राख का ढेर बन जाता है अथवा हड्डी और चमड़ा मात्र रह को सुनकर आज कल के क्षुद्र बुद्धि वाले मनुष्यों को अपने ज्ञान का गर्व नहीं करना जाता है। ऐसे शरीर में रूप का मद करने का क्या कारण है। चाहिये। बल समुदितोऽपि यस्मान्नर क्षणेन विवलत्वमुपयाति। उपकार के निमित्त दीन मनुष्यों के समान दूसरे लोगों की चापलूसी करके बलहीनोऽपि च बलवान संस्कार वशात् पुनर्भवति ॥८७॥ जो उनका प्रेम प्राप्त किया जाता है, वह सब मिट जाने वाला है। मनुष्य को अपने बल का भीमद नहीं करना चाहिये क्योंकि यह बल, जिसका माष तुषोपाख्यानं श्रुत पर्याय प्ररूपणां चैव। मनुष्य गर्व करता है, कोई स्थायी वस्तु नहीं है। अच्छे से अच्छा बलवान भी प्रबल श्रुत्वाऽति विस्मयकर विकरणं स्थूलभद्र मुनेः ॥ ९५॥ रोग आदि के निमित्त से क्षण भर में बलहीन देखा जाता है और बलहीन मनुष्य भी सम्पर्कोपम सुलभ चरण करण साधकं श्रुतज्ञानम्। वीर्यान्तराय के क्षयोपशम और बलप्रद साधनों से बलशाली देखा जाता है अत: बल लग्ध्या सर्व मवहर तैनेव मदः कर्थ कार्यः॥१६॥ २६ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PO4 श्री आबकाचार जी भावपूर्वक ग्रहण किये हुए थोड़े से श्रुत से जड़ बुद्धि मनुष्य को भी निर्वाण अनृतं कृतं) मिथ्यात्व और राग करता है (विस्वासं दुर्बुधि चिंते) अपनी दुर्बुद्धि से प्राप्त हो सकता है। माषतुष मुनि जड़ बुद्धि होने के कारण पढ़ने में असमर्थ थे। उन्हीं का चिन्तन और विश्वास करता है (ते नरा दुर्गति भाजन) वह मनुष्य दुर्गति मा तुषमा रुस अर्थात् राग मत करो, द्वेष मत करो, यह भी याद नहीं कर सकते थे। का पात्र बनता है। मात्र तुष माष भिन्नं से निर्वाण हो गया अत: मैंने बहुत पढ़ा है, और मैं सब अर्थ को विशेषार्थ- यहाँ बहिरात्मा जो संसार में रुल रहा है उसका कारण बताया जानता हूँ, ऐसा गर्व करना नि:सार है तथा श्रुतज्ञान के बहुत भेद हैं, कोई एक अर्थ जा रहा है। अपने सत्स्वरूप को भूला हुआशरीरादि पुद्गल कर्मों में एकत्व मानकर की व्याख्या करता है, कोई दो अर्थ की व्याख्या करता है और कोई एक ही सूर्य के ताह आरकाइएक हा सूर्यक5 मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय सहित हो रहा है, जो राग और द्वेष से युक्त है अनेक अर्थ करता है तथा श्रुतज्ञान तो सभी मदों को दूर करने वाला है। स्थूलभद्र स्थूिलभद्र जिसकी बुद्धि मिथ्यात्व से ग्रस्त होने के कारण मलिन है और मलिन बुद्धि के कारण सहीटिमिशाल से गस्त होने महर्षि को विशिष्ट श्रृताभ्यास से विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गई, उसके गर्व में आकर । पाँच इन्टियों के विषय हिंसादि पाप और आर्त-रौद्र ध्यान रूपतीव्र परिणाम होते उन्होंने दर्शनार्थ आई हई आर्यिकाओं को भयभीत कर श्रुतसम्प्रदाय का विच्छेद हैं।जो कार्य-अकार्य का निश्चय करने में मूढ़ है, संक्लेश और विशुद्धि के स्वरूप किया अत: कौन व्यक्ति होगा जो इस घटना को सुनकर श्रुत का मद करेगा? * को नहीं समझता, आहार, भय, मैथुन और परिग्रह रूप चार संज्ञाओं के कलह में मान कषाय ही सब मदों का मूल है। जो साधु या श्रावक उसे उखाड़ फेंकना १२. फँसा है। सर्वदा हजारों दु:खों को सहने के कारण दुर्बल हो रहा है, दया का पात्र चाहते हैं उन्हें न तो अपनी प्रशंसा करना चाहिये और न दूसरों की निंदा आलोचना है। विषय सख में आसक्त होकर उन्हीं की चाहना करता है। वह जीव अनन्तानुबंधी करना चाहिये क्योंकि इससे नीच गोत्र कर्म का बन्ध होता है जो अनन्त जन्मों तक हाता हजाअनन्त जन्मा तक कषाय वाला कहा जाता है, ऐसा मनुष्य दुर्गतियों का पात्र बनता है। संसार में दुर्गति का पात्र बनाता है और संसार में दारुण दु:ख भोगना पड़ते हैं; अत:। अपनी प्रशंसा करना,पूज्य पुरुषों में भी दोष निकालने का स्वभाव होना, अपने आत्म स्वरूप का श्रद्धान करो और यह शरीर संयोग से होने वाले मदों को 5 बहुत काल तक बैर बांधे रहना यह तीव्र कषायी जीव के लक्षण हैं। जीव का स्वभाव छोडो क्योंकि यह दर्गति के कारण अधर्म ही हैं। शरीरादि सब संयोगी पदार्थ ज्ञान है और ज्ञान का कार्य यथार्थ रूप से पदार्थ को जानना है; किन्तु संसारी जीव नाशवान हैं, अस्थायी हैं। जो शाश्वत अविनाशी अपना ध्रुव तत्व शुद्धात्म स्वरूप है की स्थिति इससे विपरीत हो रही है। वह विवेकभ्रष्ट, दुर्बुद्धि हो रहा है इसका कारण रान यह अनन्त चतुष्टय का धारी रत्नत्रयमयी स्वयं परमब्रह्म परमात्मा है। ऐसे अपने एमिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व इसके अनादिकाल से चला आ रहा है। यह किसी ने स्वरूप स्वसत्ता शक्ति का बहुमान करो तो यह संसार के जन्म-मरण, सुख-दु:ख के ८ किया नहीं है । दर्शन मोहनीय इसका कारण अवश्य है; परन्तु वह प्रति समय की क्रिया नहीं। चक्र से छूट जाओगे। होने वाली पर्याय में ही निमित्त है। मुख्यतया इसी के कारण जीव संसार में परिभ्रमण बहिरात्मा जो पुद्गल को ही देख रहा है, वह ऐसे मदों में, विकथा, व्यसनों S कर रहा है। इसके कारण जीव को अपने स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती। मिथ्यात्व में फँसा रहता है और इससे ही संसार में रुलता है। और कषाय ही मुख्य माने गये हैं। ज्ञान में समीचीनता और असमीचीनता भी इसी विनय व नम्रता रखते हुए शुद्ध तत्व को जानने से ही स्वहित होगा। मिथ्यात्व के कारण आती है। इसके कारण जीव स्वरूप को भूलकर पर में स्व की आगे अधर्म के अन्तर्गत चार अनन्तानुबंधी कषायों का वर्णन करते हैं - कल्पना कर रहा है। घर, स्त्री आदि के छूट जाने पर भी जीव यदि विवेकी नहीं हो ५.अनन्तानुबन्धी कषायों में रत रहना अधर्म है पाता तो इसका कारण एक मात्र यही है। बाह्य प्रवृत्ति वश लोग साधु और उत्कृष्ट कार्य जेन अनंतानं, रागं च अनृतं कृतं । तपस्वी होते हुए देखे जाते है; किन्तु इसकी गांठ न खुलने पर उनका वह समस्त विस्वासं दुर्बुधि चिंते, ते नरा दुर्गति भाजनं ॥१५१॥ आचरण क्रिया धर्म व्यर्थ जाता है। अन्वयार्थ- (कषायं जेन अनंतानं) जो जीव अनन्तानुबंधी कषाय (रागं च तीन मिथ्यात्व-मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति मिथ्यात्व। चार अनन्तानुबंधी कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ। यह सात प्रकृतियाँ ही जीव Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशा श्री आचकाचार जी को संसार में जन्म-मरण और कर्मबन्ध में कारण हैं। इनके उपशम, क्षय, क्षयोपशम विशेषार्थ- यहाँ अनन्तानुबंधी लोभ का स्वरूप बताया जा रहा है। होने पर जीव को जब अपनी स्वसत्ता शक्ति का बोध होता है विवेक और पुरुषार्थ लोभ-चाह. आशा, तुष्णा,इच्छा, मूर्छा पकड़ को कहते हैं। इनकी अति ही जागता है तभी वह संसार से मुक्त होता है। ५ अनन्तानुबंधी कहलाती है। अनन्तानुबंधी लोभ, किरमिच (डामर) के रंग जैसा होता, जीव में रागादि विकार का नाम ही अधर्म है और विकार का त्याग होकर है.जो मश्किल से छटता है। लोभ सब पापों का बाप है, कषायों का राजा है। इसी के स्वरूप की प्राप्ति ही धर्म है। सात व्यसनों में आसक्ति और आठ मदों में लीनता कारण माया, मान, क्रोध होते हैं। कहा हैअनन्तानुबंधी कषाय के कारण होती है, इसी से चार विकथाओं में रत रहता है। उत्तम शौच सर्व जग जाना,लोभ पाप का बाप बखाना। ___जिससे अनन्त अनुबंध हो, वह अनन्तानुबंधी कहलाती है। कषाय अर्थात् आशा फाँस महा दु:खदानी, सुख पावे सन्तोषी प्राणी ॥ जो कर्मों से कसे बांधे वह कषाय है। कषाय चार होती हैं. इसमें लोभ कषाय का। लोभ धनादि पर वस्तु का होता है। जो वस्तु नाशवान क्षणभंगुर है, यह वर्णन करते हैं - देखते जानते हुए भी लोभ के वशीभूत प्राणी धन-वैभव,जमीन-जायदाद की, पुत्र लोभं अनृत सद्भाव, उत्साहं अनृतं कृतं । * पौत्रादि की आशा तृष्णा में फंसा नाना प्रकार के पाप करता है और ऐसे ही कार्यों के तस्य लोभ प्राप्तं च, तं लोभ नरयं पतं ॥ १५२॥ प्रति बड़ा उत्साहित रहता है। आरंभ परिग्रह धन्धा व्यापार की नई-नई योजनायें लोभं कुन्यान सद्भावं, अनाद्यं भ्रमते सदा। बनाता है। नीति-अनीति, पुण्य-पाप का कोई विचार नहीं करता,धर्म-कर्म का तो ८ होश ही नहीं रहता। बहुत आरंभ परिग्रह में फंसा नरकायु बांधकर नरक चला अति लोभ चिंतते येन,तं लोभ दुर्गति कारनं ।। १५३ ॥ । जाता है। बहारंभ परिग्रहत्वं नारकस्यायुषः॥६/१५॥ तत्वार्थ सूत्र असास्वतं लोभ कृत्वं च, अनेय कष्टं कृतं सदा। क लोभ और कुज्ञान के सद्भाव में संसाराशक्त,पर्याय बुद्धि, विषयों का लोलुपी चेतना लष्यनो हीना, लोभं दुर्गति बंधनं ।। १५४॥ बना रहता है। धन के संग्रह करने की चिंता में हमेशा चिन्तित रहता है। खाना, अन्वयार्थ- (लोभं अनृत सद्भाव) लोभ नाशवान मिथ्या क्षणभंगुर पदार्थों के पीना, सोना भूल जाता है । मरने की भी फुरसत नहीं रहती, धर्म-अधर्म का तो विवेक होता ही नहीं है। प्रति होता है (उत्साहं अनृतं कृतं) और ऐसे ही नाशवान कार्यों के करने के प्रति उत्साह रहता है (तस्य लोभं प्राप्तंच) और ऐसे ही असत् पदार्थों के प्राप्त करने का र धन का संग्रह,धन की रक्षा और धन का खर्च होना,चले जाना यह लोभी प्राणी के लिये बड़े दु:ख के कारण हैं। लोभ बना रहता है (तं लोभ नरयं पतं) ऐसा लोभ नरक में डाल देता है। लोभी प्राणी दूसरों के धन वैभव,ऐश्वर्य को देखकर हमेशा कुढता अर्थात (लोभं कुन्यान सद्भाव) लोभ और कुज्ञान के सद्भाव में (अनाद्यं भ्रमते सदा) यह जीव हमेशा से भ्रमते भटकते काल गवां रहा है (अति लोभ चिंतते येन)* ईर्ष्या करता रहता है। रात-दिन नई-नई तरकीबें सोचता रहता है। अपने बढ़ने की और दूसरों को गिराने की योजना बनाता है, निरंतर रौद्र ध्यान में लगा रहता और अति लोभ का चिन्तन किया करता है (तं लोभं दुर्गति कारनं) यह लोभ दुर्गतिर " है। तंदुल मच्छ और महामच्छ का कथानक इसका प्रमाण है। बाहर में धन-वैभव का कारण है। (असास्वतं लोभ कृत्वं च) अशाश्वत, नाशवान पदार्थों का लोभ करने से .5 होवे या न होवे क्योंकि वह तो पाप-पुण्य कर्म उदयानुसार होता है परन्तु लोभ (अनेय कष्टं कृतं सदा) हमेशा अनेक कष्ट भोगता रहता है (चेतना लष्यनो हीना) के कारण जीव हमेशा दु:खी चिन्तित रहता है। कहा हैचैतन्य लक्षण अपने स्वरूप को भूला है और (लोभं दुर्गति बंधनं) लोभ से दुर्गति का दाम बिना निर्धन दु:खी,तृष्णा वश धनवान। कहूंन सुख संसार में,सब जग देखो छान ॥ बन्ध कर रहा है। लोभी प्राणी प्राप्त पुण्य के उदय को नहीं भोगता, आगे की तृष्णा चाह में मरता Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ou40 श्री श्रावकाचार जी गाथा-१५६.१६.C O रहता है, हमेशा अनेक कष्ट भोगता है। लोभ के कारण मरने-जीने की भी परवाह मानं राग संबंधं, तप दारुनं नंतं श्रुतं । नहीं करता। भूख-प्यास सहता है। गर्मी-सर्दी मेंमारा-मारा फिरता है। धन के पीछे अनेक कुकृत्य करता है। लोभी प्राणी नकटा होता है। धन-वैभव का होना पुण्य के . अनृतं अचेत सद्भाव, कुन्यानं संसार भाजनं ॥१६॥ उदय का परिणाम है। यह उसे अपना कर्तृत्व पुरुषार्थ मानता है। अपने निज चैतन्य अन्वयार्थ- (मानं असत्य रागं च) मान भी झूठे राग से होता है (हिंसानंदी च ७ लक्षण शुद्ध स्वभाव को भूला है। स्वयं तीन लोक का नाथ अनन्त चतुष्टय का धारीदारुनं) यह हिंसानंदी और भयानक कष्टकारी होता है (परपंचं चिंतते येन) इससे , भगवान आत्मा चेतना हीन हो रहा है और पर पदार्थ धनादि के पीछे अपनी दुर्गति 5 नाना प्रकार के झगड़े मायाचार के ही विचार चलते रहते हैं (सुद्ध तत्वं न पस्यते) दुर्दशा करा रहा है। यह लोभ कषाय ही सब दु:खों की, पापों की जड़ है, यही संसार ऐसा जीव अपने शुद्ध आत्मीक तत्व को नहीं देखता। में दुर्गति का कारण है। (मानं असास्वतं कृत्वा) मान बिल्कुल झूठा नाशवान कृत्य है ( अनृतं राग अधिक लोभ के वश में जो बाहरी धन-धान्य पदार्थ बढ़ा लिये जाते हैं, नंदित) झूठे क्षणभंगुर राग में ही आनंद मानता है (असत्यं आनंद मूढस्य) जो मूढ उनकी तो बात ही क्या है, वे तो नष्ट हो ही जाते हैं; किन्तु जिसको प्रमुख रूप से ऐसा झूठा आनंद मानता है (रौद्र ध्यानं च तिस्टते) वह रौद्र ध्यान में लीन अपना मानते हैं ऐसा यह शरीर भी नष्ट हो जाता है,अंत में सब छोड़कर जाना ही रहता है। पड़ता है। (मानं पुन्य उत्पाद्यते) मान से पुण्य पैदा करना चाहता है अर्थात् अपना नाम आने है आने है जा मौत तो इक दिन आने है। बड़ाई चाहता है (दुर्बुधि अन्यानं श्रुतं) दुर्बुद्धि खोटे शास्त्र रचता है (मिथ्या मय मूढ जाने है जाने है सब छोड़ के इक दिन जाने है। दिस्टी च) मिथ्या माया से घिरा मूढ दृष्टि है (अन्यान रूपीन संसय:) इसका सारा ऐसा विचार कर बुद्धिमान पुरुष इस आत्मा के विरोधी भयानक शत्रु लोभ का लिखना, पढ़ना, कहना अज्ञानमयी है, इसमें कोई संशय नहीं है। नाश करते हैं। लोभ के नाश का उपाय जिनवाणी का स्वाध्याय सत्संग मनन कर (मानस्य चिंतन दुर्बुधि) मान का चिन्तन विचार करना ही दुर्बुद्धि है (बुद्धि आत्मा और आत्मा से भिन्न पदार्थों का भेदज्ञान है यही उपादेय है। 3 हीनो न संसया) मान कषाय वाला मानी बुद्धिहीन है. इसमें कोई संशय नहीं है मानं असत्य राग च, हिंसानंदी च दारुनं । (अनृतं नृत जानते) वह झूठे नाशवान पदार्थों को सत्य जानता है (दुर्गति पस्यते ते परपंचं चिंतते येन, सुख तत्वं न पस्यते ॥ १५५॥ R नरा) ऐसा मनुष्य दुर्गति में ही जाता है। (मानं बंधं च रागं च) मान में बंधा अर्थात अपनी अकड़ में फला और रागादि मानं असास्वतं कृत्वा , अनृतं राग नंदितं । 5 में लगा (अर्थ विचिंत नंतयं) नाना प्रकार के धनादि संग्रह के विचारों में, योजनाओं में असत्यं आनंद मूढस्य, रौद्र ध्यानं च तिस्टते ॥१५६॥ लगा रहता है (हिंसानंदीच दोषं च) हिंसा करने और नाना प्रकार के अपराध करने मानं पुन्य उत्पाचंते, दुर्बुधि अन्यानं श्रुतं। के विचार चलते रहते हैं (अनृतं उत्साहं कृतं) और ऐसे ही दुष्कर्म बड़े उत्साह पूर्वक मिथ्या मय मूढ दिस्टीच, अन्यान रूपीन संसयः॥१५७ ॥ करता रहता है। (मानं राग संबंध) मान के कारण अपनी अकड़ में फूला अपना बड़प्पन 2 मानस्य चिंतनं दुर्बुधि, बुद्धिहीनो न संसया। बताने के लिये (तपदारुनं नंतं श्रुतं) बड़ी कठिन तपस्या करता है। अनेक प्रकार के अनृतं नृत जानंते, दुर्गति पस्यते ते नरा ॥ १५८ ॥ शास्त्र पढ़ता है, बड़ा ज्ञानी बनता है (अनृतं अचेत सद्भाव) झूठे शारीरिक कृत्य में मानं बंध च रागं च, अर्थ विचिंत नंतयं । लगा रहता है (कुन्यानं संसार भाजन) ऐसा कुज्ञानी संसार में ही रुलता है दुर्गति । हिंसानंदी च दोष च, अनृतं उत्साहं कृतं ॥१५९॥ भोगता है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी विशेषार्थ लोभ-पकड़ को कहते हैं। मान-अकड़ को कहते हैं । यहाँ अनन्तानुबंधी मान कषाय का वर्णन चल रहा है। बहिरात्मा संसाराशक्त जीव अधर्म में रत इन कषायों में लगा रहता है। उसे अपने शुद्ध स्वरूप शुद्धात्म तत्व की न कोई खबर है और न उसकी तरफ देखता है। वह तो शरीर आदि संयोगी पदार्थ के बनाने, मिटाने में ही लगा रहता है। लोभ झूठी पकड़ है, मान झूठी अकड़ है। यह दोनों अन्तरंग में होती हैं। इनके कारण जीव अपने शुद्धात्म तत्त्व को नहीं देखता कि इस शरीर आदि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, मैं स्वयं तीन लोक का नाथ अनन्त चतुष्टय का धारी, परमब्रह्म परमात्मा हूँ। वह बाहरी संयोग, शरीर, धन, वैभव, परिवार, संसार, समाज आदि के प्रपंच में उलझा रहता है और इन्हीं को बनाने मिटाने, अच्छा-बुरा करने के खोटे भावों में रत रहता है । स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, राज्य, भोग, विलास में तीव्र अनुराग करता है और इन्हीं के अहंकार में अपने मन में फूला रहता है। अपने आपको बड़ा होशियार अक्लमंद मानता है। अपने सामने किसी की चलने नहीं देता। दूसरों की बढ़ती नहीं देख सकता। किसी की कोई बात नहीं सुनता। अपनी मनमानी करता है, अपने मन के खिलाफ कोई बात या कोई काम हो जाये उसी क्षण नाराज हो जाता है, अकड़ जाता है। mesh remnach res मान बिल्कुल झूठा, नाशवान कृत्य है क्योंकि यह किसी का कभी रहा नहीं है । जगत की समस्त वस्तुयें क्षणिक नाशवान हैं। संसार में आना-जाना पुण्य-पाप के उदयानुसार परिणमन होना यह सब चल ही रहा है; परंतु मानी अर्थात् मान कषाय वाला जीव इन्हीं सब वस्तुओं के पीछे रौद्र ध्यान करता रहता है। एक दूसरे से बैर-विरोध, ईर्ष्या-द्वेष करता रहता है। मान कषाय वाला हमेशा अपनी प्रसंशा और दूसरों की निन्दा आलोचना ही करता रहता है। वह न तो दूसरों की प्रशंसा करता है और न सुन सकता है । - अपनी मान कषाय की पूर्ति के लिये नाम बड़ाई, प्रभावना, प्रसिद्धि पाने के 5 लिये कविता, छन्द, शास्त्र आदि भी लिखता है। नाम बड़ाई के लिये झूठे-सच्चे कथानक, विषय-कषाय को बढ़ाने वाले लेख, कपट रूप धर्म के नाम पर अधर्म का पोषण करने वाली बातें, पूजा, पाठ आदि रचता है और स्वयं मिथ्या माया आदि शल्यों में लगा रहता है। स्वयं मिथ्यादृष्टि है तो उसका जितना भी कथानक है वह " Sysc.eiv गाथा- १६१ अज्ञानमयी झूठा ही है जिसको पढ़ने से अनेक भोले जीवों का अहित होता है । संसार में भ्रमाने वाले वस्तु स्वरूप के विपरीत शास्त्र नहीं शस्त्र होते हैं। जो स्वयं का भी घात करते हैं और दूसरों का भी घात करते हैं। मान करना, मान का विचार करना ही दुर्बुद्धि है और बुद्धिहीन ही मान करते हैं। मान महा दुःखरूप, करहि नीच गति जगत में । कोमल सुधा अनूप, सुख पावे प्राणी सदा ॥ संसार के सब पदार्थ नाशवान हैं, छूट जाने वाले हैं परन्तु वह इन्हें शाश्वत अविनाशी मानता है। मेरा पद बना रहे, मेरी बात बनी रहे, मेरा कुटुम्ब, परिवार, धन, वैभव बना रहे, इन्हीं विचारों में फँसा आर्त रौद्र-ध्यान करता हुआ दुर्गति में चला जाता है। अभिमानी मानव को अपने मान प्रतिष्ठा आदि का इतना राग होता है कि फिर वह धर्म-अधर्म, हेय - ज्ञेय का कुछ विचार नहीं करता, अपनी मान की पूर्ति के लिये धन संग्रह की नाना प्रकार की योजनायें बनाता है। हिंसादि खोटे काम करने की सोचता है और बड़े उत्साह पूर्वक खोटे कामों को करता है। गृहस्थ संसारी जीव तो पापादि में लगे ही हैं और अपने नाम पद प्रतिष्ठा के लिये संघर्षरत रहते ही हैं परन्तु साधु त्यागी होने पर भी अपने नाम पद प्रतिष्ठा के लिये अपना बड़प्पन बताने के • लिये कोई बहुत कठिन तपस्या भी करते हैं और कोई बहुत शास्त्र अभ्यास करके बड़े भारी ज्ञाता पंडित हो जाते हैं तथा कोई ऊपरी आचरण शरीरिक क्रिया, पूजा, पाठ, जप, व्रत, तप साधना आदि भी करते हैं परन्तु यह सब कुज्ञान सहित होने अर्थात् मान कषाय के पोषण के लिये होने के कारण संसार में ही रुलाने वाले दुर्गति कराने वाले हैं। मैं ज्ञानी, मैं तपस्वी, मैं धर्मात्मा, मैं महात्मा त्यागी साधु योगी आदि अहं भाव मान कषाय का ही रूपक है। मान कषाय परिणामों को कठोर बनाकर इस जन्म में भी बुरा करती है और पर लोक में नीच गति में जाना पड़ता है इसलिये ज्ञानी को क्षणभंगुर पर्याय, कर्मादि संयोग सम्बन्ध का मान न करके समभाव रखना चाहिये । आगे माया कषाय का वर्णन करते हैं - माया अनृत रागं च, असास्वतं जल बिंदुवत् । धन यौवन अभ्र पटलस्य, माया बंधन किं करोति ॥ १६९ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी माया असुद्ध परिणामं, असास्वतं संग संगते । दुस्ट नटं च सद्भावं, माया दुर्गति कारनं ।। १६२ ।। माया अनंतानं कृत्वा, असत्ये राग रतो सदा । मन वचन काय कर्तव्यं, मायानंदी च ते जड़ा ।। १६३ ।। माया आनंद संजुक्तं, अनृतं अचेत भावना । मन वचन काय कर्तव्यं, दुर्बुधि विस्वास दारुनं ॥ १६४ ॥ माया अचेत पुन्यार्थ, पाप कर्म च विधते । सुद्ध दिस्टिन पर्यंते, मिथ्या माया नरयं पतं ।। १६५ ।। अन्वयार्थ - (माया अनृत रागं च) माया कषाय जगत के असत्य झूठे पदार्थों में राग करने से होती है (असास्वतं जल विंदुवत्) जगत का स्वरूप क्षणभंगुर पानी के बुलबुले के समान है (धन यौवन अभ्र पटलस्य) धन यौवन मेघ पटल के समान विला जाने वाला है (माया बंधन किं करोति) ऐसी माया का बन्धन क्यों करते हो अर्थात् ऐसी माया कषाय में क्यों बंधते हो ? ( माया असुद्ध परिणाम) माया कषाय अशुद्ध परिणाम है (असास्वतं संग संगते) यह नाशवान पदार्थों की संगति, चाह से पैदा होती है (दुस्ट नस्टं च सद्भावं ) यह दुष्ट है और अपने आत्म स्वभाव को नष्ट करने वाली है (माया दुर्गति कारनं ) यह माया कषाय दुर्गति का ही कारण है। (माया अनंतानं कृत्वा) अनन्तानुबंधी माया कषाय करने से (असत्ये राग रतो सदा) हमेशा संसारी मायाजाल झूठे प्रपंच में ही रत रहना पड़ता है (मन वचन काय कर्तव्यं) और इस संसारी मोह माया के जाल को मन वचन काय से अपना कर्तव्य मान लेने वाला ( मायानंदी च ते जड़ा) वह मायानंदी अर्थात् संसार में आनंद मानने वाला मूर्ख जड़ अर्थात् अज्ञानी है। (माया आनंद संजुक्तं ) माया के आनंद में लीन होने पर (अनृतं अचेत भावना) मिथ्यात्व शरीरादि अचेतन पदार्थों के भाव होने लगते हैं (मन वचन काय कर्तव्यं) इन्हीं मिथ्या भावों में मन वचन काय से अपना कर्तव्य मानकर लगना (दुर्बुधि विस्वास दारुनं) महान विश्वास घात खोटी बुद्धि है। ( माया अचेत पुन्यार्थं ) माया कषाय के आधीन अर्थात् मायाचारी सहित शरीर SYA GARAAN FÅR A YEAR. १०० गाथा - १६१-१६५ X धनादि द्वारा पुण्य संचय करना चाहता है (पाप कर्म च विधते) परन्तु उससे पुण्य नहीं होता और पाप कर्म ही बढ़ते हैं (सुद्ध दिस्टि न पस्यंते) जब तक अपने आत्म स्वरूप की अनुभूति नहीं होती, शुद्ध दृष्टि नहीं होती (मिथ्या माया नरयं पतं) इस मिथ्यात्व और माया कषाय सहित नरक में ही जाना पड़ता है। माया है क्या, यह इस जगत से एक झूठा राग है । जल बुदबुदों के तुल्य रे, जिसका अनित्य सुहाग है ॥ यौवन अशास्वत है अमृत है, जलद पटल समान है। आश्चर्य माया जाल में, क्यों फंस रहा अज्ञान है ॥ नश्वर परिग्रह सृजन करता, जो मलिन परिणाम है। उस अशुभतम परिणाम के दल का ही माया नाम है । उत्पन्न करती है यह माया, रे अनिष्ट स्वभाव है। होता है दुर्गति में अरे, जिस हेतु से सद्भाव है। जो जीव मायाचार में रहता सदा आसक्त है। मिथ्यात्व का वह मूढ़ बन जाता, निसंशय भक्त है ॥ मन के वचन के काय के कर्तव्य से धो करथली । मायात्व में ही चूर रहता है निरंतर वह छली । जिस जीव का संसार केवल एक मायाचार है। मिलता उसे मिथ्यात्व में ही हर्ष अपरम्पार है । मन वचन क्रम के योग्य, इस संसार में जो कर्म है । उनसे विमुख हो वह कुमति करता सदैव अधर्म है ॥ जो पुण्य कर्मों में भी करता, मूढ़ मायाचार है। वह नर बढ़ाता बस समझ लो, पाप का संसार है ॥ जो शुद्ध आत्मीक तत्व का करता नहीं है चिन्तवन । वह अधम मायावी नियम से नर्क में करता गमन ॥ (चंचलजी) विशेषार्थ - यहाँ अनन्तानुबंधी कषाय के अंतर्गत माया कषाय का वर्णन चल रहा है। छल कपट,बेईमानी विश्वासघात, झूठ, धोखा, फरेब को मायाचारी कहते हैं । माया शल्य भी होती है, जिसका पूर्व में वर्णन आ चुका है। माया का सद्भाव पर पदार्थों की चाह से प्रारंभ होता है। संसार में इस जीव को नाम, काम, Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी दाम की चाह होती है और उसका फैलाव शरीर, धन, स्त्री, पुत्र, परिवार संसार अपना लौकिक स्वार्थ सिद्ध करने रूप मिथ्यावासना होने से धार्मिक कृत्य को भी होता है। संसार के नाशवान असत् पदार्थ शरीर, धन,यौवन, वैभव, नाम, प्रतिष्ठा अधार्मिक बना देता है। वह तो उस ठगिये के समान है, जो विश्वास पात्र मित्र बनकर आदि की चाह लगाव राग होना ही माया कषाय है। यही इस जीव को संसार में अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है, ठगना चाहता है। जैसे-बिल्ली चहे के साथ जकड़ कर बांधकर रखती है। यहाँ सदगुरू कहते हैं कि यह सब नाशवान जल घात करती है, ऐसे ही मायाचारी मिथ्यादृष्टि जीव अपने शुद्ध तत्व को नहीं जानता बुदबुदा के समान क्षणभंगुर हैं। यह धन, शरीर, यौवन आदि भी मेघ के समान बिला और न उसकी रुचि करता तथा कृष्णादि अशुभ लेश्या के कारण नरक गति बांध जाने वाले हैं। ऐसे नाशवान पर पदार्थों की चाह यह माया का बंधन क्यों बांधते हो? लेता है। माया कषाय इस जीव लिये महान अहितकर है, ऐसा जानकर जो जीव ___ अशुद्ध परिणाम ही माया कषाय है और यह पर के संयोग शरीरादि नाशवान ८ अपना आत्महित करना चाहें उनको माया कषाय का त्याग कर सरलता का व्यवहार पदार्थों की संगति से होती है, यह बड़ी दुष्ट है। अपने आत्म स्वभावको विस्मृत करने करना चाहिये । इस मानव जीवन को आर्जव धर्म का पालन कर सफल बनाना वाली, भुलाने और नष्ट करने वाली है, इसी के कारण दुर्गति में जाना पड़ता है। चाहिये। अनन्तानुबंधी माया कषाय बड़ी दु:खदायी होती है,यह बांस की जड़ के कपट न कीजे कोय,चोरन के पुरन बसे। समान बड़ी टेढ़ी-मेढी कुटिल होती है। इससे मन, वचन, काय की सभी क्रियाओं सरल स्वभावी होय,ताके घर बहु संपदा॥ में बड़ी कुटिलता, मायाचारी रहती है। मन में कछ विचार करता है.वचन से कछ थोड़ी सी आयु के लिये मायाचार करके धनादि संग्रह करना आगामी पाप कहता है और काय से कुछ करता है, उसका कभी एकरूप व्यवहार होता ही नहीं है बंध और दुर्गति का कारण है। और मायाचारी करने वाला अज्ञानी जीव इसी में आनंद मानता है। मायाचारी में आगे क्रोध कषाय का वर्णन करते हैं - लगा हुआ जीव झूठी-सच्ची बातें करता है.विभाव भाव करता है। बड़ी-बड़ी कोहाग्नि असास्वतं प्रोक्तं, सरीर मान बंधनं । कल्पनायें, बड़ी-बड़ी योजनायें बनाता रहता है। वह दिन में ही स्वप्न देखता है। असास्वतं तस्य उत्पाचंते, कोहाग्नि धर्म लोपनं ।। १६६।। मन वचन काय से इन्हीं सबके करने में लगा रहता है। वह विश्वासघाती और अन्वयार्थ- (कोहाग्नि असास्वतं प्रोक्तं) क्रोध को अग्नि कहते हैं यह क्षण दुर्बुद्धि होता है। हमेशा सांसारिक राग में रत रहता है, उसे अपनी तो कोई खबर ही र भर में सब नाश कर देती है (सरीरं मान बंधन) शरीर के अहंकार से इसका बन्धन नहीं रहती,यही मायाचारी तिर्यंच गति ले जाती है। होता है (असास्वतंतस्य उत्पाद्यते) इसकेपैदा होते ही सर्वनाश हो जाता है (कोहाग्नि माया तैर्यग्योनस्य ॥६/१६॥ तत्वार्थ सूत्र " धर्म लोपनं) यहाँ तक कि क्रोधाग्नि धर्म का भी लोप अर्थात् नाश कर देती है। स्त्री पर्याय भी इसी मायाचारी से मिलती है। इसी माया कषाय के आधीन . नाम बड़ाई के लिये कोई शरीर और धनादि से दया, दान, परोपकार आदि करता है विशेषार्थ-लोभ-पकड़ है,मान-अकड़ है,माया-जकड़ है,क्रोध-धकड़ और पुण्य का अभिलाषी रहता है तो इससे पुण्य तो नहीं होता और पाप कर्म ही बढ़ते : है।यहाँ अनन्तानुबंधी कषाय के अन्तर्गत क्रोध का वर्णन चल रहा है। क्रोध-गुस्सा हैं। मायाचारी जीव हमेशा मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान की भावना में रत रहता है। करने, नाराज होने, जोर-जोर से चिल्लाने, बोलने,मारने-पीटने को कहते हैं। वह अपने आत्म स्वरूप को न देखता है, न जानता है। विषयों की लम्पटता और 5 र क्रोध अग्नि है, यह मनुष्य को अन्धा कर देती है। इसके पैदा होते ही विवेक चला परवस्तुकीचाह के लिये देव गुरूधर्म की भक्ति करता है। शास्त्र स्वाध्याय, प्रवचन जाता है फिर उसे कोई होश नहीं रहता कि मैं क्या कर रहा हूँ ? इसका परिणाम 1 आदि करता है परंतु मिथ्यात्व और मायाचार सहित होने के कारण अपना आत्म क्या होगा? उसे अपने भले-बुरे का भी कोई होश नहीं रहता। क्रोध में मनुष्य कल्याण का उद्देश्य नहीं रखता और धनादि का स्वार्थ साधन करता है। वह बाहर अकरणीय कार्य कर बैठता है, जिसका परिणाम जीवन भर भोगना पड़ता है। अपने में ऐसे रहता है जैसे कोई बड़ा धर्मात्मा हो परन्तु बगुला जैसी स्थिति होती है। हाथ से अपनी हानि कर लेता है , यहाँ तक कि दूसरों को मार डालता है और स्वयं भी मर जाता है,आत्म घात कर लेता है। १०१ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to श्री श्रावकाचार जी गाथा-१६७ O r क्रोध से बैर,मान से विरोध,माया से ईया और लोभ से वेष पैदा होता होते हैं। है।क्रोध से प्रीति का नाश होता है। मान से विनय का घात होता है। मायाचार यहाँ विशेष समझने की बात यह है कि लोभ मान माया कषाय न होवें तो से विश्वास जाता रहता है और लोभ से सभी गुण नष्ट हो जाते हैं। क्रोध अंधा , क्रोध हो ही नहीं सकता, इन सब कषायों का मूल आधार, पाप का बाप लोभ ही होता है,मानबहरा होता है,माया गूगी होती है,लोभ नकटा होता है। क्रोध है। पर की तरफ दृष्टि जाने पर सबसे पहले चाह पैदा होती है, जो लोभ का ही ताड़का राक्षसी है, मान सुबाहू राक्षस है, माया मारीचि राक्षस है और लोभ सूक्ष्म रूप है तथा इन कषायों में लोभ,माया राग रूप होते हैं। क्रोध, मान द्वेष रूप रावण लंकेश्वर राक्षस है। शरीर के अहंकार एकत्वपने अपनत्वपने से ही होते हैं और यही राग-द्वेष कर्मबन्ध के कारण संसार के मूल आधार हैं। कषाय होती है। लोभ और माया से मन सक्रिय और जिन्दा रहता है। मनुष्य की अपेक्षा लोभ का मूल आधार धन है और वह धन के कारण ही क्रोध-मन, वचन और काय की क्रिया से काम करते हैं। शारीरिक क्रिया का सारे पाप करता है, धन के कारण ही मान माया क्रोध होते हैं। संसार में धन का ही जितना परिणमन हैयह सब क्रोध कषाय के आधीन ही होता है। कषायों को प्रभुत्व माना जाता है और यह धन ही धर्म का सबसे विरोधी कारण है। जिसको धन क्षय करने,गलाने के लिये शारीरिक संयम तप आवश्यक है। का प्रभुत्व इष्टता होगी, उसे कभी धर्म की प्रतीति हो ही नहीं सकती इसलिये तारण क्रोध के पैदा होते ही धैर्य का नाश हो जाता है, बुद्धि विवेक का नाश स्वामी ने मनुष्य के जीवन में कषायों का कैसा क्रम है, किस आधार से चलती हो जाता है, शारीरिक स्थिति बेकाबू हो जाती है, अपशब्द बोलने लगता हैं,उस अपेक्षा वर्णन किया है जो अनुभव गम्य प्रामाणिक है। जो जीव अपना आत्म है। मनुष्य को लगी हुई चोट,गोलीका घाव पुरजाता है परन्तु बोलीका घाव कल्याण करना चाहते हैं उन्हें इनसे हमेशा बचना चाहिये। कभी पुरता नहीं है। क्रोध कषाय का उदाहरण-द्वीपायनमुनि हैं, जिन्होंने यहाँ तक बहिरात्मा का स्वरूप और अधर्म का वर्णन किया गया, जिसके द्वारिका को भस्म कर दिया और स्वयं भी भस्म हो गये। क्रोध की अग्नि संसार, कारण यह जीव भगवान आत्मा परम ब्रह्म परमात्मा संसारी बहिरात्मा बना हुआ है, और शरीर का नाश तो करती ही है,यहाँ तक कि आत्मा का पतन,धर्म का इसी संदर्भ की अन्तिम गाथा कहते हैं, नाश भी करती है। एतत् भावनं कृत्वा, अधर्म तस्य पस्यते । यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह लोभ,मान,माया, क्रोध का उल्टा क्रम क्यों रागादि मल संजुक्तं, अधर्म सो संगीयते ॥१७॥ बताया है तथा कषाय क्या है, इसको अपनी भाषा में बताइये? उसका समाधान करते हैं कि यही संसार का मूल आधार है, इसके जाने अन्वयार्थ- (एतत् भावनं कृत्वा) इस प्रकार की भावना करने वाला अर्थात् बिना तो सब व्यर्थ है। कषाय पर पति राग-द्वेष करने को भी आर्त-रौद्र ध्यान, विकथा, सप्त व्यसन,आठ मद और कषाय भावों में रत रहने अच्छा-बुरा मानना कषाय है। जीव तो एक अखंड अविनाशी ध्रुव तत्व शुद्धात्मा वाला (अधर्म तस्य पस्यते) ऐसे प्राणी के भीतर अधर्म ही देखा जाता है (रागादि मल ज्ञानानंद स्वभावी है, अरस, अरूपी अस्पर्शी होने से पर पुद्गल तथा पर जीवों से संजुक्तं ) वह राग-द्वेष आदि मलों में ही लीन रहता है (अधर्म सो संगीयते) यही भी कोई सम्बन्ध नहीं है; और न एक दूसरे को छूता और न कोई किसी का कुछ अधम का अधर्म का विस्तार है, जो जीव को संसार में रोककर रखता है। करता है परन्तु ज्ञान-दर्शन चेतना और वैभाविक शक्ति होने के कारण जीव पर के विशेषार्थ- यहाँ आत्मा को तीन प्रकार का कहा गया है-परमात्मा, प्रति अर्थात् शरीरादि में एकत्व अपनत्व कर्तृत्व, राग-द्वेष करता है। वैभाविक शक्ति अन्तरात्मा, बहिरात्मा। जो जीव जिन भावों में ठहरा है वह वैसा कहा जाता है। के विपरीत परिणमन को ही कषाय कहते हैं। इसमें कर्मों का निमित्त-नैमित्तिक जो शब स्वभावमय है वह परमात्मा है, जो भेदज्ञान सहित है वह सम्बन्ध रहता है तथा क्रोध, मान,माया,लोभ यह कषाय के नाम और भेद बताने अन्तरात्मा है, जिसे अपना बोध नहीं है पुद्गलादि को देख रहा है और संसारी 9 की अपेक्षा बताये जाते हैं; परंतु जीवन में लोभ के कारण ही मान. माया. क्रोध प्रपंच में लगा है, वह बहिरात्मा है। १०२ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी यहाँ बहिरात्मा किन भावों में कैसा लगा रहता है उसका विशद् वर्णन किया (चेतना लष्यनो सदा) जो हमेशा चैतन्य लक्षणमयी जीवतत्व है, जो त्रिकाल शुद्ध गया है कि यह जीव अपने परमात्म स्वरूप जो देवों का देव स्वयं भगवान आत्मा है ब्रह्म स्वरूपी ध्रुवतत्व, शुद्ध स्वभाव है वह शुद्ध धर्म है (सुद्ध द्रव्यार्थिक नयेन) शुद्ध । ऐसे अपने निजस्वरूप को भूला हुआ कुदेव-अदेव की भक्ति पूजा आराधना करता , द्रव्यार्थिक नय से (धर्म कर्म विमुक्तयं) वह धर्म सर्व प्रकार कर्म से रहित है। है तथा सदगुरू, सम्यकदृष्टि,सम्यकज्ञानी वीतरागी निर्ग्रन्थ साधुओं का सत्संग विशेषार्थ-यहाँशद्ध धर्म निश्चय धर्म या सच्चा धर्म क्या है? इसका स्वरूप नहीं करता, कुगुरुओं के जाल में फंसकर संसार को बढ़ाने वाले अधर्म का सेवन लाया जा रहा है करता है। शुद्ध स्वभाव धर्म है और विभाव अधर्म है। विभाव भावों में आर्त रौद्र जो वस्तु जग में धर्म इस शुभ नाम से विख्यात है। ध्यान, विकथा, सप्त व्यसन, आठ मद और अनन्तानुबंधी चार कषाय रूप परिणाम वह आत्मा के ज्ञानगुण, चैतन्य से ही व्याप्त है। आते हैं, यह सब अधर्म हैं और इन भावों में लगे रहने से संसार में दारुण दु:ख भोगना द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा, धर्म का यह रूप है। पड़ते हैं। दुर्गति नरक निगोद आदि में रुलना पड़ता है। यहाँ तक अधर्म के स्वरूप शुखात्मा ही धर्म है,जो कर्म शून्य अलप है। (चंचल जी) का वर्णन किया गया है। जो हमेशा चैतन्य लक्षणमयी ध्रुव तत्व शुद्धात्मा है, जो त्रिकाल शुद्ध ब्रह्म ___ यहाँ कोई प्रश्न करे कि धर्म का यथार्थ स्वरूप क्या है, उसके भाव और स्वरूपी शुद्ध स्वभाव है, वही सच्चा धर्म है। यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से अर्थात् शुद्ध साधना कैसी होती है तथा उसका पालन कौन करता है? द्रव्य दृष्टि से समझने की बात है। जैसे-किसी स्वर्णकार के पास कोई आभूषण बेचने उसका समाधान करत ह कि धमका यथाथ स्वरूपता अपना चतन्य लक्षणले जाये तो वह उसे देखकर उसमें जो शुद्ध सोना है उसका भाव करता है, कीमत शुद्ध स्वभाव ही है और इसी शुद्ध स्वभाव में रहने की साधना ही वास्तविक धर्म है बताता है, आभूषण भले ही दस तोले का हो, कितना ही सुन्दर हो परन्तु उसमें बताता साधना है। वर्तमान में जीव कर्म संयोगी दशा में है और विभाव परिणमन चल रहा जो खोट रहित शद्ध सोना आठ तोला है, वह उसका ही भाव करता है। इसी प्रकार है, उसे अपनी ओर मोड़ने शुद्ध स्वभाव मय रहने के लिये सबसे पहले भेदज्ञान अशद्ध द्रव्य दष्टि से यह जीव तत्व शुद्ध स्वभाव रूपचेतना लक्षण धर्म सब कर्मों से मुक्त पूर्वक स्व-पर का यथार्थ निर्णय करना तथा अपने शुद्ध स्वभाव निज शुद्धात्म स्वरूप निकाल है। ऐसा जो जीव अपने शटात्म स्वरूप का अनभवन श्रदान करता की अनुभूति होना आवश्यक है क्योंकि धर्म चर्चा का विषय नहीं,अनुभूति और है.वह सत्यधर्म को उपलब्ध होता है और इसी के श्रद्धान, साधना से मोक्ष होता है। श्रद्धान चर्या का विषय है। जिसे भेदज्ञान तथा निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती है. ऐसे निश्चय शद्ध धर्म के श्रद्धान आराधना किये बिना न कोई मोक्ष गया है, न जा वह सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा होता है और वही यथार्थतया धर्म के सच्चे स्वरूप को सकता है. न कभी जायेगा। जानता है। S यहाँ एक विशेष बात कही गई है कि धर्म कर्म विमुक्तयं अर्थात् धर्म, कर्म से शुद्धधर्म क्या है और उसकी साधना का मार्ग क्या है? इस बात को सद्गुरुदेव रहित है। जहाँ धर्म है. वहाँ कर्म नहीं है तथा जहाँ कर्म है, वहाँ धर्म नहीं है, बड़ी आगे गाथाओं में विवेचन करते हैं। जो अन्तरात्मा अव्रत सम्यक्दृष्टि इस बात को अपर्व बात है। हम अशुभ कर्म पापादिको बुरा मानते हैं और शुभ कर्म पुण्यादि को जानता समझता है और साधना करने का पुरुषार्थ करता है, वह अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि अच्छा और उसी को धर्म मानते हैं। तारण स्वामी यहाँ कहते हैं जो पुण्य-पापादि र कौन और कैसा होता है उसके स्वरूप का वर्णन करते हैं • कर्मों से रहित भिन्न मुक्त है वह धर्म है। शुद्ध धर्म क्या है इसे कहते हैं - कर्म तीन प्रकार के बताये गए हैं- द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म। सुद्ध धर्म च प्रोक्तं च, चेतना लण्यनो सदा। ज्ञानावरणादि आठ कर्म द्रव्य कर्म कहलाते हैं। राग द्वेषादि मलिनभावभावकर्म सुद्ध द्रव्यार्थिक नयेन, धर्म कर्म विमुक्तयं ॥१८॥ कहलाते हैं। शरीरादिपुद्गल पिंड नो कर्म कहलाते हैं। द्रव्यदृष्टि से आत्मा इन तीनों 1 अन्वयार्थ- (सुद्ध धर्म च प्रोक्तं च) शुद्ध धर्म कैसा कहा गया है वह कहते हैं ने . कर्मों से रहित शुद्ध चैतन्यमयी है, उसे शुद्ध धर्म कहा गया है। जो इसका श्रद्धान Arormera re १०३ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-१६८ doo अनुभूति करते हैं, वह अन्तरात्मा हैं इसी बात को तारण स्वामी ने पूर्व में कहा है- है। विन्यानं जेवि जानते,अप्पा पर परपये। चारित खलु धम्मो-चारित्र ही धर्म है अर्थात् अपने स्वभाव में रहना ही धर्म परिचये अप्प सद्भाव,अन्तर आत्मा परषये ॥४९॥श्रावकाचार है। कोई क्रिया कर्म, व्यवहार चारित्र, संयम तप आदि धर्म नहीं है। जब जीव अपने धर्म के स्वरूप का वर्णन करते हुए मालारोहण की १६ वीं गाथा में कहा है- स्वभाव में रहता है तभी धर्म में है अर्थात् सुख शांति आनंद निराकुलता में है। अपने जे धर्म लीना गुन चेतनेत्वं,ते दुष्य हीना जिन सुद्ध दिस्टी। स्वभाव से बाहर विभाव में, पर में है तो वह अधर्म में है अर्थात् दुःख में है, आकुलता संप्रोषि तत्वं सोई न्यान रूप, ब्रजति मोयं विनमेक एत्वं ॥ १६॥ और संकल्प-विकल्प में है फिर भले ही वह पाप में हो या पुण्य में हो वह धर्म में नहीं जो अपने चैतन्य गुणधर्म में लीन होते हैं, वे समस्त दुःखों से मुक्त जिन शुद्ध है। धर्म तो एक मात्र अपने स्वभाव में रहना ही है। दृष्टि हैं, उन्होंने अपने ज्ञान स्वरूप में समस्त तत्वों को जान लिया है, वे एक क्षण में उत्तम क्षमा मार्दवार्जव सत्य शौच संयम तपस्त्यागाकिंचन्य ब्रह्मचर्याणि ही मोक्ष चले जाते हैं। धर्माः। यहाँ कोई प्रश्न करे कि धर्म का स्वरूप तो अनेक प्रकार से बताया है उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, जैसे-वत्थु सहावो धम्मो,दसण मूलो धम्मो, चारित्तं खलु धम्मो, अहिंसा परमो ब्रह्मचर्य ही धर्म है। यह स्वभाव की अपेक्षा दस भेद हैं,यह जीव के स्वभाव हैं, जो धर्मः । उत्तम क्षमा मार्दवार्जव सत्य शौच संयम तपस्त्यागाकिंचन्य ब्रह्मचर्याणि विभाव रूप होने से विषय-कषाय, पापादि कहलाते हैं। अपने स्वभाव में रहना ही धर्माः । आप यहाँ चेतना लक्षणो धर्मों कह रहे हैं फिर यह सब क्या है यह स्पष्ट धर्म है, इस अपेक्षा यह दस लक्षण धर्म कहे जाते हैं। मूल बात तो अपने स्वभाव में समझाइये? र रहने की है। उसका समाधान करते हैं कि भाई! बात जरा सूक्ष्मता से समझने की है। वत्थु अहिंसा परमो धर्म:- अहिंसा ही परम धर्म है। अहिंसा अर्थात् हिंसा न सहावो धम्मो-वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है। जैसे-अग्नि में उष्णता, जल में होना, इसमें स्व व पर के, किसी के भी दस प्राणों में से किसी का घात न होना शीतलता, नमक में खारापन यह अनाद्यनिधन स्वभाव है यही इनका धर्म है। इसी अहिंसा है। परजीवों के प्रति दया, करुणा,प्रेम,उत्तम क्षमादि भाव रखना अहिंसा प्रकार जीव का चेतना लक्षण ही अनाद्यनिधन स्वभाव है। जो त्रिकालवर्ती रहे और है तथा अपने भावों में विकार अर्थात मोह, राग-द्वेषादि का न होना अहिंसा है। अव्याप्ति आदि दोषों से रहित हो वही स्वभाव धर्म माना जाता है। २ प्रयोजन यह है कि राग-द्वेषादि विकारी भावों का न होना, अपने स्वभाव में ही रहना दसण मूलो धम्मो-दर्शन ही धर्म का मूल है अर्थात् सम्यकुदर्शन निज अहिंसा है और यही परम धर्म है। धर्म और सत्य तो एक ही होता है और वह ब्रह्म स्वभाव की अनुभूति ही धर्म है। संसार में संख्या अपेक्षा छह द्रव्य हैं। वस्तु अपेक्षा ९ स्वरूप अनाद्यनिधन चेतना शक्ति है,जो प्रत्येक जीव आत्मा का अपना निज स्वभाव मूल दो द्रव्य हैं-जीव और अजीव तथा भेद अपेक्षा अनन्त हैं। अब यहाँ समझना है। जो इसे स्वीकार करता है वही सत्य को उपलब्ध होता है, मुक्ति पाता हैयह है कि चेतनता ज्ञान दर्शन जीव में ही होते हैं। अजीव में ज्ञान दर्शन चेतना होती इन सब परिभाषाओं का मूल आधार एक ही है - नहीं है ; तो निज स्वभाव की अनुभूति और वस्तु स्वभाव को जानने की क्षमता मात्र चेतना लण्यनो धर्मों,बेतयन्ति सदा दुधै। जीव में ही होती है तथा जीव भी अनन्त हैं तो यहाँ जिस जीव को अपने स्वभाव की 5 ध्यानस्य जलं सुद्ध,न्यानं अस्नान पंडिता॥९॥ पंडितपूजा अनुभूति अर्थात् दर्शन ज्ञान होता है, उसने ही सत्य धर्म को जाना वही सम्यक्दृष्टि चैतन्य लक्षण ही निज धर्म है। हे बुद्धिमानो! हमेशा इसका ही चिन्तवन करो, ज्ञानी हुआ। अपने स्वरूप का दर्शन अनुभव होना ही धर्म है। जिस जीव को अपने इसी के ध्यान रूपी शुद्ध जल में ज्ञानमयी स्नान पंडितजन करते हैं। स्वरूप का दर्शन अनुभूति नहीं हुई उसने धर्म को जाना ही नहीं, उसे धर्म हुआ ही कथन अपेक्षा भेद है, मूलाधार तो एक ही है कि अपना चेतना लक्षण ही निज नहीं क्योंकि धर्म या सम्यक्दर्शन से ही मुक्ति, जीवन में सुख शान्ति आनंद मिलता स्वभाव ब्रह्मस्वरूपी शुद्धात्मा है वही शुद्ध धर्म है, उसी का श्रद्धान करो, इसी बात १०४ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wevera RSON श्री श्रावकाचार जी गाथा-१६८ DOO को कुन्दकुन्दाचार्य समयसार में कहते हैं सम्यक्दर्शन है। यह आत्मा अपने गुण पर्यायों में व्याप्त रहने वाला है और शुद्धनय से 6 णवि होदि अप्पमत्तोण पमत्तो जाणगो दुजो भावो। एकत्व में निश्चित किया गया है तथा पूर्ण ज्ञानघन है एवं जितना सम्यक्दर्शन है। एवं भणति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव ॥६॥ समयसार , उतना ही आत्मा है इसलिये आचार्य प्रार्थना करते हैं कि इस नव तत्व की परिपाटी को शुद्ध आत्मा कौन है, कैसा है? इसका उत्तर दे रहे हैं - 8 छोड़कर यह एक आत्मा ही हमें प्राप्त हो। जो जानने वाला ज्ञायक भाव चेतना वह अप्रमत्त भी नहीं है और प्रमत्त भी इसी बात को योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते हैंनहीं है, इस प्रकार इसे शुद्ध कहते हैं और जो ज्ञायक रूप से जानने में आया वह तो अमणु अणिविउ णाणमउ मुत्ति विरहिउ चिमित्तु । वही है। एक मात्र जीव तत्व ही चेतनावन्त है, अन्य कोई नहीं। अप्पा इंविय विसउ णवि लक्खणु एह णिरुत्तु ॥३१॥ अशद्धता पर द्रव्य के संयोग से आती है। उसमें मूल द्रव्य अन्य द्रव्य रूप यह शुद्ध आत्मा परमात्मा से विपरीत विकल्प जालमयी मन से रहित है। नहीं होता, मात्र पर द्रव्य के निमित्त से अवस्था मलिन हो जाती है। द्रव्य दृष्टि से शद्धात्मा इन्द्रिय समूह से रहित है। लोक और अलोक को प्रकाशने वाले केवलज्ञान तो द्रव्य जो है वही है, आत्मा का स्वभाव ज्ञायकत्व चेतना मात्र है और उसकी स्वरूप है। अमर्तीक है, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से रहित है। अन्य द्रव्यों में नपाई जावे अवस्था पुदगल कर्म के निमित्त से रागादि रूप मलिन है वह पर्याय है। पर्याय ऐसा शद्ध चेतना स्वरूप ही है और इन्द्रियों के गोचर नहीं है, वीतराग स्वसंवेदन से दष्टि से देखा जाये तो वह मलिन ही दिखाई देता है और द्रव्य दृष्टि से देखा ही ग्रहण किया जाता है। यह लक्षण जिसके प्रगट कहे गये हैं उसको हीतू नि:संदेह जाये तो शायकत्व तो शायकत्व ही है।ज्ञान दर्शन घेतना मात्र ही जीव तत्व आत्मा जान। है वह कहीं जड़ नहीं हुआ। यहाँ द्रव्य दृष्टि को प्रधान करके कहा है, जो यहाँ प्रश्नकर्ता पुन: प्रश्न करता है कि यह बात तो हमारी समझ में आ गई कि प्रमत्त-अप्रमत्त के भेद हैं वे पर द्रव्य की संयोग जनित पर्यायें हैं। 5 निश्चय धर्म चेतना लक्षण शद्ध स्वभाव ही है परन्तु हम वर्तमान में कर्म संयोगी द्रव्यार्थिक नय, द्रव्य दृष्टि या शुद्ध नय की विशेषता क्या है, इसको समयसार मिथ्यात्व दशा में जकड़े हैं, ऐसे में हम क्या करें? में कहा है उसका समाधान करते हैं कि तुम भी ऐसे शुद्ध निश्चय धर्म का श्रद्धान करो। ववहारोऽभूदत्थो भूवत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह भूवत्थमस्सिदो खलु सम्माविट्ठी हवदि जीवो ॥११॥ शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं, ऐसा भेदज्ञान करो और इसी का सतत् अभ्यास व्यवहार नय अभूतार्थ है अर्थात् असत्यार्थ है, उपचार है और शुद्ध नय भूतार्थ है, करो तो वर्तमान जीवन में समता शान्ति रहेगी और काललब्धि आने पर निज अर्थात द्रव्य दृष्टि शुद्ध है, अभेद है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है। ऐसा.शद्धात्मानुभूति भी हो जायेगी। यह जो शुभाशुभ क्रिया कर रहे हो इसे पाप-पुण्य ऋषीश्वरों ने बताया है, जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है, वह जीव निश्चय से मानो, धर्म मत मानो। सम्यक्दृष्टि है। यहाँ प्रश्नकर्ता पुन: प्रश्न करता है कि मिथ्यात्व अज्ञान दशा में हम यह कैसे इसी बात को समयसार कलश में अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं मान लेवें और किस कारण से मान लेवें? एकत्वे नियतस्य शबनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः । उसका समाधान करते हैं कि भाई! जिस मान्यता बुद्धि से तुम अपने पिताजी पूर्णज्ञान घनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्य: पृथक् ॥ को पिताजी मानते हो, घर परिवार आदि अपने को अपना मानते हो और पर को पर , सम्यदर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं। मानते हो। उसी बुद्धि से अब ऐसा मानो कि मैं जीव आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं तन्मुक्त्वा नवतत्व संततिमिमामात्मायमेकोस्तु नः ॥६॥ हूँ। इससे वर्तमान जीवन में समता शान्ति रहेगी। कषाय और कर्म भी गलेंगे विलायेंगे. इस आत्मा को अन्य द्रव्यों से अलग देखना (श्रद्धान करना) ही नियम से मिथ्यात्व भी टूटेगा। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PO4 श्री श्रावकाचार जी गाथा-१६. DOO यहाँ कोई कहे कि हमने आत्मा को देखा तो है ही नहीं फिर हम कैसे मान लें कि करने की अपेक्षा द्रव्य दृष्टि से बात कही जा रही है, यहाँ दशा पर्याय की बात नहीं है। हम आत्मा हैं? तो उससे कहते हैं कि भाई! तूने अपने पिताजी को देखा है कि यही क्योंकि जैसे स्वर्णकार अपने बालक को शुद्ध सोने के सारे गुण बताता है और फिर तेरे पिताजी हैं। जैसा माँ ने बताया और लोगों ने कहा वैसा सब मानने लगा। वैसे ही , खोट मिले हुए सोने में उसकी परख करना सिखाता है। सोने में खोट कैसे मिलती है । यह जिनवाणी माँ और ज्ञानी सद्गुरू कह रहे हैं इनको मानले तो तेरा भला हो जायेगा और कैसे निकाली जाती है यह भी सब बताता है और वह सब बातों में निपुण हो ७ । उस मान्यता में तो मरता रहा है और मरता रहेगा। अपना भला करना है तो अभी भी जाता है तब अपनी दुकान पर बैठाता है। इसी प्रकार यहाँ हमें सबसे पहले शुद्ध, चेत जा, सत्यधर्म वस्तु स्वरूप को जैसा का तैसा स्वीकार कर तो भला होगा। आत्मा के गुण जानना है, लक्ष्य में लेना है और फिर अशुद्ध दशा में उन्हें देखना है आगे उसी सत्य धर्म का और विशेष कथन करते हैं ४ क्योंकि जब तक हमें अपनी सत्ता शक्ति गुणों का पता नहीं चलेगा. तब तक उन्हें धर्म च आत्म धर्म च, रत्नत्रयं मयं सदा। प्रगट करने का पुरुषार्थ भी नहीं होगा। प्रत्येक जीव आत्मा सिद्ध के समान शुद्ध, चेतना लण्यनो जेन,ते धर्म कर्म विमुक्तयं ॥१९॥ अनन्त चतुष्टयधारी रत्नत्रयमयी ज्ञानानंद स्वभावी है। यह गुण कहीं से लाना नहीं अन्वयार्थ- (धर्मच आत्म धर्मच) धर्म तो आत्म धर्म ही है (रत्नत्रयं मयं सदा) ॐ है, आना नहीं है, स्वयं में हैं; परन्तु हम अपनी स्व सत्ता शक्ति से अनभिज्ञ होने के 8कारण उन्हें प्रगट करने का पुरुषार्थ नहीं कर रहे। जिन्होंने स्वसत्ता शक्ति को जान जो त्रिकाल रत्नत्रयमयी अर्थात् सुख शान्ति आनंद से परिपूर्ण है (चेतना लष्यनो लिया और पुरुषार्थ किया तो वह सब कर्मों से मुक्त होकर स्वयं सिद्ध परमात्मा जेन) जिसका चेतना लक्षण अर्थात ज्ञानानंद स्वभाव है (ते धर्म कर्म विमुक्तयं) वह 5 र हो गये। इसी प्रकार हम भी इस बात को स्वीकार करें. वर्तमान में कर्म संयोगी दशा धर्म, सब कर्मों से रहित है, मुक्त है। में अशुद्ध पर्याय तो है परन्तु वह मेरा स्वभाव नहीं है। मेरा स्वभाव तो सब कर्म मलों यदि कोई जग में धर्म है तो एक आतम धर्म है। से रहित सिद्ध के समान ध्रुव अविनाशी परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप ही है। अनादि से सद्प्राप्ति में जिसके न आवश्यक,कोई भी कर्म है। कर्म संयोग है परन्तु वह पर्याय में है, स्वभाव में नहीं है. जो मिला है वह निकल इस आत्मिक सद्धर्म में रे,शान सिन्धु अथाह है। सकता है। जैसे- स्वर्ण में से खोट निकालने की प्रक्रिया होती है. उसे अग्नि में यह आत्मिक सद्धर्म ही, चिर सुख सदन की राह है। 5 तपाया गलाया जाता है फिर उसकी शुद्धि के लिये सुहागा,तेजाब आदि डाला जाता (चंचल जी) है तो वह शुद्ध हो जाता है। इसी प्रकार जब हमें अपने शद्ध स्वभाव का श्रद्धान होगा विशेषार्थ-यहाँ शद्ध धर्म का विशेष कथन कर रहे हैं कि रत्नत्रयमयी अर्थात् और दस खोट मिली कर्म संयोगी अशाट पर्याय का भान होगा और हम अपना शट त्रिकाल सुख शान्ति आनंद से परिपूर्ण जो चेतना लक्षण मात्र है, वह धर्म सर्व कर्मों से है स्वभाव ही प्रगट करना चाहेंगे तो ध्यान की अग्नि, संयम तप की भट्टी में गलाना रहित मुक्त है। होगा। भेदज्ञान तत्वनिर्णय के द्वारा शुद्ध करना होगा। इसकी प्रक्रिया साधु पद से यहाँ कोई प्रश्न करे कि जीव का चेतना लक्षण अर्थात् ज्ञानानंद स्वभाव ही प्रारंभ होकर सिद्ध पद में पूर्ण होती है। यह रहस्य सद्गुरुदेव स्वयं ही आगे बतायेंगे, जीव की अपेक्षा सत्य धर्म है और इसी के आश्रय से मुक्ति होती है यह बात तो समझ हाता ह यह बात ता समझ यहाँ जो धर्म का मूल आधार, श्रद्धान दृष्टि का विषय है स्वभाव को समझने स्वीकार में आ गई परन्तु वह हमेशा रत्नत्रयमयी अर्थात् सुख शान्ति आनंद से परिपूर्ण है और दसे परिपूर्ण है और करने की बात है। शुद्ध आत्मा अर्थात् शुद्ध स्वभाव त्रिकाल रत्नत्रयमयी चेतना सब कर्मों से रहित है यह बात समझ में नहीं आई क्योंकि वर्तमान में तो जीव कर्म लक्षण वाला सर्व कर्मों से रहित ही है। इसी बात को सद्गुरुदेव प्रारंभ में मालारोहण संयोगी दशा में है। चिन्ता, आकुलता विषाद में भी रहता है फिर इसको कैसे माना से ही कर रहे हैंजाये? केवलज्ञानी अरिहन्त सिद्ध की अपेक्षा तो हो सकता है पर वर्तमान में ऐसा उर्वकार वेदति सुद्धात्म तत्वं,प्रनमामि नित्यं तत्वार्थ साध। मानना तो उचित नहीं लगता? न्यान मयं संमिक् दर्शनेत्वं, समिक्त चरनं चैतन्य रूपं ॥१॥ इसका समाधान करते हैं कि भाई! यहाँ धर्म की अपेक्षा, श्रद्धान और निर्णय Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० श्री श्रावकाचार जी गाथा-१५९ P OON जे मुक्ति सुव्यं नर कोपि साध,समिक्त सुद्ध ते नर धरेत्वं । ३. शक्ति के अविभाग प्रतिच्छेद (अंश) घटते भी हैं, बढ़ते भी हैं यह वस्तु रागादयो पुन्य पापाय दूर,ममात्मा सुभाव धुव सुद्ध दिस्ट ॥६॥ स्वभाव है इसलिये वह नित्य नियत एक रूप दिखाई नहीं देता। सुद्धं प्रकासं सुद्धात्म तत्वं, समस्त संकल्प विकल्प मुक्त। ४. वह दर्शन ज्ञान आदि अनेक गुणों से विशेष रूप दिखाई देता है। रत्नत्रय लंकृत विस्वरूप,तत्वार्थ साधं बहुभक्ति जुक्तं ॥१५॥ ५. कर्म के निमित्त से होने वाले मोह, राग-द्वेष आदि परिणामों कर सहित ७ इसी बात को देवसेनाचार्य तत्वसार में कहते हैं - वह सुख-दु:ख रूप दिखाई देता है। जो खलु सुद्धो भावो सा अप्पणितं च दसणं णाणं। यह सब अशुद्ध द्रव्यार्थिक रूप व्यवहार नय का विषय है। चरणपितंच भणियं सा सुद्धा यणा अहवा॥८॥ शुद्ध द्रव्यार्थिक नय क्या है ? इसे समयसार में कहते हैंजो निश्चय से शुद्ध आत्मा का स्वभाव है वह आत्म रूप है वही सम्यकदर्शन, जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णय णियद। सम्यक्ज्ञान व सम्यक्चारित्र कहा गया है उसी को शुद्ध चेतना कहते हैं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥ १४॥ इसी बात को अमृतचन्द्राचार्य समयसार कलश में कहते हैं जो आत्मा को अबद्ध, बन्ध रहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्व रहित, आत्म स्वभाव परभाव भिन्नमापूर्णमाद्यंत विमुक्तमेकम्। नियत, चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग से रहित देखता है वह विलीन संकल्प विकल्प जाल प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ॥ १०॥ शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है उसे शुद्ध नय जानो। शुद्ध नय आत्म स्वभाव को प्रगट करता है। वह आत्म स्वभाव को पर द्रव्य, यहाँ शुद्ध धर्म,शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय चल रहा है। जिसके आश्रय से पर के भाव तथा पर द्रव्य के निमित्त से होने वाले अपने विभाव, ऐसे परभावों से शुद्धात्मानुभूति सम्यकदर्शन होता है, जो मोक्ष का मूल आधार है। भिन्न प्रगट करता है और वह आत्म स्वभाव सम्पूर्ण रूप से पूर्ण है। समस्त लोकालोकS जो जीव ऐसे शुद्ध धर्म, निज शुद्धात्मा का आश्रय, श्रद्धान करता है, वह का ज्ञाता है, ऐसा प्रगट करता है। (क्योंकि ज्ञान में भेद, कर्म संयोग के कारण से है,९ अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि होता है। मोक्षमार्ग के लिये, संसार के दुःख जन्म-मरण से शुद्ध नय में कर्मगौण है) और वह आत्मस्वभाव को आदि अन्त से रहित प्रगट करता बचने के लिये सुख शान्ति आनंदमय होने के लिये अपने ऐसे निजशुद्ध स्वभाव का है अर्थात जो किसी से उत्पन्न नहीं किया गया और कभी भी किसी से ही श्रद्धान करना आवश्यक है। इसी से सत्य धर्म की प्राप्ति और मुक्ति का मार्ग बनता जिसका विनाश नहीं होता, ऐसे पारिणामिक भाव वाला है। र है। बाहर की किसी क्रिया कर्म से धर्म तीन काल नहीं होता। आत्म स्वभाव सर्व भेद भावों से रहित एकाकार है, जिसमें समस्त संकल्प इसी बात को अमृतचन्द्राचार्य समयसार कलश में और स्पष्ट करते हैं - विकल्पों के समूह विलीन हो गये हैं। भूत भातमभूतमेव रभसान्निभिद्यबंध सधीः। द्रव्य कर्म,भाव कर्म,नो कर्म आदिपुद्गल द्रव्यों में अपनी कल्पना सो यद्यत: किलकोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात्॥ संकल्प है और ज्ञेयों के भेद से ज्ञान में भेद ज्ञात होना सो विकल्प है। आत्मात्मानुभवैकगम्य महिमा व्यक्तोऽयमास्ते धुवं। ऐसा शुद्ध नय आत्म स्वभाव को प्रगट करता है। आत्मा पाँच प्रकार से अनेक नित्य कर्म कलंक पंक विकलो देवः स्वयं शाश्वतः॥१२॥ र रूप दिखाई देता है। यदि कोई बुद्धिमान पुरुष अपने त्रिकरण रूप प्रबल पुरुषार्थ से मोह को चूर , १. अनादिकाल से कर्म पुद्गल के संबंध से बंधा हुआ कर्म पुद्गल के स्पर्श कर भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों समयों के कर्म बन्धों को भेदज्ञान के बल से शीघ्र वाला दिखाई देता है। भेदकर अपने अन्तरंग को देखता है तो उसे सदा अनादि अनंत एक ज्ञायक स्वभाव X २. कर्म के निमित्त से होने वाली नर-नारक आदि पर्यायों में भिन्न-भिन्न वाला कर्मों के कलंकों से रहित अपने स्वानुभव से ही जिसकी महिमा जानी जा स्वरूप दिखाई देता है। सकती है, ऐसा यह आत्मा जो स्वयं शाश्वत देव है, परमात्मा है, निश्चय से प्रगट remoirmedkar १०७ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी अनुभव में आयेगा । शुद्ध नय की दृष्टि से देखा जाये तो सर्व कर्मों से रहित चैतन्य मात्र देव अविनाशी आत्मा अंतरंग में स्वयं विराजमान है। यह प्राणी, पर्याय बुद्धि बहिरात्मा उसे बाहर ढूंढता है, यह महा अज्ञान है । इसी बात को ब्र. शीतल प्रसाद जी ने तारण तरण श्रावकाचार ग्रन्थ की टीका में कहा है - धर्म कहीं बाहर नहीं है, न किसी चैत्यालय में है, न शास्त्र में है, न किसी तीर्थ में है, न किसी गुरू के पास से मिलता है, न क्रियाकांड में है। धर्म तो हर एक आत्मा के भीतर है। हर एक आत्मा का अपना निज स्वभाव है। भेद दृष्टि से देखें या कहें तो उसे सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्रमय कहेंगे; परंतु अभेद नय से देखें या कहें तो यह एक मात्र स्वानुभवरूप या ज्ञान चेतनामात्र है। इस धर्म में राग-द्वेषादि की संकल्प - विकल्प की कोई उपाधि नहीं है । यहाँ कोई प्रश्न करे कि वेदान्त और सांख्य मत में भी ऐसा ही कहा है फिर यह साम्प्रदायिकता भेदभाव क्यों है ? mask sex is met résis week resis उसका समाधान करते हैं कि भगवान महावीर के मत स्याद्वाद अनेकान्त में तो कोई भेद भाव साम्प्रदायिकता है ही नहीं। वहाँ तो प्राणी मात्र भगवान आत्मा है और सभी में वह परम ज्योति परमानंद स्वरूप परम ब्रह्म परमात्मा विराजमान है। कथन पद्धति अपनी-अपनी है, मान्यता और बाहरी आचरण के भेदभाव, साम्प्रदायिक बंधन हैं। तारण स्वामी ने तो इन्हीं सब भेदभाव, साम्प्रदायिक जाति-पांति के बंधनों को तोड़कर प्राणी मात्र को धर्म का अधिकारी बताया है। जो जीव चाहे, ऐसे अपने सत्य धर्म को स्वीकार कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। परम तत्व सत्य को जो स्वीकार करे उसी का कल्याण होगा फिर वह कोई भी हो । यहाँ प्रश्न होता है कि हमने ऐसे शुद्ध धर्म निज शुद्धात्मानुभूति को जान लिया, मान लिया तो अब तो और कुछ नहीं करना ? अब जो कुछ जैसा होना है होने दें ? उसका समाधान करते हैं कि हे भाई! सद्गुरुदेव तारण स्वामी स्वयं इस बात 5 को आगे बता रहे हैं कि जिसने ऐसे शुद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया जान लिया, मान लिया जो अन्तरात्मा, सम्यक्दृष्टि हो गया वह फिर धर्म ध्यान की साधना आराधना करता है। बाहर में पर का तो कुछ नहीं करता क्योंकि वह तो जो होना है वह क्रमबद्ध निश्चित है, तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा फिर वह पुद्गल शरीरादि १०८ गाथा- १७० द्रव्य का कर्ता नहीं होता; परन्तु वर्तमान में अपनी पात्रतानुसार जो विभाव परिणमन चलता है, उसमें वह अपनी सुरत रखने ज्ञायक निर्भय रहने और स्वभावमय रहने का पुरुषार्थ करता है और यह पुरुषार्थ धर्म निज शुद्ध स्वभाव के आश्रय ही होता है। धर्म ध्यान की कैसी आराधना करता है इसका वर्णन आगे करते हैं - धर्म ध्यानं च आराध्यं, उवंकारं च स्थितं । ह्रींकारं श्रींकारं च त्रि उवंकारं च संस्थितं ॥ १७० ॥ अन्वयार्थ - (धर्म ध्यानं च आराध्यं) धर्म ध्यान की आराधना करता है ( उवंकारं च स्थितं) वह अपने आपको ओंकार स्वरूप में स्थित देखता है (ह्रींकारं श्रींकारं च) ह्रींकार और श्रींकार में (त्रि उवंकारं च संस्थितं) तथा तीनों ॐ ह्रीं श्रींकार स्वरूप में स्थित होता है। विशेषार्थ यहाँ जिसने शुद्ध धर्म को जान लिया, स्वीकार कर लिया, ऐसा अन्तरात्मा अव्रतसम्यकदृष्टि क्या करता है ? इसके समाधान स्वरूप सद्गुरू कहते हैं कि वह धर्म ध्यान की आराधना करता है। यहाँ प्रश्न होता है कि साधना, आराधना में क्या भेद है ? उसका समाधान करते हैं कि साधना अभेदपने में रहने को कहते हैं अर्थात् शुद्ध स्वभाव मय रहना पूर्ण स्थिरता सिद्धि कहलाती है। क्षणिक स्थिरता और उसका क्रमश: विकास साधना है। आराधना भेद-विकल्प पूर्वक होती है अर्थात् शुद्ध-बुद्ध अविनाशी चेतन तत्व भगवान आत्मा मैं हूँ ऐसी श्रद्धा सहित उस रूप अपने को देखना इसमें भेद विकल्प रहता है। आराधना-मिथ्यादृष्टि और सम्यकदृष्टि चौथे गुणस्थानवर्ती तक होती है। पाँचवें गुणस्थान से साधना का क्रम प्रारम्भ हो जाता है। जिसने अपने शुद्ध धर्म निजशुद्धात्म स्वरूप का अनुभव कर लिया, देख लिया है श्रद्धान कर लिया है परन्तु अभी अव्रत दशा में है कर्म संयोग है, विभाव परिणमन चल रहा है तो अब ऐसे में वह अपने स्वभाव की आराधना करता है। धर्म ध्यान का अभ्यास करता है। धर्म ध्यान के चार भेद हैं - १. आज्ञा विचय, २. अपाय विचय, ३. विपाक विचय, ४. संस्थान विचय । १. आज्ञाविचय - सच्चे वीतरागी देव, गुरू, शास्त्र के श्रद्धान सहित उन्होंने क्या कहा है, धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है, इसका विचार करना । २. अपाय विचय- इन-इन परिणामों से ऐसे-ऐसे कर्म बन्ध होते हैं, हमेशा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PO4 श्री श्रावकाचार जी गाचा-१०१,१७२ c o m अपने परिणामों की संभाल करना हमेशा इसी का चिन्तन विचार करना। और परिग्रहानंदी, जैसे निमित्त मिलते हैं वैसा लीन हो जाता है। धर्म ध्यान करने के ३. विपाक विचय-पूर्व में बांधे हुए कर्मोदय को समताशान्तिपूर्वक सहना, लिये पुरुषार्थ करना पड़ता है; क्योंकि यह अभी तक जीव के संस्कार अभ्यास में । देखो पूर्व में मैंने ऐसे खोटे कर्म किये होंगे, उसी का परिणाम तो यह सामने मिल रहा , आया नहीं है। है। इसमें किसका दोष है? जैसा कर्म बन्ध किया है उसका वैसा फल तो भोगना ध्याता अर्थात ध्यान करने वाले को अपना लक्ष्य शद्ध आत्मा की तरफ पड़ेगा। समता शान्ति से भोगें तो निर्जरा हो जायेगी,पुन: नहीं बंधेगा। रोयेंगे,खेद-२ रखकर मन की चंचलता को रोकने के लिये ॐ ह्रीं श्रीं इन पदों का आलम्बन लेकरया खिन्न, आकुल-व्याकुल होंगे, राग-द्वेष करेंगे तो पुन: ऐसा ही कर्म बन्ध होगा, जो तोइनकोजपना चाहिये या हृदय स्थान में अथवा दोनों भौंहों के मध्य मेंया नाभिकमल आगे चलकर फिर भोगना पड़ेगा, ऐसा विचार करना समता में रहना। ८. में या मस्तक पर विराजमान करके इनको ज्योति स्वरूप चमकता देखना चाहिये ४. संस्थान विचय-संसार के स्वरूप का विचार करना। है और शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्मतत्वं का लक्ष्य बनाकर अपने शुद्ध आत्मा तक पहुँच जाना चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान। S चाहिये। वहाँ से उपयोग हटे, तब फिर इन्हीं पदों को देखना चाहिये, पंच परमेष्ठी तामें जीव अनादि से,भरमत हैं बिन ज्ञान॥ ॐ चौबीस तीर्थंकर के गुणों का विचार करते रहना चाहिये। इस माध्यम से अपना लक्ष्य संसार शरीर भोगों के स्वरूप का विचार कर वैराग्य का चिन्तन करना।ॐ अपना इष्ट जो निजशुद्धात्मा है उसी तक पहुँचने का प्रयास करते रहना चाहिये। यह ह्रीं श्रीं इन पदों के माध्यम से अपने स्वरूप का विचार करना और इन्हीं पदों के प्रारंभिक अवस्था में धर्म ध्यान करने की विधि है। धर्म ध्यान करने से क्या होता स्मरण में लीन रहना। ॐकार, पंच परमेष्ठी पद का वाचक है अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, इसका वर्णन आगे करते हैंउपाध्याय और साधु इन पदों में जो हो गये हैं, उनके स्वरूप का विचार करना और धर्म ध्यान त्रिलोकच, लोकालोकंच सास्वत । ऐसा ही मैं हूँ, इन पदों में अपने आपको स्थित देखना। इसका विस्तृत विवेचन कुन्यानं त्रि विनिर्मुक्तं,मिथ्या माया न दिस्टते ॥१७१ ॥ पदस्थ ध्यान में आयेगा। ह्रींकार में चौबीस तीर्थंकर गर्भित हैं। तीर्थंकरों के पंचकल्याणक का विचार उत्तम षिमा उत्पाते, उत्तम तत्व प्रकासकं । करना तथा उस रूप अपने को देखना। निश्चय से शुद्ध आत्मा ही अरिहंत है, शुद्ध ममलं अप्प सद्भावं, उत्तम धर्म च निस्चयं ॥ १७२॥ आत्मा ही सिद्ध है,शुद्ध आत्मा ही आचार्य है,शुद्ध आत्मा ही उपाध्याय है और शुद्ध अन्वयार्थ-(धर्मध्यानं त्रिलोकंच) धर्म ध्यान से त्रिलोक और (लोकालोकंच आत्मा ही साधु है तथा शुद्ध आत्मा ही श्री ऋषभादि महावीर पर्यंत चौबीस तीर्थंकर सास्वतं) लोकालोक में जो शाश्वत है वह जानने में आता है (कुन्यानं त्रि विनिर्मुक्त) है और मैं भी शुद्ध आत्मा हूँ, इसी ध्यान में लगे रहना। तीनों प्रकार के कुज्ञान से मुक्त हो जाता है (मिथ्या माया न दिस्टते) फिर वहाँ श्रींकार, मोक्ष लक्ष्मी सिद्ध दशा को कहते हैं: जहाँ परमानंदमयी अशरीरी मिथ्या मायादिशल्य दिखाई नहीं देतीं। ध्रुवतत्व परमात्म पद प्रगट हो जाता है, इसी स्वरूपमय अपने को देखना। (उत्तम षिमा उत्पाद्यते) उत्तम क्षमा धर्म पैदा हो जाता है (उत्तम तत्व चित्त का किसी एक विषय पर एकाग्र हो जाने का नाम ध्यान है। संसार में 5 प्रकासक) उत्तम तत्व का प्रकाश हो जाता है (ममलं अप्प सद्भाव) अपना ममल कर्म संयोगी दशा में आर्त-रौद्र ध्यान अपने आप संस्कार वश होते हैं। क्योंकि आत्म स्वभाव दिखाई देने लगता है (उत्तम धर्म च निस्चय) निश्चय से यही उत्तम उन्हीं सब संयोगों में जीव लिप्त तन्मय है, तो वह अपने आप होते रहते हैं अर्थात् धर्म है ऐसी दृढ़ प्रतीति हो जाती है। आर्त ध्यान के इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, पीड़ा चिन्तवन, निदान बंध जैसे योग विशेषार्थ- धर्म ध्यान करने से क्या होता है ? इसका वर्णन किया जा रहा है। संयोग मिलते हैं, वैसे होता रहता है तथा रौद्र ध्यान के हिंसानंदी, मृषानंदी, चौर्यानंदी धर्म ध्यान की आराधना करने से त्रिलोक में और लोकालोक में जो शाश्वत जीव १०० Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-१७१,१७२ NO. तत्व, निज शुद्धात्मा है, वह जानने में आता है तथा तीनों कुज्ञान कुमति, कुश्रुत, विचार चलना ही आर्त-रौद्र ध्यान है। कहा है - कुअवधि ज्ञान विला जाते हैं इनसे मुक्त हो जाता है अर्थात् उसे सुमति, सुश्रुत, धर्म धर्म सब कोई कहें,धर्म न जाने कोय। ५ सुअवधि ज्ञान हो जाता है फिर वहाँ मिथ्या, माया, निदान शल्य दिखाई नहीं देतीं । आतम को जाने बिना,धर्म कहाँ से होय॥ अर्थात् उसकी शल्ये भी विला जाती हैं। आत्मा का ममल स्वभाव ही निश्चय से उत्तम धर्म है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि यहाँ कोई प्रश्न करे कि जिसे सम्यक्दर्शन, निज शुद्धात्मानुभूति हो गई है। ममल स्वभाव किसे कहते हैं ? वह अन्तरात्मा धर्म ध्यान की आराधना करता है उससे उसे यह लाभ होता है: उसका समाधान करते हैं कि विमल निर्मल, अमल और ममल यह चार शब्द परन्तु जो अभी मिथ्यादृष्टि है उसे निज शुद्धात्मानुभूति नहीं हुई, वह भी यह धर्म हैं। कहने और देखने में एक से लगते हैं परन्तु इनका स्वरूप भिन्न-भिन्न है वह ध्यान की आराधना कर सकता है या नहीं? और इससे उसे भी कुछ लाभ मिलेगा। समझना है। या नहीं? विमल अर्थात् बीत गया मल, मल अर्थात् राग-द्वेषादि विकारी भाव । उसका समाधान करते हैं कि भाई! धर्म ध्यान की आराधना तो सभी जीव निर्मल-अर्थात् निकल गया मल । अमल-अर्थात् मल ही नहीं है। ममल- अर्थात् कर सकते हैं परन्तु जो सम्यकदृष्टि हैं, उन्हें उसके स्वाद का आनंद आयेगा। मल होते हुए भी जो उनसे रहित भिन्न त्रिकाल शुद्ध है उसे ममल स्वभाव कहते हैं। जैसे-किसी व्यक्ति ने कोई स्वादिष्ट वस्तु खाई हो तो जब वह बनती है या उसका यहाँ पुन: प्रश्न होता है कि मल होते हुए भी जो उनसे रहित भिन्न त्रिकाल नाम लिया जाता है, तो उसका स्वाद आने लगता है, मुँह में पानी आने लगता है,खा शुद्ध है उसे ममल स्वभाव कहते हैं। यह बात समझने में नहीं आई ऐसा कैसे हो नहीं रहा परन्तु अनुभव होने से रस आने लगता है, इसी प्रकार जिसे निज सकता है, इसे स्पष्ट समझाइये? । शुद्धात्मानुभूति हो गई है, उसे आत्मा का नाम लेने, चर्चा करने, ध्यान करने पर यह तारण स्वामी की बड़ी अपूर्व साधना शैली है। शब्द रचना भी बड़ी आनंद रस आने लगता है। जिसे अभी अनुभूति नहीं हुई है परन्तु जो श्रद्धापूर्वक उसए स्वतंत्र है। यह आगम और अनुभव से प्रमाणित शुद्ध अध्यात्म की बात है। ओर का प्रयास कर रहा है, उसे भी वह उपलब्ध होगी यह निश्चित बात है। जो सच्चे ममल शब्द का प्रयोग जैनाचार्यों ने तथा अन्य ज्ञानियों ने बहुत ही कम किया देव गुरू शास्त्र की श्रद्धापूर्वक उनके कथनानुसार शुद्ध धर्म निज शुद्धात्मा की श्रद्धा है; जबकि तारण स्वामी का पूरा साधना क्रम ममलहममल,शुद्धहशुद्ध, ध्रुव, ध्रुव, करता है और धर्म ध्यान की आराधना करता है, उसे वर्तमान जीवन में समता ध्रुव तत्व से ही भरा हुआ है, ऐसे ज्ञानी साधक विरले ही होते हैं जिन्होंने अध्यात्म को शान्ति मिलती है, पुण्य बंध होता है और इसी के आश्रय से धर्म की उपलब्धि संगीतमय कर दिया। जहाँ देखो वहाँ अप्पा शुद्धप्पा परमप्पा ही दिखाई देता है, पूरा अर्थात् सम्यक्दर्शन भी होता है; इसलिये धर्म ध्यान की आराधना तो प्रत्येक जीव ममलपाहुड़ शास्त्र ही रच दिया। यह ममल स्वभाव अनुभवगम्य ही है। जैसे सोना को करना चाहिये । आर्त-रौद्र ध्यानों से बचने का भी यही उपाय है। विकथा, किट्टिका सहित खान से निकलता है; परन्तु वहाँ पर भी वह स्वभाव से शुद्ध है। विषय-कषाय, विभावों से बचने के लिये धर्म ध्यान की आराधना ही वर्तमान में खोट सहित आभूषण रूप में है परन्तु स्वभाव से शुद्ध है। आगे शुद्ध कार्यकारी है, भेदज्ञान तत्वनिर्णय सब इसी के अन्तर्गत आते हैं। जीव का हितकारी होकर रखा जाये तब भी स्वभाव से शुद्ध है और यह बात वर्तमान में प्रत्यक्ष व्यवहार र एकमात्र धर्म ध्यान ही है। 5 से अनुभवगम्य है, जिसका साक्षी स्वर्णकार है। वैसे ही यह जीव द्रव्य अनादि से , धर्म ध्यान की आराधना करने से उत्तम क्षमा धर्म पैदा हो जाता है। सब जीवों पुद्गल कर्म संयोग में मिला हुआ है परन्तु वहाँ भी यह स्वभाव से शुद्ध है। वर्तमान के प्रति क्षमा मैत्री समभाव आजाता है। क्रोध कषाय विला जाती है। उत्तम तत्व का में इस मनुष्य पर्याय में कर्म संयोग में है परन्तु यहाँ भी स्वभाव से शुद्ध है और जब प्रकाश हो जाता है, अपना ममल आत्म स्वभाव दिखाई देने लगता है। अपना अर्थात् यह सिद्ध दशा में पूर्ण शुद्ध हो जायेगा तब भी स्वभाव से शुद्ध है । इसके साक्षी मैं आत्मा हूँ यह शरीरादि नहीं हूँ ऐसे स्व का विचार करना ही धर्म ध्यान है। पर का केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा हैं । इसे ममल स्वभाव कहते हैं और जो ११० Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSON श्री श्रावकाचार जी गाचा-१७१ DOO ऐसे अपने ममल स्वभाव को स्वीकार करता है, वह ज्ञानी सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा है। परिणमन चलना. इतना सब होते हुए भी जो अपनी स्व सत्ता में धौव्य है। जो इसलिये कहा है त्रिकाल शुद्ध है, जिसमें न उत्पाद व्यय है, न गुण पर्याय का भेद है। जो अपने सत्ता । बंधा मिला है बंधे को,छूटे कौन उपाय। , स्वरूप में शाश्वत है, वह ममल स्वभाव है। सब कुछ होते हुए भी जिसमें कुछ नहीं: कर सेवा निबंध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ ॐ है, वह ममल स्वभाव धर्म है। बन्धन में है, ऐसा तो जगत कहता है और ऐसा ही बंधा हुआ बंधे हुए को मिला यहाँ कोई प्रश्न करे कि फिर ममल स्वभाव में उत्पाद व्यय, गुण पर्याय कुछ, है। कोई कर्मों से बंधा है, कोई जाति-पांति से बंधा है। सब कहीं न कहीं किसी न नहीं होते होंगे? किसी से बंधे हैं। ज्ञानी संत कहते हैं अरे! उस निबंध अपने शुद्ध स्वभाव का आश्रय C उसका समाधान करते हैं कि भाई ! ममल स्वभाव द्रव्य का होता है, द्रव्य में ले, उसकी सेवा कर तो पल में लेय छुड़ाय। एक मुहूर्त में केवलज्ञान हो जाये, स्वयं , होता है। जीव भी एक द्रव्य है और यह ममल उसका स्वभाव है तो गुणों में पर्याय में परमात्मा हो जाये । शिवभूति मुनि इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जब यह भान हुआ परिणमन चलता है, पर्याय शुद्ध-अशुद्ध होती है। स्वभाव तो अपने में एक अखंड तुषमास भिन्नं, इन शरीरादि संयोगों से भिन्नमैं त्रिकाल शुद्ध टंकोत्कीर्ण अप्पा ध्रुवतत्व 5 अभेद शाश्वत ध्रुव रहता है। उसे ही ममल स्वभाव कहते हैं। जैसे जो चेतना ममल स्वभावी भगवान आत्मा त्रिकाल एक रूप शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्व हूँ। जहाँ निगोदिया, एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय,तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पशु मनुष्यादि यह अनुभूति में आया, उसी समय ध्यान लगाकर बैठ गये ४८ मिनिट में केवलज्ञान में होती है, उसमें कोई भेद नहीं होता। गुणों में प्रगटपना-अप्रगटपना, पर्याय में प्रगट हो गया। यह है सत्य धर्म की महिमा और ममल स्वभाव की साधना का फल। अशुद्धता, कर्मों की तीव्र मंद सत्ता, यह अलग-अलग होती हैं परन्तु चैतन्य शक्ति अपने को यह बात जंचे, समझ में आये तो काम चले। मात्र चर्चा करने से कोई लाभ नहीं, एक सी होती है, इसलिये कहा है किहै। इसी बात को सद्गुरू आगे गाथा में और स्पष्ट कर रहे हैं जो निगोद में सो ही मुममें, सो ही मोक्ष मझार। मिथ्या समय मिथ्या च, रागादि मल विवर्जितं। निश्चय भेद का भी नाही, भेद गिने संसार ।। असत्यं अनृतं न दिस्टते,ममलं धर्म सदा बुधैः।।१७३॥ चेतना शक्ति सबमें एक सी होती है और यही जीव का शुद्ध धर्म है, जो अपने ऐसे चैतन्य स्वरूप की प्रतीति करता है कि मैं तो एक अखंड अविनाशी चैतन्यतत्व अन्वयार्थ - (मिथ्या समय मिथ्या च) मिथ्यात्व और मिथ्या प्रकृति २ भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि कर्म संयोग अशुद्ध पर्याय मैं नहीं, मेरे नहीं। मैं तो (रागादि मल विवर्जित) राग-द्वेषादि मलों से वर्जित जहाँ यह कोई हैं ही नहीं ३ शुद्ध चेतना मात्र जीव तत्व हूँ, वही इस ममल धर्म को स्वीकार करता है और इसी (असत्यं अनृतं न दिस्टते) तथा जहाँ झूठी नाशवान अशुद्ध पर्यायें भी दिखाई नहीं । ८ की साधना आराधना से परमात्मपद, परमानंद की उपलब्धि होती है। इसी के देती (ममलं धर्म सदा बुधैः) हमेशा उसे ही ममल धर्म जानो। आश्रय जीव ज्ञानानंद स्वभाव में रहता है जिसको इसकी प्रतीति दृढ श्रद्धान नहीं है विशेषार्थ- यहाँ ममल स्वभाव किसे कहते हैं, इसका वर्णन चल रहा है। वह संसार में रुलता है। सद्गुरू कहते हैं कि जो मिथ्यात्व और मिथ्या प्रकृति ज्ञानावरणादि कर्म तथा 8 रणादि कर्म तथा यहाँ कोई प्रश्न करे कि जब यह जीव ज्ञानानंद स्वभावी है तो फिर यह अपने राग-द्वेषादि मलों से भिन्न, न्यारा है। जहाँ यह कोई है ही नहीं इनका पहुंचना ही ज्ञानानंद स्वभाव में क्यों नहीं रहता? ममल स्वभावी है तो ममल स्वभाव में क्यों ? सम्भव नहीं है तथा जहाँ झूठी नाशवान अशुद्ध पर्यायें भी दिखाई नहीं देती, वह नहीं रहता? ममल स्वभाव है। हमेशा उसे ही ममल धर्म जानो, बड़ी ही अपूर्व बात है। उसका समाधान करते हैं कि भाई! यह जीव ज्ञानानंद स्वभावी तो है परन्तु यहाँ एक जीव द्रव्य उसमें अनादि से पुद्गल कर्मों का निमित्त-नैमित्तिक जब तक इसका पर से अर्थात् शरीरादि पर द्रव्य और पर जीवों से- १. संबंध, संयोग संबंध, अनन्तगुण, अनन्तानंत पर्यायें और प्रति समय उत्पाद व्यय रूप २.स्वार्थ 3.लगाव.४. अपेक्षा रहेगी. तब तक यह ज्ञानानंद मय नहीं रह सकता १११ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w Pooo श्री आचकाचार जी तथा यह ममल स्वभावी भी है; परन्तु जब तक इसको पर से- १. एकत्व, निभाना इससे मोह, राग-द्वेष के परिणाम होते हैं। संकल्प-विकल्प चलते हैं, खेद २. अपनत्व,३. कर्तृत्व,४. चाह,५. लगाव रहेगा तब तक यह ममल स्वभाव में भी खिन्नता रहती है, इस कारण ज्ञानानंद मय नहीं रह सकता। नहीं रह सकता, ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध है।। स्वार्थ-पर से अपना मतलब रखना, किसी से कुछ चाहना, धन पुत्रादि से यहाँ पुन: प्रश्न आया कि यह बात समझ में नहीं आई इसे विस्तार पूर्वक स्पष्ट किसी प्रकार की भी कामना वासना रखना। इससे भी मोह, राग-द्वेष के परिणाम बताईये? होते हैं। संकल्प-विकल्प चलते हैं,खेद खिन्नता रहती है। उसका समाधान करते हैं कि यहाँ तीन बातें समझने की हैं। अगर यह समझ लगाव-अपनत्वपना होना, अच्छा मानना,साथ रहना, मित्रता रखना, इससे में आ जायें तो फिर सारी समस्या ही समाप्त हो जाये। &भी मोह, राग-द्वेष के परिणाम होते हैं, संकल्प-विकल्प चलते हैं। १.पहली बात-निमित्त-नैमित्तिक संबंध समझने का है। जीव और पुद्गल, अपेक्षा- किसी से किसी भी प्रकार की चाह होना, ऐसा नहीं ऐसा होता, यह यह दो द्रव्यों का एक क्षेत्रावगाह संयोग संबंध, निमित्त-नैमित्तिक संबंध अनादि से नहीं यह होता, इससे भी राग-द्वेष के परिणाम होते हैं, विकल्प आते हैं। जो है। जीव के विभाव परिणामों के निमित्त से पुद्गल परमाणु, कर्म स्कन्धादि रूप ज्ञानानंदमय रहने में बाधक कारण हैं। परिणमित होते हैं और कर्मादि पुद्गल के निमित्त से जीव का विभाव परिणमन यहाँ प्रश्न है कि जब जीव ज्ञानी हो गया फिर यह सब क्यों होता है? होता है। इसे निमित्त-नैमित्तिक संबंध कहते हैं।जीव और पदगल दोनों में क्रियावती इसका समाधान है कि जीव जब तक चौथे पाँचवें गुणस्थान में रहता है, शक्ति, वैभाविक परिणमन शक्ति से है, अपनी-अपनी शक्ति से स्वयं अपने में ही तब तक उसकी पात्रतानुसार यह होते ही हैं। चौथे गुणस्थान में मोह की प्रबलता परिणमन करते हैं। जीव, पुद्गल रूप नहीं होता और पुद्गल,जीव रूप नहीं होता। रहती है और पाँचवें गुणस्थान में राग की प्रबलता रहती है, तब तक यह सब पुद्गल, पुद्गल अचेतन ही रहता है। जीव, चेतन चेतन स्वरूप ही रहता है; परन्तु होते हैं। जब जीव छठे गुणस्थान में चला जाता है, वीतरागी हो जाता है फिर वह दोनों का विभाव परिणमन एक दूसरे के निमित्त से ही होता है। S अपने ज्ञानानंद स्वभाव में रहता है। इसके पूर्व ज्ञानानंद स्वभाव में नहीं रह सकता निमित्त कुछ करता नहीं है; परन्तु निमित्त के बगैर भी कुछ होता नहीं ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। है। निमित्त को कर्ता मानना मिथ्यात्व है,निमित्त के बिना कार्य होना मानना ३. तीसरी बात-जीव चेतन लक्षण ममल स्वभावी भगवान आत्मा तो है भी अज्ञान मिथ्यात्व है। निमित्त कुछ करता नहीं है; परन्तु निमित्त के बगैर परन्तु जब तक इसको पर में एकत्व, अपनत्व, कर्तृत्व, चाह, लगाव रहेगा तब तक कोई कार्य होता नहीं है,ऐसा श्रद्धान सम्यक्त्व है। यह ममल स्वभाव में नहीं रह सकता। जिसे अभी अपना होश ही नहीं है, जो अपने जब तक जीव और पुद्गल शरीर कर्मादि का संयोग संबंध है। जीव संसार में 6 को जानता ही नहीं है। वह अपने में कैसे रहेगा? इसका पहला कारण एकत्व है। अशुद्ध पर्याय सहित है तब तक निमित्त-नैमित्तिक संबंध ही चलता है। अरिहन्त एकत्व- यह शरीरादि ही मैं हूँ ऐसी मान्यता । नाम, रूप,शरीर, पद, पुत्र, अवस्था में शुद्ध पर्याय और वीतरागीहोजाने से फिर निमित्त-नैमित्तिक संबंध समाप्त परिवार, धनादि ही मैं हूँ यह एकत्वपना ही अज्ञान मिथ्यात्व है। इसी के कारण यह हो जाता है। पूर्ण शुद्ध अशरीरी सिद्ध दशा में संयोग संबंध भी समाप्त हो जाता है। त्रिलोकी नाथ भगवान आत्मा भीख मांगता, दर-दर भटकता फिर रहा है। चार २. दूसरी बात- अब जो जीव इस बात को जानता है, जिसे भेदज्ञान पूर्वक गति चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण कर रहा है और नाना प्रकार के दारुण , जीव और पुद्गल की भिन्नता भासित हो गई है तथा जिसे अपने शुद्धात्म तत्व दुःख भोग रहा है। यह एकत्वपना मिटे, अपने ममल स्वभाव का श्रद्धान ज्ञान होवे, ज्ञानानंद स्वभाव की अनुभूति हो गई है; परन्तु जब तक शरीरादि पर द्रव्य और परशुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति होवे तो फिर अपने में रहने की बात बने। यहाँ मिथ्यात्व X जीवों से संबंध, स्वार्थ, लगाव, अपेक्षा है तब तक वह ज्ञानानंदमय नहीं रह सकता। की भूमिका है। संबंध-पर को अपना मानना, परिवार की रिश्तेदारी, जिम्मेदारी व्यवहारिकता अपनत्व- एकत्वपना मिटने के बाद यह अपनत्व अपना मानना मिटे, यह ० Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6565 श्री आवकाचार जी शरीरादि, धन, पुत्र, परिवार मेरे हैं। यहाँ मोह का साम्राज्य है, जिसके कारण अच्छे-अच्छे शूरवीर चक्कर खाते हैं। यह बेहोश कर देता है फिर अपनी कोई सुध-बुध नहीं रहती । शंका-कुशंका के परिणाम चलते हैं। भयभीत पना घबराहट रहती है, मोह के कारण ही पापादि कुकर्म करना पड़ते है। इसके मिटने पर समता आती है, साता रहती है। कर्तृत्व - घर परिवार के संयोग में रहते हुए तो यह सब करना ही पड़ता है। व्यवहारिकता निभाना भी जरूरी है। अपने कर्तव्य का पालन करना भी आवश्यक है। यह पाप है, यह पुण्य है, यह अच्छा है, यह बुरा है। यह भाव और क्रिया अच्छी है, यह भाव और क्रिया बुरी है, ऐसे नहीं ऐसे भाव, ऐसे कर्म करना चाहिये । जहाँ तक राग-द्वेष, पाप-पुण्य का भेद विकल्प है वहां तक कर्तृत्वपना है और यही बंध का कारण है, जिसका कर्तृत्वपना मिटता है, वही निर्भय रहता है। चाह - यह नहीं, यह होता । यह अच्छा है, यह बुरा है। यह हितकारी है, यह अहितकारी है। कुछ भी चाहना, चिन्ता और विकल्प का कारण है। चाह मिटने पर ही चिन्ता मिटती है तभी शांति रहती है। लगाव - कुछ भी अच्छा बुरा मानना लगाव है, जब तक किसी भी संयोग में रहोगे तब तक लगाव रहेगा। जब तक लगाव रहेगा तब तक विकल्प होंगे ही। जब तक विकल्प विभाव परिणमन चलेगा तब तक ममल स्वभाव में रह ही नहीं सकते। निर्विकल्प होना ही ममल स्वभाव में रहना है। वीतरागी ही निर्विकल्प हो सकता है। जहाँ मोह, राग-द्वेष है वहाँ वीतरागता है ही नहीं। मोह, राग-द्वेष के अभाव को ही वीतरागता कहते हैं, यही ममल स्वभाव धर्म है। यहां प्रश्न आता है कि एकत्व अपनत्व आदि मान्यतायें कैसे मिटें ? उसका समाधान करते हैं कि साधना के क्रम में १. भेदज्ञान के अभ्यास से एकत्वपना मिटता है। २. तत्व निर्णय के अभ्यास से अपनत्वपना मिटता है। ३. पाप-पुण्य के विकल्प प्रक्षालन से कर्तृत्वपना मिटता है । ४. तत्समय की योग्यता के निर्णय से चाह मिटती है। ५. सर्वज्ञ की सर्वज्ञता, क्रमबद्ध पर्याय के निर्णय से लगाव मिटता है। तभी वीतरागता आती है, निर्विकल्प दशा होती है। वही ममल स्वभाव में रहना धर्म है। SY GAAN YAARA YE ११३ गाथा - १७४ - धर्म और उत्तम धर्म क्या है ? इसे आगे गाथा में कहते हैंधर्म उत्तम धर्म च मिथ्या रागादि पंडितं । चेतनाचेतनं द्रव्यं सुद्ध तत्व प्रकासकं ।। १७४ ।। " अन्वयार्थ - (धर्मं उत्तम धर्मं च) धर्म और उत्तम धर्म वह है जो (मिथ्या रागादि पंडितं) मिथ्या रागादि भावों को खंडित करने वाला है अर्थात् समूल नष्ट कर देने वाला है (चेतनाचेतनं द्रव्यं) चेतन-अचेतन द्रव्य जीव और पुद्गल को भिन्न-भिन्न देखने जानने वाला है (सुद्ध तत्व प्रकासकं ) शुद्ध तत्व का प्रकाश करने वाला अर्थात् वस्तु स्वरूप को जैसा का तैसा जानने वाला, प्रकाशित करने वाला है। विशेषार्थ - यहाँ धर्म की विशेषता और महत्व को बताया जा रहा है। जो ऐसे शुद्ध धर्म को स्वीकार करता है, वही अन्तरात्मा, सम्यक्दृष्टि होता है। धर्म तो अपना निज शुद्ध स्वभाव है ही और उत्तम धर्म, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य यह दस भेद रूप निज स्वभाव में रहने की साधना है । इससे मिथ्या रागादि भाव समूल नष्ट हो जाते हैं । चेतन-अचेतन द्रव्यों का गठबन्धन टूट जाता है; क्योंकि जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं। इनमें एक जीव द्रव्य ही चेतन है, शेष पाँच अचेतन हैं। जीव पुद्गल के परिणमन में चार द्रव्य सहकारी हैं । पुद्गल जड़ अचेतन है। मात्र जीव द्रव्य ही चेतनावन्त, ज्ञान दर्शन का धारी, ब्रह्मस्वरूप है। ऐसे वस्तु स्वरूप को जानना और निज स्वभाव का आश्रय करना ही उत्तम धर्म है। जो अन्तरात्मा ऐसे निज स्वभाव के आश्रय शुद्धात्मानुभव में लीन रहते हैं, वही शुद्ध तत्व, सिद्ध दशा, मुक्ति का परमानंद पाते हैं। यह उत्तम धर्म ही शुद्ध तत्व को प्रकाशित करने वाला है अर्थात् रत्नत्रयमयी अनन्त चतुष्टय पद प्रकट कराने वाला है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि ऐसे उत्तम धर्म निज शुद्धात्म स्वरूप को प्रगटाने के लिये हम क्या करें ? उसका समाधान है कि जिन्हें अपने शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति हो गई है, वह निरन्तर उसी की साधना, आराधना, समर्पण, ध्यान में लीन रहें। वर्तमान कर्म संयोगी दशा में विभाव परिणमन चलता है, मोह, राग-द्वेषादि विकारी भाव होते हैं, Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-१७५, १७७ शरीरादि विषय-कषायों की प्रवृत्ति चलती है, आर्त-रौद्र रूप ध्यान होते हैं; इनसे बन्धन में बंधे नहीं थे, स्वतंत्रता के पुजारी स्वतंत्र साधक थे। योग (मन,वचन, बचने हटने के लिये अपने उपयोग को अपने में स्थिर करने के लिये निज आत्म वैभव काय) की स्थिरता होने पर ही उपयोग की स्थिरता होती है, तभी ध्यान समाधि के चिन्तन मनन में लगे रहें, धर्म ध्यान में लीन रहें, इससे इन कर्मादि से छूटकर निज लगती है। स्वभाव में लीन हो जायेंगे और निज स्वभाव के आश्रय होने,ध्यान साधना करने से योग की विधि- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा,ध्यान, यह कर्म कषायें आदि स्वयं गल जायेंगे विला जायेंगे क्योंकि २. समाधि। कम्म सहावं विपन, उत्पत्ति विपिय दिस्टि सभा । ध्यान के बाधक कारण-१. अज्ञान (मिथ्यात्व), २. मूर्छा (परिग्रह का चेयन व संजुत्त, गलिय विलियं ति कम्म बंधानं ॥ ६ ममत्व). ३. प्रमाद (इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति),४. मोह राग द्वेष, ५. कामभोग ॥ कमलबत्तीसी-६॥ है और शरीर की आसक्ति (सुखियापना) इसी बात को विस्तार पूर्वक आगे की गाथाओं में कहते हैं - ध्यान करने वाले ध्याता के लक्षण - १. मुमुक्ष (मोक्ष की इच्छा रखने धर्म अर्थ तिअर्थ च, तिअर्थ वेदंति जत्पुनः । * वाला), २. संसार से विरक्त, ३. क्षोभ रहित (शांतचित्त), ४. वशी (मन वश में षट् कमलं त्रि उर्वकारं, धर्म ध्यानं च जोइतं ।। १७५ ॥ १२ हो), ५. स्थिर (योग की स्थिरता, आसन की दृढ़ता), ६. जितेन्द्रिय हो,,७. संवृत (नियम संयम युक्त हो),८.धीर हो। धर्म च अप्प सद्धावं, मिथ्या माया निकंदनं । इस प्रकार का साधक योग की स्थिरता के लिये षट्कमल और ॐ ह्रीं श्रीं तीन सख तत्वंच आराध्यहींकार न्यान मयं धुवं ।। १७६॥ ओंकार के माध्यम से धर्म ध्यान का अभ्यास करे और अपने शुद्धात्म तत्व को देखे। अन्वयार्थ-(धर्म अर्थ तिअर्थं च) धर्म अर्थात् निज शुद्ध स्वभाव रत्नत्रयमयी इस साधना से वह अपने इष्ट को उपलब्ध कर लेगा। है (तिअर्थ वेदंति जत्पुन:) और द्रव्य गुण पर्याय सहित अपने विंद स्वरूप अर्थात् 3 षट्कमल की साधना का क्रम क्या है इसे कहते हैं षट्कमलकाता भावमोक्ष मय है (षट् कमलं त्रि उवंकारं) छह कमल और तीन ओंकार अर्थात् सबसे पहले साधक सब ब्राह्य क्रियाओं से निवृत्त होकर स्वस्थ,शांत,एकांत पद्मकमल, गुप्तकमल, नाभिकमल, हृदयकमल, कंठकमल या मुखकमल और विंद में आसन का अभ्यास करे। पद्मासन ही सबसे श्रेष्ठ होती है। इसके पश्चात् कमल के माध्यम से ॐ ह्रीं श्रीं मंत्र द्वारा (धर्म ध्यानं च जोइत) धर्म ध्यान करो और मंत्रोच्चारण या मंत्र जप से मन को स्थिर करे। पद्मकमल, गुप्त कमल, नाभि कमल, अपने शुद्ध स्वभाव को देखो। हृदय कमल, कंठकमल,विंदकमल, यह शरीर के बहुत ही संवेदनशील स्थान होते (धर्मच अप्प सद्भाव) धर्म कहो या आत्मस्वभावकहो (मिथ्यामाया निकंदन) हैं। इन पर आघात होने से प्राण निकल जाते हैं तथा किसी भी आकस्मिक घटना में मिथ्यात्व माया आदि से सर्वथा परे है उसमें यह कुछ नहीं है (सुद्ध तत्वं च आराध्यं) आत्मा के प्रदेश संकुचित होकर इन्हीं किसी में एकत्र हो जाते हैं, ऐसा विधान है। ऐसे अपने शुद्ध तत्व की आराधना करो जो (हींकारंन्यान मयं धुवं) परमात्म स्वरूप साधक इन्हीं कमलों में अपने आत्म प्रदेशों को एकत्र करता है और उसी में अपना पूरा अरिहन्त सर्वज्ञ तीर्थंकर स्वरूप ज्ञानमयी ध्रुव है। उपयोग लगाता है। जैसे-जैसे साधना की स्थिति बढ़ती है. वैसे ही उसके आनंद की विशेषार्थ- यहाँ वह विधि बताई जा रही है कि जो अपना अनन्त चतुष्टय वृद्धि होती जाती है। शून्य शांत दशा में उसे शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्व ही दिखाई 9 स्वरूप रत्नत्रयमयी शुद्ध स्वभाव है उसे प्रगटाने के लिये क्या करें? इसका उपाय देता है। चेहरे पर मुस्कराहट प्रसन्नताशांत आनंद की दशा अपने आप प्रगट होने सदगुरु तारण स्वामी बता रहे हैं। वह स्वयं योगीथे,योग और ध्यान साधना करते लगती है। शरीर से और संसार से सब संबंध छूट जाता है। योग ध्यान साधना करने थे। उन्होंने जिस क्रम से, जिस विधि से अपने शुद्ध तत्व को प्रगट किया, भाव मोक्ष वाला साधक सबके बीच रहता हुआ भी अपने में रहता है। कहाँ क्या हो रहा है? की दशा में रहे, उन्होंने वही मार्ग बताया है। वह किसी जाति-पांति सम्प्रदाय के किसने क्या कहा? मैंने क्या किया ? इसका उसे कुछ भी भान नहीं रहता। अपने Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी आपमें प्रसन्न संतुष्ट रहता है। यह सब निरंतर साधना और अभ्यास करने से होता है। जितनी दृढ़ता और पुरुषार्थ काम करता है उतनी पात्रता बढ़ती है, आनंद की दशा बढ़ती है। ध्यान साधना में मंत्र जप का भी विशेष महत्त्व है। मन को शांत एकाग्र करने के लिये मंत्रोच्चारण, मंत्र जप बहुत सहयोगी है। मंत्र जप करने से भी रिद्धि सिद्धि प्रगट हो जाती है। साधक उस ओर ध्यान नहीं देता और न किसी रिद्धि सिद्धि के अभिप्राय से यह करना चाहिये वरना चिन्तामणि रत्न की जगह काँच में ही जीवन व्यर्थ चला जायेगा । कोई रिद्धि सिद्धि के मंत्र भी नहीं जपना चाहिये, अपने शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति हो उसी का लक्ष्य बना रहे। इसके लिये ॐ ॐ ह्रीं श्रीं ॐ नमः सिद्धं, ॐ शुद्धात्मने नमः । " इन छोटे मंत्रों का ही जप करना चाहिये। बड़े मंत्रों में उपयोग स्थिर नहीं रहता। प्रमुख लक्ष्य शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति लीनता का रहना चाहिये। संसार शरीर और पर वस्तु का लक्ष्य नहीं रखना चाहिये। अपना शुद्ध स्वभाव तो समस्त मिथ्यात्व, मायादि कर्मों से सर्वथा परे है, उसमें यह कर्म कषायें आदि कुछ हैं ही नहीं । ऐसे अपने शुद्ध तत्व की आराधना करने से सर्वज्ञ स्वरूपी ध्रुवतत्व अपने आप प्रगट होता है। इसके लिये धर्म ध्यान का निरंतर अभ्यास करना चाहिये। उसी में पदस्थ, पिंडस्थ आदि ध्यानों की साधना करना चाहिये। इनका स्वरूप आगे कहते हैंपदस्तं पिंडस्तं जेन, रूपस्तं विक्त रूपयं । चतु ध्यानंच आराध्य, सुद्धं संमिक दर्शनं ।। १७७ ।। अन्वयार्थ (पदस्तं पिंडस्तं जेन) जो जीव पदस्थ, पिंडस्थ (रूपस्तं विक्त रूपयं) रूपस्थ और रूपातीत (चतु ध्यानं च आराध्यं) इन चार ध्यानों की आराधना करता है (सुद्धं संमिक दर्सनं) वह शुद्ध सम्यक्दर्शन का धारी है। विशेषार्थ - यहाँ अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि क्या करता है, इस बात को बताया जा रहा है। जो भव्य जीव सम्यकदृष्टि मुमुक्षु है, वह अपने उपयोग को अपने में लगाने के लिये ध्यान के अन्तर्गत पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार प्रकार के ध्यान की साधना करता है। SYARAT YAAAAAN FAA ARAS YEAR. यहाँ कोई प्रश्न करे कि जो सम्यक्दृष्टि है वही यह धर्म ध्यान आदि की साधना करे, जो मिथ्यादृष्टि है वह क्या करे; क्योंकि उसे तो यह धर्म ध्यान हो ही नहीं सकते ? ११५ गाथा- १७७, १७८ उसका समाधान करते हैं कि भाई ! जो जीव अपना आत्म कल्याण करना चाहता है, मोक्ष का आकांक्षी है उसे सामायिक ध्यान तो अत्यन्त आवश्यक है; क्योंकि सम्यक्दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति भी सामायिक ध्यान के समय में ही होती है। जिसे हो गई है उसका आगे का काम बनता है, जिसे नहीं हुई उसे भी इसी माध्यम से होती है। यहाँ एक प्रश्न आया कि तीर्थंकर भगवान के समवशरण में क्या वह आत्मा को प्रत्यक्ष बताते हैं ? उसका समाधान दिया है कि वह आत्मा के स्वरूप को बताते हैं । अनन्त चतुष्टय का धारी रत्नत्रयमय स्वरूप यह भगवान आत्मा स्वयं है, ऐसा वह प्रत्यक्ष अनुभव से बताते हैं। जो भव्य जीव इस बात की श्रद्धा करते हैं और परम ध्यान को उपलब्ध होते हैं उन्हें वह प्रत्यक्ष अनुभव में आ जाता है। अनुभूति, सम्यक्दर्शन शांत और स्थिरचित्त होने पर ही होता है, इसके लिये सामायिक ध्यान करना नितान्त आवश्यक है । यह बात अवश्य है कि जब तक आत्मानुभूति नहीं होती तब तक वह धर्म ध्यान नहीं होता परन्तु उसकी साधना अभ्यास करने से वह अवश्य होता है। , यहाँ एक प्रश्न और आया कि पंचम काल में ध्यान हो ही नहीं सकता ? उसका समाधान करते हैं कि वर्तमान पंचमकाल में शुक्ल ध्यान नहीं हो सकता वह आठवें गुणस्थान से श्रेणी माड़ने पर होता है; परन्तु अभी सातवें गुणस्थान तक तो जीव जा सकता है और धर्म ध्यान भी हो सकता है तथा आर्त- रौद्र ध्यान से बचने के लिये धर्म ध्यान ही एक मात्र सहकारी है यदि धर्म ध्यान की साधना नहीं करोगे तो आर्त- रौद्र ध्यान ही करते रहोगे इसलिये ध्यान का अभ्यास तो प्रत्येक जीव को करना चाहिये। जो जिनेन्द्र की आज्ञा मानते हैं, जिनधर्मी हैं, उन्हें तो सामायिक ध्यान करना आवश्यक ही है, मात्र कोरी चर्चा करके समय व्यर्थ खोने से कोई लाभ नहीं है। अब आगे पदस्थ ध्यान किसे कहते हैं, उसका स्वरूप क्या है, इसका वर्णन आगे की गाथाओं में करते हैं पदस्त पद वेदंते, अर्थ सब्दार्थ सास्वतं । व्यंजनं तत्व सार्धं च पदस्तं तत्र संजुतं । १७८ ।। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TION 4 श्री श्रावकाचार जी गाचा-१७८.१८२ Ooa कुन्यानं त्रिन पस्यंते, छाया मिथ्या विषंडितं । सास्वतं पदं) अपना पद निज शुद्धात्मा ही शाश्वत पद है (अनृतं अचेत तिक्तंच) 6 विजनं च पदार्थ च, सार्थ न्यान मयं धुवं ॥१७९॥ इसलिये यह नाशवान शरीरादि अचेतन पर पदार्थ छोड़कर (धर्म ध्यान पदं धुवं) - अपने ध्रुव पद निज शुद्ध स्वभाव धर्म ध्यान में लीन रहो। पदस्तं सुद्ध पदं सार्थ, सुद्ध तत्व प्रकासकं । विशेषार्थ-धर्म ध्यान सविकल्प होता है। शुक्ल ध्यान निर्विकल्प होता है। ७ सल्यं त्रयं निरोधं च, माया मिथ्या न दिस्टते॥१८॥ ५. आर्त-रौद्र ध्यानों से बचने के लिये धर्म ध्यान की साधना करना पड़ती है। मन को पदस्त लोकलोकांत, लोकालोक प्रकासकं । 5 स्थिर करने और उपयोग को अपने में लगाने की विधि धर्म ध्यान की साधना और विंजनं सास्वतं साधं, उवंकारं च विंदते ॥१८१॥ : उसमें यह पदस्थ, पिंडस्थ आदिध्यान सहकारी हैं। मंत्र जप और पंच परमेष्ठी पद अंग पूर्व च जानते,पदस्त सास्वतं पदं । हैं के आराधन विचार पूर्वक चित्त को एकाग्र करना और अपने शुद्ध स्वरूप सिद्ध पद का आराधन करना, निज शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति होना ही पदस्थ ध्यान है। अनृतं अचेत तिक्तं च,धर्म ध्यान पदं धुवं ॥१८॥ अक्षरों के समूह को शब्द व शब्द के समूह को पद कहते हैं। अन्वयार्थ- (पदस्तं पद वेदंते) पदस्थ ध्यान पद का अनुभव करना है (अर्थ पदस्थ ध्यान करने की विधि-ध्यान करने वाले ध्याता के लक्षण पात्रता सब्दार्थ सास्वतं) प्रयोजनभूत निज शुद्धात्मा अक्षर शाश्वत पद है (व्यंजनं तत्व सार्धं च) अक्षर स्वर व्यंजन के माध्यम से तत्व की साधना करना और (पदस्तं तत्र चित्त होकर साधक ध्यान करे, शरीर पर वस्त्र कम से कम नाम मात्र को होवें, संजुतं )उसी में लीन हो जाना पदस्थ ध्यान है। । पद्मासन में बैठकर सबसे पहले मंत्र जप, अपने स्वरूप का आराधन और पंच परमेष्ठी (कुन्यानं त्रिन पस्यंते) जहाँ तीन कुज्ञान कुमति, कुश्रुत, कुअवधि दिखाई पद का स्मरण करे फिर आत्म कल्याण की भावना, मुक्ति पाने परमानंदमय रहने के नहीं देते (छाया मिथ्या विषंडित) मायाचार मिथ्यात्व का खंडन हो गया हो अर्थात् लिये एक-एक पद का आराधन करे। सबसे प्रथम साधु पद है, जो भव्य जीव जहाँ यह कुछ न हो (विजनं च पदार्थ च) वहाँ व्यंजन और पदार्थ के द्वारा अपने 3 समस्त आरंभ-परिग्रह पापों का त्याग कर निग्रंथ नग्न दिगंबर वीतरागी साधु हो (साधं न्यान मयं धुवं) ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की साधना करो यही पदस्थ जाते हैं और अट्ठाईस मूलगुणों का निरतिचार पालन करते हैं, अपने शुद्धात्म स्वरूप ध्यान है। रत्नत्रय की साधना करते हैं, वह जगत वन्दनीय देवों से पूज्य परमेष्ठी होते हैं। यह (पदस्तं सुद्ध पदं साध) पदस्थ ध्यान में शुद्ध पद निज शुद्धात्म स्वरूप की मुक्तिमार्ग का प्रथम सोपान है। साधु पद के बिना कोई जीव सिद्ध पद मुक्ति नहीं पा साधना करने से (सुद्ध तत्व प्रकासक) शुद्धतत्व का प्रकाश होता है अर्थात् शुद्ध तत्व सकता। ऐसा विचार करते हुए उस रूप उस दशा में अपने आपको देखे,ऐसा अनुभव अनुभव में आता है जिससे (सल्यं त्रयं निरोधं च)तीनों शल्यों का निरोध हो जाता है करे कि मैं साध हो गया है, निग्रंथ दिगंबर दशा में एकांत निर्जन वन में ध्यान साधना अर्थात् फिर मिथ्या, माया, निदान यह तीनों शल्यें पैदा ही नहीं होती और (माया कर रहा हूँ-----आ हा हा - आनंदम् परमानंदम् , पूर्ण निराकुलता---शान्ति मिथ्या न दिस्टते) माया मिथ्यात्व भी दिखाई नहीं देते। ॐ---परमशान्ति----निशल्यता----निश्चिन्तता----निर्भयता---- (पदस्तं लोकलोकांत) पदस्थ ध्यान करने से लोकलोकांत और (लोकालोक आनंद ही आनंद ----जय हो----जय हो. बीच में उपयोग बाहर शरीरादिपर, प्रकासक) लोकालोक प्रकाशित हो जाते हैं,जानने में आ जाते हैं (विजनं सास्वतं में चला जावे। मन में कोई विचार चलने लगें तो तुरंत मंत्र जप करने लगे और पुन: साध) व्यंजनों के माध्यम से अपने शाश्वत पद की साधना करने से (उर्वकारं च उसी दशा में अपने को ले आवे---- देखो, यह मुनिसंघ---- वाह-वाह-जय विंदते) अपना ॐकार स्वरूप शद्धात्म तत्व अनुभव में आता है। हो,जय हो----चारों तरफ जय जयकार मच रही है। धर्म की प्रभावना हो रही (अंग पूर्वंचजानंते) ग्यारह अंग और चौदह पूर्व को जानने का प्रयोजन (पदस्तं है। आहार, विहार चर्या का क्रम चल रहा है ---- श्रावक धर्मी जीव श्रद्धा भक्ति . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-१७४.१४२ SOO पूर्वक पड़गाह रहे हैं। तिष्ठो स्वामिन् तिष्ठो ---- मन शुद्ध, वचन शद्ध, काय शुद्ध --- देखो ---- वह साधु समूह बैठा है- सैकड़ों मुनि बैठे हैं,मैं आचार्य पद से --- आहार जल शुद्ध है। हे स्वामिन् तिष्ठो तिष्ठो---- चारों तरफ जय जयकार शिक्षा-दीक्षा दे रहा हूँ----पंचाचार का पालन चल रहा है ----प्रतिक्रमण - मची है ----धर्म की महिमा, अतिशय बरस रहा है ---- मैं साधु पद में आहार , ---प्रत्याख्यान हो रहा है, स्तवन-वन्दन ---- शिक्षा उपदेश चल रहा है --- चर्या के लिये जा रहा हूँ----पाणि पात्र आहार कर रहा हूँ----श्रावक जन धर्म* - णवि होदि अप्पमत्तो,ण पमत्तो---- जाणगो दु जो भावो---- एवं भणंति की महिमा प्रभावना कर रहे हैं। जय जयकार मच रही है। ---- देखो देखो--- सुद्धंणाओ जो सो उसो चेव॥----आ-हा-हा---- ज्ञायक,मात्र ज्ञायक ही है - वह साधु पद में मैं चला जा रहा हूँ---- वाह वाह- जय हो जय हो---- ईर्या ---- अपने चैतन्य स्वरूप ज्ञानानंद स्वभाव में लीन रहो, लीन रहो ---- लीन समिति पूर्वक पीछी कमण्डल लिये----देखो---- वह देखो----जंगल की रहो----देखो वह शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं ----वाह-वाह जय हो जय हो ओर चला जा रहा हूँ, अनशन ऊनोदर व्रत परिसंख्यान आदि तप चल रहे हैं ---- --- आनंदम् ----परमानंदम् ----1 चारों तरफ जय जयकार मची है ----जीवन में परम शांति ---- अतीन्द्रिय साधु,उपाध्याय, आचार्य तथा गणधर छठे सातवें गुणस्थानवर्ती होते हैं। आनंद बरस रहा है---- निज शुद्धात्मानुभूति हो रही है। ---- जय हो, जय यहाँ तक चार ज्ञान मति, श्रुत,अवधि और मन:पर्यय ज्ञान प्रगट हो जाते हैं। पदस्थ हो----अपूर्व अवस्था-धन्य घड़ी-धन्य भाग्य ----मुक्तिश्री का सुख प्रत्यक्ष ध्यान के क्रम में उसी पूर्व दशानुसार आचार्य पद में अपने को देखते हुए आगे श्रेणी वेदन में आ रहा है। देखो वह देखो ग्रीष्म काल में पर्वत के शिखर पर खड़े होकर माड़ने का क्रम बनता है। शुद्धोपयोग की स्थिति में शुक्ल ध्यान का क्रम बढ़ता है, ध्यान साधना चल रही है---- वह देखो---- वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे बैठकर गुणस्थान बढ़ते हैं। यहाँ से दो मार्ग बनते हैं-एक उपशम श्रेणी, एक क्षपक श्रेणी। ध्यान समाधि लगाई जा रही है---- अपूर्व आनंद----परमानंद-शीतकाल में जिसको क्षायिक सम्यक्त्व हो जाता है वह क्षपक श्रेणी से चढ़ता है। जिसको उपशम नदी के किनारे ध्यान साधना की जा रही है ----कोई भय नहीं,विकल्प नहीं-- सम्यक्त्व होता है वह उपशम श्रेणी से चढ़ता है। उपशम श्रेणी वाला ग्यारहवें --शरीर की चिंता नहीं----आत्मीय आनंद ----अमृत रस बरस रहा है।-५ गुणस्थान से गिर जाता है, ऊपर नहीं चढ़ पाता । क्षपक श्रेणी वाला सीधा चढ़ ---जय हो----जय हो----वह देखो वन में हिरण ठूठ जानकर खाज खुजा जाता है और तेरहवें गुणस्थान में अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा हो जाता है। रहे हैं, सिंह चारों तरफ बैठे हैं ---- जय हो जय हो, देवता जय जयकार कर रहे हैं तो अब यहाँ पदस्थ ध्यान में अपने को क्षपक श्रेणी माड़ना है---- देखो वह ---- साधु समूह बैठा है ---- मैं उपाध्याय पद से पढ़ा रहा हूँ, उपदेश चल रहा अपना निज शुद्धात्म तत्व ---- शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्व-अर्क सुअर्क ---- है ---- एगो मे सासदो आदाणाण दंसण लक्खणो----सेसा मे बाहिरा भावा, सुअर्क----प्रकाश ही प्रकाश----परमज्योति----सिद्ध स्वभाव---- सव्वे संजोग लक्खणा ---- मैं एक अखंड अविनाशी धुवतत्व शुद्धात्मा हूँ---- बस अब अपने को क्षपक श्रेणी से चढ़ना है----शुद्धोपयोग करना है----बाहर यह शरीरादि मैं नहीं मेरे नहीं ---- यह एक-एक समय की चलने वाली अशुद्ध में इसी साधु पद नग्न दिगम्बर वीतरागी दशा में रहते हुए श्रेणी माड़ना है ---- वह पर्याय भी मेरे से सर्वथा भिन्न है ----वह ज्योतिर्मय ----शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म देखो, अपना सिद्ध स्वरूप ममल स्वभाव----बस इसी में लीन रहना है ---- तत्व----वह देखो----अर्क सुअर्क सुअर्क----जय हो---आनंदं--- यहाँ से उपयोग हटते ही नीचे गिर पड़ोगे---- सावधान,जोर लगाओ-सत्पुरुषार्थ 0 - परमानंदं ---- बस ---- इसी शुद्ध स्वभाव में डूबे रहो-लीन रहो ----5 करो, देखो अपने शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्व को---- देखो यह आँठवां गुणस्थान 9 और करना क्या है ---- देखो वह रत्नत्रयमयी-अपना निज शुद्धात्म स्वरूप -- अपूर्व करण ---- जय हो जय हो ---- बस अपने में लीन रहो। सिद्ध स्वरूप 1--वह देखो, अनन्त चतुष्टय प्रगट हो रहे हैं----जय हो----जय हो---- ममल स्वभावको ही देखो----यह तो सब अपने आप होगा----नवाँ गुणस्थान X इसी अपने शुद्ध स्वभाव में लीन रहो----बस और कुछ मत देखो----किसी अनिवृत्ति करण----गुणश्रेणी निर्जरा होने लगी---- ध्यान अग्नि में कर्म जलने 9 की तरफ मत देखो----लगाओ,ध्यान समाधि लगाओ----जय होजय हो- लगे---- डटे रहो---- देखो अपने निज शुद्धात्म तत्व को----यह है धर्म Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SO4 श्री श्रावकाचार जी गाचा-१३ DOO की महिमा ---- कर्म अपने आप क्षय हो रहे हैं ---- वह देखो शुद्ध प्रकाश ___ --शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं ---- समस्त संकल्प विकल्प मुक्तं ---- रत्नत्रयं । शुद्धात्म तत्व ---- नादुन बिंदु नकारं नहि उत्पत्ति षिपति धुव सुद्धं,सुद्धं सुद्ध लंकतं विस्वरूपं----तत्वार्थसार्धबहभक्ति जुक्तं----जेधर्मलीना गुन चेतनेत्वं सरूवं सुद्धं तियलोयमत्त निम्मलय। ---- ते दुष्य हीना जिन सुद्ध दिस्टि----संप्रोषि तत्वं सोई न्यान रूपं---- जय हो जय हो---- अपूर्व आनंद,दसवाँ गुणस्थान सूक्ष्म साम्पराय-- ब्रजन्ति मोष्यं षिनमेक एत्वं----जय हो-जय हो----देखो वह अपना सिद्ध वाह-वाह जय हो जय हो----सारी कषायें क्षय हो गई----चारित्र मोहनीय स्वरूप अजोग केवलिनो----परमप्पा निम्मलो सहावं----आनंद-परमानंद विला गया ---- देखो देखो ---- वह अपने शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्व को ही ----नंतचतुष्टय मुक्ति संपत्तो----सिद्धं सिद्ध सरूवं ---- सिद्धं सिद्धि सौष्य देखो, उसी में लीन रहो ---- देखो यह बारहवाँ क्षीणमोह गुणस्थान ---- जय संपत्तं । नन्दो परमानंदो---- सिद्धो सुद्धो मुनेयव्वो॥ हो-जय हो----सारेघातिया कर्म-मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण,अन्तराय (ज्ञानसमुच्चय सार-७०३) सब क्षय हो गये ---- वह देखो,अनन्तदर्शन ---- अनन्तज्ञान ---- वह देखो वह अयोग केवलि ---- सिद्ध दशा, सब शरीरादि का संबंध छूट अनन्तसुख---- अनन्तवीर्य प्रगट हो रहे हैं ---- यह केवलज्ञान सूर्य चमक गया----अशरीरी पर्णशद्ध परमानंदमयी-सिद्ध स्वरूप---- उर्व नम: एकत्वं रहा है। ----जय हो----जय हो----तेरहवाँ गुणस्थान सयोग केवलि -तरहवा गुणस्थान सयाग कवाल-3 ----पद अर्थ नमस्कार उत्पन्नं ---- उर्वकारं च विंदं ---- विंदस्थं नमामि ---सजोग केवलिनो आहार निहार विवज्जिओ सुद्धो, केवल ज्ञान उवन्नो अरहंतोतं सुद्ध----ॐ शान्ति ---- ॐ शान्ति---- केवली सुद्धो। देखिये---- अभी एकदम आँख नहीं खोलना----पहले पद्मासन खोलें, (ज्ञानसमुच्चय सार-७०१) स्वस्थ होकर बैठे-शांत-मौन रहें - मंत्र का स्मरण करें ---- अब धीर-धीर चारों तरफ जय जयकार मची है----इन्द्र आदि देवता चले आ रहे हैं आँख खोलें। हैं,समवशरण की रचना हो रही है----वह देखो,मध्य में कमलासन पर अरिहन्त र जय बोलो-श्री गुरू महाराज-तारण स्वामी की जय----|| सर्वज्ञ केवलज्ञानी परमात्मा मैं स्वयं बैठा हूँ, ---- अपने शुद्ध स्वभाव में लीन, यह पदस्थ ध्यान की विधि का प्रयोग है। इसे क्रम-क्रम से अभ्यास करने से समस्त घातिया कर्मों से मुक्त केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा---- मैं स्वयं बैठाहूँ-- अपूर्व आनंद आता है। लगन और रुचि होना चाहिये। जीवन को मोड़ने, विकल्प -- देखो अपने को इसी रूप में देखो---- यह आत्मा ही परमात्मा है, में स्वयं जालों से बचने. आत्मीय आनंद में रहने के लिये यह एक माध्यम है। इस ध्यान को सर्वज्ञ परमात्मा हूँ---- परमानंद संदिस्टा मुक्ति स्थानेषु तिस्टते, सो अहं देह करने से तीनों कज्ञान मिथ्यात्व आदि विला जाते हैं। शल्यें पैदा ही नहीं होती और मध्येषु सर्वन्यं सास्वतं धुवं----देखो इसी दशा में अपने को देखो----वाह-6 मिथ्या माया जगत का प्रपंच भी विला जाता है। आत्मा की रुचि जागती है, धर्म का वाह जय हो जय हो ---- समवशरण की रचना हो गई ---- सौ इन्द्र सेवा में ! उत्साह बढ़ता है, बहुमान आता है। जीवन में सरलता सहजता आती है, आनंद की खडे हैं, जय जयकार मचा रहे हैं----भवणालय चालीसा व्यंतर देवाण होति दशा रहती है। यह पदस्थ ध्यान का अभ्यास तो प्रत्येक जीव को करना चाहिये। बत्तीसा.कम्पामर चौबीसा चंदो सूरोणरो तिरियो। बारह कोठों में सभी जीव,देव, इसी के माध्यम से सम्यक्त्व भी होता है और मुक्ति भी मिलती है। अभ्यास साधना मनुष्य,तिर्यंच बैठे हैं ---- भगवान की दिव्य ध्वनि खिर रही है ---- सब जीवs सामूहिक रूप से की जावे तो विशेष लाभ मिलता है। निर्देशन करने वाला एक व्यक्ति धर्म उपदेश सुन रहे हैं, जय जयकार मचा रहे हैं। देखो देखो वह कितने भव्य जीव होवे तो बहुत उपयोग लगता है। मनुष्य साधु होते जा रहे हैं ---- अपने आत्म कल्याण के लिये पाप परिग्रह का आगे पिंडस्थ ध्यान का वर्णन करते हैंत्याग कर रहे हैं---- भगवान की दिव्य ध्वनि खिर रही है ---- इसी रूप में पिंडस्तं न्यान पिंडस्य,स्वात्मचिंता सदा बुधैः। अपने को देखना है ---- मैं स्वयं सर्वज्ञ परमात्मा हूँ---- देखो देखो वह चारों तरफ जय जयकार मची है ---- देखते रहो अपने को इसी दशा में देखते रहो --.. निरोधनं असत्य भावस्य, उत्पाचं सास्वतं पदं ।। १८३॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी गाथा-१८३,१८४ n ou आत्म सद्भाव आरक्तं, पर द्रव्यं न चिंतये । तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं, यह सब जड़ पुद्गल अचेतन हैं। मैं ज्ञान स्वभावी चैतन्य तत्व हूँ ऐसी सत्श्रद्धा होने से अन्तरात्मा हुआ न्यान मयो न्यान पिंडस्य, चेतयंति सदा बुधैः ।। १८४॥ . और अब इन संसारी प्रपंच जन्म-मरण के चक्र, संकल्प-विकल्प के जाल से छूटने अन्वयाथ- (पिडस्त न्यानपिडस्य) ज्ञान कापड आत्मा का ध्यान करना के लिये अपने ज्ञानानंद स्वभाव में रहने के लिये इन कर्मों से छूटने मुक्त होने के लिये पिंडस्थ ध्यान है (स्वात्मचिंता सदा बुधैः) हे ज्ञानी साधक! हमेशा अपने आत्मा सत्परुषार्थ करता है। उसका पहला उपाय है भेदज्ञान का अभ्यास और धर्म ध्यान का चिन्तवन करो (निरोधनं असत्य भावस्य) इससे असत्य भावों का निरोध होता की साधना। है अर्थात् शुभाशुभ भाव पैदा ही नहीं होते (उत्पाद्यं सास्वतं पदं) शाश्वत पद अपना वर्तमान में कर्म संयोग, मोह-राग का सद्भाव होने से तीव्र पुरुषार्थ काम नहीं ध्रुव स्वभाव प्रगट होता है। हैं करता फिर भी ज्ञानी पुरुषार्थ हीन नहीं है इसलिये जब जैसा योग बनता है, सत्संग (आत्म सद्भाव आरक्तं) आत्म स्वभाव में लीन रहने से (पर द्रव्यं न चिंतये) स्वाध्याय और ध्यान साधना अपनी सुरत रखने, अपना स्मरण बना रहने का अभ्यास पर द्रव्य का चिन्तन ही नहीं होता, स्मरण नहीं आता (न्यान मयो न्यान पिंडस्य) करता है। इसी के अन्तर्गत यह पदस्थ पिंडस्थ ध्यान आते हैं। पदस्थध्यान का पूर्व ज्ञानमयी ज्ञान का पिंड जो निज शुद्धात्मा है (चेतयंति सदा बुधैः ) हे ज्ञानी ! हमेशा में वर्णन किया. यहाँ पिंडस्थ ध्यान का वर्णन करते हैं, जिसमें पाँच धारणाओं के इसका चिन्तवन अर्थात् आराधन ध्यान करो। माध्यम से साधक अपने उपयोग को अपने में लगाता है। इससे भेदज्ञान पूर्वक विशेषार्थ- पिंडस्थ ध्यान अपने ज्ञान के पिंड असंख्यात प्रदेशों का समूह प्रत्यक्ष आत्मानुभूति होती है। इसके लिये एकान्त निर्जन स्थान में बैठकर, (अगर शुद्धात्म स्वरूप का चिन्तवन ध्यान करना है। इससे असत्य शुभाशुभ भाव विला श्मशान में बैठकर यह ध्यान किया जावे तो अधिक उपयोगी सिद्ध होवे) अपने जाते हैं, पैदा ही नहीं होते। अपना शाश्वत पद ध्रुव स्वभाव प्रगट हो जाता है । ज्ञान पिंड शुद्धात्म स्वरूप को इस पुद्गल पिंड से भिन्न अनुभव इसलिये साधक को हमेशा इसी का ध्यान करना चाहिये। ॐ करो। मैं मात्र ज्योति स्वरूपचेतन लक्षण शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्व हूँ----यह आत्म स्वभाव में लीन रहने से, हमेशा इसी का चिन्तवन ध्यान करने से पर शरीरादि कर्मों का अनादि से संयोग लगा है----अब इनसे मुझे छूटना है---- द्रव्य शरीरादि पर पदार्थों का चिन्तन स्मरण ही नहीं आता; इसलिये ज्ञानी को हमेशा और उसका एक मात्र उपाय अपने शुद्ध स्वभाव में रहना है ----पर के प्रति कोई अपने ज्ञानमयी ज्ञान समूह शुद्धात्मा का चिन्तवन ध्यान करना चाहिये। पिंडस्थ मोह, राग-द्वेष न होवे----कुछ भी होता रहे----कोई कुछ करे---- मुझे ध्यान करने के लिये पाँच धारणायें बताई गई हैं-पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी खेद खिन्नता राग-द्वेष नहीं होना चाहिये। इसकी साधना अभ्यास के लिये---- और तत्व रूपवती, इन धारणाओं के माध्यम से साधक को अपूर्व आनंद आता है, अपने आपको शरीर से पृथक रखते हुए ---- शरीर को मृतक अवस्था में देखे - आत्म बल बढ़ता है, निज शुद्धात्मानुभूति होती है। --- मैं जीव आत्मा इस शरीर से निकल गया हूँ---- यह शरीर मर गया है, सब पिउस्थ ध्यान में पांच धारणाओं की विधि-पिंड -समूह को भी कहते हैं धन वैभव कुटुम्ब परिवार छूट गया है----देखो इस दशा में अपने आपको देखो और शरीर को भी कहते हैं। यह ज्ञान का पिंड अरस अरूपी अस्पर्शी एक अखंड ---- मैं यह ज्योति मात्र, चैतन्य तत्व ज्ञायक स्वभावी शरीर से निकल गया हूँ अविनाशी ध्रुव तत्व ज्ञानानंद स्वभावी भगवान आत्मा अनादि से इस पुद्गल पिंड ---- यह पुद्गल पिंड शरीर अचेतन पड़ा है ---- परिवार के लोग मित्र बंधु शरीर में कर्मों से घिरा हुआ है और अपनी अज्ञानता से यह शरीरादि ही मैं हूँ, ऐसा अर्थी बना रहे हैं----श्मशान यात्रा की तैयारी कर रहे हैं। मैं देख रहा हूँ---- मानता आया है और इसी कारण संसार में चारगति चौरासी लाख योनियों में अनन्त अर्थी पर शरीर को रखकर ले जाया जा रहा है ---- मैं देख रहा हूँ ---- श्मशान बार जन्म-मरण किया। सद्गुरू कृपा, काललब्धियोग,भेदज्ञान के अभ्यास से इसे भूमि में चिता बनाई जा रही है ----शरीर को उस पर रख दिया गया है ---- 9 वस्तु स्वरूप का ज्ञान स्व-पर भेदविज्ञान हुआ और मैं एक अखंड अविनाशी चेतन चारों तरफ से आग लगाई जा रही है ----मैं चिन्मय चैतन्यज्योति ज्ञायक भाव से Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 श्री आवकाचार जी देख रहा हूँ - संसार का स्वरूप प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है --- • सब छूट गया - जिनको अपना मानते थे वही इस शरीर की यह दुर्दशा कर रहे हैं. - चारों तरफ से आग जल रही है, लपटें निकल रही है --शरीर जल रहा हैचैतन्य इन सबसे भिन्न हूँ- - कर्मावरण कार्माण तैजस शरीर अभी साथ लगा है - मैं शुद्ध ---- गया➖➖➖➖ - - ओ हो हो -यही मुझे संसार में रुलाने वाले हैं। • जन्म-मरण के कारण यही हैं - शरीर जल गया - घर परिवार धन वैभव संयोग सब छूट अब इस कर्मावरण कार्माण तैजस शरीर को भी जलाना है। ध्यानाग्नि लगाना है। सावधान, सावधान - देखो वह अपना सिद्ध स्वरूप - शुद्धं प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं • बस अब इसी ध्रुव तत्व ममल स्वभाव में लीन होना है • इसी से यह कर्मावरण कार्माण तैजस शरीर जलेगा सावधान - सिद्धोहं - सिद्धोहं- - ज्ञान स्वरूपोऽहं - ध्यानाग्नि - चारों तरफ से लपटें उठ रही हैं. - हैं हैं हैं --- मैं अपने --- ---- ---- प्रज्वलित हो गई ज्ञानानंद स्वभाव में लीन हूँ - कर्मावरण जल रहा है ज्ञानावरण दर्शनावरण -मोहनीय अन्तराय - चारों • सब जलते जा रहे हैं तरफ प्रकाश ही प्रकाश हो रहा है. • बिल्कुल शुभ्र स्वच्छ अर्क- - सुअर्क - -- सुअर्क - प्रकाश ही प्रकाश - सारे कर्म समूह जले जा रहे हैं---- नाम---- - आयु• गोत्र-- • वेदनीय -- सब जल गये चैतन्य ज्योति ज्ञान पिंड -शुद्धं प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं अपने स्वरूप में लीन - जय हो जय हो अग्नि शांत होती जा रही है। और कुछ नहीं है -- मैं ➖➖➖➖ • परमानंदमय -- - चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश फैला है. ---- • - -- कोई नहीं है - --- - कर्मावरण की राख चारों तरफ बिखरी पड़ी है. -वायु चल रही है सांय - सांय सांय - तेज वायु • सारी राख उड़ती जा रही है, -- ➖➖➖➖ -- में ---- परम उड़ती जा रही है - - सब कर्म कालिमा साफ हो रही है. • राख उड़ गई - शेष - बादल गरजने लगे. -मूसलाधार वर्षा हो रही है। सारी कालिमाबची हुई राख सब पानी बह गई, कालिमा धुलकर स्वच्छ हो गई जय हो जय हो - पूर्ण शुद्ध - - मुक्त परमज्योति जय-जय परमानंद जय जय जय जय आत्मानं - परमात्मानं - जय जय विंदस्थाने ज्योति प्रकाश पुंज --- --- सिद्ध स्वरूप चिदानंद जिन आत्मानं ➖➖➖➖ - जय जय सोहम् रूप - समय शुद्धं - नमस्कृतं - ➖➖➖➖ -- ——— --- --- ➖➖➖➖ ---- ➖➖➖➖ ➖➖➖➖ ——— ➖➖➖➖ ➖➖➖➖ |➖➖➖➖ ---- ---- ➖➖➖➖ ➖➖➖➖ ➖➖➖➖ ---- ---- --- ---- ---- ---- -- ---- ——— ---- ---- -- ➖➖➖➖ ---- --- ---- ---- ——— ---- ---- ---- ---- --- ---- ---- ---- ---- ---- - --- ---- ---- ---- ——— SYO AYAT YANA YA ARA YEAR. 5 १२० गाथा १८५.१८७ - नमस्कृतं महावीरं ➖➖➖➖ -बस ——— धारणा है --मात्र ज्ञान पिंड - जय हो विंदस्थाने नमस्कृतं बस अब इसी सिद्ध दशा-शुद्ध स्वरूप में लीन रहना है - - यही तत्व रूपवती • सच्चिदानंद घन परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप - ॐ नमः सिद्धं जय हो ॐ नमः सिद्धं - ॐ शान्ति ॐ नमः सिद्धं - - ॐ शान्ति - ॐ शान्ति सद्गुरुदेव तारण स्वामी की जय. स्वस्थ होकर बैठ जाईये मंत्र जप कीजिये - अभी आँखें नहीं खोलना, दो मिनिट बिल्कुल मौन शांत ---- अब आँखें खोलिये - बोलो रहिये । यह पिंडस्थ ध्यान की विधि का प्रयोग है, जो सहज दशा में सभी जीव कर सकते हैं, इसके साधना अभ्यास करने से भेदज्ञान और निज शुद्धात्मानुभूति होती है, आर्त रौद्र ध्यान का परिहार होता है, शुभाशुभ भाव भी नहीं होते, वैराग्य का जागरण होता है, चित्त में समता शांति रहती है, पर के विकल्प भी छूट जाते हैं । आगे रूपस्थ ध्यान का वर्णन करते हैं --- --- --- -- ---- ---- ---- ➖➖➖➖ ---- ➖➖➖➖ --- ➖➖➖➖ ➖➖➖➖ ➖➖➖➖ ---- -- ➖➖➖➖ जय ---- रूपस्तं सर्व चिद्रूपं, आर्ध ऊर्ध च मध्ययं । सुद्ध तत्व स्थिरी भूतं, ह्रींकारेन जोइतं ।। १८५ ।। चिद्रूपं सर्व चिदुपं, धर्म ध्यानं च निश्चयं । मिथ्यात राग मुक्तं च ममलं निर्मलं धुवं ।। १८६ ।। रूपस्तं अहंत रूपेन, ह्रींकारेन दिस्टते । उकारस्य ऊर्धस्य अर्थ सु ।। १८७ ।। " अन्वयार्थ - (रूपस्तं सर्व चिद्रूपं ) चित्स्वरूप चैतन्य तत्व का ध्यान करना, स्वरूप में स्थित होना रूपस्थ ध्यान है (आर्ध ऊर्धं च मध्ययं) जो अधो ऊर्ध्व और मध्य में त्रिलोक में व्याप्त है (सुद्ध तत्व स्थिरी भूतं) ऐसे अपने शुद्ध तत्व में ठहरकर (ह्रींकारेन जोइतं ) तीर्थंकर सर्वज्ञ स्वरूप को देखना । (चिद्रूपं सर्व चिद्रूपं ) चित्स्वरूप सर्व चित्स्वरूप है ( धर्म ध्यानं च निश्चयं) यही निश्चय धर्म ध्यान है (मिथ्यात राग मुक्तं च ) जो मिथ्यात्व और रागादि से मुक्त है (ममलं निर्मलं धुवं) अमल है निर्मल है ध्रुव है । (रूपस्तं अर्हत रूपेन) रूपस्थ ध्यान अरिहन्त के स्वरूप का ( ह्रींकारेन Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACANC श्री आवकाचार जी दिस्टते) तीर्थंकरों के रूप में देखना (उवंकारस्य ऊर्धस्य) पंच परमेष्ठियों को जो ऊर्ध्वगमन करके (ऊर्धं च सुद्धं धुवं ) शुद्ध-ध्रुव, सिद्ध दशा में हो गये हैं- ऐसे अपने स्वरूप का विचार करना । विशेषार्थ - रूपस्थ ध्यान अपने चैतन्य स्वरूप का ध्यान करना है, जो अर्हत और सिद्ध के समान ध्रुव अविनाशी शुद्ध है, ऐसी तुलनात्मक दृष्टि से स्वगत और परगत अर्थात् स्वयं मैं ऐसा हूँ, सर्वज्ञ स्वरूप अरिहन्त - सिद्ध परमात्मा हूँ तथा परगत में अरिहन्त परमात्मा तीर्थंकर स्वरूप ऐसा है इसका विचार करते हुए अपने स्वरूप में स्थित होना ही रूपस्थ ध्यान है। - चैतन्य स्वरूप सर्व चैतन्य स्वरूप ही है, उसमें मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि कुछ भी नहीं है, वह तो सर्व मल रहित निर्मल और ध्रुव है, जो त्रिलोक में शाश्वत है सदा एक रूप ही है। स्वयं अरिहन्त के समान केवलज्ञानमयी सर्वज्ञ अनंत चतुष्टय का धारी तीर्थंकर परमात्मा है, ऐसे अपने शुद्ध स्वरूप का ध्यान करना ही रूपस्थ ध्यान है। इसके स्वगत-परगत दो भेद हैं, इनके माध्यम से अपने स्वरूप में लीन होना । सशरीरी अरिहन्त दशा के शुद्ध स्वरूप का ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है । रूपस्थ ध्यान करने की विधि - स्वस्थ - निराकुल, निःशल्य होकर ॐ ह्रीं श्री मंत्र का जप करें- णमो अरिहंताणं, अरिहन्त के स्वरूप का चिन्तवन करें, जो जीव आत्मा निज शुद्धात्मानुभूति सहित समस्त पाप-आरम्भ परिग्रह का त्याग कर निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी साधु होते हैं, तप, साधना रत्नत्रय की आराधना करते हुए अपने ममल स्वभाव में लीन रहते हैं, ध्यान समाधि लगाते हैं, इससे घातिया कर्म क्षय होकर अनन्तचतुष्टय केवलज्ञान प्रगट होता है। ---- more... -- अरिहन्त परमात्मा तीर्थंकर देव का समवशरण लगता है। सौधर्म इन्द्र, कुबेर समवशरण की रचना करते हैं। जिससे निज शुद्धात्मा में लीन हुए भव्य जीव अरिहन्त परमात्मा बनकर बैठते हैं। अपने को इसी रूप में उस स्थान पर बैठा हुआ देखें-- तीर्थकर परमात्मा के चौंतीस अतिशय, अष्ट प्रातिहार्य, चार चतुष्टय ऐसे छ्यालीस 5 गुण होते हैं. ——— ---- - इनका विचार चिन्तवन करें (ममल पाहुड़ फूलना - ९३ अतिशय चौंतीस) और यह अपनी आत्मा मे देखें • इनका आध्यात्मिक विशेष चिन्तन श्री तारण स्वामी ने किया है। जन्म के दस अतिशय- १. खेद का अभाव, २. मल का अभाव, ३. मिष्ट Sy you १२१ गाथा- १८५-१८७ वचन, ४. दूध समान रुधिर, ५. वज्रऋषभ नाराच संहनन, ६. समचतुरस्र संस्थान, ७. सुन्दर रूप, ८. सुगन्धता, ९. १००८ लक्षण, १०. अतुलबल । केवलज्ञान के दस अतिशय- १. जीव वध नहीं, २. सुभिक्ष चहुंओर, ३. उपसर्ग का अभाव, ४. आकाश में गमन ५. कवलाहार नहीं, ६. चारमुख सहितपना, ७. ईश्वरपना, ८. छाया रहितपना, ६. पलन न लगना, १०. नख केश न बढ़ना । देवकृत चौदह अतिशय- १. अर्धमागधी भाषा, २. बैर रहितपना, ३. फल फूल होना, ४ . पृथ्वी दर्पण सम, ५. सर्वधान्य फलना, ६. जनमन हर्ष, ७. धूल कंटक रहित भूमि, ८. सुगंधपना, ६. कमलों पर गमन, १०. निर्मल आकाश, ११. जल की वर्षा, १२. मंगलद्रव्य, १३. धर्म चक्र, १४. जय जय शब्द । अष्ट प्रातिहार्य( फूलना - ६४ ) १. अशोक वृक्ष, २ . दिव्यध्वनि, ३. चौसठ चमर, ४. भामंडल, ५. सिंहासन, ६. छत्रत्रय, ८. दुन्दुभिशब्द । अरिहन्त भगवान १८ दोष रहित होते हैं- १. जन्म, २. जरा, ३. तृषा, ४. क्षुधा, ५. विस्मय (आश्चर्य), ६. अरति, ७. खेद, ८. रोग, ९. शोक, १०. मद, ११. मोह, १२. भय १३. निद्रा, १४. चिंता, १५. स्वेद ( पसीना ), १६. राग, १७. द्वेष, १८. मरण । इस प्रकार अरिहन्त परमात्मा के गुणों का चिन्तवन करते हुए समवशरण में अपने आपको देखें- -- देखो - - - वह अनन्तचतुष्टय-- - सर्वज्ञ स्वभाव- -- --- ➖➖➖➖ पूर्ण शुद्ध परमानंदमय वाह वाह जय हो जय हो परमानंद सर्वांग से प्रस्फुटित हो रहा है- - ओंकार ध्वनि निकल रही है-अतीन्द्रिय आनंद ---अमृत रस बरस रहा है- -दिव्य ध्वनि खिर रही हैदेखो अपने आपको इस दशा में देखो- -- मैं स्वयं सर्वज्ञ परमात्माअरिहन्त भगवान --- --केवलज्ञानी तीर्थंकर हूँजिननाथ सुयं --- जिन --- जिनयति नन्तानंत -ममल पय मिलियं भय षिपिय अमिय रस परम सुइ सिद्धि जयं --उव --उवन पयं- ----- -- ➖➖➖➖➖ --- ----- --- ➖➖➖➖ रयंपयं ----- ----- --आ-हा-हा- ➖➖➖➖➖ ➖➖➖➖➖ --- - --- पर्जयभय गलिय- • भवियन अन्मोय तरन (ममल पाहुड़ फूलना - ९५ ) नन्त चतुष्टय सुयं रमन जिनु गुन नन्त नन्त छायालरयं । ----- तं नन्तानन्त उवएस रमन जिन- --अन्मोय समय सिहु सिद्धि जयं- • भवियन अमिय ➖➖➖➖➖ ➖➖➖➖➖ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Coco श्री आवकाचार जी --- रमन रस सिद्धि जयं- - अर्हन्त सर्वन्य दिप्ति सुइ उवनं, दिष्टि दिप्ति रमन तं जिनय जिनु --- तं तारन तरन सहाइ सहज जिनु, अन्मोय समय सिहु सिद्धि जयंभवियन विंद रमन सम मुक्ति पयं--- ----| (ममल पाहुड़ फूलना - ९५ ) बस-बस- --- ऐसे ही इसी निर्विकल्प शून्य शांत दशा में लीन रहें ----- उपयोग बाहर जाने पर मंत्र जप करेंमें अपने आपको देखें---जय होकी जय ----- 1 - --- ---- -- 111 -- पुन: उसी सर्वज्ञ स्वरूप अरिहन्त दशा -- बोलो केवलज्ञानी- अरिहन्त परमात्मा --- ॐ नमः सिद्धं --- ॐ नमः सिद्धं --- ॐ नमः सिद्धं --- ॐ शान्ति -- ॐ शान्ति ॐ शान्ति-- यह रूपस्थ ध्यान का प्रयोग है। आगे रुपातीत ध्यान का वर्णन करते हैं रुपातीत विक्त रूपेन, निरंजनं न्यान मयं धुवं । मति श्रुत अवधिं दिस्टा, मनपर्जय केवलं धुवं ॥ १८८ ।। अनंत दर्शनं म्यानं बीजं मंत सौभ्ययं । सर्वन्यं सुद्ध द्रव्यार्थं, सुद्धं संमिक दर्सनं ॥ १८९ ॥ अन्वयार्थ (रुपातीत विक्त रूपेन) रूपातीत ध्यान अपने स्वरूप को व्यक्त करना, प्रगट अनुभूति में लेना है (निरंजनं न्यान मयं धुवं ) जो निरंजन सर्व कर्म मलादि से रहित ज्ञानमयी ध्रुव तत्व है (मति श्रुत अवधिं दिस्टा, मनपर्जय केवलं धुवं) जिसमें मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवलज्ञान यह पांचों ज्ञान एकरूप नित्य दिखाई देते हैं । (अनंत दर्सनं न्यानं) जो अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान (वीर्ज नंत सौष्ययं) अनन्त वीर्य और अनन्त सुखमयी है (सर्वन्यं सुद्ध द्रव्यार्थं ) सर्वज्ञ स्वरूप शुद्ध द्रव्य निज आत्म तत्व है (सुद्धं संमिक दर्सनं) ऐसा देखना शुद्ध सम्यक्दर्शन है यही रूपातीत ध्यान है । SYANAN YEN A YEAR AT G रुपातीत ध्यान सिद्ध स्वरूप का स्मरण ध्यान करना, सिद्ध के गुणों का चिन्तन करते हुए सिद्ध के समान अपने आत्मा का यथार्थ स्वरूप ध्यावें । जैसे सिद्ध भगवान हैं वैसा मैं हूँ, मैं ही सर्वज्ञ हूँ, ज्ञानापेक्षा सर्वव्यापक हूँ, सिद्ध स्वरूप हूँ, मैं ही गाथा- १८८, १४९ साध्य हूँ, संसार से रहित हूँ, परमात्मा हूँ, परमज्योतिर्मय हूँ, सकल दर्शी हूँ, मैं ही सर्व अंजन से रहित निरंजन शुद्ध हूँ, ऐसा ध्यान करें तब अपना स्वरूप निश्चल अमूर्तीक कलंक रहित जगत में श्रेष्ठ चैतन्य मात्र ध्यान ध्याता ध्येय के भेद रहित ऐसा अतिशय रूप प्रकाशमान होता है। १२२ जहं ध्यान ध्याता ध्येय को, न विकल्प वच भेद न जहाँ । चिद्भाव कर्म चिदेश कर्ता, चेतना किरिया तहाँ ॥ तीनों अभिन्न अखिन्न, शुद्ध उपयोग की निश्चल दशा। प्रगटी जहाँ दृग ज्ञान व्रत ये, तीन धा एकै लसा ॥ (छहढाला - ६ / ९ ) शरीरादि से रहित निज चैतन्य ज्योति, ज्ञानानंद स्वभाव में लीन हो जाना ही रूपातीत ध्यान है । यह ध्यान सब विकल्प जालों से, भेदभावों से भिन्न करके परमामृत रस में डुबाता है। इसके बार-बार अभ्यास साधना करने से परम शान्ति परमानंद और सिद्ध पद की प्राप्ति होती है। ध्यान के काल में असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा अपने आप होती है। अन्तरात्मा, सम्यकदृष्टि साधक हमेशा इन्हीं ध्यान साधनाओं में अपने उपयोग को लगाता है, समय का सदुपयोग करता है। उसका समाधान करते हैं कि वर्तमान में निर्विकल्प ध्यान तो होता नहीं है, सविकल्प ध्यान ही होता है। अपने उपयोग और मन को लगाने के लिये बहुत प्रयास साधना और अभ्यास करना पड़ता है। इसके लिये मंत्र जप से मन को शांत किया विशेषार्थ रूपातीत अर्थात् रूप से अतीत- सिद्ध स्वरूप का ध्यान करना 5 जाता है। इसकी दो विधि हैं कि या तो जोर-जोर से पूरी शक्ति से चिल्लाकर मंत्र रुपातीत ध्यान है। जप करो तो मन शांत और शरीर भी शून्य हो जाता है या मंत्र जप की इतनी तीव्र प्रक्रिया अन्तर में चलना चाहिये कि सिर्फ मंत्र ही गूंजता रह जाये। उपयोग को लगाने के लिये चिन्तन की धारा बदलना पड़ती है। जो अभी पदस्थ पिंडस्थ आदि ध्यानों के अभ्यास में बताया है, वैसा करने से उपयोग अपने में लगने लगता है क्योंकि यहाँ कोई प्रश्न करे कि हम भी सामायिक करते हैं, मंत्र जप करते हैं, एकाग्र शान्त होने के लिये ध्यान का अभ्यास करते हैं परन्तु न जाने कहाँ-कहाँ के भाव आने लगते हैं। हम उस दशा में ज्यादा देर बैठ ही नहीं सकते, घबराहट मच जाती है। स्वाध्याय और मंत्र जप से भी यही होता है, मन न जाने कहाँ-कहाँ चला जाता है ऐसे में हम क्या करें ? ne Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w श्री आचकाचार जी वर्तमान में तो आर्त-रौद्र ध्यान ही अपने आप चलते हैं। इनसे बचने हटने के लिये ही एकमात्र निज चेतन लक्षण शुद्ध स्वभाव ही है और इसी के आश्रय इसी की साधना यह धर्म ध्यान की साधना है। साधना का लक्ष्य आत्म कल्याण मुक्ति की प्राप्ति होवे चिन्तन-मनन करने, अपने ऐसे शुद्ध स्वभाव में लीन रहने पर ही परम सुख। और पुरुषार्थ पूर्वक लगो तो यह सब हो सकता है। परमशांति, परमानंद मोक्ष मिलता है, जिसे अरिहन्त सिद्ध पद कहते हैं। यह बाहर ध्यान से ही कमों की निर्जरा होती है। * में किसी पर के आश्रय से नहीं मिलता और परजीव जो उस दशा में हो गए हैं, ज्ञान ध्यान की साधना ही एकमात्र साधक का पुरुषार्थ है। उनका आश्रय करने, पूजन वन्दना भक्ति करने से भी सत्य धर्म उपलब्ध नहीं। घर परिवार में फंसे रहो, पाप परिग्रह में लगे रहो, मोह-राग में धंसे रहो और होता। वह तो निज के आश्रय निज स्वभाव में ही निज के पुरुषार्थ से प्रगट होता हैसमता शांति या सामायिक ध्यान करना चाहो तो नहीं हो सकता। इसके लिये पूर्व इसी बात को देवसेनाचार्य तत्वसार में कहते हैंमें ही ध्यान करने वाले के लक्षण और पात्रता बता दी है, तभी ध्यान सामायिक हो। झाणेण कुणउ भेयं,पुग्गल जीवाण तहय कम्माणं। सकती है। संसार शरीर भोगों से विरक्ति, विषय-कषायों से निवृत्ति हो तभी ध्यान में घेत्तव्वो णिय अप्पा, सिद्ध सरूवो परो बंभो ॥ २५॥ सामायिक होती है। ज्ञानी, ध्यान के बल से जीव और पुद्गल तथा जीव और कर्म का भेद करके रूपातीत ध्यान अपने निरंजन ज्ञानमयी ध्रुवतत्व जो पंचमज्ञानमयी अनन्त अपने आत्मा को सिद्ध स्वरूपी परम ब्रह्म जानता है। चतुष्टयधारी, सर्वज्ञ स्वरूप शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से है इसका जो श्रद्धान करता है, धर्म चर्चा का विषय नहीं अनुभूति का विषय है, भेवज्ञान के द्वाराजानकर वही शुद्ध सम्यक्दृष्टि है तथा इसी की अनुभूति लीनता रूपातीत ध्यान है। हैं जो इसका ध्यान करता है, उसको प्रत्यक्ष अनुभूति में आता है कि यह शरीरादि ऐसे जो शुद्ध धर्म का श्रद्धान कर उसकी साधना के मार्ग पर चलता है वही पुदगल भिन्न है और मैं चेतन लक्षण जीव आत्मा भिन्न है तथा यह कर्म भी सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा होता है। S मेरे से भिन्न है, मैं तो सिद्ध स्वरूपी परमब्रह्म परमात्मा हूँ। ऐसा अन्तरात्मा जिसे भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति हो गई है उसकी अपने स्वरूप को कैसा जानता है इसी बात को आगे कहते हैंक्या विशेषता होती है, इसे आगे कहते हैं मल रहिओ णाणमओ,णिवसइ सिद्धीए जारिसोसिद्धो। प्रति पूर्न सुद्ध धर्मस्य,असुद्धं मिथ्या तिक्तयं । तारिसओ देहत्थो,परमो बंभो मुणेयवो ॥ २६॥ सुख संमिक संसुख, साध संमिक दिस्टितं ॥ १९॥ जैसा कर्म मल से रहित ज्ञानमयी सिद्धात्मा, सिद्ध स्वरूप में निवास करता है, वैसा ही मैं परमब्रह्म स्वरूप आत्मा देह में स्थित हूँ ऐसा जानता है। अन्वयार्थ- (प्रति पूर्न सुद्ध धर्मस्य) शुद्ध धर्म का, निज शुद्ध स्वभाव का इसी बात को योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते हैंजिसे परिपूर्ण श्रद्धान हो गया (असुद्धं मिथ्या तिक्तयं) अशुद्ध मिथ्या मान्यता छूट अप्पिं अप्पु मुणतु जिउ सम्मादिठ्ठि हवेई। गई (सुद्ध संमिक संसुद्ध) परमशुद्ध निजशुद्धात्मा की (साधू संमिक दिस्टित) साधना सम्माइडिउ जीवडउ लहु कम्मई मुच्चेई ॥ ७६॥ में रत सम्यक्दृष्टि है। अपने को अपने से जानता हुआ यह जीव सम्यक्दृष्टि होता है और सम्यक्दृष्टि विशेषार्थ- सच्चे धर्म के श्रद्धानी सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा की क्या विशेषता 5 हआ संता जल्दी कर्मों से छूट जाता है। उसकी अशुद्ध मिथ्या मान्यता छूट जाती है। होती है, वह यहाँ बताया जा रहा है। अन्तरात्मा को सच्चे धर्म निज शुद्ध स्वभाव का अर्थात वह पर को अपना नहीं मानता, इसके विपरीत अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव कैसा परिपूर्ण श्रद्धान अनुभूति हो गई है। जिससे अशुद्ध पुण्य-पापादि बाह्य क्रियाओं में मानता है इसे कहते हैंए धर्म मानने की मिथ्या मान्यता छूट गई है। वह अपने परमशुद्ध, निज शुद्धात्मा की जणणी जणणु वि कंत घरु पत्तु वि मित्तु वि दव्यु । ही श्रद्धा साधना करता है। पर में या पर से धर्म का कोई संबंध नहीं है। धर्म तो माया जालु वि अप्पणउ मूढ मण्णइ सव्वु ॥ ३ ॥ Detatodernetstaldier Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी मूढ क्या मानता है ? माता-पिता और स्त्री, घर और बेटा-बेटी, मित्र आदि सब कुटुम्बी जन बहिन, भानजी, नाना-मामा, भाई-बंधु और रत्न- माणिक, मोती, स्वर्ण-चांदी, धन-धान्य, नौकर-चाकर (द्विपद), घोड़ा, ऊँट, हाथी, रथ, पालकी (चौपाए) यह सर्व मायाजाल असत्य है, कर्म जनित है तो भी अज्ञानी जीव इन्हें अपने मानता है। दुक्ख कारण जे विसय ते सुह हेउ रमेइ । मिच्छाडि जीवडउ इत्थु ण काई करेइ ॥ ८४ ॥ दुःख के कारण जो पांच इंद्रियों के विषय हैं, उनको सुख के कारण जानकर रमण करता है, वह मिथ्यादृष्टि जीव इस संसार में क्या नहीं करता ? सभी पाप करता है अर्थात् जीवों की हिंसा करता है, झूठ बोलता है, दूसरे का धन हरण करता है, दूसरे की स्त्री सेवन करता है, अति तृष्णा करता है, बहुत आरंभ करता है, खेती करता है, खोटे-खोटे व्यसन करता है, जो न करने योग्य कार्य हैं उनको भी करता है । सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा की यह मिथ्या मान्यता छूट जाती है, वह इनको किसी को भी अपने इष्ट या हितकारी नहीं मानता। यहां कोई प्रश्न करे कि अव्रती तो इन्हीं सबमें लगा रहता है फिर कैसे माना जाए कि यह सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा है ? SYA YA YA ART YEAR. गाथा १९० चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ मैं यह शरीरादि नहीं हूं और न यह शरीरादि मेरे हैं। ऐसा निर्णय सत्श्रद्धान होने का नाम ही सम्यक्दर्शन है उसे ही सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा कहते हैं । उसकी मिथ्या मान्यता बदलते ही सत्यधर्म की उपलब्धि हो जाती है। वह अपनी पात्रता कर्म उदयानुसार उस दशा में रहता है परन्तु उसके श्रद्धान में तो निरन्तर अपना ध्रुव तत्व शुद्धात्म स्वभाव ही झूलता है फिर वह किसी बाहरी क्रिया पुण्य-पापादि को धर्म नहीं मानता फिर उसको संसारी वेदना नहीं होती बल्कि सबके बीच रहता हुआ दोष रहित गुण सहित सुधी जे, सम्यक्दर्श सजै हैं । चरित मोहवश लेशन संजम, पै सुरनाथ जजै हैं ॥ गेही पे गृह में न रचे ज्यों, जल तें भिन्न कमल है। नगर नारि को प्यार यथा, कादे में हेम अमल है ॥ (छहढाला ३/१५) सम्यक्दर्शन की महिमा बड़ी अपूर्व है और इसकी उपलब्धि भी सहज साध्य है। अपने आपको जानना ही तो सम्यक्दर्शन है। इसके होने पर ५८ लाख योनियां छूट जाती हैं। प्रथम नरक विन षट् भू ज्योतिष, वान भवन षंढ नारी । थावर विकलत्रय पशु में नहिं, उपजत सम्यक्धारी ॥ उसका समाधान करते हैं कि भाई! यह तो श्रद्धान-मान्यता की बात है, अभी क्रिया रूप परिणमन की बात नहीं है, सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा के भीतर से इनके प्रति जो एकत्व की इष्टपने की मान्यता थी वह छूट गई है। अभी बाहर से संयोग नहीं छूटा है परन्तु वह भी जल्दी छूट जाने वाला है। जैसे किसी वृक्ष की जड़ टूट जाए, तो कितना बड़ा हरा भरा विशाल वृक्ष हो, उसके गिरने सूखने में कितने दिन लगेंगे अर्थात् जल्दी ही सूखकर गिर जायेगा, ऐसे ही सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा की दृष्टि, मान्यता से यह सब छूट गये हैं, मजबूरी में कर्मवशात रहता है। अपनी बात है और अपने को समझना है। इसके लिये ही तारण स्वामी ने इतना विस्तृत विवेचन किया है कि कहीं धोखा न हो जाये क्योंकि इसमें भी निश्चयाभासी व्यवहारभासी उभयाभासी होने का डर है और किसी अज्ञानी कुगुरु के जाल में फँसकर अपने श्रद्धान को डिगाना भी नहीं है क्योंकि इस दशा में दोनों तरफ से संभाल सावधानी की आवश्यकता है। आजकल लोग अपने आपको तो नहीं देखते और दूसरों का सम्यक्दर्शन देखते फिरते हैं तथा अपने कुतर्कों से संयम सदाचार से भी भ्रष्ट करते हैं। आप डुबन्ते पांडे, ले डूबे जिजमान । अपने आपमें हम स्वयं अपने को देखें, अपने सामने सद्गुरू की वाणी जिनवाणी आईना है, अपना निर्णय हम स्वयं करें कि हम क्या हैं ? न किसी को बताने की जरूरत है, हम स्वयं जानें या सर्वज्ञ जानें, दूसरा कोई जान ही नहीं सकता। यह अनुभूति का बड़ा सूक्ष्म विषय है। आगम में सभी प्रकार के प्रमाण हैं, किस अपेक्षा क्या कहा है ? इसका स्वयं विचार कर निर्णय करें। इसी बात को सद्गुरू विशेषता से आगे गाथा में कहते हैं194 यहां कोई कहे कि ऐसा तो हम भी मानते हैं कि यह हमारे कोई भी कुछ भी नहीं हैं, हम भी मजबूरी में रहते हैं, तो क्या हम भी सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा हो गये ? उसका समाधान करते हैं कि यही तो समझने का विषय है- सम्यक्दर्शन या सम्यक्दृष्टि होना कोई कठिन नहीं है। आप हम सब जो संसारी, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। जो जीव भेदज्ञान पूर्वक अपने आत्म स्वरूप की प्रतीति करता है, जिसको ऐसा अनुभूतियुत श्रद्धान हो जाता है कि मैं एक अखंड अविनाशी 5 24 १२४ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ moa श्री श्रावकाचार जी गाथा-१९१ DOO देव गुरु धर्म सुद्धस्य, साध न्यान मयं धुवं । है। जैसे -बीज बोने पर अंकुर, पत्ते,पुष्प आदि स्वयं होते हैं, लगाना करना नहीं मिथ्या त्रिविध मुक्तंच, संमिक्तं सुखं धुर्व ॥१९१।। पड़ते, इसी प्रकार सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा के जीवन में यह स्वयं घटित होते हैं.न। , होवें ऐसा भी नहीं होता क्योंकि बीज बोने पर अंकुर पत्ते न हों तो समझ लो बीज अन्वयार्थ- (देव गुरु धर्म सुद्धस्य) सच्चे देव गुरू धर्म का (सार्धं न्यान मयं 5 * बोया ही नहीं गया या सड़ गया, गल गया। इसी प्रकार सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा का धुव) तथा अपन ज्ञानमया घुव स्वभाव का साधना आर अचान करताह मथ्या अशुभ पापादि रूप परिणमन छूटता जाता है। शुभ पुण्यादि रूप परिणमन होता त्रिविध मुक्तंच) तीन प्रकार के मिथ्यात्व से मुक्त हो गया है और (संमिक्तं सुद्धं धुवं) सुख धुप) ४ जाता है और वह इन सबसे विरक्त अपने स्वभाव की साधना में लगा रहता है। पात्रता अपने शुद्ध सम्यक्त्व ध्रुव स्वभाव में रहता है। बढ़ने पर यह सब अपने आप छूट जाते हैं। हाथ पर हाथ रखकर बैठने की स्थिति विशेषार्थ-यहाँ अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि की विशेषता का वर्णन चल रहा है। बन जाती है और वह अपने स्वभाव साधना में रत रहता हुआ ध्यान समाधि में लीन अन्तरात्मा सच्चे देव गुरू धर्म का और अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की श्रद्धा और हो जाता है.४८ मिनिट में सर्वज्ञ केवलज्ञानी अरिहन्त परमात्मा हो जाता है, आयु साधना करता है । सच्चा देव - निजशुद्धात्मा, सच्चा गुरू-निज अन्तरात्मा, पूर्ण होने पर समस्त कर्मों को क्षय कर सिद्ध परमात्मा हो जाता है। सच्चा धर्म-निज शुद्ध स्वभाव और वह अपना ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव ही है, इसकी3 यहाँ फिर प्रश्न होता है कि यह बात समझ में नहीं आई फिर हमें यह कैसे पता साधना और श्रद्धान करता है। लगे कि यह अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि है उसकी पहिचान बताओ? यहाँ कोई प्रश्न करे कि क्या वह सच्चे देव अरिहन्त सिद्ध परमात्मा, सच्चे उसका समाधान करते हैं कि कौन सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा है, कौन मिथ्यादृष्टि गुरू निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु और दस लक्षण धर्म को नहीं मानता, इनका श्रद्धान नहीं बहिरात्मा है इसका पता लगाने से अपने को लाभ क्या है? अपने को स्वयं देखो कि करता? 5 स्वयं क्या हैं कौन हैं? क्योंकि जैसे हम हैं वैसा ही तो अपना होना है। यह मौका उसका समाधान करते हैं कि मुक्ति का मार्ग तो सम्यक्रदर्शनशान चारित्राणि मनुष्य पर्याय,सदगुरू की वाणी का शुभयोग, बुद्धि, पुण्य के उदय आदि का मिलना मोक्षमार्ग: है। अपने शुद्धात्मा की अनुभूति सम्यक्दर्शन, अपने स्वरूप का ज्ञान तोतभी सार्थक है कि हम स्वयं अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि हो जायें तो अपना भला है। सम्यज्ञान और अपने शुद्ध स्वभाव में रहना सम्यक्चारित्र है और वह इसी की यह सब सनने समझने लिखने पढ़ने तत्व चर्चा करने का प्रयोजन क्या है? पर को साधना करता है। व्यवहार में सच्चे देव जो उस रूप हो गये हैं अरिहन्त सिद्ध परमात्मा बताने या पर को देखने से अपना भला कभी नहीं हो सकता। हम स्वयं अपने को और सच्चे गुरू निर्ग्रन्थ दिगंबर वीतरागी साधु का बहुमान करता है। जिस मार्ग पर देखें और सदगरू की इस वाणी पर श्रद्धान बहुमान लायें कि मैं स्वयं तीन लोक का चलकर वह ऐसे बने और उन्होंने वही सत्य मार्ग बताया इसका उपकार मानता है सनाथ अनन्तचतष्टय का धारी रत्नत्रय स्वरूप भगवान आत्मा हूँ, सिद्ध स्वरूपी तथा सच्चा धर्म तो वह चेतना लक्षण निजशुद्ध स्वभाव ही मानता है, उसी की श्रद्धा शुद्धात्मा हूँ। अनादिकाल संसार में परिभ्रमण करते बीत गया । प्रत्यक्ष में ज्ञानी साधना करता है। इसमें वह निश्चय-व्यवहार का भेद नहीं करता और न मानता क्या? केवलज्ञानी तीर्थकर परमात्माओं को भी देखा परन्तु स्वयं न सुलटे तो क्या क्योंकि इसके भेद के कारण ही सब भेद हो रहे हैं। लाभ हुआ? इसी प्रकार अभी यह जान लें कि कौन सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा है, तो यहाँ पुनः प्रश्न होता है कि क्या वह दया दान व्रत संयम उत्तम क्षमा आदि को 5 इससे भी क्या लाभ मिलने वाला है ? हम स्वयं सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा बनें तभी धर्म नहीं मानता इनका पालन नहीं करता? अपना भला है और यही प्रयोजनीय है। अव्रत सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा कैसा होता है, उसका समाधान करते हैं कि वह धर्म तो अपना चेतन लक्षणशुद्ध स्वभाव ही इसी का वर्णन चल रहा है। बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि का स्वरूप भी बताया, सम्यक्दृष्टि (मानता है और उसी की श्रद्धा साधना करता है। वह तो सब उसके जीवन में उसकी अन्तरात्मा का स्वरूप भी बताया जा रहा है। उसकी विशेषता भी बताई जा रही है। पात्रतानुसार स्वयं घटित होते हैं, वह इनको करता नहीं है और न इनको धर्म मानता इसके द्वारा अपने को, पर को जिसे देखना चाहें देख लें परंतु पर को देखने से कोई १२५ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-१९१ P OON लाभ नहीं है। अपने को देखें तो अपना भला होवे। भेदज्ञान तत्व निर्णय का पुरुषार्थ बहिरात्मा पुद्गल को देखता है और उसके रचने की अनन्त भावना करता है, करेंतो स्वयं परमात्मा हो सकते हैं। शक्ति रूप से तो सभी जीव आत्मा परमात्मा हैं, जो हमेशा प्रपंच में लगा रहता है ऐसा बहिरात्मा संसारी प्राणी है। जिसने भेदज्ञान के वह शक्ति प्रगट रूप में व्यक्त हो तो अपना काम बने और यही कार्यकारी है क्योंकि द्वारा स्व-पर को जान लिया तथा जिसे निज शुद्धात्मानुभूति हो गई वह पर में क्या अभी तक हमारी दशा क्या हो रही है। * करेगा और पर काकर्ता क्यों बनेगा? क्योंकि यह जो कुछ भी बाहर में क्रिया कर्म है,७ परमात्मा बनता नहीं, धनवान बनने मर रहा। यह सब पुद्गल पर द्रव्य ही है, जब उसके ज्ञान में वस्तु स्वरूप आ गया, जिसने संयम तप करता नहीं, पाप परिग्रह कर रहा। अमृत का स्वाद चख लिया फिर वह जहर क्यों पियेगा? जिसने यह जान लिया कि हो गया इस जीव को क्या, कुछ समझ आता नहीं। यह आग है, यह जलाती है तो वह उसको क्यों छुएगा? अब यह बात अलग है कि दुर्गति में जाने फिरता, सद्गति जाता नहीं। । वर्तमान भूमिकानुसार उसे उस दशा संयोग में रहना पड़ता है; परंतु श्रद्धान में तो सब धनवान बनना भाग्य से,परमात्मा निज हाथ में। छूट ही गया। अब अपने को देखने में ऐसा लगता है कि इतने कर्म संयोग, इतनी उठा जो करेगा जैसा जो कुछ,जाये उसके साथ में। अ पटक में लगा है, इतनी उलझनों में फँसा है तो यह कैसे अपने आत्म स्वरूप की सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा तीनों प्रकार के मिथ्यात्व (मिथ्यात्व, सम्यक साधना करता होगा? इसके लिये तारण स्वामी ने इसी श्रावकाचार में एक उदाहरण मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व) दर्शन मोहनीय से मुक्त हो गया है क्योंकि तीनों दिया है कि समुद्र में मछली रहती है और अपने अंडे रेत में देती है और वह उन्हें मिथ्यात्व तथा चार अनंतानुबंधी के क्षय, उपशम, क्षयोपशम होने पर ही सम्यक्दर्शन छोड़कर मीलों दूर समुद्र में चली जाती है परंतु वह उनकी सुरत रखती है इससे उसके होता है तो अन्तरात्माजीव ने अपने ध्रुव स्वभाव को जान लिया है,शुद्ध सम्यकदृष्टि । अंडे बढ़ते हैं, अगर वह उनकी सुरत भूल जाये तो सब अंडे गल जाते हैं। इसी प्रकार हो गया है और अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की साधना में ही लगा रहता है। सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा बाहर में सब कुछ कर रहा है परन्तु अन्तर में अपने आत्म यहाँ कोई प्रश्न करे कि अन्तरात्मा अपने ध्रुव स्वभाव की साधना में ही लगाए स्वभाव की सुरत बनी रहती है और इसी से उसकी पात्रता बढ़ती है तथा इसी से वह रहता है, बाहर में यह पूजा-पाठ, जप-तप, संयम संसारी व्यवहार पुण्य-पाप आनंद में रहता है कहा हैआदि कुछ नहीं करता? क्योंकि अव्रत दशा में हमेशा अपने स्वभाव की साधना में जा सम्यगधारी की मोहिरीत लगत है अटापटी। नहीं लगा रह सकता? बाहर नारकीकृत दु:ख भोगत भीतर समरस गटागटी॥ इसका समाधान करते हैं कि यही तो समझने की बात है। यह बात समझ में यह बड़ी अपूर्व बात है जो अनुभवगम्य है। इसका बाहर से अनुमान भी नहीं आजाये तो अन्तरात्मा होने और अन्तरात्मा को पहिचानने में देर न लगे। अन्तरात्मा लगाया जा सकता, इतना सूक्ष्म विषय है। यह सम्यक्दर्शन की महिमा है और यह किसे कहते हैं ? तारण स्वामी ने पूर्व में बताया है। सम्यक्त्व की घोषणा है कि एक बार जीव मुझे ग्रहण कर ले फिर दो चार दस भव में विन्यानं जेवि जानंते, अप्पा पर परषये । मुक्ति पहुंचाये बगैर मैं छोड़ नहीं सकता। जीव मुझे छोड़ देवे, न जाना चाहे तो भी परिचये अप्प सद्भाव, अंतर आत्मा परपये ॥४९॥ एक बार के सम्पर्कमात्र से मैं उसे मुक्ति पहुँचाऊँगा ही। यह बड़ी अपूर्व बात है, अपने जो जीव भेदज्ञान जानता है, आत्मा और पर को पहिचानता है, जिसे अपने 5 जीवन में एक बार अपने शुद्धात्म तत्व की ओर दृष्टि हो जाये तो बेड़ा पार है; इसलिये आत्म स्वभाव का परिचय हो गया है उसे अन्तर आत्मा जानो। अन्तरात्मा सबके बीच रहता हुआ, देखने में सब कुछ करता लगता हआ भी, वह बहिरात्मा किसे कहते हैं इसे भी समझ लो कुछ नहीं करता मात्र अपने स्वरूप की साधना करता है। यह मात्र श्रद्धान सम्यक्दर्शन बहिरप्पा पुद्गलं दिस्टा,रचनं अनन्त भावना। की महिमा है, जब वह रत्नत्रय (सम्यक्दर्शन,सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र)की साधना परपंच जेन तिस्टते, बहिरप्पा संसार स्थितं ॥५०॥ करता है तो स्वयं परमात्मा हो जाता है। wdasion Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P अप्पा झाया OON श्री श्रावकाचार जी गाथा-१९९८ सम्यक्दर्शन का बीज ही मुक्ति का फल देता है - हे जीव! तू दूसरे तीर्थ को मत जावे, दूसरे गुरू को मत सेवे, अन्य देव को मत बाहर की क्रिया पाप-पुण्य, संयम तप आदि भूमिका पात्रतानुसार अपने आप ध्यावे । रागादि मल रहित आत्मा को छोड़कर अन्यत्र कहीं रमण मत कर, अपना । होते हैं वह कुछ नहीं करता। जिसके होते हैं वह ज्ञानी है, जो करता है वह अज्ञानी , आत्मा ही तीर्थ है, वहाँ रमण कर।आत्मा ही गुरू है उसकी सेवा कर और आत्मा ही है। इसी अन्तरात्मा की विशेषता को आगे की गाथा में कहते हैं * देव है उसी की आराधना कर। अपने सिवाय दूसरे का सेवन मत कर। देव देवाधिदेवं च, गुरू ग्रंथं च मुक्तयं । अप्पा दंसणु केवलु वि अण्णु सव्वु ववहारु। धर्म सुद्ध चैतन्यं, साध संमिक्तं धुवं ॥१९२ ।। एक्कु जि जोइय झाइयइ जो तइलोयह सारु॥ ९६॥ केवल एक आत्मा ही सम्यक्दर्शन है, दूसरा सब व्यवहार है इसलिये हे योगी! अन्वयार्थ- (देव देवाधिदेवं च) देवों का अधिपति देव इन्द्र और इन्द्रों के द्वारा है एक आत्मा ही ध्यान करने योग्य है जो कि तीन लोक में सार है। पूज्यनीय जो देव अरिहन्त सिद्ध परमात्मा (गुरू ग्रंथं च मुक्तयं) गुरू जो सब ग्रन्थि 5 अप्पा झायहि णिम्मलउ किं बहुएँ अण्णेण। बन्धनों से मुक्त हो गये (धर्म सुद्ध चैतन्यं) धर्म जो अपना शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। जो झायंत परम पउ लग्भइ एक्क खणेण ॥१७॥ (साध संमिक्तं धुवं) सम्यक्दृष्टि ऐसे ध्रुव स्वभाव की साधना करता है। हे योगी! तू निर्मल आत्मा का ही ध्यान कर और बहुत पदार्थों से क्या? विशेषार्थ-यहाँ सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा की विशेषता का वर्णन किया जा रहा है देश काल पदार्थ आत्मा से भिन्न हैं, पर जीव भी भिन्न हैं, उनसे कुछ प्रयोजन कि वह अपने धुव स्वभाव की ही श्रद्धा साधना करता है। देवों का अधिपति इन्द्रदेव नहीं है। रागादि विकल्प जाल के समूहों के प्रपंच से क्या लाभ ? एक निज और इन्द्रों द्वारा पूज्यनीय जिनेन्द्रदेव और जिनेन्द्र देव कौन ? शुद्धात्म तत्व । वह स्वरूप को ध्याओ। जिस ध्रुव तत्व शुद्धात्मा के ध्यान करने वालों को क्षण मात्र में कहाँ रहते है? निज चैतन्य स्वरूप में। वह किसकी साधना आराधना से जिनेन्द्र देव मोक्ष पद मिलता है। बने? निज शुद्धात्मा की। ए यहाँ भेदज्ञानी अन्तरात्मा की विशेषता का वर्णन चल रहा है, जिसका गुरू जो निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी साधु हैं वह क्या करते हैं? निज शुद्धात्म योगीन्ददेव ने भी परमात्म प्रकाश गाथा ९३ से १२३ तक विशद् वर्णन किया है। स्वरूप की साधना। यह साधु क्यों बने? इस दशा में कैसे आये ? धर्म का आश्रय यहाँ कोई प्रश्न करे कि इससे तो देव गुरू धर्म का कोई महत्त्व ही नहीं रहा लेकर मुक्ति के मार्ग पर चल रहे हैं, अपने ध्रुव स्वभाव परमानंदमय रहना है। फिर यह व्यवहार में देव गुरू धर्म की आराधना, वन्दना, भक्ति पूजन करने का क्या धर्म क्या है ? शुद्ध चैतन्य स्वरूप। वह कहाँ है? वह प्रत्येक जीव का निज प्रयोजन रहा? जब एक जिन शुद्धात्मा ही सब कुछ है,तो बस आत्मा ही आत्मा में स्वभाव है। यह किसको मिलता है, कहाँ मिलता है? जो भेदज्ञान पूर्वक स्व-पर का लगे रहो फिर संसार से. शरीर से, परिवार से या किसी से संबंध ही क्या है? ज्ञान करके निज स्वभाव को देखता है उसे वह अपने में ही मिलता है, तोजो अन्तरात्मा र उसका समाधान करते हैं कि भाई! जरा शान्त होकर सुनो समझो, यहाँ धर्म है, जिसने अपने चैतन्य स्वरूप को जान लिया है, उसका लक्ष्य देवत्वपना प्रगट का स्वरूप-धर्मी जीव की मान्यता श्रद्धान की बात चल रही है। जो जीव अपना करने का है, निर्ग्रन्थ दिगंबर वीतरागी साधु बनने का है, उसके ज्ञान में देव गुरूधर्म आत्म कल्याण करना चाहते हैं, संसार के परिभ्रमण जन्म-मरण से छूटना चाहते का स्वरूप स्पष्ट दिखाई दे रहा है और वह इसी लक्ष्य से अपने ध्रुव स्वभाव की 5 हैं, उन्हें एक मात्र धर्म का ही आश्रय शरण ग्रहण करना पड़ती है क्योंकि संसार में साधना श्रद्धान करता है। और किसी अन्य पदार्थ, अन्य जीव, पुण्य पापादि कर्मों से कभी भी यह झंझट मिटने इसी बात को योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते है, अन्तरात्मा की विशेषता वाली नहीं है। एक धर्म के आश्रय ही मुक्ति का मार्ग बनता है और धर्म क्या है? धर्म अण्णु जि तित्थुम जाहि जिय अण्णु जि गुरुउ म सेवि। अपना चैतन्य लक्षण शुद्ध स्वभाव है। जो जीव धर्म के अर्थात् निज स्वभाव के अण्णु जि देउ म चिंति तुहुँ अप्पा विमलु मुएवि ॥ ९५॥ आश्रय लगता है वह धर्मी सम्यक्दृष्टि ज्ञानी अन्तरात्मा कहलाता है और फिर धर्म की Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी साधना से ही मुक्ति मिलती है। निज स्वभाव साधना से ही अर्थात् उसी का ज्ञान, उसी का ध्यान, उसी में रमणता, उसी में लीनता, उसी में स्थिरता होने पर साधु पद हो जाता है। ४८ मिनिट अपने स्वभाव में रहने पर केवलज्ञान अरिहन्त पद हो जाता है। और अपने परमानंद स्वरूप वीतराग निर्विकल्प दशा में रहने से सब कर्म क्षय हो जाते हैं, इससे मुक्ति सिद्ध पद हो जाता है। अब यह बताओ कि यहाँ किसका क्या किया जाये ? क्योंकि पर को जानने मानने और पर में लगे रहने के कारण तो अनादिकाल बीत गया और कभी इस जीव को एक समय के लिये सुख साता नहीं • मिली। संसार में सब व्यवहार निभाया, खूब पुण्य करके स्वर्ग गये, पाप करके नरक गये। सब देव गुरू धर्म की आराधना वंदना भक्ति की, प्रत्यक्ष समवशरण में भगवान के सामने रहे परन्तु हुआ क्या ? जब तक भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्ध स्वभाव को नहीं जानते निज शुद्धात्मानुभूति नहीं होती, तब तक तीन काल भी भला होने वाला नहीं है। वर्तमान में पुनः मनुष्य भव और यह सब शुभयोग मिले हैं। सच्चे देव गुरू शास्त्र, धर्म का स्वरूप और मुक्ति का मार्ग क्या बता रहे हैं, उसे जानें- मानें उस ओर का पुरुषार्थ करें तो अपना भला होवे । देव गुरू धर्म की आराधना, वन्दना, भक्ति से क्या होने वाला है ? जब सच्चे देव गुरू धर्म वीतरागी हैं, उन्हें कुछ चाहिये ही नहीं तो फिर क्या प्रयोजन है ? और जब जैन दर्शन यह कहता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ करता ही नहीं है, कर ही नहीं सकता। एक पर्याय दूसरी पर्याय का कुछ नहीं कर सकती और एकएक समय की पर्याय क्रमबद्ध निश्चित है, उस पर्याय को इधर से उधर नहीं किया जा सकता तथा जिस समय जिस जीव का जिस द्रव्य का जैसा जो कुछ होना है वह अपनी तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा उसे कोई भी मनुष्य क्या, भगवान भी टाल फेर बदल सकता नहीं है, तो फिर अब क्या करने का शेष रहा ? जिसे इन सब बातों का ज्ञान और निर्णय स्वीकार होता है, वह ज्ञानी सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा होता है और वह ऐसी साधना करता है। संसारी जीव व्यवहार में क्या करते हैं, उसे इससे मतलब नहीं है, वह तो अपनी आत्म साधना में रत रहता है, यही उसकी विशेषता है छह अनायतन- कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र और इनके उपासकों की प्रशंसा सम्यक्दृष्टि नहीं करता। तीन मूढ़ता - देवमूढ़ता, लोक मूढ़ता, पाषंडी मूढ़ता (गुरु मूढ़ता ) इन सबसे सम्यकदृष्टि दूर रहता है। विवेक और निर्भयता से काम लेता है। जिसमें इन पच्चीस दोषों में से कोई से भी दोष दिखाई देते हैं, वह सम्यक्त्व से हीन होता है फिर वह चाहे व्यवहार में कितना ही कुशल होवे, ऊपर से सब कुछ आत्मा ही इष्ट और उपादेय है जो इसकी साधना आराधना में रत रहते 5 अच्छा करता हो परन्तु जहाँ श्रद्धान मान्यता में ही अंतर होवे, फिर वहाँ क्या है ? हैं, वह संसार से पार होते हैं। वह तो हमेशा संसार में ही भ्रमण करेगा। सम्यक्दर्शन संसार की मौत है फिर वह संसार में नहीं रह सकता। इसलिये तारण स्वामी इस श्रावकाचार ग्रन्थ में सबसे पहले सम्यक्त्व की बात करते हैं। अव्रत सम्यक्दृष्टि के गुण लक्षण विशेषता सब बताते हैं। इन सबको देव देवाधिदेव - शुद्धात्मा। वीतरागी निर्ग्रन्थ गुरू- अन्तरात्मा । धर्म-शुद्ध स्वभाव, तो सम्यकदृष्टि ज्ञानी नित्य इसी की साधना करता है और कुछ नहीं करता । जगत का सब परिणमन अपने आप होता है क्योंकि जब जैसा जो कुछ होना है वह Y YEAR GEASA YA. १२८ गाथा-१९३ सब निश्चित है, ऐसा जो स्वीकार करता है वही सम्यकदृष्टि है इसी बात को आगे कहते हैं संमिक्तं जस्य जीवस्य, दोषं तस्य न पस्यते । न तु संमिक्त हीनस्य, संसारे भ्रमनं सदा ।। १९३ ।। अन्वयार्थ (संमिक्तं जस्य जीवस्य) जिस जीव को सम्यक्त्व हो गया है (दोषं तस्य न पस्यते) उसमें शंकादि पच्चीस दोष नहीं दिखते ( न तु संमिक्त हीनस्य) यदि कोई दोष दिखाई देते हैं, तो वह सम्यक्त्व से हीन है (संसारे भ्रमनं सदा) वह हमेशा संसार में ही भ्रमण करेगा। विशेषार्थ यहाँ अन्तरात्मा सम्यकदृष्टि की विशेषता बताई जा रही है कि जिस जीव को सम्यक्त्व होता है उसमें कोई दोष दिखाई नहीं देते। सम्यक्त्व के पच्चीस दोष होते हैं- शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन, तीन मूढ़ता। इनका वर्णन गाथा क्र. २९ में आ गया है, यहाँ संक्षेप में कहते हैं शंकादि आठ दोष- शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य, अप्रभावना । सम्यक्दृष्टि इन दोषों से रहित होता है। आठ मद- ज्ञानमद, पूजा मद, कुल मद, जाति मद, बल मद, ऋद्धि मद, तप मद, रूप मद । संसारी पर वस्तु और शरीरादि संयोग का घमंड करना मद है। यह सम्यकदृष्टि को होते ही नहीं है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०७ श्री आवकाचार जी देखकर अपने में अपना निर्णय करें तभी मुक्ति का मार्ग बनता है। श्रावक के व्रत संयम तप पालना तभी सार्थक है जब मूल में सम्यक्दर्शन होवे । आत्मा के श्रद्धान बिना धर्म का मार्ग बनता नहीं है। अव्रत असंयम पापादि का सेवन करने से नरक तिर्यंच गति में जाना पड़ेगा। व्रत संयम पुण्यादि का सेवन करे और मूल में सम्यक्त्व न होवे तो उससे देवगति मनुष्य गति में ही चक्कर लगाना पड़ेंगे, मोक्ष नहीं मिल सकता। मोक्ष तो भेदज्ञान पूर्वक शुद्धात्मानुभूति के बगैर मिलता ही नहीं है। हमें इस मनुष्य भव में तीन शुभयोग मिले हैं- १. बुद्धि, २. औदारिक शरीर, ३. पुण्य का उदय, इन तीनों का सदुपयोग करें, तो हम विवेकवान मानव हैं, इनका सदुपयोग करने से ही सम्यक्दर्शन की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। १. बुद्धि से - तत्व का निर्णय, भेदज्ञान करें, इसी से सम्यक्दर्शन होता है। २. शरीर से - संयम तप का पालन करें इससे सद्गति मिलती है। ३. पुण्य के उदय से परोपकार दान आदि करें, जिससे संसारी ऐश्वर्य मिलता है। सम्यक्त्व का महात्म्य अपूर्व है। निश्चय सम्यक्दर्शन जिसको होता है उसे ही शुद्धात्मानुभूति होती है। आत्मीक आनंद अमृत स्वरूप है, विषय सुख विष स्वरूप है, ऐसा अनुभव उसकी श्रद्धा में हो जाता है। वह ज्ञान वैराग्य से परिपूर्ण होता है। उसका हर एक कार्य विवेक पूर्वक होता है। सम्यक्त्वी पच्चीस दोष रहित आचरण करता है इसलिये उसका निर्दोष व्यवहार होता है। वह बड़ा दयावान, परोपकारी, मिष्टवादी, शांत प्रकृति धारी, धर्म प्रेमी नास्तिकता रहित होता है। यथार्थ तत्व का वह स्वयं अनुभव करता है और दूसरों को वह तत्व ज्ञान के मार्ग में प्रेरक होता है। वह संसार की माया को नाशवंत समझकर इसके लिये अन्याय पापादि नहीं करता । मोक्षमार्ग पर चलता है परंतु जिसके यह आत्मानुभव रूप यथार्थ तत्व ज्ञानमय सम्यक्दर्शन नहीं होता वह जीव विषय वासना सहित व्यवहार धर्म व तप आदि का पालन करता है तो भी संसार से कभी पार नहीं हो सकता। स्वर्गादि जाकर भी फिर एकेन्द्रिय पशु पर्याय में जन्म ले लेता है। वह शरीर का मोही, शरीर को बार-बार धारण किया करता है; इसलिये जो सम्यक्दृष्टि है वही मोक्षमार्गी एवं मोक्षगामी होता 5 है इसी को आगे कहते हैं JAAN YAN YASA AYU YES. संमिक्त जस्य हृदयं सार्धं, व्रत तप क्रिया संजुतं । सुद्ध तत्वं च आराध्यं, मुक्ति गामी न संसयः ।। १९४ ।। अन्वयार्थ - (संमिक्त जस्य हृदयं सार्धं) जिसके हृदय में सच्चा श्रद्धान है १२९ गाथा- १९४ ( व्रत तप क्रिया संजुतं) तथा व्रत तप क्रिया सहित है (सुद्ध तत्वं च आराध्यं) और शुद्ध आत्मीक तत्व का आराधन करता है (मुक्ति गामी न संसय:) वह मुक्तिगामी है, अवश्य मोक्ष जायेगा इसमें कोई संशय नहीं है । विशेषार्थ सम्यक्दर्शन की महिमा अपूर्व है, जिसे एक बार उपशम सम्यक्त्व हो गया वह निश्चय मोक्ष जायेगा; क्योंकि सम्यक्दर्शन होने का मतलब ही है कि अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल शेष रह गया, काल लब्धि आ गई है अर्थात् संसार की मौत होना निश्चित हो गया है। अब उस जीव को कोई शक्ति संसार में रोककर नहीं रख सकती। जैसे दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार। मरती बिरिया जीव को कोई न राखनहार ॥ . वैसे ही राग द्वेष और मोहनीय, अन्तराय बलवान । - सम्यक् दर्शन होत ही, सबकी होत है हान । तत्वसार में देवसेनाचार्य यही कहते हैं कालाइलद्धि नियडा जह जह संभवइ भव्वपुरिसस्स । तह तह जायइणूर्ण सुसव्वसामग्गि मोक्खटुं ॥ १२ ॥ जैसे-जैसे भव्य पुरुष की काल आदि लब्धियाँ निकट आती जाती हैं, वैसे-वैसे ही निश्चय से मोक्ष के लिये उत्तम सर्व सामग्री प्राप्त हो जाती है। यहाँ प्रश्न है कि वह उत्तम सर्व सामग्री कौन सी और किस प्रकार की है ? उसका उत्तर- आदि में सम्यक्त्व, पुनः पंच अणुव्रत, पुनः पंच महाव्रत, पुनः धर्म ध्यान और अन्त में शुक्ल ध्यान की प्राप्ति होना उत्तम सामग्री है। यहाँ कहते हैं जिसके हृदय में सच्चा श्रद्धान है अर्थात् मैं आत्मा हूँ और मुझे मुक्त होना है। कर्मों को क्षय करने के लिये, पुनः कर्म बन्ध से बचने के लिये जो व्रत, संयम, तप आदि की साधना करता है; क्योंकि द्रव्य संयम के बिना भाव संयम नहीं होता तथा पापों से हटे बचे बिना कर्म बन्धन नहीं रुकता। तो पापों का एकदेश त्याग अणुव्रत और पापों का सर्वदेश त्याग महाव्रत है : जिसे धर्म की उपलब्धि हो गई वह पापों से न हटे न बचे ऐसा हो ही नहीं सकता। यहाँ कोई प्रश्न करे कि जब जीव त्रिकाल शुद्ध है, उसमें यह कर्मादि हैं ही नहीं और जब वह पर में कुछ करता ही नहीं है, कर ही नहीं सकता तो फिर यह व्रत संयम तप करने का प्रश्न ही नहीं है; क्योंकि यह सब क्रिया तो शरीर की होती है ? Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आपकाचार जी गाथा-१९१,१९५ 0 उसका समाधान करते हैं कि द्रव्य दृष्टि से जीव त्रिकाल शुद्ध है परंतु पर्याय से यहाँ प्रश्न कर्ता तर्क करता है कि जैसे डाक्टर और डाकू दोनों की क्रिया एक तो अभी अशुद्ध है। सिद्ध के समान अशरीरी शाश्वत अविनाशी निरंजन है परंतु अभी और अभिप्राय भाव में अंतर होता है और उसी रूप परिणमन मिलता है फिर यह कैसे वर्तमान में तो शरीर में है। कर्म संयोग निमित्त-नैमित्तिक संबंध है; क्योंकि अगर इस ५ नहीं हो सकता? बात को नहीं मानते हैं तो एकान्तवादी निश्चयाभासी, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि हो उससे कहते हैं कि यह शुभ-अशुभ भावों की बात है। शुभ भाव में अशुभ जाओगे। ज्ञानी तो वह है जो वस्तु स्वरूप को यथार्थ जैसे का तैसा जानता मानता है क्रिया और अशुभ भाव में शुभ क्रिया यह तो संसार में चलता है परन्तु जहाँ शुद्ध तथा मोक्ष का मतलब जीव और पुद्गलादि कर्मवर्गणाओं का शुद्ध होकर 5 भाव होवे वहाँ अशुभ क्या,शुभ क्रिया भी होवे तो भी नहीं हो सकती। प्रत्यक्ष प्रमाण भिन्न-भिन्न हो जाना है। दोनों शुद्ध न होंगे तो मोक्ष भी नहीं हो सकता, जितने २४ है जब कि छठे गुणस्थानवर्ती साधु सातवें गुणस्थान में जाते हैं, एक समय के लिये पुद्गलादि कर्म वर्गणा जिस जीव के साथ लगे हैं, वह भी शुद्ध होंगे तभी मुक्ति है, तो र शुद्धोपयोग शुद्ध स्वभाव में लीन होते हैं तो सारी क्रिया रुक जाती है। यह शुद्ध शुद्धा जब जीव को निज शुद्धात्मानुभूति, धर्म का आश्रय सम्यक्दर्शन होता है उसी समय "S स्वभाव धर्म की महिमा है इसलिये जो बात जैसी है, उसे उस रूप में जानना मानना माय से कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा होने लगती है। कर्म स्वयं भागने लगते हैं और ही हितकारी है। धर्म मार्ग पर चलने वाले की निश्चय में अंतरंग में अपने शुद्धात्म शरीर के द्वारा व्रत संयम तप अपने आप होने लगता है। देखने में, कहने में ऐसा 18 स्वरूपकी साधना आराधना चलती है और बाहर से यह सब संयमतप आदि भी होते आता है कि यह किये जा रहे हैं परन्तु सम्यकदृष्टि के वह अपने आप होते हैं। हैं। वही मोक्षमार्गी है, वह अवश्य मोक्ष जायेगा, इसमें कोई संशय नहीं है। जैसे-बीज को बोने का लक्ष्य फल पाना है परन्तु बीज में अंकुर पत्तेटहनीफूल आदि २ यहां इतना जोर देकर कहने का अभिप्राय यह है कि अभी तक धर्म के स्वरूप भी होते हैं, न होवें ऐसा होता ही नहीं है, अन्त में फल मिलता है। इसी प्रकार का को जानने मानने की बात थी, सम्यक्दर्शन की विशेषता थी। जिसने ऐसे सत्य धर्म सम्यकदृष्टि को, जिसका लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है, उसको भी यह सब व्रत तप आदि होते सई को स्वीकार कर लिया निज शुद्धात्मानुभूति, निश्चय सम्यकदर्शन हो गया, जो हैं, न होवें ऐसा हो ही नहीं सकता। अव्रती असंयमी. गृहस्थ कभी भी मोक्ष नहीं जा5 अन्तरात्मा है वह परमात्मा होने का पुरुषार्थ करता है। धर्म मार्ग पर चलता है तो सकता । मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रथम महाव्रती साधु होना आवश्यक है इसके बगैर - उसकी साधना का क्रम क्या है? धर्मी जीव का प्रारंभिक मार्ग कहाँ से कैसे बनता सिद्ध पद होता ही नहीं है। इसी बात को तारण स्वामी ने पंडित पूजा ग्रन्थ में कहा है है इसका वर्णन इस श्रावकाचारजी ग्रन्थ में सद्गुरु तारण स्वामी आगे विशेष महत्व एतत् संमिक्त पूजस्या, पूजा पूज्य समाचरेत। 5 लिये हुए आगम और अनुभव के आधार पर स्वयं के जीवन का प्रामाणिक स्वरूप मुक्ति श्रियं पंथ सुद्ध, विवहार निस्चय सास्वतं ॥३२॥ आगे बता रहे हैं। यहाँ दो बातें बताई हैं - मुक्ति मार्ग का पथिक अन्तरात्मा १. सच्ची पूजा क्या है ? पूज्य के समान आचरण ही सच्ची पूजा है। मुक्ति मार्ग के पथिक तीन प्रकार के होते हैं, जिन्हें शास्त्रीय भाषा में पद या २. मुक्ति का शुद्ध पथ सच्चा मार्ग क्या है? जो निश्चय-व्यवहार से शाश्वत लिंग कहते हैं-१. सामान्य गृहस्थ,२.त्यागी व्रती,३. महाव्रती साध। यहाँ उनका है जिसकी अंतरंग और बहिरंग दशा एक सी होती है वही मोक्षमार्गी है। स्वरूप बताया जा रहा है - यहाँ कोई कहे, हमारे भाव तो शुद्ध हैं. क्रिया कैसी होती रहे उससे क्या लिंगं च जिनं प्रोक्तं,त्रिय लिंग जिनागर्म । लेना देना? उत्तम मध्यम जधन्यं च, क्रिया त्रेपन संजुतं ॥ १९५॥ उससे कहते हैं कि भाई! ऐसा त्रिकाल में नहीं होता। सूर्य का उदय होवे और उत्तम जिन रूवीच, मध्यमं च मति श्रुतं । रात्रि भी रहे, प्रकाश अंधकार दोनों एक साथ नहीं होते। इसी प्रकार जहाँ भाव शुद्ध होवे और क्रिया अशुद्ध होवे ऐसा त्रिकाल हो नहीं सकता। जघन्यं तत्व सार्धं च,अविरतं संमिक दिस्टितं ॥१९६ ॥ Aeonorrect Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी " लिंगं त्रिविधं उक्तं चतुर्थ लिंग न उच्यते । जिन सासने प्रोक्तं च संमिक दिस्टि विसेसतं ।। १९७ ।। अन्वयार्थ (लिंगं च जिनं प्रोक्तं ) जिनेन्द्र परमात्मा ने लिंग अर्थात् पद कहे हैं (त्रिय लिंगं जिनागमं ) तीन लिंग जिनागम में मुक्ति मार्ग पर चलने वालों के बताये हैं (उत्तम मध्यम जघन्यं च) उत्तम मध्यम और जघन्य (क्रिया त्रेपन संजुतं) जो त्रेपन क्रिया सहित होते हैं। (उत्तमं जिन रूवी च) उत्तम जिनेन्द्र परमात्मा जैसे रूपवाला (मध्यमं च मति श्रुतं) मध्यम जो मति श्रुत ज्ञानधारी श्रावक है (जघन्यं तत्व सार्धं च) और जघन्य जो तत्व का श्रद्धानी (अविरतं संमिक दिस्टितं) अविरत सम्यकदृष्टि है। , (लिंगं त्रिविधं उक्तं चतुर्थ लिंग न उच्यते) लिंग तीन प्रकार के कहे गए हैं, चौथा लिंग नहीं कहा गया है (जिन सासने प्रोक्तं च) जिनशासन और जिनवाणी में यही कहे गए हैं (संमिक दिस्टि विसेसतं) इनमें सम्यक्दर्शन और सम्यकदृष्टि की विशेषता है। विशेषार्थ जिन जीवों को भेदज्ञान पूर्वक स्व-पर का ज्ञान, जीव और कर्म पुद्गल शरीरादि की भिन्नता भाषित हो जाती है तथा आत्मानुभूति, अपने सत्स्वरूप का दर्शन हो जाता है वह अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि मोक्षमार्ग के पथिक होते हैं; क्योंकि बगैर सम्यक्दर्शन के मोक्षमार्ग बनता नहीं है तो जिनेन्द्र परमात्मा जिन्होंने अनन्त चतुष्टय केवलज्ञान प्रगट कर लिया है। जो अरिहन्त सर्वज्ञ, वीतरागी, हितोपदेशी देव पद पर विराजमान हो गये, उनसे प्रार्थना की गई कि प्रभु आप तीन लोक के नाथ जगत उद्धारक, दीनदयाल करुणा सिंधु पतितोद्धारक हैं, आप हमें पार लगाईये, हम • आपकी प्रार्थना भक्ति पूजन वन्दना करते हैं। तब जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा कि हे भव्य जीवो! मैं जिस मार्ग से चलकर आया हूँ और इस पद पर पहुँचा हूँ, वैसे तुम भी हो सकते हो, मैं किसी का भला-बुरा नहीं कर सकता, न किसी को पार लगा सकता हूँ, जिस विधि से मैं पार हुआ हूं, वह विधि मार्ग तुम्हें बताता हूं, तुम भी ऐसा प्रयत्न पुरुषार्थ करो तो तुम मुझ जैसे हो सकते हो। देखो, इस शरीर से भिन्न तुम जीव आत्मा हो, यह शरीर तुम नहीं हो; क्योंकि यह प्रत्यक्ष अनुभव प्रमाण जानने में आता है कि इस शरीर से चेतन तत्व जीव आत्मा निकल जाता है तब इस शरीर को जला दिया जाता है और यह सब संयोगी पदार्थ भी छूट जाते हैं इसलिये भेदज्ञान पूर्वक mask sex is met résis week resis गाथा- १९६-१९७ निर्णय करो। अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान करो तो तुम आत्मा से परमात्मा हो सकते हो । प्रश्न किया गया कि प्रभो ! हम तो अज्ञानी संसारी प्राणी हैं, पाप परिग्रह घर गृहस्थी में फँसे हैं, हम कैसे मुक्ति मार्ग पर चल सकते हैं ? जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा कि तुम इसी दशा में ऐसे रहते हुए भी धर्म को उपलब्ध हो सकते हो, मुक्तिमार्ग पर चल सकते हो। इसके लिये जिनागम में जघन्य लिंग, मध्यम लिंग, उत्तम लिंग यह तीन लिंग (पद) बताये हैं। जघन्य लिंग, सामान्य गृहस्थ अव्रत सम्यक्दृष्टि जिसे तत्व की यथार्थ श्रद्धा हो गई है, वही इस मार्ग का पहला और सच्चा पथिक होता है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अव्रत सम्यक्दृष्टि होता है वह जब आगे बढ़ता है, शुद्धात्म स्वरूप ध्रुव तत्व की साधना करता है, उसकी पात्रता बढ़ती है तो वह मध्यमलिंग व्रतधारी श्रावक हो जाता है, जिसके मति श्रुत ज्ञान की विशेष निर्मलता में आत्म आराधना और संयम तप की साधना होती है। वह पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक कहलाता है। जो घर परिवार समाज के बीच रहता हुआ अपनी आत्म साधना करता है; क्योंकि जिसे आत्मानुभूति हो जाती है, उसकी बड़ी अपूर्व दशा हो जाती है। वह निरंतर अपने सिद्ध स्वरूप ध्रुव तत्व शुद्धात्मा को ही देखता है। उसी के स्मरण ध्यान में रत रहता है ; क्योंकि जिसे अतीन्द्रिय आनंद अमृत का स्वाद मिल गया है, वह उसे कैसे छोड़ सकता है। मजबूरी कर्मवशात् इस कर्म संयोग में रहना पड़ता है। जैसे साधना की स्थिति पात्रता बढ़ती है, वही उत्तम लिंग निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी जिन रूपी साधु हो जाता है। छठे-सातवें गुणस्थान में झूला झूलता है। लक्ष्य तो परमात्म पद पूर्ण शुद्ध सिद्ध दशा का, मुक्ति को प्राप्त करने का है। अपने रत्नत्रय स्वरूप की साधना में रत रहता है, इससे पात्रता बढ़ती है, श्रेणी माड़ता है और आठवें गुणस्थान से एक अन्तर्मुहूर्त में तेरहवाँ गुणस्थानवर्ती अरिहन्त सर्वज्ञ केवलज्ञानी परमात्मा हो जाता है। आयु आदि अघातिया कर्म क्षय होने पर पूर्ण शुद्ध सिद्ध परमात्मा हो जाता है। यहाँ विशेषता प्रमुखता सम्यक्दर्शन की है। जिन शासन में इसी अपेक्षा मुक्ति का मार्ग कहा गया है। बगैर सम्यक्त्व के मुक्ति का मार्ग नहीं बनता इसलिये अपने आत्म स्वरूप का श्रद्धान करो। शरीरादि पर पदार्थों से भेद भिन्नता करो और मुक्तिमार्ग पर चलो इसी के लिये यह मनुष्य भव और सब शुभयोग मिले हैं। मुक्तिमार्ग पर चलने १३१ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSON श्री श्रावकाचार जी का, धर्म साधना करने का यही क्रम है। इसी क्रम से चलकर सब जीव मुक्त हो सकते १. सम्यक्त्व - सच्चे धर्म का श्रद्धानी, २. आठ मूलगुण- मद्य, मांस,मधु हैं। जो हुए हैं, वह भी इसी क्रम से हुए हैं यही बात मालारोहण जी ग्रंथ में बताई है। और पाँच उदम्बर फल-बड़, पीपल, ऊमर,कठूमर, पाकर इनका त्यागी, ३. चार । जे सिद्ध नंतं मुक्ति प्रवेसं,सुद्धं सरूपं गुन माल ग्रहितं। ५ प्रकार का दान-आहार दान, औषधि दान, अभय दान और ज्ञान दान पात्र जीवों जे कवि भध्यात्म समिक्त सर्वते जांति मोयं कथितं जिनेन्द्र॥३२॥४ को देना. ४. सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र रत्नत्रय की गुण, पर्याय की विशेषता से अब, जो जीव सम्यक्दर्शन सहित अन्तरात्मा मुक्ति के मार्ग पर चलते हैं, साधना करना,५. सूर्य अस्त होने के दो घड़ी (४८ मिनिट) पहले भो उनकी अन्तरंग और बहिरंग दशा बाह्य आचरण कैसा होता है। इसे क्रम से आगे की अर्थात् रात्रि भोजन का त्यागी, ६. प्रासुक जल, पानी छानकर पीना। इन अठारह गाथाओं में कहते हैं, जघन्य अव्रती श्रावक अट्ठारह क्रियाओं का पालक होता है - क्रियाओं का शुद्ध भाव से जिनागम के अनुसार पालन करता है वह जघन्य पात्र जघन्य अवत नामंच, जिन उक्तं जिनागर्म । हैं अव्रत सम्यक्दृष्टि होता है, जो मुक्ति का प्रारंभिक पथिक है। सार्धं न्यान मयं सुद्धं, दस अष्ट क्रिया संजुतं ।। १९८॥ बहिरात्मा से अन्तरात्मा होना और परमात्मा बनने की ओर बढ़ना यही आत्म कल्याण का मार्ग है। यह जीव आत्मा अनादिकाल से बहिरात्म भाव से संसार में संमिक्तं सुखधर्मस्य, मूल गुनस्य उच्यते । २ रुल रहा है। अन्तरात्म भाव जाग्रत हो जाना ही इष्ट उपादेय और प्रयोजनीय है। दानं चत्वारि पात्रं च, सार्थ न्यानं मयं धुवं ॥ १९९ ॥ यह पुदगलादि को देख रहा है और यही मैं हूँ ऐसा मान रहा है,यही बहिरात्मपना, दर्सन न्यान चारित्रं, विसेषितं गुन पर्जयं । बहिरात्म भाव है जिससे संसार का परिभ्रमण नाना प्रपंच पुण्य-पाप का चक्कर, अनस्तमितं सद्धभावस्य, फास जल जिनागमं ॥ २००॥ कर्मादि निमित्त बने हैं। मैं एक अखंड अविनाशी ध्रुव तत्वज्ञानानंद स्वभावी भगवान अन्वयार्थ- (जघन्य अव्रत नामंच) जघन्य लिंग अव्रत नाम का (जिन उक्तं IS आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं, एक बार अन्तरंग में ऐसी हुंकार . जिनागम) जिनेन्द्र भगवान ने जिनागम में कहा है (सार्धन्यान मयं सुद्ध) जो अपने ॐ गूंज जाये तो बेड़ा पार है, यही अन्तरात्मपना है और इससे मुक्ति मार्ग स्वयं घटित 3 होता है। आगे पैंतीस क्रियाओं का वर्णन कर रहे हैंज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव का श्रद्धान करता है (दस अष्ट क्रिया संजुतं) और अठारह क्रियाओं सहित होता है। एतत् क्रिया संजुक्तं , सुद्ध संमिक्त धारना। (संमिक्तं सुद्ध धर्मस्य) शुद्ध धर्म का श्रद्धानी (मूल गुनस्य उच्यते) और जो प्रतिमा व्रत तपस्वैव, भावना कृत साधयं ।। २०१॥ मूलगुण कहे गये हैं (दानं चत्वारि पात्रंच) चार प्रकार के दान पात्रों को देता है (सार्धं! अन्वयार्थ- (एतत् क्रिया संजुक्तं) इस प्रकार अट्ठारह क्रियाओं सहित (सुद्ध न्यानं मयं धुवं) और अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की साधना करता है। ५ संमिक्त धारना) शुद्ध सम्यक्त्व धारी (प्रतिमा व्रत तपस्चैव) ग्यारह प्रतिमा बारह (दर्सन न्यान चारित्रं) दर्शन ज्ञान और चारित्र की (विसेषितं गुन पर्जयं) गुण तपों की (भावना कृत सार्धयं) साधना करने की भावना करता है। पर्याय विशेषता से साधना करता है (अनस्तमितं सुद्धभावस्य) शुद्ध भाव प्रगट होने भावस्य) शुद्ध भाव प्रगट हान विशेषार्थ-यहाँ श्रावक की त्रेपन क्रियाओं का स्वरूप बताया जा रहा है जिनमें से, दिन डूबने के बाद भोजन नहीं करता (फासू जल जिनागमं )और फासू अर्थात् सूअयात्5 से अठारह क्रियायें जघन्य पात्र अव्रत सम्यक्दृष्टि के जीवन में होती है, शेष पैंतीस , प्रासुक जल जैसा जिनागम में बताया है वैसा सेवन करता है। क्रियायें व्रती श्रावक अपनी पात्रतानुसार पालता है। धर्म मार्ग पर चलने में यह व्यवहार विशेषार्थ- जघन्य लिंग अव्रत सम्यक्दृष्टि का स्वरूप जिनेन्द्र भगवान ने और निश्चय का समन्वय आवश्यक है; क्योंकि संसार में सभी जीव कर्म संयोग में हैं, जिनागम में कहा है, जो अपने ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव का श्रद्धान करता है तथा इनसे छूटने के लिये बाह्य व्रत संयम तप भी आवश्यक हैं। जिस संयोग वातावरण अठारह क्रियाओं सहित होता है। कार्य कारण में रह रहे हैं, जब तक उससे बचेंगे हटेंगे नहीं, तब तक वह क्रिया तथा र १३२ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी उस तरफ के भाव भी नहीं छूट सकते इसलिये साधक दोनों तरफ से साधना और कठोर कठिन स्थानों पर बैठना तप करना। संभाल करता हुआ चलता है। छह अन्तरंग तप-१.प्रायश्चित-कोई दोष लगने पर दंड लेकर शुद्ध होना, त्रेपन क्रियाओं का विशेष वर्णन रयणसार एवं क्रियाकोष आदि ग्रन्थों में भी है। २.विनय-धर्म वधर्मात्माओं का आदर करना, ३. वैयावृत्य-रोगी-दु:खी निराश्रय गुण वय तव सम पडिमा दाणं जल गालणंच अणत्यमिय। * धर्मात्मा, भाईयों बहिनों की सेवा करना, ४. स्वाध्याय- शास्त्रों को पढ़ना व ७ दसण णाण चरितं, किरिया तेवण्ण सावया भणिया ॥ विचारना, ५. व्युत्सर्ग- शरीरादि से ममत्व त्यागना, ६. ध्यान- आत्म ध्यान का . आठ मूल गुण, बारह व्रत, बारह तप, सम्यक्त्व , ग्यारह प्रतिमा, चार दान, अभ्यास करना। जल गालन, रात्रि भोजन का त्याग, सम्यक्दर्शन,सम्यक्ज्ञान,सम्यक्चारित्र की इन त्रेपन क्रियाओं का पालन करने वाला श्रावक होता है, जघन्य पात्र अव्रत साधना इस प्रकार त्रेपन क्रियायें हैं। इनमें अठारह क्रियाओं का पूर्व में वर्णन किया । सम्यक्दृष्टि अठारह क्रियाओं का पालन करता हुआ इन पैंतीस क्रियाओं के पालन जा चुका है, शेष पैंतीस क्रियाओं का वर्णन यहाँ कर रहे हैं। करने की भी भावना करता है, यथाशक्य पालता भी है; परंतु अभी गृहस्थ दशा में ग्यारह प्रतिमा-दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा,प्रोषधोपवास मोहनीय कर्म की तीव्र सत्ता होने से अव्रत दशा पाप-परिग्रह आदि संसारी प्रपंच में प्रतिमा,सचित्त प्रतिमा, अनुराग भक्ति प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, आरंभ त्याग प्रतिमा, ही फंसा रहता है परंतु उसकी भावना छटपटाहट तो प्रबल रहती है कि कब इन सब परिग्रह त्याग प्रतिमा, अनुमति त्याग प्रतिमा, उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा। प्रपंचों से मुक्त होकर अपने आत्मीक आनंद में रहूँ। वह तो सिंह पींजरे में दियो, जोर बारह व्रत-पंचअणुव्रत-१. अहिंसा अणुव्रत (संकल्पी त्रस हिंसा का चले कछु नाहीं,जैसी स्थिति में रहता है। ज्ञान का अपूर्व माहात्म्य है - त्याग), २. सत्य अणुव्रत, ३. अचौर्य अणुव्रत, ४. ब्रह्मचर्य अणुव्रत (स्वस्त्री ? ज्यों दीपक रजनीसमै,चहुं दिसि करे उद्योत। संतोष),५. परिग्रह का प्रमाण (सम्पत्ति आदि का प्रमाण कर लेना) प्रगटें घटपट रूप में,घटपट रूपन होत॥ तीन गुणवत-१.दिग्व्रत-जन्म पर्यंत लौकिक कार्यों के लिये दस दिशाओं त्यों सज्ञान जाने सकलजेय वस्तुको मर्म। में जाने की मर्यादा करना। २. देशव्रत-जो मर्यादा ली है उसमें से और घटाकर ज्ञेयाकृति परिनवै पै, तजे न आतम धर्म ॥ प्रतिदिन का नियम लेना। ३. अनर्थदंड व्रत-व्यर्थ के पाप करने का त्याग.जैसे पाप ज्ञान धर्म अविचल सदा, गहे विकार न कोई। का उपदेश, अपध्यान खोटा विचार, हिंसाकारी वस्तु देना,खोटी कथाओं का पढ़ना, राग विरोध विमोहमय, कबहुँ भूलि न होई॥ सुनना और प्रमादचर्या करना। ऐसी महिमा ज्ञान की, निहचै है घट माहि। चार शिक्षाव्रत-१.सामायिक-सुबह, दोपहर, सायं यथाशक्ति एकान्त में मूरख मिथ्यादृष्टि सौं,सहज विलोके नाहि॥ बैठकर धर्म ध्यान करना।२. प्रोषधोपवास- अष्टमी व चतुर्दशी को व्रत करना। ज्ञानी अन्तरात्मा का चिन्तन स्वयं के दोषों की आलोचना रूप होता है। ३. भोगोपभोग परिमाण-पांचों इन्द्रियों की भोग्य वस्तुओं का नित्य प्रमाण करना। ज्ञानवंत अपनी कथा,कहै आपसौं आप। ४.अतिथि संविभाग-पात्रों को दान देकर भोजन करना। मैं मिथ्यात दशा विष, कीने बहुविधि पाप॥ बारह तप-छह बाह्य तप-१.उपवास-चारों प्रकार के आहार का त्याग करना, ज्ञानी क्या विचार करता है नाटक समयसार में कहा है - २.ऊनोदर- भूख से कम खाना, ३. वृत्ति परिसंख्यान-कोई प्रतिज्ञा लेकर आहार हिरवे हमारे महामोह की विकलताई, को जाना,४. रस परित्याग-दूध,दही, घी,तेल, नमक, मीठा, हरी सब्जी इनमें से ताते हम करुनानकीनी जीव घात की। एक या अनेक रसों का त्याग करना, ५. विविक्त सय्याशन- एकांत में सोना आपपापकीने औरनि को उपदेश दीने, बैठना,चिंतन मनन करना, ६. काय क्लेश-शरीर का सुखियापना मिटाने के लिये हुती अनुमोदना हमारे याही बात की। ८RNAAG Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी मन वचन काया में मगन है कमाये कर्म, धाये भ्रमजाल में कहाये महापातकी । ज्ञान के उदय भए हमारी दशा ऐसी भई, जैसे भानुभासत अवस्था होत प्रात की ।। अव्रत सम्यक्त्वी का निर्णय क्या होता है इसे कहते हैंसम्यकवंत कहै अपने गुन, मैं नित राग विरोध सौंरीतो । मैं करतूति करूँ निरवंछक, मोहि विषै रस लागत तीतो ॥ सुद्ध सुचेतन को अनुभौ करि, मैं जग मोह महाभट जीतो । मोख समीप भयो अब मो कहुँ, काल अनंत इही विधि बीतो ॥ इस प्रकार अन्तरात्मा जघन्यपात्र अव्रत सम्यदृष्टि सामान्य ग्रहस्थ मोक्षमार्ग के पथिक का निर्णय और सत्यधर्म का श्रद्धान किस रूप होता है, उसका वर्णन अभी तक किया। आगे उसका जीवन कैसा होता है इसका स्वरूप वर्णन करते हैं; क्योंकि जीवन में निश्चय और व्यवहार का समन्वय पात्रतानुसार होना आवश्यक है । यहाँ एक प्रश्न आता है कि सम्यक्त्व के कई भेद बताये गये हैं तो कौन सा सम्यक्त्व कार्यकारी है इसे और स्पष्ट करें ? उसका स्पष्टीकरण सद्गुरू इस गाथा में कर रहे हैंअन्या संमिक्त संमिक्तं, भाव वेदक उपसमं । क्षायिकं सुद्ध भावस्य, संमिक्तं सुद्धं धुवं ॥ २०२ ॥ अन्वयार्थ (अन्या संमिक्त संमिक्तं) सम्यक्त्व कोई सा भी हो, आज्ञा सम्यक्त्व (भाव वेदक उपसमं) उपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व तथा ( क्षायिकं सुद्ध भावस्य) क्षायिक सम्यक्त्व हो या शुद्ध स्वभाव की अनुभूति रूप (संमिक्तं सुद्धं धुवं) शुद्ध सम्यक्त्व हो जो शुद्ध है ध्रुव है। विशेषार्थ - यहाँ यह प्रश्न करने पर कि सम्यक्त्व कौन सा कार्यकारी है ? SYA YASA YA ARA YEAR. सम्यक्दर्शन की अपेक्षा सम्यक्त्व में कोई भेद नहीं है, एक समय की निज शुद्धात्मानुभूति जो संसारी जीव को होती है, वही अनुभूति सिद्ध परमात्मा को सिद्ध गाथा-२०२ 6 दशा में होती है इसमें कोई भेद नहीं है। जैसे- मिश्री के एक कण का जो स्वाद एक सामान्य आदमी को आता है, वैसा ही बड़ी डली का स्वाद बड़े आदमी को आता है, मिठास अनुभूति में भेद नहीं है। मिठास की मात्रा में भेद होता है। इसी प्रकार आत्मानुभूति सम्यक्दर्शन में कोई भेद नहीं है, उसकी स्थिति आदि में भेद होता है इसलिये सम्यक्त्व कोई सा हो इसमें कोई भेद नहीं है । १३४ यहाँ प्रश्न होता है कि सम्यक्त्व और सम्यक्दर्शन में क्या अन्तर है ? उसका समाधान करते हैं कि सम्यक्त्व- सच्चे श्रद्धान को कहते हैं और सम्यक्दर्शन- सच्ची अनुभूति को कहते हैं। यहाँ प्रश्न है कि श्रद्धान और अनुभूति में क्या अंतर है ? उसका समाधान - श्रद्धान- विश्वास जानकारी मान्यता को कहते हैं, जैसे देव गुरू धर्म का श्रद्धान, उनके भेद आदि जानना। मैं आत्मा हूँ ऐसी मान्यता को श्रद्धान कहते हैं। अनुभूति- अनुभव प्रमाण स्वीकारता । जैसे- किसी एक विषय पर उसका विशेषज्ञ जानकारी देवे, बतावे और श्रोता या विद्यार्थी उसकी बात पर विश्वास करके उसे मानने लगे, यह श्रद्धान है। जैसे- यह नमक है या मिश्री है, जो चख लेगा, स्वाद ले लेगा वह अनुभूति है और वह अनुभव प्रमाण सत्य ध्रुव होता है। श्रद्धान में शंका संशय हो सकते हैं, अनुभूति में कोई शंका संशय नहीं होता। यहाँ कोई प्रश्न करे कि हम अव्रत सम्यकदृष्टि तो हो गये परंतु अभी हमारे जीवन में व्रत नियम संयम नहीं आ रहे, तो क्या जबरदस्ती करें ? उसका समाधान करते हैं कि भाई ! जबरदस्ती करने, नहीं करने की बात ही नहीं है, वह तो होते हैं। अगर नहीं हो रहे तो उसमें तीन कारण हो सकते हैं १. हम स्वयं स्वच्छन्दी मिथ्यादृष्टि हैं, अपने आपको अव्रत सम्यकदृष्टि बना इसके समाधान में सद्गुरु कहते हैं- सम्यक्त्व कोई सा हो आज्ञा सम्यक्त्व हो, 5 रहे हैं, कहा रहे हैं जिससे हमारी शरीरादि विषयों की पूर्ति मनमानी होती रहे । उपशम सम्यक्त्व हो, वेदक सम्यक्त्व हो, क्षायिक सम्यक्त्व हो, निज शुद्ध स्वभाव की अनुभूति स्वरूप शुद्ध सम्यक्त्व हो, सम्यक्त्व ही शुद्ध है ध्रुव है। २. विशेष कर्मोदय सत्ता में होवे, अशुभ पापादि कर्मों का उदय होवे या शरीर रोगी आदि होवे । तो यहाँ अन्तरात्मा वह होता है जिसे निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती है वही जघन्य पात्र अव्रत सम्यक्दृष्टि कहलाता है और उसका जीवन इस क्रम से आगे बढ़ता है। इन सब क्रियाओं का पालन उसके जीवन में होने लगता है। ३. खोटा आयुबन्ध हो गया हो, नरक तिर्यंच गति में जाना हो तो व्रत नियम संयम के भाव नहीं होते; अन्यथा सम्यक्दर्शन होते ही साधुपद की छलांग लगती है, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to श्री श्रावकाचार जी गाथा-२०१LOO सिद्ध पद की भावना जागती है। वर्तमान पंचमकाल में शरीरादि संहनन द्रव्य, क्षेत्र, ३. चौथी पदवी का श्रद्धान, साधना करता है- पहली पदवी अवती. काल, भाव की अनुकूलता न होने से एकदमछलांग न लगे परंतु नियम संयम के भाव सम्यक्दृष्टि, दूसरी पदवी व्रती श्रावक,इसी में आर्यिका भी आ जाती हैं, तीसरी पदवी भी न होवें ऐसा नहीं होता। महाव्रती साधु, इसमें आचार्य उपाध्याय आते हैं, चौथी पदवी सशरीरी केवलज्ञानी जघन्य पात्र अव्रत सम्यक्दृष्टि की अठारह क्रियाओं में पहला सम्यक्त्व सच्चे अरिहन्त और अशरीरी पूर्ण शुद्ध मुक्त सिद्ध पद है। जघन्य पात्र अव्रती सम्यकदृष्टि धर्म का श्रद्धान कैसा होता है उसका वर्णन करते हैं इस चौथी पदवी का श्रद्धान और साधना करता है, यह उसका लक्ष्य केन्द्र बिंदु है। उपादेय गुण पदवी च, सुद्ध संमिक्त भावना। इसी के लक्ष्य से फिर यह सब अपने आप होते हैं। जैसे-कोई विद्यार्थी डाक्टर या इंजीनियर बनना चाहता है, तो पहले वह अपना लक्ष्य निर्धारित करता है फिर उस पदवी चत्वारि सार्थ च, जिन उक्तं सुख दिस्टितं ॥ २०॥ है विषय का अध्ययन करता है। इसी प्रकार अन्तरात्मा जघन्य पात्र का लक्ष्य सिद्ध अन्वयार्थ- (उपादेय गुण पदवी च) गुण और पदवी को उपादेय मानता है परमात्म पद प्राप्त करना है। वह संसारी पद इन्द्र चक्रवर्ती आदि किसी को इष्ट (सुद्ध समिक्त भावना) शुद्ध सम्यक्त्व की भावना रखता ह (पदवा चत्वारि साध उपादेय नहीं मानता, यहाँ तक कि साधु पद को भी इष्ट नहीं मानता। उसका लक्ष्य च) चौथी पदवी की श्रद्धा साधना करता है (जिन उक्तं सुद्ध दिस्टितं) जिनेन्द्र भगवान तो सिद्ध पद ही है, इसके लिये अपनी भूमिका और पात्रतानुसार गुणस्थान क्रम से कहते हैं वह शुद्ध दृष्टि है। • आगे बढ़ता है। विशेषार्थ- धर्म का सच्चा श्रद्धानी शुद्ध दृष्टि कैसा होता है यह यहाँ बताया इसी बात को योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते हैंजा रहा है। जो जघन्य पात्र की पहली क्रिया सम्यक्त्व है उसका स्वरूप गाथा २०३ सो पर वुच्चइ लोउ परु जसु मइ तित्थु वसेई। से २२४ तक बताया है। इसे अपने में देखें और अपने आपका निर्णय करें तभी जहिं मइ तहिं गइ जीवह जि णियमें जेण हवेइ॥ १११॥ सार्थक है। सच्चे धर्म का श्रद्धानी कैसा होता है इसे समझना आवश्यक है। जिस भव्य जीव की बुद्धि उस निज आत्मस्वरूप में बस रही है अर्थात् १. गुण और पदवी को उपादेय मानता है-'गुण पर्ययवत् द्रव्यम्' गुण विषय-कषाय विकल्प जाल के त्याग से स्वसंवेदन ज्ञानस्वरूप कर स्थिर हो रही और पर्याय के समूह को द्रव्य कहते हैं, प्रत्येक द्रव्य में अपने-अपने अनन्त गुण होते है। वह पुरुष निश्चय कर उत्कृष्ट जन कहा जाता है अर्थात् जिसकी बुद्धि निज हैं, मैं एक अखंड अविनाशी चेतनतत्व भगवान आत्मा जीव द्रव्य हूँ, जिसने ऐसार स्वरूप में ठहर रही है, वह उत्तमजन है; क्योंकि जैसी मति बुद्धि होती है, वैसी ही जान लिया वह अपने विशेष गुणों को प्रगट करने का पुरुषार्थ करता है। आत्मा के जीव की गति निश्चयकर होती है ऐसा जिनवर देव ने कहा है; अर्थात् शुद्धात्म विशेष गुण रत्नत्रय,अनन्तचतुष्टय पंचज्ञान है और सशरीरी अरिहन्त पद,अशरीरी स्वरूप में जिस जीव की बुद्धि होवे उसकी वैसी ही गति होती है। सिद्धपद इनको ही उपादेय मानता है और इनको प्राप्त करने का माध्यम यह तीन र जिन जीवों का मन निज वस्तु में है उनको निज पद की प्राप्ति होती है. इसमें पद अव्रती सम्यकदृष्टि, व्रती श्रावक और महाव्रती साधु पद हैं। इसी क्रम से बढ़ते हुए संदेह नहीं है। अपना उत्कृष्ट सिद्ध पद प्राप्त किया जाता है। जइणिविसद्ध विकु विकरइ परमप्पा अणुराउ। २. शुद्ध सम्यक्त्व की भावना रखता है- निरंतर अपने ध्रुव तत्व ममल5 अग्गि कणी जिम कडगिरीउहाइ असेस विपाउ॥११४॥ स्वभाव में लीन रहूँ, निरंतर शुद्धोपयोग शुद्धात्मानुभूति होती रहे, विभाव परिणमन जो आधे निमिष मात्र भी कोई परमात्म स्वरूप में प्रीति को करे तो जैसे अग्नि होवे ही नहीं, मैं अपने आत्मीय अतीन्द्रिय आनंद में ही लीन रहूँ, वर्तमान में कर्मोदय की कणी काठ के पहाड को भस्म कर देती है,उसी तरह स्वभाव की प्रीति सब हीX संयोग अपनी पात्रता की कमी के कारण उस दशा में रह नहीं पाता परन्तु इसी की पापों को भस्म कर डालती है। भावना रखता है और कुछ नहीं चाहता। तो जिसकी जैसी भावना होती है उस रूप उसका कार्य भी होता है। जघन्य १३५ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-२०४-२०७D OO पात्र अव्रत सम्यक्दृष्टि के सच्चे श्रद्धान को और आगे कहते हैं १.तीनों कुज्ञानों से बिल्कुल मुक्त हो गया। मति न्यानं च उत्पादंते, कमलासने कंठ स्थितं । २.मिथ्यात्व की छाया भी नहीं रही। यहाँ यह समझना है कि उपयोग के दो। भेद हैं - दर्शन और ज्ञान । इन पर मिथ्यात्व कज्ञान का आवरण होने से जीव उर्वकारं सार्थ च, तिअर्थ साधुवं । २०४।। * बहिरात्मा हो रहा है। जिसके ज्ञान पर से कुज्ञान हट गया और दर्शन पर से मिथ्यात्व कुन्यानं त्रि विनिर्मुक्तं, छाया मिथ्या तिक्तयं । बिला गया वह शुद्ध सम्यक्दृष्टि है। उवं हियं श्रियं सुद्ध, सार्धं न्यान पंचमं ।। २०५॥ ३. ॐ ह्रीं श्रीं स्वरूप केवलज्ञानमयी निज शुद्धात्मा की साधना करता है। देवं गुरुं धर्म सुद्धस्य, सुख तत्व सार्थ धुवं । ८ इसी प्रकार सच्चे देव गुरू धर्म स्वरूप अपने शुद्धात्म तत्व ध्रुव स्वभाव की , साधना करता है अर्थात् इसे ही एक मात्र इष्ट उपादेय आराध्य मानता है वह शुद्ध संमिक दिस्टि सुद्धं च, संमिक्तं संमिक दिस्टितं ॥२०६॥ सम्यकदृष्टि है और ऐसे सम्यक्दृष्टि की पहली क्रिया सम्यक्त्व की साधना है। अन्वयार्थ- (मति न्यानं च उत्पादंते) जिस जीव को सुमति ज्ञान उत्पन्न हो ज्ञान भाव ज्ञानी करे, अज्ञानी अज्ञान । गया है (कमलासने कंठ स्थितं) उसके कमलासन पर कंठ में स्थित सरस्वती स्वरूप दर्व कर्म पुद्गल करे,यह निश्चय परवान॥ सुबुद्धि का जागरण हो गया (उर्वकारं सार्धं च) और जो ऊंकार स्वरूप की साधना में पूर्व उदै सन बंध, विषै भोगवे समकिती। रत है (तिअर्थ साधू धुवं) वह अपने रत्नत्रयमयी ध्रुव तत्व का श्रद्धानी है। करेन नूतन बंध,महिमा ज्ञान विराग की॥ (कुन्यानं त्रि विनिर्मुक्तं) तीनों प्रकार के कुज्ञान से बिल्कुल मुक्त हो गया है। सम्यक्दृष्टि की दशा क्या होती है इसे नाटक समयसार में कहते हैं(छाया मिथ्या तिक्तयं) मिथ्यात्व की छाया भी छूट गई है अर्थात् मिथ्यात्व की छाया सम्यकवंत सदा उर अंतर,ज्ञान विराग उभै गुन धारे। भी दिखाई नहीं देती (उवं हियं श्रियं सुद्धं ) ॐ ह्रीं श्रीं स्वरूप शुद्ध (साधं न्यान जासुप्रभाव लखे निज लच्छन,जीव अजीव दसा निरवारे॥ पंचम) पंचमज्ञान अर्थात् केवलज्ञान की साधना करता है। आतम को अनभौ करिहैथिर.आप तरें अर औरनि तारें। (देवं गुरुं धर्म सुद्धस्य) सच्चे देव गुरू धर्म स्वरूप (सुद्ध तत्व साधं धुवं) साधि सुदर्व लहैं शिव सर्म,सुकर्मउपाधि विथा वमिडारे ॥ अपने शुद्धात्म तत्व ध्रुव स्वभाव की साधना करता है (संमिक दिस्टि सुद्धं च) वह सम्यक्दृष्टि हमेशा अपने अंतर में ज्ञान और वैराग्य का चिन्तन करता है। शुद्ध सम्यकदृष्टि है (संमिक्तं संमिक दिस्टित) और शुद्ध सम्यक्दृष्टि का सम्यक्त्व जैसी अनुकूलता पात्रता होती है उस रूप आगे बढ़ता है। इसी बात को आगे की सही है। ९. गाथा में कहते हैंविशेषार्थ-जघन्य लिंग अव्रत सम्यकदष्टि की पहली क्रिया सच्चा सम्यक्त्व संमिक्तं जस्य सुखं च, व्रत तप संजमं सदा। कब होता है, क्या है ? यहाँ यह बताया जा रहा है। जिसको सुमति ज्ञान उत्पन्न हो गया है, जिसकी सुबुद्धि का जागरण हो गया,जो ॐकार स्वरूप शुद्धात्म तत्व की अनेय गुन तिस्टंते, संमिक्तं सार्थ बुध॥ २०७॥ साधना में संलग्न है, अपने रत्नत्रयमयी ध्रुव तत्व का श्रद्धानी है यही सम्यक्त्व है,5 अन्वयार्थ- (संमिक्तं जस्य सुद्धं च) जिसको सच्चा सम्यक्त्व है वह (व्रत 9 इसके अंतर्गत यहाँ चार बातें प्रमुख रूप से बताई गई हैं। तप संजमं सदा) हमेशा व्रत तप संयम की भावना रखता है (अनेय गन तिस्टंते) १.सुमति ज्ञान का उदय, २. सुबुद्धि विवेक का जागरण, ३. ॐकार स्वरूप इससे उसमें अनेक गुण आ जाते हैं अर्थात् प्रगट हो जाते हैं (संमिक्तं साधं बुधै) शुद्धात्म तत्व की साधना, ४. अपने रत्नत्रयमयी ध्रुव तत्व का श्रद्धान। इसलिये बुद्धिमानों को सम्यक्त्व का श्रद्धान करना चाहिये। दूसरी अपेक्षा तीन बातें और भी हैं विशेषार्थ- जघन्य पात्र अव्रत सम्यक्दृष्टि की पहली क्रिया सम्यक्त्व की reaknekoirmedheknormesh Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P OOR श्री बावकाचार जी गाथा-२०८ ROO साधना या सच्चे धर्म की श्रद्धा करना है, तो वह कैसा होता है, इसके स्वरूप का जस्य संमिक्त हीनस्य, उग्रं तव व्रत संजुतं । वर्णन किया जा रहा है। जिसको सच्चा सम्यक्त्व होता है वह हमेशा व्रत तप संयम संजम क्रिया अकाऊंच, मूल बिना वृक्षं जथा॥२०८॥ की भावना रखता है और इससे उसमें अनेक गुण प्रगट हो जाते हैं। सदाचारी शांत सरल जीवन हो जाता है। क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि गुण प्रगट हो जाते हैं. सबके * अन्वयार्थ- (जस्य संमिक्त हीनस्य) जो सम्यक्त्व से हीन है अर्थात् प्रति प्रेम वात्सल्य भाव आ जाता है। सब जीवों के प्रति करुणा अहिंसा भाव प्रगट हो। सम्यक्दर्शन से रहित है (उग्रं तव व्रत संजुतं) वह उग्र अर्थात् घोर तप तपता है, जाता है। इसी बात को समयसार नाटक में कहा है व्रत सहित है (संजम क्रिया अकाऊंच) संयम सदाचार की क्रिया करता है परंतु वह करुणा वच्छल सुजनता, आतम निंदा पाठ। ४ सब अकार्यकारी है अर्थात् कोई कार्यकारी नहीं है (मूल बिना वृक्षं जथा) समता भगति विरागता,धरम राग गुन आठ॥ जैसे- बिना जड़ के वृक्ष नहीं हो सकता। १. करुणा, २. मैत्री, ३. सज्जनता, ४. स्वलघुता, ५. समता, ६. भक्ति, S विशेषार्थ- यहाँ मोक्षमार्गी जघन्य पात्र अव्रत सम्यक्दृष्टि की पहली क्रिया ७. वैराग्य और ८. धर्मानुराग - यह आठ गुण प्रगट हो जाते हैं, तथा सच्चे धर्म का श्रद्धान सम्यक्त्व है उसका वर्णन चल रहा है। सम्यकदर्शन होने पर चित प्रभावना भाव जुत,हेय उपादै वानि। 3 संयम तप के भाव होते हैं और उस रूप आचरण भी होने लगता है। यहाँ सदगुरु धीरजहरख प्रवीनता, भूषन पंच बखानि॥ कहते हैं कि यदि कोई जीव सम्यक्त्व से हीन है और वह मोक्ष के लिये उग्र तप करे १.धर्म की प्रभावना करने के मन में हमेशा भाव होना, २. हेय-उपादेय का व्रतों सहित हो, संयम आदि क्रियायें करे, वह सब अकार्यकारी हैं अर्थात उनसे कभी विवेक,३. धीरज, ४. प्रसन्नता और ५. तत्व चिन्तन में प्रवीणता यह पाँच विशेषतायें मुक्ति नहीं हो सकती। जैसे- बिना जड़ के वृक्ष कभी नहीं होता। पहले जड़ ही आ जाती हैं। 5 अंकुरित होती है, इसके बाद पत्ते पुष्प आदि होते हैं। इसी प्रकार मोक्षरूपी फल सम्यक्दृष्टि के यह पाँच दोष विला जाते हैं चाहने वालों को पहले सम्यक्दर्शन मूल में होना अनिवार्य है। ज्ञान गरब मतिमंदता, निठुर वचन उद्गार। इसी बात को योगीन्दुदेव योगसार में कहते हैंरुद्रभाव आलस दशा, नास पंच परकार ॥ वय तव संजम मूलगुण, मूढह मोक्ख ण वुत्त। ज्ञान का गर्व, बुद्धि की हीनता, कठोर वचन बोलना, रौद्रभाव कठोर परिणाम, जावण जाणइ इक्क पर सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥२९॥ आलस्य, यह दोष नष्ट हो जाते हैं, तथा जब तक एक शुद्ध पवित्र भाव निज शुद्ध स्वभाव का ज्ञान, अनुभूति नहीं होती लोक हासभय भोगतषि, अग्रसोच थिति मेव। तब तक व्रत, तप, संयम, मूलगुण आदि से हे मूढ ! कभी मोक्ष होने वाला नहीं है। मिथ्या आगम की भगति, मृषादर्सनी सेव॥ वय तव संजमु सीलु जिय ए सव्वई अकयत्थु । लोक हास्य का भय अर्थात् मेरे धर्माचरण करने पर लोग क्या कहेंगे इसका जाव ण जाणइक पर सुबउ भाउ पवितु ॥३१॥ भय, इन्द्रियों के विषय भोगने की रुचि, अब आगे क्या होगा इसकी चिन्ता करना, व्रत,तप, संयम शील हे जीव ! यह सब कोई कार्यकारी नहीं हैं, जब तक तू र कुशास्त्रों को पढ़ना, कुसंगति आदि.खेल. तमासे. नाटक, सिनेमा आदि देखने का 5 अपने एक परम शुद्ध पवित्र भाव को नहीं जानता, जब तक सम्यक्दर्शन अर्थात् ७ शौक। यह पाँच बातें सम्यक्दृष्टि की छूट जाती हैं, जबकि संसारी प्राणी बहिरात्मा निज शुद्धात्मानुभूति नहीं होती, तब तक यह व्रत संयम आदि कोई भी कार्यकारी इन्हीं कार्य कारणों में लगा रहता है। नहीं है, मात्र इनसे मुक्ति मिलने वाली नहीं है। सम्यक्त्व सहित व्रत तप संयम मोक्षमार्ग के कारण हैं। सम्यक्त्व से हीन व्रत यहाँ कोई प्रश्न करे कि सम्यकदर्शन के बगैर व्रत, तप,संयम आदि से मुक्ति तप क्रिया सब जड़ के बिना वृक्ष के समान हैं। इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं- नहीं मिलती यह कोई कार्यकारी नहीं हैं तो फिर यह व्रत, तप, संयम करना ही नहीं Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी गाथा-२०९,२१० SO0 चाहिये? विशेषार्थ- पूर्व में बताया है कि जो सम्यक्त्व से हीन है, वह कितने ही व्रत, ___ उसका समाधान करते हैं कि भाई! बगैर सम्यकदर्शन के तो तीन काल में भी तप, संयम आदि करे, कोई कार्यकारी नहीं हैं। जैसे- बिना मूल के वृक्ष नहीं होता, मुक्ति होने वाली नहीं है। यह तो परम सत्य है, मात्र व्रत संयम तप आदि से मुक्ति . इसी प्रकार सम्यक्त्व के बिना धर्म वृक्ष नहीं लगता। यहाँ बता रहे हैं कि जिसके मूल नहीं होती; परन्तु सम्यक्दर्शन होने पर यह भी आवश्यक हैं, इनके बगैर भी मुक्ति में सम्यक्त्व है उसके धर्म वृक्ष लगता है, उसमें व्रत संयम की शाखा डाल पत्र पुष्प नहीं होती तथा वर्तमान संसारी दशा में पाप-परिग्रह मे लगे रहो, संयम तपन करो होते हैं, अगणित गुणों का भंडार हो जाता है, जिसके हृदय में सम्यक्त्व होता है। तो नरक निगोद आदिदुर्गतियों में जाना पड़ेगा। संयम तपकरोगे तो देवादिसद्गति जहाँ सम्यक्दर्शन है वहाँ परिणामों में अनन्त गुणी विशुद्धता बढ़ती जाती जाओगे, अब कहाँ जाना चाहते हो? यह स्वयं अपना निर्णय अपने आप करो। है, जिससे कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा होने लगती है, अनेक गुण प्रगट हो करले करले रे तू निर्णय आज, तुझे कहाँ जाना है। जाते हैं। सम्यक्त्व के प्रभाव से सब बाहरी व्यवहार आचरण स्वयं ही उत्तम प्रकार स्वर्ग नरक तिर्यंच गति में, कई बार हो आया। 9 से होता है। इस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यकदर्शन की महान विशेषता है, इसी से मनुष्य गति में भी आकर के,जरा चैन नहीं पाया ॥..... * धर्म वृक्ष लगता है। सम्यक्त्व के बिना जीव कितना ही पढ़ा लिखा हो. व्रताचरण सबका निर्णय किया हमेशा,अपना नहीं किया है। करता हो परन्तु वह मोक्षमार्ग में कार्यकारी नहीं है। इसी बात को आगे गाथा में बिन निर्णय के पगले तेरा,लगान कहीं जिया है।..... कहते हैंअपना निर्णय आज तू करले,तुझे कहाँ है जाना। संमिक्त बिना जीवा,जाने अंगाई श्रुत बहुभेयं । चारों गति संसार में रुलना,या मुक्ति को पाना ।।..... अनेयं व्रत चरनं, मिथ्या तप बाटिका जीवो॥२१०॥ इस संसार में सुख ही नहीं है,फिरो अनन्ते काल। मोक्ष मार्ग में सुख ही सुख है,करलो जरा ख्याल ||..... अन्वयार्थ- (संमिक्त बिना जीवा) सम्यक्त्व के बिना जीव (जानै अंगाई श्रुत सम्यक्दर्शन ज्ञान चरण ही, है मुक्ति का मारग।। बहुभेयं) ग्यारह अंग नौ पूर्व तक बहुत प्रकार शास्त्रों को जाने (अनेयं व्रत चरनं) पाप पुण्य शुभ अशुभ भाव सब, हैं संसारी कारक।।..... 35 अथवा अनेक व्रतों का आचरण करे (मिथ्या तप बाटिका जीवो) यह सब जीव का ज्ञानानन्द करो अब हिम्मत,शुभ संयोग मिला है। 5 मिथ्या तप का बगीचा लगाना है, इससे कोई लाभ नहीं है। अब के चूके फिरो भटकते, हाथ से जाये किला है।।..... : विशेषार्थ- सम्यक्त्व के बिना जीव बहुत शास्त्र ग्यारह अंग नौ पूर्व तक पढ़ा जिसके मूल में सम्यक्त्व है, उसके धर्म वृक्ष लगता है और मोक्ष फल मिलता ९ हो, बहुत छन्द व्याकरणादि जानता हो अथवा अनेक व्रत तपाचरण करता हो परन्तु है इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं ॐ वह सब मोक्षमार्ग में कार्यकारी नहीं है। जैसे- कोई थूहर (कांटे वाला पेड़) का संमिक्तं जस्य मूलस्य, साहा व्रत डालनंतनंताई। बगीचा लगावे अथवा सेमर के पेड़ लगावे, जिसमें फूल तो बहुत होते हैं परन्तु सुगन्ध अवरेवि गुणा होति, संमिक्तं जस्य हिदयस्य ।। २०९॥ नहीं होती, इसी प्रकार सम्यक्त्व के बिना ग्यारह अंग तक पढ़ ले तो भी अज्ञानी ही 5 कहा जाता है अथवा महाव्रतों का साधन करके अन्तिम अवेयक तक के बन्ध योग्य 5 अन्वयार्थ- (संमिक्तं जस्य मूलस्य) जिसके मूल में सम्यक्त्व है (साहा व्रत विशुद्ध परिणाम करे तो भी वह असंयमी ही कहलाता है तथा सम्यक्त्व सहित जितना डाल नंतनंताई) उसके धर्म वृक्ष की शाखा डाल, व्रत रूपी अनन्त पत्ते ऊगते हैं। भी जानपना होवे उस सभी का नाम सम्यकज्ञान है और जो थोड़ा भी त्याग तप (अवरेवि गुणा होति) बहुत सारे गुण प्रगट हो जाते हैं (संमिक्तं जस्य ह्रिदयस्य) ति) बहुत सार गुण प्रगट हा जातह (सामक्त जस्याहृदयस्य) प्रवर्तन करे तो उसे सम्यक्चारित्र कहा जाता है। जिसके हृदय में सम्यक्त्व होता है। जिस प्रकार अंक सहित शून्य हो तो वह प्रमाण में आता है किन्तु अंक बिना १३८ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधा-२११,२१२८ Ou40 श्री बाचकाचार जी शून्य तो शून्य ही है। उसी प्रकार सम्यक्त्व के बिना ज्ञान और चारित्र व्यर्थ ही है। शुद्धात्मानुभूति, शुद्ध तत्व की श्रद्धा हो जाती है वह अवश्य ही मोक्ष जाता है। जैसे-जंगली बेर या गुलमोहर का बहुत बड़ा बगीचा लगा हो, चारों तरफ बहुत पेड़ इसी बात को योगीन्दुदेव परमात्मप्रकाश में कहते हैं७ होवें परन्तु वह किसी के लिये उपयोगी कार्यकारी नहीं है। न वहाँ खाने योग्य फल हैं, जे रयणत्तउ णिम्मलउ णाणिय अप्पु भणन्ति। न खुश्बूदार फूल हैं। इसी प्रकार बाहर से बहुत पढ़ा लिखा हो अथवा संयम सदाचार ते आराहय सिव पयह णिय अप्पा झार्यति ॥ २/३२॥ आदि का पालन करता हो, अनेक प्रकार के तप तपता हो परन्तु आत्मज्ञान शून्य है। जो ज्ञानी रागादिदोषरहित निर्मल रत्नत्रय को आत्मा कहते हैं वे शिव पद के जिसे स्वयं का ही बोध नहीं है, स्व-पर का भेदज्ञान नहीं है तो इससे कोई भी लाभ, आराधक हैं और वे ही मोक्ष पद के आराधक हुए अपने आत्मा को ध्याते हैं। आत्म कल्याण होने वाला नहीं है क्योंकि जिसकी दृष्टि बाहर पर की तरफ है वह यहाँ समीक्षात्मक रूप से सम्यक्त्व सहित क्या होता है ? और सम्यक्त्व सारे ज्ञान और चारित्र का उपयोग पर के लिये ही करेगा। सबको बतायेगा समझायेगा रहित क्या होता है ? सद्गुरू इसी प्रसंग का आगे गाथाओं में वर्णन करते हैं - बाहर से खूब प्रभावना प्रसिद्धि होगी और वह इसी में फूला अपने आपको भूला संमिक्तं जस्य तिक्तंच, अनेय विभ्रमजे रता। कषायाधीन परिणमन कर दुर्गति में चला जायेगा। मिथ्या मय मूढ दिस्टीच, संसारे भ्रमनं सदा ॥ २१२॥ जो सम्यकदृष्टि रत्नत्रय संयुक्त है, वह मोक्ष जायेगा इसी बात को आगे गाथा अन्वयार्थ- (संमिक्तंजस्य तिक्तंच) जिस जीव को सम्यक्त्व नहीं हैं (अनेय में कहते हैं विभ्रम जे रता) जो अनेक विभ्रम,संशय, शंका भय आदि में रत है (मिथ्या मय मूढ सुद्ध संमिक्त उक्तं च , रत्नत्रयं संजुतं । दिस्टी च) वह मिथ्यात्वी, मूढ दृष्टि बहिरात्मा है (संसारे भ्रमनं सदा) जो हमेशा सद्ध तत्वं च सार्थ च,संमिक्ती मुक्ति गामिनो ॥ २११॥ संसार में ही भ्रमण करेगा। अन्वयार्थ- (सुद्ध संमिक्त उक्तं च) शुद्ध सम्यक्त्व उसे कहते हैं (रत्नत्रयं विशेषार्थ-जो जीव अपने आत्म स्वरूप में नहीं ठहरा है अर्थात् जिसे स्व का संजुतं) जो रत्नत्रय संयुक्त है अर्थात् सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र सहित 8 बोध नहीं हुआ, जिसे अपने आत्म स्वभाव की श्रद्धा नहीं है, वह अनेक विभ्रम, हो (सुद्ध तत्वं च साधं च) और शुद्धात्म तत्व का श्रद्धानी अर्थात् अनुभवी होसंशय, शल्य, शंका, भय आदि संकल्प-विकल्पों में रत रहता है, वह मिथ्यात्व (संमिक्ती मुक्ति गामिनो) ऐसा सम्यक्त्वीजीव मोक्षगामी होता है। सहित मूढ दृष्टि है और हमेशा संसार में भ्रमण करेगा: क्योंकि जिसे अपने आत्म विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्त्व की विशेषता का वर्णन चल रहा है। सम्यक्त्व सहित स्वरूप का बोध नहीं हुआ, जिसे अभी यह भान नहीं है कि इस शरीरादि से भिन्न मैं जीव मोक्षमार्गी होता है। उसके सब व्रत संयमतप मोक्षमार्ग में सहकारी होते हैं तथा । एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं हूँ, यह सम्यक्त्व से हीन जीव बाह्य में कितना ही पढ़े लिखे व्रत संयम आदि करे परन्तु उससे मेरे नहीं हैं- वह इस शरीरादि पर्याय में लीन हुआ अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है। वह नाना मोक्षमार्ग नहीं बनता, मुक्ति नहीं होती। यह सम्यक्त्व की अर्थात् सच्चे धर्म निज प्रकार के संकल्प-विकल्प करके अनंत कर्मों का बंध करता है, संसार में रुलता शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति श्रद्धान की महिमा है। 3 है। वर्तमान जीवन में दःखी और भयभीत रहता है, बाह्य में पुण्योदय की अनुकूलता यहाँ प्रश्न आया कि शुद्ध सम्यक्त्व किसे कहते हैं? सदगुरू समाधान करते हैं हो तो भी वह उसका भोग नहीं करता, भविष्य की आशा तृष्णा में आकुल-व्याकुल कि शुद्ध सम्यक्त्व उसे कहते हैं जो रत्नत्रय संयुक्त हो अर्थात सम्यकदर्शन. " बना रहता है। सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र सहित होक्योंकि सम्यक्दर्शन होते ही ज्ञान, सम्यक्ज्ञान इसी बात को योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते हैंहो जाता है और मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी कषाय के उपशम होने से स्वरूपाचरण पज्जय स्त्तउ जीवडउ मिच्छादिठ्ठि हवेइ। चारित्र पैदा हो जाता है। यदि सम्यक्दर्शन के साथ तीनों ही न हों तो सम्यक्दर्शन बंधइ बहु विह कम्मडाजें संसारु भमे॥१-७७॥ को मोक्षमार्ग नहीं कह सकते हैं तथा जिसको ऐसा सम्यक्त्व हो जाता है अर्थात् निज शरीरादि पर्याय में लीन हुआ जो अज्ञानी जीव है, वह मिथ्यादृष्टि होता है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ou4 श्री श्रावकाचार जी गाथा-२१३,२१४ POOO और वह अनेक प्रकार के कर्मों को बांधता है, जिनसे कि संसार में भ्रमण करता है। उसका उत्तर है कि दोनों कार्य एक काल में एक समय में होते हैं, इसमें आगे पीछे का G जिउ मिच्छतेपरिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणे।। प्रश्न ही नहीं है। इसी प्रकार सम्यक्त्व के होते ही शंकादि दोष विला जाते हैं। यहां । कम्म विणिम्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेइ ॥१-७९॥ . छोड़ने-छूटने की बात भी नहीं है। सम्यक्त्वी को यह दोष दिखाई ही नहीं देते। जैसे यह जीव अतत्व श्रद्धान रूप परिणत हुआ, आत्मा को आदि लेकर तत्वों के प्रकाश में अंधकार दिखाई नहीं देता इसी प्रकार सम्यक्त्व के होते ही यह सब दोष ७ स्वरूप का अन्य का अन्य श्रद्धान करता है, यथार्थ नहीं जानता। वस्तु का स्वरूप विला जाते हैं तथा जिसमें यह दोष दिखाई देते हैं वह सम्यक्त्वी है ही नहीं। आठ तो जैसा है. वैसा ही है तो भी वह मिथ्यात्वी जीव, वस्तु के स्वरूप को विपरीत शंकादिदोष, आठ मद, छह अनायतन, तीन मूढता में से अगर एक भी दोष दिखाई जानता है। अपना जो शुद्ध ज्ञानादि सहित स्वरूप है उसको मिथ्यात्व रागादिरूप देता है तो वह सच्चा सम्यक्त्वी नहीं है। जानता है। उससे कर्मों कर रचे गये जो शरीरादि पर भाव हैं, उनको अपने कहता है । जिसके हृदय में हो चुका, सम्यक्त्व रवि का जागरण। अर्थात् भेदज्ञान के अभाव से कर्म जनित देह के स्वरूप को अपना जानता है, इसी से जो प्रति निमिष करता है,आतम धर्म का ही आचरण ॥ संसार में भ्रमण करता है। उसके हृदय में दोष को,रहता न कोई ठौर है। जो सम्यक्दृष्टि होता है वह शुद्ध धर्म में रत रहता है और मोक्ष जाता है इसी आदित्य के पश्चात् रहती, सर्वरी क्या और है। (चंचल जी) बात को आगे गाथा में कहते हैं इसी बात को रयणसार में कहते हैंसंमिक्तं जेन उत्पादंते,सद्धधर्म रतो सदा। देव गुरु धम्म गुण चारित तवायार मोक्खगदि भेय। दोष तस्य न पस्यंते, रजनी उदय भास्करं ॥२१३॥ जिण वयण सुविहि विणा, दीसदि कि जाणदे सम्म ॥४८॥ अन्वयार्थ- (संमिक्तं जेन उत्पादंते) जिनको सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है । देव,गुरू, धर्म, गुण, चारित्र, तपाचार, मोक्षगति का रहस्य जिन देव के वचन सम्यकदृष्टि के बिना क्या देखे या जाने जा सकते हैं ? सम्यक्दृष्टि ही इन सबको (सुद्ध धर्म रतो सदा) वे हमेशा शुद्ध धर्म अर्थात् निज शुद्धात्म स्वरूप में ही रत रहते ४ देखताजानता है। हैं (दोषं तस्य न पस्यते) उनके कोई शंकादि दोष दिखाई नहीं देते, सब विला जाते हैं अ यह गाथायें सद्गुरू तारण स्वामी ने विशिष्ट क्रम से सम्यक्त्व और मिथ्यात्व (रजनी उदय भास्कर) जैसे सूर्य के प्रकाश होते ही रात्रि विला जाती है। २ का स्वरूप बताते हुए कही हैं कि जो सम्यकदृष्टि है वह ही यथार्थ में मोक्षमार्गी है विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्त्व की महिमा बताई जा रही है कि जैसे सूर्य उदय य और वही पात्र है। जो मिथ्यादृष्टि है वह अनन्त संसार में रुलता है। इन गाथाओं के होते ही रात्रि चली जाती है तथा सब अंधकार विला जाता है, उसी तरह जिसे सम्यक्त्व. माध्यम से हम अपने आपको देखें कि हम क्या हैं? तभी अपना भला होगा। निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती है फिर वह हमेशा अपने शुद्ध धर्म में ही रत रहता है.. आगे पुन: सम्यक्त्व से हीन जीव की दशा का वर्णन किया जा रहा हैहमेशा शुद्धात्म तत्व का ही चिन्तन, मनन, स्मरण, ध्यान करता है. आत्मा की ही संमिक्तं जस्य न पस्यंते, अंध एव मूढं त्रयं । चर्चा-वार्ता में लगा रहता है फिर उसमें शंकादि पच्चीस दोष दिखाई नहीं देते, वह कुन्यानं पटलं जस्य, कोसी उदय भास्करं ।। २१४ ॥ र सब विला जाते हैं। यहाँ कोई प्रश्न करे कि सम्यक्त्व होने पर यह शंकादि दोष छोड़ना पड़ते हैं या अन्वयार्थ-(संमितंजस्य नपस्यंते) जहाँ सम्यक्त्व दिखाई नहीं देता अर्थात् छूट जाते हैं? और यदि किसी में यह दोष दिखाई पड़ें तो वह सम्यक्त्वी है या नहीं? जहाँ आत्म स्वरूप का श्रद्धान नहीं है (अंध एवमूढं त्रयं) वह तीन मूढताओं से अंधा उसका समाधान करते हैं कि जैसे सूर्य के उदय होते ही रात्रि विला जाती है। है (कुन्यानं पटलंजस्य) उसके ऊपर कुज्ञान का पटल अर्थात् परदा पड़ा है, उसकी । अब यहाँ पुनः प्रश्न होता है कि पहले रात्रि विलाती है या सूर्य का उदय होता है? तो दशा वैसी ही हो रही है जैसे (कोसी उदय भास्कर) उल्लू या कुसयारे कीड़े को Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री श्रावकाचार जी गाथा-२१५ P OO अथवा किसी गहरी गुफा में बंद मनुष्य को सूर्य का प्रकाश दिखाई नहीं देता। जाता है। विशेषार्थ- यहाँ समन्वयात्मक विवेचन चल रहा है कि जिसको सम्यक्दर्शन विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्त्व की महिमा बताई जा रही है कि जिसे शुद्ध हो जाता है उसकी क्या स्थिति होती है और जिसे सम्यक्दर्शन नहीं होता उसकी ५ सम्यक्दर्शन होता है और जो श्रुतज्ञानी सम्यक्ज्ञानी होता है, वहाँ ज्ञान की ऐसी क्या स्थिति होती है। इस संदर्भ में बताया जा रहा है कि जिसे अपने आत्म स्वरूप विशेषता होती है कि श्रुतज्ञान या सम्यज्ञान में केवलज्ञान की नोंध (चमक) होती का श्रद्धान नहीं होता, उसके ऊपर तीन मूढता और तीन कुज्ञान का गहरा परदा है, वह भी लोकालोक को अप्रत्यक्ष जानने लगता है और यही ज्ञान की विशेषता, पड़ा रहता है, जिससे वह अंधे के समान हो रहा है। जैसे- कोसी अर्थात् उल्लू या 5 विलक्षणता एक दिन केवलज्ञान प्रगट करा देती है। रेशमी कीड़ा जो अपने खोल में बंद रहता है उसे सूर्य का उदय दिखाई नहीं देता। यहाँ प्रश्न आता है कि अभी अव्रत सम्यक्दृष्टि जघन्य पात्र है, संसार शरीर इसी प्रकार इन तीन मूढता और कुज्ञान में फँसे अज्ञानी प्राणी को अपने आत्म! भोगों में लिप्त गृहस्थ दशा में है और बात ऐसी बताई जा रही है कि उसे यहीं लोकालोक स्वरूप का प्रकाश दिखाई नहीं देता। जैसे-बंद कोठरी में बैठा हुआ मनुष्य सूर्य के दिखाई देने लगा, तो वह संसारी कहावत हो गई कि दिन में ही तारे नजर आने लगे। उदय को नहीं देख सकता; यद्यपि सूर्य प्रगट है तथापि उसको अंधेरा ही दिखता है, कम से कम इतना तो ध्यान में रखो कि जो संभव हो सके वह करो, अपने पक्ष को इसी तरह जो देव मूढता, पाखंड मूढता, लोक मूढता में रत है तथा जिसके ऊपर इतना बढ़ाने से एकान्तपक्षी निश्चयाभासी न हो जायेगा? कुमति, कुश्रुत और कुबुद्धि रूपी कुज्ञान का परदा पड़ा है उसे सम्यकदर्शन रूपी इसका समाधान करते हैं कि भाई ! जिसको सम्यकदर्शन सहित आगम का सूर्य जो अपनी ही आभा में प्रकाशमान है, दिखाई नहीं देता। सम्यक्त्व से रहित यथार्थ ज्ञान है वही पर के यथार्थ स्वरूप को जानता अनुभवता है। द्वादशांग वाणी जीव अन्धा व पागल होता है उसकी क्या स्थिति होती है इसे रयणसार में आचार्य का सार स्वानुभव है, यही स्वानुभव धर्म ध्यान है व यही स्वानुभव शुक्ल ध्यान है, कुन्दकुन्द देव कहते हैं S इससे ही घातिया कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान होता है। केवलज्ञान का कारण णवि जाणदि कज्जमकज्ज सेयमसेयं पुण्ण पावं हि। अ यथार्थ स्वसंवेदन ज्ञान ही है। इसी ज्ञान से सर्व आवरण दूर होते हैं और केवलज्ञान तच्चमतच्च धम्ममधम्म सो सम्मउम्मुक्को ॥३९-४०॥ का प्रकाश होता है। इस कथन से यह बात बतलाई गई है कि जिसको अपना जो कर्तव्य-अकर्तव्य, श्रेय-अश्रेय (हित-अहित) पुण्य-पाप,तत्व-अतत्व परमात्म पद प्राप्त करना हो उसको उचित है कि वह निज शुद्धात्मानुभूति निश्चय और धर्म-अधर्म को निश्चय से नहीं जानता है, वह सम्यक्त्व से रहित अंधा है। जो सम्यक्दर्शन प्रगट करे और आगम का भले प्रकार अभ्यास मनन करे क्योंकि जिनवाणी योग्य-अयोग्य, नित्य-अनित्य, हेय-उपादेय, सत्य-असत्य और भव्य-अभव्य कोके अभ्यास मनन से ही घातिया कर्मों की स्थिति घटती है। सम्यकदर्शन होने के पीछे नहीं जानता वह सम्यक्त्व से रहित मूढ मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है। 5 सम्यक्चारित्र का पुरुषार्थ करे, सम्यक्ज्ञान का सही अभिप्राय यही है कि वह जो सम्यक्दर्शन सहित है वह जीव कैसा होता है यह अगली गाथा में कहते हैं- सम्यक्चारित्र प्रगट करे और इसकी शुरुआत सम्यक्दर्शन से ही होती है बगैर संमिक्तं जस्य सूवंते, श्रुत न्यान विचष्यनं। सम्यक्दर्शन के यह कुछ होता ही नहीं है। इतना अवश्य है कि ज्ञान और चारित्र का न्यानेन न्यान उत्पादंते,लोकालोकस्य पस्यते ॥ २१५॥ 5 क्रमश: विकास होता है। यहाँ महत्वपूर्ण बात तो यह है कि ऐसे शुद्ध धर्म सम्यक्दर्शन 5 का हमें बहुमान तोजागे, ऐसा लगे तो कि बस यही इष्ट प्रयोजनीय है तो फिर यह सब अन्वयार्थ- (संमिक्तंजस्य सूवंते) जहाँ सम्यक्त्व परिणमन कर रहा है (श्रुत होने में ज्यादा देर नहीं लगती, दो चार भव में ही केवलज्ञानी मुक्त सिद्ध परमात्मा हो । न्यान विचष्यनं) विलक्षण श्रुत ज्ञान चल रहा है (न्यानेन न्यान उत्पादंते) वहाँ ज्ञान सकते हैं। से ज्ञान बढ़ता है और वहाँ (लोकालोकस्य पस्यते) लोकालोक को देखने जानने जो जीव सम्यक्दर्शन से रहित है, उसकी क्या स्थिति होती है इसे अगली वाला केवलज्ञान प्रगट हो जाता है अर्थात् स्वयं केवलज्ञानी अरिहन्त परमात्मा हो गाथा में कहते हैं Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PO4 श्री श्रावकाचार जी गाथा-२१६,२१७ P OO संमिक्तं जस्य न पस्यंते, असा व्रत संजमं। सम्यक्दर्शन सहित मुक्ति का पुरुषार्थ करे। दूसरी बात- पाप, विषय-कषायों से 6 ते नरा मिथ्या भावेन, जीवितोपि मृतं भवेत् ॥ २१ ॥ विरत होकर संयम, तप करते हुए मनुष्य जीवन को नीचे गिरने से बचायें। पहला- मोक्ष प्राप्त करें, दूसरा- परभव न बिगाड़ें; क्योंकि मनुष्य तो विवेकवान अन्वयार्थ- (संमिक्तं जस्य नपस्यंते) जिसे अपने आत्म स्वरूप की अनुभूति ॐ 8 नहीं तो पशु के समान । कथन की अपेक्षा समझें और वर्तमान में अपनी पात्रता ७ नहीं हुई (असाधं व्रत संजमं) और जो व्रत संयम का अश्रद्धानी है (ते नरा मिथ्या 3 परिस्थिति अनुसार विवेक से काम लें। मुक्ति की अपेक्षा बगैर सम्यक्त्व के व्रत, भावेन) वह मनुष्य मिथ्या भावना में रत (जीवितोपि मृतं भवेत्) जीता हुआ भी ॐ नियम-संयम से मुक्ति होने वाली नहीं है परन्तु दुर्गतियों और दु:खों से तथा पाप, मृतक के समान है। विषय-कषाय और अशुभ कर्म से बचने के लिये व्रत, नियम, संयम भी आवश्यक है विशेषार्थ- यहाँ पर यह बताया जा रहा है कि जिसे सम्यक्त्व दिखाई नहीं। हैं तथा मनुष्य जीवन की शोभा तो संयम और सदाचार से ही है। अपेक्षा को समझकर दिया अर्थात् अपने आत्म स्वरूप की अनुभूति नहीं हुई और जो व्रत संयम का विवेक से काम लें क्योंकि बुद्धिमान मनुष्यों को यह स्मरण रखना चाहिये कि आत्मा अश्रद्धानी है, कहता है इनमें क्या रखा है और निरन्तर मिथ्या भावों पाप-परिग्रह, को इस विशिष्ट योनि की प्राप्ति करोड़ों वर्षों तक देहान्तर करने,चौरासी लाख योनियों विषय-कषाय में रत रहता है वह जीता हुआ भी मृतक के समान है; क्योंकि यह के चक्कर लगाने के बाद हई है। यह प्राकृत जगत मानों एक बड़ा भारी समुद्र है और मनुष्य भव जो अपना आत्माहत करन, मुक्त हान कालय मिला ह आर इसम धम इस भवसागर में यह मानवयोनि एक नौका के समान है, जिसकी रचना इस भव का पुरुषार्थ भी नहीं किया और न व्रत संयम का पालन किया तो जहाँ से निकलकर सागर को पार करने के लिये हई है। धर्म शास्त्र और सद्गुरू मानो कुशल नाविक बड़ी मुश्किल से यहाँ आये, फिर वही नरक निगोदादि दुर्गतियों में जाना पड़ेगा। हैं और मानव देह में प्राप्त सुविधायें ही अनुकूल वायु है, जो सही दिशा में ले जा रही इसी बात को कुन्दकुन्द देव ने रयणसार में कहा है S है। यदि इन सुविधाओं के रहते हुए भी कोई मनुष्य अपनी मानव योनि का सदुपयोग उग्गो तिब्बो दुट्ठो, दुम्भावो दुस्सुदो दुराभासो। अ स्वरूप साक्षात्कार के लिये नहीं करता तो उस असुर को आत्महन्ता अर्थात् अपनी दुम्मद रदो विरुखो, सो जीवो सम्मउम्मुक्को ॥४२॥ 8 आत्मा को मारने वाला समझना चाहिये । वह आत्महन्ता, अविद्या के अन्धतम सम्यक्त्व से रहित जीव उग्र प्रकृति वाला, तीव्र स्वभाव वाला, दुष्ट परिणामी, राज्य में प्रवेश कर सदा दुःख भोगेगा। दुर्भावनाओं से युक्त, मिथ्या शास्त्रों का श्रवण करने वाला, दुष्ट भाषी, मिथ्यामद में 2 ज्यों मतिहीन विवेक बिना नर, साजि मतंगज ईंधन ढोवे। अनुरक्त, विरुद्ध आचरण करने वाला, जीता हुआ भी मृतक के समान है; क्योंकि कंचन भाजन धूल भरे शठ, मूठ सुधारस सौं पग धोवे ॥ उसके जीने का कोई लाभ ही नहीं है विशेषता और घोर दुर्गति का कारण है। वा हित काग उड़ावन कारण,डार महामणि मूरख रोवे। यहाँ प्रश्न आता है कि आपने कहा कि जो सम्यक्त्व से रहित और व्रत संयम त्यों यह दुर्लभ देह बनारसि, पाय अजान अकारण खोवे ।। का अश्रद्धानी है वह जीते हुए मृतक के समान है, उधर आप यह भी कहते हैं कि अपनी बात है स्वयं समझें, विवेक से काम लें तो अपना भला होवे। आगे जो सम्यक्त्व के बिना व्रत संयम सब व्यर्थ है फिर इसका अभिप्राय क्या है? इसका जीव सम्यक्त्व सहित होता है वह कैसा होता है यह अगली गाथा में कहते हैंसमाधान करते हैं कि यह मनुष्य भव मिला कैसे मिला और क्यों मिला उदयं संमिक्त हृदयं जस्य, त्रिलोकं मुदमं सदा। बहु पुण्य पुंज प्रसंग से शुभ देह मानव का मिला। कुन्यानं राग तिक्तं च,मिथ्या माया विलीयते ॥२१७॥ लेकिन अरे भव चक्र का फेरा न तेरा इक टला॥ यह मनुष्य भव महान पुण्य के योग से प्राप्त हुआ है, इसकी सार्थकता मुक्ति को अन्वयार्थ-(उदयं संमिक्त हृदयंजस्य) जिसके हृदय में सम्यक्त्व का उदय प्राप्त करने में है इसलिये इसमें दो बातें समझने की हैं, पहली बात तो यह कि हो गया है अर्थात् जिसे निज शुद्धात्मानुभूति हो गई है (त्रिलोकं मुदमं सदा) वह तीन १४२ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७७ 6565 श्री आवकाचार जी लोक में कहीं भी रहे, कैसा भी रहे हमेशा प्रसन्न आनंदमय रहता है (कुन्यानं राग तिक्तं च) उसका कुज्ञान रूपी राग छूट जाता है (मिथ्या माया विलीयते) और मिथ्या माया भी विला जाती है। विशेषार्थ - यहाँ सम्यक्दर्शन की महिमा बताई जा रही है कि जिसके हृदय में सम्यक्त्व का उदय हो जाता है वह फिर तीन लोक में कहीं भी किसी भी पर्याय में कैसा ही रहे हमेशा सुखी प्रसन्न आनंद में रहता है, उसका कुज्ञान रूपी राग अर्थात् पर के कर्ता भोक्तापने का भाव छूट जाता है तथा मिथ्या माया अर्थात् धोखा, झूठ छल जिसमें संसारी जीव फँसा रहता है, सम्यक्त्वी उससे छूट जाता है, माया के तीन रूप- कंचन, कामिनी और कीर्ति जो प्रत्यक्ष धोखा है यह मान्यता भी विला जाती है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह बात तो समझ में नहीं आई कि जब प्रत्यक्ष अव्रत सम्यक्दृष्टि इन बातों में फँसा है, लगा है यही सब कर रहा है फिर आप कहते हो कि यह सब छूट जाते हैं, विला जाते हैं तथा तीन लोक में कहीं भी किसी पर्याय में कैसा ही रहे, हमेशा सुखी, प्रसन्न आनंद मय रहता है। अगर अव्रत दशा में यह सब हो जाता है तो फिर व्रती साधु बनने, वीतरागी होने साधना करने की क्या जरूरत है ? फिर यह तीर्थंकर चक्रवर्ती सब छोड़कर एकान्त निर्जन स्थान में क्यों गये ? और इतनी तप साधना क्यों की ? उसका समाधान करते हैं कि भाई ! बात को तो समझो, यहाँ क्या कहा जा रहा है कि जिसके हृदय में सम्यक्त्व का उदय हो गया अर्थात् जिसे निज शुद्धात्मानुभूति हो गई, उसे स्व-पर का भेदज्ञान हुआ या नहीं ? हुआ, तो यहाँ श्रद्धान की अपेक्षा पर के कर्ता भोक्तापन का अभाव हो जाता है और सबके बीच रहता है, सब कुछ करता भोगता हुआ भी उसके माया का बंधन विला जाता है। जैसे- अपनी बच्ची अपने घर में बड़ी हुई लेकिन जब हमने उसकी लगन सगाई दूसरी जगह कर दी तो उसकी मान्यता में क्या हो जाता है, अपने घर में ही रह रही है, सब कपड़े जेवर SYA YA YANAT YA. पहने है, खा पी रही है परन्तु मानती क्या है ? कि अब यह मेरा कुछ नहीं है। सब करती - धरती है, मुँह से कभी कुछ नहीं कहती परन्तु श्रद्धान मान्यता में क्या हो गया? यह मेरा कुछ नहीं है। इसी प्रकार अव्रत सम्यक् दृष्टि की अन्तरंग दशा हो जाती है। यहाँ बाहर के आचरण की बात नहीं है, यह तो सम्यकदृष्टि की अंतरंग दशा की बात है क्योंकि अंतरात्मा सम्यकदृष्टि की चिन्तन की धारा बदलती है, मिथ्या मान्यता ही टूटती है, क्रिया अभी नहीं छूटती । यह तो बड़े अपूर्व रहस्य हैं। यह तो १४३ गाथा-२१७ वही जाने जो वैसा होकर देखे। यहाँ मात्र मान्यता श्रद्धान की अपेक्षा दृष्टि का परिवर्तन होता है, सृष्टि का परिवर्तन तो फिर अपने आप होने ही लगता है और वैसे ही हो रहा है। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि अपनी मान्यता से ही बंधा है तथा दूसरा जो प्रश्न किया कि सम्यकदृष्टि तीन लोक में किसी पर्याय में कहीं भी कैसा ही रहे हमेशा सुखी प्रसन्न आनंदमय रहता है तो इसका प्रत्यक्ष उदाहरण वर्तमान में राजा श्रेणिक का जीव, जो आगामी तीर्थंकर होने वाला है पर अभी नरक में है और सारे नारकीय कृत्य करता भोगता हुआ भी आनंदमय है या दुःखी है ? आनंद में है, तो बताओ जब नरक में आनंद में रह सकता है तो और पर्यायों में, परिस्थितियों में आनंदमय रह सकता है या नहीं। भाई ! यह अव्रत दशा तो कर्मोदय जन्य है। अरे! अनादि मिथ्यादृष्टि को जब एक समय का उपशम सम्यक्त्व होता है तो उसे अपने शुद्धात्म स्वरूप की जो अनुभूति होती है एक समय की निर्विकल्प दशा में जो स्वसंवेदन अतीन्द्रिय आनंद अमृत का स्वाद आता है उसमें और सिद्ध परमात्मा की अनुभूति में कोई अंतर नहीं है, सिर्फ मात्रा, समय का अन्तर है, स्वानुभूति में कोई अंतर नहीं है तो यहाँ तो उसकी बात चल रही है, जिसे ऐसा अतीन्द्रिय आनंद आ गया है फिर वहबाहर नारकी कृत दुःख भोगत, भीतर समरस गटा गटी । रमत अनेक सुरनि पै नित, छूटन की है छटापटी ॥ जा सम्यक् दृग धारी की, मोहि रीत लगत है अटापटी। - बात तो ऐसी है और यह सद्गुरू तारण स्वामी तो अनुभव प्रमाण बता रहे हैं। यहाँ लिखी पढ़ी सुनी बात नहीं है, यहाँ तो आँखों देखी अनुभव प्रमाण बात है। इसी बात को तत्वज्ञान तरंगिणी में ज्ञान भूषण भट्टारक जी कहते हैं मिलितानेक वस्तुनां स्वरूपं हि पृथक पृथक । स्पर्शादिभिर्विदग्धेन निःशंक ज्ञायते यथा ॥ तथैव मिलितानां हि शुद्ध चिहेकह कर्मणां । अनुभूत्या कथंसिद्धिः स्वरूपं न पृथक पृथक | आत्मानं देह कर्माणि भेदज्ञाने समागते । मुक्त्वा यांति यथा सर्पा गरूड़े चंदनद्रुमं ॥ भेदज्ञान बलात् शुद्ध चिद्रूपं प्राप्य केवली । भवेद् देवाधि देवोपि तीर्थकर्ता जिनेश्वरः ॥ जिस प्रकार विद्वान मनुष्य आपस में मिले हुए भी अनेक पदार्थों का स्वरूप ७७ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSON श्री श्रावकाचार जी गाथा-२१८,२१९ Pre स्पर्श आदि के द्वारा स्पष्ट रूप से जुदा-जुदा पहिचान लेते हैं, उसी प्रकार आपस में जैसे शरीर का कोढ़ी (अपने रक्त संबंध से) अपने कुल का विनाश कर देता G अनादिकाल से मिले हुए शुद्ध चिद्रूप शरीर और कर्मों के स्वरूपको भी अनुभव ज्ञान है, उसी प्रकार मिथ्यात्व भी अपनी आत्मा के दान आदि सद्गुणों और सद्गति का के बल से वे बिना किसी रोक-टोक के स्पष्ट रूप से जुदा-जुदा जान लेते हैं। . विनाश करता है। अहो ! संसार में मिथ्यात्व ही कष्टप्रद है। जिस प्रकार चंदन वृक्ष पर लिपटा हुआ सर्प अपने बैरी गरूड पक्षी को देखते * एक्क खणं णवि चिंतदि मोक्ख णिमित्तं णियप्पसम्भाव। ही तत्काल आँखों से ओझल हो जाता है, पता लगाने पर भी उसका पता नहीं लगता, अणिसि विचिंतदिपावं बहुला लावं मणो विचिंतेदि॥४९॥ उसी प्रकार भेद विज्ञान के उत्पन्न होते ही समस्त कर्म आत्मा को छोड़कर न मालूम मिच्छामदिमदमोहासवमतो बोल्लदे जहा भुल्लो। कहाँ लापता हो जाते हैं। भेदविज्ञान के उत्पन्न होते ही कर्मों की सूरत भी दिखाई ८ तेण ण जाणदि अप्पा अप्पाणं सम्म भावाणं ॥५०॥ नहीं देती। मिथ्यादृष्टि जीव मोक्ष प्राप्ति के निमित्तभूत अपने आत्म स्वभाव का चिन्तन इसी भेदविज्ञान के बल से यह आत्मा शुद्ध चिद्रूप को प्राप्त कर केवलज्ञानी एक क्षण भी नहीं करता। दिन-रात पाप का चिन्तन करता है और मन से दूसरों के तीर्थकर और जिनेश्वर कहलाने लगाता है । यह सम्यक्दर्शन की महिमा बड़ी बारे में अनेक बातें सोचता रहता है। अपूर्व है। इसी बात को अगली गाथा में कहते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव मद और मोह की मदिरा से मतवाला होकर भुलक्कड़ के संमिक्त सहित नरयम्मि, संमिक्त हीनो न चक्रियं । समान प्रलाप करता है इसलिये वह आत्मा को और आत्मा के साम्यभावों को नहीं संमिक्तं मुक्ति मार्गस्य, हीन संमिक्त निगोदयं ।। २१८॥ जानता है। सम्माविट्ठी कालं बोल्लदि वेरग्गणाण भावहिं। अन्वयार्थ- (संमिक्त सहित नरयम्मि) सम्यक्दर्शन सहित नरक में रहना मिच्छाविट्ठी बांछा, दुग्भावालस्स कलहेहिं ॥५२॥ अच्छा है (संमिक्त हीनो न चक्रिय) सम्यक्त्व से हीन चक्रवर्ती होना भी लाभकारी सम्यक्दृष्टि वैराग्य और ज्ञानभाव से समय को व्यतीत करता है जबकि नहीं है (संमिक्तं मुक्ति मार्गस्य) सम्यक्दर्शन ही मुक्ति का मार्ग है (हीन संमिक्त 3 मिथ्यादृष्टि आकांक्षा, दुर्भाव, आलस्य और कलह से अपना समय बिताता है। निगोदयं) सम्यक्त्व हीन निगोद का मार्ग है। सम्मत्त गुणाइ सुगवि, मिच्छादो होवि दुग्गवी णियमा। विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्त्व की महिमा बताई जा रही है कि सम्यक्दर्शन सहित इदि जाण किमिह बहुणा, सच्चदित कुज्जाहो ॥६१॥ नरक में रहना भी अच्छा है और सम्यक्त्व से हीन चक्रवर्ती होना भी व्यर्थ है; क्योंकि सम्यक्त्व गुण से नियम से सुगति और मिथ्यात्व से दुर्गति होती है, ऐसा जान सम्यक्त्व से हीन अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा यदि पुण्य के उदय से चक्रवती भी हो . यहाँ अधिक कहने से क्या लाभ है? जो तुझे अच्छा लगे वह कर। जाये तो वह अपनी अज्ञानता से वर्तमान सुख नहीं भोगेगा। आशा, तृष्णा, माया, इसी बात को तारण स्वामी आगे की गाथा में कहते हैंमोह में फँसकर नाना कुकर्म कर नरक निगोद चला जाता है। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी अगर संमिक्त संजुत्त पात्रस्य, ते उत्तमं सदा बुधै। पूर्व के अशुभ कर्मों के उदयानुसार नरक आदि में भी जाता है तो वहाँ भी अपने स्वरूप की स्मृति से आनंद में रहता है और परम्परा मोक्ष जाता है इसलिये एक मात्र हीन संमिक्त कुलीनस्य,अकुली अपात्र उच्यते ॥ २१९॥ सम्यक्दर्शन ही मोक्ष का मार्ग है। सम्यक्त्व से हीन मिथ्यात्व तो संसार नरक निगोद अन्वयार्थ- (संमिक्त संजुत्त पात्रस्य) सम्यक्त्व से युक्त कोई भी पात्र अर्थात् काही कारण है। इसी बात को आचार्य कुन्दकुन्द देव रयणसार में कहते हैं- कोई भी जीव वह किसी जाति, किसी कुल का हो (ते उत्तमं सदा बुधै) ज्ञानीजन तण कुट्ठी कुल भंग कुणदि जहा मिच्छमप्पणो वितहा। हमेशा उसे ही उत्तम श्रेष्ठ कहते हैं (हीन संमिक्त कुलीनस्य) यदि कोई बड़े घर का, दाणादि सुगुण भंग गदि भंग मिच्छ मेव होक ॥४७॥ उच्च कुल का भी हो और सम्यक्त्व से हीन है तो (अकुली अपात्र उच्यते) वह नीच , statosierructobercuettable १४४ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .ermaveda 2004 श्री आचकाचार जी गाधा-२२० POON अपात्र कहा जाता है। तिअर्थ संमिक्तं सार्थ, तीर्थंकर नाम सुद्धये । सम्यक्त्व निधि का पात्र यदि चाण्डाल का भी लाल है। कर्म विपति त्रिविधं च,मुक्ति पंथ सिधं धुवं ।। २२०॥ तो वह नहीं है नीच, वह भूदेव है महिपाल है॥ सम्यक्त्वनिधि से रहित यदि एक उच्च श्रेष्ठ कुलीन है। अन्वयार्थ- (तिअर्थ संमिक्तं साध) सम्यक्त्व सहित जो रत्नत्रय की साधना तो वह महान दरित है उससा न कोई हीन है। चंचलजी) करता है (तीर्थंकर नाम सुद्धये) वह तीर्थंकर नामकर्म की प्रकृति बांधकर शुद्ध होता विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्त्व की महिमा का वर्णन किया जा रहा है कि जो है (कर्म विपति त्रिविधं च) और तीनों प्रकार के कर्मों का क्षय होने पर निश्चय से सम्यक्त्व सहित है वह किसी जाति, कुल, किसी पर्याय में हो वह उत्तम है, श्रेष्ठ है। मोक्षमार्ग और सिद्ध पद पाता है। दोष रहित गुण सहित सुधीजे, सम्यक्पर्श सजे हैं। विशेषार्थ- सम्यक्त्व सहित जो जीव रत्नत्रय अर्थात् सम्यक्दर्शन, चरित मोहवश लेशन संजम, पै सरनाथ जजै ॥ (छहढाला) सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की साधना करता है वह तीर्थंकर नामकर्म की प्रकृति सम्यक्त्व से हीन यदि कोई उच्च कुल वाला है तो वह अकली अपात्र कहा बांधकर शुद्ध होता है और तीनों प्रकार के कर्म क्षय होने पर निश्चय से मोक्षमार्गी जाता है। इसी बात को रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्वामी समन्तभद्राचार्य कहते हैं चार में स्वामी समन्तभदाचार्य कहते हैं-3 होता हुआ सिद्ध पद पाता है। सम्यग्दर्शन सम्पन्नमपि मातंग देहजम्। इसी बात को रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र कहते हैंदेवादेवं विदुर्भस्म गूढांगारान्त रौजसम्॥२८॥ अमरासुर नरपतिभिर्यम धरपतिभिश्च नूनपादाम्भोजाः। सम्यग्दर्शन करि संयुक्त चांडाल के दैहतें उपज्या जो चाण्डाल ताहि हूँ देवा दृष्टयासुनिश्चितार्था वृष चक्रधरा भवन्ति लोकशरण्याः ॥३९॥ कहिये ,गणधर देवजे हैं ते देव कहे हैं। जैसे भस्म करि दवा जो अंगार ताके आभ्यंतर जो पुरुष सम्यकदर्शन कर सम्यक् निर्णय किये हैं पदार्थ जिनने ते अमरपति, तेज है। ए असुरपति, नरपति अर संयमनि का पति गणधर तिनकरि वन्दनीक है चरण कमल श्वापि देवापि देवा:श्वा जायते धर्म किल्विषात्। ~ जिनका -अर लोक के शरण में उत्कृष्ट ऐसे धर्म चक्र के धारक तीर्थकर उपज हैं। कापि नाम भवेदन्या संपद्धर्माच्छरीरिणाम् ॥२९॥ जो सम्यक्त्वी होता है उसको ही तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है, उस धर्म के प्रभाव से स्वान जो कूकरो, सोहू स्वर्गलोक में जाय देव उपज है। अर२ सम्यक्त्ववतीर्थकर नाम कर्म के प्रभाव से वह जीव या तो उसीभव से तीर्थंकर होता पाप के प्रभाव तैं स्वर्ग लोक का महान ऋद्धिधारी देव हूँ पृथ्वी में ककरो आय उपजै है अथवा एक भव और लेकर मनुष्य हो तीर्थंकर पदधारी होता है, जिसके इन्द्रादिक है। अर प्राणीनि के धर्म के प्रभावते और हूँ वचनद्वारे नाहीं कही जाए, ऐसी अहमिन्द्रनि नाहीं काटी जा ऐसी अहमिन्टन देव पाँचों ही कल्याणक करते हैं, भरत व ऐरावत क्षेत्र में पाँचों ही कल्याणक धारी की सम्पदा तथा अविनाशी मुक्ति सम्पदा प्राप्त होय है। १ जन्म से ही तीर्थंकर होते हैं। तीर्थकर होने वाले जीवों को ऐसा यथार्थ आत्मानुभव गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो, निर्मोहो नैव मोहवान। 8 होता है कि वे अपना लक्ष्य निरन्तर आत्मा की शुद्धि पर ही रखते हैं, किंचित् भी अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः॥३३॥ २२ वैराग्य का बाहरी निमित्त पाते ही वे दीक्षा ले लेते हैं और थोड़े से ही पुरुषार्थ पूर्वक जाके दर्शन मोह नाहीं ऐसा गृहस्थ है,सो मोक्षमार्ग में तिष्ठता है अर मोहवान घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञानी हो जाते हैं फिर जब तक आयु शेष है, यत्र ऐसा अनगार कहिये ग्रहरहित मुनि सो मोक्षमार्गी नाहीं है। याही तैं मोहवान जो मुनि तत्र आर्य खंड में विहार करके धर्म का उपदेश देते हैं, अंत में सब कर्मों से रहित हो तारौं दर्शन मोह रहित गृहस्थ है सो श्रेयान् कहिये सर्वोत्कृष्ट है। अर्थात् तीनों ही प्रकार के कर्मों, भाव कर्म-राग द्वेषादि, द्रव्यकर्म - ज्ञानावरणादि इसी सम्यक्त्व की महिमा का वर्णन करते हुए तारण स्वामी अगली गाथा और नो कर्म-शरीरादि इन सबसे मुक्त होकर शुद्ध सिद्ध हो जाते हैं। यह परमोपकारी कहते हैं निश्चल सम्यकदर्शन साथ-साथ रहता है, वही मोक्ष में पहुँचा देता है। वहाँ पर भी १४५ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी यह निर्मल क्षायिक सम्यक्त्व सदाकाल बना रहता है। इसी के महात्म्य से वहाँ भी सिद्ध भगवान स्वात्मानंद का भोग करते रहते हैं, यह सम्यक्त्व की महिमा है । यहाँ अन्तरात्मा जघन्य पात्र अव्रत सम्यकदृष्टि जिसके जीवन में अठारह क्रियाओं का प्रादुर्भाव होता है, उसके प्रथम सम्यक्त्व का यह वर्णन है। इस सम्यक्त्व की साधना और बारम्बार चिन्तन से क्या होता है, इसे सद्गुरू अगली गाथा में कहते हैं संमिक्तं जस्य चिंतंते, बारंबारेन सार्धयं । दोषं तस्य विनस्यति, सिंघ मतंग जूथयं । २२१ ॥ अन्वयार्थ - (संमिक्तं जस्य चिंतंते) जो जीव सम्यक्त्व का अर्थात् अपने शुद्धात्म स्वरूप का चिन्तवन करते हैं (बारंबारेन सार्धयं) बारम्बार उसी की साधना-आराधना स्मरण ध्यान में लगे रहते हैं (दोषं तस्य विनस्यंति) उनके सारे दोष विनश जाते हैं, भाग जाते, विला जाते हैं (सिंघ मतंग जूथयं) जैसे- सिंह को देखकर हाथियों के झुण्ड तितर-बितर होकर भाग जाते हैं । विशेषार्थ व्रतसम्यदृष्टि अन्तरात्मा, जघन्य पात्र की प्रथम क्रिया सम्यक्त्व का बारम्बार चितवन, अभ्यास, साधना, आराधना करता है। अभी वह संसारी प्रपंच मोहजाल पाप-परिग्रह में फँसा है परंतु जिसे अमृत का स्वाद आ गया है, निज शुद्धात्मानुभूति हो गई है वह बार-बार उसी का चिन्तवन करता है और इसी साधना से उसके सारे दोष विनश जाते हैं। यह पाप परिग्रह, मोह, राग-द्वेषादि, विषय- कषाय छूटने विनशने लगते हैं। जैसे- सिंह को देखकर उसकी गर्जना सुनकर हाथियों के झुण्ड भागने, तितर-बितर होने लगते हैं, इसी प्रकार जिसका सम्यक्दर्शन रूपी सिंह जाग्रत हो गया, सोता हुआ बन्द गुफा से बाहर निकल आया फिर उसकी गर्जना से यह कर्म रूपी हाथियों का झुण्ड विनश जाता है और वह आगे बढ़ता हुआ सिद्ध पद पाता है यह सम्यक्दर्शन की महिमा है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि ऐसा सम्यक्दर्शन जिसके प्रताप से जन्म-मरण टले मुक्ति की प्राप्ति हो, स्वयं परमात्मा बने, क्या वह इस काल में अभी हम संसारी जीवों को हो सकता है ? उसका समाधान करते हैं कि भाई ! अपनी भावना जागे, इसका बहुमान आवे यही इष्ट है ऐसा लगे तो अभी इसी समय सम्यक्दर्शन हो सकता है। इस पंचमकाल ७ SYAA AAAAAN FANART YEAR. १४६ गाथा-२२१,२२२ में भी क्षणभर में सम्यक्दर्शन हो सकता है। सम्यक्दर्शन प्रगट करना तो वीरों का काम है, कायरों का नहीं है। इसमें घिसने की जरूरत नहीं है, यह तो एक समय के दृष्टि परिवर्तन का कमाल है। जहाँ संसार से भिन्न, शरीर से भिन्न, इन्द्रिय मन वाणी से भिन्न और एक समय की चलने वाली पर्याय से भिन्न अपने शुद्ध चैतन्य ज्ञानानंद स्वभाव टंकोत्कीर्ण अप्पा ध्रुव तत्व की ओर दृष्टि गई, जहाँ एक समय की निर्विकल्प दशा में निज शुद्धात्मानुभूति हुई कि जय-जयकार मच गई। अरे ! यह तो अपनी चीज और अपने को न मिले ऐसा होता ही नहीं है। तारण स्वामी तो कहते हैं- देख, देख ! यह शुद्धं प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं, इसमें कल की बात ही क्या है ? यह तो वीरों की बात है और वीरों का काम है। संसार दुष्यं जे नर विरक्तं, ते समय सुद्धं जिन उक्त दिस्टं । निध्यात मय मोह रागादि बंडं, ते सुद्ध विस्टी तत्वार्थ साधं ॥ हमें ऐसा लगे तो अभी हो सकता है। जो सिंह जाग गया है वह क्या करता है, इसे सद्गुरू अगली गाथा में कहते हैंसंमितं सुद्ध धुवं सार्धं, सुद्ध तत्व प्रकासकं । तिअर्थ सुद्ध संपून, संमितं सास्वतं पदं ।। २२२ ।। अन्वयार्थ (संमिक्तं सुद्ध धुवं सार्धं) सम्यक्त्व से शुद्ध होकर जो अपने ध्रुव स्वभाव की साधना करता है (सुद्ध तत्व प्रकासकं ) शुद्ध तत्व का प्रकाश करता है (तिअर्थं सुद्ध संपून) रत्नत्रय से संपूर्ण शुद्ध होकर (संमिक्तं सास्वतं पदं ) अपने आत्मीक अविनाशी शाश्वत पद को पाता है। विशेषार्थ - यहाँ जागे हुए सिंह अर्थात् सम्यक्दृष्टि की महिमा बताई जा रही है कि जिसे निज शुद्धात्मानुभूति हो गई, जिसने जान लिया कि यह शुद्ध चैतन्य टंकोत्कीर्ण अप्पा ममल स्वभावी ध्रुव तत्व शुद्धात्मा मैं हूँ, वह फिर ध्रुव स्वभाव की ही साधना करता है फिर वह पर पर्याय मोह, राग-द्वेषादि विकारी भावों को नहीं देखता, क्या हो रहा है और क्या होगा ? इसका विकल्प नहीं करता, वह तो अपने शुद्ध तत्व का ही प्रकाश करता है अर्थात् निरंतर उसी का चिन्तन आराधन, चर्चा करता रहता है और रत्नत्रय से संपूर्ण शुद्ध होकर अपने अविनाशी शाश्वत सिद्ध पद को पाता है। इसी बात को छहढाला में पं. दौलतरामजी ने बहुत स्पष्ट अपनी भाषा में कहा है ७०७ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री श्रावकाचार जी गाथा-२२३ सम्यक् श्रद्धा धारि पुनि,सेवहु सम्यग्ज्ञान। जो बात जैसी है, उसे वैसी समझकर तद्रूप आचरण करें तभी काम चलता है। स्व पर अर्थबहुधर्मजुत,जो प्रगटावन भान॥ इसी बात को आचार्य कुन्दकुन्द देव ने रयणसार ग्रंथ में कहा हैसम्यक् साथै ज्ञान होय,पै भिन्न अराधौ। सम्म विणा सण्णाणं सच्चारितं ण होदि णियमेण । लक्षण श्रद्धा जान, दुहू में भेद अबाधी॥ तो स्यणत्तय माझे सम्मगुणू विकट्ठमिदि जिणुदिटुं॥४५॥ सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई। सम्यक्दर्शन के बिना सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नियम से नहीं होते हैं । युगपत होते ह, प्रकाश दीपक रौं होई॥ ॐ इसलिये रत्नत्रय में सम्यक्दर्शन गुण उत्कृष्ट है, यह जिनेन्द्र देव ने कहा है और सम्यग्ज्ञानी होय, बहुरि दिढ़ चारित लीजै। तीनों की एकता के बिना मुक्ति नहीं होती। एकदेश अरु सकलदेश, तसुभेद कहीजै॥ है सम्यक्दर्शन,सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र यह तीनों ऐसे कारण हैं कि इनमें यहाँ प्रश्न आता है कि रत्नत्रय से संपूर्ण शुद्ध होकर अपने अविनाशी शाश्वत से एक भी कम हो जाने पर मोक्ष सुख नहीं मिल सकता; यदि चाहें कि बिना पद को पाता है तो पहले आप अकेले सम्यक्दर्शन की बात कर रहे थे और अब तीनों से सम्यकदर्शन और सम्यक्ज्ञान के केवल सम्यक्चारित्र से ही मोक्ष सुख मिल जाये तो की बात करने लगे, इसका क्या प्रयोजन है स्पष्ट करें? यह कभी नहीं हो सकता किन्तु सम्यकदर्शन और सम्यकज्ञान के साथ रहने वाले इसका समाधान करते हैं कि मूल में तो सम्यक्दर्शन ही है, बगैर सम्यक्दर्शन सम्यक्चारित्र से ही मोक्ष सुख मिल सकता है इसलिये ऐसा चारित्र ही सज्जनों के के तो कुछ होने वाला ही नहीं है परंतु- सम्यक्रदर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग: लिये परम आदरणीय और जगतपूज्य है। यह जैनदर्शन का मूल आधार भी ध्यान में रखना है। अकेले सम्यक्दर्शन से शाश्वत , यदि इस जीव की सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान के बल से शुद्ध चिद्रूप में सिद्ध पद मिलने वाला नहीं है। इसके लिये तारण स्वामी ने मालारोहण पंडितपूजा निश्चल रूप से स्थिति हो जाये और पर पदार्थों से सर्वथा प्रेम हट जाय तो उसी को और कमलबत्तीसी में इन तीनों का बहुत सरल सहज अनुभव गम्य स्वरूप बताया शुद्ध निश्चय नय से चारित्र समझना चाहिये। है,जो हर साधक को अनुकरणीय है। मालारोहण की आठवीं गाथा से इसी बात को निश्चय नय के अभिप्रायानुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिये स्पष्ट किया है कि पहले सम्यक्त्व को शुद्ध करो अर्थात् मुझे निज शुद्धात्मानुभूति होतन्मय होना ही निश्चय सम्यचारित्र है। ऐसे चारित्रशील योगी को ही निर्वाण गई इसका पक्का निर्णय करो। की प्राप्ति होती है। वहाँ प्रश्न आया कि कौन से सम्यक्त्व की बात है तो कहते है कि कोई भी सम्यक्दृष्टि जीव जागा हुआ सिंह होता है और सिंह की यह विशेषता होती है हो-उपशम,वेदक, क्षायिक इसमें कोई अंतर नहीं पड़ता परंतु यह निर्णय पक्का हो कि जागने के बाद वह प्रमाद में पड़ा नहीं रहता। अपने कार्य में सक्रिय हो जाता है जाये कि मैं आत्मा हूँ यह शरीरादि मैं नहीं हूँऔर वह आत्मा कैसा हूँयह भी अनुभूतियुत 3 और जिसे पकड़ लेता है फिर उसे छोड़ता नहीं है। इसी प्रकार सम्यक्दृष्टि जीव भी होना. यही सम्यक्त्व की शद्धि है तथा ज्ञान की शुद्धि स्व-पर का यथार्थ निर्णय, अपने सिद्ध पद का पुरुषार्थ करता है। इसी बात को अगली गाथा में कहते हैंजिसमें कोई संशय,विभ्रम,विमोह न हो, वस्तु स्वरूप तो ऐसा ही है। ऐसा यथार्थ जस्स हृदयं संमिक्तस्य,उदयं सास्वतं स्थिरं । निर्णय होना ज्ञान की शुद्धि है; और इन दोनों के होने पर चारित्र की शुद्धि होना जो 5 निश्चय-व्यवहार के समन्वय पूर्वक हो क्योंकि वर्तमान संयोगी दशा में बगैर द्रव्य तस्य गुनस्य नाथस्य, असक्य गुण अनंतयं ।। २२३॥ 1 संयम के भाव संयम नहीं होता। पाप-परिग्रह.मोह.राग-द्वेष, विषय-कषायों से हटे अन्वयार्थ- (जस्स हृदयं संमिक्तस्य) जिसके हृदय में सम्यक्त्व का (उदयं बचे बगैर स्वरूप में रमणता होती ही नहीं है, यह जैनदर्शन का बड़ा सूक्ष्म मार्ग है। सास्वत स्थिर) उदय होकर शाश्वत स्थिर हो जाता है अर्थात् क्षायिक सम्यकदर्शन 5 यहाँ कोरी बातें करने मन समझाने या मनमानी करने से भला होने वाला नहीं है। हो जाता है (तस्य गुनस्य नाथस्य) वह गुणों का नाथ हो जाता है (असक्य गुण १४७ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी गाथा-२२४ Oo अनंतयं) फिर अनन्तगुण प्रगट होने में कोई बाधा नहीं रहती। दिखने लगती है उसे (उदयं त्रि भुवनत्रयं) तीसरा ज्ञान नेत्र प्रगट हो जाता है विशेषार्थ-जिसके हृदय में सम्यक्त्व का उदय होकर शाश्वत स्थिर हो जाता (लोकालोक त्रिलोकं च) उसमें लोकालोक और त्रिलोक ऐसे दिखाई देने लगते हैं। है अर्थात् क्षायिक सम्यक्दृष्टि हो जाता है उसके सारे कर्म क्षय होने लगते हैं तथा ५ जैसे (आलबाले मुषं जथा) निर्मल जल में मुख दिखाई देता है अथवा बालक के क्षायिक सम्यकदष्टि को कभी भी अपने स्वरूप की विस्मति नहीं होती यह सम्यक्त्व* हाथ में रखे दर्पण में मुख दिखाई देता है। कभी विलाता नहीं है। क्षायिक सम्यक्दर्शन का प्रकाश होते ही इस आत्मा के भीतर विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्त्व की विशेषता बताई जा रही है कि जिसे निरन्तर गुणों का विकास होने लगता है। यह आत्मा स्वभाव से अनन्त गुणों का स्वामी है। 5 अपना शद्धात्म स्वरूप दिखने लगा, उसको तीन लोक में वंदनीय तीसरा ज्ञान नेत्र घातिया कर्मों के आवरण के कारण वे गुण प्रगट नहीं है। क्षायिक सम्यक्दर्शन के प्रगट होजाता है। जिसमें लोकालोक और तीन लोक ऐसे दिखने लगते हैं, जैसे निर्मल होने पर वह अधिक काल छद्मस्थ नहीं रहता, सिद्ध परमात्मा हो जाता है या बीच में जल में मख दिखाई देता है अथवा हाथ में रखे दर्पण में मुख दिखाई देता है। एक भव देव आदि का लेकर पुन: मनुष्य होकर केवलज्ञानी अरिहंत सिद्ध परमात्मा O यहाँ कोई प्रश्न करता है कि यह तीसरा ज्ञान नेत्र क्या है? क्या केवलज्ञान है हो जाता है क्योंकि जब तक क्षायिक सम्यक्त्व न हो तब तक कोई क्षपक श्रेणी नहीं क्योंकि केवलज्ञान में ही लोकालोक और तीनों लोक प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं तो क्या मांड सकता, क्षपक श्रेणी के बगैर कोई अरिहन्त सिद्ध नहीं होता तो यहाँ तारण अव्रत दशा में भी केवलज्ञान हो सकता है? स्वामी यही कह रहे हैं कि जिसे क्षायिक सम्यक्दर्शन हो जाता है वह गुणों का नाथ इसका समाधान करते हैं कि यह तीसरा ज्ञान नेत्र विवेक या सम्यकज्ञान है हो जाता है फिर उसके अनन्त गुण प्रगट होने में कोई बाधा नहीं रहती। क्षायिक & इसमें भी लोकालोक का स्वरूप प्रत्यक्ष जानने में आने लगता है तथा जिसको सम्यक्दृष्टि उसी भव या नियम से तीसरे भव में मोक्ष जाता ही है। । सम्यक्दर्शन,सम्यक्ज्ञान होता है उसे नियम से केवलज्ञान होगा ही। अव्रत दशा में अब यहाँ प्रश्न आता है कि संसारी अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव को क्या एकदम विवेक ही वह तीसरा ज्ञान नेत्र है जिसके प्रगट होने पर जीव को संसार का वास्तविक क्षायिक सम्यकदर्शन हो सकता है या पहले उपशम क्षयोपशम आदि होते हुए क्षायिक स्वरूप समझ में आता है और वह इससे छूटने के लिये छटपटाने लगता है। होता है? तथा अव्रती को भी क्या क्षायिक सम्यक्दर्शन हो सकता है? S यहाँ तक अन्तरात्मा जघन्य पात्र अव्रत सम्यक्दृष्टि की अठारह क्रियाओं में उसका समाधान करते हैं कि यह कोई प्रतिबन्ध नहीं है, यह तो जीव की से पहली सम्यक्त्व क्रिया का वर्णन गाथा क्र.२०२ से २२४ तक किया गया। अब अपनी पात्रता की बात है, अव्रती को भी क्षायिक सम्यक्दर्शन हो सकता है। इतना इसको देख. सन.समझकर हम अपना निर्णय करें कि क्या हम भी सम्यकदृष्टि हैं, अवश्य है कि क्षायिक सम्यक्त्व केवलज्ञानी के सान्निध्य में ही होता है। समान्यत: अगर हैं तो आगे की क्रियायें तो सहजता से जीवन में आवेंगी ही, न आवें,न होवें उपशम क्षयोपशम सम्यक्त्व तो कभी भी किसी को हो सकते हैं। वैसे करणानुयोग ऐसा हो ही नहीं सकता; क्योंकि हमारा लक्ष्य भी संसार से मुक्त होना है और अपने की परिभाषा में कर्मों के उपशम से होने वाले सम्यकदर्शन को उपशम सम्यक्त्व आनंद परमानंदमयी परमात्म पद को पाना है। कहते हैं, कर्मों के क्षयोपशम से होने वाले सम्यक्दर्शन को क्षयोपशम सम्यक्त्व यहाँ कोई प्रश्न करे कि चाहते तो हम भी यही हैं परंतु ऐसा आत्मा का सत्श्रद्धान कहते हैं और कर्मों के क्षय से होने वाले सम्यक्दर्शन को क्षायिक सम्यक्त्व कहते होता क्यों नहीं है? इसके लिये क्या करना चाहिये? ए हैं। अब यह जीव की पात्रता होनहार काललब्धि आदि पर आधारित है। इसका समाधान करते हैं कि भाई! इसमें तो सबसे पहले हमें अपने आपको 2 अंत में सम्यक्त्व की विशेषता बताते हुए सद्गुरू अगली गाथा कहते हैं देखना होगा कि वास्तव में हम चाहते क्या हैं? हमारी रुचि चाह, लगन किस ओर संमिक्तं दिस्टते जेन , उदयं त्रिभुवनत्रयं । की है? क्योंकि मुँह में नमक की डली रखे रहें और मिश्री का स्वाद चाहें तो यह तो लोकालोक त्रिलोकं च, आलबाले मुहं जथा ।। २२४॥ हो ही नहीं सकता। रुचि अनुगामी पुरुषार्थ होता है और फिर आत्मा तो अपना निज अन्वयार्थ- (संमिक्तं दिस्टते जेन) जिसको सम्यक्त्व अर्थात् निज शुद्धात्मा ... स्वभाव ही है। इसके लिये भेदज्ञान पूर्वक तत्व का निर्णय करें और भीतर से इसके १४८ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-२२५,२२६ SCOO लिये छटपटाहट- ललक,लगन होवे तो सहज में आत्मानुभूति हो सकती है। जो महान हिंसा,पाप बन्ध का कारण है। पहले लोग कहते थे- कहावत थी कि ऊपरी मन समझाने या पर को बताने की अपेक्षा चर्चा करें तो इससे कोई लाभ नहीं ऊमर फोड़ो न पखाउड़ाओ अर्थात् ऊमर के फल को मत फोड़ो उसमें चार इन्द्रिय है। एक बात और है कि इसमें मन का चक्कर बहुत बाधक है। यह पहले तो अपने , उड़ने वाले असंख्यात जीव होते हैं। इसी प्रकार इन फलों में दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय स्वरूप को देखने ही नहीं देता, संसार,शरीर,भोगों में भ्रमाता रहता है, जो इनसे 8 तक के असंख्यात जीव होते हैं,जो इनका सेवन करने पर मर जाते हैं तथा इनसे ७ बचकर छूटकर अपने स्वरूप में आता है तो यह वहाँ भी संशय, विभ्रम पैदा करता कई रोग भी पैदा होते हैं, जो बड़े खतरनाक होते हैं। जिसका विवेक जाग्रत होजाता . है; क्योंकि स्वरूपानुभूति निर्विकल्प दशा तो एक समय की होती है, उसके बाद है वह फिर इनका कभी भी सेवन नहीं करता। विला जाती है तो यह यहाँ भी भ्रमाता है कि अभी सम्यक्दर्शन नहीं हुआ, जिसे बड़,पीपल, ऊमर ,गूलर और अंजीर इन पाँच वृक्षों के हरे फल या सूखे फल जो सम्यक्दर्शन होता है, वह ऐसा होता है, ऐसा करता है आदि नाना प्रकार की जो खाता है वह राग भाव की अधिकता से अनेक त्रस जंतुओं का घात करने वाला है। चर्चायें सुन रखी हैं उन्हें बीच में लाकर खड़ी करता है, तो ऐसे में भी बहुत मुश्किल सम्यक्दृष्टि विवेकी हो जाता है। वह खान-पान ऐसा रखता है जिससे शरीर स्वस्थ पड़ता है। यहाँ तारण स्वामी इसलिये सभी अपेक्षाओं से अपना निर्णय करा रहे हैं रहे,धर्म ध्यान में बाधा नपड़े तथा त्रस- स्थावर दोनों प्रकार के प्राणियों की हिंसा से कि यह बात पहले पक्की कर लो, तो आगे सब सहज में सधेगा, वरना बड़ा मुश्किल बचा जा सके। वह जिह्वा का लम्पटी नहीं रहता है इसलिये जिन फलों में प्रत्यक्ष कीडे होगा विकल्प खड़े होंगे। उडते दिखते हैं अथवा कीडों की उत्पत्ति की बहुत संभावना है उन वस्तुओं को अपने सम्यकदर्शन, शबात्म स्वरूप का निर्णय तो अपने को स्वयं करना दयावान सम्यकद्रष्टि नहीं खाता है। ऐसे अनेक फल हैं जिनमें त्रस जीव होते हैं. है और वह स्वयं से ही स्वयं में होता है, इसे न पर जानता है,न इससे पर का उनमें यहाँ पाँच प्रमुख गिनाये गये हैं. इसी तरह के और भी जो फल हों, जिनमें त्रस कोई संबंध ही है.स्वयं का निर्णय करें तो सब सहजता से हो सकता है। जीव पाये जावें या उनके होने की संभावना हो- उनको दयावान सम्यक्दृष्टि नहीं आगे अव्रत सम्यक्दृष्टि जघन्य पात्र अन्तरात्मा की अठारह क्रियाओं में आठ खाता। शुद्ध आहार शरीर और मन दोनों का रक्षक है। मूलगुण का उनके स्वरूप सहित वर्णन करते हैं इसी बात को गुरुदेव अगली गाथा में कहते हैं - मूलगुनं च उत्पादंते, फलं पंच न दिस्टते। फलानि पंच तिक्तंति,त्रसस्य रव्यनार्थयं । बड़पीपल पिलषुनीच, पाकर उदंबरस्तथा ॥ २२५॥ अतीचार उत्पादंते, तस्य दोष निरोधनं ।। २२६ ॥ अन्वयार्थ- (मूलगुनं च उत्पादंते) जो मूलगुण का पालन करता है (फलं पंच अन्वयार्थ- (फलानि पंच तिक्तंति) सम्यक्दृष्टि इन पाँच फलों को तो छोड़ न दिस्टते) वह पाँच प्रकार के फलों को देखता ही नहीं है (बड़ पीपल पिलषुनी च) ही देता है (त्रसस्य रष्यनार्थयं) त्रस जीवों की रक्षा के लिये कभी इनका सेवन नहीं बड़ के फल, पीपल के फल,ऊमर,कठूमर के फल और (पाकर उदंबरस्तथा) पाकर 8 करता तथा (अतीचार उत्पादंते) जिन फलों के सेवन से अतिचार पैदा होते हैं, वैसा अर्थात् अंजीर के फल यह उदम्बर फल हैं। १ दोष लगता है (तस्य दोष निरोधन) उन दोषों का निरोध करने के लिये ऐसे फलों का विशेषार्थ- पहले लोग जंगली चीजों का, जंगली फलों का ज्यादा उपयोग खाना भी बन्द कर देता है, छोड़ देता है। करते थे, खाते थे। जिनमें यह शराब पीना, मांस खाना, शहद खाना, बड़ के विशेषार्थ- अष्ट मूलगुणों में पंच उदम्बर तीन मकार कहे जाते हैं, तो अव्रत फल,पीपल के फल,ऊमर के फल, अंजीर के फल तथा गूलर के फल जो विशेषता सम्यक्दृष्टि इन पाँच फलों को खाना तो छोड़ ही देता है क्योंकि उसको त्रस जीवों की से होते थे इनका सेवन करते थे। इन चीजों के सेवन करने खाने से त्रस जीव-दो रक्षा की भावना रूप दयाभाव प्रगट हो गया है तथा और ऐसे अन्य फल जिनमें त्रस, इन्द्रिय से लेकर पाँच इन्द्रिय तक के जीव जो इनमें होते थे, सबका घात होता था। जीवों की उत्पत्ति की संभावना होती है या जिनके सेवन करने से अतीचार,वैसे दोष hehriUtaas. १४९ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७७ श्री आवकाचार जी लगते हैं, उनका भी वह त्याग कर देता है; इसलिये जैसे- बड़, पीपल आदि फलों को त्रस जीवों की रक्षार्थ त्यागा जाता है, वैसे ही और फलों को जिनमें कीड़ों के पैदा होने की संभावना है उनको भी नहीं खाना चाहिये, इनमें भी त्रस जीव पैदा हो जाते हैं तथा हर फल को जो सूखे बादाम सुपारी इलायची- छुहारा आदि या बहुत दिन के रखे फल हों, इनको तोड़कर व भले प्रकार देखकर ही खाना चाहिये, साबुत फल कभी कोई सा नहीं खाना चाहिये; क्योंकि गर्मी, सर्दी बरसात आदि के निमित्त से हर फल में स जीवों का पैदा होना संभव है। कुछ फलों को तोड़ने पर अन्दर कीड़े चलते हए दिखाई देते हैं इसलिये इनके अतिचारों (दोषों) से बचने के लिये प्रत्येक सद्गृहस्थ श्रावक को इनका सेवन नहीं करना चाहिये। फलों के साथ अन्न आदि बीज में, फल फूल में भी संमूर्च्छन त्रस आदि जीवों की उत्पत्ति होती है। जीव रक्षा, अहिंसा और दयाभाव पालने के लिये इनका भी विवेकपूर्वक सेवन करना चाहिये। इसी बात को श्री गुरू आगे की गाथा में कहते हैं अन्नं जथा फलं पुहपं, बीजं संमूर्छनं जथा । तथाहि दोष तिक्तंते, अनेव उत्पाद्यते जथा ।। २२७ ।। अन्वयार्थ - (अन्नं जथा फलं पुहपं) इसी तरह से अन्नादि जो घुन गया हो, फल-फूल (बीजं संमूर्छनं जथा) बीज, साग, पत्ती आदि (तथाहि दोष तिक्तंते) वैसा ही दोष देखकर छोड़ देना चाहिये (अनेय उत्पाद्यते जथा) जहाँ इस प्रकार के अनेक त्रस जीवों की उत्पत्ति हो । SYASA YA YES A F विशेषार्थ अन्न जो पुराना हो, घुन गया हो, काली फुल्ली पड़ गई हो, वह भी जीवों का स्थान जानकर त्याग देना चाहिये। फल-जो सड़ गया हो, , उसमें त्रस जीवों की उत्पत्ति हो जाती है, ऐसा जानकर नहीं खाना चाहिये। फूलों में भी त्रस जीव स्पष्ट दिखाई देते हैं, जो उनके अन्दर रहते हैं- ऐसे फूलों तथा फूलगोभी आदि को नहीं खाना चाहिये । साग, पत्ती आदि जिसमें त्रस जीवों के बैठने रहने की संभावना हो, नहीं खाना चाहिये तथा और चीजें जिनमें त्रस जीवों की उत्पत्ति की संभावना हो, 5 जैसे- जिनका स्वाद विचलित हो गया हो, स्वाद रहित रस आदि जो बाईस अभक्ष्य के अन्तर्गत आते हैं, इनको भी अव्रत सम्यदृष्टि त्याग देता है, तभी वह पंच उदम्बर फल का सच्चा त्यागी होता है। अजान फलों को भी बिना जाने नहीं खाना चाहिये, जिसमें त्रस जीवों की रक्षा हो वह कार्य करना चाहिये। दयावान अव्रती श्रावक अपने १५० गाथा-२२७,२२८ C जीवन के समान ही अन्य पंचेन्द्रिय जीवों को भी समझता है। जब कोई प्राणी अपना मरण नहीं चाहता है, तो हमारा भी कर्तव्य है कि उनके प्राणों की रक्षा करते हुए हम अपना खान-पान आदि आचरण शुद्ध रखें। जघन्य पात्र अव्रत सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा की अठारह क्रियाओं में पहली सम्यक्त्व, इसके बाद आठ मूलगुण जिसमें पांच उदम्बर का वर्णन किया, श्री गुरुदेव आगे तीन मकार में मद्य के स्वरूप का वर्णन करते हैंमद्यं च मान संबंधं ममतं राग पूरितं । - असुद्ध आलापं वाक्यं, मद्य दोष संगीयते ॥ २२८ ॥ " अन्वयार्थ - (मद्यं च मान संबंधं) शराब और मान का सम्बंध (ममतं राग पूरितं ) ममता के राग से पूरित कर देता है (असुद्धं आलापं वाक्यं) अशुद्ध वचन बोलना, व्यर्थ बकवाद करना (मद्य दोष संगीयते ) यह सब मदिरा शराब के दोष कहे जाते हैं। विशेषार्थ - तीन मकार में मद्य, मांस, मधु आते हैं। जिसमें यह मद्य का त्याग करना पहला मकार है। मद्य मदिरा, शराब पीने को कहते हैं, जो सड़ी गली गन्दी वस्तुओं से बनाई जाती है। जिसके पीने से मनुष्य उन्मत्त मदहोश हो जाता है फिर उसे अपनी और पर की कोई खबर नहीं रहती, वह अनर्गल प्रलाप एवं नाना प्रकार के क्रिया कलाप करता है, तो ऐसी शराब पीने का त्याग अव्रत सम्यक्दृष्टि कर देता है। यहां कोई प्रश्न करता है कि ऐसे गंदे पदार्थों का मद्य, मांस, मधु का सेवन तो हम भी नहीं करते, उच्च कुल वाले तो इन वस्तुओं का सेवन करते ही नहीं हैं, सामान्य मनुष्य भी इनका सेवन नहीं करता, इनका सेवन तो नीच लोग करते हैं, यह तो सबको ही त्याज्य हैं, फिर इसमें सम्यदृष्टि की क्या विशेषता है ? तारण स्वामी इसी बात को लेकर सम्यकदृष्टि की विशेषता बता रहे हैं कि जैसे- शराब पीने वाला नशे में उन्मत्त हो जाता है, उसे कोई होश नहीं रहता क्योंकि मोह और मान से पूरित राग युक्त व्यक्ति को भी कोई होश नहीं रहता है, वह भी झूठ-सच बोलता है, अपने मान के अंहकार में फूला रहता है। इस मद के आठ भेद बताए हैं- कुल मद, जाति मद, धन मद, रुप मद, बल मद, ज्ञान मद, तप मद, और ऋद्धिमद या अधिकार मद। इनमें फूला मोह और राग में लिप्त मनुष्य को फिर कुछ सूझता नहीं है । चाहे जिसका अपमान कर देना, चाहे जिससे चाहे जो कुछ कह Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * Ouी आपकाचार जी गाथा-२२९-२३१ C am देना, अपनी अकड़ में रहना, अपने आपको होशियार और सबको मूर्ख मानना. आगे मांसभक्षण का त्याग सम्बंधी स्वरूप कहते हैंअपने कार्य, अपनी बात को श्रेष्ठ मानना और सबको दोष लगाना, अपनी प्रशंसा मासं भष्यते जेन, लोनी मुहूर्त गतस्तथा । करना,दूसरों की निन्दा करना,किसी का बढ़ना सहन न होना,इन बातों का त्याग नभुक्तं न उक्तंच, व्यापार न चक्रीयते ॥ २३०॥ होने पर ही वास्तविक मद्य त्याग है। अव्रत सम्यक्दृष्टि इन बातों का भी विवेक रखता है क्योंकि क्रोध और मान का तीव्र प्रकोप हो, वह सम्यकद्रष्टि हो ही नहीं दो दारिया मही दुग्धं, जे नर भुक्त भोजनं । सकता क्योंकि जहां पर वस्तु में अहंपना है वहां आत्मानुभूति कैसे होगी; इसलिये स्वादं विचलिते जेन, भुक्तं मांस दोषनं ॥२३१॥ अव्रत सम्यक्दृष्टि इन बातों का भी ध्यान रखता है और इनको छोड़कर ही अपने अन्वयार्थ- (मासं भष्यते जेन) जो मांस का भक्षण करते हैं, खाते हैं वह तो सत्स्वरूप की साधना करता है। है हिंसक पापी ही हैं परन्तु जो मांस भक्षण के त्यागी हैं उन्हें (लोनी मुहूर्त गतस्तथा) आगे इसकी और विशेषता बताई जा रही है - एक मुहूर्त के बाद का मक्खन भी नहीं खाना चाहिये क्योंकि उसमें सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय संधानं संमूर्छनं जेन, तिक्तति जे विचयनं । जीवों की उत्पत्ति हो जाती है इसलिये (न भुक्तं न उक्तंच) न स्वयं खाना चाहिये अनंत भाव दोषेन, न करोति सुद्ध दिस्टितं ॥ २२९ ॥ 2 और न ही किसी से खाने को कहना चाहिये (व्यापारं न च क्रीयते) और न इसका अन्वयार्थ- (संधानं संमूर्छनं जेन) संधान-रसदार, रसभरी वस्तुजैसे- मुरब्बा, 5 व्यापार ही करना चाहिये। अचार, शीरा आदि जिसमें संमूर्छन जीवों की उत्पत्ति विशेषता से हो जाती है (दो दारिया मही दुग्धं) दो दाल वाली वस्तुमही में या दूध में डालकर भी नहीं (तिक्तंति जे विचष्यन) जो ज्ञानवान विलक्षण पुरुष हैं, वह इसे भी छोड़ देते हैं है. र खाना चाहिये तथा (स्वादं विचलितेजेन) जिन चीजों का स्वाद बिगड़ गया हो उनको (अनंत भाव दोषेन) गन्दे अश्लील दोष युक्त भाव जो अनन्त प्रकार के होते हैं । MS भी नहीं खाना चाहिये (जे नरा भुक्त भोजन) जो मनुष्य इन वस्तुओं का उपयोग 5 करते खाते हैं (भुक्तं मांस दोषनं) इनके खाने से मांस का दोष लगता है। (न करोति सुद्ध दिस्टितं) शुद्ध दृष्टि ऐसे भाव भी नहीं करता है। विशेषार्थ- मद्य त्याग करने वाले की और विशेषता बताई जा रही है कि जो 3 विशेषार्थ- यहाँ तीन मकार में दूसरा मांस खाने का त्याग करना आठ मूलगुणों के अंतर्गत बताया जा रहा है, तो जो मांस भक्षण करते हैं वह तो हिंसक पापी हैं शराब तो नहीं पीता पर ऐसी वस्तुएं जिनमें संमूर्च्छन जीवों की विशेष उत्पत्ति होती है, जैसे मुरब्बा-अचार, शीरा आदि जिनमें फफूंद पड़ जाती है। अचार आदि में तो है परन्तु जो इसका त्याग कर देते हैं पर यदि एक मुहूर्त के बाद अर्थात् ४८ मिनिट के बाद का मक्खन खाते हैं तो वह मांस भक्षण के दोषी हैं क्योंकि एक मुहर्त के बाद त्रस जीव भी चलते-फिरते दिखाई देने लगते हैं इसलिये विवेकी पुरुष इनका भी ! त्याग कर देता है तथा ऐसे दोष युक्त भाव जो अनन्त प्रकार के होते हैं, नहीं करता S मक्खन में वैसे ही संमूर्छन पंचेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होने लगती है इसलिये ४८ क्योंकि वह जानता है कि जैसे परिणाम होंगे वैसे ही कर्मों का बंध होगा इसलिये वह एमिनिट के पहले मक्खन को गरमकर छानकर घी बना लेना चाहिये। इस बात से भी सतर्क रहता है। जिन वस्तुओं के सेवन करने से त्रस जीवों का घात हो ऐसी वस्तुओं को न तो जिस वस्तु में रस के सम्बन्धी अनन्त जंतु उत्पन्न हो जावें, उन सबको संधान स्वयं खाना चाहिये न किसी से खाने को कहना चाहिये तथा न ऐसी वस्तुओं का कहते हैं। सम्यक्दृष्टि जीव जिह्वा का लम्पटी नहीं होता इसलिये वह विवेक पूर्वक ही व्यापार करना चाहिये क्योंकि कृत, कारित, अनुमोदना से भी उसी दोष के भागी होते। खान-पान रखता है। शुद्ध भोजन करने से परिणाम निर्मल रहते हैं, आलस्य नहीं हैं। पहले के जैन श्रावक शहद मक्खन तथा अन्य ऐसी वस्तुएं जिनमें त्रस जीवों का र 6 सताता, रोग नहीं होते हैं। अनन्तानुबंधी कषाय, अन्याय अभक्ष्य की ओर प्रेरित घात होता हो उनका व्यापार भी नहीं करते थे। दो दालों वाली वस्तु अनाज-मेवा करती है, सम्यकदृष्टि के ऐसी कषाय की भावना नहीं होती है, इससे वह विचार आदि भी मही-दही, दूध में मिलाकर नहीं खाना चाहिये क्योंकि इनको मिलाकर खाने से मुँह में जाते ही सम्मूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। पूर्वक आचरण करता है। १५१ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ouक श्री श्रावकाचार जी गाधा-२३२-२३४ c om मुर्गी पालने वाले को आप देखें, वे मिट्टी के बर्तन में बेसन डालकर ऊपर से मधु का सम्मिश्रण,दो मुहूतों के अनन्तर विज्ञजन। मही सींचते हैं तथा उसमें थूकते हैं, इससे उसमें कीड़े पैदा हो जाते हैं, जिनको मुर्गी अगणित सों सम्मूर्छनों का केन्द्र बनजाता सघन ॥ के छोटे-छोटे बच्चे खाते हैं। जिन वस्तुओं का स्वाद बिगड़ जावे उनको भी नही ५ पत्तीपुहुप औशाक जो, होती वनस्पति काय हैं। खाना चाहिये क्योंकि उनमें भी सम्मूर्च्छन,त्रस जीव पैदा हो जाते हैं। इन चीजों का उनमें विचरते जीव नित, सम्मूर्छन पर्याय हैं। भक्षण करना भी मांस भक्षण का दोष है अतः जो मांस भक्षण के त्यागी हैं उनको त्यागो इन्हें इनका ग्रहण करना सभी विधि हेय है। इनका भी त्याग करते हुए अपने नियम को सहीपालन करना चाहिये। अव्रत सम्यकदृष्टि व्यापार भी इनका नहीं करना इसी में श्रेय है। विवेकशील इन सब बातों को जानता हुआ विवेकपूर्वक आचरण करता है। जो कंद हैं.जो बीज हैंया जो विदल हैं विज्ञजन। आगे मधु त्याग का स्वरूप बताते है जिनके कि कण कण में विचरते,नित्यप्रति सम्मूर्छन । मधुरं मधुरस्चैव, व्यापारं न च क्रीयते । जो अष्टगुण को चाहता, करता हृदय का हार है। मधुरं मिस्रिते जेन, द्वि मुहूर्त संमूर्छनं ।। २३२ ॥ इनका कभी करता न वह, व्यापार या व्यवहार है॥ संमूर्छन जथा जानते, साकं पुहपादि पत्रयं । विशेषार्थ- यहाँ तीन मकार में अन्तिम मधु त्याग का वर्णन चल रहा है। मधु अर्थात् शहद यह मधुमक्खियों द्वारा फूलों आदि के रस से संग्रहीत की जाती है पर तिक्तंते न च भुक्तं च, दोषं मांस उच्यते ॥ २३३॥ इसमें ही उनकी विष्ठा, अण्डे आदि भी दिये जाते हैं और जब यह तोड़ी जाती है तो कंदं बीजं जथा नेयं,संमूर्छन विदलस्तथा। है हजारों लाखोंमधुमक्खियों की हिंसा होती है; इसलिये एक बूंद शहद खाने में हजारों व्यापारे न च भुक्तंच,मूलगुनं प्रति पालये॥२३४॥ जीवों की हिंसा का दोष लगता है तथा इसमें सम्मूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति तोप्रतिसमय से होती ही रहती है, किसी अन्य पदार्थ में मिलाने पर दो मुहूर्त में उसमें भी असंख्यात अन्वयार्थ- (मधुरं मधुरस्चैव) शहद और शहद जैसी मीठी वस्तुएँ (व्यापार ॐ सम्मूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति हो जाती है इसलिये विवेकवान श्रावक न तो इसे खाते नचक्रीयते) इनका व्यापार भी नहीं करना चाहिये (मधुरं मिस्रितेजेन) जिन वस्तुओं हैं,न इसका व्यापार करते हैं तथा इसी तरह की अन्य वस्तु गुड़ आदि की राव भीन में शहद या शहद जैसा अन्य पदार्थ मिला हो (द्वि मुहूर्त संमूर्छन) उसमें दो मुहूर्त खाना चाहिये, न व्यापार करना चाहिये और जिन चीजों में सम्मूर्च्छन जीवों की अर्थात् डेढ़ घन्टा में असंख्यात संमूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। उत्पत्ति होवे , ऐसे कंदमूल-फल, बीज, साग, पत्ती आदि भी न खाना चाहिये, न (संमूर्छनं जथा जानते) संमूर्च्छन के बराबर जानना चाहिये (साकं पुहपादि व्यापार करना चाहिये तभी यथार्थतया अष्ट मूलगुण का पालन होता है। पत्रयं) साग सब्जी, फूल, पत्ते आदि (तिक्तंतेनचभुक्तंच) जो इनको छोड़ता नहीं है और खाता है (दोषं मांस उच्यते) उसे मांस का दोष कहा गया है। यहाँ कोई प्रश्न करता है कि यह अष्ट मूलगुण का पालन करने वाला तो अव्रती होता है, यहाँ इनके अतिचार सहित विवेचन किया है तो यह तो व्रती श्रावक की (कंदं बीजं जथा नेयं) कंदमूल, बीज, अनाज और इसी प्रकार की अनेक क्रियायें हैं, जो व्रती श्रावक प्रतिमाधारी होते हैं वह इनका अतिचार रहित पालन वस्तुएं जिनमें (संमूर्छनं विदलस्तथा) संमूर्च्छन और द्विदल जैसी वस्तुएँ आती हैं। करते हैं। आपने यहाँ अव्रत सम्यकदृष्टि की अठारह क्रियाओं में ऐसा विवेचन किया 2 । (व्यापारेन च भुक्तंच) इनको न खाना चाहिये और न इनका व्यापार करना चाहिये और कह रहे हैं कि यह तो अच्छे-अच्छे व्रती,त्यागी, साधु भी ऐसा पालन नहीं करते (मूलगुनं प्रति पालये) तभी सही मूल गुणों का पालन होता है। और न ऐसा किसी अन्यशास्त्र में ही लिखा है फिर आपका यह अलग से ऐसा निरूपण मधु मांस मयों का,न जिनमें रेहनन का पार है। करने का क्या अभिप्राय है? करते नहीं,जो विज्ञ होते हैं कभी व्यापार हैं। इसका समाधान करते हैं कि भाई! यह कोई लादी हुई थोपी हुई क्रियायें नहीं। १५२ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w श्री आचकाचार जी गाथा-२५५ LOON हैं, यह तो जो जीव जाग गया है अर्थात् जिसे निज शुद्धात्मानुभूति हुई है, जिसने विशेषार्थ- यहाँ रत्नत्रय की साधना के स्वरूप का वर्णन किया जा रहा है, ऐसा जाना है कि इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंडअविनाशी चैतन्य तत्व भगवान रत्नत्रय अर्थात् सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंमय ही शुद्धात्म आत्मा हूं, जो सिद्ध के समान शुद्ध परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप है, यह शरीरादि मैं ५ स्वरूप है। इन तीनों की एकता मोक्षमार्ग है और पूर्णता मोक्ष है। अव्रत सम्यकदृष्टि नहीं और यह मेरे नहीं तथा-जिस जीव का जिस द्रव्य का जिस समय जैसा जो कुछ जघन्य पात्र अन्तरात्मा जिसके जीवन में अठारह क्रियाओं का पालन सहज में होता है,७ होना है वह अपनी तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा उसे कोई टाल फेर उसमें प्रथम सम्यक्त्व और फिर आठ मूलगुण का वर्णन किया, यहाँ तीन रत्नत्रय की बदल सकता नहीं है, जो यह अनुभव प्रमाण स्वीकार करता है वह अव्रत सम्यक्दृष्टि 5 साधना का, उसके स्वरूप सहित वर्णन किया जा रहा है कि यह रत्नत्रय अर्थात है तथा जिसे संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य भाव जागा है, जो इन सारे संयोगों से सम्यक्दर्शन,सम्यक्ज्ञान,सम्यक्चारित्र की साधना अपनेशुद्धात्मा के गुणों की साधना छूटना चाहता है, उसके जीवन में यह अठारह क्रियायें सहज में ऐसी ही पलती हैं है, इससे अपने निज तत्वशुद्धात्म स्वरूप का नित्य प्रकाश बढ़ता है और यही साधना क्योंकि जिसके अन्तर में न अब कुछ खाने का भाव है,न करने का भाव है, न भोगने एक दिन अपने ज्ञानमयी ध्रुव तत्व शुद्ध चिद्रूपको प्रगट करा देती है अर्थात् अरिहन्त का भाव है न कुछ कहने, सुनने बोलने का भाव है, बस वह तो मजबूरी में रह रहा है, सर्वज्ञपद तथा सिद्ध पद प्रगट हो जाता है। इसी बात को तत्वज्ञान तरंगिणी में भट्टारक कर रहा है खा रहा है तो बताओ उसका आचरण कैसा होगा? अरे! उसे तो जो कुछ ज्ञानभूषण जी ने जो तारण स्वामी के समकालीन संवत् १५६० में हुए यही बात कही जैसा रूखा-सूखा मिल जाये सिर्फ पेट ही तो भरना है, उसकी रस लोलुपता नहीं हैरहती फिर बताओ क्या वह भक्ष्य-अभक्ष्य खायेगा, कोई हिंसादि पाप क्रिया का रत्नत्रयोपलं भेन बिना शुद्धचिदात्मनः । व्यापार करेगा? यह उसे छोड़ना नहीं पड़ते अपने आपछूट जाते हैं। अव्रत सम्यकदृष्टि प्रदुर्भावो न कस्यापि यते हि जिनागमे । जिसका विवेक जाग गया है, वह कैसा होता है यह तो उसे उसी रूप में हम स्वयं वैसे बिना रत्नत्रयं शुद्ध चिद्रूपं न प्रपन्नवान्। बनकर देखें तब पता लगता है। यहाँ तारण स्वामी ने किसी शास्त्र की नकल नहीं ॐ कदापिकोऽपि केनापिप्रकारेण नरः क्वचित्॥१२/१,२॥ की, यह तो जो उनके जीवन में घटित हुआ, वह लिखा है और यही सत्य है ध्रुव है जैन आगम से यह बात स्पष्ट जानी जाती है कि बिना रत्नत्रय को प्राप्त किये प्रमाण है। यहाँ ऊपर से लगाये गये पत्तों फूलों की बात नहीं की जा रही, यहाँ तो आज तक किसी भी जीव को शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति नहीं हुई अर्थात् परमात्म पद प्राप्त भीतर से स्वयं पैदा होता है उसके पत्ते फूलों और फल की बात की जा रही है। अव्रत नहीं हुआ। बिना रत्नत्रय अर्थात् सम्यकदर्शन, सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्र को प्राप्त सम्यक्दृष्टि का जीवन इतना ही प्रमाणित होता है तभी वह सही सम्यक्दृष्टि है। किये आज तक किसी मनुष्य ने कहीं और कभी भी किसी दूसरे उपाय से शुद्ध चिद्रूप अब आगे अव्रत सम्यक्दृष्टि की अठारह क्रियाओं में रत्नत्रय की साधना के को नहीं पाया। स्वरूप का वर्णन किया जा रहा है रत्नत्रयाद्विना चिद्रूपोपलब्धिर्न जायते। दर्सनं न्यान चारित्रं, सार्थ सुद्धात्मा गुनं । यथास्तिपसः पुत्री पितुर्वशिलाहकात्॥१२/३॥ तत्व नित्य प्रकासेन,सार्धं न्यान मयं धुवं ॥ २३५॥ जिस प्रकार तप के बिना ऋद्धि, पिता के बिना पत्री और मेघ के बिना वर्षा नहीं हो सकती, उसी प्रकार बिना रत्नत्रय की प्राप्ति के शुद्ध चिद्रूप की भी प्राप्ति नहीं हो अन्वयार्थ- (दर्सनं न्यान चारित्र) सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र सकती। की साधना (सार्धं सुद्धात्मा गुन) शुद्धात्मा के गुणों की साधना या श्रद्धान है (तत्व दर्शन ज्ञान चारित्र स्वरूपात्म प्रवर्तनं । नित्य प्रकासेन) इससे अपने निज तत्व का हमेशा प्रकाश होता है (सार्ध न्यान मयं युगपद् भव्यते रत्नत्रयं सर्वजिनेश्वरैः॥१२/४॥ धुवं) यही साधना ज्ञानमयी ध्रुव तत्व को प्रगट कराती है। भगवान जिनेश्वर ने एक साथ सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र १५३ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w श्री आचकाचार जी गाथा-२३६,२३७ c ou स्वरूप आत्मा की प्रवृत्ति को रत्नत्रय कहा है। (दर्सनं सप्त तत्वानं) सम्यकदर्शन सात तत्वों का (दर्व काय पदार्थक) छहयहाँ कोई प्रश्न करे कि क्या यह रत्नत्रय की साधना एकदम एक साथ होती है द्रव्यों का, पांच अस्तिकाय और नौ पदार्थ का यथार्थ निर्णय करना और इनमें (जीव या क्रम से करना पड़ती है? द्रव्यं च सुद्धं च) एक मात्र जीव द्रव्य जो अपने स्वभाव से शुद्ध है (सार्धं सुद्धं दरसन) उसका समाधान करते हैं कि भाई ! यह रत्नत्रय शुद्धात्मा के गुण हैं और सब* इसका श्रद्धान करना ही शुद्ध सम्यक्दर्शन है। एक साथ रहते हैं, अब साधक अपनी पात्रता और परिस्थिति अनुसार किस प्रकार विशेषार्थ-यहाँ रत्नत्रय की साधना के अंतर्गत प्रथम सम्यक्दर्शन के स्वरूप साधना करता है, इसमें एकरूपता नहीं होतीपरन्तु तीनों की एकता हुए बगैर मोक्षमार्ग का वर्णन कर रहे हैं कि वह सम्यक्दर्शन निश्चय-व्यवहार की अपेक्षा दो प्रकार का नहीं बनता और तीनों की पूर्णता होने पर मोक्ष अर्थात् शुद्ध चिद्रूप परमात्म पद होता होता है। तत्वों का श्रद्धान करना व्यवहार सम्यक्दर्शन है और रत्नत्रय से परिपूर्ण है इसमें अन्यथा भेद नहीं हो सकता। है शुद्धज्ञानमयी चैतन्यमूर्ति स्व आत्मा का दर्शन अर्थात् निजशुद्धात्मानुभूति ही निश्चय फिर प्रश्न आता है कि आप सम्यकदर्शन की प्रमुखता कहते हैं और फिर तीनों सम्यकदर्शन है, और स्पष्ट करने के लिये दूसरी गाथा में खुलासा किया है कि सात की एकरूपता कहते हैं तो आखिर इसका क्रम क्या है ? इसका समाधान करते हैं कि तत्व-जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष। छह द्रव्य-जीव, पुद्गल, भाई! सम्यकदर्शन तो प्रमुख है ही बगैर सम्यकदर्शन अर्थात् निज शुद्धात्मानुभूति के धर्म, अधर्म, आकाश, काल । पंचास्तिकाय-जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, सम्यक्ज्ञान सम्यक्चारित्र होता ही नहीं है इसलिये सबसे पहले भेदज्ञान पूर्वक स्व- धर्मास्तिकाय,अधर्मास्तिकाय,आकाशास्तिकाय। नौ पदार्थ-जीव, अजीव, पुण्प, पर का यथार्थ निर्णय कर अपने आत्म स्वरूप का सत्श्रद्धान करना, वैसे सम्यक्दर्शन पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष। होते ही सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र एक साथ ही एक समय में होते हैं; परन्तु इन सत्ताईस तत्वों का यथार्थ निर्णय, इनके भेद और स्वरूप को जानना सम्यक्दर्शन अपने में पूर्ण है और सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र में क्रमशः विकास होता व्यवहार सम्यक्दर्शन है और इनमें एक मात्र जीव द्रव्य जो स्वभाव से शुद्ध है है,यह एकदम एक साथ पूर्ण नहीं होते, इनकी साधना करना पड़ती है और यह जीव उसका श्रद्धान करना ही शुद्ध सम्यकदर्शन है। की पात्रता, पुरुषार्थ पर क्रमशः बढ़ते हैं। यहां कोई प्रश्न करे कि तत्वार्थ सूत्र में तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यकदर्शन, यह इसी बात को यहाँ तारण स्वामी सबसे पहले सम्यक्दर्शन की पूर्णता और सूत्र आया है कि तत्वार्थ का श्रद्धान ही सम्यक्दर्शन है फिर व्यवहार-निश्चय का शुद्धता की बात करते हैं तथा सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की साधना पूर्वक विकास 2 भेद कहां से आया? का क्रम निरूपित करते हैं पर तीनों की एकता मोक्षमार्ग और तीनों की पूर्णता ही मोक्ष इसका समाधान करते हैं कि यह व्यवहार-निश्चय भेद कहीं से आया नहीं है, है यह निश्चित है और इसकी साधना करना ही प्रत्येक साधक का कर्तव्य है- ९ यह तो जैन दर्शन का मूल आधार है। तत्वार्थ सूत्र में भी इसी बात को कहा है कि तत्व दर्सनं तत्व सार्थच,तिअर्थ सुद्ध दिस्टतं। (वस्तु) के स्वरूप सहित अर्थ,जीवादि पदार्थों की श्रद्धा करना सो सम्यकदर्शन मय मूर्ति संपूर्न च,स्वात्म दर्सन चिंतनं ॥ २३६ ॥ 3 इस सूत्र में निश्चय सम्यक्दर्शन का ही लक्षण है, व्यवहार सम्यक्दर्शन का दर्सनं सप्त तत्वानं,दर्व काय पदार्थकं । नहीं अर्थात् तत्व, द्रव्य, पदार्थ, अस्तिकाय इनके नाम आदि जान लेना तथा ऐसा जीव द्रव्यं च सुद्धच, सार्थ सुद्धं दरसनं ।। २३७॥ शास्त्र में कहा है, यह सत्य है ऐसा स्वीकार करना यह व्यवहार सम्यक्दर्शन है। अन्वयार्थ- (दर्सनं तत्व सार्धंच) तत्व का श्रद्धान सम्यक्दर्शन है और (तिअर्थ जैसे- इस बोरी में शकर रखी है तो यह शकर मीठी होती है, इस प्रकार बनती है, शुद्ध दिस्टतं) रत्नत्रय से शुद्ध देखना (मयमूर्तिसंपूर्नच) ज्ञानमयी अपने गुणों से परिपूर्ण इस मिल की बनी है और अच्छी गुणवत्ता की है, ऐसा जानना मात्र कोई कार्यकारी १ चैतन्यमूर्ति है ऐसे (स्वात्म दर्सन चिंतनं) स्व आत्मा का दर्शन और चिन्तवन करना। हितकारी नहीं है, उस शकर को चखना, उसका प्रयोग करना, यह निश्चय है और १५४ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री बाचकाचार जी गाथा-२५८-२४० ROO यही कार्यकारी हितकारी है। इसी प्रकार इन तत्वों के नाम भेदादि जान लेना और जाने और शुद्ध नय से आत्मा को न जाने तब तक पर्याय बुद्धि है। शास्त्र के अनुसार श्रद्धान करना यह व्यवहार सम्यकदर्शन है। इसमें से प्रयोजनभूत इस अर्थ का कलश रूप काव्य कहते हैंजीव तत्व में हूँ।जो चैतन्य लक्षण वाला सबमें श्रेष्ठ है ऐसे अपने स्वरूप की अनुभूति चिरमिति नवतत्वच्छन्न मुत्रीय मानं, भेदज्ञान पूर्वक यथार्थ श्रद्धान करना निश्चय सम्यक्दर्शन है। इसी बात को कनकमिव निमग्नं वर्णमाला कलापे। अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार कलश ६ में स्पष्ट किया है। अथ सततविविक्तं दृश्यतामेक रूपं, एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः, प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ॥८॥ पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यांतरेभ्यः पृथक् । इस प्रकार नव तत्वों में बहुत समय से छिपी हुई यह आत्म ज्योति शुद्ध नय सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं, है से बाहर निकालकर प्रगट की गई है। जैसे-वर्णों के समूह में छिपे हुए एकाकार स्वर्ण तन्मुक्त्वा नवतत्व संततिमिमामात्मायमेकोस्तु नः॥ को बाहर निकालते हैं इसलिये हे भव्य जीवो ! इसे सदा अन्य द्रव्यों से तथा उनसे इस आत्मा को अन्य द्रव्यों से पृथक् देखना (श्रद्धान करना) ही नियम से होने वाले नैमित्तिक भावों से भिन्न एकरूप देखो। यह (ज्योति) पद पद पर अर्थात् सम्यकदर्शन है। यह आत्मा अपने गुण पर्यायों में व्याप्त रहने वाला है और शुद्ध नय प्रत्येक पर्याय में एकरूप चिच्चमत्कार मात्र उद्योतमान है। से एकत्व में निश्चित किया गया है तथा पूर्ण ज्ञानघन है ऐसा जितना सम्यकदर्शन है। आगे इसी सम्यक्दर्शन की विशेषता का वर्णन करते हैं - उतना ही आत्मा है इसलिये आचार्य प्रार्थना करते हैं कि इस नव तत्व की परिपाटी को दर्सनं आ ऊर्थच, मध्य लोकेन दिस्टते। छोड़कर यह एक आत्मा ही हमें प्राप्त हो। आचार्य कुन्दकुन्द देव भी कहते हैं - भूवत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपाच। षट् कमलं ति अर्थ च,जोयं संमिक दर्सनं ।। २३८॥ आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥१३॥ दर्सनं जन उत्पादंते, तत्र मिथ्या न दिस्टते। भूतार्थनय से ज्ञात जीव-अजीव और पुण्य-पाप तथा आस्रव, संवर, निर्जरा, कुन्यानं मलस्चैव,तिक्तं जोगी समाचरेत् ॥ २३९ ॥ बंध और मोक्ष,यह नव तत्व सम्यक्त्व हैं। इन नव तत्वों में शद्ध नय से देखा जाये तो मलं विमुक्त मूढादि,पंच विसति न दिस्टते। जीव ही एक चैतन्य चमत्कार मात्र, प्रकाश रूप प्रगट हो रहा है। इसके अतिरिक्त भिन्न-भिन्न नव तत्व कुछ भी दिखाई नहीं देते। जब तक इस प्रकार जीव तत्व की आसा स्नेह लोभं च, गारव त्रि विमुक्तयं ।। २४०॥ जानकारीजीव को नहीं है, तब तक वह व्यवहार दष्टि है. भिन्न-भिन्न नव तत्वों को है अन्वयार्थ- (दर्सनं आर्ध ऊध च) सम्यक्दर्शन होने पर अधोलोक, मानता है। जीव पुद्गल की बंध पर्याय रूप दृष्टि से यह पदार्थ भिन्न-भिन्न दिखाई ऊर्ध्वलोक और (मध्य लोकेन दिस्टते) मध्यलोक का स्वरूप देखने जानने में आने देते हैं किन्तु जब शुद्ध नय से जीव पुद्गल का निज स्वरूप भिन्न-भिन्न देखा जाये लगता है (षट् कमलं तिअर्थ च) षट्कमल के योगाभ्यास द्वारा अपने रत्नत्रय मयी तब यह पुण्य-पापादि सात तत्व कुछ भी वस्तुनहीं हैं। वे निमित्त-नैमित्तिक भाव से स्वरूप को (जोयं संमिक दर्सनं) सम्यकदर्शन में देखने लगता है। र हुए थे इसलिये जब निमित्त-नैमित्तिक भाव मिट गया, तब जीव पुद्गल भिन्न-भिन्न 5 (दर्सनं जत्र उत्पादंते) जहां सम्यक्दर्शन पैदा हो जाता है (तत्र मिथ्या न ७ होने से अन्य कोई वस्तु (पदार्थ) सिद्ध नहीं हो सकता। दिस्टते) वहां फिर मिथ्यात्व दिखाई नहीं देता (कुन्यानं मलस्चैव) कुज्ञान आदि। वस्तु जो द्रव्य है और द्रव्य का निज भाव द्रव्य के साथ ही रहता है तथा मलों को (तिक्तं जोगी समाचरेत्) छोड़कर योगी अपने स्वरूपकी साधना करता है। निमित्त-नैमित्तिक भाव का अभाव ही होता है इसलिये शुद्ध नय से जीव को जानने (मलं विमुक्त मूढादि) मल मूढता आदि छूटने पर (पंच विंसति न दिस्टते) से ही सम्यकदर्शन की प्राप्ति हो सकती है। जब तक भिन्न-भिन्न नव पदार्थों को फिर यह पच्चीस शंकादि दोष दिखाई नहीं देते (आसा स्नेह लोभंच) आशा स्नेह Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Accoun श्री आचकाचार जी गाथा-२४१ COON और लोभ (गारव त्रि विमुक्तयं) तथा तीन प्रकार का गारव भी छूट जाता है। दर्सनं सुद्ध दर्वार्थ, लोक मूढ़ न दिस्टते। विशेषार्थ- सम्यक्दर्शन होने पर अधोलोक ऊर्ध्वलोक और मध्यलोक का जस्य लोकं च सार्थ च, तिक्तते सुद्ध दिस्टितं ।। २४१ ॥ स्वरूप देखने जानने में आने लगता है अर्थात चार गति और चौरासी लाख योनियों अन्वयार्थ- (दर्सनं सुद्ध दर्वार्थ) जिसे अपने शुद्ध द्रव्य स्वभाव का दर्शन हो। के जन्म-मरण का दु:ख तथा अनादिकाल के परिभ्रमण का स्वरूप समझ में आने गया (लोक मूढ़ न दिस्टते) फिर वह लोक मूढता की तरफ नहीं देखता (जस्य । लगता है। अपने आत्म स्वरूप की साधना और शीघ्र इस संसार से छूटने की भावनालोकं च सार्धं च) जिन बातों को जिन क्रियाओं को लौकिकजन पालते हैं और होने से षट्कमल के योगाभ्यास द्वारा अपने रत्नत्रयमयी स्वरूप को साधने लगता है। श्रद्धान करते हैं (तिक्तते सुद्ध दिस्टितं) शुद्ध दृष्टि उन सबको छोड़ देता है। जहाँ सम्यकदर्शन अर्थात निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती है फिर वहाँ मिथ्यात्व विशेषार्थ- यहां सम्यकदष्टि की बात कही जा रही है कि उसे अपने शट टव्य दिखाई नहीं देता। जैसे- सूर्य के उदय होते ही अंधकार विला जाता है इसी प्रकार स्वभाव का दर्शन हो गया अर्थात उसने यह जान लिया कि मैं शुद्ध-बुद्ध अविनाशी सम्यकदर्शन प्रगट होते ही कुज्ञान मिथ्यात्व आदि सारे मल छूट जाते हैं और योगी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूं, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं तथा जब जिस अपने स्वरूप की साधना करता है । यह मिथ्यात्वादि मल मूढता छूटने पर फिर जीव का जैसा जो कुछ होना है वह अपने-अपने कर्मोदयानुसार हो रहा है। जिसके शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन, तीन मूढता यह भी दिखाई नहीं देती पण्य का उदय है उसे सब अनुकूलतायें सहज में अपने आप मिल रही हैं और जिसके आर ससारस आशा, स्नह, लाभतथा तान प्रकार का गारव जनरजन राग, कलरजन पाप का उदय है उसके सब विपरीत ही विपरीत हो रहा है, चाहते हुए भी कोई उसका दोष और मनरंजन गारव यह तीन गारव कहलाते हैं, यह भी छूट जाते हैं। इस कछ नहीं करता.साथ नहीं देता, ऐसा निर्णय होने पर वह लोक मूढताओं की तरफ प्रकार सम्यक्दृष्टि अपने स्वरूप की साधना में रत रहता है। ई नहीं देखता, जिन बातों को जिन क्रियाओं को लौकिक जन मानते हैं,पालते हैं और यहा काइप्रश्न करकि अव्रत सम्यक्ाष्ट जघन्य पात्र का अठारह क्रियाआका श्रद्धान करते हैं ऐसी लोक मूढता की सारी क्रियाओं को सम्यक्दृष्टि छोड़ देता है। वर्णन चल रहा है? इसमें जो बताया जा रहा है ऐसा तो किसी अन्य श्रावकाचार आदि संसार में लोग थोडी-थोड़ी सी बात पर डरते हैं। जिसने जो कहा वही मानने लगते ग्रंथों में नहीं लिखा, यह योग आदि की साधना तो जैनधर्म में बताई ही नहीं है? चाहे जिसकी पजा करने लगते हैं। चाहे जैसी मिथ्या क्रियायें पालने लगते हैं इसका समाधान करते हैं कि यह श्रावकाचार किसी की नकल नहीं है। यहाँ तो 5 क्योंकि उन्हें संसारी कामना वासना मोह ममता का भूत लगा है, वह संसारी वस्तुओं अव्रत सम्यकदृष्टि का जीवन कैसा होता है? वह क्या करता है? यह अपने जीवन के पीछे अपना अमूल्य मानव जीवन तथा आत्मा का पतन भी करते रहते हैं, उन्हें से प्रमाणित करके बताया जा रहा है तथा जैनधर्म तो योग साधना का ही धर्म है; दस बात का कोर्ट होश विवेक नहीं है कि क्या उचित है क्या अनचित है क्या हितकारी परन्तु जो जाने वह बताये, जिन्होंने जाना है उन्होंने बताया है और योग साधना ५ है क्या अहितकारी है ? चाहे जहां चाहे जिस कुदेव-अदेव आदि के सामने सिर के भी जैन आगम में कई ग्रंथ हैं। यह सब साधक की अपनी-अपनी साधना * पटकते हैं.चाहे जिसकी पूजा मान्यता करते हैं। लोग कहते हैं, इससे लोगों का भला अलग-अलग होती है क्योंकि सब जीवों के कर्मोदय परिस्थिति, पात्रता, शरीरादिभी भी तो होता है तथा शुभ भाव होने से पुण्य बंध भी होता है परन्तु यह विपरीत तो होता है तथा STA का संहनन भिन्न-भिन्न होता है। उसी अनुसार वह अपनी अनुकूलतानुसार साधना । 5 मान्यता, मिथ्यात्व सहित शुभ भाव भी घोर संसार के कारण हैं, यह सब मिथ्यात्व करता है। मूल अभिप्राय तो अपने आत्म स्वरूप के श्रद्धान और आत्म कल्याण की महापाप दुर्गति का कारण है। संसार में लोग न जाने क्या-क्या करते हैं, उनसे पूछते भावना से है और जिसे यह होता है, उसके जीवन में यह सब सहज में होने लगते हैं कि भाई! इसका क्या मतलब है और इसके करने से क्या लाभ है? तो वे कहते हैं। यह हम कुछ नहीं जानते, जैसे हमारे बुजुर्ग करते थे या अन्य लोग करते हैं वैसा ही आगे इसी सम्यक्दर्शन की और विशेषता का वर्णन करते हैं हम भी करते हैं। यह सब लोक मूढ़ता दुर्गतियों का कारण है, इन सबको सम्यकदृष्टिल Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री श्रावकाचार जी गाथा-२४२,२४३ Oo छोड़ देते हैं। भय या चाह से किसी भी कुदेव-अदेव की पूजा भक्ति करते हैं, वह दुर्बुद्धि कभी आजकल लोग देवपूजा के नाम पर नाना रूप भेष बनाकर नाना प्रकार की सम्यकदष्टि नहीं हो सकते। जिन्हें अपने कर्मोदय का विश्वास नहीं है कि हमारे पुण्य क्रियायें करते हैं। लोगों को ठगने के लिये भी संसारी जीव नाना प्रकार की देवमूढता का उदय होगा तो हमारा कोई बाल बांका अहित नहीं कर सकता और पाप का उदय में फंसाते हैं। भूत-पिशाच, देवी-दहाड़ी आदियह तो सब प्रत्यक्ष कुदेव ही हैं। लोग * होगा तो कोई साथ नहीं दे सकता. हाथ नहीं बंटा सकता। जगत में सब जीवों का ७ इनके साथ अदेवादि को भी देव मानकर पूजते हैं जो घोर संसार का कारण है। अपने-अपने पाप-पण्य कर्मोदयानसार ही परिणमन चल रहा है, इसको मिटाने इसी देव मूढता का स्वरूप और उसकी मान्यता का फल यहां आगे गाथाओं में S टालने में कोई भी समर्थ नहीं है, देव इन्द्रधरणेन्द्र यहां तक कि जिनेन्द्र परमात्मा भी तारण स्वामी बता रहे हैं अपने या पर के, किसी के भी कर्मोदय को नहीं टाल सकते, सबको अपने कर्मोदय देव मूढ़ च प्रोक्तं च, क्रीयते जेन मूढ़यं । हैं का फल भोगना पड़ता है फिर कौन किसका भला-बुरा कर सकता है। चार प्रकार दुर्बुद्धि उत्पादते जीवा, तावत् दिस्टिन सुद्धये ॥ २४२ ॥ के देव-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी जो संसारी रागी द्वेषी देव हैं, अदेवं देव उक्तं च,मूढ़ दिस्टि प्रकीर्तितं । इनमें से किसी भी देवी-देव की पूजा भक्ति करना तो कुदेव की मान्यता है तथा पाषाण, मिट्टी, लकड़ी,लेप, धातु आदि की मूर्ति को देव मानकर पूजा भक्ति अदेव अदेवं असास्वतं येन, तिक्तते सुख दिस्टितं ।। २४३॥ की मान्यता है। ऐसे कुदेव-अदेवों की पूजा भक्ति मान्यता देव मूढता कहलाती है अन्वयार्थ- (देव मूढं च प्रोक्तं च) देवमूढता का स्वरूप कहते हैं (क्रीयते ८ और सम्यक्दृष्टि इन सबको छोड़ देता है, वह तो अपने शुद्धात्म तत्व परमात्मस्वरूप जेन मूढयं) जो मूढ लोग किया करते हैं (दुर्बुद्धि उत्पादते जीवा) जब तक जीव को की ही श्रद्धा भक्ति करता है तथा इस पद को प्राप्त सच्चे वीतरागी अरिहंत, सिद्ध ऐसी दुर्बुद्धि पैदा होती रहती है (तावत् दिस्टिन सुद्धये) तब तक दृष्टि शुद्ध नहीं होती। परमात्मा के गुणों का आराधन करता है जिससे परिणामों में निर्मलता प्राप्त हो, अर्थात् वह सम्यक्दृष्टि नहीं होता। में अपने शुद्धात्मा का दृढ श्रद्धान हो इस अभिप्राय को लेकर सच्चे देव की वन्दना (अदेवं देव उक्तंच) जो अदेवों को देव कहते हैं और (मूढ दिस्टि प्रकीर्तितं): भक्ति करता है। मूढदृष्टियों के साथ श्रद्धा भक्ति वंदना पूजा प्रार्थना और प्रसिद्धि करते हैं कि यह यहां कोई प्रश्न करे कि कुदेव-अदेव की किसी संसारी कामना-वासना को देव हैं (अदेवं असास्वतं येन) इस प्रकार के अदेवों को जो नाशवान जड़ पदार्थों से लेकर वन्दना पूजा भक्ति करना देव मूढता है परन्तु क्या सच्चे देव अपने इष्ट की बनाये गये हैं (तिक्तते सुद्ध दिस्टितं) शुद्ध दृष्टि इनको त्याग देते हैं, इनकी श्रद्धा किसी पाषाण आदि प्रतिमा के माध्यम से पूजा भक्ति करना भी देव मूढता है? भक्ति नहीं करते। उसका समाधान करते हैं कि धातु पाषाण आदि की प्रतिमा अजीव विनाशीक विशेषार्थ- संसारी प्रयोजनवश किसी कामना वासना को लेकर किसी को देव 3 वस्तु है, जिसमें सच्चा देवपना अर्थात् सर्वज्ञता वीतरागता हितोपदेशिता या अरिहंत मानकर पूजना देव मूढता है। इससे हमारा भला होगा, धन, वैभव, पुत्र परिवार सिद्धपना कुछ भी न झलके, कोई चैतन्य भाव ही प्रगट न हो, उसे देव मानना अदेव बढ़ेगा, रोग शोक दूर होंगे ऐसी मान्यता मानकर किसी भी कुदेव-अदेव की पूजा श्रद्धा है, मूढता है यह भी देव मूढता में गर्भित है। शुद्ध सम्यकदृष्टि तो शुद्धात्मा के भक्ति करना देव मूढता है। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि संसारी जीव अपनी मूढता से ऐसे पद को प्राप्त जो अरिहंत सिद्ध भगवान हैं उन्हीं को सुदेव मानता है और उनकी ही, प्रपंचों में फंसे रहते हैं तथा इसकी प्रसिद्धि प्रभावना करते हैं कि अमुक देव को मानने भक्ति करता है, सो भक्ति भी इसलिये कि परिणामों में निर्मलता प्राप्त हो तथा अपने से यह लाभ हुआ, अमुक देवी की मान्यता करने से यह भला हुआ, उसने ऐसा नहीं शुद्धात्मा की स्मृति हो जावे। सम्यक्दृष्टि व्यवहार नय से सकल और निकल परमात्मा माना था इसलिये उसका ऐसा हो गया, इस प्रकार की बातें कर अन्य जीवों को जो अरिहंत और सिद्ध हैं उनकी गाढ श्रद्धा व भक्ति रखता है अन्य किसी कुदेव या 7 देवमूढता में फंसाते रहते हैं। जो जीव ऐसे मूढ लोगों की बातों में लगते हैं और किसी अदेव की नहीं। १६७ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOO श्री श्रावकाचार जी गाचा-२४४.२४९ Oo आगे पाखंडी मूढ़ता का वर्णन करते हैं - कराने वाली है। पाडी मूड जानते, पापंड विभ्रम रतो सदा। (पाषंडी कुमति अन्यानी) पाषंडी साधु कमति और अज्ञान का धारी (कलिंगी। जिन उक्त लोपन) कुलिंगी मिथ्या भेषधारी जिन वचनों का लोप करने वाला परपंचं पुद्गलार्थ च, पाषंडी मूढ़ न संसयः ।। २४४ ।। * (जिनलिंगी मिश्रेन य) जो जिनलिंग को धारण करके उसमें मिलावट करता है अनृतं अचेत उत्पादंते, मिथ्या माया लोकरंजन। (जिन द्रोही वचन लोपन) वह जिनद्रोही जिनेन्द्र के वचनों का लोप करने वाला है। पाषंडी मूढ विस्वासं, नरयं पतंति ते नरा ॥ २४५॥ (पाषंडी उक्त मिथ्यातं) पाषंडी भेषी साधुओं के द्वारा कहे हुए मिथ्यात्व पाषंडी वचन विस्वासं, समय मिथ्या प्रकासये। ८ पोषक (वचनं विस्वास न क्रीयते) वचनों का विश्वास नहीं करना चाहिये (उक्तंच " सुद्ध दिस्टीच) ऐसा शुद्ध दृष्टि कहा गया है जो (दरसनं मल विमुक्तयं) सम्यक्दर्शन जिन द्रोही दुर्बुद्धि जेन, आराध्यं नरयं पतं ।। २४६ ।। के इन सब दोषों से पाखंडी आदि मूढ़ताओं से रहित होता है। पाषंडी कुमति अन्यानी, कुलिंगी जिन उक्त लोपनं। ॐ (मद अस्टमान संबंध) मान कषाय सम्बन्धी आठ प्रकार का मद (कषायं दोष जिनलिंगी मिशन य, जिन द्रोही वचन लोपनं ॥२४७॥ 3 विमुक्तयं) व अनन्तानुबंधी कषाय आदि दोषों से रहित (सुद्ध दृष्टि समाचरेत्) शुद्ध पाषंडी उक्त मिथ्यातं,वचनं विस्वास न क्रीयते। सम्यक्दृष्टि होता है (दर्सनं मलं न दिस्टते) जिसमें सम्यक्दर्शन के कोई मल दिखाई उक्तं च सुद्ध दिस्टी च, दरसनं मल विमुक्तयं ॥ २४८ ॥ नहीं देते। , विशेषार्थ- यहाँ पाखंड मूढता का स्वरूप बताया जा रहा है, वैसे पूर्व में भी मद अस्टं मान संबंध, कषायं दोष विमुक्तयं । S इसका कथन आ चुका है परन्तु तारण स्वामी ने सम्यकदर्शन की साधना में सम्यकद्रष्टि दर्सनं मलं न दिस्टंते, सुद्ध दिस्टि समाचरेत् ।। २४९ ॥ 5 को इन तीन मूढताओं से विशेष सावधान किया है; क्योंकि संसारी प्राणी इन्हीं तीन अन्वयार्थ- (पाषंडी मूढ जानते) जो मूढ पाखंडी आत्मज्ञान रहित साधुजाने मूढता- देव मूढता, पाखंड मूढता, लोक मूढता में रत रहते हैं। अव्रती सम्यक्दृष्टि जाते हैं (पाषंड विभ्रम रतो सदा) जो मिथ्यात्व भ्रम जाल में सदा आसक्त रहते हैं भी अभी संसारी संयोग गृहस्थ दशा में रहता है इसलिये इनसे बचकर रहना अत्यन्त (परपंचं पुद्गलार्थं च) जो इस पुद्गल शरीरादि के लिये ही सर्व प्रपंच जाल फैलाते । आवश्यक है। यहाँ पाखंड मूढता में गुरु के सम्बन्ध में बताया गया है कि कुगुरु की रहते हैं उनको गुरु मानना (पाषंडी मूढ़ न संसयः) पाषंड मूढ़ता है, इसमें कोई संशय मान्यता ही पाखंड मूढ़ता है। जो आत्मज्ञान से रहित पाखंड और भ्रम जाल में सदा नहीं है। ९ रत रहते हैं तथा शारीरिक क्रिया को ही धर्म मानते हैं, साधु का भेष बनाकर बड़ा (अनृतं अचेत उत्पादंते) जो अचेतन असत्य बातों को पैदा करते रहते हैं 3 प्रपंच फैलाते हैं उनको गुरु मानना, उनकी श्रद्धा भक्ति वन्दना करना पाखंड मूढ़ता (मिथ्या माया लोक रंजन) झूठी मायाचारी बातों में लोगों को फंसाते रंजायमान करते है। जगत में अनेक साधु दिगम्बर भेष में रहते हैं परन्तु न उनकी क्रिया ही मोक्षमार्ग रहते हैं (पाषंडी मूढ विस्वासं) ऐसे पाषंडी मूढ़ लोगों का विश्वास करने वाले (नरयं रूप है और न उनको निज शुद्धात्मा का ज्ञान ही है। जो स्वयं मिथ्यात्व भाव सहित ९ पतंति ते नरा) मनुष्यों को नरक में जाना पड़ता है। 5 हैं, जिनके संसार की लालसा छूटी नहीं है, जो परिग्रह बंधन के लोभी हैं, इन्द्रिय , (पाषंडी वचन विस्वासं) ऐसे पाखंडी साधुओं के वचनों पर विश्वास करना विषयों के लम्पटी हैं। स्वयं कुदेवों व अदेवों के उपासक हैं और वैसा ही अन्य को 7 (समय मिथ्या प्रकासये) जो झूठे आगम या मत का प्रकाश करते हैं (जिन द्रोही उपदेश देते हैं, जिनका जप-तपभजन आदिव अन्य उपदेश विहारादि सर्व क्रियाओं दुर्बुद्धि जेन) जो दुर्बुद्धि जिनेन्द्र परमात्मा के अनेकांतमत के शत्रु हैं व दुष्ट बुद्धि रखने का हेतु जगत का प्रपंच है। वे इस शरीर के लिये तथा आगामी उत्कृष्ट विषय भोगने १ वाले हैं (आराध्यं नरयं पतं) इनकी आराधना वन्दना भक्ति करना नरक में पतन योग्य शरीर पाने के लिये ही मनमानी साधना करते रहते हैं। जिन्हें हिंसा-अहिंसा Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०७ १ श्री आवकाचार जी का भी विचार नहीं है, व्यसनों से विरक्ति नहीं है। मोक्षमार्ग के विपरीत आत्मानुभव से शून्य साधु नामधारी साधुओं को मान करके भक्ति करना उनमें साधुपने की श्रद्धा रखना पाखंड मूढ़ता है, जो सम्यक्दृष्टि को प्रथम ही त्याज्य है। जो धातु पाषाण आदि की मूर्तियां बनवाते हैं, उनमें देवत्वपना सिद्ध करते हैं, चमत्कार आदि के द्वारा लोगों को प्रभावित करते हैं। झूठे शास्त्र रचकर उसमें पूजा विधान लिखते हैं, नाना प्रकार की महिमा बताकर लोगों को रंजायमान करते हैं, मिथ्या माया में फंसाते हैं ऐसे पाखंडी मूढ कुगुरुओं का विश्वास करने वाले मनुष्यों को नरक जाना पड़ता है; क्योंकि वह घोर मिथ्यात्व का पोषण करते हैं ऐसे पाखंडी साधुओं के वचनों पर विश्वास करना, उनके झूठे आगमों का प्रचार या प्रकाशन करना जो जिनेन्द्र के अनेकांत मत के विरोधी शत्रु हैं, दुष्ट बुद्धि रखने वाले हैं इनकी आराधना वन्दना भक्ति करना नरक में गिराने वाली है। ऐसे कुगुरुओं की सेवा करने से मिथ्यात्व और अज्ञान अधिक बढ़ जाता है, यह पाखंडी साधु स्वयं मायाचार में फंसे रहते हैं और जीवों को मिथ्या माया में फंसाते हैं। जिनके पास न वैराग्य है, न संयम है, न आत्मज्ञान है, न मोक्ष की भावना है, जो मात्र संसार को बढ़ाने वाली पाषाण की नौका के समान हैं, जो आप भी डूबेंगे और दूसरों को भी डुबायेंगे। ऐसे पाखंडी साधुओं ने बहुत से मिथ्याशास्त्र बना दिये हैं, जिनमें मिथ्यात्व का, राग-द्वेष का व हिंसा का पोषण किया गया है। कुदेव - अदेव आदि की पूजा विधान बनाये हैं, पराधीनता परावलम्बता का पोषण किया है; जबकि जिनेन्द्र परमात्मा की वाणी जैन आगम स्याद्वाद नय से जैसा पदार्थ अनेकांत स्वरूप है वैसा ही झलकाने वाला है, ज्ञान वैराग्य का प्रकाश करने वाला है, आत्मा को सुख शांति के मार्ग में लगाने वाला है, संयम को दृढ़ कराने वाला है, उसका एकान्त से प्रतिपादन कर अपने मत पक्ष करने वाले पाखंडियों के जाल से बचना चाहिये। जो कुलिंगी हैं वह तो पाखंडी कुमति अज्ञानी हैं ही परन्तु जो जिनलिंग को धारण करके विपरीत आचरण करते हैं या अपना मनमाना भेष बनाकर अपने को गुरू मनवाते हैं, यह सब जिनेन्द्र के मार्ग का लोप करने वाले जिनद्रोही हैं। ऐसे मिथ्यात्वी पाखंडियों के वचनों पर, उनके आगम पर विश्वास नहीं करना चाहिये यह दुर्गति का पात्र बनाने और नरक में ले जाने वाले हैं। गृहस्थ श्रावक को रत्नत्रय के आचरण में प्रथम सम्यक्दर्शन की आराधना का मुख्य स्थान है इसमें सम्यक्दर्शन के पच्चीस मलों से रहित शुद्ध सम्यक्त्व SYA YA FANART YEAR. १५९ गाथा-२६०-२५२ अर्थात् निज शुद्धात्म स्वरूप की साधना आराधना करने वाला ही शुद्ध सम्यकदृष्टि होता है। इस तरह पच्चीस दोषों से रहित शुद्ध सम्यक्त्व का पालन करते हुए व्यवहार की ऐसी क्रियाओं को पालना जिनसे श्रद्धान दृढ़ रहे, किसी प्रकार का कोई मल दोष न लगे, सद्गुरुओं का सत्संग, सत्शास्त्रों का स्वाध्याय, चिन्तन-मनन आत्मानुभूति के लिये सामायिक का निरन्तर अभ्यास साधना करते रहना चाहिये, तब ही सम्यक्दर्शन की शुद्धि और दृढ़ता होती है। आगे सम्यक्ज्ञान की शुद्धि और साधना का वर्णन करते हैंन्यानं तत्वानि वेदंते, सुद्ध तत्व प्रकासकं । सुद्धात्मा तिअर्थ सुद्धं, न्यानं न्यान प्रयोजनं ॥ २५० ॥ अन्वयार्थ - (न्यानं तत्वानि वेदंते) ज्ञान वही है जो जीवादि सात तत्वों का अनुभव करावे (सुद्ध तत्व प्रकासकं ) शुद्ध तत्व का प्रकाश करने वाला हो (सुद्धात्मा तिअर्थं सुद्धं) शुद्धात्मा रत्नत्रय से शुद्ध है (न्यानं न्यान प्रयोजनं) ऐसा ज्ञान कराने वाला ज्ञान ही प्रयोजनीय है। विशेषार्थ - यहाँ सम्यक्ज्ञान की शुद्धि और साधना का स्वरूप बताते हैं कि सम्यक्ज्ञान वही है जो जीवादि सात तत्वों का यथार्थ अनुभव करावे, जिसमें संशय विभ्रम विमोह रहित स्व-पर का यथार्थ स्वरूप अनुभव में आवे, शुद्धात्मा - रत्नत्रय अर्थात् सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र अथवा द्रव्य, गुण, पर्याय तीनों से शुद्ध है, ऐसा ज्ञान कराने वाला ज्ञान ही प्रयोजनीय है। जिसमें चारों अनुयोग, पांच समवाय, दोनों नय (निश्चय व्यवहार) का यथार्थ ज्ञान हो, अनेकान्त का बोध हो और निज शुद्धात्मा ध्रुव तत्व का अनुभव प्रमाण ज्ञान हो, एक-एक समय की पर्याय क्रमबद्ध निश्चित है इसका भी पूर्ण ज्ञान हो वही ज्ञान सम्यक्ज्ञान कहलाता है । इसी बात को आगे और स्पष्ट करते हैं न्यानेन न्यानमालंबं, पंच दीप्ति प्रस्थितं । उत्पन्नं केवलं न्यानं, सुद्धं सुद्ध दिस्टितं ।। २५१ ॥ न्यानं लोचन भव्यस्य, जिन उक्तं सार्धं धुवं । सुयं एतानि विन्यानं, सुद्ध दिस्टि समाचरेत् ।। २५२ ।। अन्वयार्थ - (न्यानेन न्यानमालंबं ) सम्यक्ज्ञान या श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मज्ञान Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ womo श्री श्रावकाचार जी गाथा-२५३,२५४ C O . को दृढ करते हुए जो (पंच दीप्ति प्रस्थितं) पंचज्ञान में श्रेष्ठ रूप से स्थित है (उत्पन्न स्वरूप परिज्ञान तज्ज्ञानं निश्चयाद वरं। केवलंन्यानं) केवल ज्ञान प्रगट करता है (सुद्धं सुद्ध दिस्टितं) यही शुद्ध दृष्टि का शुद्ध कर्मरेणूच्चये बातं हेतुं विद्धि शिवश्रियः ॥१२॥ आचरण है। भगवान जिनेन्द्र ने व्यवहार नय से आठ प्रकार के आचारों से युक्त ज्ञान (न्यानं लोचन भव्यस्य) जिस भव्य के ज्ञान नेत्र खुल गये (जिन उक्तं साधं 8 बतलाया है और उससे समस्त पदार्थों का भली प्रकार प्रतिभास होता है परन्तु जिससे धुवं) वह जिनेन्द्र के कहे अनुसार अपने ध्रुव तत्व की साधना करता है (सुयं एतानि स्व स्वरूप का ज्ञान हो, जो शुद्ध चिद्रूप को जाने वह निश्चय सम्यक्ज्ञान है, वह विन्यानं) भेदविज्ञान और श्रुतज्ञान सहित (सुद्ध दिस्टि समाचरेत्) शुद्ध दृष्टि सम्यक् निश्चय सम्यक्ज्ञान समस्त कर्मों का नाशक है और मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति में आचरण करता है। परम कारण है, इससे मोक्ष सुख अवश्य प्राप्त होता है। विशेषार्थ- सम्यक्ज्ञानी अपने ज्ञान के द्वारा आत्मबल बढ़ाता है, पुरुषार्थ , सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान सहित सम्यक्चारित्र की साधना ही मुक्ति का मार्ग जगाता है, और पंचज्ञान में श्रेष्ठ रूप से स्थित जो केवलज्ञान उसे प्रगट करता है यही है इसी बात को आगे कहते हैंशुद्ध दृष्टि का शुद्ध आचरण है। जिस भव्य के ज्ञान नेत्र खुल गये वह भेदविज्ञान और आचरनं स्थिरी भूतं,सुद्ध तत्व तिअर्थक। श्रुतज्ञान द्वारा आत्मा-अंतरात्मा के स्वरूप को जानता है कि मेरा आत्मा वास्तव में उर्वकारं च वेदंते, तिस्टते सास्वतं धुवं ।। २५३ ।। सर्व राग-द्वेषादि विकारों से व ज्ञानावरणादि कर्म मलों से तथा शरीरादि संयोग से अन्वयार्थ- (आचरनं स्थिरी भूतं) सम्यक् आचरण-स्थित हो जाना है (सुद्ध रहित है इस प्रकार भेदज्ञान का बार-बार अभ्यास करने से जितना आत्मबल बढ़ता तत्व तिअर्थक) उसमें, शुद्ध आत्मीक तत्व जो रत्नत्रयमयी है (उर्वकारं च वेदंते) है पुरुषार्थ काम करता है उतना आत्मध्यान होने लगता है। जितना आत्म ध्यान ! है ऐसा ॐकार मयी परमात्म स्वरूप अनुभव में आता है (तिस्टते सास्वतं धुवं) जो बढ़ता है उतना ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, इससे मतिज्ञान श्रुतज्ञान ए अपने अविनाशी पद में विराजमान है। की शक्ति बढ़ती है, इसी आत्म ध्यान की योग्यता से सम्पूर्ण द्वादशांग का ज्ञान हो - विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्चारित्र की साधना का वर्णन चल रहा है। सम्यक्चारित्र जाता है, आत्मा श्रुतकेवली हो जाता है। इससे ही अवधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान का उसे कहते हैं, जहां उपयोग अपने शुद्धात्म तत्व में स्थित हो जाता है. जहां अपने प्रकाश हो जाता है तथा इसी आत्मध्यान से उन्नति करते-करते जब वह शुक्ल ध्यान के रूप में हो जाता है, एकाग्र शुद्धोपयोग हो जाता है, तब वही ज्ञान केवलज्ञान 2 ॐकार मयी परमात्म स्वरूप का अनुभव होता है, जो अपने शाश्वत अविनाशी पद के रूप में परिणत हो जाता है। में विराजमान है। सम्यक्चारित्र का अर्थपरमानन्द में स्थित होजाना है, जो अतीन्द्रिय भव्य जीव जगत के पदार्थ को ज्ञान रूपी आंख से देखता है, जो अन्तरंग में है और अविनाशी स्वरूप है, इसी का बार-बार अनुभव करना. इसी में स्थित हो जाना प्रकाशमान रहती है, शरीर की दोनों आंखें तो मात्र रूपी स्थूल पदार्थों को ही जोड़ १ सम्यक्चारित्र है। इसकी साधना अव्रती सम्यक्दृष्टि करता है। जैसे-तिल में तेल, वर्तमान में सामने हैं उन्ही को देख सकती हैं परन्तु भेदविज्ञान और श्रुत ज्ञान से प्राप्त फूल में खुशबू, रंग मिले पानी में रंग और पानी अलग-अलग हैं, ऐसे ही इस देह और हुई सम्यज्ञान की आंख सर्व पदार्थों को यथार्थ देख लेती है, जैसा वस्तु का स्वरूप कर्मादि से आत्मा भिन्न है। ऐसा भेदविज्ञानी सम्यक्दृष्टि अनुभव करता है और इस है, उसको वैसा ही ठीक-ठीक जान लेना ही ज्ञान नेत्र सम्यक्ज्ञान का कार्य है। 15 शुद्धनय की दृष्टि से ज्ञानबल से अपने उपयोग को शुद्ध स्वरूप में स्थित करना, 9) इसी बात को तत्वज्ञान तरंगिणी में भट्टारक ज्ञानभूषण जी ने कहा है रमने-जमने का अभ्यास करना ही सम्यक्चारित्र की साधना है। अष्टधाचार संयुक्तं ज्ञानमुक्त जिनेशिना। यह आचरण दो प्रकार का कहा गया है, जिसका आगे वर्णन करते हैंव्यवहार नयात् सर्व तत्वोद्धासो भवेद्यतः ॥११॥ आचरनं द्विविध प्रोक्तं, संमिक्तं संयम धुवं । प्रथमं संमिक्त चरनस्य,स्थिरी भूतस्य संजमं ।। २५४॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12TIN Our श्री आवकाचार जी गाथा- २५४,२५५ P OOR चारित्रं संजमं चरनं, सद्ध तत्व निरीष्यनं । संयमाचरण चारित्र को अंगीकार करे तो शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करता है। आचरनं अवधि दिस्टा,सार्थ सुख दिस्टितं ॥ २५५॥ सम्मत्त चरण सुद्धा संजमचरणस्स जइव सुपसिद्धा। अन्वयार्थ- (आचरनं द्विविधं प्रोक्तं) आचरण दो प्रकार का कहा गया है णाणी अमूढ़ दिठ्ठी अचिरे पावंति णिव्वाणं ॥९॥ जो ज्ञानी होते हुए अमूढदृष्टि होकर सम्यक्त्वाचरण चारित्र से शुद्ध होता है (समिक्तं संयम धुर्व) एक सम्यक्त्व आचरण है दूसरा निश्चल संयमाचरण है (प्रथम और जो संयमाचरण चारित्र से सम्यक् प्रकार शुद्ध हो तो शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त । समिक्तचरनस्य) पहला सम्यक्त्वाचरण है जो मात्र श्रद्धान में स्थिर होना है (स्थिरी भूतस्य संजमं) और दूसरा संयमाचरण अपने स्वरूप में स्थित होना है, जिसमें अपने 7. स्वरूप के श्रद्धान ज्ञान सहित निर्विकल्प अतीन्द्रिय आनंद की अनुभूति होती है। इसी बात को पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं(चारित्रं संजमंचरन) संयमाचरण चारित्र में (सुद्ध तत्व निरीष्यन) अपने शुद्धात्म; इति पत्नत्रय मेततातिसमय विकलमपि गृहस्थेन। स्वरूप का निरीक्षण होता है अर्थात् देखना-भालना मिलना होता है (आचरनं अवधि परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुक्तिमभिलषिता ।।२०९॥ इस प्रकार यह सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रत्नत्रय प्रतिसमय दिस्टा) इस प्रकार कुछ-कुछ समय के लिये देखना मिलना ही सम्यक्चारित्र की (साधं सुद्ध दिस्टितं) साधना है जो सम्यक्दृष्टि करता है। गृहस्थ श्रावक को भी यदि सर्वदेश पालन न हो सके तो एकदेश ही निरन्तर अविनाशी मोक्ष का इच्छुक होते हुए पालन करना चाहिये। विशेषार्थ- सम्यक् आचरण दो प्रकार का कहा गया है-पहला सम्यक्त्वाचरण मुनि के तो रत्नत्रय पूर्ण रूप से है परन्तु गहस्थ श्रावक सम्पूर्ण रत्नत्रय का और दूसरा संयमाचरण है। पहला सम्यक्त्वाचरण- में शुद्ध ज्ञाता-दृष्टा आनन्दमयो, पालन नहीं कर सकता इसलिये उसे एकदेश पालन करना चाहिये। किसी भी दशा में राग-द्वेष से भिन्न हूं, ऐसे श्रद्धान में दृढ़ स्थिर होना है। दूसरा संयमाचरण-शुद्धात्मा उसे रत्नत्रय से विमुख नहीं होना चाहिये क्योंकि वह रत्नत्रय ही मुक्ति का कारण है। के अनुभव में स्थिर होना संयमाचरण है, इसमें अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखना मनि का रत्नत्रय महाव्रत के योग से साक्षात् मोक्ष का कारण है और श्रावक का मिलना और थोड़े-थोड़े समय के लिये स्थिर होने की साधना अव्रत सम्यकदृष्टि रत्नत्रय अणुव्रत के योग से परम्परा मोक्ष का कारण है अर्थात् जिस श्रावक को करता है। सम्यकदर्शन हो जाता है उसका अल्प ज्ञान भी सम्यकज्ञान और अणुव्रत भी जहाँ स्वरूपाचरण चारित्र है वहीं शुद्धात्मीक दृष्टि है यही परम मंगलकारी है, सम्यकचारित्र कहा जाता है। इसलिये रत्नत्रय का धारण करना अत्यन्त आवश्यक यही कर्मों के बंध को क्षय करने वाली है, यही बार-बार आराधने योग्य है। र है। सात तत्वों की श्रद्धा करना व्यवहार सम्यकदर्शन है और निज स्वरूप की श्रद्धा इसी बात को चारित्रपाहुड़ में श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं 5 अर्थात् स्वानुभव होना निश्चय सम्यकदर्शन है। जिनागम से सात तत्वों को जान जिण णाण दिविसुद्धं पढ़मं सम्मत्त चरण चारित्तं । लेना व्यवहार सम्यक्ज्ञान है और निज स्वरूप का भान अर्थात् आत्मज्ञान निश्चय विवियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियंत पि ॥५॥ 2 सम्यक्ज्ञान है। अशुभ कार्यों की निवृत्ति पूर्वक शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना व्यवहार चारित्र को दो प्रकार का कहा है- प्रथम तो सम्यक्त्व का आचरण कहा जो सम्यक्चारित्र है और शुभ प्रवृत्तियों से भी निवृत्त होकर शुद्धोपयोग रूप निज स्वरूप सर्वज्ञ के आगम में तत्वार्थ का जैसा स्वरूप कहा है, इसको यथार्थ जानकर श्रद्धान 5 शिरोनानि करणखान में स्थिर होना निश्चय सम्यक्चारित्र है। इस तरह रत्नत्रय का संक्षेप में वर्णन किया, करना उसमें शंकादि दोषों का न होना, अपने आत्म स्वरूप की प्रतीति सम्यक्त्वाचरण श्रावक को इसका एकदेश पालन अवश्य ही करना चाहिये, बिना रत्नत्रय के किसी चारित्र है और जो महाव्रत आदि अंगीकार करके सर्वज्ञ के आगम में कहा है उस प्रकार जीव का कल्याण कदापिहो नहीं सकता। संयम का आचरण करना आत्म स्वरूप में स्थित रहना संयमाचरण चारित्र है। सम्यक्त्व बोध चारित्र लक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः । आगे कहते हैं कि जो इस प्रकार सम्यक्त्वाचरण चारित्र को अंगीकार करके मुख्योपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम् ।।२२२॥ १६१ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CRICK 04 श्री आपकाचार जी गाथा-२५६-२५९ COO __इस प्रकार यह पूर्व कथित निश्चय और व्यवहार रूप सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान चाहिये- १. सांसारिक लाभ की इच्छा न होना। २. दान देते समय क्रोध रहित और सम्यक्चारित्र लक्षण वाला मोक्षमार्ग आत्मा को परमात्मा का पद प्राप्त कराता है। शांत परिणाम होना। ३. दान देते समय प्रसन्नता होना। ४. मायाचार छल कपट से इसी बात को तारण स्वामी ने पंडितपूजा में कहा है र रहित होना। ५. ईर्ष्या रहित होना। ६. विवाद (खेद) रहित होना। ७. अभिमान एतत् संमिक्त पूजस्या, पूजा पूज्य समाचेरत। 8 रहित होना। मुक्ति श्रिय पर्थ सुद्ध, विवहार निस्थय सास्वतं ॥३२॥ दान देते समय बहुत श्रद्धा भक्ति व उत्साह पूर्ण भावों से आहारादि का दान । इसी प्रकार सच्ची पूजा, पूज्य के समान आचरण होना ही पूजा है और यह करना चाहिये। दान देते हुए अपने को धन्य मानना चाहिये। गृहस्थ की शोभा दान मोक्ष का शुद्ध मार्ग व्यवहार निश्चय से शाश्वत है। से है। अव्रत सम्यकदृष्टि निरन्तर चार दान की प्रभावना करता है। इस प्रकार अव्रत सम्यक्दृष्टि की अठारह क्रियाओं में यहाँ तक सम्यक्त्व, अष्ट, आगे उत्कृष्ट पात्र सम्यक्दृष्टि साधु का स्वरूप कहते हैंमूलगुण और रत्नत्रय की साधना का वर्णन किया गया, आगे चार दान के स्वरूप का उत्तम जिन रूवी च, जिन उक्तं समाचरेत् । वर्णन करते हैंपात्रं त्रिविधि जानते, दानं तस्य सुभावना। तिअर्थ जोयते जेन, ऊर्ध आधं च मध्यमं ॥२५७॥ जिन रूवी उत्कृष्टं च, अव्रतं जघन्यं भवेत् ॥ २५६॥ षट् कमलं त्रि उर्वकारं, झानं झायंति सदा बुधै। अन्वयार्थ- (पात्रं त्रिविधि जानते) पात्र तीन प्रकार के जानना चाहिये (दानं पंच दीप्तं च वेदंते, स्वात्म दरसन दरसनं ॥ २५८॥ तस्य सुभावना) शुभभावों से उनको दान देना चाहिये (जिन रूवी उत्कृष्टं च)उत्कृष्ट अवधं जेन संपून, ऋजु विपुलं च दिस्टते। पात्र जिनरूवी,जोतीर्थकर के समान निग्रंथ वीतरागी दिगम्बर साधु हैं वे उत्कृष्ट पात्र ५ मनपर्जय केवलं च,जिन रूवी उत्तमं बुध ॥ २५९ ॥ हैं (अव्रतं जघन्यं भवेत्) जो व्रत रहित सम्यकदृष्टि हैं वे जघन्य पात्र हैं। अन्वयार्थ- (उत्तमं जिन रूवी च) उत्तम पात्र जिनरूपी निग्रंथ साधु हैं जो विशेषार्थ- अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् अनुग्रह-उपकार के हेतु से (जिन उक्तं समाचरत्) जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा प्रमाण चारित्र पालते हैं (तिअर्थ धनादि अपनी वस्तु का स्व-पर के हित के अभिप्राय से त्याग करना दान है। विधि, जोयते जेन) जिनने सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का यथार्थ पालन द्रव्य, दातृ और पात्र की विशेषता से दान में विशेषता होती है। किया है तथा जो (ऊर्ध आधं च मध्यम) ऊर्ध्व लोक, अधोलोक और मध्य लोक का १.विधि विशेष-नवधाभक्ति के क्रम को विधि विशेष कहते हैं। स्वरूप जानते हैं। २. द्रव्य विशेष-शुद्ध द्रव्य जो तप, स्वाध्याय आदि की वृद्धि में कारण हो, ऐसे (षट्कमलं त्रि उवंकार) षट् कमल और तीन उर्वकार-ॐ ह्रीं श्रीं (झानं झायंति आहारादि को द्रव्य विशेष कहते हैं। * सदा बुधै) ज्ञानीध्यान की साधना अभ्यास सदा करते हैं (पंच दीप्तं च वेदंते) अपने ३. दातृ विशेष-जो दातार श्रद्धा आदि सात गुणों सहित हो। पंच ज्ञान मयी स्वरूप का अनुभव करते हैं (स्वात्म दरसन दरसनं) अपने आत्म ४. पात्र विशेष-जो सम्यक्चारित्र आदि गुणों सहित हो, ऐसे मुनि आदि को पात्र स्वरूप के दर्शन में लवलीन रहते हैं। विशेष कहते हैं। पात्र तीन प्रकार के होते हैं-१.उत्तम पात्र-सम्यक्चारित्रवान (अवधं जेन संपून) जो अवधिज्ञान से परिपूर्ण (ऋजु विपुलं च दिस्टते) रिजु मुनि, २. मध्यम पात्र-व्रतधारी सम्यकदृष्टि श्रावक, ३. जघन्य पात्र-अविरत और विपुलमति को देखते हैं (मनपर्जय केवलं च) मनः पर्यय और केवलज्ञान की सम्यकदृष्टि श्रावक। साधना करते हैं (जिन रूवी उत्तमं बुधै) वे जिन रूपी निर्ग्रन्थ वीतरागी ज्ञानी साधु दाता को, शुभ भावों पूर्वक दान देना चाहिये तथा सात गुण सहित होना उत्तम पात्र हैं। stabi.chudai.comvedos. ac १६२ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Oup श्री श्रावकाचार जी गाथा-२६०-२६३ ROO विशेषार्थ- यहां उत्तम पात्र का स्वरूप कहते हैं, उत्तम पात्र जिन रूपी निर्ग्रन्थ यहाँ देने योग्य उत्तम पात्र के स्वरूप का वर्णन किया, आगे मध्यम पात्र व्रती वीतरागी साधु हैं, जो जिनेन्द्र के कथनानुसार अपना चारित्र भले प्रकार पालते हैं। श्रावक का स्वरूप कहते हैंजो निश्चय से रत्नत्रय के साधक अपनी आत्मानुभूति में रत रहने वाले, व्यवहार से । उत्कृष्टं श्रावकं जेन, मध्य पात्रं च उच्यते । पंच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति के पालनकर्ता हैं, जो संसार के ऊर्ध्व, अधो मति सुत न्यान संपून, अवधं भावना कृतं ॥ २६०॥ 6 मध्य लोक के स्वरूप को जानते हैं और इस संसार चक्र से छटने का ही पुरुषार्थ अन्या वेदक संमिक्तं,उपसमं सार्थ धुवं । करते हैं। षट्कमल-पद्मकमल, गुप्तकमल, नाभिकमल, हृदय कमल, कंठ कमल, 5 विंदकमल के माध्यम से योग को एकाग्रकर ॐ ह्रीं श्रीं की साधना करने, अपने परमात्म: पदवी द्वितिय आचार्य च, मध्य पात्रसदा बुधै ॥ २६१॥ स्वरूप के ध्यान में लीन रहने का सदा अभ्यास करते हैं। पंच ज्ञानमयी अपने स्वात्मा उर्वकारं च वेदन्ते, हींकारं सुत उच्यते । का दर्शन ज्ञान और अनुभव करते रहते हैं जिससे अवधिज्ञान प्रगट हो जाता है, रिजु अचव्यु दर्सन जोयंते, मध्य पात्र सदा बुध ।। २६२॥ विपुलमति मनः पर्यय ज्ञान का प्रकाश होने लगता है तथा इसी साधना से केवलज्ञान प्रतिमा एकादसं जेन, व्रत पंच अनुव्रतं । प्रगट होता है। ऐसे आत्म स्वरूप के साधक जिनरूपी निग्रंथ वतिरागी ज्ञानी साधु ही उत्तम पात्र होते हैं, जिन्हें दान देने का अतिशय फल होता है। उत्तम पात्र साधुओं के साधं सुख तत्वार्थ, धर्म ध्यानं च ध्यायते ॥ २३॥ भी तीन भेद हैं- उत्तम, मध्यम, जघन्य। अन्वयार्थ- (उत्कृष्टं श्रावकं जेन) जो उत्कृष्ट श्रावक हैं (मध्य पात्रं च उच्यते) १.जो तीर्थकर भगवान साधु अवस्था में हैं वे उत्तम में उत्तम पात्र हैं। ? वेमध्यम पात्र कहे जाते हैं (मति सुतन्यान संपून) जो मति श्रुतज्ञान से परिपूर्ण होते २.जो ऋद्धिधारी साधु से लेकर चार ज्ञान तक के धारी हैं वे उत्तम में मध्यम हैं (अवधं भावना कृतं) और अवधिज्ञान की भावना करते हैं। पात्र हैं। ॐ (अन्या वेदक संमिक्तं) जो आज्ञा सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व (उपसमं साध ३. जो साधु मात्र आत्मस्वरूप के साधक रत्नत्रय के धारी हैं वे उत्तम में धुवं) या उपशम सम्यक्दृष्टि अपने ध्रुव स्वरूप की साधना करते हैं (पदवी द्वितिय जघन्य पात्र हैं। आचार्य च) और दूसरी आचार्य पदवी के धारी होते हैं (मध्य पात्र सदा बुधै) ऐसे ज्ञानी इन उत्तम पात्रों को गृहस्थों के द्वारा दान दिया जाना मोक्ष प्राप्ति में उनके ही सदा मध्यम पात्र होते हैं। लिये परम सहायक है तथा दाता को भी अतिशय पुण्य बंध का कारण है। साधु अपने (उर्वकारं च वेदन्ते) जो अपने परमात्म स्वरूप का अनुभव करते हैं (हींकारं लिये भोजन का प्रबन्धन करते हैं, न कराते हैं तथा जो उनके लिये बनाया गया हो सुत उच्यते) जो तीर्थंकरों द्वारा स्वरूप कहा गया है (अचष्यु दर्सन जोयते) अचक्षु ऐसा आहार भी नहीं लेते, इसमें उद्दिष्ट आहार का दोष लगता है। गृहस्थ ने जो अपने दर्शन में अपने उस स्वरूप को देखते हैं (मध्य पात्र सदा बुधै) वेज्ञानी सदा मध्यम लिये बनाया हो उसी में से भक्तिपूर्वक दिये हुए आहार को लेते हैं। मूलाचार में कहा पात्र कहे जाते हैं। म (प्रतिमा एकादसं जेन,व्रतपंच अनुव्रतं)जो ग्यारह प्रतिमा और पांच अणुव्रतों मुनि महाराज नतो भोजन के लिये किसी की स्तुति करते हैं,नयाचना करते ० का पालन करते हैं (साधं सुद्ध तत्वार्थ) अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना करते हैं। 9 हैं, मौन व्रत से भिक्षा को जाते हैं, बिना बोले हुए जो शुद्ध आहार मिल गया तो ले लेते (धर्म ध्यानं च ध्यायते) और धर्म ध्यान की साधना करते हैं, वे मध्यम पात्र हैं। हैं, यदि नहीं मिलता तो समता भाव से लौट आते हैं; अत:सद्गृहस्थ श्रावक को ऐसा विशेषार्थ- यहाँ मध्यम पात्र सम्यक्दृष्टि व्रती श्रावक के स्वरूप को बताया जा पदार्थ दान में देना चाहिये जो राग-द्वेष असंयम दुःख भय आदि को उत्पन्न न करे तथा रहा है कि जो उत्कृष्ट श्रावक ग्यारह प्रतिमाओं के पालनकर्ता हैं वे मध्यम पात्र कहे उत्तम तप व स्वाध्याय की वृद्धि में सहकारी हो। जाते हैं। जो मति श्रुत सम्यक्ज्ञान से परिपूर्ण होते हैं. अवधिज्ञान प्रगट होने की १६३ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-२६४-२६६ , संभावना रहती है,जोआज्ञा सम्यक्त्व,वेदक सम्यक्त्व या उपशम सम्यक्दृष्टि अपने हैं, ॐकार स्वरूप अपने शुद्धात्मा का अनुभव व ध्यान करते हैं। अचक्षु दर्शन का ७ धव स्वभाव की साधना करते हैं और दूसरी आचार्य पदवी के धारी होते हैं ऐसे ज्ञानी प्रयोग करके निर्विकल्प आत्मा का दर्शन करते हैं, इस तरह जो आत्मा के प्रेमी आत्म . ही मध्यम पात्र होते हैं। . ध्यानी व शुद्धात्मा के अनुभवशील पुरुष होते हैं वे ही मध्यम पात्र कहे गये हैं। यहाँ एक विशेष बात तारण स्वामी ने प्रगट की है कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती * ग्यारह प्रतिमा-दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, प्रोषधोपवास अव्रत सम्यक्दृष्टि का प्रथम उपाध्याय पदवा का धारातथा पचम गुणस्थानवताव्रता प्रतिमा, सचित्त प्रतिमा, अनुराग भक्ति प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, आरम्भ त्याग श्रावक को दूसरी आचार्य पदवी का धारी कहा है, तीसरी साधु पदवी का धारी छठे 5 प्रतिमा, परिग्रह त्याग प्रतिमा, अनुमति त्याग प्रतिमा, उद्दिष्टत्याग प्रतिमा। गुणस्थानवर्ती महाव्रती निर्ग्रन्थ वीतरागी साधुको कहा है, चौथी अरिहन्त और पांचवीं .. पांच अणुव्रत-अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, सिद्ध पदवी का वर्णन किया है, जो साधक की साधना क्रम में एक विशेष स्थान । पणि है परिग्रह प्रमाणअणुव्रत, इनका स्वरूप आगे बताया गया है। इस प्रकार व्रती श्रावक रखता है, जिसका विशेष वर्णन पदवी फूलना आदि तथा ज्ञान समुच्चय सार में भी ॥ सम्यक्दृष्टि मध्यम पात्र होता है। जिसे दान देने से संयम का पालन और धर्म की आया है, जो खोज और चिन्तन का विषय है। उनके समय में भट्टारकों का प्रभुत्व * प्रभावना होती है। और बाहुल्य था तथा गृहस्थाचार्य,ग्रंथाचार्य,मढ़ाचार्य, मण्डलाचार्य आदि की प्रथा यह सब पात्र जीव मुक्ति मार्ग के पथिक, आत्मा से परमात्मा बनने वाले हैं। प्रचलन में थी। इसका निर्णय आगे किया जायेगा। इनको दान देने की बड़ी विशेषता है, इसी क्रम में जघन्य पात्र अव्रती सम्यकदृष्टि के जो अपने परमात्मस्वरूप का अनुभव करते हैं जैसा तीर्थंकरों ने आत्म स्वरूप स्वरूप का वर्णन करते हैं - कहा है, अचक्षुदर्शन में अपने उस स्वरूप को देखते हैं। ग्यारह प्रतिमा और पांच अव्रतं त्रितिय पात्रं च,देव सास्त्र गुरु मानते। अणुव्रतों का पालन करते हैं, अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना और धर्म ध्यान की आराधना में रत रहते हैं, वे मध्यम पात्र व्रती श्रावक सम्यक्दृष्टि कहे जाते हैं। सद्दहति सुद्ध संमिक्तं, साधं न्यान मयं धुवं ॥ २६४॥ मध्यम पात्र व्रती सम्यक्दृष्टि श्रावक के भी तीन भेद होते हैं- उत्तम, मध्यम, सुख दिस्टि च संपून, मल मुक्तं सुद्धभावना। जघन्य। १. दसवीं, ग्यारहवीं प्रतिमाधारी-मध्यम में उत्तम पात्र हैं। मति कमलासने कंठे, कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं ॥२५॥ २.सातवीं से नवमीं प्रतिमाधारी-मध्यम में मध्यम पात्र हैं। मिथ्या त्रिविधि न दिस्टंते, सल्यं त्रयं निरोधनं । ३.पहली से छटवीं प्रतिमाधारी-मध्यम में जघन्य पात्र हैं। दसवीं अनुमति त्याग प्रतिमा है, ग्यारहवीं उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है। यह भी सुधं च सुख दर्वार्थ, अविरत संमिक दिस्टितं ॥ २६६ ॥ अपने उद्देश्य से बनाया हुआ आहार नहीं लेते हैं। ग्यारहवीं प्रतिमा के दो भेद प्रसिद्ध अन्वयार्थ-(अव्रतं त्रितिय पात्रंच) तीसरेजघन्य पात्र अव्रत सम्यकदृष्टि हैं जो (देव हैं-१.क्षुल्लक २. ऐलक, क्षुल्लक एक खंड वस्त्र लंगोटधारी होते हैं। मोर पिच्छिका सास्त्र गुरु मानते)सच्चे देव गुरुशास्त्र को मानते हैं (सद्दहति सुद्ध समिक्तं) शुद्धात्म व कमण्डल रखते हैं, बैठकर पात्र में भोजन करते हैं, कोई एक ही घर से भिक्षा या स्वरूप का सच्चा श्रद्धान करते हैं (सार्धन्यान मयं धुवं) अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव भोजन करते हैं। कोई अपने भिक्षा के पात्र में कई घर से थोड़ा-थोड़ा लेकर अंतिम 5 की साधना करते हैं। घर में बैठकर भोजन करते हैं। ऐलक में विशेषता यह है कि वे मात्र एक लंगोट रखते (सुद्ध दिस्टि च संपून) यह अविरत सम्यक्दृष्टि पूर्ण शुद्ध आत्मा का अनुभूति हैं, हाथों से केशलौंच करते हैं व बैठकर एक ही घर में भिक्षा से अपने हाथों में दिया युत श्रद्धानी होता है और (मल मुक्तं सुद्ध भावना) पच्चीस मलों से मुक्त शद्ध हुआ भोजन करते हैं। भावना करता है (मति कमलासने कंठे) सुबुद्धि रूपी सरस्वती का जागरण होने से 2 व्रती श्रावक सुमति सुश्रुतज्ञान के धारी होते हैं व शास्त्रों के विशेष मर्मज्ञ होते (कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं) तीनों प्रकार के कुज्ञान से मुक्त होता है। Joirmestonekrrirmes १६४ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Oup श्री श्रावकाचार जी गाथा-२६४.२६६ CHOOL (मिथ्या त्रिविधि न दिस्टते) अविरत सम्यक्दृष्टि में तीन प्रकार का मिथ्या शुद्ध दर्शन होता है ऐसा अविरत सम्यकदृष्टि मोक्षमार्गी जघन्य पात्र होता है। भाव दिखाई नहीं देता (सल्यं त्रयं निरोधनं) तीनों शल्य भी दूर हो जाती हैं (सुधंच इसी बात को कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्वामी कार्तिकेय कहते हैंसुद्ध दर्वार्थ ) शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से अपने शुद्ध स्वभाव को जानता है (अविरत । विसयासत्तो वि सया, सव्वारंभेसु वट्टमाणो वि। संमिक दिस्टितं) ऐसा अविरत सम्यक्दृष्टि होता है। मोह विलासो एसो, इदि सब मण्णदे हेयं ॥३१४॥ विशेषार्थ- अव्रत सम्यक्दृष्टि तीसरा जघन्य पात्र है, जिसके नियम से अणुव्रत अविरत सम्यकदृष्टि यद्यपि इन्द्रिय विषयों में आसक्त है, बस स्थावर जीवों तो नहीं है परन्तु व्रतों के धारण की तीव्र भावना है क्योंकि उसने संसार को भय और का घात जिनमें होता है, ऐसे सब आरम्भों में वर्तमान है, अप्रत्याख्यानावरण आदि दु:ख रूप जान लिया है, उससे छूटने की वैराग्य भावना है। अप्रत्याख्यानावरण कषायों के तीव्र उदय से विरक्त नहीं हुआ है, तो भी सबको हेय (त्यागने योग्य) कषाय के उदय से अतीचाररहित व्रत नहीं पाल सकता तथापि प्रशम,संवेग, अनुकम्पा ! मानता है और ऐसा जानता है कि यह मोह का विलास है मेरे स्वभाव में नहीं है, वआस्तिक्य सहित होता है अर्थात् इसके परिणामों में आकुलता व तीव्र कषाय नहीं उपाधि है रोगवत है, त्यागने योग्य है। रहती है। आत्मा का दृढ श्रद्धान होने से उसके भीतर शांति झलका करती है. संवेग 3 णिज्जियदोस देव,सच्य जिवाणं वया वरं धम्म । भाव होने से संसार शरीर भोगों से दृढ वैराग्यवान होता हुआ धर्म से परम प्रीति रखता वज्जियगंथं च गुरु,जो मण्णदि सो हुसदिद्धि॥३१७॥ है। अनुकम्पा भाव होने से सर्वप्राणी मात्र पर दया रखता है, दुखियों को दुःखी जो जीव दोष रहित को तो देव, सब जीवों की दया को श्रेष्ठ धर्म, निर्ग्रन्थ को देखकर उसका हृदय कम्पायमान हो जाता है, यथाशक्ति वह दुःख दूर करने का गुरु मानता है, वह प्रगट रूप से सम्यक्दृष्टि है, अब सम्यक्दृष्टि के विचार धारणा प्रयत्न करता है, कराता है वदुःख मिट जाने पर हर्ष मानता है। आस्तिक्य भाव होने कहते हैंसे उसे अपने आत्मा पर पूर्ण विश्वास होता है, परलोक का श्रद्धान होता है। कर्म के जं जस्स जम्मि देसे, जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि। बंधव उसकी मुक्ति के ऊपर विश्वास रखता है। सच्चे वीतराग सर्वज्ञ अरिहन्त सिद्ध णाद जिणेण णियद,जम्म वा अहव मरणं वा ।।३२१॥ परमात्मा को देव मानता है तथा जिन प्रणीत अहिंसाधर्म को धर्म मानता है। उसका तं तस्स तम्मि देसे,तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि । सम्यक्त्व भाव निर्मल होता है वह शुद्धात्मा को पहिचानता है तथा शुद्धात्मा का को सक्कदि वारे,इंदो वा तह जिणिदो वा ॥३२॥ अनुभव करता है। जो जिस जीव के, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जन्म तथा उसके पच्चीस मल दोष नहीं होते अर्थात् आठ शंकादिदोष, आठ मद, छह मरण उपलक्षण से दुःख-सुख, रोग दारिद्र आदि सर्वज्ञ देव के द्वारा जाना गया है. अनायतन, तीन मूढता तथा तीन कुज्ञान कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान विला जाते वह वैसे ही नियम से होगा वह ही उस प्राणी के, उस ही देश में, उस ही काल में, उस हैं, वह अपनी सुबुद्धि रूपी सरस्वती अर्थात् सुमति सुश्रुतज्ञान की निर्मल पर्याय से ही विधान से, नियम से होता है, उसको इन्द्र, जिनेन्द्र, तीर्थकर कोई भी निवारण अपने शुद्धात्मा का श्रद्धान ज्ञान करता है। ४ नहीं कर सकते। तीनों प्रकार के मिथ्यात्व- मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व, सम्यक प्रकृति सम्माइट्ठी जीवो, दुग्गदि हेण बंधदे कम्म। ९ मिथ्यात्व अर्थात् यह शरीर ही मैं हूँ,यह शरीरादि मेरे हैं,मैं इन सबका कर्ता है, ऐसी जं बहुभवेसु बद्धं, दुक्कम तं पि णासेदि ॥३२७॥ मिथ्या मान्यता तथा तीनों शल्य मिथ्या माया निदान अर्थात् ऐसा न हो जाये, सम्यकदृष्टि जीव दुर्गति के कारणभूत अशुभ कर्म को नहीं बांधता है और जो ऐसा नहीं ऐसा होता, ऐसा करूंगा- यह सब भावनायें समाप्त हो जाती हैं। वह अनेक पूर्व भवों में बांधे हुए पाप कर्म हैं उनका भी नाश करता है। आगम ज्ञान का प्रेमी होता है, शास्त्रों के मर्म को समझता है तथा शुद्ध द्रव्यार्थिक नय इस प्रकार यह तीनों पात्र सम्यक्दृष्टि मोक्षमार्गी होने से सुपात्र हैं। जो जीव पर विशेष लक्ष्य रखता है क्योंकि इस नय से हर एक शरीर में आत्मा का पवित्र बिना सम्यक्दर्शन के बाह्य व्रत सहित हों वह कुपात्र हैं और जो सम्यकदर्शन तथा १६५ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-२६७-२६९ NOON बाह्य चारित्र से रहित हों वे अपात्र हैं। जन्म-मरण का चक्कर छूट जाता है, शेष २६ लाख में-पंचेन्द्रिय तिर्यंच ४ लाख, आगे इन तीन पात्रों को दान देने की भावना और उसका महत्व वर्णन करते हैं- नारकी ४ लाख,देव ४ लाख और मनुष्य १४ लाख इस प्रकार २६ लाख शेष रहती हैं। त्रिविध पात्रं च दानं च, भावना चिंतते बुधै। इसमें भी यदि सम्यक्दर्शन होने से पूर्व कोई नरक तिर्यंच मनुष्य आयु बांध ली हो तो सुद्ध दिस्टि रतो जीवा, अट्ठावन लष्य तिक्तयं ॥२६७॥ *वहाँ जाना पड़ता है वरना देवगति ही जाता है और मनुष्य तथा देवगति के दो, दस ७ भव में ही मोक्ष चला जाता है। नीच इतर अप तेजंच, वायु पृथ्वी वनस्पती। सम्यक्दर्शन के धारी जो अव्रती हैं परन्तु शुद्धात्म तत्व का अनुभव करने वाले विकलत्रयस्य जोनीच,अद्रावन लण्य तिक्तयं ।। २६८॥ ८ तथा नित्य ही पात्रों को दान देते रहते हैं, वे कभी दःखों से भरी गतियों में नहीं जाते सुख संमिक्त संजुक्तं, सुद्ध तत्व प्रकासकं । है हैं, वे मानव तो सारे दुःखों से मुक्त हो जाते हैं। ते नरा दुष हीनस्य, पात्र दान रतो सदा ॥ २६९॥ जो अपने चैतन्य लक्षण निजस्वभाव को स्वीकार कर लेते हैं वे सारे दु:खों से ॐ मुक्त जिन शुद्ध दृष्टि हैं, वे सम्पूर्ण तत्वों के ज्ञाता एक क्षण में मोक्ष (भाव मोक्ष) में अन्वयार्थ- (त्रिविध पात्रं च दानं च) तीन प्रकार के पात्रों को दान देने की चले जाते हैं फिर उनका संसार शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। (भावना चिंतते बुधै) भावना बुद्धिमान जन करते रहते हैं (सुद्ध दिस्टि रतो जीवा) इसी बात को रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्वामी समन्तभद्र जी कहते हैंऐसा दानी, जो शुद्धात्मा का श्रद्धानी सम्यक्दृष्टि है (अट्ठावन लष्य तिक्तयं) उसके सम्यग्दर्शन शुद्धा नारक तिथंग नपुंसक स्त्रीत्वानि । चौरासी लाख योनियों में से ५८ लाख योनियों का भवभ्रमण छूट जाता है। दुष्कुल विकृताल्पायुर्दरिद्रतां च ब्रजन्ति नाप्यवतिका ॥३५॥ (नीच इतर अपतेजंच) नित्यनिगोद७ लाख, इतर निगोद ७ लाख, जलकाय ओजस्तेजो विद्या वीर्ययशो वृद्धि विजय विभव सनाथाः। ७ लाख, अग्निकाय ७ लाख (वायु पृथ्वी वनस्पती) वायुकाय ७ लाख, पृथ्वीकाय महाकुला महामानव तिलका भवन्ति दर्शन पूताः॥३६॥ ७ लाख, वनस्पतिकाय १० लाख, (विकलत्रयस्य जोनी च) दो इंद्रिय २ लाख,४ जिनके सम्यक्दर्शन शुद्ध है, वे नारकी, पशु, नपुंसक, स्त्री, नीच कुल, तीनइन्द्रिय २ लाख, चार इन्द्रिय २ लाख इस प्रकार (अट्ठावन लष्य तिक्तयं) कुल विकलांगी, अल्पायु, दरिद्र नहीं होते हैं। व्रत रहित होते हैं तो भी खोटी अवस्था नहीं ५८ लाख योनियों में सम्यक्दृष्टि जन्म नहीं लेता है अर्थात् यह ५८ लाख योनियां 5 2 पाते हैं। वे दीप्तिवान, तेजस्वी, विद्वान, वीर्यवान, यशस्वी, विजयी, सम्पत्ति के छूट जाती हैं। धारी, उन्नतिशील, महाकुलवान, महान कार्य करने वाले श्रेष्ठ पुरुष होते हैं। (सुद्ध संमिक्त संजुक्तं) जो शुद्ध सम्यक्त्व के धारी हैं (सुद्ध तत्व प्रकासक), सम्यक्दर्शन की शुद्धता परमोपकारिणी है। इसी बात को छहढाला में पं. दौलतराम शुद्धात्म तत्व का अनुभव करते हैं (ते नरा दुष हीनस्य) वे मानव दु:खों से छूट जाते ५जी ने कहा है। हैं (पात्र दान रतो सदा) जो सदैव पात्र दान में रत रहते हैं। प्रथम नरक बिन षट् भू ज्योतिष, वान भवन पंढनारी। विशेषार्थ- यहाँ तीन प्रकार के पात्रों को श्रद्धा भक्ति पूर्वक दान देने की थावर विकलत्रय पशु में नाहि,उपजत सम्यधारी॥ महिमा का वर्णन चल रहा है कि जो अव्रती सम्यक्दृष्टि हैं जिन्हें संसार के दु:खों से तीन लोक तिहुंकाल माहिं नहिं, दर्शन सो सुखकारी। छूटना है, जो अठारह क्रियाओं का यथा शक्ति पालन करते हैं, वे पात्र दान देने की सकल धरम को मूल यही, इस बिन करनी दुखकारी॥ सदैव भावना भाते हैं तथा अपनी श्रद्धा भक्ति शक्ति अनुसार हमेशा दान देते रहते सम्यकदृष्टि जीवों के परिणामों में सदा ही विशुद्धता रहती है तथा प्राप्त शुभयोग हैं। आत्म कल्याण के इच्छुक और मोक्षमार्गी जीवों के प्रति श्रद्धावान दान देने में का वह सदुपयोग करते हैं, जिससे भविष्य में और उत्तम शुभयोग मिलते हैं। इसके तत्पर रहते हैं। सम्यक्दर्शन होते ही ८४ लाख योनियों में से ५८ लाख योनियों के विपरीत मिथ्यादृष्टि प्राप्त शुभयोगों का दुरुपयोग कर अपना वर्तमान जीवन दुःखमय stoodierreteaderstand Poroinecken १६६ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tadadehravelated 04 श्री आपकाचार जी गाथा-२७०-२७२ ७ और भविष्य अन्धकार मय बनाता है। सम्यक्दृष्टि अपने पुण्य के उदय का सदुपयोग साधन जुटाना, पुस्तकें आदि देना, सच्चे ज्ञान(सम्यक्ज्ञान) में निमित्त बनना। पात्रों को दान देने में करता है, जिससे धर्म की प्रभावना होती है। २.आहारदान-तीनों पात्रों को यथायोग्य भक्ति पूर्वक भोजन कराना, इसी बात को और आगे स्पष्ट करते हैं - . भूखे-प्यासे असहाय दुःखी जीवों को करुणा पूर्वक भोजन कराना, साधर्मीजनों को पात्र दानं च चत्वारि, न्यानं आहार भेषजं । * भोजन कराना, यह धर्म की वृद्धि और शरीर की स्थिरता का कारण है। अभयं च भयं नास्ति, दानं पात्र सदा बुधै॥२७॥ ३.औषधिदान-पात्रों को रोगग्रस्त जानकर रोग मेटने के लिये औषधिदान . करना, औषधालय खुलवाना, दवायें बटवाना, रोगियों की सेवा व्यवस्था करना। न्यान दानं च न्यानं च,आहार दान आहारयं। ४.अभयदान-पात्रों को आश्रय देना,निर्भय करना,योग्य स्थान देना, उनके अवर्ष भेषजस्वैव, अभयं अभय दानयं ।। २७१॥ है ऊपर संकट पड़े तो निवारण करना। पात्र दानं च सुच, कर्म विपति सदा बुधै। दया पूर्वक प्राणीमात्र को चार प्रकार का दान करना, करुणा दान है। सम्यकदृष्टि जे नरा दान चिंतंते,अविरतं संमिक दिस्टितं ॥ २७२॥ ॐ गृहस्थ सदा कृपालु होता है, जगतमात्र का उपकारी होता है, प्राणीमात्र के प्रति उसके हृदय में दया और प्रेम होता है। दुःखी, भूखे, रोगी, अनपढ़ व आश्रय हीन अन्वयार्थ- (पात्र दानं च चत्वारि) पात्र दान चार प्रकार का होता है - (न्यानं बिना घरद्वार वालों और भयभीत लोगों को हमेशा चारों प्रकार के दान से संतोषित आहार भेषज) ज्ञानदान, आहारदान, औषधिदान (अभयं च भयं नास्ति) अभयदान, पान करता है। पशु पक्षी जीव मात्र के प्रति उसे करुणा दया और प्रेम होता है। जिससे भय का विनाश हो जाए (दानं पात्र सदा बुधै) बुद्धिमान सदैव पात्रों को चार इस प्रकार दान देने दान देने की भावना रखने और दान देने वाले की दान दिया करते हैं। S अनुमोदना करने से जो दान देते हैं,पात्रों के ज्ञान की वद्धि चाहते हैं.उनको स्वयं (न्यान दानं च न्यानं च) ज्ञानदान करने से ज्ञान की वृद्धि होती है और IS ज्ञानावरणीय कर्म का विशेष क्षयोपशम होता है। वे यहां भी तथा परलोक में भी (आहार दान आहारयं ) आहार दान से आहार की कमी नहीं रहती है (अवधं ४ज्ञानी होते हैं । जो आहारदान देते हैं वे अटूट पुण्य बांधते हैं.यहां भी कभी भूखे भेषजस्चैव) औषधिदान से शरीर में व्याधि नहीं होती (अभयं अभय दानयं) अभय नहीं रहते तथा परभव में ऋद्धिधारी देव या धनशाली मानव होते हैं। दान से अभय हो जाते हैं फिर कोई भय नहीं रहता। औषधिदान करने से ऐसा पुण्य बंधता है,जिससे भविष्य में निरोग सुन्दर शरीर (पात्र दानं च सुद्धं च) शुद्ध और सत्पात्रों को दिया हुआ दान (कर्म होता है। अभयदान करने से सदा निर्भयता का साधन मिलता है, आश्रय हीन कभी षिपति सदाबुधै) बुद्धिमानों को सदैव कर्मों का क्षय करने वाला होता है (जेनरा दान ९ नहीं होते। वे सुन्दर आवास व रक्षकों के माध्यम के रहते हैं। यहां चार दान देने से चिंतते) जो मनुष्य, दान देते हैं, दान देने वाले की अनुमोदना करते हैं और दान देने अटूट पुण्य का बंध होता है। की भावना रखते हैं (अविरत संमिक दिस्टितं ) वे अविरत सम्यकदृष्टि सामान्य जो ज्ञानी वीतराग भाव से दान करते हैं,पात्रों के आत्मीक गुणों में प्रीति रखते गृहस्थ श्रावक है। हैं,पात्रों की रत्नत्रय की साधना तथा भावना दृढ रहे, ऐसी भावना मन में रखकर विशेषार्थ- पात्र दान चार प्रकार का होता है - ज्ञानदान, आहारदान, दान करते हैं तथा दान देने वालों की अनुमोदना प्रभावना प्रशंसा करते हैं। संसार १ औषधिदान, अभयदान यह ही सच्चे दान हैं, इन दानों का फल इस भव में यशः शरीर भोगों से वैराग्य की भावना भाते हैं. उनके परिणामों में बहुत निर्मलता हो, कीर्ति तथा परभव में सुख समृद्धि सद्गति और मुक्ति की प्राप्ति होती है। जाती है, जिससे उनके बहुत से पाप कर्म क्षय हो जाते हैं तथा जितना शुभ राग रूप X १.ज्ञानदान-ज्ञान सिखाना,शास्त्र देना,शास्त्र प्रकाशन करवाना, विद्यालय भाव होता है,उससे अतिशयकारी पुण्य का बंध होता है। दान यद्यपि शुभ कार्य है; स्थापना करना, छात्रों को सहायता करना-पढ़ाना लिखाना, पढ़ने वाले को पढ़ने के परन्तु सम्यक्दृष्टि ज्ञानी गृहस्थ के लिये मोक्षमार्ग रूप हो जाता है, वह ज्ञानी १६७ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाचा २७३-२७९ l दान के द्वारा भी शुद्धात्मा की भावना कर लेता है। पात्रों को दान देना रत्नत्रय के पात्र अपात्र विसेषत्वं, पन्नग गर्वच उच्यते। पालन में उत्साह बढ़ाने वाला है इसलिये सम्यक दृष्टि निरन्तर पात्र दान देने की तृण भुक्तं च दुग्धं च,दुग्ध भुक्तं विषं पुनः ॥२७७॥ भावना करता रहता है और जब अवसर पाता है, दान करके अपने द्रव्य और जन्म ५ पात्र दानं च भावेन, मिथ्या दिस्टी व सुद्धये। को सफल मानता है। इसी बात को कार्तिकेयानुपेक्षा में स्वामी कार्तिकेय कहते हैं - भावना सुद्ध संपून, दानं फलं स्वर्ग गामिनो॥२७८॥ भोयण दाणेण सोक्खं,ओसह दाणेण सत्थदाणंच। पात्र दान रतो जीवा, संसार दुष्य निपातये। जीवाण अभय दाणं, सुदुलह सव्व दाणे सु ॥३६२॥ कुपात्र दान रतो जीवा, नरयं पतितं ते नरा ।। २७९॥ __ आहार दान से सबको सुख होता है, औषधिदान सहित शास्त्र दान और जीवों ! अन्वयार्थ- (पात्र दानं वट बीज) पात्रों को दिया हुआ दान बीज की तरह को अभयदान सब दानों में दुर्लभ है, उत्तम दान है। आहार दान देने पर तीनों ही दान 3 (धरनी विधंति जेतवा) पृथ्वी में डालने पर अनन्त गुना फलता है (न्यान विधंति दिये हुए हो जाते हैं क्योंकि भूख प्यास नाम के रोग प्राणियों को दिन प्रतिदिन होते हैं। दानं च) इसी प्रकार ज्ञानी द्वारा दिया हुआ दान बहुत फलता है (दान चिंता सदा भोजन के बल से साधु रात-दिन शास्त्र का अभ्यास एवं अपनी साधना करते हैं। भोजन के देने से प्राणों की भी रक्षा होती है, इस तरह आहारदान में बुधै) इसलिये बुद्धिमानों को दान करने में उत्साह रखना चाहिये। (पात्र दान मोष्य मार्गस्य) पात्र दान मोक्षमार्ग की सिद्धि का उपाय है (कुपात्रं औषधि, ज्ञान और अभय दान यह तीनों ही दिये हुए जानना चाहिये, इसलिये आहार दुर्गति कारन) कुपात्र दान दुर्गति का कारण है (विचारनं भव्य जीवान) भव्य जीवों दान का विशेष महत्व है। का कर्तव्य है कि वे भले प्रकार विचार कर (पात्र दान रतो सदा) पात्र दान में सदा रत जो पुरुष (श्रावक) इसलोक,परलोक के फल की वांछा से रहित होकर परम भक्ति से संघ के लिये दान देता है,उसने सकल संघको रत्नत्रय में स्थापित किया। (कुगुरु कुदेव उक्तंच) जो कुपात्र कुगुरु हैं वह कुदेवों की भक्ति मान्यता का उत्तम पात्र विशेष के लिये उत्तम भक्ति से उत्तमदान एक दिन भी दिया हुआ, उत्तम उपदेश देते हैं और (कुधर्म प्रोक्तं सदा) हमेशा कुधर्म हिंसादि पापारम्भ करने की इन्द्र पद के सुख को प्रदान करता है। बात कहते हैं (कुलिंगी जिन द्रोही च) चह कुलिंगी जिनद्रोही और (मिथ्या दुर्गति आगे सुपात्र दान की महिमा और कुपात्रदान के दोष बताते हैं भाजन) मिथ्यात्व सहित दुर्गति के पात्र हैं। पात्र दानं वट वीजं, धरनी विधति जेतवा। (तस्य दानं च विनयं च) ऐसे कुगुरु को दान देना और उनकी विनय करना न्यान विधति दानं च, दान चिंता सदा बुध ।। २७३॥ (कुन्यानी मूढ दिस्टित) कुज्ञानी और मूढदृष्टिपना है (तस्य दान चितनं येन) जो पात्र दान मोष्य मार्गस्य,कुपात्रं दुर्गति कारनं। उनको दान देते या दिलाते हैं (संसारे दुष दारुन) वे संसार में दारुण दुःख भोगते हैं। विचारनं भव्य जीवानं, पात्र दान रतो सदा॥२७४।। (पात्र अपात्र विसेषत्वं) पात्र और अपात्र की विशेषता को (पन्नग गवंच उच्यते) गाय और सर्पिणी के समान कहा गया है (तृण भक्तं च दुग्धं च) गाय घास खाती है कुगुरू कुदेव उक्तं च, कुधर्म प्रोक्तं सदा। और दूध देती है (दुग्ध भुक्तं विषं पुनः) सर्पिणी दूध पीती है और विष उगलती है। कुलिंगी जिन द्रोही च,मिथ्या दुर्गति भाजनं ।। २७५ ॥ (पात्र दानं च भावेन) पात्र दान देने और उसकी भावना करने से (मिथ्या तस्य दानं च विनयं च, कुन्यानी मूढ दिस्टितं। दिस्टी च सुद्धये) मिथ्यादृष्टि भी शुद्ध हो सकता है (भावना सुद्ध संपून ) पूर्ण शुद्ध तस्य दान चिंतनं येन, संसारे दुष दारुनं ॥ २७६ ।। भावना से (दानं फलं स्वर्ग गामिनं) सत्पात्र को दान देने के फलस्वरूप वह देवगति जा सकता है। १६८ eknorreshenormerator Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८७८० ७ श्री आवकाचार जी (पात्र दान रतो जीवा) जो जीव पात्रों को दान देने में रत रहते हैं (संसार दुष्य निपातये) वह संसार के दुःखों से छूट जाते हैं (कुपात्र दान रतो जीवा) जो जीव कुपात्रों को दान देने में रत रहते हैं (नरयं पतितं ते नरा) वे मनुष्य नरक में जाते हैं । विशेषार्थ जैसे बट वृक्ष का बीज बहुत छोटा होता है परन्तु पृथ्वी में बोये जाने पर बड़ा भारी वृक्ष होकर फलता है, इसी प्रकार पात्रों को दिया हुआ दान बहुत भारी फल देता है। अधिक धन होने से लोभ और मान कषाय बढ़ती है। विषय-भोगों में लगाने से वह दुर्गति का कारण बनता है; इसलिये विवेकवान ज्ञानी उसका सदुपयोग दान करने में करते हैं, जिससे स्व-पर का कल्याण होता है। सत्पात्रों को दान देने से मोक्षमार्ग की सिद्धि होती है और कुपात्रों को दान देने से दुर्गति का कारण बनता है इसलिये भव्य जीवों को विवेक पूर्वक विचार कर पात्र, कुपात्र को समझकर दान देना चाहिये। सत्पात्रों का वर्णन किया जा चुका है, इसके विपरीत जो कुपात्र हैं अगर उनमें भी ऐसी ही श्रद्धा भक्ति करेंगे, दान देंगे, उनकी बात मानेंगे,उनके कहे अनुसार चलेंगे तो पुण्य की जगह हिंसादि पाप होंगे, मिथ्यात्व का पोषण होगा जिससे दुर्गति जाना पड़ेगा। जो कुपात्र अर्थात् मिथ्यादृष्टि अज्ञानी कुगुरु हैं, जिन्होंने बाहर से भेष बना रखा है जो साधु बनकर विपरीत मार्ग पर चलते हैं, कुदेवादि के जाल में फंसाते हैं, मिथ्यात्व का पोषण करते हैं, अपने में महन्तपना मानते हैं, पापारम्भ करते हैं, ऐसे कुलिंगी जिनद्रोही स्वयं तो दुर्गति जाते हैं पर जो इनकी श्रद्धा भक्ति मान्यता करते हैं, विनय पूर्वक दान आदि देते हैं वे भी दारुण दुःख भोगते हैं, दुर्गति के पात्र बनते हैं क्योंकि जो जिनधर्म के विरुद्ध आचरण करते हैं, जिनवाणी को नहीं मानते अपनी मनमानी करते हैं वे पत्थर की नौका के समान हैं। जो आप तो डूबेंगे पर जो उनके साथ लगेंगे उनकी मान्यता करेंगे वे भी उसमें ही डूबेंगे; इसलिये सोच विचार कर दानादि देना तथा मान्यता करना चाहिये क्योंकि पात्र कुपात्र की विशेषता गाय और सर्पिणी जैसी है। जैसे- गाय घास खाती है और दूध देती है और सर्पिणी दूध पीती है और जहर उगलती है, इसी प्रकार सत्पात्र की भावना पवित्र और शुद्ध धर्म की मान्यता होती है, उसके भीतर करुणा पैदा होती है, जिससे सबका भला होता है। कुपात्र दुष्ट कठोर होता है, ऊपर से बड़ा सरल साधु जैसा दिखता है पर भीतर मायाचारी भरी रहती है, जो जीवों को अपने जाल में फंसाता है इसलिये सावधानी और विवेक पूर्वक ही दानादि करना चाहिये । ०७ SYA YA YA YES. १६९ गाथा २८०-२८२ सत्पात्र को दान देने से मिथ्यादृष्टि भी सुलट सकता है, वह भी सद्गति जा सकता है और कुपात्र दान से विवेकवान भी दुर्गति जा सकता है; इसलिये जो जीव सत्पात्रों को दान देने में रत रहते हैं वह संसार के दुःखों से छूट जाते हैं और जो कुपात्रों को दान देने में रत रहते हैं, वह नरकादि दुर्गतियो में जाते हैं। यहाँ कोई प्रश्न करे कि इससे तो किसी को दान ही नहीं देना चाहिये क्योंकि अपने को क्या पता कौन सुपात्र है, कौन कुपात्र है, इससे तो वैसे ही अच्छे हैं, व्यर्थ ही दान देकर दुर्गति क्यों जायें ? इसका समाधान करते हैं कि भाई! दान देना तो हर दशा में लाभकारी है, दान का फल ही संसार में सब प्रकार की सुख समृद्धि मिलना है। प्राप्त द्रव्य का सदुपयोग तो दान करने में करना ही चाहिये। दान से ही गृहस्थ की शोभा है इससे यहाँ भी यश फैलता है और परभव में भी सुख साता के योग मिलते हैं। यहाँ कहने का अभिप्राय यह है कि गलत ढंग से कुगुरु कुपात्रों के जाल से फंसकर कोई गलत काम नहीं करना चाहिये जिससे अपना भी अहित हो तथा अन्य जीवों का भी अहित हो । करुणा बुद्धि से आहारादि कराना, धर्मशाला, औषधालय बनवाना, गरीब दुखियों की सेवा सहायता करना यह तो प्रत्येक गृहस्थ का कर्तव्य ही है, इसी से धर्म की प्रभावना और पुण्य का संचय होता है परंतु इसके साथ विनय भक्ति श्रद्धा का विवेक पूर्वक उपयोग करना चाहिये। दान देना दुःख और दुर्गति का कारण नहीं है, इसके साथ जो हमारी श्रद्धा भावना मान्यता है वह दुःख दुर्गति का कारण है इसलिये विवेक पूर्वक अपने द्रव्य का और अपनी श्रद्धा भक्ति मान्यता का सदुपयोग करना चाहिये । इसी बात को तारण स्वामी आगे की गाथाओं में स्पष्ट करते हैंपात्र दानं च प्रतिपूर्वं प्राप्तं च परमं पदं । सुद्ध तत्वं च सार्धं च, न्यान मयं सार्धं धुवं ॥ २८० ॥ पात्रं प्रमोदनं कृत्वा, त्रिलोकं मुद उच्यते । जन जन उत्पाद्यंते, प्रमोदं तत्र उच्यते ॥ २८९ ॥ पात्रस्य अभ्यागतं कृत्वा, त्रिलोकं अभ्यागतं भवे । जत्र जत्र उत्पाद्यंते, तत्र अभ्यागतं भवेत् ॥ २८२ ॥ 5656 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आचकाचार जी गाथा-२८३-२४५ on पात्रस्य चिंतनं कृत्वा,तस्य चिंता स चिंतये। चक्रवर्ती आदि होता है, जिससे उसका वहां स्वागत सम्मान होता है.साधर्मी-धर्मात्मा चेतयंति प्राप्तं वृद्धि,पात्र चिंता सदा बुध॥ २८३॥ जीवों का सम्मान बहुमान वास्तव में धर्म का सम्मान बहुमान है और इससे अन्वयार्थ-(पात्र दानं च प्रतिपून) पात्र दान का पूर्ण फल यह है कि (प्राप्त पुण्यानुबंधी,सातिशय पुण्य का बंध होता है, जो जीव को हर जगह,हर परिस्थिति में: रक्षा करता है और उसका हर जगह स्वागत सम्मान होता है। यह बात धन्यकुमार ७ च परमं पदं ) परम पद जो मोक्ष उसकी प्राप्ति होती है (सुद्ध तत्वं च साधं च) जो चरित्र से बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि पूर्वभव में उसने भक्ति पूर्वक पात्रदान दिया , अपने शुद्धात्म तत्व की साधना करते हैं और (न्यान मयं साधं धुवं) ज्ञानमयी ध्रुव (न्यान मय साध धुव) ज्ञानमया ध्रुव था उसका उसे परिणाम उत्कृष्ट रूप में मिला। तत्व को साधते हैं। C जो गृहस्थ श्रावक निरन्तर यह भावना भाते हैं कि हम अपने जीवन और द्रव्य (पात्रं प्रमोदनं कृत्वा) जो पात्रों को देखकर मन में प्रसन्नता लाते हैं, प्रभावना है का सदुपयोग धर्म प्रभावना धर्मात्माओं की सेवा करने में करें, उनकी यह भावना करते हैं (त्रिलोकं मुद उच्यते) उन्हें त्रिलोक में प्रसन्नता मिलना कहा गया है (जत्र याकरण शुभ होती है, जिससे उनकी भावनानुसार सारे कार्य निर्विघ्न सानन्द सम्पन्न होते हैं, जत्र उत्पाद्यते) जहाँ-जहाँ पात्र दानी जीव पैदा होता है (प्रमोदं तत्र उच्यते) वहाँ यहाँ भी यश मिलता है.प्रभावना होती है और भविष्य में भी अतिशयकारी कार्य होते उसको प्रमोद भाव प्राप्त होता है। हैं तथा उसका जीवन भी निरन्तर सुख शान्ति आनंदमय रहता है,सब प्रकार की (पात्रस्य अभ्यागतं कृत्वा) जो पात्रों का स्वागत करता है (त्रिलोकं अभ्यागतं समद्धि बढ़ती है। पात्र दान की भावना करना, करने वालों की अनुमोदना करना और भवे) उसका त्रिलोक में स्वागत होता है (जत्र जत्र उत्पाद्यते) जहां जहां जाता है. हमेशा पात्र भावना की भावना रखना अतिशय पुण्यबंध का कारण है इसलिये ज्ञानी पैदा होता है (तत्र अभ्यागतं भवेत्) वहां उसका स्वागत होता है। सद्गृहस्थों के लिये हमेशा पात्र भावना करने की भावना रखना चाहये। (पात्रस्य चिंतनं कृत्वा) जो गृहस्थ श्रावक निरन्तर पात्रों के लाभ का चिन्तन . इसके विपरीत कुपात्र, मिथ्यात्व से ग्रसित ढोंगी पाखंडी कुलिंगी कुगुरुओं की किया करते हैं (तस्य चिंता स चिंतये) उनकी भावना शुभ होती है (चेतयंति प्राप्त प्रभावना करना,उनके सत्संग में रहना दुर्गति का कारण है, इसी बात को आगे की वृद्धि) इस शुभ भावना से वह वृद्धि को प्राप्त होता है (पात्र चिंता सदा बुधै)इसलिये गाथाओं में कहते हैंबुद्धिमानों को सदैव पात्र दान की भावना करना चाहिये। विशेषार्थ- पात्र दान का फल अंत में मोक्ष की प्राप्ति है,जो पात्रों को भक्ति कुपात्रं अभ्यागतं कृत्वा, दुर्गति अभ्यागतं भवेत् । पूर्वक दान देते हैं,उनके भीतर रत्नत्रय मयी निजशुद्धात्मा की श्रद्धा दृढ होती है। सुगति तत्र न दिस्टते, दुर्गतिं च भवे-भवे ॥२८४ ॥ क्योंकि जो अपने शुद्धात्म तत्व की साधना करते हैं, ज्ञानमयी ध्रुवतत्व को साधते : कुपात्रं प्रमोदनं कृत्वा, इन्द्री इत्यादि थावरं । हैं, उनकी महिमा और प्रभावना देखकर धर्म का बहमान जागता है और उस ओर तिरिय नरय प्रमोद च, कुपात्र दान फलं सदा॥ २८५॥ बढ़ने की भावना होती है। जो पात्रों को अर्थात् त्यागी व्रती साधुओं को देखकर अन्वयार्थ- (कुपात्र अभ्यागतं कृत्वा) जो कोई कुपात्रों का स्वागत करते हैं प्रसन्न होते हैं,प्रभावना करते हैं, उन्हें त्रिलोक में प्रसन्नता मिलती है, प्रभावना होती है। वह जहाँ-जहाँ भी जाते हैं, पैदा होते हैं वहाँ उनको प्रमोदभाव प्राप्त 5 (दुर्गति अभ्यागतं भवेत्) वे अपने लिये दुर्गति का स्वागत करते हैं (सुगति तत्र न होता है। जो वीतरागी निर्ग्रन्थ ज्ञानी साधुओं का स्वागत करता है सम्मान करता दिस्टते) फिर उनको सुगति का दर्शन नहीं होता (दुर्गतिंच भवे-भवे) उनको भव-भव मेंदुर्गति की ही प्राप्ति होती है। है, उसका त्रिलोक में स्वागत होता है क्योंकि यह रत्नत्रय के साधक साधुओं का ? (कुपात्रं प्रमोदनं कृत्वा) जो कुपात्रों को देखकर आनंद मनाते हैं, उनके सत्संग सम्मान नहीं बल्कि रत्नत्रय मयी निजशुद्धात्मा का ही स्वागत सम्मान करना है। इससे जहाँ-जहाँ भी वह पैदा होता है,वहां उच्च पद का धारी ऋद्धिधारी देव इन्द्र में संलग्न रहते हैं (इन्द्री इत्यादि थावरं) वे एकेन्द्रिय स्थावरों में जन्मते हैं (तिरिय नरय प्रमोदं च) उनको नरक व तिर्यंच गति का ही आनंद मिलता है (कुपात्र दान Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री बाचकाचार जी गाथा-२८६.२८९ फलं सदा) कुपात्र दान का फल हमेशा ऐसा ही होता है। नहीं है। जो अपनी श्रद्धा से विचलित करे, किसी प्रकार के मिथ्यात्व में फंसावे, विशेषार्थ-जो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र से युक्त भेषी कलिंगी बन्धन में बांधे वह तो प्रत्यक्ष ही कुपात्र है इनसे सावधान रहना चाहिये और विवेक। साधु कुगुरु हैं, उनका स्वागत करना, उनको भक्ति पूर्वक दान देना,उनके सत्संग ५ पूर्वक ही दान देना चाहिये। में रहना,उनके कथनानुसार आचरण करना,यह सब संसार के कारण मिथ्यादर्शन अव्रत सम्यक्दृष्टि विवेकवान होता है वह पात्रों को ही दान देता है और उस आदि का ही पोषण करना है, जिसका फल कुगति का बन्ध है और इससे भव-भव पात्रदान की क्या विशेषता होती है, यह तारण स्वामी आगे की गाथाओं में कहते हैंमें दुर्गति की ही प्राप्ति होती है, उनको कभी सुगति का दर्शन नहीं होता है; क्योंकि 5 पात्र दानं च सुद्धं च, दात्रं सुद्ध सदा भवेत् । जो जैसे संग में रहेगा उसके ऊपर उसका वैसा ही असर पड़ेगा, उसकी बुद्धि और: तत्र दानं च मुक्तस्य,सुख दिस्टी सदा मयं ॥ २८६ ॥ भावना भी वैसी ही होगी तथा वैसा ही आचरण करेगा और उसका वैसा ही फल ! पात्र सियां च दात्रस्य, दानदानं च पात्रयं । भोगना पड़ेगा। कुपात्र-सम्यक्दर्शन से रहित भेषधारी द्रव्यलिंगी त्यागी व्रती साधु कहे जाते हैं। इनको देखकर आनंद मानना, इनकी अनुमोदना, प्रभावना करना दात्र पात्रं च सुद्धं,दानं निर्मलतं सदा ।। २८७॥ मिथ्यात्व की अनुमोदना है। मिथ्यात्व भावों की वासना से, अनन्तानुबंधी कषाय की दात्रं सुख संमिक्तं, पात्रं तत्र प्रमोदनं । तीव्रता से एकेन्द्रिय स्थावर गति का बंध होता है। मिथ्यात्व के समान कोई पाप नहीं दान पात्रं च सुद्धं च, दानं निर्मलतं सदा ।। २८८॥ है। मिथ्यात्व सहित व्यक्ति को धर्मात्मा मानकर उसके अधर्म की प्रतिष्ठा करनी उसे & पात्रं जन सुद्धं च, दात्रं प्रमोद कारनं । भी पतित रखना है व आप भी पतित होना है, इससे नरक व तिर्यंच गति जाना पड़ता है अतः विवेकी मानव को पात्र कुपात्र का विचार करके ही उसकी अनुमोदना प्रभावना पात्र दात्र सुखं च, उक्तं दान जिनागर्म ॥ २८९ ।। करना चाहिये। अन्वयार्थ- (पात्र दानं च सुद्ध च) पात्र दान में पात्र शुद्ध हो और (दात्रं सुद्ध यहाँ कोई प्रश्न करे कि सम्यकदर्शन सहित साधु सुपात्र है और सम्यकदर्शन सदा भवेत्) दाता शुद्ध हो ऐसा शुभ योग मिले तो (तत्र दानं च मुक्तस्य) ऐसा दान रहित साधु कुपात्र है इसकी पहिचान करना कि कौन सम्यक्दृष्टि है, कौन मिथ्यादृष्टि मुक्ति का कारण बनता है (सुद्ध दिस्टी सदा मयं) जहाँ दाता और पात्र दोनों ही शुद्ध है यह तो बड़ी कठिन समस्या है ऐसी स्थिति में समान्य जनों को क्या करना चाहिये? दृष्टि हों जो सदा उसी मय रहते हों। इसका समाधान करते हैं कि यह बात तो ठीक है कि इसकी पहिचान निर्णय (पात्र सिष्यां च दात्रस्य) उत्तम पात्र, दाता को शिक्षा ज्ञान दान देते हैं और करना मुश्किल है कि कौन सम्यक्दृष्टि कौन मिथ्यादृष्टि है पर सामान्य व्यवहार मेंS (दात्र दानं च पात्रयं) दाता, पात्रों को आहार आदि दान देते हैं (दात्र पात्रं च सुद्ध) साधु के गुण लक्षण आचरण और चर्चा से यह बात समझ में आ जाती है,उसके जहां दाता और पात्र दोनों शुद्ध हों (दानं निर्मलतं सदा) ऐसा दान हमेशा निर्मल शुभ अनुसार व्यवहार करना चाहिये । प्रमुख बात यह है कि किसी को गुरु मानकर और अतिशयकारी होता है। समर्पित हो जाना, इसमें बड़े विवेक की आवश्यकता है क्योंकि उसमें श्रद्धा भक्ति (दात्रं सुद्ध समिक्तं) जहां दाताशुद्ध सम्यक्दृष्टि हो (पात्रं तत्र प्रमोदनं) इससे की विशेषता रहती है और श्रद्धा भक्ति पूर्वक समर्पण ही पात्र की अपेक्षा सद्गति पात्र को बड़ी खुशी होती है और वह उसकी अनुमोदना और प्रमोद भाव रखता है दुर्गति का पात्र बनाता है। सामान्य व्यवहार अपेक्षा आहार औषधि आदि दान देना (दात्र पात्रं च सुद्धं च) जहां दाता और पात्र दोनों उत्तम शुद्ध होते हैं (दानं निर्मलतं, पुण्य बन्ध का ही कारण है, उसमें प्राणी मात्र के प्रति करुणा बुद्धि से दान दिया जा सदा) ऐसा दान हमेशा ही प्रशंसनीय और निर्मल होता है। सकता है इसमें जाति-पांति भेष, पर्याय आदि का भी प्रयोजन नहीं है। (पात्रं जत्र सुद्धं च) जहां पात्र उत्तम अर्थात् सुद्ध सम्यकदृष्टि होता है और यहाँ पात्र कुपात्र की विशेषता श्रद्धा भक्ति समर्पण से है,सामान्य व्यवहार से (दात्रं प्रमोद कारनं) दाता के लिये इससे बड़ी खुशी प्रमोद भावना होती है (पात्र दात्र १७१ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nene १ श्री आवकाचार जी सुद्धं च) ऐसा ही पात्र और दाता जहां सुद्ध होता है (उक्तं दान जिनागमं ) इसी को जिनागम में सच्चा दान कहा गया है। विशेषार्थ- पात्र दान में, पात्र शुद्ध हो और दाता शुद्ध हो, ऐसा शुभ योग मिले तो ऐसा दान मुक्ति का कारण बनता है। जैसा भगवान आदिनाथ को राजा श्रेयांस ने दान दिया और तद्भव उनसे पूर्व ही मोक्ष चले गये। शुद्ध सम्यदृष्टि दाता और पात्र हो वही अपूर्व दान है और ऐसे दान का बड़ा भारी माहात्म्य है। उत्तम पात्र, धर्म का साधक है उनको दान देने से उनके परिणामों में स्थिरता होती है, उनके संयम का साधन होता है, यह उपकार तो दाता द्वारा, पात्र का होता है और पात्र द्वारा दाता का यह उपकार होता है कि वह उसको धर्मोपदेश देते हैं, जिससे वह धर्म का विशेष अनुरागी हो जाता है। जहाँ दातार का भाव शुद्ध है सम्यक्दर्शन से पूर्ण है और पात्र भी शुद्ध भाव धारी सम्यक दृष्टि है वहाँ अपूर्व निर्मलदान होता है। दोनों के भाव अति पवित्र हो जाते हैं। यह दान सदा ही भावों में अति विशुद्धता करने वाला है। प्रमोद भाव से दान देने वाले के भावों में इतनी विशुद्धता होती है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। जहाँ वीतरागी साधु उत्तम पात्र होते हैं और जो सद्गृहस्थ उन्हें भक्तिपूर्वक आहार के लिये पड़गाहन करते हैं, उस समय उनके भावों में इतनी विशुद्धता, निर्मलता होती है कि चारों तरफ जय-जयकार मच जाती है, देखने वालों की आत्मा गद्गद् हो जाती है, धर्म की बड़ी अपूर्व महिमा है। सम्यक्रदृष्टि पात्र के दर्शन करने मात्र से अपूर्व शांति और आनंद की अनुभूति होती है फिर सत्संग और दानादि की प्रवर्तना से तो अपूर्व ही आनंद आता है। उत्तम पात्र हो और उत्तम दाता हो यही दान जिनागम में श्रेष्ठ कहा गया है। जैसे चन्दना द्वारा भगवान महावीर को दान दिया गया। सम्यक् दृष्टि उत्तम मध्यम जघन्य पात्र के द्वारा कभी दाता को जरा भी असुविधा विकल्प नहीं होता; क्योंकि वह अपनी-अपनी पात्रतानुसार आचरण करते हैं। उत्तम पात्र वीतरागी साधु तो उद्दिष्ट के त्यागी होते हैं, उन्हें तो जो श्रावक ने अपने लिये बनाया हो उससे निस्पृह वृत्ति से आहार लेकर चले जाते हैं । जहाँ सम्यक्दृष्टि मोक्षगामी दातार हो और मोक्षगामी महात्मा पात्र हो वह दान महान है। यदि पात्र सम्यकदृष्टि है, आत्म साधक मोक्षमार्गी है तो वह सत्पात्र दाता के द्वारा दिया हुआ दान ही ग्रहण करता है । अपात्र मिथ्यादृष्टि का दान नहीं लेता, यदि अपात्र मिथ्यादृष्टि का दान लेता है तो वह भी अपात्र कहा जाता है, इसी बात को आगे की गाथाओं में कहते हैं ७ SYA YAAAA FAR AS YEAR. गाथा-२९०-२९२ मिथ्या दिस्टी च दानं च, पात्रं न गृहिते पुनः । जदि पात्र गृहिते दानं, पात्रं अपात्र उच्यते ।। २९० ॥ मिथ्या दान विषं प्रोक्तं, घृत दुग्धं विनासये । नीच संगेन दुग्धं च गुणं नासन्ति जत्पुनः ।। २९९ ।। मिथ्या दिस्टी संगेन, गुणं च निर्गुनं भवेत् । मिथ्या दिल्टी जीवस्य, संगं तिजंति सदा बुधैः ॥ २९२ ॥ अन्वयार्थ - (मिथ्या दिस्टी च दानं च) मिथ्यादृष्टि के द्वारा दिये हुए ज्ञान दान को (पात्रं न गृहिते पुनः) पात्र ग्रहण नहीं करते हैं (जदि पात्रं गृहिते दानं ) यदि पात्र उस ज्ञान दान को ग्रहण कर ले तो (पात्रं अपात्र उच्यते ) वह पात्र, अपात्र कहा जाता है। १७२ (मिथ्या दान विषं प्रोक्तं) मिथ्या दान विष रूप कहा गया है (घृत दुग्धं विनासये) जैसे विष के संयोग से घी दूध भी वैसा ही हो जाता है (नीच संगेन दुग्धं च ) इसी प्रकार नीच की संगति से पात्र के दूधवत् (गुणं नासन्ति जत्पुनः) सभी गुण नष्ट हो जाते हैं । (मिथ्या दिस्टी संगेन ) मिथ्यादृष्टि की संगति से (गुणं च निर्गुनं भवेत्) पात्र के गुण, औगुण हो जाते हैं (मिथ्या दिस्टी जीवस्य ) इसलिये मिथ्यादृष्टि जीवों का (संगं तिजंति सदा बुधैः) संग बुद्धिमानों को हमेशा के लिये छोड़ देना चाहिये । बिशेषार्थ - दान देने वाले को दाता और दान लेने वाले को पात्र कहते हैं और इसका परस्पर में अदान-प्रदान रूप संबंध होता है। चार दान में से जो जिसे जो दान देवे वह दाता कहलाता है और दान लेवे वह पात्र कहलाता है। सद्गृहस्थ श्रावक किसी साधु त्यागी को आहार दान देता है उस समय आहार देने वाला दाता और आहार लेने वाला पात्र कहलाता है। जब साधु त्यागी गृहस्थ श्रावक को ज्ञानदान देता है तब यह दाता और वह पात्र कहलाता है। श्री तारण स्वामी ने यहाँ दोनों की अपेक्षा 9 कथन किया है, एक पक्षीय दान की प्ररूपणा नहीं की । अव्रत सम्यक् दृष्टि श्रावक यदि किसी को आहारदान देता है तो वह उसकी भावनानुसार पुण्य बंध करता है तथा जब वह ज्ञानदान लेता है तब उसे सतर्क रहना चाहिये क्योंकि यदि ज्ञान देने वाला मिथ्यादृष्टि कुपात्र है तो जो लेने वाला पात्र है, उस बात को स्वीकार नहीं करता, यदि 5 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C २०७ ७ श्री आवकाचार जी वह उसकी बातों को स्वीकार कर ले तो वह पात्र, अपात्र कहा जाता है। नीच की संगति बड़ी अनिष्टकारी होती है, जो जीव मिथ्यादृष्टि कुगुरुओं की बातों में लग जाते हैं, उनके कहे अनुसार मान्यता करने लगते हैं, उनका जीवन ही नष्ट हो जाता है। जैसे विष के संयोग से दूध और घृत नष्ट हो जाता है इसी प्रकार मिथ्यादृष्टियों का संग बड़ा अनर्थकारी होता है, इनकी संगति से कई दुर्गुण मिथ्या मान्यतायें लग जाती हैं, जो सच्चे धर्म से च्युत कर देती हैं इसलिये बुद्धिमान ज्ञानीजनों को हमेशा ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों का संग ही छोड़ देना चाहिये इसलिये दान देने और लेने में बड़े विवेक की आवश्यकता है, जरा सी बात, जरा सी श्रद्धा मान्यता में ही सब विपरीत हो जाता है। जो सच्चे तत्व के श्रद्धावान नहीं हैं, जिन्हें सम्यक्ज्ञान नहीं है, मात्र बाह्य भेष बना लिया है उनकी संगति से लाभ होने के बदले में हानि होना बहुत संभव है। उनके प्रभाव में आकर सच्चे श्रद्धावानों की श्रद्धा बहुधा बिगड़ जाती है तथा गुणों का नाश होकर अवगुणों की अर्थात् राग-द्वेषादि की उत्पत्ति हो जाती है। बहुधा कुसंगति से व्यसन और विषयों में आसक्ति हो जाती है, जिनकी संगति से सम्यक्त्व दृढ़ हो, उन्हीं का सत्संग करने ज्ञानदान लेने से सम्यक्त्वादि गुणों की वृद्धि होगी, यदि दातार सम्यक्त्व रहित है तो पात्र के भीतर उसके भावों का बातों का असर पड़ने से सम्यक्त्व भाव में बाधा हो जायेगी इसलिये विवेक पूर्वक ही दान देना और लेना चाहिये । इसी बात की सावधानी के लिये सद्गुरु तारण स्वामी आगे गाथाओं में और स्पष्ट करते हैं मिथ्याती संगते जेन, दुरगति भवति ते नरा । मिथ्या संग विनिर्मुक्तं, सुद्ध धर्म रतो सदा ।। २९३ ।। मिथ्या संग न कर्तव्यं, मिथ्या वास न वासितं । दूरेहि त्यजति मिथ्यात्वं, देसो त्यागं च तिक्तयं ॥ २९४ ॥ मिथ्या दूरेहि वाचंते, मिथ्या संग न दिस्टते । मिथ्या माया कुटुम्बस्य, तिक्ते विरचे सदा बुधै ॥ २९५ ।। मिथ्यातं परं दुष्यानी, संमिक्तं परमं सुषं । तत्र मिथ्या माया त्यक्तंति, सुद्धं संमिक्त सार्धयं ॥ २९६ ॥ अन्वयार्थ- (मिथ्याती संगते जेन) इसी प्रकार मिथ्यात्वी संसारासक्त की SYAA AAAAAN FAN ART YEAR. १७३ गाथा-२९३-२९६ संगति से (दुरगति भवति ते नरा) जीवों को दुर्गति में जाना पड़ता है अतः (मिथ्या संग विनिर्मुक्तं मिथ्या संग छोड़कर (सुद्ध धर्म रतो सदा) शुद्ध धर्म में सदा रत रहना चाहिये। ( मिथ्या संग न कर्तव्यं) जो मिथ्यात्वी कुगुरु हैं उनके साथ रहना, संग करना भी कर्तव्य नहीं है (मिथ्या वास न वासितं) ऐसे मिथ्यात्वी जहाँ रहते हों, वहाँ भी नहीं रहना चाहिये (दूरेहि त्यजंति मिथ्यात्वं) ऐसे मिथ्यात्वी और मिथ्यात्व को दूर से ही छोड़ देना चाहिये (देसो त्यागं च तिक्तयं) अगर देश भी छोड़ना पड़े तो छोड़ देना चाहिये। (मिथ्या दूरेहि वाचंते) ऐसे मिथ्यात्वी कुगुरुओं से दूर से ही बचकर रहना चाहिये (मिथ्या संग न दिस्टते) उनका संग भी नहीं देखना चाहिये ( मिथ्या माया कुटुम्बस्य) ऐसे मिथ्या मायाचारी करने वाले कुटुम्ब को (तिक्ते विरचे सदा बुधै) छोड़कर बुद्धिमानों को सदा बचकर दूर ही रहना चाहिये । (मिथ्यातं परम दुष्यानी) क्योंकि मिथ्यात्व परम दुःख की खानि है (संमितं परमं सुषं) सम्यक्त्व परम सुख रूप है (तत्र मिथ्या माया त्यक्तंति) इसलिये मिथ्या माया छोड़कर (सुद्धं संमिक्त सार्धयं) शुद्ध सम्यक्त्व की साधना करना चाहिये । विशेषार्थ यहां दान का प्रकरण चल रहा है, अव्रत सम्यकदृष्टि चार दान की भावना प्रभावना करता है, यह उसकी अठारह क्रियाओं में आवश्यक है, दान देने से भावों में निर्मलता आती है, लोभादि कषाय गलती है, पुण्य का बंध होता है इसलिये सत्पात्रों को दान देने की प्रवृत्ति रहती है और करुणा भाव से दुःखी भूखे अनाथों की सहायता करता है, दान देता है। आहार दान एक ऐसा दान है जो प्राणीमात्र को किसी भी भेदभाव के बिना दिया जा सकता है और इसमें अपनी भावनानुसार पुण्य का बन्ध होता है, अन्य दानों में विवेक पूर्वक देना योग्य है । यहां विशेष बात यह है कि श्रावक जिन पात्रों को आहार दान देता है और यदि वह पात्र कुपात्र अर्थात् बाह्य भेषधारी मिथ्यादृष्टि है और उनके द्वारा जो उपदेश ज्ञान दान दिया जाता है इसमें बुद्धिमान श्रावक को सावधान रहना चाहिये, उनकी किसी बात को नहीं मानना चाहिये। जैसे यह अदेवादि के पूजन दर्शन की बात करते हैं, नियम लेने को कहते हैं तो यह कभी स्वीकार नहीं करना चाहिये और ऐसों को आहार दान भी नहीं देना चाहिये। जहां गृहीत मिथ्यात्व का पोषण हो, सम्यक्त्व में दोष लगे, श्रद्धान में पराधीनता आवे, ऐसे मिथ्यादृष्टि कुगुरुओं का संग भी नहीं करना Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You श्री आचकाचार जी गाथा-२९७.२९९ ७ चाहिये, उनसे मिलना बोलना भी नहीं चाहिये। जहां वह रहते हैं वहां जाना भी नहीं अनस्तमितं कृतं जेन, मन वच कायं कृतं। जाना चाहिये क्योंकि इनकी संगति से दुर्गति जाना पड़ता है। अव्रत सम्यकदृष्टि को सुद्धभावं च भावं च, अनस्तमितं प्रतिपालये॥२९८॥ अपनी श्रद्धा को दृढ रखते हुए इन सबसे दूर रहना चाहिये, व्यवहारिकता में विरोध आवे तो वह स्थान और देश भी छोड देना चाहिये परंतु अपनी श्रद्धा से नहीं अनस्तमितं जेन पालते, वासी भोजन तिक्तये। डिगना चाहिये । जैसा जिनेन्द्र देव ने, वीतरागी सद्गुरुओं ने वस्तु का स्वरूप रात्रि भोजन कृतं जेन,भुक्तं तस्य न सुद्धये ॥ २९९ ॥ बताया है, आत्मा की स्वतंत्र सत्ता प्रतिपादित की है, उस पर अडिग रहना चाहिये, अन्वयार्थ- (अनस्तमितं वे घड़ियं च) अन्यऊ अर्थात् रात्रिभोजन त्याग कभी किसी कुदेव-अदेव आदि की पूजा भक्ति नहीं करना चाहिये क्योंकि - ८ करने वाले को सूर्य अस्त होने के दो घड़ी पहले भोजन कर लेना चाहिये (सुद्ध धर्म मिथ्यात्व के समान महान पाप और कोई नहीं है, यह मिथ्यात्व ही परम, प्रकासये) ऐसा अहिंसा धर्म प्रकाशित करता है (साधं सुद्ध तत्वं च) जो शुद्धात्म दुःख की खानि है और सम्यक्त्व ही परम सुख है इसलिये मिथ्यात्व और स्वरूप के साधक हैं और (अनस्तमितं रतो नरा) अन्थऊ करने वाले मनुष्य अर्थात् मिथ्यादेव गुरु कासंग छोड़कर शुद्ध सम्यक्त्व अपने शुद्धात्मस्वरूप की साधना रात्रि भोजन के त्यागी हैं। करना चाहिये। (अनस्तमितं कृतं जेन) जो अनस्तमितं अर्थात् अन्थऊ करते हैं (मन वच संगति का बड़ा भारी असर होता है, जैसी संगति होती है वैसे ही भाव और कार्य कतं) मन वचन काय से रात्रिभोजन त्याग करते हैं (सद्ध भावं च भावं च) और आचरण होने लगता है इसलिये विवेकवान श्रावक को अपने शुद्धात्म स्वरूप के शुद्ध भाव की भावना करते हैं (अनस्तमितं प्रतिपालये) वे रात्रिभोजन त्याग व्रत का श्रद्धान में हमेशा दृढ रहना चाहिये। किसी प्रकार के ग्रहीत-अग्रहीत मिथ्यात्व का प्रतिपालन करते हैं। पोषण न हो जावे, उस ओर की प्रवृत्ति न हो जाए इसलिये मिथ्यात्वी जीवों की संगति (अनस्तमितं जेन पालंते) जो रात्रिभोजन त्याग व्रत पालते हैं (वासी भोजन से बचना चाहिये। इस बात की बड़ी आवश्यकता है कि शुद्ध सम्यक्त्व की रक्षा की तिक्तये) उन्हें वासी भोजन अर्थात् एक दो दिन पहले का बनाया हुआ नहीं खाना जाये,सम्यक्त्व में कोई दोष न लगाया जाये। मिथ्यादर्शन को भले प्रकार त्याग दिया चाहिये (रात्रि भोजन कतं जेन) जो रात्रि का बनाया भोजन करते हैं (भुक्तं तस्य न जाये। जिनकी संगति से विषय-कषायों में लीनता हो, मिथ्या पूजा पाठ वरूढ़ियों में सुद्धये) उनकी भोजन शुद्धि नहीं है अर्थात् उनका रात्रिभोजन त्याग सही नहीं है। जकडना पडे ऐसी संगति ही नहीं करना चाहिये और न इनको दान देना चाहिये,न विशेषार्थ-अनस्तमितं (अन्यऊ करना) अर्थात् रात्रिभोजन का त्याग करने लेना चाहिये। करुणा बुद्धि से हर एक प्राणी को आहार, औषधि, अभय व ज्ञानदान वालों को सूर्य अस्त होने के दो घड़ी पहले भोजन कर लेना चाहिये और प्रातः भी सूर्य करना उचित है, उसमें पात्र-अपात्र का विचार नहीं है परंतु धर्म बुद्धि से श्रद्धा भक्ति S उदय के दो घड़ी बाद ही अन्न जल ग्रहण करना चाहिये । शुद्ध वस्तु स्वरूप को पूर्वक दान देने और लेने में विवेक और संभाल रखना आवश्यक है। इस प्रकार अव्रत बताने वाला यह अहिंसामयी जैन धर्म हिंसा से बचने के लिये ऐसा उपदेश करता है। सम्यकदृष्टि चार दान की प्रभावना करता है, जिससे उसका जीवन सरस, परिणाम 8जो शुद्धात्म स्वरूप के साधक श्रद्धानी मनुष्य (श्रावक) हैं वह इसका यथाविधि निर्मल और धर्म भावना की वृद्धि होती है। पालन करते हैं। भोजन चार प्रकार का होता है-खाद्य,स्वाद्य, लेह्य,पेय। यहां तक अव्रत सम्यक्दृष्टि की अठारह क्रियाओं में सम्यक्त्व,अष्ट मूलगुण,5 १.खाद्य-अन्नादि का बनाया भोजन। २. स्वाथ-मुँह साफ करने के लिये। रत्नत्रय की साधना और चार दान की प्रभावना इन सोलह क्रियाओं का वर्णन हुआ। लोंग इलायची पान सुपारी इत्यादि सुगंधित पदार्थ खाना। ३.ले- मलाई आदि आगे रात्रिभोजन त्याग का स्वरूप कहते हैं चाटकर खाने वाली वस्तुएँ। ४. पेय-पीने वाले पदार्थ द्ध पानी आदि । रात्रि अनस्तमितं वे घड़ियं च, सुद्धधर्म प्रकासये। भोजन त्याग करने वाले को इन चारों प्रकार के आहार का त्याग मन वचन काय से सार्थ सुद्ध तत्वं च, अनस्तमित रतो नरा ।। २९७ ॥ कर देना चाहिये, तभी भावों में शुद्धता आती है। भावों की शुद्धता होना ही सच्चा Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री श्रावकाचार जी रात्रि भोजन त्याग है क्योंकि खाने के परिणाम ही जीव को विकल्पित करते हैं। इस संमिक्तं सुद्ध भावना) और न शुद्ध सम्यक्त्व की भावना है (श्रावगं तत्र न उत्पादंते) संबंध में स्मरण रखने योग्य यह है कि- १. जब तक खाना तब तक करना। उनमें अभी श्रावकपना पैदा ही नहीं हुआ (अनस्तमितं न सुद्धये) उनका अभी रात्रि २.जैसा खाना वैसा करना। ३. जितना खाना उतना करना। ४.जब तक करना तब , भोजन त्याग भी शुद्ध नहीं है। तक मरना। जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन,जैसा पिओ पानी वैसी निकले वाणी; (जे नरा सुद्ध दिस्टी च) जो मनुष्य शुद्ध सम्यकदृष्टि हैं (मिथ्या माया न ७ इसलिये रात्रि भोजन त्याग के साथ शुद्ध आहार जल भी होना चाहिये। वासा भोजन दिस्टते) जिनमें मिथ्यात्व मायाचार दिखाई नहीं देता (देवं गुरं सुतं सुद्ध) जो शुद्ध, अर्थात् एक दो दिन पूर्व का बना हुआया जिसका स्वाद बिगड़ गया हो तथा जो रात्रि वीतरागी देव, वीतरागी साधु-गुरु, वीतराग विज्ञानमयी शास्त्र,जिनवाणी को मानते का बना हो ऐसा भोजन भी नहीं करना चाहिये। रात्रि को पीसा हुआ आटा मसाला ८ हैं(संमत्तं अनस्तमितं व्रतं) वेसम्यक्त्वी ही रात्रिभोजन व्रत के पालनकर्ता हैं। आदि भी नहीं खाना चाहिये। गृहस्थ श्रावक को उचित है कि अपने यहाँ शुद्ध भोजन, विशेषार्थ- भोजन के चार भेद हैं-खाद्य, स्वाद्य. लेह्य और पेय जो इन चारों बनावे जो मनि आदि पात्रों को दान दिया जा सके और स्वयं भी शुद्ध भोजन पान का त्याग करते हैं तथा वासी भोजन व जिसका स्वाद बिगड़ गया हो ऐसा कोई भी करे, इससे परिणामों में निर्मलता रहती है। आहार नहीं करते उनका रात्रि भोजन त्याग ही सही है और इस रात्रि भोजन त्याग की इसी बात को आगे और कहते हैं - र सार्थकता तब है, जब अपने में कोई रागादि दोष न होवे, शुद्धात्म स्वरूप की साधना पादं स्वाद पीवं च, लेपं आहार क्रीयते । र तथा भावों की संभाल होवे, तभी अव्रत सम्यक्दृष्टि सच्चे रात्रि भोजन के त्यागी हैं। वासी स्वाद विचलंते,तिक्तं अनस्तमितं कृतं ॥ ३००॥ ८ जिन्हें अपने शुद्धात्म स्वरूप की खबर ही नहीं है, न जिन्हें अपने भावों की संभाल है, अनस्तमितं पालते जेन, रागादि दोष वंचितं । १ जिन्हें धर्म-कर्म का कोई विवेक नहीं है. जहां अभी श्रावकपना ही पैदा नहीं हआ S अर्थात् जहां श्रद्धा विवेक क्रिया का कोई विचार ही नहीं है भले वह रात्रि भोजन न सुख तत्वं च भावं च, संमिक दिस्टी व पस्यते ॥३०१॥ 5 करते हों परंतु उनका वह रात्रि भोजन त्याग शुद्ध नहीं है। जो जीव शुद्ध सम्यकदृष्टि सुद्ध तत्वं न जानते, न संमिक्तं सुद्ध भावना। 23 हैं, जिनमें कोई मिथ्यात्व मायाचारी नहीं है,जो सच्चे देव गुरु शास्त्र के श्रद्धानी हैं, श्रावगं तनन उत्पादंते,अनस्तमितं न सुद्धये ॥३०२॥ जिनका आचरण शुद्ध और भावना पवित्र है उन्हीं का रात्रि भोजन त्याग व्रत यथार्थ जे नरा सुख दिस्टीच, मिथ्या माया न दिस्टते। १ सही है। 2 रात्रि भोजन करने से वैसे भी कई दोष दुःख और बीमारियाँ होती हैं,हिंसादि देवं गुरं सुतं सुद्धं, संमत्तं अनस्तमितं व्रतं ॥ ३०३ ॥ ९. पाप तो प्रत्यक्ष होते ही हैं। रात्रि में भोजन बनने में अनेक जीवों की हिंसा होती है, अन्वयार्थ-(षादस्वादं पीवंच) खाद्य,स्वाद्य और पीने वाला पेय (लेपं आहार खाने से कई रोग पैदा होते हैं। बदहजमी आदि तो स्वाभाविक होती है तथा कीड़ी क्रीयते) लेहा पदार्थका आहार करना (वासी स्वाद विचलंते) वासा भोजन या जिसका खाने से बद्धिनाश और जलंधर रोग होता है मक्खी खाने से वमन होती है. मकडी स्वाद बिगड़ गया हो (तिक्तं अनस्तमितं कृतं) रात्रि भोजन त्याग करने वाले इनको खाने से कोढ हो जाता है, बाल खाने से स्वर भंग हो जाता है, बर्र ततैया के भोजन र छोड़ देते हैं (अनस्तमितं पालते जेन) जो रात्रि भोजन त्याग का पालन करते हैं। में आ जाने से वाय विकार शन्यपना हो जाता है इसलिये कभी भी रात्रि में भोजन नहीं 2 (रागादिदोष वंचित) रागादिदोषों से वंचित बचकर रहते हैं (सुद्ध तत्वं च भावंच) जो करना चाहिये तथा अंधेरे में भी भोजन नहीं करना चाहिये, जीव जन्तु नजर आ शुद्धात्मतत्व और भावों की संभाल रखते हैं (संमिक दिस्टीचपस्यते) वही सम्यक्दृष्टि उनको बचाते हुए दिन में भोजन करना चाहिये। देखे और कहे जाते हैं। यहां प्रश्न आता है कि रात्रि में बिजली के प्रकाश में भोजन करने में कोई दोष । (सुद्ध तत्वं न जानते) जो शुद्ध तत्व शुद्धात्म स्वरूप को नहीं जानते (न नहीं है और आजकल तो रात्रि में भी बिजली द्वारा दिन जैसा ही प्रकाश रहता है तो Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CPO श्री आवकाचार जी उसमें भोजन बनाने करने में भी क्या दोष है ? जीव रव्या षट् कायस्य,संकये सद्धभावनं । उसका समाधान करते हैं कि सूर्य के अस्त होते ही छोटे-छोटे कीटाणु अपने आप पैदा हो जाते हैं तथा बिजली के प्रकाश में तो और नानाप्रकार के कीटाणु पैदा ५ मावर्ग सुध दिस्टीच, जलं फास प्रवर्तते ॥३०५॥ होते हैं और वह भोजन बनाने और करने में गिरते रहते हैं, जिससे जीव हिंसा होती जलं सुद्धं मनः सुद्धं च, अहिंसा दया निरूपनं। है तथा नाना प्रकार के रोग पैदा होते हैं। रात्रि भोजन करने वाले को अधिकांश सुख दिस्टी प्रमाणं च,अव्रतनावग उच्यते॥३०६॥ बदहजमी गैस होती है, वायु विकार की बीमारी बनी ही रहती है इसलिये रात्रि में अन्वयार्थ- (पानी गलितं जेनापि) जो कोई पानी छानकर पीने का पालन भोजन बनाना और करना सभी प्रकार से हानिकारक है, धार्मिक दृष्टि से त्याज्य है किया करता है (अहिंसा चित्त संकये) जिसके चित्त में अहिंसा पालन का संकल्प ही, व्यवहार से भी स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। ९ होता है (विलछितं सुद्ध भावेन) वह शुद्ध भाव से विलछितं अर्थात् बिलछानी,जो वास्तव में सन्तोष और इन्द्रिय विजय का भाव जिस गृहस्थ श्रावक में होता है, हाताह पानी छानने के बाद कपड़े को उलटकर पानी बचता है यथास्थान पहुँचा देता है जो सच्चे धर्म का श्रद्धावान है उसको इन क्रियाओं के पालन करने में कोई कठिनाई ना (फासू जल निरोधन) और प्रासुक जल को ढककर बन्द करके रखता है। नहीं होती। दया और अहिंसा की जहां भावना होती है वहां प्राणीमात्र के प्रति यह (जीव रष्या षट् कायस्य) जिसे छह काय के जीवों की रक्षा का (संकये सुद्ध भावना रहती है कि किसी जीव का मेरे द्वारा मन वचन काय या किसी प्रकार के प्रमाद भावनाशद्ध भावना से संकल्प है (स्रावगं सुध दिस्टी च) वह शुद्ध दृष्टि श्रावक है से कोई अहित या घात न हो जाये तथा अपनी आवश्यकताओं को कम करना ही और जलं फास प्रवर्तते) प्रासक जलपानी छानकर गर्म कर सेवन करने का यथाविधि निराकुल रहने का मूलमंत्र है । इन्द्रिय विषयों की, शरीरादि संयोग की जितनी है पालन करता है। आवश्कतायें बढ़ी रहती हैं,उतना ही जीव विकल्पित दुःखी रहता है और सबसे प्रमुख (जलं सुद्ध मनः सुद्धं च) जहाँ जल शुद्ध है और मन शुद्ध है (अहिंसा दया यह खाने की समस्या है, इसी के लिये प्रत्येक मनुष्य नाना प्रकार के उद्यम उपद्रव जहाँ अहिंसा और हया का राशाविधिपालन होता है सट टिस्टीपमान) करता है, इसी खाने के पीछे सारे पाप अनाचार अत्याचार होते हैं। जब तक जीव को २. वही सच्चा शुद्ध दृष्टि है और (अव्रत स्रावग उच्यते) उसे ही अव्रती श्रावक कहते हैं। लाभ खाने की भावना रहेगी तब तक वह संसार बंधन में बंधा रहेगा। अपनी संभाल विशेषार्थ- अव्रत सम्यक्दृष्टि जघन्य पात्र अठारह क्रियाओं का पालन करता साधना करता हुआ जो जीव खाने की भावना से विरक्त हो जाता है वह संसार में है, जिनका विशद् विवेचन करते हुए यहाँ अन्तिम क्रिया पानी छानकर पीने का रहता हुआ भी मुक्त हो जाता है इसलिये अव्रत सम्यकद्रष्टि इस बात का विवेक ! स्वरूप बताया जा रहा है। जिसे अपने आत्म स्वरूप की अनुभूति हो गई, उसे रखता हुआ, खाने के बंधन से छूटने के लिये रात्रि भोजन आदि का त्याग करता है। समस्त जीवों के प्रति प्रेम और करुणा होजाती है। अपने द्वारा किसी जीव का घात व्रती दशा में एक बार भोजन करता है, साधु पद में तो तप ही करने लगता है इसी न हो, ऐसी अहिंसा की भावना और दया भाव होता है, इसी कारण अष्ट मूलगुण का प्रकार क्रम से मुक्ति का मार्ग बनता है। पालन करता है, चार दान देता है, रात्रि भोजन त्याग करता है और पानी छानकर भोजन शुद्धि के साथ जल शुद्धि भी होना अत्यंत आवश्यक है इसलिये वह पीता है जिससे छहकाय के जीवों की रक्षा होवे । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, ९ पानी छानकर ही पीता एवं सेवन करता है,यह अन्तिम अठारहवीं क्रिया है, जिसका विवेचन आगे किया जा रहा है वायुकायिक, अग्निकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक (दो इन्द्रिय से पांच इन्द्रिय तक) के जीवों की रक्षा करता है। पानी गालितं जेनापि, अहिंसा चित्त संकये। ___ अव्रती श्रावक अभी सामान्य गृहस्थ है, किसी प्रकार के व्रत नहीं लिये हैं परंतु विलछितं सुद्ध भावेन, फासू जल निरोधनं ।। ३०४॥ जितना हिंसादि पापों से बचे,संयम का पालन हो, ऐसी पवित्र भावना निरन्तर रहती Knorrection Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आचकाचार जी है। वह कोई भी हिंसादिपाप करना नहीं चाहता, मजबूरी में करना पड़ता है, होता है जिसे अपना आत्महित करना है, संसार के जन्म-मरण के चक्र से छूटना है, तो वह अपने मन में पश्चात्ताप करता है और इसी अहिंसा की शुद्ध भावना होने से जीवन में सुख शान्ति आनंद में निराकुलता से रहने का जिसका लक्ष्य है, वह अव्रत। वह पानी छानने का यथाविधि पालन करता है। , सम्यक्दृष्टि इन अठारह क्रियाओं का यथाविधि पालन करता है और इस पाप-परिग्रह पानी छानने की विधि वही करेगा जो अहिंसा व्रत भले प्रकार पालने का उद्योगी के गर्त से ऊपर उठने के लिये शुद्ध षट्कर्म (छह आवश्यक कर्तव्य) का पालन होगा व स्थावर व त्रस की हिंसा से भयभीत होगा। बिना छना पानी काम में लेने से करता है, जो पुण्य बंध के कारण और मुक्तिमार्ग पर आगे बढ़ने में सहयोगी साधन अनगिनत त्रस जीवों का भी घात होता है। दयावान गृहस्थ सूत के दोहरे कपड़े से हैं। इनका विशद् विवेचन सद्गुरु तारण स्वामी आगे की गाथाओं में करते हैं - पानी छानता है। छानने का कपड़ा साफ होना चाहिये तथा बर्तन के मुँह से तीन गुना अविरतं सावर्ग जेन, षट्कर्म प्रतिपालये। अर्थात् दो हाथ चौड़ा तीन हाथ लम्बा होना चाहिये। पानीछानने के बाद जो बिलछन, । षद् कर्म द्विविधस्वैव, सुख असुद्धं पस्यते ॥ ३०७॥ कपड़े में पानी बचता है, उसे उल्टा कर दूसरे बर्तन में छने पानी से अलगकर लेना चाहिये, उसे मसलकर निचोड़ना नहीं चाहिये । छने हुए पानी को ढककर रखना सुद्धं षट् कर्म जेन,भव्य जीव रतो सदा। चाहिये। छने हुए पानी की मर्यादा ४८ मिनिट होती है, इसके बाद पुनः छानकर काम असुद्ध षट् कर्म जेन, अभव्य जीवन संसयः॥३०८॥ में लेना चाहिये या प्रासुक कर लेना चाहिये । पानी को गर्म करने से वह प्रासुक हो। सुद्धं असुद्धं प्रोक्तं च, असुद्धं असास्वतं कृतं । जाता है, उबले हुए पानी की मर्यादा २४ घंटे की होती है, सामान्य गरम पानी की सुद्धं मुक्ति मार्गस्य, असुद्धं दुर्गति कारनं ।। ३०९ ॥ मर्यादा १२ घंटे की होती है, इसे लवंग, काली मिर्च, हर्र आदि पीसकर डालने से रंग। बदलने पर प्रासुक हो जाता है ऐसा पानी छह घंटे चल सकता है। पानी छानने के अन्वयार्थ- (अविरतं स्रावगं जेन) जो अव्रत सम्यक्दृष्टि श्रावक हैं वह (षट् बाद का बचा पानी जिसे बिलछानी कहते हैं उसे जहाँ से पानी लिया गया हो, वहाँ १ कर्म प्रतिपालये) षट्कर्म अर्थात् छह आवश्यक कर्तव्यों का पालन करते हैं (षट् यथास्थान पहुँचा देना चाहिये यह क्रिया यथाविधि होवे तभी जल छानने की शुद्धि है। कर्म द्विविधस्चैव) वे षट् कर्म के दो प्रकार के होते हैं (सुद्धं असुद्धं पस्यते) जो शुद्ध जहाँ जलशुद्ध है और मन शुद्ध है वहां अहिंसा और दया का यथाविधि और अशुद्ध देखे जाते हैं (सुद्धं षट् कर्म जेन) जो शुद्ध षट्कर्म हैं (भव्य जीव रतो पालन होता है और वही सच्चा सम्यक्दृष्टि है उसे ही अव्रती श्रावक कहते हैं क्योंकि सदा) भव्य जीव सदा उनमें रत रहते, पालन करते हैं और (असुद्धं षट् कर्म जेन) अव्रत सम्यक्दृष्टि कौन होता है इसको समझना आवश्यक है। जो असुद्ध षट्कर्म हैं (अभव्य जीवन संसयः) उनका जोपालन करते हैं वे अभव्य जो संसार को भय और दुःख की खानिजानता है तथा इससे छूटने की वैराग्य जीव हैं इसमें कोई संशय नहीं है। भावना करता है,जिसे संसार शरीर भोग झूठे नाशवान दुःख के कारण लगते हैं। (सुद्धं असुद्धं प्रोक्तं च) शुद्ध और अशुद्ध षट्कर्म कौन-कौन से हैं, उन्हें जिसे शरीरादि से भिन्न अपने आत्म स्वरूप का श्रद्धान हो गया, वह अव्रत सम्यक् * कहते हैं (असुद्धं असास्वतं कृतं) अशुद्ध षट्कर्म शाश्वत नहीं हैं,कल्पित हैं (सुद्धं दृष्टि है। उसका विवेक जाग्रत हो जाता है और वह विवेकपूर्वक ही हर क्रिया का मुक्ति मार्गस्य) शुद्ध षट्कर्म मुक्ति मार्ग के साधक हैं (असुद्धं दुर्गति कारनं) असुद्ध पालन करता है क्योंकि संयोगी कारणों का और खान-पान का मन पर असर पड़ता। षट्कर्म दुर्गति के कारण हैं। है। मुक्त होने वाले जीवको विषय-कषायों को छोडकर संयम का पालन करना.शास्त्र विशेषार्थ- जो अव्रत सम्यक् दृष्टि श्रावक है वह षट्कर्म (छह आवश्यक स्वाध्याय कर वैराग्य की वृद्धि करना,संसार का स्वरूप अनित्य जानना, दान आदि कर्तव्य) का पालन करता है, वह षट्कर्म निम्नप्रकार कहे गये हैं- देव पूजा, गुरु देना और अपने आत्म स्वरूप का चिंतन मनन करना इसका नाम धर्म है और यही उपासना, शास्त्र स्वाध्याय, संयम, तप और दान। इनके पालन करने से परिणामों मुक्ति का कारण है, विषय कषायों के पोषण का नाम धर्म कदापि नहीं है। में निर्मलता, सम्यक्दर्शन की शुद्धि और आत्म भावना दृढ़ होती है, कषायों की १७७ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-३०७- २०१ ७ मंदता होती है, परिणाम उदार होते हैं। यह षट्कर्म दो प्रकार के शुद्ध और अशुद्ध है इसी कारण उसके जितने अंश वीतरागता होती है उतने अंश कर्मों की निर्जरा देखे जाते हैं। कोई शुद्ध रीति से पालते हैं, कोई अशुद्ध रीति से पालते हैं। मिथ्यात्व होती है और जितने अंश सरागता होती है उतने अंश कर्म का बन्ध होता है परंतु सहित सर्व कर्म अशुद्ध हैं,सम्यक्त्व सहित सर्व कर्म शुद्ध हैं। जहाँ पर यह आशय या . उसका मुक्ति का मार्ग निश्चित हो गया है। मिथ्यादृष्टि जीव इस रहस्य को नहीं अभिप्राय है कि मुझे पुण्य का लाभ हो जिससे धन,पुत्र, राज्य, स्वर्ग के भोग आदि * जानता, वह लोगों की देखा-देखी कुदेव-अदेवादि की पूजा करता है, कुगुरुओं के प्राप्त हों तथा सच्चे देव, सच्चे गुरु, सच्चे शास्त्र कौन हैं? कैसे हैं? इसका कोई जाल में फंसता है और कपोल-कल्पित शास्त्रों को पढ़कर उनके अनुसार संयम.. विचार ही नहीं है, लोकमूढ़ता से जो इनका पालन करते हैं, वह अशुद्ध कहे जाते हैं तप, दान करने लगता है, जिससे संसार में ही रुलता रहता है। मिथ्यात्व सहित जो और इनका पालन करने वाले अभव्य जीव होते हैं,इसमें कोई संशय नहीं है। राषट्कर्मों का सेवन है वह अशुद्ध है,अशाश्वत, कल्पित है ,वह अनादि का सनातन जो सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे शास्त्र के स्वरूप को समझकर यथाविधि। मार्ग नहीं है,मनो कल्पना से चलाया हुआ है, अशुद्ध षट्कर्म पालन का फल कुगति पालन करते हैं वे भव्यजीव मोक्षगामी सम्यक्त्वी होते हैं, जिनको शुद्ध आत्मा की में भ्रमण है। अशुद्ध षट्कर्म का पालन करने वाला अभव्य जीव कैसा है ? इस बात रुचि है, परमात्म पद मोक्ष प्राप्त करने की भावना है, वह भव्य होते हैं, जो सदा शुद्ध को कुन्दकुन्दाचार्य समयसार में कहते हैंषट्कर्म के पालन करने में रत रहते हैं। जिन्हें अपने आत्म स्वरूप का भान ही नहीं वद समिदी गुत्तीओ, सील तवं जिणवरेहि पण्णत्त। है.उस ओर की रुचि ही नहीं है,जो मिथ्या आडम्बरों में उलझे रहते हैं, वह अभव्य कुटवंतो वि अभव्यो, अण्णाणी मिच्छदिट्टी दु॥२७॥ होते हैं जो अशुद्ध षट्कर्म का पालन करते हैं । अशुद्ध षट्कर्मशाश्वत नहीं हैं,कल्पित जिनेन्द्र देव के द्वारा कथित व्रत, समिति, गुप्ति,शील और तप करता हुआ हैं यह मिथ्यात्वियों द्वारा बनाये गये हैं जो इनका पालन करते हैं वह दुर्गति के पात्र भी अभव्य जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है। बनते हैं और जो शुद्ध षट्कर्म का पालन करते हैं वह मोक्षगामी होते हैं। वह अभव्य अज्ञानी क्यों है? इसका उत्तर आगे की गाथा में कहते हैं - भव्यजीव देवपूजादि छहों कार्यों का यथार्थ स्वरूप समझता है क्योंकि सच्ची मोक्ख असदहतो,अभवियसत्तो दुजो अधीएज्ज। देवपूजा तो पूजा पूज्य समाचरेत् सच्ची पूजा पूज्य के समान आचरण करना है। पाठो ण करेदि गुणं, असदहंतस्स गाणं तु ॥२७४॥ जैसे देव के गुण हैं वह अपने में प्रगट हों इसलिये निज शुद्धात्मा का ध्यान मनन मोक्ष की श्रद्धान करता हुआ जो अभव्य जीव है, वह शास्त्र तो पढ़ता है परंतु चिन्तन आराधन कर वह अपने भावों को शुद्ध बनाता है। जब उपयोग शुद्ध गुणों के ज्ञान का श्रद्धान न करने से उसका शास्त्र पढ़ना कार्यकारी नहीं है इसलिये वह मनन से तन्मय हो जाता है तो तुरन्त स्वात्मानुभव होकर शुद्ध भाव जाग जाता है. अज्ञानी ही है। यही देवपूजा है। गुरु भक्ति करते हुए आत्म ज्ञानी ध्यानी गुरू की संगति से भावों में प्राचीनकाल में साधु और श्रावक दोनों के छह आवश्यक समान थे, छह आत्मध्यान जाग उठता है, शास्त्र स्वाध्याय में मुख्यतः अध्यात्म के ग्रंथों का आवश्यकों का सर्वप्रथम उल्लेख मूलाचार में मिलता है - स्वाध्याय करने से भावों में आत्मानुभव झलकने लगता है। संयम का विचार करते समदाथवोय वंदण, पाडिक्कमणं तहेवणादव्यं । हुए, नियम लेते हुए ज्ञानी को आत्म संयम का भाव आ जाता है। इच्छाओं के निरोध पच्चक्खाण विसग्गो करणीया वासया छप्पि॥२२॥ करने से तप होने लगता है, जिससे निराकुल आनंद की अनुभूति होती है तथा 5 सामायिक,स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा व्युत्सर्ग यह छह १ सत्पात्रों को दान देने से परिणामों में निर्मलता, रत्नत्रयमयी वीतरागीधर्म का बहुमान आवश्यक करने योग्य जानना चाहिये। उत्साह आता है, पुरुषार्थजागता है और रत्नत्रयमयी निजशुद्धात्म स्वरूप में तन्मय सिद्धान्ताचार्य स्व. पं. कैलाशचंद्र शास्त्री के शब्दों में- आचार्य जिनसेन X हो जाता है। भव्य जीव पुण्य की प्राप्ति का आशय बिल्कुल नहीं रखता, केवल (नवीं शताब्दी) के महापुराण की रचना से श्रावक धर्म का विस्तार होना प्रारम्भ शुद्धोपयोग के अभिप्राय से इन छह कर्मों को साधता है; क्योंकि अभी अव्रत दशा में हुआ। पाक्षिक,नैष्ठिक और साधक उसके भेद हए, पूजा के विविध प्रकार हुए। १७८ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 श्री श्रावकाचार जी गाथा-३१०,३११ POOO प्राचीन षट्कर्म थे- सामायिक, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और जा रहा है। सच्चे देव-वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी अरिहंत और सिद्ध परमात्मा होते ७ कायोत्सर्ग, मुनि और गृहस्थ दोनों इनका पालन करते थे। उनके स्थान में देवपूजा, हैं.जो संसार के जन्म-मरण और सर्व कर्मों से मुक्त हो गये, जिनका समस्त मिथ्यात्व, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान यह षट्कर्म हो गये और इनमें भी , मोह,राग-द्वेष समाप्त हो गया। जो पूर्ण हैं, आप्त हैं,जो अपने शुद्धात्मतत्वपरमानंद पूजन को विशेष महत्व मिलता गया। * में प्रतिष्ठित हो गये, वह सच्चे देव परमात्मा भगवान कहे जाते हैं। जो आत्मा अपने ७ वर्तमान में श्रावक के जो षट्आवश्यक कर्म प्रचलित हैं। उनका उल्लेख १ स्वरूप में स्थित हो गये.अपने सम्पूर्ण गुणों को अपने में प्रगट कर लिया वही आत्मा पद्मनन्दि पंच विंशतिका में इन शब्दों में हुआ है ॐ परमात्मा कहलाते हैं और निश्चय से प्रत्येक आत्मा स्वभाव से परमात्मा है। अपने देवपूजा गुरूपास्ति: स्वाध्यायः संयमस्तपः। स्वरूप को भूलने के कारण बहिरात्मा बना है, जिसने अपने स्वरूप को जान लिया दानं चेति ग्रहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने । हैं वह अन्तरात्मा अपने स्वभाव में स्थित होकर परमात्मा हो जाता है इसलिये अपने निश्चय आवश्यक तो शुद्ध धर्म परिणति है। ज्ञानी श्रावक के योग्य आंशिक आत्म गणों की आराधना कर उनको प्रगट करना ही सच्ची देवपूजा है। शद्धि निश्चय से भाव देव गुरु पूजा है। शास्त्रों का अध्ययन-मनन,पापों से विरति, जो इसको न जानते हैं. न मानते हैं और देवालय मंदिर तीर्थक्षेत्र आदि में इन्द्रिय निग्रह, इच्छाओं का विरोध और स्व-पर के अनुग्रह के लिये दानदि देना स्थापितधात पाषाण आदि की मनुष्यों द्वारा बनाई मूर्तियों को जिनमेंन चेतनपना है, व्यवहार आवश्यक है। नदेवत्वपना है जो प्रत्यक्ष ही अदेव हैं, उनको देव कहकर मानते पूजते हैं वह अशुद्ध श्री जिन तारण स्वामी ने वर्तमान प्रचलित षट्कर्मों में जो विपरीत मान्यता ८ देवपूजा करते हैं। यही गृहीत मिथ्यात्व अनन्त संसार परिभ्रमण का कारण है। इसमें और अशुद्धता चल रही है उसका स्वरूप बताते हुए स्पष्ट विवेचन किया है, तीन प्रकार की मान्यतायें होती हैं- कुदेव, अदेव और मिथ्यादेव। कुदेव उन्हें कहते जिसको समझकर मोक्षमार्गी को अपना सही मार्ग बनाना चाहिये। S है जो भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी वैमानिक देवों को देवमानकर पूजते हैं और उनसे आगे अशुद्ध षट्कर्मों में प्रथम अशुद्ध देव पूजा का स्वरूप बताते हैं - ६ अपनी सांसारिक कामनाओं वासनाओं की पूर्ति चाहते हैं वह कुदेव पूजा है। अदेव असुखं प्रोक्तस्वैव, देवलि देवपि जानते। उन्हें कहते हैं जो धातु पाषाण आदि की मूर्ति प्रतिमायें बनाकर लोगों द्वारा स्थापित क्षेत्रं अनंत हिंडते, अदेवं देव उच्यते ॥ ३१०॥ की जाती हैं उन्हें देव मानकर पूजते हैं, जिनमें कोई देवत्वपना नहीं है वह अदेव मिथ्या मय मूढ दिस्टीच,अदेवं देव मानते । पूजा है। जिसकी संसारी अज्ञानी मिथ्यादृष्टि नाना प्रकार से प्रपंच फैलाकर चमत्कार आदि की प्रसिद्धि करते हैं कि अमुक स्थान पर खोदो, यहाँ भगवान निकलेंगे, परपंचं जेन कृतं सार्थ, मानते मिथ्या दिस्टितं ॥३११॥ हमें स्वप्न दिया है, इनकी पूजा मान्यता करने से सब काम सिद्ध होंगे। धन, पुत्र, अन्वयार्थ- (असुद्धं प्रोक्तस्चैव) अशुद्ध देवपूजा वह कही गई है जो (देवलि परिवार बढ़ेगा, रोग शोकादि दूर होंगे। कहीं कोई चमत्कार बताकर लोगों को देवपि जानते) देवालय,मंदिर में देव को जानते हैं (षेत्रं अनंत हिंडते) अनंत क्षेत्र, फंसाकर पूजा मान्यता करते हैं। मिथ्यादेव-जो मनुष्य नाना प्रकार के भेष आदि तीर्थ स्थानों में भ्रमण करते हैं (अदेवं देव उच्यते) और अदेवों को देव कहते हैं। बनाकर नाचते कूदते हैं, उन्हें देव मानना मिथ्या देवपूजा है। इसे और स्पष्ट करते हैं (मिथ्या मय मूढ दिस्टीच) और मिथ्यात्व मय मूढ दृष्टि होते हैं जो (अदेवं देव कि जिनमें देवपना बिल्कुल नहीं है, ऐसे अदेवों को जो देव मानकर पूजते हैं वे मानते) अदेवों को अर्थात् पाषाण धातु आदि की मूर्तियों को देव मानते हैं (परपंचं वास्तव में संसार की वासनाओं में लिप्त होते हैं। वे अज्ञानी इस बात का बिना विचार जेन कृतं साध) जो नाना प्रकार से मिथ्या प्रचार कर चमत्कारादि प्रपंच फैलाते हैं किये कि इनमें देव के लक्षण सर्वज्ञता वीतरागता चेतनपना है या नहीं, रूढ़िगत (मानते मिथ्या दिस्टितं) इनको मिथ्यादृष्टि ही मानते हैं। मूढता के वशीभूत होकर चाहे जिस कुदेव को या अदेव को पूजने लग जाते हैं,उनकी विशेषार्थ- यहाँ अशुद्ध षट्कर्म में पहले अशुद्ध देवपूजा का स्वरूप बताया यह मूढ भक्ति मिथ्यात्व रूप है , मायाचार कपट से भरी हुई है। इस मूढ भक्ति के Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Puccesses 04 श्री आपकाचार जी गाथा-३१०,१११ NLOo कारण उनको अनेक प्रपंच रचना पड़ते हैं, पूजा विधान आदि के अनेक आडम्बर मूढ़ा देवलि देउ णवि णवि सिलि लिप्पाइ वित्ति। करना पड़ते हैं। इस प्रकार की कुदेवया अदेव की पूजाभक्ति से अन्तरंग मिथ्यात्व दृढ देहा देवलि देउ जिणु सो बुज्नहि समवित्ति॥४४॥ होता है, मिथ्यादृष्टि ऐसी अशुद्ध देव की पूजा भक्ति किया करते हैं। इससे राग-द्वेष, हे मूढ ! देव किसी देवालय में विराजमान नहीं हैं, इसी तरह किसी पत्थर लेप मोह, मिथ्यात्व बढ़ता है जिससे घोर पाप बांधकर दुर्गति का पात्र होना पड़ता है। 8 अथवा चित्र में भी देव विराजमान नहीं हैं। जिनदेव परमात्मा तो इस देह देवालय में इसी बात को योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते हैं - रहते हैं इस बात को तू समाचित्त से समझ। देउण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइणवि चित्ति। तित्थइ देउलि देउ जिणु सव्वु वि कोइ भणेइ। अखउ णिरंजणु णाणमउ सिउ संठिउ सम वित्ति॥१/१२३॥ देहा देउलि जो मुणइ सो बुहको वि हवेइ॥४५॥ देवालय मन्दिर में देव नहीं है, पाषाण की प्रतिमा में भी देव नहीं है, लेप में भी सब कोई कहते हैं कि जिनदेव तीर्थ में और देवालय में विद्यमान हैं परन्तु जो नहीं है ,चित्राम की मूर्ति में भी नहीं है, देव तो अविनाशी है निरंजन है ज्ञानमयी है जिनदेव को देह देवालय में विराजमान समझता है, ऐसा पंडित कोई विरला ही होता है। ऐसा निज परमात्मा इस देह देवालय में तिष्ठ रहा है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द बोधपाहुड़ में कहते हैंमणु मिलियउ परमेसरह परमेसरु वि मणस्स। सपराजंगम देहादसण णाणेण सद्ध चरणाणं। बीहि वि समरसि हूवा पुज्ज पड़ावउँ कस्स ॥१/१२३॥ णिग्गंथ वीयराया जिनमग्गे एरिसा पडिमा॥१०॥ मन भगवान आत्मा से मिल गया और परमात्मा भी मन से मिल गया दोनों जो आत्मा दर्शन ज्ञान चारित्र से शुद्ध स्थूल शरीर में स्थित है निग्रंथ वीतरागी एकमेक हो गये, अब किसकी पूजा करूँ, किसको पुंज चढ़ाऊँ, यहाँ पूजा करना ही है, उसे जिनमार्ग में प्रतिमा कहते हैं। समाप्त हो गया। आगे जिनबिम्ब का निरूपण करते हैंइसी बात को और स्पष्ट करते हुए योगीन्दुदेव योगसार में कहते हैं जिणबिर्व णाणमय संजम सुख सुवीयराय च। ताम कुतित्थई परिभमइ धुत्तिम ताम करेइ। ज देइ दिक्ख सिक्खा कम्मक्खय कारणे सुद्धा ॥१६॥ गुरुहु पसाएं जाम णवि अप्पादेउ मुणेइ ॥४१॥ जो जिन अर्थात् अरिहंत सर्वज्ञ का प्रतिबिंब उन जैसा ही हो उसे जिनबिंब जब तक जीव गुरु प्रसाद से आत्मदेव को नहीं जानता,तभी तक वह कुतीर्थों कहते हैं, जो ज्ञानमयी हो, संयम से शुद्ध हो, वीतराग हो, जो कर्म के क्षय का में भ्रमण करता है और तभी तक वह धूर्तता करता है। निश्चय से कारण हो जो जगत के जीवों को शिक्षा (धर्मोपदेश) दीक्षा (धर्ममार्ग पर तित्थाहिं देवलि देउणविइम सुइकेवलि वुत। ९. चलने का मार्ग) देता हो वह जिनबिंब कहलाता है। देहा देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुत्तु ॥४२॥ इस प्रकार कुन्दकुन्द आदि सभी आचार्यों ने इन कुदेव-अदेव आदि को मानने श्रुत केवली ने कहा है कि तीर्थों में, देवालयों में देव नहीं है, जिनदेव तो देह पूजने का निषेध किया है परन्तु मूढ मिथ्यादृष्टि संसारी इस बात को न मानकर ऐसे देवालय में विराजमान है इसे निश्चित समझो। कुदेव-अदेव आदि की पूजा मान्यता करके अपने संसार का कारण बढ़ाता है, देहा देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएइ। 5 यही अशुद्ध देवपूजा है, इसको करने से संसार में ही रुलना पड़ता है। हासउ महु पडिहाइ इहु सिद्धे भिक्ख भमेइ॥४३॥ यहाँ कोई प्रश्न करता है कि हमें देव का दर्शन पूजन करना है और वर्तमान में जिनदेव देह देवालय में विराजमान हैं परन्तु जीव (ईंट पत्थरों के) देवालयों में देव नहीं हैं तो हम उन जैसी पाषाण प्रतिमा बनाकर दर्शन पूजन करते हैं इसमें उनके दर्शन करता है यह मुझे कितना हास्यास्पद मालूम होता है, यह बात ऐसी ही क्या दोष है ? है कि जैसे कोई पुरुष सिद्ध हो जाने पर भिक्षा के लिये भ्रमण करे। उसका समाधान करते हैं कि भाई! जैन दर्शन में जिनेन्द्र परमात्मा ने धर्म का aorreckoneriorres Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POOON श्री श्रावकाचार जी गाथा-३१२,३१३ DO4 स्वरूप और देव का स्वरूप क्या बताया है पहले इसे समझो। यहाँ तो जीव की द्रोही वचनलोपंते) वे जिनद्रोही हैं. जो जिनेन्द्र के वचनों का लोपन, अर्थका अनर्थ स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की है,यह आत्मा ही परमात्मा है और जो वस्तु का जैसा स्वभाव करते हैं (कुगुरुं दुर्गति भाजन) ऐसे कुगुरू स्वयं को दुर्गति का पात्र बनाते हैं। है वह उसका धर्म है, जब कोई किसी का कुछ नहीं कर सकता, जिनेन्द्र परमात्मा . विशेषार्थ- यहाँ अशुद्ध गुरू उपासना का स्वरूप बताया जा रहा है कि गुरू कहते हैं कि मेरे दर्शन पूजन से भी तेरा भला नहीं होना,तू स्वयं अपना दर्शन पूजन की उपासना अर्थात उनका सत्संग करना सेवा भक्ति करना आज्ञा पालन करना। कर तभी तेरा भला होगा। यहाँ जगत का नियन्ता कोई परमात्मा नहीं है, न भगवान सच्चे गरु निग्रंथ वीतरागी साधु आरंभ परिग्रह से रहित मिथ्या मान्यताओं के बन्धन का अवतार होता है, यह जीव स्वयं भगवान बनता है फिर इसमें देव की मूर्ति बनाकर से मुक्त अनेकांतमत के ज्ञाता आत्मध्यानीरत्नत्रय के धारक साधु होते हैं, जो आप दर्शन पूजन करना तो दोनों प्रकार से ही विरुद्ध है, सिद्धान्त से तो विरुद्ध है ही और स्वयं मोक्षमार्ग में चलते हैं तथा समस्त भव्यजीवों को धर्म का सत्स्वरूप और मुक्ति साथ में गृहीत मिथ्यात्व भी है इसलिये सिद्धान्त के विरुद्ध और वस्तु स्वरूप के का मार्ग बताते हैं. वही सदगुरू होते हैं। इसका विशद् विवेचन पूर्व में भी कहा जा विरुद्ध कोई भी कार्य करना उचित नहीं है। चुका है। इसके विपरीत जो परिग्रह धारी विषयानुराग में तथा क्रोध, मान, माया, फिर प्रश्न करता है कि यह मान्यता तो बहुत समय से चली आ रही है और लोभ कषाय में अनरक्त हैं. जिनको अपने शुद्धात्म तत्व का अनुभव नहीं है,न द्रव्यों इसका समर्थन कई आचार्यों ने किया है फिर इसको कैसे छोड़ सकते हैं? का तत्वों का न पदार्थों का यथार्थ ज्ञान है, जो मायाचार में लिप्त हैं तथा मिथ्यात्व उसका समाधान है कि भाई ! सिद्धान्त के विरुद्ध कोई गलत परम्परा चल रही काही उपदेश देते हैं, जो मायाचार से परिपूर्ण होते हुए अपना स्वार्थ साधन करते हैं, हो और किन्हीं विशेष परिस्थितियों में इसे चलाना पड़ा होतो विवेकी को तो उसमें बाह्य में नग्न दिगम्बर भेष बनाये रहते हैं परन्तु नाना प्रकार के मिथ्यात्व का पोषण सुधार करना चाहिये। भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के ६८३ वर्ष बाद तोशास्त्र करते हैं। कदेव-अदेवों की मान्यता मंत्र-तंत्र गन्डा ताबीज आदि देते हैं। जो लिखाये हैं और उसके बाद कुछ परिस्थितियाँ ऐसी बनी उसमें अपने आपको बचाने S असत्य है एकांत है अवस्तु है उसे सत्य कहते हैं, जिनेन्द्र के वचनों का लोपकर अर्थ के लिये यह मिथ्या मान्यता माननी पड़ी परन्तु अब तो ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है। का अनर्थ कर उपदेश करते हैं. वीतराग विज्ञानमयी धर्म को न तो वे स्वयं पालते सही सिद्धान्त अनुसार चलनाही विवेकवान का कर्तव्य है। इसके विपरीत जो गलत हैं.न दसरों को उस मार्ग पर ले जाते हैं वे कुगुरु पाषाण की नौका के समान हैं जो मार्ग पर चलता है उसको उसका परिणाम भोगना पड़ेगा। संसार में स्वयं डूबते और बैठने वालों को भी ले डूबते हैं। आगे अशुद्ध गुरू उपासना का स्वरूप बताते हैं R संसार में बहुत सी रागवर्द्धक हिंसा पोषक विपरीत मान्यतायें पूजा पाठ व्रत ग्रंथं राग संजुक्तं, कषायं च मयं सदा। आदि इन कुगुरुओं ने चला दिये हैं, जिसके द्वारा वे द्रव्य कमाने और अपनी पूजा सुद्ध तत्वं न जानते, ते कुगुरुं गुरू मानते ।। ३१२ ॥ 5 मान्यता कराने लगते हैं, अपने को साधुगुरु महन्त भट्टारक कहते हुए भी राजाओं से 8 अधिक भोग विलास करते हैं। भक्तों को नाना प्रकार का लौकिक लोभ दिखाकर मिथ्या माया प्रोक्तंच,असत्यं सत्य उच्यते। उनसे धन संग्रह करते हैं, पुण्य को धर्म कहते हैं, वीतराग विज्ञानमयी जैन मार्ग का जिन द्रोही वचन लोपंते, कुगुरुं दुर्गति भाजनं ॥३१३॥ खण्डन करते हैं। बाहरी व्यवहार पूजा पाठ कराने में लीन रहते हैं, कभी शुद्ध अन्वयार्थ- (ग्रंथं राग संजुक्तं) राग सहितधनधान्यादि परिग्रह में (कषायंच 5 आत्मीक तत्व का न स्वयं मनन करते हैं और न भक्तों को उपदेश देते हैं,मात्र मयं सदा) और क्रोधादि कषायों में सदा रहते हैं (सुद्धतत्वं नजानते) जो शुद्धात्मीक कपोल-कल्पित कथायें सुनाकर मन को रंजायमान करके अपनी मान्यता करते हैं तत्व को नहीं जानते (ते कुगुरुंगुरू मानते) वे कुगुरु होते हैं, जो उन्हें गुरु मानते हैं, ये कुगुरु ही हैं इनकी भक्ति मान्यता करना अशुद्ध गुरु उपासना है। यही अशुद्ध गुरु उपासना है। (मिथ्या माया प्रोक्तंच) वे कुगुरु मिथ्यात्व वमायाचार जो जैन भेषी होकर भी ईर्या समिति नहीं पालते,भाषा समिति नहीं पालते, से पूर्ण उपदेश देते हैं (असत्यं सत्य उच्यते) जो असत्य है उसे सत्य कहते हैं (जिन उद्दिष्ट भोजन करते हैं,शीत उष्ण नग्नादि परीषहों के जीतने में कायर हैं, न स्वयं १८१ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w श्री आचकाचार जी गाथा-३१४.३१६ c o m आत्मा का मनन करते हैं,न दूसरों को उपदेश देते हैं, मिथ्यात्व के पोषण अदेवादि विरोधन) हिंसा हो प्राणियों का घात हो (संजम सुद्ध न पस्यंते) जो शुद्ध संयम, की मान्यता पूजा में लगे रहते हैं तथा औरों को लगाते हैं ऐसे कुगुरुओं की सेवा उन आत्म संयम को नहीं देखतेजानते (ते संजम मिथ्या संजमं) वह व्यवहार से बाहर में कुगुरुओं का भी बिगाड़ करने वाली है व उनके पूजकों का भी बिगाड़ करने वाली है , संयम पालते हैं परन्तु वह सब मिथ्या संयम है। क्योंकि यह मूढ भक्ति संसार वर्द्धक है, जो इनकी मान्यता उपासना करते हैं वे विशेषार्थ- अशुद्ध संयम वह है जिससे जीवों की हिंसा, प्राणियों का घात संसार के पात्र बनते हैं। हो। संयमदो प्रकार का होता है- एक प्राणी संयम दूसरा इन्द्रिय संयम। पांचस्थावर, आगे अशुद्ध स्वाध्याय का स्वरूप बताते हैं 5 छठे त्रस इन छहकाय के जीवों का घात न हो, प्रमाद से या जान बूझकर कोई हिंसा अनेक पाठ पठनंते, वंदना श्रुत भावना। न हो वह प्राणी संयम है और पांच इन्द्रिय और मन को वश में करना इन्द्रिय संयम है। सुद्ध तत्वं न जानते,सामायिक मिथ्या मानते ।।३१४॥ हैं मूल में अपने आत्म स्वरूप की साधना करना, अपने स्वरूप की सुरत रखना ही अन्वयार्थ- (अनेक पाठ पठनंते) अनेक पाठों का पढ़ना (वंदना श्रुत भावना) शुद्ध संयम है परन्तु जिसे न प्राणी संयम हो और न आत्म संयम हो और अगर वह * व्यवहार से इन्द्रियों का संयम पालते हैं, कुछ त्याग वैराग्य करते हैं पर जिन्हें वंदना करना, शास्त्रानुसार भावना करना (सुद्ध तत्वं न जानते) परन्तु शुद्ध तत्व अपने आत्म स्वरूप को न जानना (सामायिक मिथ्या मानते) और सामायिक को अपना होश ही नहीं है वह सब मिथ्या संयम है। जैसे कोई रात्रि को न खावे, अभक्ष्य न खावे, कंदमूल न खावे, उपवास करे और भी अनेक प्रकार के नियम मिथ्या मानना यह अशुद्ध शास्त्र स्वाध्याय है। ८पाले परन्तु पापों से विषय-कषायों से विरत न हो, आरंभ परिग्रह करे, जीवों की विशेषार्थ- यहाँ तीसरे कर्म अशुद्ध स्वाध्याय का स्वरूप बताया जा रहा है। " दया न पाले और अपने आत्म स्वरूप का कोई श्रद्धान ज्ञान न हो, आत्म संयम का शास्त्र पढ़ने का नाम भी स्वाध्याय है तथा अपने आत्मस्वरूप का मनन अध्ययन ६ लक्ष्य ही न हो तो वह संयम मिथ्या, अशुद्ध संयम ही है। केवल कुछ पुण्य बंध का करना भी स्वाध्याय है परन्तु जो अनेक पाठों को पढ़े,शास्त्रों को पढ़े, तीर्थंकरों की में संसार का ही कारण है, मोक्ष का कारण नहीं है। वंदना करे, स्तुति करे, णमोकार मंत्र का जप करे,शास्त्र स्वाध्याय करने की भावना X आगे अशुद्ध तप का स्वरूप बताते हैंरखे परन्तु शुद्ध आत्मा का स्वरूप न जाने, न माने न अनुभव करे और सामायिक करने को मिथ्या माने, जो सामायिक प्रतिक्रमणादि करते हैं उनकी हंसी उड़ावे, असुख तप तप्तं च, तीव्र उपसर्ग सह। सामायिक के समय शास्त्र स्वाध्याय करे और शास्त्रों के पढ़ने मात्र से भला जाने, सुद्ध तत्वं न पस्यंते, मिथ्या माया तपं कृतं ।। ३१६॥ अपने को ज्ञानी माने, परिणामों में शान्ति और वैराग्य की भावना न होवे जिससे अन्वयार्थ- (असुद्ध तपतप्तंच) जो अशुद्ध तपतपते हैं अर्थात् व्रत उपवास ज्ञान का मद बढ़े, विषय-कषायों की पुष्टि करे, उसी रूप आचरण होवे ऐसा शास्त्र आदि करते हैं और (तीव्र उपसर्ग सह) तीव्र उपसर्ग सहते हैं अर्थात् कठिन से कठिन स्वाध्याय, अशुद्ध स्वाध्याय है जो संसार का ही कारण है। शास्त्र स्वाध्याय कर शरीर के कष्टों को सहन करते हैं परन्तु (सुद्ध तत्वं न पस्यंते) शुद्ध आत्म तत्व को पंडित बनकर आजीविका कमावे, जिनवाणी के नाम पर धन संग्रह करे, यह सब नहीं देखते जानते (मिथ्या माया तपं कृतं) मिथ्यात्व मायाचारी सहित तप करते हैं ० अशुद्ध स्वाध्याय का परिणाम है जो दुर्गति का पात्र बनाता है। 5वह मिथ्या तप है। आगे अशुद्ध संयम का स्वरूप बताते हैं विशेषार्थ- अशुद्ध तप वह है जहाँ शुद्ध तत्व आत्मा का ज्ञान व अनुभव न हो संजमं असुद्धं जेन, हिंसा जीव विरोधनं । किंतु नाना प्रकार से शरीर को कष्ट दिया जावे, क्षुधा-तृषा दंशमशकादि का परीषह संजम सुद्धन पस्यंते,ते संजम मिथ्या संजमं ॥३१५॥ तथा देव, मनुष्य, पशु व अचेतन कृत उपसर्ग सहन किये जावें। अनशन, ऊनोदर अन्वयार्थ- (संजमं असुद्धं जेन) अशुद्ध संयम वह है जिससे (हिंसा जीव मानी अ आदि बारह प्रकार के तप करे, नग्न रहे, शुद्ध आहार ग्रहण करे परन्तु यदि आत्म १८२ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-३१७.३१९ C OO0 ध्यान रूप अग्नि में तपनरूप तप न हो, आत्म स्वभाव की स्थिरता न हो, मिथ्यात्व ये षद् कर्म पालते, मिथ्या अन्यान दिस्टते। सहित मायाचारी हो, किसी प्रकार की सांसारिक कामना वासना हो.ऋद्धि सिद्धिका ते नरा मिथ्या दिस्टी च, संसारे भ्रमनं सदा ।। ३१८॥ अभिप्राय मान आदि कषाय सहित हो वह सब तप अशुद्ध तप है और संसार का ये षट् कर्म जानते, अनेय विभ्रम क्रीयते। कारण है। जो व्रत नियम धारण करे, शील पाले तथा तप करे परन्तु शुद्धात्मा के * अनुभव स्वरूप परमार्थ से शून्य हो तो वह आज्ञानी ही है। सम्यक्त्व रहित द्रव्यलिंगी मिथ्यात गुरू पस्यंते, दुर्गति भाजन ते नरा ।। ३१९॥ मुनि का तप अशुद्ध तप है, इसी बात को आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में कहते हैं अन्वयार्थ- (ये षट् कर्म पालंते) जो कोई इन अशुद्ध छह कर्मों को पालते हैं वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता। ८ (मिथ्या अन्यान दिस्टते) तथा मिथ्यात्व अज्ञान ही देखते रहते हैं (ते नरा मिथ्या परमट्ट बाहिरा जे णिव्वाण ते ण विदति ॥१५३॥ दिस्टीच) वे मनुष्य मिथ्यादृष्टि ही हैं (संसारे भ्रमनं सदा) और हमेशा संसार में ही व्रत और नियमों को धारण करते हुए भी तथा शील और तप करते हुए भी जो परिभ्रमण करेंगे। परमार्थ से बाह्य हैं अर्थात् परम पदार्थ रूप ज्ञान स्वरूप आत्मा का जिसको श्रद्धान (ये षट् कर्म जानते) जो इन अशुद्ध षट् कर्मों को जानते हैं (अनेय विभ्रम ज्ञान नहीं है वह निर्वाण को प्राप्त नहीं होते। क्रीयते) इसके बाद भी अनेक विभ्रम, मिथ्यात्व मायाचार करते हैं (मिथ्यात गुरू इसलिये जोतपशरीर कष्ट रूप है हिंसा रूप है व किसीमायाचार के अभिप्राय पस्यंते) वे मिथ्यात्वी कुगुरु देखे जाने जाते हैं (दुर्गति भाजन ते नरा) ऐसे मनुष्य को लिये हुए है, वह सब मिथ्या तप है। दुर्गति के पात्र होते हैं। आगे अशुद्ध दान का स्वरूप बताते हैं , विशेषार्थ- जो कोई कुदेव-अदेव की पूजा करते हैं, कुगुरु सेवा करते हैं, दानं असुद्धदानस्य,कुपात्रं दीयते सदा। मिथ्यात्ववर्द्धक शास्त्रों का पठन करते हैं, हिंसा कारक संयम पालते हैं, कायक्लेशादि व्रत भंगं कृतं मूढा, दानं संसार कारनं ॥ ३१७ ॥ ॐ आत्मज्ञान रहित तप करते हैं तथा कुपात्रों को दान देते हैं इस तरह इन छह अशुद्ध 3 कर्मों को पालते हैं वे मिथ्याज्ञानी मिथ्या श्रद्धानी मिथ्या फल ही पाते हैं, पाप ही अन्वयार्थ- (दानं असुद्धदानस्य) अशुद्ध दान वह है जो (कुपात्रं दीयते सदा) बांधते हैं वदुर्गति में जाकर कष्ट पाते हैं। वह हमेशा संसार में ही परिभ्रमण करते रहते हमेशा कुपात्रों को दिया जावे (व्रतभंगं कृतं मूढा) व्रत भंग करने वाले मूढों को (दानं 5 र हैं तथा जो इन अशुद्ध षटकर्मों को जानते हैं कि यह गलत है इसके बाद भी अनेक संसार कारनं) दान देना संसार का कारण है। विभ्रम मिथ्यात्व-मायाचार करते हैं, नाना प्रपंच फैलाते चमत्कार आदि बताते हैं, विशेषार्थ- अशुद्ध दान वह है,जो कुपात्रों को दिया जावे, जो लोग व्रत लेकर 5 धन-पुत्र आदि का लोभ बताते हैं, स्वर्गादि का सुख बताते हैं ऐसे मिथ्यात्व को फैलाने भंग करते हैं ऐसे मूढ मिथ्यादृष्टियों को दान देना संसार का कारण है, जिस दान से कारण है, जिस दानस वाले कुगुरु देखे जाते हैं, जो जीव इनके चक्कर में फँसते हैं वे सब दुर्गति के पात्र पाप, विषय-कषाय, मिथ्यात्व की वृद्धि व पुष्टि हो वह सब दान अशुद्ध दान है, ह. बनते हैं। जिससे दाता और पात्र दोनों को संसार में रुलना पड़ता है, श्रद्धा भक्ति से सत्पात्रों यहाँ कोई प्रश्न करे कि हम जो कुछ जानते-मानते हैं जो हमारी कुल परम्परा को ही दान देना चाहिये। 5 में मान्यतायें चली आ रही हैं और हम अपनी भक्ति भावना से अपने देवगुरु की पूजा 2 करुणाभाव से प्राणीमात्र को दान दिया जा सकता है जो पुण्य बंध का कारण भक्ति करते हैं,संयम आदि का पालन करते और दान देते हैं तो क्या यह सब क्रियायें है। विवेक पूर्वक आवश्यकतानुसार सत्पात्रों को उपयोगी वस्तु शुद्ध भावों सहित अशद्ध हैं. पापबन्ध और दुर्गति की कारण हैं तो फिर हम यह सब कुछ न करें, क्या दान में देना शुद्ध दान है। इसके विपरीत कषायाधीन दान देना अशुद्ध दान है जो सब बंद कर दें? संसार का ही कारण है। इसका समाधान करते हैं कि भाई! प्रत्येक सद्गृहस्थ को यह छह कर्म Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री श्रावकाचार जी गाथा-३२०-३२२ O N करना तो आवश्यक हैं इनको तो प्रतिदिन करना ही चाहिये परन्तु इनमें विवेक से को यह निश्चय हो जाता है कि उसका आत्मा वास्तव में शुद्ध है ध्रुव है, मात्र कर्म काम लेना आवश्यक है क्योंकि अनादि से प्रत्येक जीव के संसार परिभ्रमण का कलंक से मलिन हो रहा है, इस कर्ममल को धोने का उपाय निश्चय रत्नत्रय धर्म की कारण अपने स्वरूप का विस्मरण और यह मिथ्या मान्यतायें ही हैं, जिनके कारण साधना हाह, जहा अपन शुद्धात्मस्वरूपका श्रद्धान ज्ञान है, उसका ही आत्मानुभव चारगति चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ रहा है। * कहते हैं और ऐसे अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना करने को ही सम्यक्चारित्र मिथ्या मान्यता और कुगुरु कुदेव आदि का सेवन ही संसार का कारण है. कहते हैं जिससे समस्त रागादिदोष एवं कर्मों का क्षय होता है। श्री जिनेन्द्र भगवान संयम तप दानादि तो बाहरी अनुकूलता-प्रतिकूलता मिलाते हैं। पूर्व में हमने यह की कही हुई वे ही छह क्रियायें यथार्थ हैं जो शुद्धात्मा की तरफ ले जावें। जिन आगम शुभ कर्म किये होंगे इसलिये यह मनुष्य भव और सारे शुभ योग मिल गये परन्तु अब परम पूज्य आचार्य ऋषियों के द्वारा निर्मापित है, जिसका मूल स्रोत तीर्थंकर यदि सत्य वस्तु स्वरूप कोनजानें और ऐसे ही अज्ञान मिथ्यात्व सहित यह परम्परागत, केवलज्ञानी परमात्मा का उपदेश है। उस जिनवाणी में जिन शुद्ध षट्कर्मों के पालन मान्यतायें करते रहें तो इससे क्या लाभ होगा? पुनः संसार में ही भ्रमण करना करने की आज्ञा है उन्हें हर एक श्रद्धावान गृहस्थ श्रावक को पालना चाहिये। उनमें पड़ेगा; जबकि यह मनुष्य भव तो भव का अभाव करने, संसार के जन्म-मरण के यही अभिप्राय है कि राग-द्वेष, मोह जो बंध के कारण भाव हैं उनको दूर किया जावे चक्र से छूटने, मुक्ति को प्राप्त करने, आत्मा से परमात्मा बनने के लिये मिला है और वीतराग विज्ञान मय शुद्ध आत्मीक भाव को झलकाया जावे। जहाँ रंचमात्र भी इसमें हम धर्म के यथार्थ स्वरूप को समझें और हमारे शुद्ध षट्कर्म क्या हैं इन्हें समझें सांसारिक सुख की भावना न हो, ख्याति लाभ पूजादि की चाह न हो वहीं शुद्ध और उनका सही पालन करें तो हमारा यह मानव जीवन सफल होगा और तभी षटकर्म हैं। पद्मनंदि मुनि ने रत्नत्रय को मोक्षमार्ग कहकर शुद्ध षट्कर्म बताये हैंअपना आत्महित होगा। सम्यग्दृग्बोधचारित्र त्रितयं धर्म उच्यते। तो वह शुद्ध षट्कर्म क्या हैं, उनका स्वरूप क्या है, जिनका पालन करने से मुक्तेः पंथा स एव स्थान प्रमाण परिनिष्ठितः॥६-२॥ हमारा भला और मुक्ति की प्राप्ति होगी? ऐसा प्रश्न करने पर सदगुरू तारण स्वामी देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। शुद्ध षट्कर्म का स्वरूप जो जैनागम में जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है उसे बताते हैं - दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥६-७॥ शुद्ध षट् कर्म का स्वरूप प्रमाण से निश्चय किया गया सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र ही धर्म कहा गया है षट् कर्म सुद्ध उक्तं च, सुद्ध समय सुद्धं धुवं । र यही मोक्षमार्ग है इसलिये गृहस्थों को नित्यप्रति देवपूजा, गुरू भक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन छहकर्मों का पालन करना चाहिये। जिन उक्तं षद् कर्मच, केवलि दिस्टि संजुतं ॥ ३२०॥ यह शुद्ध षट्कर्म क्या हैं इनका संक्षेप में स्वरूप बताते हैं - अन्वयार्थ- (षट् कर्म सुद्ध उक्तं च) अब शुद्ध षट् कर्मों को कहा जाता है देव देवाधिदेवं च, गुरु ग्रंथं मुक्तं सदा। (सुद्ध समय सुद्धं धुवं) जिसमें अपना शुद्धात्म स्वरूप जो शुद्ध ध्रुव है उसका लक्ष्य रहे (जिन उक्तं षट् कर्मच) जिनवाणी में जो षटकर्मों का स्वरूप बताया है (केवलि स्वाध्याय सुद्धध्यायंते,संजर्म संजमं श्रुतं ॥ ३२१ ॥ दिस्टि संजुतं) जो केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा की परम्परा से जिनागम में प्रमाणित तपं च अप्प सद्भावं, दानं पात्रस्य चिंतनं । कहे गये हैं। षद् कर्म जिनं उक्तं, सार्थ सुख दिस्टितं ।। ३२२ ॥ विशेषार्थ- शुद्ध षट्कर्म वे ही हैं, जहाँ आत्मा की शुद्धता का अभिप्राय हो, अन्वयार्थ- (देव देवाधिदेवं च) देव, जो देवों के देव अरिहंत सिद्ध परमात्मा देवपूजादि प्रत्येक कार्य को करते हुए लक्ष्य परिणामों की शुद्धि का हो, शुद्धोपयोग हैं (गरुग्रंथं मक्तं सदा) गरु.जो समस्त पाप परिग्रह के बंधन से मुक्त हैं (स्वाध्याय की प्राप्ति का हो, अन्य कोई सांसारिक प्रयोजन जहाँ न हो। सम्यक्दृष्टि ज्ञानीजीव सुद्ध ध्यायते) स्वाध्याय , अपने शुद्धात्म स्वरूप को ध्याना (संजमं संजमं श्रुतं) १८४ catadine Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री बाचकाचार जी गाथा-३२३-३२५ CHO संयम,जिसमें प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम सहित अपने अपने स्वरूप की सुरत होना है,हमें भी देवत्वपद पाना है, जिससे इस संसार के चक्र जन्म-मरण से छूट। रहे। कर परमानन्द मय हो जायें, यही इष्ट प्रयोजनीय है; इसलिये देव के गुणों का (तपं च अप्प सद्भाव) तप,अपने स्वभाव में रहना (दानं पात्रस्य चिंतन) , आराधन करना और वैसे गुण अपने में प्रगट करना क्योंकि स्वभाव से हम भी दान,सत्पात्र को दान देने का सदैव प्रयास करना (षट् कर्म जिनं उक्तं) यह शुद्ध आत्मा-परमात्म स्वरूप हैं, अपने स्वरूप को भूलने के कारण संसारी बने हैं तथा षट्कर्म जिनेन्द्र के कहे अनुसार हैं (साधं सुद्ध दिस्टितं) इनकी साधना इनका पालन जैनागम जिन सिद्धांत जैन दर्शन में कोई परमात्मा किसी का कुछ भी करता नहीं है, शुद्ध दृष्टि करता है। जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, अपनी एक पर्याय दूसरी पर्याय का विशेषार्थ-शद्ध षटकर्म क्या हैं? इनका स्वरूप संक्षेप में बताया जा रहा कुछ नहीं कर सकती, ऐसा अपूर्व निर्णय जिनवाणी में आया है इसको स्वीकार करें है, विशद् वर्णन आगे गथाओं में करेंगे। यहाँ तो जो जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है. तभी सच्चे श्रावक सम्यक्दृष्टि हैं और सच्चे देव का स्वभाव और उनके गुणों का जैनागम का सार है वह वस्तु स्वरूप बताया जा रहा है -१. देव-जो देवों के 0 आराधन कर अपने में उन गुणों को प्रकट करना ही सच्ची देव पूजा है। पूजा पूज्य अधिपति इन्द्रों के भी देव हैं वह अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा जो वीतरागी हितोपदेशी समाचरेत् पूज्य के समान आचरण करना ही पूजा है। कोई रूप आदि बनाकर हैं, उनके समान ही जो आत्मा का शुद्ध स्वरूप है ऐसा निज शुद्धात्म तत्व ही सच्चा किसी कामना को लेकर किसी प्रकार का आडंबर पूजा आदि करना तो जैन धर्म में देव है जो इष्ट और पूज्यनीय है। २.गुरु-जो समस्त पाप-परिग्रह के बन्धनों से मिथ्यात्व कहा है। मुक्त अपनी आत्म साधना में लीन रहते हैं ऐसे निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी साधु ही सच्चे देव का स्वरूप क्या है और उनके वह कौन से गुण हैं जो हम अपने में सच्चे गुरु हैं जिनकी भक्ति और सत्संग करना चाहिये। ३. स्वाध्याय-सत्शास्त्रों, प्रगट कर देवत्व पद पा सकते हैं, आत्मा से परमात्मा बन सकते हैं? ऐसा प्रश्न करने को पढ़ते हुए अपने शुद्ध स्वरूप को ध्याना, अपना अध्ययन करना ही शद्ध स्वाध्याय पर श्री जिन तारण स्वामी, देव का स्वरूप और उनके वह गुण जो प्रत्येक जीव है। ४. संयम-बाह्य में प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम होते हुए अपने आत्म स्वरूप आत्मा में हैं जिन्हें प्रगट कर प्रत्येक आत्मा-परमात्मा बन सकता है, इसका विस्तृत की सुरत रखना, आत्म संयम ही शुद्ध संयम है। ५. तप-अपने आत्म स्वभाव में & विवेचन गाथा ३२३ से ३६६ तक करते हैं, जिसमें ७५ गुणों का वर्णन है। रहना ही तप है, बाह्य में इच्छाओं का निरोध करना और अपने स्वरूप में रत रहना देवका स्वरूपशुद्ध तप है। ६.दान - सत्पात्रों को दान देना,अपनी कषायों को गलाना, धर्म देवं च जिनं उक्त, न्यान मयं अप्प सद्भाव। प्रभावना में द्रव्य का सदुपयोग करना सच्चादान है, जो अव्रत सम्यकद्रष्टि को निरन्तर नंत चतुस्टय जुत्तो, चौदस प्रान संजदो होई ॥ ३२३॥ करना चाहिये। यह छह आवश्यक कर्म गृहस्थ श्रावक को अपने आत्मस्वरूप की देवो परमिस्टी मइयो, लोकालोक लोकितं जेन । साधना में आगे बढ़ाने में सहयोगी कारण हैं। इस प्रकार इन षट्कर्मों को जैनागम में 3 जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है। इनकेसाथशुद्धसम्यकदर्शनका होना अत्यन्त आवशयक परमप्पा ज्ञानं मइयो, तं अप्पा देह मज्झंमि ॥ ३२४॥ है। सम्यक्त्व सहित यह षट्कर्म गृहस्थ श्रावक को परम्परा से मोक्ष के कारण हैं व देह देवलि देवं च, उवइ8ो जिनबरेदेहि। ९ उसीभव से स्वर्ग गति के देने वाले हैं। शुद्धात्मा की भावना सहित ही यह षट्कर्म एक परमिस्टी च संजुत्तो, पूजं च सुद्ध संमत्तं ॥ ३२५॥ 9 जिनभक्त के लिये आवश्यक हैं इससे ही परम कल्याण है। अन्वयार्थ- (देवं च जिनं उक्तं) जिनवाणी में देव उसको कहा है जो (न्यान यहाँ कोई प्रश्न करता है कि वर्तमान में अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा हैं ही नहीं, मयं अप्प सद्भावं) ज्ञानमयी अपने आत्म स्वभाव में लीन हो (नंत चतुस्टय जुत्तो) सिद्ध परमात्मा सिद्धालय में विराजमान हैं फिर उनकी पूजा भक्ति कैसे करें? अनन्तदर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य इनचार अनंतचतुष्टय सहित इसका समाधान करते हैं कि देवपूजा करने का अभिप्राय, वैसे ही अपने को । हो तथा (चौदस प्रान संजदो होई) चौदह प्राणों सहित है। १५ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cro श्री आचकाचार जी गाथा-३२३-३२५ SO0 (देवो परमिस्टी मइयो) देव जो परमेष्ठीमयी परमपद में स्थित हैं (लोकालोक इसी देह देवालय में स्थित देव की सम्यक्दृष्टि पूजा करता है। शरीर के भीतर यदि लोकितंजेन)जो लोकालोक के स्वरूप को देखते जानते हैं (परमप्पा ज्ञानंमइयो) जो शुद्ध द्रव्य दृष्टि से देखा जावे तो आत्मा आत्मारूप सिद्ध सम शुद्ध विराजमान है, ज्ञानमयी परमात्मा हैं (तं अप्पा देह मज्झंमि) वही आत्मा इस देह में विराजमान है। , उसको जब परमात्मा के समान देखा जाता है, तो वही पूज्यनीय देव दिखलाई (देह देवलि देवंच) इस देह देवालय में आत्मा ही देव है (उवइटठो जिनबरेंदेहि)* पड़ता है। तब उस देव स्वरूप आत्मा के तिष्ठने का मंदिर यह शरीर ही हुआ; इस सत्य को जिनेन्द्र देव ने उपदिष्ट किया, बताया है (परमिस्टी च संजुत्तो) वही अतएव निश्चल मन से अपने शरीर को देवस्थान मानो और अपने आत्मा को परमात्मा पंचपरमेष्ठी के गुणों सहित है (पूर्जच सुद्ध संमत्तं) और उसकी पूजा ही शुद्ध सम्यक्त्व मानो तथा उपयोग को उसी में स्थिर करो अर्थात् उसी का एकाग्रता से अनुभव करो। है जो सम्यक्दृष्टि करता है। अपने ही आत्मा का स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा अनुभव करना यही शुद्ध सम्यक्दर्शन विशेषार्थ- यहाँ सच्चे देव के स्वरूप को बताया जा रहा है, जो निश्चय का अनुभव ही सिद्ध पूजा व सच्ची देव पूजा है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। व्यवहार के समन्वय पूर्वक है, जिनवाणी में देव उसको कहा है, जो आत्मा अपने इसी बात को पं. द्यानतराय जी ने कहा है - ज्ञान स्वभाव में स्थित हो, जो अनन्त चतुष्टय (अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत * निज घट में परमात्मा, चिन्मूरति भय्या। सुख, अनंत वीर्य) इन चार चतुष्टय सहित हो तथा चौदह प्राणों से संयुक्त हो अर्थात् ताहि विलोकि सदष्टिधर,पंडित परखैय्या॥ जिसके पाँच इन्द्रिय,तीन बल (मन-वचन-काय) श्वासोच्छ्वास और आयुयह दस जो शुद्धात्मानुभवी हैं वे ही सच्चे निज आत्मदेव के आराधक हैं, वे ही यथार्थ प्राण जो शरीर के कारण होते हैं तथा सुख,सत्ता, बोध,चेतना जो आत्मा के निज गुण ८. २ उपासक हैं। व्यवहारनय से अरिहंत, सिद्ध के गुणों का स्तवन भी इसी हेतु से किया हैं, इन सहित हैं, वही परमात्मा देव हैं। जो अरिहंत परमात्मा अपने स्वरूप में तिष्ठते। जाता है कि निज आत्मा में परिणति थमे। जब उपयोग सर्व विकल्पों को तजकर हुए लोकालोक के स्वरूप को जानते हैं अर्थात् जिनके ज्ञान में तीन लोक, तीन काल त जिनके ज्ञान में तीन लोक तीन काल आत्मस्थ होता है, तब ही सच्ची देवपूजा है यही वास्वतिक मोक्षमार्ग है। के समस्त द्रव्य और उनकी पर्याय झलकती हैं- ऐसा केवलज्ञानमयी परमात्मा, इस इसी बात को आचार्य योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते हैंदेह के मध्य में स्थित आत्मा है। अरिहंत देव जो शरीर सहित परमात्मा हैं तथा सिद्ध.3 जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि णिवसइदेउ। जो अशरीरी अपने ज्ञान स्वभाव में हैं, आठ कर्मों से रहित ज्ञानाकार परमात्मा हैं, तेहउ णिवसइबंभु परु देहह में करि भेउ ॥२६॥ जिनके ज्ञान में लोकालोक दर्पण में प्रतिबिम्ब की तरह झलक रहा है। वे सर्व रागादि जैसा निर्मल ज्ञानमयी परमात्मा मुक्ति में निवास करता है, वैसा ही आत्मा दोष, आठ कर्म मल व शरीरादि से रहित केवल आत्मा मात्र ही हैं। ऐसा ही अरिहंत परमात्मा इस देह में जान। जो देह रूपी देवालय में रहता है वही शुद्ध निश्चय नय से और सिद्ध के समान ममल स्वभाव का धारी इस शरीर के भीतर आत्मा है जो 5 परमात्मा है। निश्चयनय से स्वयं परमात्मा है, इस आत्मा में और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं देहा देवलि जो वसइ देउ अणाइ अर्णतु। है। दोनों के गुण और स्वभाव समान हैं। जो अपने आत्मा को भेदविज्ञान के द्वारा सर्व केवल णाण फुरंत तणु सो परमप्पु णिभंतु ॥३३॥ अनात्म पदार्थों से निराला व सर्व कर्म जनित विकारी भावों से भिन्न अनुभव करता जो व्यवहार नय कर देह रूपी देवालय में बसता है, निश्चय नय कर देह से है, वही देव के स्वरूप को जानता है। इस शरीर रूपी मन्दिर में आत्मा रूपी देव है 5 भिन्न है, देह की तरह मूर्तीक तथा अशुचिमय नहीं है. महा पवित्र है. आराधने योग्य ऐसा जिनेन्द्रों ने कहा है, जो परमेष्ठी के गुणों सहित है, ऐसे निजशुद्धात्म स्वरूप की। है, पूज्य है। देह आराधने योग्य नहीं है, जो परमात्मा अनादि अनंत है, केवलज्ञान साधना-आराधना सम्यकदृष्टि करता है, यही सच्ची देवपूजा है। स्वरूप है, वही आत्मा परमात्मा है ऐसा नि:संदेह जान। इस देह देवालय में अपना शुद्धात्म स्वरूप ही अपना सच्चा देव विराजमान देहे वसंतु विणवि छिवाइ णियमें देहु वि जो जि। है, जिसके दर्शन ज्ञान और उसी मय स्थित होने से सिद्ध परम पद प्रगट होता है, दे छिप्पइजो वि णवि मुणि परमप्पउ सो जि॥३४॥ १८६ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री बाचकाचार जी गाथा-३६ जो देह में रहता हुआ भी निश्चय नय कर शरीर को स्पर्श नहीं करता है. देह हमारा नमस्कार हो, नमस्कार हो। से वह भी नहीं छुआ जाता, उसी को परमात्मा जान अर्थात् अपना स्वरूप ही इसी बात को अध्यात्म आराधना में ब. बसन्त जी ने कहा है - परमात्मा है। आगे योगसार ग्रंथ में जैन सिद्धांत का सार दिखाते हैं है देव निज शुखात्मा,जो बस रहा इस देह में। जो जिणु सो अप्पा मुणहु इहु सिद्धंतहँ सारु । मन्दिर मठों में वह कभी, मिलता नहींपर गेह में। इउ जाणे विण जोइयहो उह मायाचार ॥२१॥ जिनवर प्रभु कहते स्वयं, निज आत्मा ही देव है। जो जिन भगवान हैं वही आत्मा है, यही सिद्धांत का सार है, इसे समझकर हे जो है अनन्त चतुष्टयी, आनंद घन स्वयमेव है॥१॥ योगीजनो! मायाचार को छोड़ो। जैसे प्रभु अरिहन्त अरु सब, सिद्ध नितहीशद्ध हैं। जो परमप्या सो जिहउँ जो हउँसो परमप्यु। वैसे स्वयं शुखात्मा, चैतन्य मय सुविशुख है। इउ जाणेविणु जोइया अण्णु म करहु वियप्पु ॥२२॥ दिव्य ध्वनि में पुष्प विखरे,देव निज शुखात्मा। जो परमात्मा है वही मैं हूँ तथा जो मैं हूँ वही परमात्मा है, यह समझकर हे यह शुद्ध ज्ञान विज्ञान धारी, आत्मा परमात्मा ।।२।। योगीजनो ! अन्य कुछ भी विकल्प मत करो। सतदेव परमेष्ठी मयी, जिसका कि ज्ञान महान है। सुद्ध सचेयणु बुद्ध जिणु केवल णाण सहाउ। जिसमें मलकता है स्वयं, यह आत्मा भगवान है। सो अप्पा अणुविणु मुणहु जइचाहा सिव लाहु॥२६॥ ऐसा परम परमात्मा, निश्चय निजातम रूप है। यदि मोक्ष पाने की इच्छा करते हो तो निरन्तर ही आत्मा को शुद्ध जिन सचेतन जो देह देवालय बसा, शुखात्मा चिद्रप है॥३॥ बुद्ध और केवलज्ञान स्वभाव मय समझो। जो शुद्ध समकित से हुए, वे करें पूजा देवकी। मूढा वेवलि देउ णविणवि सिलि लिप्पाइपित्ति। पर से हटाकर दृष्टि, अनुभूति करें स्वयमेव की॥ देहा देवलि देउ जिणु सो बुज्झहि सम चित्ति॥४४॥ निज आत्मा का अनुभवन, परमार्थ पूजा है यही। हे मूढ ! देव किसी देवालय में विराजमान नहीं है, इसी तरह किसी पत्थर, लेप जिनराज शासन में इसे, कल्याणकारी है कही॥४॥ अथवा चित्र में भी देव विराजमान नहीं है, जिनदेव तो देह देवालय में रहते हैं, इस इस प्रकार सच्चे देव के स्वरूप को निश्चय- व्यवहार से बताते हुए उस बात को तू समचित्त से समझ। देवत्व पद को पाने के लिये उन गुणों का आराधन करना, जिनके द्वारा अनन्त आत्मा अप्प सरूवह जो रमइ छंडिवि सहु ववहारु । . परमात्मा हए हैं, हो रहे हैं और होंगे, यही सच्ची देवपूजा है। सो सम्माइड्डी हवा लह पावइ भव पारु॥८९॥ वह गुण कौन से हैं और क्या हैं? यह प्रश्न करने पर सद्गुरू तारण स्वामी जो सर्व व्यवहार को छोड़कर आत्मस्वरूप में रमण करता है, वह सम्यकदृष्टि उन गुणों का वर्णन करते हैं, जो निम्न प्रकार हैं-१.पाँच परमेष्ठी पद, २. रत्नत्रय, जीव है और वह शीघ्र ही संसार से पार हो जाता है। ३.सोलहकारण भावना, ४. सिद्ध के आठ गुण,५. धर्म के दश लक्षण,६.दर्शन के इसी बात को श्री कुन्दकुन्दाचार्य मोक्षपाहुड में कहते हैं 5 आठ अंग,७. ज्ञान के आठ अंग, ८. चार अनुयोगों का ज्ञान,९. तेरह प्रकार का , णाणमयं अप्पाणं उवलद्धं जेण झड़िय कम्मेण। चारित्र इस प्रकार पचहत्तर गुणों का वर्णन किया है, जिनका आराधन करने से देवत्व पाऊण य पर दव्यं णमो णमो तस्स देवस्स ॥१॥ पद प्राप्त होता है, यही सच्ची देवपूजा है जो सम्यक्दृष्टि करता है। पर द्रव्य को त्यागकर जिसने अपने ज्ञानमयी आत्मा को जान लिया प्राप्त कर देवं गुनं विसुद्धं, अरहंतं सिद्ध आचार्य जेन । १ लिया, जिससे सारे कर्म क्षय होते हैं, जो सब पर द्रव्यों से भिन्न है ऐसे आत्मदेव को उवज्झाय साधु गुर्न, पंच गुनं पंच परमिस्टी॥३२६॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 श्री आवकाचार जी अरहंतं हियंकारं, न्यान मयी तिलोय भुवनस्य । नंत चतुस्टय सहियं, हियंकारं जानि अरहंतं ॥ ३२७ ।। सिद्धं सिद्ध धुवं चिंते, उवंकारं च विंदते । मुक्तिं च ऊर्ध सद्भावं, ऊर्धं च सास्वतं पदं ।। ३२८ ।। आचार्य आचरनं सुद्धं, तिअर्थ सुद्ध भावना । सर्वन्यं सुद्ध ध्यानस्य, मिथ्या तिक्तं त्रि भेदयं ॥ ३२९ ॥ उपाय देव उपयोगं जेन, उपाय लष्यनं धुवं । अंग पूर्व उक्तं च सार्धं न्यान मयं धुवं ।। ३३० ।। साधुच सर्व सार्धं च, लोकालोकं च सुद्धये । रत्नत्रयं मयं सुद्धं, ति अर्थ साधु जो इतं ।। ३३१ ।। देवं पंच गुनं सुद्धं, पदवी पंचामि संजुदो सुद्धो । देवं जिन पण्णत्तं, साधु सुद्ध दिस्टि समयेन ॥ ३३२ ॥ अन्वयार्थ - (देवं गुनं विसुद्धं) देवत्व पद पाने के विशुद्ध गुण (अरहंतं सिद्ध आचार्यं जेन) जो अरिहन्त सिद्ध आचार्य (उवज्झाय साधु गुनं) उपाध्याय और साधु के गुण (पंच गुनं पंच परमिस्टी) यह पाँच गुणों का आराधन ही परम इष्ट है, यह देव के पाँच गुण परमेष्ठी पद कहलाते हैं। यही पाँच पद परम इष्ट हैं जिनसे देवत्व पद मिलता है। (अरहंतं ह्रियंकार) अरिहंत तीर्थंकर केवलज्ञानी को कहते हैं, ह्रीं में चौबीस तीर्थंकर गर्भित हैं (न्यान मयी तिलोय भुवनस्य) जिनके ज्ञान में तीन लोक झलकते हैं (नंत चतुस्टय सहियं) जो अनंत चतुष्टय सहित हैं (हियंकारं जानि अरहंतं) ऐसे तीर्थंकर केवलज्ञानी परमात्माओं को अरिहंत जानो । YA YA YESU AA YES. गाथा- ३२६-३३२ भावना) रत्नत्रय स्वरूप की शुद्ध भावना करते हैं (सर्वन्यं सुद्ध ध्यानस्य) सर्वज्ञ स्वरूप केवलज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव का ध्यान करते हैं (मिथ्या तिक्तं त्रि भेदयं) तीनों प्रकार के मिथ्यात्व से रहित हैं। (सिद्धं सिद्ध धुवं चिंते) सिद्ध को ऐसा विचारे कि वे सिद्ध हैं ध्रुव हैं (उवंकारं च 5 विंदते) जो अपने ब्रह्म स्वरूप में लीन परमानंद का पान करते हैं (मुक्तिं च ऊर्ध सद्भावं) जो मुक्ति में तीन लोक के ऊपर अग्र भाग में विराजमान हैं (ऊर्ध च सास्वतं पदं) और जो श्रेष्ठ शाश्वत पद के धारी हैं। (आचार्यं आचरनं सुद्धं ) आचार्य वह हैं जिनका आचरण शुद्ध है (तिअर्थं सुद्ध ७ (उपाय देव उपयोगं जेन) उपाध्याय जो ज्ञानोपयोग में रत रहते हैं (उपाय लष्यनं धुवं) उपयोग ही जीव का लक्षण है (अंग पूर्व उक्तं च ) जो ग्यारह अंग चौदह पूर्व को कहते हैं (सार्धं न्यान मयं धुवं) और अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की साधना र रहते हैं। (साधुस्च सर्व सार्धं च) साधु जो सब प्रकार की साधना करते हैं (लोकालोकं च सुद्धये) और लोकालोक के स्वरूप को जानते हैं (रत्नत्रयं मयं सुद्धं) अपने रत्नत्रयरूपी शुद्ध स्वभाव को साधते हैं (ति अर्थं साधु जोइतं) द्रव्य, गुण, पर्याय सहित अपने स्वरूप को देखते जानते हैं। (देवं पंच गुनं सुद्धं) देव इन पांच गुणों से शुद्ध होते हैं (पदवी पंचामि संजुदो सुद्धो ) पाँचवीं पदवी पर पहुँचने पर परिपूर्ण शुद्ध होते हैं और अपने स्वभाव मय रहते हैं (देवं जिन पण्णत्तं) यह जिन प्रणीत देव हैं, इनको ही जैनदर्शन में देव कहा गया है (साधु सुद्ध दिस्टि समयेन) जो सम्यक्दृष्टि से साधु बनकर अपने समय पर सिद्ध होते हैं। विशेषार्थ यहाँ सच्ची देवपूजा में सबसे पहले पंच परमेष्ठी के गुणों का आराधन किया गया है, इन पदों की साधना कर इस रूप होना ही सच्ची देवपूजा है। जैसे वर्तमान में किसी को प्रधानमंत्री पद इष्ट है, तो वह उस रूप प्रयास पुरुषार्थ करता है और स्वयं उस रूप होता है तभी उसकी इष्टता सार्थक है, प्रधानमंत्री की कुर्सी या प्रधानमंत्री की कोई पूजा नमस्कार करे तो उसे क्या मिलेगा ? क्या वह प्रधानमंत्री बन सकता है ? नहीं। इसी प्रकार जिसे देव पद इष्ट है अर्थात् जो अनादिकालीन संसार के जन्म-मरण के चक्र से छूटना चाहता है, शाश्वत सुख परमानंद मय होना चाहता है, उसे उस रूप प्रयास पुरुषार्थ करना आवश्यक है क्योंकि यह अरिहंत और सिद्ध परमात्मा इसके प्रमाण हैं कि यह भी संसार में हमारी तरह ही जन्म-मरण के चक्र में फँसे थे, कर्मों से बंधे थे, इन्होंने भी धर्म के सत्य स्वरूप को समझा, धर्म साधना कर मुक्तिमार्ग पर चले तो आत्मा से परमात्मा बन गये। इसी तरह हम भी इस मार्ग पर चलें, इन गुणों को अपने में प्रगट करें तो हम भी आत्मा से परमात्मा अरिहंत • सिद्ध हो सकते हैं। इस बात को बताने वाले हमारे मार्गदर्शक साक्षात् प्रमाण हैं, १८८ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-३२६-३३२ Oo अब हम उनके अनुसार न चलें,उन गुणों को अपने में प्रगट न करें और उनकी पूजा गुणस्थान तक सर्व मुनि साधु होते हैं। यही साधु तेरहवेंगुणस्थान में जाकर अरहंत वन्दना भक्ति करें, तो इससे कोई लाभ होने वाला नहीं है; क्योंकि जैनदर्शन तो द्रव्य केवली हो जाते हैं। साधु नित्य आत्मध्यान में वैराग्य की भावना में तथा बारह प्रकार की स्वतंत्रता की घोषणा करता है, यहाँ परवलम्बता पराधीनता तो है ही नहीं। के तप के साधन में लगे रहते हैं, कठिन से कठिन तपस्या करते हैं,उपसर्ग परीषह जैनदर्शन में कोई परमात्मा जगत का नियन्ता सुख-दुःख दाता कल्याण कर्ता नहीं सहते हैं, एकांतवास कर धर्म ध्यान की शक्ति बढ़ाते हैं, फिर उपशम श्रेणीया क्षपक है, प्रत्येक जीव अपने में स्वतंत्र है। स्वयं के पुरुषार्थ से जो चाहे कर सकता है, जैसा श्रेणी पर शक्ति के अनुसार आरूढ़ होते हैं, कर्मों के क्षय का निरन्तर उद्यम करते चाहे बन सकता है इसमें किसी का हस्तक्षेप नहीं है। रहते हैं। समस्त परिग्रहों के बंधनों से मुक्त होते हैं वही निर्ग्रन्थ वीतरागी मुनि साधु जो अव्रत सम्यक्दृष्टि हैं वह शुद्ध षट्कर्म में देवपूजा अर्थात् पूजा पूज्य कहलाते हैं। समाचरेत् पूज्य के समान आचरण ही सच्ची पूजा है, जो निश्चय-व्यवहार से । २. उपाध्याय पद- जो साधु निरन्तर ज्ञानोपयोग में लगे रहते हैं, पठन शाश्वत है, ऐसी देवपूजा अर्थात् उनके गुणों का आराधन और किस प्रकार वह देव पाठन में दत्त चित्त हैं, द्वादशांग वाणी को भले प्रकार जानकर दूसरों को पढ़ाते हैं बने, उसका सारा विधि-विधान समझकर उस मार्ग पर चलने का पुरुषार्थ करता तथा जिनवाणी का सार जो शुद्धात्म तत्व है उसको भी बताते हैं, यह उपाध्याय पद है। परमेष्ठी के गुणों का आराधन करता है, यह पाँच परम इष्ट पद-अरिहंत, सिद्ध, का स्वरूप है। द्वादशांग (बारह अंगों का) जिनवाणी का स्वरूप संक्षेप में इस आचार्य, उपाध्याय,साधु पद हैं,जो जीव को संसार से उठाकर आत्मा से परमात्मा प्रकार हैबनाते हैं। सर्वप्रथम भेदज्ञान पूर्वक स्व-पर का यथार्थ निर्णय करना और अपने १.आचारांग-इसमें मुनियों का आचरण बताया है। शुद्धात्म स्वरूप की प्रतीति अनुभूति होना,यही सम्यकदर्शन आवश्यक है। जिसे २.सूत्रकृतांग-इसमें सूत्ररूपसंक्षेप में ज्ञान का, विनय आदिधर्म क्रिया का वर्णन है। भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती है, वह सम्यकद्रष्टि कहलाता है और ३.स्थानांग-इसमें नय अपेक्षा स्थानों का कथन है। वर्तमान में कर्म संयोग पाप-परिग्रह में रहने से अव्रती कहलाता है; परंतु जिसे संसार ४४. व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग-इसमें गणधर के साठ हजार प्रश्नों के उत्तर हैं। भय और दु:ख रूपलगने लगा है, जो इससे छूटने के लिये छटपटा रहा है। वह मार्ग ६.ज्ञातृधर्मकथांग-इसमें त्रेसठशलाका पुरुषों के धर्म की कथा है। की खोज करता है और उस मार्ग पर चलने का पुरुषार्थ करता है। ७. उपासकाध्ययन- इसमें श्रावकों की ग्यारह प्रतिमा,क्रिया मंत्रादि का वर्णन है। जब वह समस्त आरम्भ-परिग्रह, पाप, विषयादि को छोड़ देता है, महाव्रती२८.अंत:कृतदशांग - इसमें हर एक तीर्थंकर के समय दश-दश मुनि घोर उपसर्ग बनता है, अन्तर में अपने आत्मस्वरूप शुद्धात्मा की साधना करता है, अट्ठाईस सहकर मोक्ष गये, उनका कथन है। मूलगुणों का पालन करता है, निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी होता है यही साधु पद है। ९. अनुत्तरोपपादिक दशांग - इसमें हर एक तीर्थंकर के समय में दशमुनि उपसर्ग व्रत,तप,संयम यह सब मनुष्य की वैषयिक प्रवृत्ति को नियन्त्रित करने के लिये हैं, सहकर समधिमरण करके विजयादिक अनुत्तरों में जन्मे उनका कथन है। इनके बिना आत्म साधना सम्भव नहीं है, जबकि आत्म साधना करने का नाम ही १०.प्रश्न व्याकरणांग-इसमें अतीत,अनागत, वर्तमान काल संबंधी लाभ-अलाभ साधुता है। जैनधर्म के उपदेष्टा या प्रवर्तक सभी तीर्थकर संसार त्यागी तपस्वी वीतरागी आदि प्रश्नों के उत्तर, कहने की विधि तथा चार प्रकार की कथाओं का वर्णन है। थे, उनके द्वारा धर्म के दो मुख्य भेद बताये गये हैं, मुनिधर्म और श्रावक धर्म। चार प्रकार की कथा-१.आक्षेपिणी-धर्म में दृढ़ करने वाली कथा।। मुनिधर्म ही उत्सर्ग धर्म माना गया है, मुनिधर्म के बिना मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती। २.विक्षेपिणी- एकांत मत का खंडन करने वाली कथा। ३. संवेजिनी-धर्मानुराग' १.साधुपद-साधु पद की मुख्यता मोक्ष की सिद्धि करने में है। वे निरन्तर कराने वाली कथा।४.निवेजिनी-संसार शरीर भोगों से वैराग्य कराने वाली कथा।X व्यवहार रत्नत्रय के द्वारा निश्चय रत्नत्रयमयी निज शुद्धात्मा की साधना करते हैं। ११.विपाक सूत्रांग-इसमें कर्मों के उदय,बंध,सत्ता आदि का वर्णन है। उनका ध्येय केवलज्ञान प्राप्ति है,छठे गुणस्थान प्रमत्तविरत से बारहवें क्षीणमोह १२. दृष्टि प्रवादांग-इसके पाँच अधिकार हैं-१.परिकर्म,२. सूत्र, ३. प्रथमानुयोग, Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री श्रावकाचार जी गाथा-३२६-३३२ Oo ४. पूर्वगत,५.चूलिका। पढ़ाना है। १.परिकर्म- इसमें गणित आदि के सूत्र हैं,चंद्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति,जंबूद्वीप ३.आचार्य पद-जो निर्ग्रन्थ पाँच महाव्रत, पाँच समिति व तीन गुप्ति ऐसे प्रज्ञप्ति, द्वीप सागर प्रज्ञप्ति, व्याख्या प्रज्ञप्ति आदि सहित इसमें जीवादि पदार्थों का , १३ प्रकार चारित्रका तथा दर्शनाचार,ज्ञानाचार, चारित्राचार,तपाचार और वीर्याचार भी स्वरूप है। * इन पाँच प्रकार आचार का निर्दोष पालन स्वयं करते हैं व दूसरों से पालन कराते हैं। २. सूत्र- इसमें क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद,विनयवाद मतों के ३६३१ जो सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्रमयी निजशुद्धात्म तत्व का अनुभव शुद्धोपयोग रूप भेदों का वर्णन है। करते हैं क्योंकि शुद्धोपयोग में ही निश्चय रत्नत्रय का लाभ होता है तथा वीतरागता ३.प्रथमानुयोग- इसमें त्रेषठ शलाका पुरुषों का जीवन चरित्र है। होती है। आचार्य महाराज के प्रमत्त व अप्रमत्त दो गणस्थान ही होते हैं। जब ध्यान ४.पूर्वगत-इसके चौदह भेद हैं,जो चौदह पूर्व कहलाते हैं। चौदह पूर्व का मग्न निश्चल होते हैं तब सांतवां और जब दीक्षा-शिक्षा, आहार-विहार कार्यों में संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है निरत होते हैं तब छठा प्रमत्त गुणस्थान होता है, इन दोनों का काल अन्तर्मुहूर्त से १. उत्पाद पूर्व-पदार्थों का उत्पाद व्यय ध्रौव्य कथन है। अधिक नहीं है इसलिये उन आचार्यों का आत्मा पुन:-पुन: ध्यानमग्न होता हुआ २. अग्रायणीय पूर्व- इसमें ७०० सुनय-कुनय व सात तत्वादि का वर्णन है। आत्मानंद का विलास करता रहता है। वे वचन व काय से बाहरी कार्य को करते हुए ३. वीर्यानुवाद पूर्व-इसमें जीवादि के क्षेत्र,काल,भाव, तप तथा छह द्रव्यों की शक्ति भीमन से आत्म कार्य में लवलीन रहते हैं, जो क्षायिक सम्यक्त्वीया उपशम सम्यक्त्वी रूप वीर्यादि का कथन है। होते हैं, ऐसे परममुनि वीतरागी परमोपकारी आचार्य पद में होते हैं। ४. अस्तिनास्ति पूर्व-इसमें अस्ति-नास्ति आदि सात भंगों का स्वरूप है। र ४. अरिहंत पद-जो भव्य आत्मा साधु पद से शुद्धोपयोग की साधना द्वारा ५.ज्ञान प्रवाद पूर्व- इसमें आठ प्रकार के ज्ञान का वर्णन है। श्रेणी मांडते हैं अर्थात निर्विकल्प ध्यान समाधि में लीन होते हैं उन्हें अड़तालीस ६.आत्मप्रवाद पूर्व-इसमें आत्मा के स्वरूप की महिमा का कथन है। 5 मिनिट (एक मुहूर्त) में केवलज्ञान प्रगट हो जाता है, केवलज्ञान होते ही अनन्त ७. सत्यप्रवाद पूर्व-इसमें दस प्रकार भेद रूप सत्य आदि का वर्णन है। चतुष्टय (अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान,अनन्त सुख, अनन्त वीर्य) प्रगट हो जाता ८.कर्म प्रवाद पूर्व-इसमें कर्मों के बंध आदि का विशद् विश्लेषण है। है। उनके ज्ञान में तीनकाल, तीन लोक के समस्त पदार्थ झलकने लगते हैं और वह ९. प्रत्याख्यान पूर्व-इसमें त्याग के विधान का वर्णन है। 2 आत्म स्वरूप परमानंद में निमग्न रहते हैं, उन्हें ही सर्वज्ञ परमात्मा, केवलज्ञानी, १०. विद्यानुवाद पूर्व-इसमें ७०० अल्प विद्या, ५०० महा विद्या साधने के अरिहंत तीर्थंकर कहते हैं। तीर्थंकर के समवशरण होते हैं, दिव्यध्वनि खिरती है जो मंत्र-यंत्र और अष्टांग निमित्त ज्ञान का कथन है। ९. जगत के समस्त जीवों को धर्म का सत्य स्वरूप बताते हैं। जिनके चरणों में १०० ११. कल्याण वाद पूर्व-इसमें महापुरुषों के कल्याणकों का वर्णन है। ॐ इन्द्र नमस्कार करते हैं-भवनवासी देवों के ४० इन्द्र,व्यन्तर देवों के ३२ इन्द्र, १२.प्राणवाद पूर्व-इसमें वैद्यक का कथन है। कल्पवासी देवों के २४ इन्द्र, ज्योतिषी देवों के दो इन्द्र-सूर्य, चन्द्रमा, मनुष्यों में १३. क्रियाविशाल पूर्व-इसमें संगीत,छंद,अलंकार तथा पुरुष की ७२ एवं स्त्री र एक चक्रवर्ती राजा, तिर्यंच में एक अष्टापद पशु। जिनके समवशरण में बारह कोठे की ६४ कला आदि का वर्णन है। 5 (सभायें) होती हैं, जिनमें-१.भवनवासी देवी,२.व्यन्तरों की देवी,३.ज्योतिषियों , १४. त्रिलोक बिंदुसार - इसमें तीन लोक का स्वरूप, बीजगणित आदि का कथन है। की देवी, ४. कल्पवासी देवी,५. भवनवासी देव, ६. व्यन्तर देव,७.ज्योतिषी देव,% ५.चूलिका-इसके पाँच भेद हैं-जलगता, थलगता,मायागता,रूपगता, ८. कल्पवासी (स्वर्ग के) देव, ९. मुनिगण, १०. आर्यिका गण, ११. मानव, आकाशगता। इसमें जल-थल, आकाश में चलने के, रूप बदलने के मंत्र आदि हैं। १२. पशु बैठते हैं । जिनका उपदेश हर एक मानव व सैनी पंचेन्द्रिय पशु व हर प्रकार 7 9 उपाध्याय परमेष्ठी शास्त्र के विशेष ज्ञाता होते हैं, इन साधुओं का कर्तव्य पढ़ना और का देव सुन सकता है। जिनकी वाणी को सुनकर अनेक गृहस्थ, मुनि हो जाते Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । RSON श्री श्रावकाचार जी हैं,अनेक श्रावक व्रतधारी और अनेक देव मनुष्य तथा पशु सम्यकदृष्टि हो जाते हैं, सुख शान्ति का परम लाभ कर लेते हैं। ऐसा वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी अरिहंत पद होता है। ५.सिद पद-जो आत्मा पूर्ण शुद्ध सर्व रागादि विकार कर्म संयोग शरीर से रहित, संसार के आवागमन जन्म-मरण से मुक्त अपने परमानंद मयी स्वचतुष्टय में स्थित हो जाते हैं, वे सिद्ध पद धारी परमात्मा कहलाते हैं। जो लोक के अग्र भाग में स्थित अपने उवंकार स्वरूप में प्रतिष्ठित रहते हैं,जो शाश्वत पद है। अरिहंत आदि अन्य चार पद अनित्य हैं, नाशवन्त हैं और शरीर सहित होने से विनाशीक हैं; परन्तु सिद्ध पद सर्व कर्म व सर्व शरीर रहित होने से सदा ही रहने वाला अविनाशी पद है। इस प्रकार अरिहंत और सिद्धपदवीतराग देव परमात्मा कहलाते हैं और आचार्य उपाध्याय साधुपदवीतरागी गुरू कहलाते हैं। यह पाँच परम इष्ट पद इसलिये महान कहे जाते हैं कि इनके माध्यम से ही यह आत्मा परमात्मा बनता है। व्यवहार नय से यह पाँच पद कहे जाते हैं, निश्चय नय से इन सबमें एक ही शुद्धात्म स्वरूप विराजमान है, यह देवत्व पद पाने के शुद्ध गुण हैं। जो आत्मा इनकी साधना करके पाँचवीं पदवी से संयुक्त हो जाता है, उसे जैन आगम में जिनेन्द्र देव कहा गया है। सम्यक्दृष्टि इन पदों की साधना करता है यही उसकी सच्ची देव पूजा है। यहाँ कोई प्रश्न करता है कि इन पदों की साधना करना सच्ची देवपूजा है तो जो इन पदों पर विराजमान हैं, उनकी पूजा वन्दना भक्ति करना चाहिये या नहीं? उसका समाधान करते हैं कि जो इन पदों पर विराजमान हैं, वह अपने से आगे हैं, बड़े हैं, उनको नमस्कार करना उनका गुणानुवाद करना तो व्यवहार विनय है, यह तो करना ही चाहिये, णमोकार मंत्र में यह स्पष्ट ही है; परन्तु इनकी पूजा करना, इनमें अटक जाना और जो हैं ही नहीं, उनको भी किसी रूप में पूजना यह तो प्रत्यक्ष ही मढता है क्योंकि जैसे हम किसी स्थान पर जाना चाहते हैं और कोई अपने को उस स्थान का पता और मार्ग बता देता है, तो हम उसका उपकार मानते हैं परन्तु उसको ही इष्ट मानकर पूजने लगें तो बताओ कभी ठिकाने लग सकते हैं? नहीं। विवेक से काम लेना ही मनुष्यता की निशानी है, जिनधर्म का मर्म , सम्यक्दृष्टि का लक्षण है। अब यहाँ प्रश्न होता है कि णमोकार मंत्र में पंच परमेष्ठी पद में सबसे पहले अरिहंत पद आया है तो यह तीर्थंकर बनने का मार्ग क्या है? गाथा-३३३,३३४ P OK इसका उत्तर सद्गुरू तारण स्वामी अगली गाथाओं में देते हैंअरहंत भावनं जेन, बोडस भावेन भावितं । तिअर्थ तीर्थकर जेन, प्रति पूर्व पंच दीप्तयं ॥ ३३३॥ तस्यास्ति षोडसं भावं,तिअर्थ तीर्थकरं कृतं । षोडस भावनं भावं, अरहंत गुण सास्वतं ॥ ३३४॥ अन्वयार्थ- (अरहंत भावनं जेन) जो अरिहंत पद की भावना करता है (षोडस भावेन भावित) उसे सोलह कारण भावनाभाना चाहिये (तिअर्थतीर्थकरंजेन) जिससे जैसा द्रव्य गुण पर्याय तीर्थंकर का होता है (प्रति पून पंच दीप्तयं) वैसा ही पंच ज्ञानमयी निज स्वरूप परिपूर्ण होता है। (तस्यास्तिषोडसं भाव) इसलिये यह सोलह कारणभावना ही (तिअर्थतीर्थकर कृतं) तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराती हैं (षोडस भावनं भावं) सोलह कारण भावना भाना ही (अरहंतं गुण सास्वतं) अरिहंत पद स्वरूप अपने अविनाशी आत्मगुणों को प्रकट करना है। विशेषार्थ-जो अरिहंत पद की भावना करता है अर्थात् आत्मा से परमात्मा होना चाहता है, उसे अपने परिणामों की विशुद्धि के लिये सोलह कारण भावना भाना चाहिये, जिससे जैसा द्रव्य गुण पर्याय तीर्थंकर अरिहंत का होता है, वैसा ही पंच ज्ञानमयी निज स्वरूप परिपूर्ण शद्ध है. ऐसा बोध हो जाता है। इसलिये यह सोलह कारण भावना ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराती हैं,सोलह कारण भावना भाना ही अरिहंत पद स्वरूप अपने अविनाशी आत्म गुणों को प्रगट करना है। यह सोलह कारण भावना परम उपकारी हैं. इनके भाने या इन पर चलने से यदि तीर्थंकर प्रकृति का बंधन भी हो तो भी महान पुण्य बंध होता है तथा आत्म गुणों का विकास होता है। सोलह कारण भावना निम्न प्रकार हैं१.दर्शन विशद्धि भावना-सम्यकदर्शन शुद्ध रहे, उसमें पच्चीस दोष में से कोई सा भी दोषनलगे तथा जगत के समस्त जीव अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान कर सम्यक्दृष्टि बनकर मक्ति के मार्ग पर चलें. आत्मा से परमात्मा बनें ऐसी भावना होना। २. विनय सम्पन्नता- रत्नत्रय धर्म तथा उनके धारकों के प्रति विनय होना। ३.शीलव्रतेष्वनतीचार-शील स्वभाव व व्रतों के पालने में कोई दोष न लगे। ४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग - निरन्तर आत्मज्ञान व शास्त्र आगमज्ञान में उपयोग १२२ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O श्री चकाचार जी गाथा-३३५,३३६ LOO लगाना। बना रुल रहा है, जब इसे अपने आत्म स्वरूप का बोध होता है तब यह अन्तरात्मा। ५.संवेग-संसार शरीर भोगों से वैराग्य व धर्म में अनुराग बढ़ता रहे। होता है तथा रत्नत्रय की साधना करके सबसे पहले साधु, उपाध्याय,आचार्य होता। ६. शक्तित: त्याग-शक्ति अनुसार त्याग मार्ग पर चलना तथा चारदान देना। हुआ सर्वज्ञ केवलज्ञानी अरिहंत परमात्मा होता है, जो शरीर सहित अपने स्वभाव में ७.शक्तित: तप-शक्ति अनुसार बारह तपों का पालन करना। * लीन रहते हैं, यह संसार में प्रत्यक्ष दिखने वाला अरिहंत पद है तथा इसी पद से धर्म ८. साधु समाधि-कब जीवन में साधु बने और निर्विकल्प ध्यान समाधि करूं ऐसीका यथार्थ स्वरूप बताया जाता है, यह पूर्ण वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी परमात्मा । भावना होना तथा रत्नत्रय धारक साधुओं की समाधि में बाधक कारणों, उपसर्गों को 5 होते हैं, जिनकी वाणी पर सम्पूर्ण विश्व श्रद्धान विश्वास करता है, यही जब सब दूर करना। ८ कर्मों से मुक्त शरीर रहित परिपूर्ण शुद्ध अपने शद्ध चैतन्य स्वरूप मय हो जाते हैं तब ९.वैयावृत्यकरण-दीन दुःखी जीवों व धर्मात्माओं की सेवा सुश्रुषा करना। १ सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं। १०. अहंत भक्ति-वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा के गुणों का स्मरण करना। क यह पद शाश्वत पद है; परन्तु संसार की अपेक्षा अगोचर है अत: अरिहंत पद ११. आचार्य भक्ति-वीतराग निर्ग्रन्थ साधु सद्गुरू आचार्यों की भक्ति करना। को पहले नमस्कार किया है, अरिहंत सर्वज्ञ ही धर्मोपदेश के दाता परमगुरू होते १२. बहुश्रुत भक्ति-बहुश्रुत के ज्ञाता उपाध्याय की भक्ति करना। 3 हैं। जो आत्मा के शाश्वत अविनाशी सिद्ध पद का स्वरूप बताते हैं और संसार से १३. प्रवचन भक्ति - जिनवाणी (शास्त्र) व धर्म की महिमा बहुमान भक्ति करना। तरने का उपाय बताते हैं। १४. आवश्यक अपरिहाणि-नित्य आवश्यक धर्म क्रियाओं को न छोड़ना। सिद्ध पद की विशेषता और उनके गुण क्या हैं, यह पद कैसे प्राप्त होता है? १५.मार्ग प्रभावना-वीतराग जिन धर्म की प्रभावना करना। यह प्रश्न पूछने पर सद्गुरू तारण स्वामी आगे गाथाओं में स्पष्ट करते हैं - १६. प्रवचन वत्सलत्व-साधर्मियों से प्रेम,वात्सल्य भाव होना। सिद्धं च सुख संमत्तं,न्यानं दरसन दरसितं। इन सोलह कारण भावनाओं का पालन करना, इस रूप चलने की भावना वीर्ज सुहं समं हेतुं, अवगाहन अगुरुलघुस्तथा॥ ३३५ ।। होना,जगत के समस्त जीवों के प्रति मैत्री प्रमोदभाव होना तथा सब जीव सत्यधर्म संमत्तं आदि गुनं सार्थ, मिथ्या मल विमुक्तयं । को समझें, स्वीकार करें, आनंद परमानंद मय रहें, ऐसी भावना तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराती है। तीर्थंकर के समान जगत में और कोई श्रेष्ठ पद नहीं होता, अरिहंत सिद्धं गुनस्य संजुत्तं, साधं भव्य लोकयं ।। ३३६ ॥ पद सर्व श्रेष्ठ होता है, जिसकी सौ इन्द्र पूजा भक्ति आराधना करते हैं। तीर्थंकर के ३ अन्वयार्थ- (सिद्धं च सुद्ध संमत्तं) सिद्ध भगवान के शुद्ध सम्यक्त्व होता है पाँच कल्याणक होते हैं- गर्भ,जन्म, दीक्षा (तप),ज्ञान, निर्वाण। अविनाशी आत्मा (न्यानं दरसन दरसितं) अनन्तज्ञान व अनन्तदर्शन प्रत्यक्ष दिखता है (वीर्ज सुह का स्वभाव जब झलक जाता है अर्थात् घातिया कर्मों के क्षय होने पर केवलज्ञान समं हेतु) अनन्त वीर्य, सूक्ष्मपना, अव्याबाधपना तथा (अवगाहन अगुरुलघुस्तथा) प्रगट होता है, तब तीर्थकर देव की दिव्यध्वनि खिरती है, जिससे अनेक भव्य जीव अवगाहनत्व और अगुरुलघुपना यह आठ गुण प्रगट हो जाते हैं। धर्म के यथार्थ स्वरूप को समझकर आत्माभिमुख होते हैं। जिससे संसार के (संमत्तं आदि गुनं साध) सम्यक्दर्शन आदि गुणों के धारी (मिथ्या मल जन्म-मरण के चक्र से छूटकर आत्मा से परमात्मा हो जाते हैं। विमुक्तयं ) मिथ्यादर्शन रूपी मल से रहित (सिद्धं गुनस्य संजुत्तं) सर्व आत्मीक 5 यहाँ कोई प्रश्न करता है कि अरिहंत पद से सिद्ध पद बड़ा और श्रेष्ठ है शाश्वत गुणों से पूर्ण सिद्ध परमात्मा होते हैं (सार्धं भव्य लोकयं) जो भव्य जीवों के द्वारा पद है, फिर पहले अरिहंत पद क्यों रखा है तथा णमोकार मंत्र में सिद्धों से पहिले श्रद्धेय साधने योग्य हैं। अरिहंतों को क्यों नमस्कार किया है? विशेषार्थ- सिद्ध परमात्मा पूर्ण शुद्ध आत्मा होते हैं, तीनों कर्म- द्रव्य कर्म, इसका समाधान करते हैं कि आत्मा अनादि से शरीरादि कर्म संयोग में बहिरात्मा भाव कर्म, नो कर्म का अभाव हो जाने से आत्मा की पूर्ण शक्तियाँ प्रकाशमान हो Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TO श्री आचकाचार जी जाती हैं, नो कर्म के अभाव से शरीर रहित अशरीरी होते हैं, भावकर्म के अभाव से होने से यह पूर्णपने प्रगट हो जाते हैं,ऐसा जानकर अपनी स्वसत्ता शक्ति जाग्रतकर मोह,राग-द्वेषादि से रहित अपने पूर्ण शुद्ध स्वभाव में रहते हैं,द्रव्य कर्म का अभाव हम भी अपने में यह गुण प्रगट कर सकते हैं, ऐसा बोध और पुरुषार्थ का जागना ही। होने से सम्पूर्ण अनन्त गुण पूर्ण शुद्धपने प्रगट हो जाते हैं; परन्तु यहाँ आठ कर्मों के सिद्धों के आठ गुणों की पूजा है। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी ऐसी ही देवपूजा करता है। नाश से जो आठ गुण प्रकाशमान होते हैं, उनका कथन किया है, जो सिद्ध के विशेष धर्म का सच्चा आचरण करने वाले आचार्य, उपाध्याय होते हैं,जो दश धर्मों गुण हैं। का यथाविधि पालन करते हैं, जिससे देवत्व पद पाते हैं, इन दश धर्मों का आचरण १.मोहनीय कर्म के नाश से शुद्ध सम्यक्दर्शन,शुद्धोपयोग स्वरूपाचरण यथाख्यात करना ही सच्ची देवपूजा है, इसी बात को आगे गाथाओं में कहते हैंचारित्र प्रगट हो जाता है। आचार्य आचरनं धर्म, तिअर्थ सुद्ध दरसन। २. ज्ञानावरणीय कर्म के नाश से अनन्तज्ञान केवलज्ञान सूर्य प्रगट रहता है। उपाय देव उवदेसन कृत्वा,दस लण्यन धर्म धुवं ॥३३७॥ ३. दर्शनावरणीय कर्म के नाश से अनन्तदर्शन प्रगट हो जाता है, जिसमें सर्व द्रव्य, गुण पर्यायों सहित दिखते हैं। साधं चेतना भावं,आत्म धर्म च एकयं । ४. अन्तराय कर्म के नाश से अनन्त वीर्य (बल) प्रगट हो जाता है। आचार्य उपाय देवेन, धर्म सुखं च धारिना ॥ ३३८॥ ५.नाम कर्म के अभाव से सूक्ष्मत्व गुण प्रगट होजाता है.शरीरादि संयोग नहीं रहता। ते धर्म सुद्ध दिस्टीच,पूजितं च सदा बुध। ६. गोत्र कर्म के अभाव से अगुरुलघुत्व गुण प्रगट हो जाता है,समदर्शी साम्यभाव उक्तं च जिनदेवं च, श्रूयते भव्य लोकयं ॥ ३३९ ।। भेद रहित अभेद दशा होती है। ७. आयु कर्म के अभाव से अवगाहनत्व गुण प्रगट हो जाता है,सबको समाहित अन्वयार्थ- (आचार्य आचरनं धर्म) आचार्य धर्म का आचरण करते हैं (तिअर्थ करने की शक्ति प्रगट हो जाती है। ५ सुद्ध दरसन) रत्नत्रयमयी शुद्ध आत्मा का दर्शन करते और कराते हैं (उपाय देव ८. वेदनीय कर्म के अभाव से अव्याबाधत्व गण प्रगट हो जाता है। ४ उवदेसन कृत्वा) उपाध्याय उपदेश करते हैं (दस लष्यन धर्म धुवं) दशलक्षण मयी इस प्रकार सिद्ध परमात्मा सर्वगुणों से संयुक्त पूर्णशुद्ध परमानंदमयी परमात्मा धर्म ही शाश्वत है। होते हैं, सिद्धों में कर्म जनित कोई भी विभावमल मिथ्यात्व आदि नहीं होता क्योंकि (सार्धं चेतना भावं) अपने शुद्ध चैतन्य भाव का श्रद्धान और साधना करना ही सर्व कर्मों से रहित आत्मा को ही सिद्ध परमात्मा कहते हैं। उनके सम्यक्दर्शन आदि (आत्म धर्म च एकयं) एकमात्र आत्म धर्म है (आचार्य उपाय देवेन) आचार्य उपाध्याय अनन्त गुण पूर्णपने विकाश को प्राप्त हो जाते हैं,वे निरन्तर आत्मानंद में लीन रहते . हैं (धर्म सुद्धं च धारिना) इसी शुद्ध धर्म को धारण करते और कराते हैं। हैं। इनको ईश्वर,भगवान, परब्रह्म, परमेश्वर, निरंजन, ब्रह्म, परमात्मा, चिदानन्द, (ते धर्म सुद्ध दिस्टी च) वह धर्म शुद्ध आत्मा का दर्शन ही शुद्ध दृष्टि और प्रभु आदि नामों से भव्य जीव ध्याते हैं। अपने आत्मा का सिद्ध स्वरूप शुद्ध स्वभाव * (पूजितं च सदा बुधै) ज्ञानियों द्वारा हमेशा आदरणीय और पूज्यनीय है (उक्तं च ही साधने योग्य है। सम्यक्दृष्टि श्रावक,साधु, अरिहंत भी अपने ऐसे सिद्ध स्वरूपका जिनदेवं च) इसी बात को जिनदेव अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा ने कहा है (श्रूयते भव्य ध्यान करते हैं। सब भव्य जीवों को ऐसे सिद्ध स्वरूप का स्मरण करके अपने आत्मा लोकयं) हे भव्य जीवो ! इसे सुनो समझो और पालन करो। का को सिद्ध समान ध्याना चाहिये। विशेषार्थ-जो सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मयी निज शुद्धात्मा सम्यक्दर्शन सहित शुद्ध आत्मा का ध्यान ही सिद्ध बनने की विधि है और का दर्शन स्वयं करते हैं और इसी धर्म का आचरण अन्य साधुओं से कराते हैं उनको यही सच्ची देवपूजा है। यह आठ गुण सब जीवों में होते हैं परन्तु संसारी जीवों के आचार्य परमेष्ठी कहते हैं, मुख्यता से निश्चय रत्नत्रय की एकता रूप मोक्ष का मार्ग 5 कर्मावरण होने से यह गुण अप्रगट अव्यक्त रहते हैं। सिद्ध जीवों को कर्मावरण न है,निज शुद्धात्मानुभूति करना और कराना ही आचार्य का कार्य है। उपाध्याय परमेष्ठी Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-३३७.३३९ DOO उत्तमक्षमा आदि दशधर्मों का स्वयं पालन करते हुए उन्हीं की शिक्षा अन्य साधुओं नहीं इस भावना से अपने में स्वस्थ स्थिर रहना उत्तम शौच धर्म है। को देते हैं,उनका काम पढ़ाने शिक्षा देने का है। ५. उत्तम सत्य-वस्तु स्वरूप का यथार्थ निर्णय होना,अपने में निर्विकारी दस लक्षण धर्म निम्न प्रकार हैं र न्यारे ज्ञायक रहना । अपना सत् स्वरूप ही सत्य है,शेष जगत का परिणमन १. उत्तम क्षमा-उत्कृष्ट क्षमा, क्रोध कषाय का अभाव।दूसरों के द्वारा पीड़ित,* असत्,परिवर्तनशील, नाशवान है इस प्रकार सत्य का पूर्ण श्रद्धान होना उत्तम सत्य बध-बन्धन आक्रोशित किये जाने पर किंचित् भी क्रोध का विकार पैदा न होना, पूर्ण है। उत्तम सत्य धर्म का प्रमाण श्री सनतकुमार चक्रवर्ती हैं। आत्मा सत् स्वरूप ही शान्त, साम्यभाव में रहना उत्तम क्षमा है। अपने पूर्व कर्म बन्धोदय का विचार है, ऐसे अपने सत् स्वरूप में स्थित रहना उत्तम सत्य धर्म है। करना,पूर्णशान्त भाव में रहकर कर्मों की निर्जरा करना क्षमा धर्म है। उत्तम क्षमा का C ६. उत्तम संयम- हमेशा अपने में स्वस्थ सावधान होश में रहना, अपनी प्रमाण श्री यशोधर मुनिराज हैं।आत्मा अरस अरूपी अस्पर्शी अविनाशी है, मुझे । सुरत रखना। पाँचों इन्द्रिय और मन के चक्कर में नहीं फंसना, विषयों से विरक्त कोई छू नहीं सकता, मार नहीं सकता इसी भावना से अपने आत्म स्वरूप में लीन रहना,छहों काय के जीवों के प्रति दया करुणा भाव होना,उनकी रक्षा करना और रहना उत्तम क्षमा धर्म है। अपने में आत्मस्थ प्रसन्न रहना उत्तम संयम है। उत्तम संयम धर्म का प्रमाण श्री २. उत्तम मार्दव-उत्कृष्ट सरलता, मान कषाय का अभाव । सर्व साधनवर्द्धमान महावीर स्वामी हैं। अपनी आत्मा की विषय विकारों से रक्षा करना, अपने सर्वगुण सम्पन्न होते हुए दूसरों द्वारा अपमानित, पीड़ित किये जाने पर भी किंचित् आत्म स्वरूप में स्वस्थ सावधान रहना ही उत्तम संयम धर्म है। मात्र भी मान कषाय का न आना, सरल साम्यभाव में रहना,मान-अपमान में समता ७. उत्तम तप-अपने आत्म स्वभाव में लीन रहना, उत्तम तप है। बारह भाव रखना, अपने से श्रेष्ठ गुणीजनों धर्मात्माओं की विनय भक्ति करना उत्तम प्रकार के तपों का पालन करते हुए उपसर्ग परीषहों को जीतना,कभी भी किसी दशा मार्दव धर्म है। उत्तम मार्दव धर्म का प्रमाण श्री पार्श्वनाथ मुनिराज हैं। आत्मा काS में आकुल-व्याकुल, दु:खी न होना, विकल्पों में न उलझना, निर्विकल्प रहना ही न कोई शत्रु होता है, न मित्र होता है, न कोई मान-अपमान होता है । मैं एक उत्तम तप है। उत्तम तप धर्म का प्रमाण श्री कुन्दकुन्दाचार्य हैं। स्वरूप विश्रान्ति का अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व मात्र ज्ञाता दृष्टा हूँ इस भावना से अपने में विनीत नाम ही उत्तम तप धर्म है। रहना उत्तम मार्दव धर्म है। ८. उत्तम त्याग- मोह, राग-द्वेष को छोड़ देना ही उत्तम त्याग है। अपनी ३. उत्तम आर्जव- उत्कृष्ट सहजता, माया कषाय का अभाव । अनेक कष्ट आत्मा को सम्यक्ज्ञानी बनाना ज्ञानदान है।अतृप्त तृषित आत्मा को धर्मामृत पान पड़ने, भोजन आदि का अलाभ होने पर या कोई उपसर्ग आने पर भी चलायमान न कराना आहारदान है। अनादि अज्ञान मिथ्यात्व महारोग से छुड़ाना सम्यक्दर्शन होना, कोई मायाचारी का भाव न आना, अपने दोषों का गुरू से प्रायश्चित लेना, रूपी औषधि देना औषधि दान है। भयभीत कर्मों से व्याकुल आत्मा को परमात्म मायाचार रहित शुद्ध आचरण पालना, कुटिलता रूप मन वचन काय की प्रवृत्ति न स्वरूप बताकर अभय बनाना अभय दान है। संयोगी पदार्थों का सत्पात्रों की होना उत्तम आर्जव है। उत्तम आर्जव धर्म का प्रमाण सती शिरोमणि श्री सीताजी हैं। आवश्यकता पूर्ति हेतु दान देना व्यवहार दान है। उत्तम त्याग धर्म का प्रमाण श्री माया (कर्म) संसार है,ब्रह्म (आत्मा) पूर्ण शुद्ध मुक्त है,इस भावना से अपने ब्रह्मबाहबली स्वामी हैं। समस्त संकल्प-विकल्पों का त्यागकर निर्विकल्प निजानंद में स्वरूप में रमण करना उत्तम आर्जव धर्म है। 5 रहना उत्तम त्याग धर्म है। ४. उत्तम शौच-उत्कृष्ट शुचिता, पवित्रता,लोभ कषाय का अभाव। किसी ९.उत्तम आकिंचन्य-इस जगत में परमाणु भी अपना नहीं है, एक समय भी प्रकार की कामना वासना का न रहना, समस्त पाप-परिग्रह से विरक्त अपने की चलने वाली पर्याय भी मेरी नहीं है। मैं ध्रुव तत्व मात्र हूँ , ऐसी भावना भाते हुए शुद्ध चैतन्य स्वरूप में स्थित रहना उत्तम शौच है। उत्तम शौच धर्म का प्रमाण श्री अन्तरंग रागादि, बहिरंग क्षेत्रादि परिग्रह से निर्ममत्व रहना, केवल अपने शुद्धात्म सुकुमाल स्वामी हैं। आत्मा अपने में पूर्ण पवित्र है, इसका पर से कोई सम्बन्ध है ही स्वरूप को ध्याना,निज स्वभाव में लीन रहना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है। उत्तम Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री श्रावकाचार जी गाथा-३४०-३४२ O O आकिंचन्य धर्म का प्रमाण श्री नमिनाथ स्वामी हैं। है,इसी धर्म की जगत में गणधरादि संतों द्वारा पूजा की जाती है, उन्होंने इसी रत्नत्रय 6 १०. उत्तम ब्रह्मचर्य-समस्त अब्रह्म से विरक्त होकर अपने ब्रह्म स्वरूप में धर्म का उपदेश दिया है. इसको सुनकर भव्य जीव आनंद मगन हो जाता है। रमण करना उत्तम ब्रह्मचर्य है। उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म का प्रमाण श्री जम्बूस्वामी हैं। जब तक आत्मज्ञान न होगा, तब तक शास्त्रों का ज्ञान उपकारी यह दश धर्म व्यवहार से दश भेद रूप हैं, निश्चय से सर्व एक आत्मा रूप ही नहीं होगा। सर्व शास्त्रों का सार अध्यात्म है,सब विद्याओं में श्रेष्ठ अध्यात्म हैं।जहाँ आत्मा की स्थिरता अपने स्वभाव में हुई, वहाँ क्रोधादि कषायों का विकारन विद्या है। सर्व कलाओं में उत्तम आत्मानुभव की कला है इसलिये जो होने से क्षमा मार्दव आर्जव शौच आदि स्वयं हो जाते हैं। सत्य पदार्थ एक आत्मा ही इसकी साधना-आराधना करते हैं,वही सच्चे साधक पुजारी। है,उसमें स्थिरता ही उत्तम सत्य है। आत्मा में संयम रूप रहना संयम, उसी में तपना ८ आगे साधक और साधु रत्नत्रय की साधना-आराधना पूजा करते हैं क्योंकि तप है। स्वयं अतीन्द्रिय आनंद में रहना त्याग है। पर से ममत्व न होना आकिंचन्य ! रत्नत्रय ही देव है अर्थात रत्नत्रयमयी आत्मा ही परमात्मा है और इसकी आराधना तथा अपने ब्रह्मस्वरूप में रमना जमना ही ब्रह्मचर्य है। इन दश धर्मों का एकदेश पूजा करने से देवत्व पद मिलता है, इसी बात को आगे गाथाओं में कहते हैंपालन गृहस्थ श्रावक भी करते हैं। पूर्ण साधन साधु ही कर सकते हैं। इस प्रकार साधओ साधु लोकस्य,दर्सनं न्यान संजुतं । व्यवहार नय से भेदरूप धर्म का पालन संसारी सभी जीव करते हैं परन्त निश्चय से चारित्रं आचरनं जेन, उदयं अवहिं संजुतं ।। ३४०॥ आचार्य और उपाध्याय शुद्ध ज्ञान चेतनामयी एक आत्मधर्म का ही आराधन करते हैं। व कराते हैं। यदि किसी आचार्य और उपाध्याय का ध्यान मात्र व्यवहार धर्म के ऊर्थ आ मध्यं च, दिस्टितं संमिक दरसन । प्रवर्तने पर हो , निश्चय धर्म के चलने पर न हो तो वे यथार्थ आचार्य उपाध्याय । न्यान मयं च सर्वन्यं,आचरनं संजुतं धुवं ॥ ३४१॥ परमेष्ठी नहीं हो सकते । ज्ञानी जानते हैं कि साध्य के अनुसार ही साधन होना साधु गुनस्य संपून , रत्नत्रयं लंकृतं । चाहिये। साध्य निज शद्धात्म तत्व है, इसके अतिरिक्त जो अन्य भेद रूपधर्माचरण भव्य लोकस्य जीवस्य, रत्नत्रयं पूजितं ।। ३४२ ।। है, वह आत्मध्यान के लिये निमित्त मात्र है। इस तत्व को सामने रखते हुए आचार्य उपाध्याय जिस तरह साध्य की सिद्धि हो उसी का स्वयं पालन आचरण करते हैं तथा __ अन्वयार्थ- (साधओ साधु लोकस्य) लोक के साधक और साधु (दर्सनंन्यान अन्य शिष्यों से कराते हैं, अन्तरंग धर्म की दृष्टि करने पर ही इन दोनों परमेष्ठियों का संजुतं) सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान सहित (चारित्रं आचरनं जेन) जो सम्यक्त्वाचरन ध्यान रहता है क्योंकि कर्म की निर्जरा का मुख्य कारण शद्धात्मा का ध्यान है। और संयमाचरण का पालन करते हैं (उदयं अवहिं संजुतं) उनको अवधिज्ञान का आचार्य उपाध्याय जब तक अपने पदों पर हैं तब तक धर्म ध्यान ही होता है। शक्ल उदय हो जाता है, अवधिज्ञान सहित वे (ऊर्ध आर्धमध्यं च) ऊर्ध्वलोक,अधोलोक ध्यान श्रेणीमाड़ने के लिये इन पदों को त्यागकर साधु पद में आना पड़ता है तभी आगे और मध्यलोक तीनों लोक में (दिस्टितं संमिकदरसन) एक आत्मस्वरूप सम्यकदर्शन बढ़ सकते हैं। * कोही देखते हैं (न्यान मयं च सर्वन्यं) और ज्ञान में अपने सर्वज्ञ स्वरूपको देखते हैं ज्ञानी सम्यकदृष्टि इस बात को जानते हैं और हमेशा अपने आत्म स्वरूप की (आचरनं संजुतं धुवं) और आचरण में अपने ध्रुव स्वभाव में लीन रहते हैं। ९ साधना-आराधना में रत रहते हैं। यही सत्य धर्म है जो पूज्यनीय है, इसी बात को 5 (साधु गुनस्य संपून) यही साधु के सम्पूर्ण गुण हैं (रत्नत्रयं लंकृत) जो रत्नत्रय , जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है, जो भव्य जीव ऐसे धर्म के स्वरूप को सुनते समझते सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान सम्यक्चारित्र से अलंकृत शोभायमान रहते हैं (भव्य जानते मानते हैं वही सच्ची पूजा करते हैं, जो देवत्व पद प्रदान करती है। लोकस्य जीवस्य) इसलिये लोक के भव्य जीवों को (रत्नत्रयं पूजितं) रत्नत्रय ही निश्चय धर्म निज शुद्धात्मा का अनुभव वही है जो वचन व मन से अगोचर है। पूजने योग्य है। आत्मा का आत्मा में ही स्थिर होना यही सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान,सम्यक्चारित्र विशेषार्थ- यहाँ शुद्ध षट्कर्म में शुद्ध देवपूजा के स्वरूप का वर्णन चल रहा १९५ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oक श्री श्रावकाचार जी है, देवत्व पद पाना ही पूजा का प्रयोजन है, इसके लिये जैनदर्शन में पाँच परम इष्ट उसका समाधान करते हैं कि जो रत्नत्रय का साधन करे उसको साधु कहते हैं, पद बताये गये हैं, जिनके माध्यम से प्रत्येक भव्य जीव, आत्मा से परमात्मा बन इसमें मुख्यता सम्यकदर्शन सहित सम्यकज्ञान सम्यकचारित्र की है। पाँच महाव्रत, सकता है, इसका प्रारंभ संसारी जीव की अपेक्षा साधुपद से उपाध्याय, आचार्य पद र पाँच समिति तथा तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार या अट्ठाईस मूलगुण रूप चारित्र साधु से अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा होते हुए परिपूर्ण शुद्ध सिद्ध परमात्मा होते हैं,जोशाश्वत जन भले भाव से पालते हैं किन्तु यदि कोई साधु मात्र व्यवहार रत्नत्रय पाले और पद है। निश्चय रत्नत्रयमयी शुद्धात्मानुभव न पावे तो वह साधु पूज्य नहीं है, वह मात्र इस साधना में सोलह कारण भावना से अरिहंत तीर्थंकर पद मिलता है और द्रव्यलिंगी साधु मिथ्यादृष्टि है। भावलिंग सहित ही द्रव्यलिंग की शोभा है। भावलिंग आठों कर्मों का क्षय होने पर आत्मा के पूर्णशुद्ध गुण प्रगट होते हैं, जो सिद्ध परमात्मा ६ बिना द्रव्यलिंग केवल पुण्य बंध का कारण है, मोक्ष का कारण नहीं है, अत: रत्नत्रय के शाश्वत गुण हैं, जिनके प्रगट होने पर सिद्ध पद होता है, इनका आराधन करना ही। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ही देवत्व पद, मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र सिद्ध पद पाने की विधि है। धर्म का आचरण करने, कराने वाले आचार्य और उपाध्याय कारण है। जिसमें यह तीन गुण सम्पूर्ण होते हैं, उसके अट्ठाईस मूलगुण तेरहविधि होते हैं,जो दश धर्मों का पालन करते और कराते हैं। जिससे आत्मा परम पवित्र होता चारित्र तो स्वयं ही पलता है क्योंकि यह सब बाह्य क्रियायें हैं, जो शरीरादि मन के है। इसका पूर्व में वर्णन किया गया है। यहाँ साधु के तीन गुण रत्नत्रय के स्वरूप का द्वारा की जाती हैं, इनसे आत्मा का भला नहीं होता क्योंकिविवेचन किया जा रहा है, जिससे साधुपद होता है। इन गुणों को इष्ट उपादेय मानकर मुनिव्रत धार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो। इनकी साधना-आराधना करने से यह पद स्वयं में प्रगट होते जाते हैं,यही सच्ची पै निज आतम ज्ञान बिना सुख लेशन पायो॥ देवपूजा की विधि है क्योंकि पूज्य के समान आचरण करके स्वयं पूज्य बन जाना हीर इसलिये क्रोध करना, मान, माया,लोभ के वश रहना, राग-द्वेष रूप परिणाम सच्ची पूजा है। S करना, इच्छाओं के आधीन होकर सांसारिक विषयों में, पापों में प्रवृत्ति करना,सच्चे यहाँ साधक और साधुजो सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान से संयुक्त होते हैं अर्थात् 8 साधु का स्वभाव नहीं हो सकता। क्षमा, दया, धैर्य, अन्तरंग की शुद्धि, प्रलोभनों का जोसम्यकदृष्टि सम्यकज्ञानी होते हैं और जो सम्यक्त्वाचरण चारित्र का पालन करते अभाव,तिल तुष मात्र परिग्रह से रहित,परमज्ञानीभेदविज्ञान के मर्मज्ञ ही सच्चे साधु हैं, उनको अवधिज्ञान का उदय हो जाता है जिससे उन्हें अपने तथा पर के पूर्व भवों हो सकते हैं। का ज्ञान हो जाता है और वह जान लेते हैं कि इस जीव ने चारों गतियों में कैसे-कैसे चारों गतियों के जन्म-मरण का दुःख सम्यक्दर्शन की प्राप्ति के बिना दूर नहीं दुःख भोगे हैं। कैसे कर्मों का बंध किया और भोगा है। अब वह ज्ञानी निरन्तर अपने हो सकता। यह सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र ही सांसारिक दुःखों से छुड़ाकर मोक्षरूपी आत्म स्वरूप को ही देखते हैं । सम्यक्दर्शन का हमेशा आराधन करते हैं,सिद्ध सुख दे सकता है। समान अपने शुद्धात्मा को देखते हैं, सम्यक्ज्ञान में केवलज्ञानमयी सर्वज्ञ स्वरूप आत्मिक दृढ़ आस्था के बिना कोई भी व्यक्ति निर्भय नहीं हो सकता, को जानते हैं और सम्यकचारित्र में अपने ध्रुव स्वभाव में लीन रहते हैं। इस प्रकार जैसे-वीरता बिनासैनिक, नाक के बिना सुन्दर मुख, मुद्रिका के बिना अंगुली,सुन्दर रत्नत्रय की साधना-आराधना में रत रहना अर्थात् अपने शुद्धात्मा का श्रद्धान अनुभूति अंगुलियों के बिना हाथ, तेल बिना दीपक, अपना काम सुचारू रूप से नहीं कर र करना,शुद्धात्मा का ज्ञान करना और शुद्धात्मा में लीन रहना ही साधु के सच्चे सम्पूर्ण 5 सकते उसी प्रकार सम्यकदर्शन धारण किये बिना धर्म का पालन नहीं हो सकता। 9 गुण हैं। जैसे- सामर्थ्य बिना सुंदर शरीर, दरवाजे बिना सुंदर महल तथा चहार दीवारी के यहाँ कोई प्रश्न करे कि साधु के तो अट्ठाईस मूलगुण होते हैं, उनका पालन बिना बगीचा या दुर्ग सुरक्षित और व्यवस्थित नहीं माना जा सकता। जैसे- भोजन X करने वाला ही सच्चा साधु होता है। यहाँ यह तीन गुण रत्नत्रय ही, साधु के सच्चे बिना शरीर, वस्त्र बिना आभूषण, सौंदर्य बिना युवावस्था, कमल बिना तालाब,धान 7 सम्पूर्ण गुण कहना ठीक नहीं है? बिना खेत, सेना बिना राजा, अपनी स्थिति संसार में सम्यक् प्रकार कायम नहीं रख १९६ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी सकते, उसी प्रकार रत्नत्रय सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र बिना साधु कायम नहीं रह सकता और रत्नत्रय के बिना आत्म कल्याण संभव नहीं है इसलिये भव्य जीवों को रत्नत्रय ही पूजने योग्य है, जो रत्नत्रय की पूजा अर्थात् अपने जीवन में रत्नत्रय धारण करते हैं, वही सच्ची देवपूजा करते हैं; क्योंकि रत्नत्रय, सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र का नाम ही देव है अत: इन तीनों गुणों से विशिष्ट जो जीव हैं वह देव हैं इसलिये यह पाँच पद परम इष्ट माने गये हैं। इन पाँच पदों की साधना करने और इन गुणों की उपासना करने का अधिकारी कौन जीव होता है, उसकी पात्रता और विशेषता क्या होती है ? यह प्रश्न करने पर सद्गुरू तारण स्वामी आगे उस जीव की पात्रता और विशेषता का वर्णन करते हैं जिसमें सबसे पहले सम्यक्त्व के आठ अंग होते हैं, वही पात्र जीव इसकी साधना पूजा का अधिकारी होता है और उसकी विशेषता ज्ञान के आठ अंगों का पालन करना, चार अनुयोगों का सम्यक् श्रद्धान होना और तेरह प्रकार के चारित्र का पालन करना इसका विवेचन आगे की गाथाओं में किया जा रहा हैदेव गुनं पूज सार्धं च, अंगं संमिक्त सुद्धये । सार्धं न्यान मयं सुद्धं संमिक दरसन उत्तमं ।। ३४३ ॥ 9 अन्वयार्थ - (देव गुनं पूज सार्धं च) देव के गुणों की पूजा और साधना करने वाले को (अंग संमिक्त सुद्धये) सम्यक्त्व के आठ अंगों से शुद्ध होना चाहिये (सार्धं न्यान मयं सुद्धं) जो अपने ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव का श्रद्धानी है (संमिक दरसन उत्तमं वही उत्तम अर्थात् निश्चय सम्यक्दर्शन वाला पात्र जीव है। विशेषार्थ यहाँ सच्ची देवपूजा अर्थात् देवत्व पद प्राप्ति के गुणों का आराधन धारण करने वाले जीव की पात्रता को बताया जा रहा है। देव के गुणों की पूजा और साधना करने वाले को सम्यक्त्व के आठ गुणों से शुद्ध होना चाहिये, जो अपने ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव का श्रद्धानी, शुद्धात्मानुभूति करने वाला है वही उत्तम सम्यक्दर्शन वाला पात्र जीव है। सम्यक्दर्शन होने पर यह आठ अंग अपने आप प्रगट होते हैं। १. नि:शंकित, २ . नि: कांक्षित, ३. निर्विचिकित्सा, ४. अमूढ दृष्टि, ५. उपगूहन, ६. स्थितिकरण, ७. वात्सल्य, ८ प्रभावना । १. निःशंकित अंग- आत्मा के त्रिकाली स्वभाव की श्रद्धा ही निःशंकित अंग SYA YA YA ART YEAR. गाथा- ३४३ है। शंका से भय का जन्म होता है। सात भय मिथ्यादृष्टि को होते हैं - १. इहलोक भय, २. परलोक भय, ३. वेदना भय, ४. अरक्षा भय, ५. अगुप्ति भय (चोर भय), ६. मरण भय, ७. अकस्मात भय । सम्यदृष्टि इन सात भयों से रहित होता है। शंका या भय रहित होकर दृढ़ता पूर्वक आत्म स्वरूप का श्रद्धान होना निःशंकित अंग है, ऐसी निर्भयता में हेतुभूत उसका जिनशासन (वस्तु की स्वतंत्रता) का दृढ़ श्रद्धान ही है। सच्चे देव गुरू शास्त्र का यथार्थ स्वरूप सहित दृढ़ श्रद्धान करना व्यवहार निःशंकित अंग है। १९७ २. नि: कांक्षित अंग - जिसे आत्मीय अमृत रस का स्वाद आ गया है, वह अन्य रस का आकांक्षी नहीं होता, अतः सम्यदृष्टि संपूर्ण सांसारिक आकांक्षाओं से रहित आत्मा के अतीन्द्रिय आनंद का भोक्ता है। यही परमार्थ से उसका नि:कांक्षित अंग है। व्यवहार से आत्मभिन्न पदार्थों में उसका ऐसा विश्वास है कि उनका संयोग कर्माधीन है, नाशवान संयोग में सुख नहीं है, सुखाभास है। वह सुखाभास भी दुःखों मिश्रित है, एकान्त सुख का भी आभास उसमें नहीं होता। उन सांसारिक सुख भोगों में रागादि कषायों का आलम्बन रहने से वे पाप बंध के कारण बनते हैं, जिनका फल अत्यन्त दुःख है, ऐसे दुखान्त फल वाले सांसारिक सुख की उसे किंचित् भी वांछा नहीं होती, यह नि:कांक्षित अंग का व्यवहारिक रूप है, यही उसके अनन्तानुबंधी राग का अभाव या वीतराग भाव है। ३. निर्विचिकित्सा अंग जो वस्तु को उसके स्वरूप से देखता है उसे किसी से घृणा ग्लानि नहीं होती, उसे धर्म में प्रीति होती है, ज्ञानी को अपने स्वरूप प्रवर्तन में दृढ़ रुचि है, यही उसका निर्विचिकित्सा अंग है। वह अन्य धर्मात्माजनों की सेवा करता है, साधुओं की वैयावृत्ति करता है, यही उसका व्यवहारिक रूप है । उनकी सेवा में शारीरिक मलादि के कारण उसे घृणा नहीं होती, शरीर का स्वभाव सड़न-गलन रूप है, चाहे अपना हो या अन्य साधु का हो उससे घृणा कैसी ? अत: व्यवहारिक रूप में धर्मात्माओं से प्रीति करता हुआ सेवा करता है यह निर्विचिकित्सा अंग है, यही द्वेष का अभाव है। > ४. अमूद दृष्टि अंग- सम्यकदृष्टि के निजात्म तत्व से भिन्न सभी पंचेन्द्रिय विषयों पर मोहभाव नहीं है, यही उसकी मोह, (मूढ़ता) रहित दृष्टि है, अपने निश्चय दर्शन ज्ञान चारित्र स्वभाव में रुचि है यही उसका पारमार्थिक रूप है। जहाँ श्रद्धान में समस्त पर पदार्थों में मोह का अभाव है यही अमूढ़ दृष्टि अंग है, मिथ्यामार्ग और Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व Our श्री बाचकाचार जी गाथा-३४४ R OO मिथ्यामार्गियों की सराहना मन, वचन, काय सेन करना ही व्यवहार अमूढ दृष्टि अंग है। अभिप्राय से उसे बढ़ावा ही दिया जाता है। इसी प्रकार धर्मी धर्मात्मा के प्रति द्वेष न सम्यक्त्व के इन आठ अंगों में प्रथम निःशंकित अंग से आत्मा की अखंड श्रद्धा हो,उसका अपवाद न हो, उसमें गुण प्रगट हों, इसलिये सम्यक्त्वी उसे बढ़ावा ही देते। के रूप में जीव को अपना यथार्थ स्वरूप प्राप्त होता है। दूसरे नि:कांक्षित अंग से , हैं यही वात्सल्य अंग है। विषयों के प्रति अनाकांक्षा हो जाने से तविषयक राग का अभाव होता है। तीसरे ८.प्रभावना अंग- अपनी आत्मा में दिन-दिन रत्नत्रय के तेज को बढ़ाते निर्विचिकित्सा अंग से अनिष्ट पदार्थों के प्रति घृणा या तिरस्कार का परिहार होने से जाना, यह आत्म प्रभावना ही निश्चय से प्रभावना अंग है। बाह्य प्रभावना के रूप में तद्विषयक द्वेष का अभाव हो जाता है। चौथे अमूढ दृष्टि अंग के द्वारा गृहीत मिथ्यात्व दया,दान परोपकार करना,संयमित जीवन बनाना, धार्मिक कार्यों को उत्साहपूर्वक के साधनों का परिहार हो जाने से उसमें मोह भाव का अभाव हो जाता है, इस प्रकार करना, प्रत्येक कार्य विवेकपूर्ण हो, धर्म की अभिवृद्धि कारक हो, स्वयं को प्रभावित ज्ञानी के राग-द्वेष, मोह का अभाव इन अंगों से स्पष्ट लक्षित हो जाता है। इन चार करे तथा दूसरों को भी प्रभावित करे वह प्रभावना अंग है। अंगों की साधना से सम्यकदृष्टि जीव का आंतरिक व्यक्तित्व संस्कारित हो जाता इस प्रकार शुद्ध सम्यक्त्व निज शुद्धात्मानुभूति सहित आठों अंगों का सही है। अन्य जीवों के प्रति उसका व्यवहार शेष चार अंगों के द्वारा परिष्कृत होता है। पालन करने वाला पात्र जीव होता है, जो क्रमश: ज्ञान का विकास करता हुआ ५. उपगूहन अंग-जो अपने संपूर्ण गुणों को अपने भीतर सुरक्षित रखे। सम्यक्त्वाचरण सहित संयमाचरण का पालन करता है, जिससे साधु पद से सिद्ध पद उपगृहन छिपाने को कहते हैं, ज्ञानी अपने गुणों को बाहरी विकारी भावों की हवा भी पाता है। नहीं लगने देता, अपने भीतर अन्तर गर्भग्रह में ही छिपाकर रखता है यही परमार्थतः यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह आठ अंग सम्यकदर्शन होने पर होते हैं तो क्रमश: उपगूहन है। उपगूहन का दूसरा नाम उपवृंहण है, जिसका अर्थ बढ़ाना है, ज्ञानी होते हैं या एक साथ होते हैं, कम-बढ़ या शुद्ध-अशुद्ध भी हो सकते हैं, और इनसे अपने गुणों की निरन्तर वृद्धि करता है यही उसका उपवृंहण नाम का वास्तविक लाभ क्या है ? गुण है। उसका समाधान करते हैं कि जैसे काठ के आठ टुकड़ों के संयोग को खाट व्यवहारत: उपगूहन का अर्थ इस प्रकार है कि धर्मात्मा गुणी पुरुषों में यदि कहते हैं। इसी प्रकार इन आठ गुणों के समुदाय रूप में सामान्य संज्ञा सम्यक्त्व कदाचित् कोई दोष दिखाई दे जाये, तो उसका प्रचार-प्रसार नहीं करना, बल्कि है; अतएव यह सम्यक्दर्शन के आठ अंग हैं, ऐसा कहा जाता है। यह एक साथ होते उनमें वह दोष दूर हो तथा गुण बढ़े, ऐसी सहायता करना। र हैं, निश्चय सम्यकदर्शन पूर्वक जो अंग हैं, वह शुद्ध होते हैं, मात्र व्यवहार से पालन ६.स्थितिकरण अंग- अपने स्वरूप में स्थित रहना ही स्थितिकरण अंग करना अशुद्ध कहलाते हैं। जिसे सम्यक्दर्शन प्रगट होने से अपने ज्ञानानंद स्वभाव है। स्वाश्रय छोड़कर पराश्रय करना ही विचलित होना है, स्वयं अपने ज्ञायक स्वभाव पर दृष्टि आई है, वह जीव उक्त आठ अंगों से सम्पन्न होकर पर से दृष्टि हटाकर स्वयं से विचलित न होकर उसी में स्थिर रहना ही निश्चय से स्थितिकरण अंग है। धर्म, ज्ञान के रसास्वाद में विभोर होकर नृत्य करता है, इससे उसे ज्ञानभाव के कारण धर्मात्मा के आश्रय से ही चलता है, धर्मात्मा के अपवाद से धर्म का अपवाद हो जाता नवीन कर्मों का संवर होता है तथा पूर्वबद्ध कर्म उदय में आकर निर्जरा को प्राप्त हो है अत: धर्म के मार्ग को पवित्र बनाये रखने के लिये धर्मात्मा का स्थितिकरण आवश्यक जाते हैं। है। उपगृहन अंग की पूर्ति स्थितिकरण अंग से ही होती है, यह उसका व्यवहारिक 5 अब सम्यक्त्व के आठ अंगों सहित पात्र जीव ज्ञान के आठ अंगों की आराधना १ रूप है। करता है, इससे ज्ञान की शुद्धि और विकाश होता है, इसी बात को आगे गाथाओं ७.वात्सल्य अंग-अपने सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र गुणों की प्राप्ति के प्रति में कहते हैंअनुराग होना वात्सल्य अंग है। व्यवहार में वत्स बालक को कहते हैं। बालक के प्रति न्यानं चन्यान सुद्धच,सद्ध तत्व प्रकासकं। किसी को द्वेष नहीं होता, न उसका कोई अपवाद करता है, उसके गुण प्रगट हों इस न्यानं मयं च संसुद्धं,न्यानं सर्वन्य लोकितं ॥ ३४४ ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2004 श्री श्रावकाचार जी गाथा-३४४,३४५ POOO न्यानं आराधते जेन,पूजा तत्र च विंदते। बैठकर विनय पूर्वक शास्त्राध्ययन करना। निश्चय से अपने स्वरूप का अध्ययन सुद्धस्य पूज्यते लोके,न्यान मयं सार्थ धुवं ।। ३४५ ॥ करना,शुद्ध भावों की संभाल रखना। ६. उपधानाचार- उपधान सहित आराधन करना अर्थात् विस्मृत न होवे अन्वयार्थ- (न्यानं च न्यान सुद्धं च) ज्ञान का आठ अंगों सहित पालन करने * इसे उपधानाचार कहते हैं। निश्चय से अपने स्वरूप की निरन्तर स्मृति रखना, ७ से ज्ञान की शुद्धि होती है (सुद्ध तत्व प्रकासक) जिससे शुद्धात्मा का प्रकाश होनेविस्मत न होते। लगता है (न्यानं मयं च संसुद्ध) ज्ञानमय रहने से परम शद्ध (न्यानं सर्वन्य ७. बहुमानाचार- ज्ञान पुस्तक और शिक्षक का पूर्ण आदर करना लोकितं ) केवलज्ञान सर्वज्ञता प्रगट हो जाती है, जिससे एक समय में तीन लोकर लाक ८ बहुमानाचार है। निश्चय से अपने शुद्धात्म स्वरूप परमात्म पद का बहुमान करना। तीन काल के समस्त द्रव्य उनके गुण पर्याय सहित दिखाई देते हैं। ८.अनिन्हवाचार-जिस गुरू से, जिस शास्त्र से ज्ञान मिला हो, उसको न (न्यानं आराधते जेन) जो ऐसे ज्ञान की आराधना करते हैं (पूजा तत्र च छपाना अनिन्हवाचार है। निश्चय से अपने ज्ञानभाव को न छिपाना, न दबाना, विंदते) वही सच्ची पूजा और अनुभूति करते हैं (सुद्धस्य पूज्यते लोके) यही शुद्ध हमेशा नानभात को जाग्रत रखना ज्ञान की लोक में पूजा होती है (न्यान मयं साधं धुवं) इसलिये अपने ज्ञानमयी ध्रुवx इस प्रकार ज्ञान की शुद्धि होने से अपने शुद्धात्म तत्व का प्रकाश हो जाता है स्वभाव की साधना करो। और हमेशा ज्ञानभाव में रहने से परम शुद्ध केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। जिसमें विशेषार्थ- यहाँ बताया जा रहा है कि ज्ञान के आठ अंगों का पालन करने तीनों लोक के त्रिकाली पदार्थ अपने द्रव्य गुण पर्याय सहित स्पष्ट झलकने लगते हैं से ज्ञान की शुद्धि होती है। ज्ञान के आठ अंग- १. व्यंजनाचार, २. अर्थाचार, ऐसी सर्वज्ञता प्रगट होजाती है। जो ऐसे सम्यक्ज्ञान की आराधना तथा ज्ञान स्वभाव ३. उभयाचार, ४. कालाचार, ५. विनयाचार, ६. उपधानाचार,७. बहुमानाचार, की साधना-आराधना और ज्ञानभाव में रहने का पुरुषार्थ करते हैं यही सच्ची ८. अनिन्हवाचार-जिनका स्वरूप निम्न प्रकार है Sदेवपूजा की विधि है क्योंकि यह ज्ञान की शुद्धि, केवलज्ञान प्रगट कराती है, जो लोक १.व्यंजनाचार-शब्द शास्त्र (व्याकरण) के अनुसार अक्षर, पद,वाक्य का 8 में पूज्यनीय है। अपने ज्ञानमयी ध्रुवस्वभाव की साधना ही सच्ची देवपूजा है। यहाँ यत्न पूर्वक शुद्ध पठन-पाठन करने को व्यंजनाचार कहते हैं। व्यंजनाचार, श्रुताचार, यह बताया है कि सम्यकज्ञान की आराधना परम कार्यकारी है,शुद्ध आत्मा के प्रकाश अक्षराचार, ग्रन्थाचार आदि सब एकार्थवाची हैं। निश्चय से अपने आत्म स्वरूपको के लिये, कर्मों के आवरण को हटाने के लिये, शुद्ध आत्म ज्ञान का अनुभव मनन यथार्थ जानना। चिन्तन परम आवश्यक है। २.अर्थाचार- यथार्थ शुद्ध अर्थ के अवधारण को अर्थाचार कहते हैं। निश्चय इसी बात को समयसार कलश में श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैंसे जैसा अपने आत्म स्वरूप को जाना है, वैसा ही अवधारण (स्वीकार) करना। ५ भावयेभेदविज्ञानमिदमच्छिन्न धारया। ३. उभयाचार-शब्द और अर्थदोनों से शुद्ध पठन-पाठन करने को उभयाचार तावद्यावत्पराच्च्यूत्वा ज्ञान ज्ञाने प्रतिष्ठते॥१३०॥ कहते हैं। निश्चय से जैसा अपना आत्म स्वरूप जाना है, वैसा ही मानना इसमें जब तक पर परिणति से छूटकर ज्ञान, ज्ञान में स्थिरता न पाले अर्थात् जब संशय नहीं होना। 5 तक केवलज्ञान न हो तब तक बराबर भेदविज्ञान की भावना करते रहो अर्थात् अपने , ४. कालाचार-सामायिक ध्यान करने के समय संधिकाल में पठन-पाठन आत्मा को सर्व परभाव, पर द्रव्य व कर्म जनित नैमित्तिक भावों से जुदा अनुभव करते स्वाध्याय नहीं करना कालाचार है। निश्चय से हमेशा अपने स्वरूप का चिन्तन रहो। इस ज्ञानभाव की शुद्धि, दृढ़ता और स्थिरता के लिये जिनवाणी का अभ्यास मनन ध्यान करना। परम आवश्यक निमित्त कारण है। सम्यक्ज्ञान की आराधना से सम्यक्ज्ञान का ५.विनयाचार-शुद्ध जल से हाथ पैर धोकर शुद्ध स्थान में पर्यकासन से प्रकाश होता है और यही केवलज्ञान का कारण है। सर्वज्ञता सर्वदर्शीपना आत्मा का Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. सवनपाल 04 श्री आपकाचार जी गाथा-३४६-३४९ 0 मुख्य गुण है अतएव सम्यक्ज्ञान की आराधना नित्य करनी चाहिये। इसके लिये प्रतिनारायण,९ बलभद्र त्रेसठशलाका के महापुरुषों का जीवन चरित्र बताया गया शास्त्रों का अभ्यास आवश्यक है। जिनवाणी चार अनुयोगमयी है, इन चार अनुयोगों है। जिसमें जीव के संसार और कर्म बंधन की दशा का वर्णन किया है, मिथ्यात्व का का ज्ञान श्रद्धान ही सच्ची शास्त्र श्रुतपूजा है। सेवन करने से क्या दुर्दशा होती है और सम्यक्दर्शन होने से कैसा सुख सद्गति और इन चार अनुयोगों के स्वरूप का वर्णन आगे की गाथाओं में करते हैं - मुक्ति की प्राप्ति होती है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण बताया है। न्यानं गुनं च चत्वारि, श्रुतपूजा सदा बुधै। २.करणानुयोग- इसमें तीन लोक की रचना, कहाँ-कहाँ, कौन-कौन जीव धर्म ध्यानं च संजुक्तं, श्रुतपूजा विधीयते ॥ ३४६ ॥ पैदा होते हैं, उनकी क्या व्यवस्था है,जीवों के परिणाम कितने प्रकार के होते हैं और उनसे कैसे-कैसे कर्मों का कैसा बन्ध होता है, उदय स्थिति अनुभाग कैसा भोगना प्रथमानुयोग करनानं,चरनं द्रव्यानि विंदते। 7 पड़ता है। गुणस्थान मार्गणा आदि का स्वरूप बताया है। न्यानं तिअर्थ संपून, साध पूजा सदा बुध॥ ३४७॥ ३.चरणानुयोग-इसमें संसार के दु:खों से छूटने, पाप,विषय-कषायों से अन्वयार्थ- (न्यानं गुनं च चत्वारि) ज्ञान गुण को बढ़ाने वाले चार अनुयोग हैं बचने के लिये, व्रत नियम संयम तप के पालन करने की विधि, श्रावक साधु की चर्या (श्रुतपूजा सदा बुधै) इन शास्त्रों की पूजा अर्थात् स्वाध्याय मनन हमेशा बुद्धिमानों का वर्णन किया है। को करना चाहिये (धर्म ध्यानं च संजक्तं) धर्म ध्यान में लीन हो जाना ही (श्रुतपूजा ४.द्रव्यानुयोग-इसमें सत्ताईस तत्वों का स्वरूप दिखलाते हुए आत्मा के विधीयते) श्रुतपूजा की विधि है। शुद्ध स्वरूप की महिमा बताई है कि किस प्रकार यह आत्मा अपने स्वरूप की साधना (प्रथमानुयोग करनानं) प्रथमानुयोग,करणानुयोग (चरनं द्रव्यानि विंदते) करके परमात्मा बनता है। शुद्ध निश्चय नय से यह आत्मा ही त्रिकाल शुद्ध सिद्ध के चरणानयोग, द्रव्यानयोग ऐसे चार प्रकार शास्त्रजानना (न्यानं तिअर्थसंपून) जिनमें समान परमात्मा है। ऐसे अपने शुद्ध द्रव्य की महिमा बताई है और इस प्रकार अपने अपने रत्नत्रयरूपी आत्मा का संपूर्ण ज्ञान भरा हुआ है (सार्धं पूजा सदा बधै) इसका रत्नत्रयमयी शुद्धात्मा का संपूर्ण ज्ञान कराया है। इसका सत्श्रद्धान करके अपने स्वरूप श्रद्धान करना ही ज्ञानी की शाश्वत पूजा है। 8 की साधना करना ही ज्ञानी की सच्ची शास्त्र पूजा है। विशेषार्थ- ज्ञान गुण के विकाश के लिये चार अनुयोग जिनवाणी रूप हैं, आगे प्रथमानुयोग का स्वरूप बताते हैं - इनका स्वाध्याय मनन कर अपने ज्ञानभाव को स्थिर करना ही शास्त्र पूजा है, जो प्रथमानुयोग पद वेदंते, विजन पद सब्दयं । ज्ञानी हमेशा करते हैं। इन शास्त्रों के पढ़ने से ज्ञान की वृद्धि होती है ; अतएव किसी तिअर्थ पद सुद्धस्य, न्यानं आत्मा तुव गुनं ॥ ३४८।। प्रकार की लौकिक कामना, वासनान रखकर मात्र आत्म कल्याण के हेतु इन शास्त्रों विजनं च पदार्थ च,सास्वत नाम सार्थय। का पठन-पाठन करना और अपने आत्म स्वभाव में लीन हो जाना ही श्रुतपूजा की उर्वकारस्य वेदंते, सार्थ न्यान मयं धुवं ।। ३४९ ॥ विधि है। शास्त्र की पूजा अर्थात् श्रद्धा भक्ति पूर्वक स्वाध्याय करने से मन के कुभाव अन्वयार्थ- (प्रथमानुयोग पद वेदंते) प्रथमानुयोग से अपने शाश्वत सिद्ध पद बंद हो जाते हैं.चिंतायें मिट जाती हैं. अज्ञान का नाश हो जाता है. ज्ञान का प्रकाश की अनुभूति होती है (विजन पद सब्दयं) व्यंजन, पद, शब्द, अर्थ से (तिअर्थ पद 2 होता है, कर्मों की निर्जरा होती है। पाप, विषय-कषायों से बचाने वाला ही श्रतज्ञान सुद्धस्य) रत्नत्रयमयी शुद्ध पद का (न्यानं आत्मा तुव गुनं) ज्ञान होता है, जो आत्मा है। आत्मा-अनात्मा का भेदज्ञान कराने वाला शास्त्र का अभ्यास है। जिनवाणी के का अपना गुण है। प्रति अटूट श्रद्धा भक्ति रखते हुए धर्म ध्यान में लीन होना सच्ची श्रुतपूजा है। (विंजनं च पदार्थंच) व्यंजन और पदार्थ आदि के (सास्वतं नाम सार्धयं) नाम १.प्रथमानुयोग-इसमें २४ तीर्थंकर,१२ चक्रवर्ती ९ नारायण,९ व उनकी सार्थकता श्रद्धान सदा से चले आ रहे हैं (उर्वकारस्य वेदंते) पंच परमेष्ठी २०० Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री बाचकाचार जी गाथा-३५०-३५३ o मयी परमात्मा का अनुभव करना (सार्धं न्यान मयं धुवं) और अपने ज्ञानमयी ध्रुव (सुद्धात्मा चेतनं जेन) जैसे भी बने अपने शुद्धात्मा का अनुभव चिंता करो स्वभाव की साधना करना ही प्रथमानुयोग का अभिप्राय है। (उवं हियं श्रियं पदं) ॐ ह्रीं श्रीं पद वाला (पंच दीप्ति मयं सुद्धं) पंच ज्ञानमयी शुद्ध विशेषार्थ- सम्यक्ज्ञानी ही प्रथमानुयोग के अभिप्राय को जानता है कि ५ (सुद्धात्मा सुद्धं गुन) निज शुद्धात्मा के शुद्ध गुणों का चिंतन करो। व्यंजन, पद, शब्द, अर्थ से अपने रत्नत्रयमयी शुद्धपद का ज्ञान करना और यही8 (सल्यं मिथ्या मयं तिक्तं) मिथ्यात्वमयी शल्यों को छोडो (कुन्यानं ७ आत्मा का वास्तविक गुण है। संसार में अनादिकाल से यह जीव अपने स्वरूप को त्रिविमुक्तयं) कुज्ञानों से भी हटकर बचकर रहो (ऊधं च ऊर्ध सद्भाव) ऊर्धगामी भूला किन-किन गतियों में कैसे-कैसे दुःख भोगता रुल रहा है। जिन्होंने अपने जो अपना ऊर्ध स्वभाव है (उर्वकारं च विंदते) ऐसे परमात्म स्वरूप की अनुभूति शाश्वत पद और स्वरूप को जान लिया वह आत्मा से परमात्मा बन गये, जिनके करो। स्वरूप का वर्णन त्रेसठ शलाका पुरुषों के जीवन चरित्र के माध्यम से बताया गया (दिव्य दिस्टीच संपून) द्रव्य दृष्टि या द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि संपूर्ण द्रव्य को है। मूल प्रयोजन यही है कि अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव को जाने पहिचानें और देखने वाली है (सुद्धं संमिक दर्सन) यही शद्ध सम्यकदर्शन है (न्यान मयं साधु उसकी साधना-आराधना कर हम भी परमात्मा बनें, इस संसार के जन्म-मरण के सुद्ध)अपने ज्ञानमयीशुद्ध स्वभाव की साधना करो (करनानुयोग स्वात्म चिंतन)अपने इसी से दस नाम और पट की सार्थकता है। प्रत्येक जीव का स्वभाव आत्मा का चिंतन करना ही करणानुयोग है। द्र अविनाशी परमानंदमयी परमात्म स्वरूप है. ऐसा समझकर विशेषार्थ- करणानुयोग लोक और अलोक के विभाग को, युग के परिवर्तन हम भी अपने परमात्म स्वरूप की अनुभूति निश्चय श्रद्धान करें और धर्म मार्ग पर को, चार गति के जीवों के स्वरूप को, दर्पण के समान यथार्थ बतलाने वाला है। चलकर मुक्ति प्राप्त करें, यही प्रथमानुयोग की सिद्धि है। , अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल का परिवर्तन कहाँ होता है, किस तरह होता है, चार आगे करणानुयोग का स्वरूप बताते हैं गति के जीवों के भाव किस तरह के होते हैं, उनकी क्या-क्या अवस्थायें होती करनानुयोग संपून,स्वात्म चिंता सदा बुधै। ॐ हैं, उनके परिणाम कैसे बढ़ते-चढ़ते हैं, कौन गुणस्थान किस गति में होते हैं, किस स्व स्वरूपं च आराध्य, करनानुयोग सास्वतं ॥ ३५०॥ 3 गति में किसके कितने कर्मों का बन्ध उदय व सत्ता कैसे कितनी रहती है। जिन परिणामों से सम्यक्त्व होता है, उन अध:करण, अपूर्व करण, अनिवृत्तिकरण सुखात्मा चेतनं जेन,उवं हियं श्रियं पदं । र भावों को बताता है। सम्यक्त्वी को बंधक क्यों कहते हैं, अबंधक क्यों कहते हैं? पंच दीप्ति मयं सुद्धं, सुद्धात्मा सुद्धं गुनं ॥ ३५१॥ कषायों का उतार-चढ़ाव कैसे होता है? यह अनुयोग बाहरी क्रियाओं पर लक्ष्यन सल्यं मिथ्या मयं तिक्त, कुन्यानं त्रि विमुक्तयं। 5 देता हुआ, भावों की तौल करना बताता है। एक मुनि यदि मोही संसाराशक्त है ऊर्थ च ऊर्थ सद्भाव, उर्वकारं च विंदते ॥ ३५२॥ एआत्मानुभूति रहित है तो करणानुयोग उसे मिथ्यादृष्टि कहता है तथा एक चांडाल यदि सम्यक्त्व से विभूषित है, तो यह उसको सम्यकदृष्टि ज्ञानी मोक्षमार्गी कहता है। दिव्य दिस्टी च संपून,सुद्धं संमिक दर्सनं । ॐकरणानुयोग धर्म कांटा है, जो जीव की वर्तमान पात्रता को बताता है। इस तरह न्यान मयं साधं सुद्ध, करनानुयोगस्वात्मचिंतनं ॥३५३॥ 5 जानकर अपने आत्मा को इस अनादि संसार में कैसी-कैसी दुर्दशा हुई, उसको 2 अन्वयार्थ- (करनानुयोग संपून) सम्पूर्ण करणानुयोग का सार यह है कि विचारना चाहिये। यह जीव किस तरह चतुर्गति में भ्रमण करके व किन-किन भावों (स्वात्म चिंता सदा बुधै) ज्ञानी हमेशा अपनी आत्मा की चिंता करे (स्व स्वरूपं च से कैसे-कैसे कर्म बांधकर दु:ख उठा चुका है, इस तरह विचार कर संसार से वैराग्य, आराध्यं) अपने स्वरूप की आराधना करना ही (करनानुयोग सास्वतं) करणानुयोग आत्म कल्याण की भावना, मुक्ति पद की रुचि करके उसके उपाय रूप अपने निज का मूल अभिप्राय है। शुद्ध स्वरूप को ध्याना चाहिये तभी करणानुयोग पढ़ने की सार्थकता है। २०१ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ o DOON श्री आचकाचार जी गाथा-३५४,३५५ यहाँ तारण स्वामी इस बात को स्पष्ट करते हैं कि कोई करणानुयोग को पढ़कर (षट् कमलं त्रिलोकं च) षट्कमल के द्वारा तीन लोक में (साधं धर्म संजुतं) तीन लोक का स्वरूपजान ले, गुणस्थान मार्गणा का स्वरूप जान ले व कर्मों के बंध साधना और धर्म ध्यान में लीन होना (चिद्रूपं रूप दिस्टंते) अपने चिद्रूप स्वरूप की उदय सत्ता का स्वरूप जान ले, व चार गति के जीवों का स्वरूपजान ले तथा काल . अनभति होना. दिखाई देना ही (चरनं पंच दीप्तयं) सम्यक्चारित्र है, जो पंचज्ञानमयी चक्र के स्वरूप को समझ ले और विशेष पंडित होकर ज्ञान का मद करे, मात्र मान 6 परमेष्ठी पद का प्रकाशक है। कषाय बढ़ावे, अपना सच्चा हित न करे उसे करणानुयोग जानने से क्या लाभ है? विशेषार्थ- चरणानुयोग में चारित्र का वर्णन है, जिसमें श्रावक और साधु का __करणानुयोग का संपूर्ण सार तो यह है कि हम अपनी आत्मा की चिंता करें, - आचरण, उनकी समस्त क्रियाओं का स्वरूप बताया गया है, मन वचन काय की उसे संसार के दु:ख और दुर्गतियों से बचायें, हमेशा अपने स्वरूप की आराधना करें, प्रचंचलता ध्यान में बाधक है। जब तक पाँचों इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति रहेगी, तब जैसे भी बने अपने शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव चिंतन करें, जो ॐ ह्रीं श्रीं स्वरूप, तक उपयोग अपने स्वभाव में एकाग्र निश्चल नहीं हो सकता । पापों से विरक्त परमात्मा तीर्थकर सिद्ध पद वाला पंच ज्ञान मयी निजशुद्धात्मा है, उसके शुद्ध गुणों होकर, विषयों से निवृत्त होकर, मन को शान्त एकाग्र कर जो अपने आत्म स्वरूप का स्मरण करें तथा वर्तमान में उन पर कौन-कौन कर्मों का कैसा आवरण पड़ा है की साधना करता है, ध्यान में स्थित होता है और जब अपना शुद्धात्म स्वरूप उसे जानें. उन कर्मों के क्षय करने का एक मात्र उपाय निज शुद्धात्मानुभूति है, एसा अनभति में आता है. उसमें लीनता होती है वह अतीन्द्रिय आनंद की अनुभूति समझकर निरन्तर शुद्धात्मा का अनुभव व चेतना का ध्यान करना योग्य है। मिथ्यात्वमयी शल्यों और तीनों कुज्ञानों को छोड़कर सम्यक्ज्ञान का प्रकाश, 5 परमानंद दशा ही सम्यक्चारित्र है। जो तीन लोक में सारभूत इष्ट उपादेय अपना ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव है उसमें संपूर्ण लीन हो जाना.एकमात्र अपने शुद्ध चिद्रूप को करें, अपना जो ऊर्ध्वगामी सिद्ध के समान शुद्ध स्वरूप है, उस परमात्म स्वरूपकी। ही देखना सम्यक्चारित्र है और इसी से कर्म क्षय होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। अनुभूति करें, द्रव्य दृष्टि से अपने संपूर्ण शुद्ध स्वरूप को देखें यही शुद्ध सम्यकदर्शन चरणानुयोग में ध्यान का विशेषता से वर्णन किया गया है। चित्त की एकाग्रता है। अपने ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव की साधना करना, संसार के चक्र से अपनी आत्मा ई * पूर्वक उपयोग का अपने स्वभाव में स्थित हो जाना ही ध्यान है और इसके लिये को छुड़ाकर मुक्ति मार्ग में लगा देना यही करणानुयोग का सार है। ज्ञानी साधक ऐसे २. साधक को विविध प्रकार से षट्कमलों के माध्यम से पदस्थ, पिंडस्थ आदिध्यानों अपने स्वस्वरूप और कर्मों के स्वरूप को जानकर, सम्यकज्ञान द्वारा अपने आत्म की साधना करना पड़ती है क्योंकि अनादि से उपयोग बहिर्मुखी रहा है, शरीरादि स्वरूप का आराधन करते हैं यही करणानयोग की सिद्धि है। संयोग विषयादि में रत रहा है, इन सबसे हटाकर अपने स्वरूप में लगाना धर्म आगे चरणानुयोग का स्वरूप बताते हैं में लीन होना, शुद्ध चिद्रूप को देखना, अपने पंच ज्ञान मयी परमेष्ठी पद की चरनानुयोग चारित्रं,चिद्रूपं रूप द्रिस्यते । साधना-आराधना करना ही सम्यक्चारित्र है, जो चरणानुयोग का विषय है। ऊर्थ आच मध्य च,संपूरनं न्यान मयं धुवं ।। ३५४॥ ॐ सम्यवर्शन, सम्यशान होना, पुरुषार्थ का जागना है, और षट् कमलं त्रिलोकं च, साधं धर्म संजुतं । ४ सम्यश्चारित्र पुरुषार्थ करना है। दर्शनोपयोग का अपने स्वरूप को देखना चिद्रूपं रूप दिस्टते, चरनं पंच दीप्तयं ॥ ३५५॥ और उसमय होना ही सम्यक्चारित्र है और यह व्यवहार चारित्र की शुद्धि होने पर ही होता है। द्रव्य संयम बगैर भाव संयम नहीं होता। श्रद्धान शान अलग अन्वयार्थ- (चरनानुयोग चारित्र) चरणानुयोग में चारित्र का वर्णन है (चिद्रूपं बात है, चारित्र में निश्चय-व्यवहार का समन्वय आवश्यक है तभी सम्यचारित्र रूप द्रिस्यते) चिद्रूप अर्थात् सिद्ध के समान अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखना (ऊर्ध होता है। आधं च मध्यंच) ऊपर नीचे और मध्य में सब तरफ सब प्रकार से (संपूरनंन्यान मयं आगे द्रव्यानुयोग का स्वरूप बताते हैंधुवं) अपना ज्ञानमयी धुव स्वभाव परिपूर्ण है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gandon POON श्री श्रावकाचार जी दिव्यानुयोग उत्पादंते,दिव्य दिस्टीच संजुतं । भिन्न-भिन्न हैं। जैसे तिल में तेल और खली अलग-अलग हैं, धान में चावल और अनंतानंत दिस्टते, स्वात्मानं विक्त रूपयं ॥ ३५६ ॥ छिलका भूसी अलग है, स्फटिक मणि में स्फटिक और लाल डाक अलग है, गहने में दिव्यं दिव्य दिस्टीच, सर्वन्यं सास्वतं पदं। . सोना और खार अलग है। इसी प्रकार इस शरीर में शरीर से भिन्न जीवात्मा है, जो नंतानंत चतुस्टं च, केवलं पदम धुर्व ॥ ३५७॥ ४ सर्वज्ञ स्वरूपी परमात्मा है, जो जीव ऐसा भेदविज्ञान पूर्वक भिन्नता भासित करते हैं, वह सम्यक्दृष्टि ज्ञानी कहलाते हैं और अपने स्वरूप की साधना करके आत्मा से अन्वयार्थ- (दिव्यानुयोग उत्पादंते) द्रव्यानुयोग उत्पन्न होता है (दिव्य दिस्टी 5 परमात्मा हो जाते हैं। संसार के जन्म-मरण के दुःखों से मुक्त होने का एकमात्र यही च संजतं) द्रव्य दृष्टि और उसमें लीन होना (अनंतानंत दिस्टते) अनंतानंत संसार ८ उपाय है। द्रव्यदृष्टि होने पर ही यह मुक्ति का मार्ग बनता है और यह आत्मा परमात्मा में उसे दिखाई देता है कि (स्वात्मानं विक्त रूपयं) अपना आत्मा ही अनुभूतियुत होता है। प्रत्यक्ष प्रगट स्वरूप है। इस प्रकार यह चार अनुयोगों का स्वरूपबताया, इसको जानकर क्या करना (दिव्यं दिव्य दिस्टी च) इस द्रव्यानुयोग और द्रव्यदृष्टि की अपूर्व महिमा है चाहिये यह आगे की गाथा में कहते हैं(सर्वन्यं सास्वतं पदं) यह अपने सर्वज्ञ स्वरूप शाश्वत पद सिद्ध स्वरूप को बताती चत्वारि गुण जानते, पूजा वेदंति जं बुध। है (नंतानंत चतुस्टं च) जो अनंत चतुष्टय वाला (केवलं पदमं धुवं) केवलज्ञानमयी ध्रुव पद है। संसार भ्रमण मुक्तस्य, सुखं मुक्ति गामिनो॥३५८॥ विशेषार्थ- यह चौथा अनुयोग द्रव्यानुयोग है. जिसमें ६ द्रव्य.५अस्तिकाय. अन्वयार्थ- (चत्वारि गुण जानते) जो इन चारों अनुयोग के स्वरूप और गुणों ७ तत्व,९ पदार्थ का स्वरूप बताया है. जिसमें प्रमख जीव द्रव्य से जीवतत्व होने को जानकर (पूजा वेदंतिजं बुधै) जो ज्ञानीजन इसकी अनुभूति और आचरण रूप का रहस्य स्पष्ट किया गया है। जगत में जीव अनन्त, पुद्गल अनन्तानंत, धर्म पूजा करते हैं (संसार भ्रमण मुक्तस्य) वह संसार के भ्रमण से मुक्त होकर (सुद्ध एक, अधर्म एक, आकाश एक और कालाणु असंख्यात हैं। जीव पुदगल में मुक्ति गामिनो) अपने शुद्ध स्वभाव की साधना करके मोक्षगामी परमात्मा हो जाते हैं। स्वभाव-विभाव रूप परिणमन शक्ति होती है,शेष चारों द्रव्य अपने स्वभाव रूपही विशेषार्थ- जो ज्ञानी साधक पात्र जीव इन चारों अनुयोगों के द्वारा अपने परिणमन करते हैं। इनमें एक जीव चेतन शक्ति वाला और शेष पाँच अजीव अचेतन 2 स्वरूप और गुणों को जानकर इसकी अनुभूति और आचरण रूप पूजा करते हैं हैं। अनादि से मिले एकमेक होने के कारण संसार चल रहा है। जीव, तत्वदृष्टि से अर्थात् स्वाध्याय से सार वस्तु को ग्रहण कर उस मार्ग पर चलते हैं, वह संसार भ्रमण सिद्ध के समान शुद्ध परमात्म स्वरूप है। अपने स्वरूप को भूला है, इसलिये आस्रव से मुक्त होकर अपने शुद्ध शाश्वत सिद्ध पद को पाते हैं। जैनदर्शन के मर्म और बंध करता हुआ संसार में रुल रहा है । द्रव्यानुयोग में इसे अपने सत्स्वरूप का मुक्ति प्राप्त करनेवाले जीव के लिये यह चार अनुयोग, पाँच समवाय (स्वभाव, निमित्त, दिग्दर्शन कराया गया है कि प्रत्येक जीव आत्मा अपने स्वभाव से त्रिकाल शुद्ध पुरुषार्थ, काललब्धि, नियति) और दो नय (निश्चय नय-व्यवहार नय) का ज्ञान चैतन्यमयी अरिहन्त और सिद्ध परमात्मा के समान सर्वज्ञ स्वरूपी शाश्वत पद वाला होना अति आवश्यक है क्योंकि इनको जाने बिना यह जीव संसार से छूटकर मुक्त र अनन्तचतुष्टय- अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य वाला नहीं हो सकता, एकान्त पक्ष से कहीं भी अटककर रह जावेगा। केवलज्ञान मयी धुवतत्व है। अपने स्वरूप को भूला हुआ यह शरीर ही मैं हूँ, यह जो जिनागम की सदा अच्छी रीति से उपासना करता है, उसे सात गुणों की शरीरादि मेरे हैं और मैं इनका कर्ता हूँ ऐसी मान्यता कर संसार की चार गति और प्राप्ति होती हैचौरासी लाख योनियों में रुल रहा है। द्रव्यानुयोग भेदविज्ञान द्वारा द्रव्य दृष्टि कराता १.त्रिकालवर्ती अनन्त द्रव्य पर्यायों के स्वरूप का ज्ञान होता है। है कि यह जड़ शरीरादि पुद्गल कर्म और जीव एकमेक मिले हुए होने पर भी २. हित की प्राप्ति और अहित के परिहार का ज्ञान होता है। २०३ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता। poun श्री श्रावकाचार जी ३. मिथ्यात्व आदि से होने वाले आस्रव का निरोधरूप भाव संवर होता का प्रकाश होने लगता है। है अर्थात् शुद्धात्मानुभूति रूप परिणाम होता है। (श्रियं संमिक दर्सनं सुद्धं) इसलिये शुद्ध सम्यक् दर्शन ही श्रेयस्कर श्रेष्ठ ४. प्रतिसमय संसार से नये-नये प्रकार की भीरुता (वैराग्य) होता है। . है (श्रियंकारेन उत्पादते) इसी से मुक्ति का मार्ग उत्पन्न होता है अर्थात् पाप, ५. व्यवहार और निश्चय रूप रत्नत्रय में अवस्थिति होती है, उससे चलन नहीं 8 विषय-कषायों से विरक्ति होती है (सर्वन्यं च मयं सुद्ध) सर्वज्ञ अर्थात् अरिहन्तपरमात्मा समान में भी शुद्ध आत्मा परमात्मा हूँ ऐसा दृढ़ निश्चय श्रद्धान ही (श्रियं संमिक ६. रागादि का निग्रह करने वाले उपायों में भावना होती है। दर्सन) श्रेष्ठ सम्यक्दर्शन है, जिससे पांच महाव्रत पालने की भावना पैदा होती है। ७.पर को उपदेश देने की योग्यता प्राप्त होती है; अत: शास्त्र स्वाध्याय से विशेषार्थ- अष्टांग सम्यक्दर्शन, अष्टांग सम्यक्ज्ञान और मुनियों के पंच महाव्रत भेदज्ञान होता है, भेदविज्ञान से स्वानुभव सम्यकदर्शन होता है, स्वानुभव से ही रूप आचरण को व्यवहार रत्नत्रय कहते हैं तथा अपने आत्मतत्व का परिज्ञान और केवलज्ञान सर्वज्ञ परमपद होता है इसलिये प्रथमानुयोग के- पद्मपुराण, हरिवंश आत्मतत्व में ही निश्चल होने को निश्चय रत्नत्रय कहते हैं। यहाँ सम्यक्दर्शन को पुराण, पार्श्वपुराण, महावीर पुराण,जम्बूस्वामी चरित्र, धन्यकुमार चरित्र, सुकुमाल श्रेष्ठ श्रेयस्कर इसलिये कहा है कि इसके बगैर कभी भी मुक्ति हो ही नहीं सकती। चरित्र आदि । करणानुयोग के-त्रिलोकसार, गोम्मटसार, लब्धिसार, जय धवल, सम्यकदर्शन की शद्धि होने पर ही रत्नत्रय, पंच ज्ञान परमेष्ठी पद की शोभा है। महाधवल, त्रिलोक प्रज्ञप्ति आदि। चरणानुयोग के- मूलाचार, भगवती आराधना, शरीरादि से भिन्न निज शुद्धात्मानुभूति दृढ़ श्रद्धान होना ही शुद्ध सम्यक्दर्शन है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, धर्मामृत आदि । द्रव्यानुयोग के-द्रव्य सम्यकदर्शन,सम्यक्ज्ञान होने पर विवेक जाग्रत हो जाता है, पुरुषार्थ काम करने संग्रह, तत्वार्थसूत्र,पंचास्तिकाय,प्रवचनसार, समयसार,निमयसार, परमात्मप्रकाश लगता है. तब संसार बंधन के कारण पाप, विषय-कषायों से जीव स्वयं हटने बचने आदि ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिये। शास्त्र स्वाध्याय करना ही श्रुत की द्रव्यपूजा लगता है। पापों का एकदेश त्याग अणुव्रत और सर्वदेश त्याग महाव्रत कहलाता है। है और तद्प आचरण करना श्रुत की भावपूजा है, जो संसार से पार करने वाली सम्यकदष्टि के जीवन में यह सहजता से पलने लगता है क्योंकि उसे अपने सर्वज्ञ ४ स्वरूपी परमात्मपद का बोध जाग गया है अत: वह पंच महाव्रत रूप साधु पद की आगे पात्र जीव की विशेषता में रत्नत्रय धारण कर तेरह विधि चारित्र का पालन साधना करता है, इससे ही अरिहंत, सिद्ध पद होता है। करना,जो सच्ची देवपूजा का एक अंग है, इसका स्वरूप आगे गाथाओं में कहते हैं- पांच महाव्रत-१. अहिंसा महाव्रत, २. सत्य महाव्रत, ३. अचौर्य महाव्रत, श्रियं संमिक दर्सनं च, संमिक दर्सनमुद्यमं । ४. ब्रह्मचर्य महाव्रत, ५. अपरिग्रह महाव्रत। संमिक्तं संपूर्न सुखंच, तिअर्थ पंच दीप्तयं ।। ३५९॥ १.अहिंसा महाव्रत-छह काय के जीवों की रक्षा करना और राग-द्वेष, मोह S को मन से हटाना अहिंसा महाव्रत है। वीतराग दशा ही अहिंसा महाव्रत है। श्रियं संमिक दर्सनं सुख,श्रियंकारेन उत्पादते। २. सत्य महाव्रत-कभी किंचित् भी झूठ न बोलना सत्य महाव्रत है, अपने सर्वन्यं च मयं सुद्धं,श्रियं संमिक दर्सनं ।। ३६०॥ सत्स्वरूप में निमग्न रहना ही सत्य महाव्रत है। (श्रियं संमिक दर्सनं च) सम्यक्दर्शन ही श्रेयस्कर श्रेष्ठ है, श्री ३.अचौर्य महाव्रत-बिना दिया जल मिट्टी और तृण तक न लेना अचौर्य । कहिये शोभनीक, मंगलीक, जय जयवंत, कल्याणकारी, महासुखकारी है (संमिक महाव्रत है। पर द्रव्य, पर भाव और अशुद्ध पर्याय को ग्रहण न करना अचौर्य महाव्रत दर्सनमुद्यम) सम्यक्दर्शन का उद्यम करना ही हितकारी है (संमिक्तं संपूर्न सुद्धं च) है। जहाँ सम्यक्त्व संपूर्ण शुद्ध हुआ अर्थात् भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति और ४.ब्रह्मचर्य महाव्रत-शील के अठारह हजार भेदों का पालन करते हुए स्त्री उसकी दृढ़ प्रतीति हुई कि (तिअर्थं पंच दीप्तयं) रत्नत्रय, पंचज्ञान और परमेष्ठी पद मात्र का त्याग करना ब्रह्मचर्य महाव्रत है। अब्रह्म अर्थात् अनात्म वस्तु में रमण न २०४ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Preakinenorreckondom Our श्री बाचकाचार जी करना अपने ब्रह्म स्वरूप आत्मा में ही लीन रहना ब्रह्मचर्य महाव्रत है। का क्षयोपशम होता जाता है। जिससे अवधिज्ञान, मन: पर्ययज्ञान प्रगट हो जाते हैं, ५.अपरिग्रह महाव्रत-चौदह प्रकार के अन्तरंग और दश प्रकार के बाह्य श्रुतकेवली हो जाते हैं। जिसमें संपूर्ण त्रिलोक का ज्ञान हो जाता है, यदि किसी को । परिग्रह से सर्वथा रहित होना परिग्रह त्याग महाव्रत है। पर के प्रति ममत्व और मूर्छा पूर्ण श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान या मन: पर्ययज्ञान न भी होवेंतो भी शुद्धात्मानुभव में वह भाव का अभाव होजाना अपरिग्रह महाव्रत है। इस प्रकार सम्यक्दर्शन की महिमा से शक्ति है कि एक मुहूर्त के ध्यान से सर्वघातिया कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान प्रगट यह पांच महाव्रत स्वयं पलने लगते हैं। * हो जाता है। केवलज्ञान के होते ही सर्वज्ञ अरिहंत परमात्म पद हो जाता है, जिसमें सम्यज्ञान की महिमा से पाँच समितियों का पालन होता है इसको आगे की अपने शद्धात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन परमानंद ही परमानंद हो जाता है। गाथाओं में कहते हैं सम्यक्ज्ञान की शुद्धि होने के बाद इसका कभी अभाव नहीं होता, यह बिलाता न्यानं च संमिक्तं सुद्ध, संपूरनं त्रिलोकमुधर्म। नहीं है, यह शाश्वत रहता है, वृद्धिगत होता हुआ केवलज्ञान रूप प्रगट होता है सर्वन्यं पंच मयं सुख, पद विंदं केवलं धुर्व ॥३१॥ इसलिये सम्यक्ज्ञान को सबसे श्रेष्ठ कहते हैं। इसके होने पर स्व-पर का यथार्थ श्रियं संमिक न्यानं च, श्रियं सर्वन्य सास्वतं । * ज्ञान होता है और यही सम्यक्चारित्र का कारण है। सम्यक्ज्ञान होने से वस्तु का र स्वरूप स्पष्ट दिखने लगता है। अपने आत्म कल्याण की भावना से पापों से विरत लोकालोकंच मर्यसुद्ध, श्रियं संमिकन्यान उच्यते॥३२॥ होकर पाँच समिति का पालन होने लगता है, जिससे उसके जीवन में साधुता समता अन्वयार्थ- (न्यानं च संमिक्तं सुद्ध) सम्यक्दर्शन सहित जो ज्ञान है वही ८ शान्ति आ जाती है। शुद्ध है (संपूरन त्रिलोकमुद्यम) इसी से तीन लोक में संपूर्ण केवलज्ञान का उद्यम पाँच समिति निम्न प्रकार हैंहोता है (सर्वन्यं पंच मयं सुद्ध) जो पंच ज्ञानमयी शुद्ध सर्वज्ञत्व को प्रगट करता है, १.ईर्या समिति, २. भाषा समिति, ३. ऐषणा समिति, ४. आदान निक्षेपण जिससे (पदविंद केवलं धुवं) अपने केवल ध्रुव पद की अनुभूति होती है। ॐ समिति, ५. प्रतिष्ठापन या उत्सर्ग समिति। (श्रियं संमिक न्यानं च) परम ऐश्वर्यशाली श्रेष्ठ सम्यक्ज्ञान (श्रियं सर्वन्य प्राणियों को पीड़ा पहुँचे, इस भावना से देखभाल कर प्रवृत्ति करने को समिति सास्वतं) अतिशय रूप सर्वपदार्थों का ज्ञाता और अविनाशी है (लोकालोकं च मयं कहते हैं। अहिंसा परमो धर्म: की साधना और संभाल का नाम समिति है। सुद्ध) लोकालोक को प्रकाशित करने वाला शुद्ध ज्ञानमयी सूर्य है (श्रियं संमिक न्यान. १.ईर्या समिति-प्रासुक स्थान से सूर्य के प्रकाश में चार हाथ जमीन देखकर उच्यते) इसलिये सम्यक्ज्ञान को सबसे श्रेष्ठ कहते हैं। धीरे-धीरे चलना ईर्या समिति है। अपने आत्म स्वभाव में रमना ईर्या समिति है। विशेषार्थ- सम्यक्ज्ञान में केवलज्ञान की नोंध है अर्थात् जो केवलज्ञान में २. भाषा समिति-दस प्रकार की दुर्भाषाओं को छोड़कर हित-मित और लोकालोक का स्वरूप प्रत्यक्ष जाना जाता है, वह सम्यकज्ञान में परोक्ष में जाना संशय में न डालने वाले वचन बोलना भाषा समिति है। जाता है, इसमें और उसमें कोई भेद नहीं पड़ता। ज्ञान सम्यक्दर्शन के बगैर शुद्ध दस प्रकार की दुर्भाषा निम्न प्रकार है-१. कर्कराभाषा-तू मूर्ख है आदि कहना। नहीं होता अर्थात् सम्यक्ज्ञान नाम नहीं पाता। वैसे क्षयोपशम ज्ञान में संपूर्ण आगम २.मर्म को छेदने वाली भाषा।३. कटुभाषा - तू अधर्मी है आदि कहना। ४. निष्ठुर ९और तीन लोक का ज्ञान हो जावे यहाँ तक कि साधु बनकर ग्यारह अंग नौ पूर्व का भाषा -मारने काटने आदि शब्द कहना। ५. परकोपिनी-तू निर्लज्ज है आदि, ज्ञान भी होजावे परन्तु आत्मप्रतीति सम्यक्दर्शन के बिना वह मिथ्यात्व सहित होने कहना। ६.छेदकरा-झूठादोष लगाना।७. अतिमानिनी-अपना बड़प्पन बघारना, से मिथ्याज्ञान कहलाता है, जहाँ आत्मानुभूति जाग्रत हो जाती है, उसी ज्ञान को दूसरों की निंदा करना। ८. द्वेष उत्पन्न कराने वाले वचन कहना। ९. प्राणियों की सम्यक्ज्ञान कहते हैं, यह सम्यज्ञान दूज के चन्द्रमा समान होता है, इसी ज्ञान के हिंसा कराने वाले वचन कहना। १०. अत्यन्त गर्हित और अति गर्व से भरे वचन द्वारा जितना-जितना शुद्धात्मा का अनुभव किया जाता है, उतना ज्ञानावरण कर्म बोलना। अपने नि:शब्द स्वरूप में स्थित रहना भाषा समिति है। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री श्रावकाचार जी गाथा-३६३,३६४ POOO ३. ऐषणा समिति-वीरचर्या द्वारा, श्रावकों के द्वारा भक्ति पूर्वक दिये गये परिवर्तन होता जाता है, चौथा गुणस्थान होते ही अनन्तानुबंधी कषाय चली जाती निर्दोष आहार को योग्य समय पर उचित मात्रा में विधि पूर्वक ग्रहण करना ऐषणा है। एकदेश संयम अणुव्रती पंचम गुणस्थान होने पर अप्रत्याख्यान कषाय चली समिति है। अपने आत्म स्वभाव को भक्ति बहुमान पूर्वक ग्रहण करना ऐषणा . जाती है। सकल संयम महाव्रत साधुपद छठा गुणस्थान होने पर प्रत्याख्यान कषाय समिति है। * चली जाती है, स्वरूप की स्थिरता से संज्वलन कषाय भी मंद होती जाती है। जिससे ७ ४. आदान निक्षेपण समिति-अच्छी तरह से देखभाल कर पुस्तक आदि सातवेंगुणस्थान में श्रेणी माड़कर क्षपक श्रेणी से यथाख्यात चारित्र होते ही अरिहन्त को उठाना और रखना आदान निक्षेपण समिति है। अपने आत्मा को विभावों से सर्वज्ञ पद प्रगट हो जाता है। केवलज्ञानी परमात्मा अपने शुद्ध स्वभाव मय हो जाते बचाकर स्वभाव में स्वच्छ पवित्र रखना आदान निक्षेपण समिति है। ६ हैं। यह सम्यक्चारित्र की ही विशेषता श्रेष्ठता है। ५. प्रतिष्ठापन या उत्सर्ग समिति-जीव-जंतु रहित एकान्त स्थान को । सम्यकचारित्र का स्पष्ट प्रत्यक्षपना वीतरागी निर्ग्रन्थ साधु होने पर ही होता देख भालकर मल मूत्रादि त्यागना उत्सर्ग समिति है। राग-द्वेषादि मलों से बचकर है। जहाँ रत्नत्रय की शुद्धि पूर्वक स्वरूपाचरण का पुरुषार्थ जागा और स्वरूप में अपने शुद्ध स्वभाव में रहना, उत्सर्ग समिति है। लीनता हुई कि आत्मा का प्रत्यक्षपना सर्वज्ञ स्वरूप प्रगट हो जाता है। बुद्धिमान इस प्रकार सम्यज्ञान के प्रकाश में निश्चय-व्यवहार के समन्वय पूर्वक इन साधक पात्र जीव इस सम्यक्चारित्र की श्रेष्ठता,तीन गुप्तियों का पालन करता हुआ, समितियों का पालन होता है, तभी साधक देवपूजा का अधिकारी होता है। अपने सर्वज्ञ स्वभावी देवत्व पद को पाता है और आत्मा से शुद्ध परमात्मा हो जाता है। आगे सम्यक्चारित्र की श्रेष्ठता, तीन गुप्तियों का पालन होना बताते हैं गुप्ति के तीन भेद हैं-१.मनगुप्ति, २.वचनगुप्ति, ३.कायगुप्ति। श्रियं संमिक चारित्रं, संमिक उत्पन्न सास्वतं । गुति-लोगों के द्वारा की जाने वाली पूजा, लाभ और ख्याति की इच्छा न अप्पा परमप्पयं सुद्ध, श्रियं संमिक चरनं भवेत् ।। ३६३॥ S करने वाले साधु को सम्यक्दर्शन आदि रत्नत्रय स्वरूप अपनी आत्मा को मिथ्यादर्शन आदि से रक्षा करने के लिये सावद्य योगों का निग्रह करना चाहिये। श्रियं सर्वन्य साधं च, स्वरूपं विक्त रूपयं। 8 जिससे संसार के कारणों से आत्मा की रक्षा होती है उसे गुप्ति कहते हैं। मन श्रियं संमिक्त धुर्व सुख,श्री संमिक चरनं बुध ।। ३६४॥ वचन काय से उत्पन्न अनेक पाप सहित प्रवृत्तियों का प्रतिषेध करने वाली अथवा अन्वयार्थ- (श्रियं संमिक चारित्रं) श्रेष्ठ सम्यक्चारित्र (संमिक उत्पन्न सास्वतं) तीनों योगों की रोधक तीन गुप्तियाँ मानी गई हैं। (धर्मामृत अनगार) सम्यक्दर्शन सहित पैदा होता है जो अविनाशी होता है, जिससे (अप्पा परमप्पयं १. मन गुप्ति- राग-द्वेष और मोह के त्याग रूप अथवा आगम का विनय सुद्ध) आत्मा परमात्मा के समान शुद्ध हो जाता है (श्रियं संमिक चरनं भवेत) यही पूर्वक अभ्यास और धर्म तथा शुक्ल ध्यान रूप मनोगुप्ति है। मन की रागादि से श्रेष्ठ सम्यक्चारित्र की विशेषता होती है। निवृत्ति को मनोगुप्ति कहते हैं। मन, इन्द्रियों के द्वारा रूपादि विषयों को ग्रहण करता (श्रियं सर्वन्य साधूच) अपने श्रेष्ठ सर्वज्ञ स्वरूप की साधना करो और (स्वरूपं है तो आत्मा में राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। यहाँ मन शब्द से नो इन्द्रिय मति ली गई है, विक्त रूपयं) अपने स्वरूप को प्रत्यक्ष प्रगट करो (श्रियं संमिक्त धुवं सुद्ध) यह वह आत्मा में रागादि परिणामों के साथ एक काल में होती है क्योंकि विषयों के अवग्रह ९ श्रेष्ठ सम्यक्त्व ही निश्चय से शद्ध होने पर (श्री संमिक चरनं बध) हे ज्ञानीजनो! आदि ज्ञान के बिना राग-द्वेष में प्रवृत्ति नहीं होती; किन्तु वस्तु तत्व के अनुरूप , यही श्री सम्यक्चारित्र है, जो मुक्ति श्री का वरण कराता है, जिसके होने पर तीन मानस ज्ञान के साथ राग-द्वेष नहीं रहते अत: तत्व को जानने वाले मन का रागादि गुप्तियाँ- मनगुप्ति,वचनगुप्ति,कायगुप्ति स्वयमेव हो जाती है। के साथ नहीं होना ही मनोगुप्ति है। यहाँ मन का ग्रहण ज्ञान का उपलक्षण है अत: । विशेषार्थ-सम्यक्दर्शन के उत्पन्न होते ही जो स्वरूपाचरण चारित्र होता है. राग-द्वेष के कलंक से रहित सभी ज्ञान मनोगुप्ति हैं, यदि ऐसा न माना जायेगा तो । वही सम्यक्चारित्र है। जैसा-जैसा स्वरूपाचरण चारित्र बढ़ता है. वैसा ही कषायों का इन्द्रिय जन्य मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान अथवा मन: पर्ययज्ञान रूप परिणत २०६ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PU0 श्री आचकाचार जी गाथा-३६५,३६६ doo आत्मा के मनोगुप्ति नहीं हो सकेगी। रहना अर्थात् मच्छर, मख्खी आदि को भगाना या उनको दूर करने का चिन्तन मनोगुप्ति का स्वरूप तीन प्रकार से कहा है -१. रागादि की निवृत्ति, करना, यह कायगुप्ति के अतिचार हैं। २. आगम का अभ्यास, ३. सम्यध्यान। पापों का सर्वदेश त्याग - महाव्रत,जीवन जीने के लिये- सम्यक्प्रवृत्ति पाँच मनोगुप्ति के अतिचार- आत्मा की राग-द्वेष, मोह रूप परिणति, शब्द समिति ; और कर्मों के आने के द्वार को बंद करने के लिये यह तीन गुप्तियाँ हैं। विपरीतता, अर्थ विपरीतता और ज्ञान विपरीतता तथा दुष्प्रणिधान अर्थात् आर्त-रौद्र इस प्रकार तेरह विधि चारित्र का पालन करता हुआ साधक पात्र जीव सच्चे रूप ध्यान या ध्यान में मन न लगाना, यह मनोगुप्ति के यथायोग्य अतिचार हैं। देव निज शुद्धात्मा के ध्यान में लीन होता है यही सच्ची देवपूजा, देवत्व पद का २. वचन गुप्ति-कठोर आदि वचनों का त्याग अथवा मौन रूप रहना वचन साधन है। गुप्ति है। पाप के हेतु स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, और भोजनकथा न करने को ! पचहत्तर गुन वेदंते,सार्धं च सुद्धं धुवं । तथा अलीक (विपरीत अर्थ या दूसरों के दुःख के हेतु शब्द) आदि वचनों की निवृत्ति पूजतं स्तुतं जेन, भव्यजन सुद्ध दिस्टितं ॥ ३६५॥ वचनगुप्ति है। एतत् गुन सार्धं च, स्वात्म चिंता सदा बुधै। वचन गुप्ति के अतिचार- कर्कश आदि वचन,मोह और संताप का कारण होने से विष के तुल्य हैं। उसका श्रोताओं के प्रति बोलना और स्त्री.राजा,चोर और देवं तस्य पूजस्य, मुक्ति गमनं न संसयः॥३॥६॥ भोजन विषयक विकथाओं में, मार्ग विरुद्ध कथाओं में आदरभाव तथा हुंकार आदि अन्वयार्थ- (पचहत्तर गुन वेदंते) जो इन पचहत्तर गुणों का अनुभवन, क्रिया अर्थात् हूँ हूँ करना,खखारना, हाथ से या भौंह के चालन से इशारा करना यह चिन्तन-मनन करते हैं (सार्धं च सुद्धं धुवं) अपने शुद्ध और ध्रुव स्वभाव की साधना वचन गुप्ति के यथायोग्य अतिचार हैं। S करते हैं (पूजतं स्तुतं जेन) जो इन पचहत्तर गुणों का आराधन आचरण रूप पूजन ३. काय गुप्ति-शरीर से ममत्व के त्याग रूप स्वभाव वाली अथवा हिंसा, और स्तुति करते हैं(भव्यजन सुद्ध दिस्टित) वह भव्यजन शुद्ध दृष्टि होते हैं। मैथुन और चोरी से निवृत्ति रूप स्वभाव वाली अथवा सर्व चेष्टाओं से निवृत्ति रूप (एतत् गुन सार्धं च) इस प्रकार इन पचहत्तर गुणों की साधना और (स्वात्म वाली कायगुप्ति है। औदारिक आदि शरीर की जो क्रिया है, उससे निवृत्ति शरीर गुप्ति चिंता सदा बुधै) स्वात्मा की चिंता अर्थात् अपने आत्म कल्याण की भावना ज्ञानीजन है। काय शब्द से काय संबंधी क्रिया ली जाती है, उसकी कारणभूत आत्मा की क्रिया हमेशा करते हैं (देवं तस्य पूजस्य) वही देव की सच्ची पूजा करते हैं (मुक्ति गमनं न को काय क्रिया कहते हैं उसकी निवृत्ति कायगुप्ति है;अथवा कायोत्सर्ग अर्थात् शरीर संसय:) वह मोक्षगामी हैं अर्थात् वे स्वयं अरिहंत,सिद्ध परमात्मा बनेंगे, इसमें कोई को अपवित्रता, असारता और विपत्ति का मूल कारण जानकर उससे ममत्वन करना संशय नहीं है। कायगुप्ति है। बांधना, छेदन, मारण, हाथ-पैर का संकोच विस्तार आदि काय क्रिया विशेषार्थ- यहाँ शुद्ध षट्कर्म में सच्ची देवपूजा का स्वरूप क्या है ? इसके की निवृत्ति व्यवहार से कायगुप्ति है। काय क्रिया निवृत्ति या कायोत्सर्ग कायगुप्ति है। अन्तर्गत पचहत्तर गणों का वर्णन किया गया है। ७५ गुण इस प्रकार हैं-५परमेष्ठी, कायगुप्ति के तीन लक्षण कहे हैं ३१६ कारण भावना, ८ सिद्ध के गुण, १०धर्म, ३ रत्नत्रय,८ सम्यक्दर्शन के अंग, १. कायोत्सर्ग, २. हिंसादि का त्याग, ३. अचेष्टा। ८ सम्यक्ज्ञान के अंग, ४ अनुयोग और १३ प्रकार चारित्र इन पचहत्तर गुणों के काय गुप्ति के अतिचार-कायोत्सर्ग संबंधी बत्तीस दोष हैं, यह शरीर मेरा है आराधन रूप स्तुतिमनन आचरण रूप पूजन करते हैं, वह भव्यजीव शुद्ध सम्यकदृष्टि इस प्रकार की प्रवृत्ति, जनसमूह के बीच एक पैर से खड़े होकर कायोत्सर्ग आदि होते हैं. जो निश्चय ही मोक्षगामी हैं अर्थात् इन गुणों का पालन कर स्वयं परमात्मा । करना तथा जहाँ जीव जंतुकी बहुतायत हो, स्त्रियों आदि का बाहुल्य हो, धनादि की देवाधिदेव अरिहंत सिद्ध परमात्मा होंगे, यही देव की सच्ची पूजा है। जो सम्यकदृष्टि विशेषता हो, ऐसे स्थान पर रहना तथा अपध्यान सहित शरीरादि परीषह से दूर अव्रत दशा में इस लक्ष्य और भावना से इन गुणों का आराधन और आचरण रूप Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our श्री बाचकाचार जी गाथा-३७-३७. POO. पालन करते हैं, इनको ही इष्ट कल्याणकारी मानते हैं, यही सच्ची देवपूजा है, जो अंतरंग परिग्रह के पूर्ण त्यागी हों, राग-द्वेष रहित वीतरागी हों। जो मिथ्यात्व, माया, देवत्व पद प्रदान कराती है, इसमें कोई संशय नहीं है। यह जैनदर्शन का मूल आधार आदि शल्यों से रहित हों, रत्नत्रय से शुद्ध हों अर्थात् जिनका निश्चय और व्यवहार है कि प्रत्येक जीव अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकता है। कोई पर परमात्मा , रत्नत्रय शुद्ध हो, जो जीव मात्र के प्रति समभावी, समदृष्टि हों। जो जाति-पांति, o किसी जीव का कुछ नहीं कर सकता, प्रत्येक जीव अपनी भावना लक्ष्य और पुरुषार्थ नीच-ऊँच, छोटे-बड़े, गरीब-अमीर के भेदभाव से ऊपर उठ गये हों अर्थात् ७ में पूर्ण स्वतंत्र है, द्रव्य की स्वतंत्रता का यही प्रयोजन है। २. साम्प्रदायिक बंधनों से मुक्त हों, हमेशा आत्मध्यान की साधना में लीन, धर्म ध्यान में शुद्ध षट्कर्म में सर्वप्रथम देवपूजा का पचहत्तर गुण सहित वर्णन किया, आगे रत, आर्त-रौद्र ध्यान से रहित, ज्ञान-ध्यान में युक्त रहने वाले रत्नत्रय से परिपूर्ण शुद्ध गुरू उपासना का स्वरूप कहते हैं ८.गुरू का सत्संग सेवा भक्ति करना चाहिये जिससे अपने भावों में ज्ञान वैराग्य का गुरस्य ग्रंथ मुक्तस्य, राग दोष न चिंतए। । जागरण होता है। जो गुरू स्वयं तरते हैं और संसार से तरने का मार्ग बताते हैं वही रत्नत्रयं मयं सुद्धं,मिथ्या माया विमुक्तयं ।। ३६७ ॥ सद्गुरु तारण तरण हैं। ऐसे सद्गुरु की संगति,सेवा भक्ति ही सच्ची गरू उपासना ॐ है, जिससे अपनी अंतरात्मा का जागरण हो, वीतराग मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले गुरं त्रिलोक वेदंते, ध्यान धर्म च संजुतं । और शुद्ध रत्नत्रय की प्राप्ति हो, अव्रत सम्यक्दृष्टि ऐसे गुरू की ही हमेशा श्रद्धा भक्ति तद्गुरं सार्थ नित्यं, रत्नत्रयं लंकृतं ॥ ३६८ ॥ करता है। अन्वयार्थ- (गुरस्य ग्रंथ मुक्तस्य) यहां गुरू का स्वरूप बताया जा रहा आगे शुद्ध स्वाध्याय का स्वरूप कहते हैंहै कि जो समस्त पाप-परिग्रह बंधनों से मुक्त, रहित होते हैं ( राग दोष न चिंतए), स्वाध्याय सुद्धधुवं चिंते, सुख तत्व प्रकासकं । राग-द्वेषादि का चिंतन नहीं करते अर्थात् जो राग-द्वेष रहित निग्रंथ वीतरागी हैं सुद्ध संपूर्न दिस्टं च,न्यानं मयं साधं धुवं ।। ३६९ ॥ (रत्नत्रयं मयं सुद्ध) जो रत्नत्रय के धारी हैं, जिनका सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, स्वाध्याय सुख चिंतस्य,मन वचन काय निरोधन। सम्यकचारित्र शुद्ध है (मिथ्या माया विमुक्तयं) जो मिथ्यात्व माया आदि शल्यों से रहित हैं। त्रिलोकं तिअर्थ सुखं, स्थिरं सास्वत धुवं ।। ३७०॥ (गुरं त्रिलोक वेदंते) जो तीन लोक के यथार्थ स्वरूपको जानते हैं (ध्यानं धर्म अन्वयार्थ- (स्वाध्याय सुद्ध धुवं चिंते) शुद्ध स्वाध्याय अपने ध्रुव स्वभाव का च संजुतं) आत्म ध्यान में लीन और धर्म से संयुक्त होते हैं (तद्गुरं सार्धं नित्यं) ऐसे चिंतवन करना है (सुद्ध तत्व प्रकासक) शुद्ध तत्व का प्रकाश करने वाले, बताने वाले गुरू का हमेशा सत्संग और श्रद्धा सहित उपासना करना चाहिये (रत्नत्रयं लंकृतं) जो सत्शास्त्रों का स्वाध्याय करना जिससे (सुद्ध संपूर्न दिस्ट च) अपनी दृष्टि सम्पूर्ण रत्नत्रय से परिपूर्ण होते हैं। शुद्ध हो जाये और (न्यानं मयं सार्धं धुवं) ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव का श्रद्धान हो जाये। विशेषार्थ-शुद्ध षट्कर्म में देवपूजा के बाद गुरू उपासना का स्वरूप बताया (स्वाध्याय सुद्ध चिंतस्य) शुद्ध स्वाध्याय का चिंतवन करने से (मन वचन जा रहा है, सच्चे गुरू कैसे होते हैं ? उनका स्वरूप जानकर ही गरू उपासना. काय निरोधन) मन, वचन, काय का निरोध हो जाता है (त्रिलोकं तिअर्थ सुद्ध) तीन सत्संग सेवा भक्ति करना चाहिये। सच्चे गुरू का स्वरूप यह है कि जो समस्त पाप लोक में जो द्रव्य, गुण, पर्याय अथवा सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से 9 एवं चौबीस प्रकार के परिग्रह से रहित निग्रंथ हों। शुद्ध (स्थिरं सास्वतं धुवं) शाश्वत ध्रुव स्वभाव है उसमें स्थिर हो जाता है। २४ परिग्रह-क्षेत्र, मकान, सोना, चांदी, धन, धान्य, दासी, दास, कपड़े, विशेषार्थ- शुद्ध स्वाध्याय अपने ध्रुव स्वभाव का चिंतवन करना है तथा शुद्ध बर्तन आदि दस प्रकार के बाह्य परिग्रह तथा मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, तत्व का प्रकाश करने वाले सत्शास्त्रों को पढ़ना व्यवहार से स्वाध्याय है, जिससे । २ हास्य, रति, अरति,शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद इन चौदह अपनी दृष्टि सम्पूर्ण शुद्ध हो जाये, अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव का सच्चा श्रद्धान हो chuodiaen २०८ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७७ श्री आवकाचार जी जाये वही शुद्ध स्वाध्याय है। अपने शुद्धात्म स्वरूप ज्ञानानन्द स्वभाव का अनुभव करना ही शुद्ध स्वाध्याय है। स्वाध्याय का प्रयोजन संसार से वैराग्य तथा निज स्वरूप की प्राप्ति का उत्साह है। स्वाध्याय के पांच भेद हैं- १. वाचना सत्शास्त्रों को पढ़ना, २. पृच्छना - विशेष ज्ञानियों से पूछना, तत्वचर्चा करना, ३. अनुप्रेक्षा- तत्व निर्णय का बार-बार विचार कर हृदय में धारण करना, ४ . आम्नाय शुद्ध शब्द और अर्थ को कंठस्थ करना, ५ . धर्मोपदेश- अन्य जीवों को धर्म का यथार्थ स्वरूप बताना । स्वाध्याय का प्रत्यक्ष लाभ- चित्त में शांति, मन से शोक, भय, क्रोध, मान आदि कषायों का शांत हो जाना, संसार का स्वरूप जानकर वैराग्य भाव होना, समस्त जीवों के प्रति क्षमा, करुणा मैत्री भाव का होना है। वही शुद्ध स्वाध्याय है जिससे आत्म कल्याण करने की भावना बलवती होवे तथा मन, वचन, काय एकाग्र हो जायें। मन, वचन, काय का निरोध अर्थात् हलन चलन बंद होने से उपयोग अपने शाश्वत ध्रुव स्वभाव में स्थिर होता है। स्वाध्याय परम तप है तथा अंत: करण के क्लेश और कुभावों को दूर करने के लिये स्वाध्याय परम आवश्यक है। - आगे शुद्ध संयम का स्वरूप कहते हैं - संजमं संजर्म कृत्वा, संजमं द्विविधं भवेत् । इन्द्रियानां मनोनाथा, रष्यनं त्रस थावरं ॥ ३७१ ॥ संजमं संजमं सुद्धं, सुद्ध तत्व प्रकासकं । तिअर्थ न्यान जलं सुद्धं, स्नानं संजमं धुवं ।। ३७२ ।। अन्वयार्थ - (संजमं संजमं कृत्वा) संयम-यम नियम का पालन करने को कहते हैं (संजमं द्विविधं भवेत्) संयम दो प्रकार का होता है- १. इन्द्रिय संयम, २. प्राणी संयम (इन्द्रियानां मनोनाथा) पांच इन्द्रिय और इनके राजा मन को वश में रखना इन्द्रिय संयम है ( रष्यनं त्रस थावरं ) पांच स्थावर और दो इन्द्रिय से पांच इन्द्रिय तक त्रस जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है। (संजमं संजमं सुद्धं) शुद्ध संयम अपने स्वरूप की सुरत रखना, ज्ञान भाव में रहना है (सुद्ध तत्व प्रकासकं) जो शुद्धात्म तत्व को प्रकाशित करने वाला है (तिअर्थं न्यान जलं सुद्धं) रत्नत्रयमयी ज्ञान के शुद्ध जल में (स्नानं संजमं धुवं ) स्नान करना ही निश्चय व निश्चल संयम है। SYARAT YANAT YEAR ARAS YEAR. २०९ गाथा-३७१,२७२ विशेषार्थ- शुद्ध षट्कर्म के अंतर्गत संयम का स्वरूप बताया जा रहा है। संयम - व्रत, यम-नियम के पालन को कहते हैं, जो कार्य अन्याय और पापमय है, जैसे- जुआं आदि सात व्यसन, हिंसादि पांच पाप, अभक्ष्य भोजन तथा अन्याय और अनीति पूर्वक विषय आदि का सेवन इनका आजीवन के लिये त्याग करना यम कहलाता है । समयावधि के लिये त्याग करना नियम कहलाता है। सदाचारी जीवन ही संयम है, जो भोग-उपभोग का प्रमाण कर लेता है वह संयमी है। निम्न १७ नियमों का नित्य ही प्रमाण करना चाहिये भोजने पद से पाने, कुंकुमादि विलेपने । पुष्प तांबूल गीतेषु नृत्यादौ ब्रह्मचर्य के ॥ स्नान भूषण वस्त्रादौ वाहने शयनासने । सचित वस्तु संख्यादी प्रमाणं भज प्रत्यहं ॥ - . १. भोजन, २. षट्रस - दूध, दही, घी, तेल, नमक, मीठा, ३. पानी पीना, ४. कुंकुमादि विलेपन, ५. पुष्प, ६. ताम्बूल, ७. गीत, ८. नृत्य, ९. ब्रह्मचर्य, १०. स्नान, ११. भूषण, १२ वस्त्र, १३. वाहन, १४. शयन, १५ आसन, १६. सचित्त वस्तु, १७. वस्तु संख्या । इनका प्रतिदिन, समयावधि या जीवन पर्यंत के लिये प्रमाण कर शेष का त्याग करना संयम कहलाता है। संयम के दो भेद हैं- १. इन्द्रिय संयम- पांच इन्द्रिय और मन को अपने आधीन रखकर सदा ही उपयोगी कार्यों में लगाये रखना, व्यर्थ भोगोपभोग और संकल्प विकल्प नहीं करना, इनको सीमित संयमित रखना जिससे स्वस्थ्य रहें और धर्म साधना में सहयोगी सहायक हों यह इन्द्रिय संयम है । २. प्राणी संयम- पांच स्थावर मिट्टी, पानी, अग्नि, हवा और वनस्पति का उपयोग प्रयोजन से अधिक नहीं करना, हर एक कार्य देखभाल कर करना, नीचे देखकर चलना, किसी भी वस्तु को देखकर उठाना धरना जिससे जीवों की हिंसा न हो। पशुओं को सताना नहीं, किसी मनुष्य के हृदय को दुखाना नहीं, प्रमादचर्या, निष्प्रयोजन पाप नहीं करना, समय को व्यर्थ नहीं गंवाना, यह सब व्यवहार द्रव्य संयम कहलाता है। इसके साथ शुद्ध संयम अर्थात् अपने स्वरूप की सुरत रखना, ज्ञानभाव में रहना भाव संयम है। इससे शुद्धात्म तत्व का प्रकाश होता है, कर्म क्षय होते हैं। रत्नत्रयमयी ज्ञान के शुद्ध जल में स्नान करना ही निश्चय संयम है अर्थात् अपने शुद्धात्म स्वरूप के अनुभव में लीन रहना, बारम्बार अवगाहन करना, डुबकी लगाना ही शुद्ध संयम है यही परम हितकारी Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-३७१,३७४COOO सच्चा मोक्षमार्ग है, यही परम उपादेय है जिसका शुद्ध सम्यक्दृष्टि पालन करता है। .विविक्त शय्यासन-ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय,ध्यान की सिद्धि के लिये एकांत आगे शुद्ध तप के स्वरूप का वर्णन करते हैं में शयन करना, रहना। तपं अप्प सद्भाव, सुख तत्व सचिंतनं । ६.काय क्लेश-जिस प्रकार चित्त में क्लेश, खेदन उपजे उस प्रकार अपनी सुद्ध न्यान मयं सुद्धं, तथाहि निर्मलं तपं ॥३७३॥ * शक्ति के अनुसार साम्य भाव पूर्वक खड़े होकर ध्यान सामायिक करना। छह अंतरंग तपअन्वयार्थ-(तपं अप्प सद्भाव) शुद्ध तप अपने आत्म स्वभाव में रहना, ठहरना १.प्रायश्चित-प्रमाद जनित दोषों का प्रतिक्रमण आदि करना। है (सुद्ध तत्व सचिंतनं) अपने शुद्धात्म तत्व का भले प्रकार चिन्तन करना (सद्ध २.विनय- सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के प्रति श्रद्धा बहुमान होना तथा जो न्यान मयं सुद्ध) अपने शुद्ध ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव में ठहरना (तथाहि निर्मलं तप) । रत्नत्रय के धारी श्रावक साधु हों उनकी विनय भक्ति करना। इसी को निर्मल शुद्ध तप कहते हैं। ३.वैयावृत्य-अपने उपयोग की देखभाल सम्हाल करना तथा त्यागी साधु विशेषार्थ-शुद्ध षट्कर्मों में यहाँ शुद्ध तप का स्वरूप बताया जा रहा है, संयमी तपस्वियों की सेवा सम्हाल करना। अपने आत्म स्वभाव में लीन होना ही शुद्ध तप है। तप से कर्मों की निर्जरा होती है, ४. स्वाध्याय-अपने परिणाम, प्रवृत्ति-निवृत्ति का अध्ययन करना तथा अपने शुद्धात्म तत्व का भले प्रकार चिंतवन करना ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव में ठहरना ज्ञान भावना के सत्शास्त्रों का स्वाध्याय पठन-पाठन करना। यही निर्मल शुद्ध तप है। इसके लिये बारह प्रकार का तप साधन करना भी आवश्यक ५. व्युत्सर्ग- अंतरंग तथा बाह्य परिग्रह के त्याग रूप बुद्धि रखना, अपने है. जिससे इन्द्रियां प्रबल होकर मन को चंचल न करें। इसके लिये अन्तरंग में स्वरूप में लीन रहना। विषय-कषायों की निवृत्ति करना- "इच्छा निरोधस्तपः" इच्छाओं का निरोध ६. ध्यान- समस्त चिंताओं को त्यागकर मंद कषाय रूप धर्म ध्यान करना तप है, तप के बारह भेद हैं-छह बाह्य तप करना। इसके लिये प्रात: सायं एकांत में बैठकर सामायिक करना आवश्यक है। १.अनशन-आत्मा का इन्द्रिय और मन की विषय वासनाओं से रहित होकर मन का विषयवासनाआ सराहत हाकर वास्तव में निर्मल व शुद्ध तप वही है जो आत्मा अपनी आत्मा में तपे. अपने आत्म स्वरूप में वास करना उपवास है। संयम की सिद्धि, राग के अभाव, शद्वात्मानभव हो वही तप कर्म की अविपाक निर्जरा करने वाला है, परमानंद का देने कर्मों के नाश, ध्यान और स्वाध्याय में प्रवृत्ति के निमित्त इन्द्रियों को जीतना, वाला परमोपकारी है, ज्ञान स्वभाव में रमण करना ही सच्चा तप है। इसलोक-परलोक संबंधी विषयों की वांछा न करना, मन को आत्म स्वरूप अथवा आगे शुद्ध दान का स्वरूप कहते हैंशास्त्र स्वाध्याय में लगाना, क्लेश उत्पन्न न हो उस प्रकार एक दिन की मर्यादा रूप दानं पात्र चिंतस्य, सुद्ध तत्व रतो सदा। चार प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन तप है। २.अवमौवर्य-कीर्ति, माया, कपट, मिष्ट भोजन के लोभ रहित अल्प आहार सुद्धधर्म रतो भावं, पात्र चिंता दान संजुतं ।। ३७४ ॥ लेना अवमौदर्य या ऊनोदर तप है। अन्वयार्थ- (दानं पात्र चिंतस्य) दान अर्थात् देना, पात्रों को भक्ति भाव से ३. वृत्ति परिसंख्यान- अपनी वृत्ति, भोजन की रुचि को घटाने के लिये उनकी आवश्यकतानुसार चार दान देना (सुद्ध तत्व रतो सदा) शुद्ध तत्व में सदारत अटपटीप्रतिज्ञा लेना। चटपटी छोड़ अटपटी खाना अर्थात् जो कुछ जैसा मिल जाये। रहना निश्चय दान है (सुद्ध धर्म रतो भावं) अपने शुद्ध धर्म,शुद्ध स्वभाव में रत रहने । शांत भाव से ग्रहण करना। की भावना वाले (पात्र चिंता दान संजुतं) पात्र की विशेष व्यवस्था, सम्हाल करना, ४. रस परित्याग- इन्द्रियों का दमन करने के लिये छह रसों में से एक का दान देना शुद्ध दान है। या अधिक रसों का त्याग करना। विशेषार्थ-यहां श्री तारण स्वामी ने दान का स्वरूप कहा है कि दोनों प्रकार perstoderma २१० Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ श्री आवकाचार जी का दान देना ही शुद्ध दान है। यह निश्चय-व्यवहार का समन्वय अध्यात्मवादी संतों के जीवन से प्रमाणित होता है। व्यवहार में पात्र जीवों को उनकी आवश्यकतानुसार चार प्रकार का दान देना और निश्चय से अपने शुद्धात्म स्वरूप में सदा रत रहना ही शुद्ध दान है। यह जीव अनादि काल से अपने आत्म स्वरूप को भूला हुआ भूखा, दीन-हीन, निर्बल हो रहा है। इसे अपने शुद्धात्म स्वरूप का बोध कराना आहार दान है। वस्तु स्वरूप बताना ज्ञान दान है। निरंतर सत्संग स्वाध्याय तत्वनिर्णय आदि करना औषधि दान है। अपने परमात्म स्वरूप का उत्साह बहुमान जगाना, अभय बनाना अभय दान है। ऐसे शुद्ध धर्म, अपने शुद्ध स्वभाव में रत रहने की भावना वाले पात्र जीवों की उचित अनुकूल व्यवस्था करना, देखभाल सम्हाल करना यही शुद्ध दान से संयुक्त होना है। सच्चा पात्र रत्नत्रय स्वरूप अपनी आत्मा है, उसको स्वात्मानन्दामृत का दान देना परम शुद्ध दान है। व्यवहार में प्रतिदिन चार प्रकार का दान जीव मात्र को उसकी आवश्यकतानुसार प्रेम भक्ति करुणा पूर्वक देना सद्ग्रहस्थ का परम कर्तव्य है। दान देने से इस भव में सम्मान मिलता है, प्रभावना होती है तथा जब तक संसार में रहना है तब तक दिया हुआ दान ही सहकारी होता है। घर ग्रहस्थी में रहते हुए प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है कि हमेशा दान देने की भावना प्रभावना करता रहे। सम्यक्दृष्टि श्रावक दोनों प्रकार का दान देता है तभी उसकी पात्रता बढ़ती है और धर्म की प्रभावना होती है। इस प्रकार इन शुद्ध षट्कर्मों का पालन करने वालों की विशेषता बतलाते हैंये बद कर्म सुद्धं च जे साधैति सदा बुधै । मुक्ति मार्गं धुवं सुद्धं, धर्म ध्यान रतो सदा ॥ ३७५ ।। ये षट् कर्म च आराध्य, अविरतं श्रावर्ग धुर्व। संसार सरनि मुक्तस्य, मोषगामी न संसयः ॥ ३७६ ।। - अन्वयार्थ (ये षट् कर्म सुद्धं च) यह शुद्ध षट्कर्म शुद्ध हैं (जे सार्धंति सदा बुधै) जो ज्ञानी सदा इन षट्कर्मों की साधना करते हैं (मुक्ति मार्गं धुवं सुद्धं) वे निश्चय शुद्ध मुक्ति मार्ग के पथिक हैं (धर्म ध्यान रतो सदा) जो सदा धर्म ध्यान में रत रहते हैं। (ये षट् कर्म च आराध्यं) यह शुद्ध षट्कर्मों का जो आराधन करते हैं (अविरतं श्रावगं धुवं) वे अविरत श्रावक शुद्ध दृष्टि हैं (संसार सरनि मुक्तस्य) वह संसार के rock resist swasthenos गाथा-३७५, ३७६ परिभ्रमण से मुक्त होकर (मोषगामी न संसय:) मोक्षगामी होंगे इसमें कोई संशय नहीं है । २११ विशेषार्थ - इस प्रकार शुद्ध षट्कर्मों का वर्णन किया, जो ज्ञानी सम्यकदृष्टि श्रावक इनका पालन करते हैं वे सच्चे मोक्षमार्ग के पथिक हैं, जो धर्म ध्यान में रत रहते हुए अपनी पात्रतानुसार धर्म साधना करते हुए संसार परिभ्रमण से मुक्त होकर मोक्षगामी होंगे इसमें कोई संशय नहीं है। यहां सद्गुरु श्री तारण स्वामी ने शुद्ध षट्कर्मों का जो निश्चय-व्यवहार के समन्वय पूर्वक वर्णन किया है यह अपने आपमें अपूर्व है, वास्तव में जिसे अपना आत्म कल्याण करना हो वह इसका चिंतन-मनन आराधन करे और तद्रूप पालन आचरण करे वह शुद्ध सम्यदृष्टि निश्चित मोक्षगामी है इसमें कोई संशय नहीं है। सच्ची देवपूजा शुद्ध सम्यक्दर्शन सहित अर्थात् निज आत्मानुभूति पूर्वक जो पंचपरमेष्ठी पद की साधना करता है, पचहत्तर गुणों को अपने जीवन में उतारता है वह निश्चित देवत्व पद को प्राप्त करेगा। यही अध्यात्म में सच्ची देवपूजा है, परावलम्बन किसी नाम, रूप, साकारमूर्ति आदि के माध्यम से कभी मुक्ति नहीं हो सकती । - निग्रंथ वीतरागी साधु की भक्ति सत्संग द्वारा निज अंतरात्मा का जागरण होना और वीतराग मार्ग पर चलना ही सच्ची गुरू उपासना है। सत्शास्त्रों को पढ़कर ज्ञान प्राप्त करना व्यवहार स्वाध्याय है तथा अपने आत्मा के शुद्ध स्वभाव का आराधन करना निश्चय स्वाध्याय है। पांच इन्द्रिय और मन का दमन करना तथा छह काय के प्राणियों की रक्षा हेतु यम, नियम रूप संयम पालन करना व्यवहार संयम है। निश्चल शुद्धात्मा में रमण करना, अपने शुद्धात्म स्वरूप की निरंतर सुरत रहना निश्चय संयम है। अनशन आदि बारह प्रकार का तप शक्ति अनुसार पालन करना व्यवहार तप है। अपने शुद्धात्म स्वरूप में लीन रहना निश्चय तप है। पात्रों को भक्ति पूर्वक तथा दुखियों को दया पूर्वक दान देना व्यवहार दान है और अपने ही आत्मा का अनुभव करके ज्ञानामृत का दान करना निश्चय दान है। इन षट्कर्मों का अव्रती ग्रहस्थ श्रावक को हमेशा पालन करना चाहिये, यह मोक्षमार्ग में सहकारी कारण हैं। इनका निरंतर पालन करते हुए धर्म ध्यान में रत रहना योग्य है। अपने लौकिक कार्यों की बहुतायत होने पर भी, बहुत आरंभ काम धंधा होने पर भी जो इनके लिये समय निकालता है वही सच्चा धर्म प्रेमी है। जिस तरफ की रुचि भावना होती है, उधर ही पुरुषार्थ काम करता है। जिसे अपने शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति, भेदज्ञान Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी पूर्वक वस्तु स्वरूप का ज्ञान हो गया है वह अव्रती होता हुआ भी मोक्षमार्गी है और अपने समय पर भविष्य में मुक्त होगा इसमें कोई संशय नहीं है इस प्रकार अव्रती सम्यकदृष्टि जघन्य पात्र के स्वरूप का वर्णन पूर्ण करते हैंएतत् भावनं कृत्वा, श्रावगं संमिक दिस्टितं । अविरतं सुद्ध दिस्टी च, सार्धं न्यान मयं धुवं ॥ ३७७ ॥ अन्वयार्थ- (एतत् भावनं कृत्वा) इस प्रकार की भावना करने वाला (श्रावगं संमिक दिस्टितं) श्रावक सम्यक्दृष्टि होता है (अविरतं सुद्ध दिस्टी च) वह अविरत शुद्धदृष्टि है जो (सार्धं न्यान मयं धुवं ) अपने ज्ञानमयी ध्रुवस्वभाव की श्रद्धा और साधना करता है। SYA YAA AAN YES AT Y विशेषार्थ इस प्रकार सात व्यसन, विकथा आदि का त्याग करता हुआ, जो सम्यक्त्व, अष्ट मूल गुण, चार दान, तीन रत्नत्रय, रात्रि भोजन त्याग, पानी छानकर पीना इन अठारह क्रियाओं का पालन करता हुआ शुद्ध षट्कर्मों का पालन करता है वह सम्यक्दृष्टि श्रावक है। अभी अव्रती दशा में संसार घर ग्रहस्थी में फंसा है परंतु जिसे अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव का श्रद्धान है और उसी की साधना करता है तथा उसी का उत्साह है, आत्म कल्याण आत्मोन्नति की भावना उसकी वेगवती चलती है। अभी अप्रत्याख्यानावरण कषाय की विशेषता से अव्रती है, जैसे ही अप्रत्याख्यान कषाय का उपशम, क्षयोपशम हुआ प्रत्ख्यानावरण का सद्भाव आया, वह पांचवां गुणस्थानवर्ती व्रती श्रावक हो जाता है। ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करने लगता है। चारित्र का बहुमान और आत्म कल्याण की भावना तीव्र होने से उसके परिणाम निर्मल, विवेकपूर्ण, धर्मयुक्त, न्यायमार्गी, दया और धर्म से गर्भित होते हैं। व्रती न होने पर भी व्रती के समान आचरण करता है। धर्म ध्यान का प्रारंभ चौथे गुणस्थान से हो जाता है, वह सदा संसार शरीर भोगों से वैराग्य युक्त होकर आत्मा के शुद्ध स्वरूप की भावना और साधना करता है। जगत के सुख-दुःख की प्राप्ति में नाटक के दृष्टा के समान न उन्मत्त होता है, न विषाद करता है, अंतर में समता भाव का प्रेमी है। 5 यह स्थिति उसकी पात्रता बढ़ाती है और वह व्रती श्रावक हो जाता है। श्रावक धर्म, ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप - आचार्य पदवीधारी व्रती श्रावक मध्यम पात्र की ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप वर्णन करते हैं २१२ गाया- ३७७, ३७८ श्रावग धर्म उत्पादंते, आचरनं उत्कृष्टं सदा । प्रतिमा एकादसं प्रोक्तं, पंच अनुव्रत सुद्धये ।। ३७८ ।। अन्वयार्थ- (श्रावग धर्म उत्पादंते) श्रावक धर्म प्रगट होता है (आचरनं उत्कृष्टं सदा) जिसका आचरण हमेशा उत्कृष्ट होता जाता है ( प्रतिमा एकादसं प्रोक्तं ) इसके लिये ग्यारह प्रतिमायें कही गई हैं (पंच अनुव्रत सुद्धये) जिससे पंच अणुव्रत शुद्ध होते हैं। विशेषार्थ- यद्यपि प्रथमानुयोग के ग्रंथों में सामान्य रीति से छोटी-छोटी प्रतिज्ञा लेने वाले जैनी ग्रहस्थ को भी कई जगह श्रावक कहा है तथापि चरणानुयोग की पद्धति से यथार्थ में पाक्षिक, नैष्ठिक तथा साधक तीनों की ही श्रावक संज्ञा है क्योंकि श्रावक को अष्ट मूलगुण धारण और सप्त व्यसनों का त्याग ही मुख्य रूप से होता है तथा अहिंसा आदि बारह व्रत उत्तरगुण हैं, इन्हीं के अंतर्गत श्रावक की त्रेपन क्रियायें होती हैं। इन क्रियाओं को धारण एवं पालन करने के कारण ही श्रावकों को त्रेपन क्रिया प्रतिपालक विशेषण दिया जाता है। इन क्रियाओं की शुद्धि क्रमश: प्रथम आदि प्रतिमाओं में होती हुई पूर्णता ग्यारहवीं प्रतिमा में होती है। पाक्षिक श्रावक जिनको जैन धर्म के देव, गुरू, शास्त्रों द्वारा आत्मा का स्वरूप तथा आत्म कल्याण का मार्ग भली भांति ज्ञात और निश्चित हो जाने से पवित्र जिन धर्म का, श्रावक धर्म का तथा अहिंसा आदि का पक्ष हो जाता है, जिनके मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ भावनायें दिन-प्रतिदिन वृद्धि रूप होती जाती हैं, जो स्थूल - त्रस हिंसा के त्यागी हैं, ऐसे चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यकदृष्टि पाक्षिक श्रावक कहलाते हैं। जो कैसी ही विपत्ति आने पर भी सच्चे देव, गुरू, शास्त्र, पंचपरमेष्ठी के अतिरिक्त किसी देवी देवता, कुदेव, अदेव आदि की पूजा वंदना भक्ति नहीं करते। वे इन सत्रह नियमों का पालन करते हैं कुगुरु कुदेव कुवृष की सेवा, अनर्थदण्ड अधमय व्यापार । द्यूत मांस मधु वेश्या चोरी, परतिय हिंसा दान शिकार ॥ स की हिंसा थूल असत्यरू, बिन छान्यो जल निशिआहार । यह सत्रह अनर्थ जग मांहीं, यावज्जिओ करो परिहार ॥ कुगुरु, कुदेव, कुधर्म की सेवा, अनर्थ दण्ड, हिंसा पाप मय व्यापार, जुआं, G 5656 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७७ ७ श्री आवकाचार जी मांस, मधु, वेश्या, चोरी, परस्त्री, हिंसादान, शिकार, त्रस की हिंसा, स्थूल झूठ, बिना छना पानी, रात्रि भोजन इनका आजीवन त्याग होता है। नैष्ठिक श्रावक जो धर्मात्मा पाक्षिक श्रावक की क्रियाओं का साधन करके शास्त्रों के अध्ययन द्वारा तत्वों का विशेष विवेचन करता हुआ पंचाणुव्रतों का आरम्भ कर अभ्यास बढ़ाने अर्थात् देशचारित्र धारण करने में तत्पर हो वह नैष्ठिक श्रावक कहलाता है अथवा जो सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र और उत्तम क्षमादि दश धर्म का पालन करने की निष्ठा (श्रद्धा) युक्त पंचम गुणस्थानवर्ती हो वह नैष्ठिक श्रावक कहलाता है। नैष्ठिक श्रावक के अप्रत्याख्यानावरण कषायों का उपशम होने से और प्रत्ख्यानावरण कषायों का क्षयोपशम, मंद उदय के क्रमशः बढ़ने से ग्यारहवीं प्रतिमा तक बारह व्रत पूर्णता को प्राप्त हो जाते हैं, इसी कारण श्रावक को सागार (अणुव्रती) कहा है, यह श्रावक की ग्यारह प्रतिमायें (पाप त्याग की प्रतिज्ञायें) ही अणुव्रतों को महाव्रतों की अवस्था तक पहुंचाने वाली नसैनी के समान हैं। इनको धारण करने का पात्र यथार्थ में वही पुरुष है जो मुनिव्रत (महाव्रत ) धारण करने का अभिलाषी हो। यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि जितने त्याग, व्रत के योग्य अपने शरीर की शक्ति, द्रव्य, क्षेत्र, काल की योग्यता, परिणामों का उत्साह हो और जिससे धर्म ध्यान में उत्साह तथा वृद्धि होती रहे, उतनी ही प्रतिज्ञा धारण करना चाहिये ; अतएव इन प्रतिमाओं के स्वरूप तथा इनके द्वारा होने वाले लौकिक-पारलौकिक लाभों को यथावत जानकर जितना सधता दिखे और विषय कषाय मंद होते दिखें, उतना ही व्रत-नियम धारण करना कल्याणकारी है। कहा है संयम अंश जग्यो जहां, भोग अरुचि परिणाम | उदय प्रतिज्ञा को भयो, प्रतिमा ताको नाम ॥ (पं. बनारसीदास जी ) जब संयम धारण करने का भाव उत्पन्न हो, विषय भोगों से अंतरंग में उदासीनता उत्पन्न हो तब जो त्याग की प्रतिज्ञा की जाये वह प्रतिज्ञा प्रतिमा कहलाती है । श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज आगे ग्यारह प्रतिमाओं के नाम कहते हैं दंसन वय सामाइ, पोसह सचित्त चिंतनं । अनुरागं बंभचर्य च, आरंभं परिग्रहस्तथा ॥ ३७९ ।। 34 yo.civos Yoo. २१३ गाथा ३७९, ३८० अनुमतं उदिस्ट देसं च, प्रतिमा एकादसानि च । व्रतानि पंच उत्पादते श्रूयते जिनागमं ॥ ३८० ॥ अन्वयार्थ - (दंसन वय सामाइ) दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा (पोसह सचित्त चिंतनं) प्रोषधोपवास प्रतिमा, सचित्त प्रतिमा (अनुरागं बंभचर्यं च ) अनुराग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा (आरंभं परिग्रहस्तथा) आरंभ प्रतिमा, परिग्रह त्याग प्रतिमा (अनुमतं उदिस्ट देसं च) अनुमति त्याग प्रतिमा, उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा, यहां तक देशव्रत हैं ( प्रतिमा एकादसानि च) यह ग्यारह प्रतिमायें हैं (व्रतानि पंच उत्पादंते) इससे पांच अणुव्रत प्रगट होते हैं अर्थात् शुद्ध होते हैं (श्रूयते जिनागमं) ऐसा जिनागम में कहा है। विशेषार्थ १. दर्शन प्रतिमा, २. व्रत प्रतिमा, ३. सामायिक प्रतिमा, ४. प्रोषधोपवास प्रतिमा, ५. सचित्त प्रतिमा, ६. अनुराग भक्ति प्रतिमा, ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा, ८. आरंभ त्याग प्रतिमा, ९. परिग्रह त्याग प्रतिमा, १०. अनुमति त्याग प्रतिमा, ११. उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा । यह ग्यारह प्रतिमा जैनागम में श्रावक के लिये कही गईं हैं, यहां तक देशव्रत होता है, इन प्रतिमाओं के पालन से अणुव्रत शुद्ध होते हैं। जिस प्रतिमा में जिस व्रत के पालन या पाप त्याग की प्रतिज्ञा की जाती है वह यथावत पालन करने तथा अतिचार न लगाने से ही प्रतिमा कहलाती है। जिस किसी प्रतिमा में अतिचार लगता हो तो नीचे की प्रतिमा जानना चाहिये, यदि नीचे की प्रतिमाओं का चारित्र बिल्कुल पालन न कर या अधूरा ही रखकर ऊपर की प्रतिमा का चारित्र धारण कर लिया जाये तो वह जिनमत से बाह्य कौतुक मात्र है उसका कुछ भी फल नहीं मिलता ; क्योंकि नीचे से क्रम पूर्वक यथावत साधन करते हुए ऊपर चढ़ते जाने से, क्रम पूर्वक चारित्र बढ़ाने से ही विषय कषाय मंद होने से आत्मीक सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है, जो कि प्रतिज्ञा और प्रतिमाओं के धारण करने का मुख्य उद्देश्य है। इन ग्यारह प्रतिमाओं में छटवीं प्रतिमा तक जघन्य श्रावक (ग्रहस्थ), नवमीं 2 प्रतिमा तक मध्यम श्रावक (ब्रह्मचारी) और दसवीं ग्यारहवीं प्रतिमा वाले उत्कृष्ट श्रावक (भिक्षुक) कहलाते हैं। यहां जो ग्यारह प्रतिमाओं के नाम आये हैं, इनमें छटवीं प्रतिमा का नाम अनुराग भक्ति जबकि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इसका नाम रात्रि भुक्ति त्याग है और Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०७० CACANCY ७० श्री आवकाचार जी अमित गति श्रावकाचार में दिवा मैथुन त्याग है। श्री तारण स्वामी ने छटवीं प्रतिमाधारी को अपनी आत्मा में विशेष अनुराग भक्ति होने से इसका नाम अनुराग भक्ति रखा, यह उनकी अपनी अनुभूतियुत बात है, इसी के बाद ब्रह्मचर्य प्रतिमा होती है। अन्य आचार्यों का व्यवहारिक दृष्टिकोण है; जबकि श्री तारण स्वामी ने शुद्ध अध्यात्म के आधार से निश्चय नय प्रधान प्रतिमाओं का स्वरूप वर्णन किया है जो यथार्थ में अनुभव प्रमाण है। वर्तमान में प्रतिमाओं और साधु पद की दीक्षा ली और दी जाती है, वे व्यवहार प्रधान क्रियाओं में ही संलग्न रहते हैं जबकि यह अंतरंग जागरण होने पर स्वयमेव स्थिति बनती है वही यथार्थ सत्य है। जैसे- खेत में बोये गये बीज में स्वयं अंकुरण, पत्ती, फूल, फल लगते हैं वही यथार्थ होते हैं और जो कागज या नाईलोन के बनाकर लगाये जाते हैं वह देखने मात्र के हैं, इसी प्रकार प्रतिमाओं का आचरण मात्र औपचारिक नहीं है बल्कि आत्मानुभूति पूर्वक होने वाला आचरण ही यथार्थ होता है, धर्म मार्ग में यही प्रतिमाओं का स्वरूप है। आगे पांच अणुव्रतों के नाम जिनकी शुद्धि द्वारा आत्म स्वरूप में रमणता होती है, उनका वर्णन करते हैं अहिंसा नृतं जेन, स्तेयं बंभ परिग्रहं । सुद्ध तत्व हृदयं चिंते, सार्धं न्यान मयं धुवं ॥ ३८१ ॥ rochem.nc svaseiwyoo अन्वयार्थ - (अहिंसा नृतं जेन) जो अहिंसा, सत्य (स्तेयं बंभ परिग्रहं) अचौर्य, बह्मचर्य, परिग्रह त्याग कहे गये हैं (सुद्ध तत्व हृदयं चिंते) इससे हृदय में शुद्ध तत्व का चिंतवन और (सार्धं न्यान मयं धुवं) ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की साधना होती है। विशेषार्थ - अव्रत सम्यक्दृष्टि, जिसकी आत्म कल्याण की भावना प्रबल हो गई, बाह्य में कर्मों की अनुकूलता, कषाय की मंदता, प्रत्याख्यान कषाय होने से पापों के त्याग रूप अणुव्रत और विषयों से हटने के लिये प्रतिज्ञा (प्रतिमा) धारण करता है, जिससे उसके हृदय में हमेशा अपने शुद्धात्म तत्व का चिंतवन चलता है। ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव का लक्ष्य और साधना चलती है, अभी तक कर्मोदयजन्य पापादि विषयों 5 में लगे रहने से अपने आत्म स्वरूप की सुरत भी नहीं रहती थी, निज शुद्धात्मानुभूति होने से यह सब रुचिकर नहीं लगते थे परंतु कर्मों की बलवत्ता जोर होने से उस दशा में रहता है। अब पुरुषार्थ जागा, संयम की भावना जागी और एकदेश पापों का त्यागकर प्रतिमाओं के माध्यम से आगे बढ़ने का पुरुषार्थ करता है। अपने ज्ञानमयी २१४ गाथा ३८१, ३८२ ध्रुव स्वभाव की साधना और हृदय में उसी का चिंतवन करता है जिससे पापादि विषयों के भाव अपने आप क्षय होने लगते हैं। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग व्रतों का पालन होने लगता है। प्रतिमाओं के माध्यम से अणु रूप पालन होता हुआ जब पूर्ण शुद्धि हो जाती है तब महाव्रत साधु पद हो जाता है। इसी लक्ष्य और भावना को लेकर सम्यक्दृष्टि इन प्रतिमाओं के माध्यम से आगे बढ़ता है जिससे अपने आत्म स्वरूप में निरंतर निमग्न रहे । १. दर्शन प्रतिमा पहली दर्शन प्रतिमा का स्वरूप वर्णन करते हैं प्रतिमा उत्पादते जेन, दर्सनं सुद्ध दर्सनं । उवंकारं च वेदंते, मल पच्चीस विमुक्तयं ॥ ३८२ ॥ अन्वयार्थ (प्रतिमा उत्पादंते जेन) यहां प्रतिमा के स्वरूप को प्रगट करते हैं (दर्सनं सुद्ध दर्सनं) शुद्ध सम्यक्दर्शन होना ही दर्शन प्रतिमा है (उवंकारं च वेदंते) जिसे परमात्म स्वरूप का अनुभव हो गया (मल पच्चीस विमुक्तयं) जो पच्चीस मलों से विमुक्त है। विशेषार्थ श्रावक की पहली दर्शन प्रतिमा का स्वरूप कहते हैं- निज शुद्धात्मानुभूति पूर्वक अपने परमात्म स्वरूप का दर्शन होना ही दर्शन प्रतिमा है। जो ८ शंका दि दोष, ८ मद, ६ अनायतन, ३ मूढ़ता इन पच्चीस दोषों से रहित शुद्ध सम्यक्दृष्टि है वही दर्शन प्रतिमाधारी है। सम्यक्दर्शन धर्म का मूल है। अपने शुद्धात्म स्वरूप का सच्चा श्रद्धान ही धर्म या सम्यक्दर्शन है और प्रतिमा अर्थात् मूर्ति, जो धर्म या सम्यक्त्व की मूर्ति हो, जिसके बाह्य आचरणों से ही ज्ञात हो कि यह पवित्र जिन धर्म का श्रद्धानी है वह दर्शन प्रतिमाधारी है। जिसके जीवन में अन्याय, अभक्ष्य, अनीति का नियम पूर्वक त्याग है ; क्योंकि जो विकार तीव्र कषाय रूप महापाप के कारण हैं एवं अत्यन्त अनर्थ रूप हैं, ऐसा जानकर हर्ष पूर्वक त्यागता है। इस भांति से त्याग करने वाला ही व्रतादि प्रतिमा धारण करने का पात्र या अधिकारी होता है। 2 जिसने अव्रत सम्यदृष्टि सम्बन्धी आचार आदि का पालन करके सम्यक्दर्शन को शुद्ध कर लिया है, जो संसार शरीर और भोगों से चित्त में विरक्त है, मूलगुणों के आचार दोषों का सर्वथा अभाव करके आगे की प्रतिमाओं को धारण करने का इच्छुक तथा न्याय पूर्वक आजीविका करने वाला है, जो पच्चीस मलों से विमुक्त है वह दर्शन Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-३८३-२८६ ooo प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। मानना। जैसे-नदी आदि में स्नान करने से धर्म पुण्य होना,थैली आदिधन पूजने से आगे पच्चीस दोषों में तीन मूढ़ता का वर्णन करते हैं धन आयेगा, कलम दवात पूजने से खूब व्यापार चलेगा, दुकान की दहली पूजने से मूढ़त्रयं उत्पादंते , लोक मूढं न दिस्टते । बहुत व्यापारी आयेंगे, दीपावली में जुआं खेलने से अपार धन मिलेगा, इस प्रकार की जेतानि मूब दिस्टीच, तेतानि दिस्टिन दीयते ॥ ३८३ ।। 6 अनेकों लोक मूढतायें हैं। इन सबको विचारवान दर्शन प्रतिमाधारी नहीं मानता, इन लोक मूढ़ देवमूढं च, अनृतं अचेत दिस्टते । पर कभी श्रद्धान, विश्वास नहीं करता। इसी प्रकार लोक मूढता जैसी देव मूढता भी 5 होती है। जैसे लोक मूढता मिथ्यात्व अज्ञान है, वैसे ही देव मूढता भी मिथ्यात्व तिक्तते सुद्ध दिस्टी च, सुखसंमिक्त रतो सदा ॥ ३८४॥ अज्ञान है। रागी-द्वेषी देव तो स्वयं संसाराशक्त हैं, उनकी पूजा करके अपना कल्याण पाषंडी मूढ उक्तं च, असास्वतं असत्य उच्यते। है भला मानना ही देव मूढ़ता है। किसी लौकिक प्रयोजनवश देव जाति के किन्हीं भी अधर्म च प्रोक्तं जेन, कुलिंगी पाषंड तिक्तयं ।। ३८५॥ देवों की पूजा भक्ति करना देवमूढ़ता है तथा जिनमें देवत्वपना ही नहीं है, ऐसे अदेव अन्वयार्थ- (मूढत्रयं उत्पादंते) तीन मूढता का स्वरूप प्रगट करते हैं (लोकx कसानो वृक्ष, पाषाण आदि में कल्पित देवी देवता को पूजना देव मूढ़ता है। किसी चित्र, मूर्ति मूढं न दिस्टते) लोक मूढ़ता को नहीं देखता (जेतानि मूढ दिस्टीच) जितनी जगत में पाषाण प्रतिमा आदि में देव की स्थापना करके सच्चे देव मानकर पूजा भक्ति करना लोक मूढता की मान्यतायें श्रद्धान हैं (तेतानि दिस्टि न दीयते) उन पर दर्शन देव मूढता है। सम्यक्दृष्टि सम्यक्ज्ञानी होता है, वह अपने आत्मानुभव में ही तन्मय प्रतिमाधारी श्रद्धान नहीं करता, उन पर दृष्टि नहीं देता (लोक मूढं देव मूढं च) लोक रहता है। आत्मानन्द का विलासी है, संसार शरीर भोगों से उदास रहता है, सम्यक्दृष्टि मूढता और देवमूढता को (अनृतं अचेत दिस्टते) मिथ्या रूप, अज्ञान रूप, नाशवान । ज्ञानी कभी भी मिथ्या श्रद्धान और मिथ्या ज्ञान के वश होकर मूढ़ता से देखादेखी जड़ देखता है (तिक्तते सुद्ध दिस्टीच) इसलिये शुद्ध सम्यक्दृष्टि इन मूढताओं को ए किसी कुदेव या अदेव को पूज्यनीय नहीं मानता, इसी प्रकार पाखंडी मूढता अर्थात् छोड़ देता है (सुद्ध संमिक्त रतो सदा) वह सदा ही शुद्ध आत्मानुभव रूप सम्यक्दर्शन से आरंभ परिग्रह और हिंसादि दोष युक्त पाखंडी भेषधारी कुगुरुओं का आदर, में तन्मय रहता है। 3 सत्कार,पुरस्कार करना पाखंडी (गुरू) मूढता है। जो निग्रंथ, आरंभ-परिग्रह रहित (पाषंडी मूढ उक्तं च) अब पाखंडी मूढ़ता अर्थात् गुरू मूढ़ता को कहते हैं वीतरागी तत्वज्ञानी साधु हैं वे मोक्षमार्गी हैं, उनकी भक्ति मोक्षमार्ग में प्रेरक है; परंतु जो साधु भेष धारण करके आरंभ-परिग्रह में लीन हैं. हिंसा होते हए अहिंसा मानते (असास्वतं असत्य उच्यते) जो क्षणभंगुर नाशवान पदार्थों को शाश्वत बताकर झूठ: बोलते हैं (अधर्म च प्रोक्तं जेन) जो अधर्म की चर्चा करते हैं और उसी रूप आचरण ! हैं, अधर्म को धर्म कहते हैं, संसार के प्रपंच में फंसे हुए हैं, ऐसे साधुओं की कोई करते हैं (कुलिंगी पाषंड तिक्तयं) जो कुलिंगधारी झूठे भेषधारी साधु हैं, सम्यक्त्वी 5 बाहरी महिमा या उनका चमत्कार देखकर अथवा जानकर उन पर मोहित होना, उनकी सेवा भक्ति करने लग जाना वह पाखंड या गुरू मूढ़ता है। सम्यकद्रष्टि कभी ऐसे पाखंडियों की सेवा भक्ति नहीं करते। भी आगम के विरुद्ध चलने वाले लौकिक साम्प्रदायिक बंधनों में बंधे पाखंडी साधुओं विशेषार्थ- यद्यपि पच्चीस मल दोष का कथन पहले कर चुके हैं तथापि दर्शन की मान्यता, सेवा भक्ति नहीं करता। इस प्रकार इन तीन मूढताओं से रहित दर्शन प्रतिमा का मूल आधार होने से विशेषता से यहां बताया जा रहा है। 5 प्रतिमाधारी श्रावक होता है। तीन मूढता-१. लोक मूढता, २. देव मूढ़ता, ३. पाषंड मूढता (गुरू मूढता)। आगे छह अनायतन का स्वरूप कहते हैंमूढता अर्थात् मूढ मान्यता, रूढ़िगत मान्यतायें, विवेकहीन आचरण । इसमें पहली अनायतन षट्कस्चैव, तिक्तते जे विचण्यना। लोकमूढता-लोगों की देखादेखी-करनेन करने योग्य मान्यतायेंकरना, इसमें लौकिक कामनाओं के वशीभूत क्रियायें करना, उसे धर्म मानना और उनसे अपना भला होना कुदेवं कुदेव धारी च,कुलिंगी कुलिंग मानते ॥ ३८६॥ २१५ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी कुसास्त्रं विकहा रागं च, तिक्तते सुद्ध दिस्टितं । कुसास्त्रं राग ब्रिघंते, अभव्यं च नरयं पतं ॥ ३८७ ॥ अन्वयार्थ - ( अनायतन षट्कस्चैव) अनायतन छह कहे गये हैं (तिक्तते जे विचष्यना) जो विचक्षण ज्ञानी पुरुष हैं, वे इन्हें त्याग देते हैं (कुदेवं कुदेव धारी च) कुदेव और कुदेवों को मानने वाले उनके भक्त (कुलिंगी कुलिंग मानते) कुभेषी साधु और उनके मानने वाले (कुसास्त्रं विकहा रागं च) खोटे शास्त्र जिनमें राग वर्धक विकथायें हों और उनको पढ़ने वाले ( तिक्तते सुद्ध दिस्टितं ) इन छह की संगति सम्यकदृष्टि छोड़ देते हैं (कुसास्त्रं राग व्रिधंते) खोटे शास्त्र राग बढ़ाने वाले होते हैं (अभव्यं च नरयं पतं) जो इनको पढ़ते हैं, अनुसरण करते हैं वे अभव्य हैं और उनका नरक में पतन होता है। विशेषार्थ दर्शन प्रतिमा धारण करने वाले को तीन मूढ़ता और छह अनायतन से बचना चाहिये। कुदेव, कुगुरु और कुशास्त्र तथा इनके सेवकों, भक्तों को धर्म के स्थान समझकर उनकी स्तुति, प्रशंसा करना षट् अनायतन है; क्योंकि यह छहों धर्म के स्थान नहीं हैं। संगति का बहुत भारी असर बुद्धि पर पड़ता है; इसलिये सम्यक्दर्शन की रक्षा के हेतु यह सम्हाल बताई है कि वह ऐसी संगति न रखे जिससे व्यवहार और निश्चय सम्यक्त्व में कोई प्रकार की बाधा होवे । JY GAA YA ARY. धर्म की वृद्धि के स्थानों को आयतन कहते हैं, जो इनके प्रतिकूल हों वे अनायतन हैं। रागी-द्वेषी देव, कुलिंगी भेषधारी साधु, विकथा और राग को बढ़ाने वाले कुशास्त्र और इनके मानने वालों की संगति से बचकर रहना आवश्यक है । परिणामों में शुद्ध सम्यक्दर्शन बना रहे, श्रद्धान ज्ञान चारित्र में दृढ़ता हो इसके लिये सम्यकदृष्टि ज्ञानी कुसंग से बचकर रहता है। विशेष बात यह है कि जो शास्त्र के नाम पर कुशास्त्र रचे गये हैं, जिनमें कुछ शास्त्र पूर्व के आचार्यों के नाम पर लिखे हैं, जिनमें राग की वृद्धि, मिथ्यात्व का पोषण, पवित्र जैन धर्म में शुद्ध आम्नाय के स्थान पर क्रिया कांड मिथ्या आडंबर का पोषण किया गया है ऐसे कुशास्त्र लिखने वाले 5 अभव्य होते हैं जो दुर्गति जाते हैं । इसलिये अन्यानी मिथ्या संजुक्तं, तिक्तते सुद्ध दिस्टितं । सुद्धात्मा चेतना रूपं, सार्धं न्यान मयं धुवं ।। ३८८ ।। अन्वयार्थ- (अन्यानी मिथ्या संजुक्तं ) जो अज्ञानी मिथ्यात्व में लिप्त हैं। २१६ गाथा २८७-३९० (तिक्तते सुद्ध दिस्टितं) ज्ञानी शुद्ध दृष्टि, ऐसे अज्ञानी जीवों की संगति छोड़ देता है (सुद्धात्मा चेतना रूपं) शुद्धात्मा जो चैतन्य स्वरूप है ( सार्धं न्यान मयं धुवं ) उस ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की साधना करता है। विशेषार्थ दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक ऐसी तीन मूढ़ता और छह अनायतन को छोड़कर जो अज्ञानी मिथ्यात्व में लिप्त हैं उनसे भी हटकर उनकी संगति त्यागकर अपने चैतन्य स्वरूप शुद्धात्मा जो ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव है उसकी साधना करता है। आगे आठ मद और शंकादि आठ दोषों का वर्णन करते हैं मद अर्स्ट ससंक अटं च, तिक्तते भव्यात्मनं । सुद्ध पदं धुवं सार्धं, दर्सनं मल विमुक्तयं । ३८९ ।। जेके विमल संपूर्न, कुन्यानं त्रि रतो सदा । ते तानि संग तिक्तंते, न किंचिदपि चिंतए ।। ३९० ।। अन्वयार्थ - (मद अस्टं ससंक अस्टं च) आठ मद और आठ शंकादि दोष ( तिक्तते भव्यात्मनं) भव्यात्मा इनको छोड़ देता है (सुद्ध पदं धुवं सार्धं) शुद्ध पद ध्रुव स्वभाव की साधना करता है (दर्सनं मल विमुक्तयं) इन पच्चीस मलों से रहित ही दर्शन प्रतिमा होती है। (जे केवि मल संपूर्नं) जो कोई इन पच्चीस दोषों से संयुक्त होता है (कुन्यानं त्रिरतो सदा) तीन कुज्ञान में सदा रत रहता है (ते तानि संग तिक्तंते) उनका संग त्याग देना चाहिये (न किंचिदपि चिंतए) उनका कभी भी कोई विचार नहीं करना चाहिये । विशेषार्थ - सम्यक दृष्टि को तीन मूढ़ता, छह अनायतन के त्याग के साथ आठ • प्रकार का मद भी नहीं होता। आठ मद- जाति मद, कुल मद, धन मद, अधिकार मद, रूप मद, बल मद, विद्या मद और तप मद । इन बातों की उत्तमता व अधिकता अभिमान नहीं करता। इन आठ मदों से बचकर मार्दव भाव, विनम्रता का व्यवहार होने पर भी सम्यक्त्वी इनका संबंध क्षणिक और कर्म जनित जानकर इनके संयोग से करता है तथा आठ शंकादि दोषों से भी मुक्त होता है, जो इस प्रकार है १. सच्चे देव, गुरु, धर्म का सच्चा श्रद्धान, निज शुद्धात्मानुभूति होती है इसमें किसी प्रकार की शंका नहीं करता तथा संसार के सप्त भयों से मुक्त होता है। २. किसी प्रकार की संसारी कामना - वासना हेतु धर्म साधना नहीं करता, Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्री आवकाचार जी अपने आत्म कल्याण की भावना से ही धर्म साधना करता है। ३. किसी को दुःखी रोगी दरिद्री देखकर उसके प्रति करुणा होती है, उसकी सेवा करके दुःख दूर करने का उपाय करता है, किसी के प्रति ग्लानि घृणा भाव नहीं रखता । ४. मूढ़ता सहित कोई धार्मिक क्रिया नहीं करता, विवेक पूर्वक धर्माचरण करता है। ५. दूसरों के दोषों को प्रगट करने की आदत नहीं होती, धर्म और धर्मात्मा बदनाम न होवे इस बात का विशेष ध्यान रखता है। ६. धर्म में अपने को और दूसरों को दृढ़ स्थित रखता है। ७. साधर्मी भाइयों से गौ वत्स सम वात्सल्य भाव रखता है। ८. धर्म की प्रभावना तन, मन, धन से करता है, हर धार्मिक आयोजन में उत्साह पूर्वक संलग्न रहता है। अपने शुद्ध पद, ध्रुव स्वभाव की साधना करता है, सम्यक्त्व के इन पच्चीस दोषों को भले प्रकार टालकर सम्यक्त्व को निर्मल रखता है तथा जो इन पच्चीस दोषों से संयुक्त होता है, तीन कुज्ञानों में रत रहता है ऐसे जीवों का संग छोड़ देता है, उनसे कोई धर्म चर्चा वार्ता भी नहीं करता ; क्योंकि विपरीत मार्ग वालों का संग और चर्चा वार्ता भी राग-द्वेष, कषाय बढ़ाने वाली होती है। त्यागी, संयमी, पंडित या साधु जो विपरीत मार्ग, विपरीत दृष्टि वाले होते हैं, साधक को इनसे बचकर हटकर ही रहना चाहिये। अपने परिणामों की सम्हाल और साधना होती रहे इसलिये जिन निमित्तों से सम्यक्त्व भाव दृढ़ होवे उन्हीं प्रसंगों में रहना चाहिये तथा सम्यक्त्व के बाधक कारण, साधना में विघ्न डालने वाले, राग-द्वेष को बढ़ाने वाले निमित्तों से दूर रहना आवश्यक है । सम्यक्दर्शन की निर्मलता और अपने स्वरूप की साधना का लक्ष्य सम्यकदृष्टि पहली दर्शन प्रतिमाधारी को निरंतर रहता है। इस प्रकार इन पच्चीस मलों से मुक्त दर्शन प्रतिमाधारी अपने सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की शुद्धि कर अपने में दृढ़ स्थित रहता है। इसी बात को आगे कहते हैं आराधते बुधै जनै । मुक्तं दर्शनं सुद्धं, संमिक दर्सन सुद्धं च न्यानं चारित्र संजुतं ॥ ३९१ ।। अन्वयार्थ - (मल मुक्तं दर्सनं सुद्धं) मलों से मुक्त होने पर ही दर्शन प्रतिमा शुद्ध होती है (आराधते बुधै जनै) ज्ञानीजन इसकी ही आराधना करते हैं (संमिक २०७ SYS FAA YAN A YEAR. २१७ गाथा ३९१-३९३ दर्सन सुद्धं च) जहां सम्यक्दर्शन शुद्ध होता है वहां (न्यानं चारित्र संजुतं) ज्ञान और चारित्र भी शुद्ध होता है। विशेषार्थ- पच्चीस मलों से अतिचार रहित मुक्त होने पर ही दर्शन प्रतिमा शुद्ध होती है, ज्ञानीजन इसकी आराधना करते हैं। जहां सम्यक्दर्शन शुद्ध होता है वहां ज्ञान और चारित्र भी शुद्ध होता है, यदि सम्यक्दर्शन शुद्ध नहीं है अंतरंग में मिथ्यात्व की वासना है, विषयाकांक्षा है, ख्याति लाभ पूजादि की चाह है वहां सामान्य ज्ञान तो क्या ! ग्यारह अंग नौ पूर्व तक का ज्ञान भी मिथ्या ज्ञान है तथा सम्यक्दर्शन की शुद्धि के बिना श्रावक का समस्त आचरण, ग्यारह प्रतिमा आदि व मुनियों का आचरण अट्ठाईस मूलगुण का निरतिचार पालन करना भी मिथ्याचारित्र है। इससे कभी भी आत्म कल्याण मुक्ति होने वाली नहीं है इसलिये मूल में सम्यक्दर्शन की शुद्धि अर्थात् शुद्ध सम्यक्दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति होना अनिवार्य है। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी हमेशा शुद्ध तत्व की आराधना करता है तथा यह भाव भाता है कि जब तक मोक्ष न हो, मैं हर जन्म में इन सात बातों का अभ्यास करता रहूं १. नित्य प्रति सम्यक्त्व वर्द्धक वीतरागता पोषक सत्शास्त्रों को पढ़ता रहूं। २. जिनेन्द्र भगवान के मार्ग का ही हमेशा अनुसरण करता रहूं। ३. निग्रंथ वीतरागी साधु और सत्पुरुषों की हमेशा संगति करता रहूं। ४. उत्तम चारित्रवान महापुरुषों के गुणानुवाद गाता रहूं। ५. पर के दोषों को कहने में मौन रहूं। ६. सर्व प्रिय, हितकारी जीवों के कल्याणकारी वचन ही बोलूं । ७. निरंतर अपने आत्म स्वरूप की भावना, स्मरण, ध्यान करता रहूं। इस प्रकार सम्यक्दर्शन की शुद्धता को दृढ़ रखता हुआ दर्शन प्रतिमा की साधना करता है। आगे शुद्ध सम्यक्दर्शन की महिमा का वर्णन करते हैंदर्सनं जस्य हृदयं सार्धं, दोषं तस्य न पस्यते । विनासं सकल जानते, स्वप्नं तस्य न दिस्यते ।। ३९२ ।। संमिक दर्सनं सुद्धं, मिथ्या कुन्यान विलीयते । सुद्ध समयं च उत्पादंते, रजनी उदय भास्करं ।। ३९३ ।। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010 2 4 श्री श्रावकाचार जी गाथा-३९२-३९५ OOO दर्सनं तत्व सार्थच, तत्व नित्य प्रकासकं । भी मल नहीं रहेगा। सम्यकदृष्टि सदा ही मूढता से बचता है. किसी भी प्रकार का अभिमान नहीं करता, परम दृढ़ता से शुद्धात्मा की भावना भाता है। धर्मात्माओं से न्यानं तत्वानि वेदंते, दर्सनं तत्व सार्धयं ॥ ३९४ ॥ प्रेम रखता है, धर्म की वृद्धि का यथाशक्ति उपाय करता है। उसके भीतर कोई दोष 2 संमिक दर्सनं सुद्ध, उर्वकारं च विंदते। ॐ प्रवेश नहीं कर सकते। संसार की जितनी पर संयोग जनित अवस्थायें हैं उनको G धर्म ध्यानं च उत्पा/ते,हियंकारेण दिस्टते ॥ ३९५॥ 1. नाशवान जानता रहता है ; इसीलिये उनमें राग-द्वेष, मोह नहीं करता। वह जानता उवंकारं हृींकारं च, श्रींकारं प्रति पूर्नयं। है कि शरीर, धन, यौवन, बल, विद्या, कुटुम्ब, सेवकों का समागम तथा यह जीवन ८ आदि समस्त संयोग जल के बुदबुदवत् क्षणभंगुर नाशवान हैं। देखते ही देखते नष्ट ध्यायति सुख ध्यानस्य, अनुव्रतं साधुवं ।। ३९६ ॥ , होजाते हैं : इस कारण इन क्षणिक पदार्थों से सदाही उदासीन रहता है। सम्यकदृष्टि अन्वयार्थ- (दर्सनं जस्य हृदयं साध) जिसके हृदय में दर्शन, निजS किसी भी परिस्थिति में हो सदा समता भाव में रहता है, बाह्य में छह खंड का राज्य शद्धात्मानुभूति का श्रद्धान होता है (दोषं तस्य न पस्यते) वहां कोई दोष दिखाई नहीं करता चक्रवर्ती दिखलाई पड़ता है; परंतु अंतरंग में मात्र अपने ही आत्मीक राज्य को देते (विनासं सकल जानते) वह जगत के समस्त पदार्थों को विनाशीक जानता है संभालता है। परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, मैं ध्रुव तत्व सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा हूं (स्वप्नं तस्य न दिस्यते) उसे स्वप्न में भी नाशवान पदार्थों का राग पैदा नहीं होता। ऐसी दढ भावना सम्यक्त्वी के अंतरंग में होती है। जैसे कोई ज्ञानवान विवेकशील (संमिक दर्सनंसुद्ध)जहां शुद्ध सम्यक्दर्शन होता है (मिथ्या कुन्यान विलीयते) गृहस्थ दूसरे की वस्तु को कभी भी अपनी नहीं मानता, उसी तरह सम्यक्त्वीशरीरादि वहां मिथ्या कुज्ञान का विलय हो जाता है (सुद्ध समयं च उत्पादंते) शुद्धात्म स्वरूप पर वस्तुओं को कभी भी अपनी नहीं मानता, कभी स्वप्न में भी उनका विचार नहीं प्रगट हो जाता है (रजनी उदय भास्कर) जैसे रात्रि के बाद सूर्य का उदय होता है। करता । शद्ध सम्यकदर्शन के प्रकाश के सामने मिथ्याज्ञान उसी तरह नहीं ठहर (दर्सनं तत्व साधं च) तत्वों का श्रद्धान करना सम्यकदर्शन है (तत्व नित्य सकता, जैसे- सूर्य के उदय होने से रात्रि नहीं ठहर सकती है। सम्यक्त्वी के अंतर में प्रकासक) अविनाशी शुद्ध तत्व का प्रकाश करने वाला है (न्यानं तत्वानि वेदंते), कुमति. कुश्रुत.कुअवधि ज्ञान कभी नहीं होते। तत्वों का अनुभव करना जानना ही ज्ञान है (दर्सनं तत्व सार्धयं) दर्शन द्वारा तत्व की सम्यक्दर्शन के होते ही स्वरूपाचरण चारित्र का उदय होजाता है तथा शुद्धात्मा साधना करना ही चारित्र है। 5 का अनुभव प्रगट हो जाता है। आत्मज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाश में फिर संसार का (संमिक दर्सनं सुद्ध) जब शुद्ध सम्यक्दर्शन निश्चय निज शुद्धात्मानुभूति हो मोहतम अज्ञान कैसे रह सकता है? ज्ञानी हमेशा शरीरादि से भिन्न अपने चैतन्य जाती है तब ही (उर्वकारं च विंदते) परमात्म स्वरूप का अनुभव होता है (धर्म ध्यानं स्वरूप का विचार रखता है। जैसे- किसान धान के ढेर में चावल और भूसी को च उत्पाद्यंते) और धर्म ध्यान भी प्रगट हो जाता है (हियंकारेण दिस्टते) जिससे अलग देखता है, तेली तिलों के ढेर में तेल और खली को भिन्न देखता है,स्वर्णकार केवलज्ञान स्वरूप में ठहरने लगता है। सोने और किट्टिका को भिन्न देखता है, धोबी वस्त्र में वस्त्र और मैल को अलग (उर्वकारहींकारंच) पंच परमेष्ठी मयी सिद्ध स्वरूप और केवलज्ञामयी परमात्म देखता है, वैसे ही सम्यक्दृष्टि दर्शन प्रतिमाधारी आत्मा से अनात्मा को भिन्न देखता स्वरूप (श्रींकारं प्रति पूर्नयं) पूर्ण शुद्ध मोक्ष लक्ष्मी स्वरूप निज शुद्धात्म तत्व के है। यद्यपि व्यवहारनय से जीव आदि सात तत्वों का श्रद्धान करना सम्यक्दर्शन है , प्रति पूर्ण श्रद्धान होता है (ध्यायंति सुद्ध ध्यानस्य) तब शुद्ध ध्यान के द्वारा ध्याया परंतु निश्चय नय से शुद्धात्मा का श्रद्धान करना सम्यक्दर्शन है। शुद्धात्म तत्व का जाता है (अनुव्रतं साधंधुव) जिससे अणुव्रतों की निश्चय साधना होती है। वेदन करना सम्यज्ञान है। शुद्धात्म स्वरूप में स्थिर रहना ही सम्यक्चारित्र है। विशेषार्थ-जहां शुद्धता होगी वहां मैल नहीं और जहां मैल होगा वहां शुद्धता जब तक शुद्धात्मा में स्थिरता न हो तब तक मुक्त नहीं हो सकते । मिथ्यात्व के 7 नहीं, इसी प्रकार जिसके हृदय में शुद्ध सम्यक्दर्शन है वहां पच्चीस मलों में से कोई उपशम से शुद्ध स्वरूपकी सच्ची रुचि होती है और अनंतानुबंधी कषाय के उपशम २१८ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DON श्री श्रावकाचार जी A से स्वरूपाचरण चारित्र का प्रकाश होता है। आचार्य पदवी दर्शन प्रतिमाधारी से प्रारंभ हो जाती है। यहां आज्ञा सम्यक्त्व तथा नित्य तत्व का विचार करना परम उपयोगी है। आत्मा, रागादि से आठ कर्मों से वेदक सम्यक्त्व सहित यह साधक अपने आत्म स्वरूप की साधना करता है। यहां शरीरादि नो कर्मों से भिन्न है। जब शुद्ध सम्यकदर्शन निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती . आज्ञा सम्यक्त्व और वेदक सम्यक्त्व का प्रयोजन यह है कि जिनेन्द्र भगवान की है तब ही परमात्म स्वरूप का अनुभव होता है, तब ही धर्म ध्यान प्रगट होता है 3 आज्ञा प्रमाण सच्चे देव, गुरु, शास्त्र तथा जीवादि सात तत्वों का श्रद्धान रखना जिससे केवलज्ञान सर्वज्ञ स्वरूप में ठहरने लगता है। ॐ मंत्र में अरिहंत आदि पांच आज्ञा सम्यक्त्व है। क्षयोपशम सम्यक्त्व को ही वेदक सम्यक्त्व कहते हैं, जो निज परमेष्ठी गर्भित हैं। हीं मंत्र में चौबीस तीर्थकर गर्भित हैं, उनका स्थूलपने विचार तोर शुद्धात्मानुभूति पूर्वक होता है, यहां अनंतानुबंधी चार कषाय तथा मिथ्यात्व और मिथ्यादृष्टि को भी हो सकता है ; परंतु शुद्धात्मा को पहिचान कर उसके अनुभव की सम्यक् मिथ्यात्व का तो उदय नहीं रहता है ; किंतु सम्यक् प्रकृति का उदय रहता शक्ति शुद्ध सम्यक्दर्शन के द्वारा ही हो सकती है। यद्यपि ग्रहस्थ श्रावक, त्यागी व्रती । हैं है, जिसके उदय से सम्यक्त्व में मलिनता चल, मल, अगाढ़ दोष होते रहते हैं। इस तथा मुनिगण भी ध्यान लगाते हैं, मंत्र जप करते हैं बाह्य संयम पालते हैं तथापि सम्यक्त्व का काल ६६ सागर प्रमाण है। उपशम सम्यक्त्व की स्थिति अंतर्मुहूर्त है। सम्यकदर्शन के बिना वह यथार्थ धर्म ध्यान नहीं होता। जहां शुद्धात्मानुभव सहितक्षायिक सम्यक्त्व शाश्वत होता है और किसी विरले जीव को होता है । इसलिये धर्म साधन होता है, वहीं धर्म ध्यान कहा जाता है। ॐ ह्रीं श्रीं मंत्रों के द्वारा ध्यान दर्शन प्रतिमाधारी आज्ञा सम्यक्त्व और वेदक सम्यक्त्व की दृढता रखते हुए मतिज्ञान करना चाहिये। श्रुतज्ञान के द्वारा अपने स्वरूप का मनन चिंतन करते हुए हमेशा धर्म ध्यान में रत शुद्धात्मा के ध्यान में लीन होना ही इष्ट प्रयोजनीय है। ॐकार से सिद्ध स्वरूप, रहता है, यह मोक्ष का अभिलाषी मुमुक्षु साधक आचार्य पदवी का धारी कहलाता है। हींकार से केवलज्ञान अरिहन्त स्वरूप, श्रींकार से पूर्ण शुद्ध मुक्त शुद्धात्म स्वरूप का सम्यकदर्शन रहित व्रत प्रतिमा आदि का पालन वृथा हैध्यान करते हुए अपने शुद्धात्म स्वरूप में लीन हो जाना ही शुद्धध्यान है। प्रात:काल, अनेय व्रत कर्तव्यं,तप संजमं च धारनं । सायं काल एकांत में बैठकर सामायिक करना चाहिये, शांत चित्त के लिये मंत्रों द्वारा पदस्थ पिंडस्थ ध्यान, पार्थिवी आदि पांच धारणाओं के द्वारा शुद्धात्मा का अनुभव दर्सन सुद्धि न जानते, विथा सकल विभ्रमः ।। ३९८ ॥ ही यथार्थ में सच्चा धर्म ध्यान है, इसी के अभ्यास से अणुव्रतों की सही साधना होती अनेय पाठ पठनं च,अनेय क्रिया संजुतं । दर्सन सुद्धिन जानते, विथा दान अनेकधा ॥ ३९९ ॥ जिसका मन शांत न हो, चित्त चंचल हो वह व्रत नियम आदि का सही पालन: अन्वयार्थ- (अनेय व्रत कर्तव्यं) अनेक व्रतों का पालन करना (तप संजमंच नहीं कर सकता; अत: दर्शन प्रतिमाधारीध्यान सामायिक के द्वारा अपने स्वरूप की 5 धारनं) तप और संयम को धारण करना (दर्सन सुद्धि न जानते) शुद्ध सम्यक्दर्शन साधना और अणुव्रतों का पालन करता है। निज शुद्धात्मानुभव नजाने (व्रिथा सकल विभ्रम:) उनका सारा प्रयास वृथा, विपरीत आगे दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक का महत्व बताते हैं ४ भ्रम मात्र है ऐसे आचरण से कभी मोक्ष नहीं होगा। अन्या वेदकस्यैव, पदवी दुतिय आचार्य। (अनेय पाठ पठनं च) अनेक पाठों शास्त्रों को पढ़ना उनका ज्ञान होना और न्यानं मति श्रुतस्चैव, धर्म ध्यानं रतो सदा ।। ३९७॥ (अनेय क्रिया संजुतं) अनेक क्रियाओं से संयुक्त होकर व्यवहार चारित्र पालना (दर्सन अन्वयार्थ- (अन्या वेदकस्चैव) आज्ञा सम्यक्त्व तथा वेदक सम्यक्त्व सहित सुद्धि न जानते) शुद्ध सम्यक्दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति नहीं जानते (विथा दान गर्य) टसरी आचार्य पदवीका धारी (न्यानं मतिश्रतस्चव) मतिज्ञान अनेकधा) तो अनेक प्रकार का दान आदि करना सब निरर्थक व्यर्थ है, यह कोई भी श्रुतज्ञान सहित (धर्म ध्यानं रतो सदा) हमेशा धर्म ध्यान में रत रहता है। मोक्षमार्ग में सहकारी नहीं है। विशेषार्थ- पहली उपाध्याय पदवी, अविरत सम्यक्दृष्टि की होती है। दूसरी विशेषार्थ- यहां यह जोर देकर कहा है कि शुद्धात्मा के अनुभवन रूप शुद्ध vedabernal Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C PU0 श्री आचकाचार जी सम्यक्त्व न हो तो सर्व ही चारित्र मिथ्या व संसार वर्धक है, मोक्ष का मार्ग नहीं है। कोई रखने से अंडे स्वयं बढ़ते हैं (सुयं विधन्ति जंबुधैः) इसी प्रकार अपने आत्म स्वरूप श्रावक अपने को व्यवहार में श्रद्धावान समझकर कुदेव, कुगुरु, कुधर्म का सेवन न कर की सरत रहने से ज्ञान स्वयं बढता है। जैन तत्वों का मनन करे, जिनेन्द्र की आज्ञा पाले,भक्ति करे, व्यवहार में पांच अणुव्रतों, s विशेषार्थ- जिसके हृदय में सम्यक्दर्शन विद्यमान है वहां ज्ञान स्वयं प्रगट को पाले, उपवास, ऊनोदर, रस त्याग आदि नाना प्रकार तप करे तथा इन्द्रिय संयम * होता है, शुद्धात्मा के अनुभव के प्रताप से तज्ञान दिन पर दिन बढ़ता जाता है। और प्राणी संयम पाले, व्यवहार चारित्र में कोई कमी न करे तो भी यदि उसके निश्चय इसके लिये दृष्टांत दिया है, जैसे- कछवी का अंडा कछवी की दृष्टि से ही बढ़ता है, सम्यक्त्व निजशुद्धात्मानुभूति नहीं है तो उसका यह सब आचरण मोक्षमार्ग की अपेक्षा > कछवी अंडा सेती नहीं है देखती रहती है, उसका ध्यान उस पर लगा रहता है इससे मिथ्या है, विपरीत है, कुचारित्र है। सम्यकदृष्टि ज्ञानी की दृष्टि सदा शुद्धात्मा पर ही वह अंडा बढ़ता है, इसी प्रकार सम्यक्त्वी का ध्यान शुद्धात्म स्वरूप पर रहता है रहती है। केवल परिणामों की शुद्धि के लिये कषायों को घटाने, कर्मों को क्षय करने के। . इससे उसका शास्त्रज्ञान, मति श्रुतज्ञान बढ़ते जाते हैं, उसकी गाढ़ रुचि आत्मीक लिये शास्त्र स्वाध्याय, व्रत, तप, संयम करता है, दान देता है तब यह सब बाहरी चर्चा पर रहती है इससे ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम हो जाता है। सम्यकदृष्टि साधन उसके लियेशुद्धात्म स्वरूप की साधना करने, मोक्षमार्गमें आगे बढ़ने में सहकारी वीतरागी साधु बिना अभ्यास के ही द्वादशांग का पाठी हो जाता है। यह सब सम्यक्त्व निमित्त हो जाते हैं। सम्यक्दर्शन से रहित बाह्य चारित्र पालन किया जावे, दानादि दिया जावे, अनेक की महिमा है, जिसके हृदय में निज स्वरूप की सुरत रहती है वहां ज्ञान अवश्य होता 5है और वह निरंतर वृद्धिगत होता जाता है। यहां दूसरा दृष्टांत दिया है जैसे-मछली शास्त्रों का पठन पाठन किया जावे तो वह पुण्य बंध का कारण तो होगा; परंतु मोक्षमार्ग अपने अंडे नदी की रेत में देती है, अंडे देकर पानी में चली जाती है परंतु उनकी न होगा इस अपेक्षा से यह सब व्यर्थ निरर्थक है। सुरत रखती है जिससे अंडे बढ़ते हैं,यदि मछली अंडों की सुरत भूल जाये तो अंडे मोक्षमार्ग तो निश्चय से एक अभेदशुद्धात्मा के अनुभव स्वरूप है यही परमानंद गल जाते हैं, इसी प्रकार जिसके हृदय में अपने शुद्धात्म स्वरूप की सुरत निरंतर देने वाला शुद्ध सम्यक्त्व है। * बनी रहती है उसके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम हो जाता है और मति, श्रुत, आगे सम्यक्त्व की महिमा का कथन करते हैं अवधिज्ञान प्रगट होते जाते हैं। सम्यकदर्शन की महिमा और उसके प्रभाव से चारों दर्सनं जस्य हृदयं दिस्टा, सुयं न्यानं उत्पादते। घातिया कर्म क्षय होकर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है अतएव शुद्ध सम्यक्दर्शन ही कमठी दिस्टि जथा डिंभ,सुयं विधति जं बुधैः॥ ४००॥ & कल्याणकारी मोक्षमार्ग का सोपान है। दर्सन जस्य हिदं श्रुतं, सुयं न्यानं च संभवे। आगे कहते हैं कि सम्यक्दर्शन से हीन जीव संसार में ही परिभ्रमण मच्छिका अंड जथा रेतं,सुयं विधन्ति जं बुधैः ।। ४०१॥ करता हैअन्वयार्थ- (दर्सनंजस्य हृदयं दिस्टा) जिसके हृदय में सम्यक्दर्शन विद्यमान दर्सन हीन तपं कृत्वा, व्रत संजम पठं क्रिया। है (सुयं न्यानं उत्पादते) वहां ज्ञान स्वयं प्रगट होता है (कमठी दिस्टि जथा डिंभ) चपलता हिंडि संसारे, जह जल सरनि ताल कीटऊ ।। ४०२।। जैसे कछवी की दृष्टि से अंडा स्वयं ही बढ़ता है (सुयं विधंति जं बुधैः) इसी प्रकार अन्वयार्थ- (दर्सन हीन तपं कृत्वा) जो जीव सम्यक्दर्शन से हीन तप करते सम्यक्दृष्टि का ज्ञान स्वयं बढ़ता है। हैं (व्रत संजम पठं क्रिया) व्रत संयम पालते हैं,पठन पाठन करते हैं (चपलता हिंडि% (दर्सनंजस्य हिदं श्रुतं) जिसके हृदय में सम्यकदर्शन की सुरत रहती है (सयं संसार) तथा चपलता अर्थात् कषाय भाव का विकार अंतरंग में रखने से संसार में ही न्यानंच संभवे) वहां ज्ञान अवश्य रहता है (मच्छिका अंडजथा रेत) जैसे-मछली भ्रमण करते हैं (जह जल सरनि ताल कीटऊ) जैसे- तालाब के जल में कीटाणु नदी की रेत में अंडे देती है और पानी में यहां-वहां आती जाती है परंतु अंडों की सरत बिलबिलाते चारों तरफ उसी में घूमते रहते हैं। १ २२० Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी विशेषार्थ - जो जीव सम्यक्दर्शन से हीन निज शुद्धात्मानुभूति रहित हैं, जिन्हें स्व-पर का यथार्थ भेदज्ञान नहीं हुआ, व्यवहार श्रद्धान से तप करते हैं, व्यवहार संयम पालते हैं, शास्त्र स्वाध्याय पठन-पाठन करते हैं, मुनि या श्रावक का चारित्र पालते हैं ; परंतु अंतरंग में चपल मिथ्या, माया, निदान शल्य सहित, आत्मानुभव से रहित होने से संसार में ही परिभ्रमण करते हैं, बाहरी चारित्र या ज्ञान कोई मोक्ष का कारण नहीं है । वह जीव मंद कषाय से पुण्य कर्म बांध लेगा, देव गति चला जायेगा वहां विषयों में लीन हो जायेगा, वहां से चयकर दूसरे स्वर्ग तक का देव, एकेन्द्रिय स्थावर व बारहवें स्वर्ग तक का देव पशु और आगे का मनुष्य होकर अन्य - अन्य गतियों में जा-जाकर कष्ट ही भोगेगा। जन्म जरा मरण से रहित नहीं हो सकता, जैसे- तालाब के जल के कीटाणु वहीं बिलबिलाते घूमते रहते हैं, इसी प्रकार सम्यक्दर्शन से हीन जीव संसार में ही परिभ्रमण करते हैं। आगे सम्यक्दर्शन की महिमा बताते हैं दर्सनं स्थिरं जेन, न्यानं चरनं च स्थिरं । संसारे तिक्त मोहंधं, मुक्ति स्थिरं सदा भवेत् ॥ ४०३ ॥ अन्वयार्थ - (दर्सनं स्थिरं जेन) जो सम्यक्दर्शन में भले प्रकार स्थिर है (न्यानं चरनं च स्थिरं ) जिसका ज्ञान और चारित्र भले प्रकार स्थिर है (संसारे तिक्त मोहंधं) जिसने संसार के मोह और अज्ञान अंधकार को छोड़ दिया है (मुक्ति स्थिरं सदा भवेत्) वह हमेशा मुक्ति में स्थिर रहेगा। विशेषार्थ - मोक्ष का साधन निश्चय रत्नत्रयमयी आत्मा का अनुभव है। जिसके शुद्धात्मा की रुचि दृढ़ है उसका ज्ञान और उसमें थिरता दृढ़ है वह अवश्य मोक्षमार्गी है। जो सम्यक्दर्शन में स्थिर है, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में स्थिर है, जिसने संसार के अज्ञान अंधकार मोहादि को छोड़ दिया है वह मोक्षमार्गी है और हमेशा मोक्ष में स्थिर रहेगा अर्थात् सिद्ध परमात्मा होगा। शुद्ध सम्यकदृष्टि ही मोक्षमार्गी है SYARAT GAAN FAN ART YEAR. एतत् दर्सनं दिस्टा, न्यानं चरन सुद्धए । उत्कृष्टं व्रतं सुद्धं मोष्यगामी न संसय: ।। ४०४ ॥ अन्वयार्थ - (एतत् दर्सनं दिस्टा) इस तरह जो अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखता है (न्यानं चरन सुद्धए) ज्ञान और चारित्र से शुद्ध होता है (उत्कृष्टं व्रतं सुद्धं ) 236 २२१ गाथा ४०३, ४०४ उसके व्रत उत्कृष्ट और शुद्ध होते हैं (मोष्यगामी न संसय:) ऐसा दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक मोक्षगामी है इसमें कोई संशय नहीं है। विशेषार्थ इस तरह दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखता है, ज्ञान और चारित्र से शुद्ध होता है। सप्त व्यसन का त्यागी, अष्ट मूलगुणों का पालन करने वाला, पच्चीस दोषों से रहित शुद्ध सम्यक्दर्शन का धारी होता है। जिसके मिथ्यात्व, अन्याय, अभक्ष्य का सर्वथा अभाव होकर धर्म की निकटता अर्थात् व्रत धारण करने की शक्ति और पात्रता होती है वह दर्शन प्रतिमाधारी आगे की प्रतिमाओं का पालन करता हुआ साधु पद में उत्कृष्ट महाव्रतों को पालता है, वह अवश्य ही मोक्षगामी है इसमें कोई संशय नहीं है । दर्शन प्रतिमाधारी साधक की नित्य चर्या १. एक घण्टा रात्रि शेष रहे तब उठकर पवित्र हो आत्म चिंतन सामायिक करे । २. प्रात: स्नान आदि दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर चैत्यालय जावे, शुद्ध षट्कर्मों में यथाशक्ति प्रवर्ते । ३. धर्म कार्यों से निवृत्त होने के पश्चात शुद्ध भोजन करे। ४. भोजन की पवित्रता रखे, शूद्र को छोड़कर शेष तीन वर्णों के (जिसका मद्य मांस का त्याग हो) हाथ से भरा ठीक प्रकार दोहरे छन्ने से छना हुआ पानी, मर्यादित आटा, चर्म स्पर्श रहित शुद्ध घी, ताजा छना और प्रासुक किया हुआ दूध, ताजा मसाला, रसोई में चंदोवा, बिना बींधा दाल चावल आदि अन्न ग्रहण करे, कन्द मूल आदि अभक्ष्य पदार्थों का त्याग करे । ५. चार बजे तक आजीविका संबंधी कार्य अपनी योग्यतानुसार विवेक पूर्वक करे पश्चात् दुबारा भोजन करना हो तो करे। संध्या समय पुनः आत्म चिंतन सामायिक करे पश्चात् शास्त्र सभा में जाकर शास्त्र पढ़े या सुने, समय बचे तो स्वाध्याय करे। रात्रि दस बजे विश्राम करे, इस प्रकार आहार-विहार शयन आदि तथा धर्म कार्यों को नियम पूर्वक करता रहे। दर्शन प्रतिमा में अन्याय, अभक्ष्य जनित स्थूल हिंसा के कारणों को सर्वथा त्यागकर आरंभ संबंधी मोटे-मोटे हिंसादि पापों के त्याग का क्रम रहित अभ्यास करता हुआ दार्शनिक श्रावक व्रत धारण करने की भावना भाता है। २. व्रत प्रतिमा व्रत प्रतिमा का स्वरूप कहते हैं Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ es श्री श्रावकाचार जी दर्सनं साधनं जस्य व्रत तपस्य उच्यते । . व्रत तप ने संजुक्तं, सार्धं स्वात्म दर्सनं ॥ ४०५ ।। अन्वयार्थ - ( दर्सनं सार्धनं जस्य) जिसके सम्यक्दर्शन का श्रद्धान है (व्रत तपस्य उच्यते) उसी के व्रत तप सही कहे जाते हैं (व्रत तप नेम संजुक्त) जो व्रत तप नियम से संयुक्त है (सार्धं स्वात्म दर्सनं) और स्वात्म दर्शन की साधना करता है वह व्रत प्रतिमाधारी है। - विशेषार्थ जो अखंड सम्यक्दर्शन और अष्ट मूलगुणों का धारक है। मिथ्या, माया, निदान शल्यों से रहित राग-द्वेष के अभाव और साम्य भाव की प्राप्ति के लिये अतिचार रहित व्रत तप नियम का पालन करता है वह व्रती श्रावक है। यहां श्री तारण स्वामी ने बहुत संक्षेप में, मात्र एक गाथा में ही व्रत प्रतिमा का स्वरूप बताया है परंतु पूरा सार भर दिया है। मूल आधार स्वात्म दर्शन, शुद्धोपयोग की साधना का ही लक्ष्य है और इसी के लिये यह व्यवहार में व्रत, नियम, संयम, तप का पालन करता है। यह बात जगत प्रसिद्ध है और धर्म शास्त्र भी ऐसा ही कहते हैं कि हिंसा के समान पाप और अहिंसा के समान पुण्य नहीं है। यद्यपि भेद विवक्षा से अनेक प्रकार के पाप कहे जाते हैं तो भी यथार्थ में सब पापों का मूल एक हिंसा ही है, इसी के विशेष भेद झूठ, चोरी, कुशील और अति तृष्णा आदि हैं। इसी कारण शास्त्रों में आचार्यों ने जहां-तहां इन पांचों पापों के निवारण का उपदेश दिया है। श्री आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थ सूत्र में इन पापों के त्यागरूप पांच ही व्रत कहकर उनके अणुव्रत महाव्रत दो भेद किये हैं। पाँच पापों का एकदेश त्याग करना अणुव्रत और सर्वदेश त्याग करना महाव्रत कहलाता है। SYARAT YAAAAAT FAR AS YEAR. पांच पापों का त्याग जब बुद्धि पूर्वक अर्थात् भेदज्ञान (सम्यक्त्व) पूर्वक होता है तभी उसे व्रत संज्ञा प्राप्त होती है। इन व्रतों को अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि अंतरंग या बाह्य सामग्री की योग्यता देख धारण करके भले प्रकार निर्दोष पालना चाहिये, कदाचित् किसी प्रबल कारणवश व्रत भंग हो जाये तो प्रायश्चित लेकर पुनः 5 स्थापना करना चाहिये । ग्रहस्थ श्रावक प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम के अनुसार अणुव्रत धारण कर सकता है, इसके महाव्रत धारण करने योग्य कषाय नहीं घटी इसलिये सर्वथा आरंभ विषयक कषाय त्यागने को असमर्थ है। व्रत प्रतिमा में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत मिलकर बारह व्रत २२२ कहलाते हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं - गाथा ४०५ पांच अणुव्रत - हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील का त्याग, परिग्रह प्रमाण । तीन गुणव्रत - दिव्रत, देशव्रत, अनर्थदण्ड (त्याग) व्रत । चार शिक्षाव्रत- सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण, अतिथि संविभाग । व्रत प्रतिमा में पंचाणुव्रत तो निरतिचार पलते हैं, तीन गुणव्रत गुणों की वृद्धि करते हैं और चार शिक्षाव्रत इन्हें महाव्रतों की हद तक पहुंचाते हैं। यद्यपि व्रती जहां तक संभव हो इनको भी दोषों से बचाता है तथापि यह सप्तशील व्रत प्रतिमा में निरतिचार नहीं होते। यहां कोई प्रश्न करे कि व्रत प्रतिमा में ही यह बारह व्रत एक साथ निरतिचार होना चाहिये क्योंकि बारह व्रतों के अतिचारों का वर्णन तत्वार्थसूत्र में एक ही जगह व्रतों के प्रकरण में किया है ? उसका समाधान करते हैं कि एक ही स्थान पर वर्णन करना तो प्रकरणवश होता है, यहां केवल वस्तु स्वरूप बताना था, प्रतिमाओं का वर्णन नहीं करना था, यदि बारह व्रत दूसरी प्रतिमा में ही निरतिचार हो जावें तो आगे की सामायिक आदि प्रतिमा व्यर्थ ठहरें; क्योंकि तीसरी से ग्यारहवीं प्रतिमा तक इन सप्तशीलों के निरतिचार पालन करने का ही उपदेश है। यही बात सर्वार्थ सिद्धि तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कही है। व्रत प्रतिमा में पंचाणुव्रत निरतिचार होते हैं, तीसरी प्रतिमा में सामायिक और चौथी में प्रोषधोपवास निरतिचार होते हैं, पांचवीं में भोगोपभोग के अतिचार दूर होते हैं और ग्यारहवीं प्रतिमा तक क्रमशः भोगोपभोग घटाकर त्याग कर दिये जाते हैं। अष्टम प्रतिमा में आरंभ का सर्वथा त्याग होने से पंचाणुव्रत की पूरी-पूरी दृढ़ता होती है तथा दिग्व्रत, देशव्रत निरतिचार पलता है। दसवीं अनुमति त्याग में अनर्थदण्ड (त्याग) व्रत निरतिचार हो जाता है। इस तरह सप्तशील निरतिचार होने से अणुव्रत महाव्रत की परिणति को प्राप्त हो जाते हैं इसीलिये श्री तारण स्वामी ने पंचाणुव्रत की शुद्धि ग्यारह प्रतिमाओं के बाद कही है। व्रतों को धारण करने वाला पुरुष मिथ्या, माया, निदान तीनों शल्यों से रहित होना चाहिये । तीन शल्यों का स्वरूप १. मिथ्या शल्य- जो धर्म के स्वरूप का ज्ञाता नहीं अर्थात् संसार और Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S 04 श्री आपकाचार जी गाथा-४०५ SO0 संसार के कारणों तथा मोक्ष के कारणों को नहीं जानता अथवा विपरीत जानता है या प्रतिमा तभी सही और सार्थक होगी जब यह सारी बातें जीवन में होंगी। संदेह युक्त जानता है इन पर जिनका दृढ़ विश्वास नहीं है और न व्रत धारण करने का दसलक्षण धर्म- दसलक्षण धर्म आत्मा के स्वभाव हैं। इन लक्षणों से आत्मा अभिप्राय समझता है, ऐसा मिथ्यात्वी पुरुष दूसरों की देखादेखी या और किसी के एक भाव की पहिचान होती है, प्रत्येक धर्म में जो उत्तम विशेषण लगा हुआ है वह अभिप्राय के वश व्रतों का पालन करने वाला अव्रती ही है। जो पुरुष तत्वश्रद्धानी ख्याति, लाभ, पूजा आदि की निवृत्ति के हेतु है तथा सम्यकदर्शन का प्रतीक, होकर आत्मकल्याण के अभिप्राय से व्रत धारण करता है, वही मोक्षमार्गी पापों का सम्यकद्रष्टि ज्ञानी के लिये है। त्यागी सच्चा व्रती कहलाता है। १.उत्तम क्षमा- सम्यक्ज्ञान पूर्वक दूसरों के अपराध को अपने में दण्ड देने जिसको यह मिथ्याशल्य लगी हो कि ऐसान होजाये उसेन धर्म का श्रद्धान की शक्ति होते हुए भी क्षमा करना, क्रोधित न होना उत्तम क्षमा है। है और न कर्म का विश्वास, वह मिथ्यादृष्टि ही है। २. उत्तम मार्दव- सम्यक्ज्ञान पूर्वक अपने पास ज्ञान, धन, ऐश्वर्य आदि २. माया शल्य-जिसके मन के विचार, वचन की प्रवृत्ति और काय की चेष्टा अभिमान के कारण होते हुए भी अभिमान न करना, विनय रूप सहज स्वभाव भिन्न-भिन्न हो, ऐसे पापों को गुप्त रखने वाले मायाचारी पुरुष का दूसरों को दिखाने सहजानंद में रहना उत्तम मार्दव है। अथवा मान बड़ाई लोभ आदि के अभिप्राय से व्रत धारण करना निष्फल है। वह ३. उत्तम आर्जव-सम्यकज्ञान पूर्वक मन, वचन, काय की कुटिलता को ऊपर से व्रती है परंतु अंतरंग में उसे पापों से घृणा नहीं है, आत्म कल्याण की भावना त्यागना नाम, दाम, काम की चाह न होना, सरल स्वभाव में रहना उत्तम आर्जव नहीं है इस कारण ढोंग वृत्ती होने से उसे उल्टा पाप का बंध होता है तथा तिर्यंच आदि है। नीच गति की प्राप्ति होती है। ४. उत्तम सत्य-पदार्थों का स्वरूपज्यों का त्यों जानना तथा सम्यक्ज्ञान जिसको यह माया शल्य लगी हो कि 'ऐसा नहीं ऐसा होता' वह कभी भी पूर्वक वस्तु के स्वरूप का ज्यों का त्यों वर्णन करना, धर्मानुकूल प्रिय, मधुर वचन निराकुल आनंद में नहीं रहता, जहां माया का पक्ष है वहां ब्रह्म के दर्शन नहीं हो। बोलना,धर्म को हानि या कलंक लगाने वाला वचन न बोलना उत्तम सत्य है। सकते। ५. उत्तम शौच-सम्यक्ज्ञान पूर्वक आत्मा को कषायों द्वारा मलिन न होने ३. निदान शल्य-जो पुरुष आगामी सांसारिक विषय भोगों की वांछा के देना, सदा निर्मल रखना तथा लोभ का त्याग कर संतोष रूप रहना उत्तम शौच है। अभिप्राय से व्रत धारण करता है, वह यथार्थ में व्रती नहीं है ; क्योंकि व्रत धारण ६.उत्तम संयम-सम्यक्ज्ञान पूर्वक इन्द्रियों और मन को विषयों से रोकना करने का प्रयोजन तो सांसारिक विषय भोगों अथवा आरम्भ-परिग्रह से विरक्त होकर और षट्काय के जीवों की रक्षा करना, समदृष्टि होकर हमेशा अपने स्वरूप की सुरत आत्म स्वरूप में उपयोग स्थिर करने का है ; परन्तु निदान बन्ध करने वाला उल्टा ९ रखना उत्तम संयम है। । पापों के मूल विषय-भोगों की तीव्र इच्छा करके उनकी पूर्ति के लिये ही व्रत धारण 3 ७. उत्तम तप- सांसारिक विषयों में इच्छा रहित होकर शरीर से निर्ममत्व करता है अतएव ऐसे पुरुष के बाह्य व्रत होते हुए भी अंतरंग तीव्र लोभ कषाय होने के होने के लिये अनशन (उपवास),ऊनोदर (अल्प आहार), व्रत परिसंख्यान (अटपटी कारण पाप का ही बंध होता है। आंकड़ी लेना),रस परित्याग (दूध, दही, घी, तेल,नमक,मीठा इन रसों में से एक जिसको यह निदान शल्य लगी हो कि 'ऐसा करता ऐसा करूंगा' वह संसारासक्त या अधिक छोड़ना), विविक्त शय्यासन (एकांत स्थान में सोना बैठना),काय क्लेश अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है यथार्थ में उपर्युक्त तीनों शल्यों के त्याग होने पर ही व्रत धारण (शरीर से शीत ऊष्ण आदि परीषह सहना) यह छह बाह्य तप हैं। हो सकते हैं अन्यथा नहीं। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग (शरीर से ममत्व का त्याग) शल्य रहित होने पर ही स्वात्म दर्शन की साधना हो सकती है इसके लिये और ध्यान यह छह अंतरंग तप हैं। यह बारह प्रकार का तप करना अर्थात् इनके द्वारा दसधर्म और बारह भावनाओं का अपने में सद्भाव समावेश होना आवश्यक है। व्रत आत्मा को तपाकर निर्मल करना, कर्म रहित करना, अपने स्वरूप में स्थित होना, र २२३ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6565 श्री आवकाचार जी स्वरूपानंद में रहना उत्तम तप है। , ८. उत्तम त्याग - अपने न्याय पूर्वक उपार्जन किये हुए धन को मुनि, आर्यिका, श्रावक श्राविका के निमित्त औषधि दान, शास्त्र दान (ज्ञान दान), आहार दान और अभय दान में व्यय करना वह व्यवहार त्याग है और राग-द्वेष को छोड़ना वह अंतरंग त्याग है यही उत्तम त्याग है। ९. उत्तम आकिंचन्य- सम्यक्ज्ञान पूर्वक चौबीस प्रकार के परिग्रह का त्याग करना उत्तम आकिंचन्य है। बाह्य परिग्रह के दस भेद खेत, मकान, सोना, चांदी, अनाज, पशु, दासी, दास, बर्तन, वस्त्र अंतरंग परिग्रह के चौदह भेद- मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद इन चौबीस प्रकार के परिग्रह के त्याग सहित अहंकार विसर्जन करना। मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञान दर्शन चेतना वाला सदा अरूपी हूँ, परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है। १०. उत्तम ब्रह्मचर्य - बाह्य व्यवहार ब्रह्मचर्य तो संभोग स्त्री विषय का त्याग करना है, निश्चय से अपने आत्म स्वरूप में उपयोग को स्थिर करना, ब्रह्म स्वरूप में रमण करना उत्तम ब्रह्मचर्य है। द्वादशानुप्रेक्षा (बारह भावना) - जो वैराग्य उत्पन्न करने में माता के समान हैं और बारम्बार चितवन योग्य हैं वे अनुप्रेक्षा या भावना कहलाती हैं, यह बारह हैं। १. अनित्य भावना- सांसारिक सर्व पदार्थों का संयोग जो जीवन से हो रहा है उसे अनित्य जानकर उनसे राग भाव तजना अनित्य भावना है। २. अशरण भावना - जीव को अपने ही शुभाशुभ कर्म सुख-दुःख देने वाले हैं, संसार में कोई किसी का सहाई रक्षक नहीं है। धर्म, अपना आत्म स्वरूप ही अपने को आप ही शरणरूप है। उदय में आये हुए कर्मों को रोकने में कोई समर्थ नहीं है तथा मरण काल में जीव को बचाने में कोई सहायक नहीं है, इस तरह निरंतर चिंतवन करके अपने आत्म हित की रुचि करना अशरण भावना है। ३. संसार भावना - यह संसार जन्म-मरण रूप है, इसमें कोई भी सुखी नहीं है, प्रत्येक जीव को कोई न कोई दुःख लगा हुआ है, इस प्रकार संसार को दुःख स्वरूप चिंतन करके उसमें रुचि नहीं करना, विरक्त रहना संसार भावना है। ४. एकत्व भावना - यह जीव अकेला आप ही जन्म जरा मरण, सुख-दुःख, संसार, मोक्ष भोगता है, दूसरा कोई भी इसका साथी नहीं है। ऐसा विचार कर किसी SYA YA YA AT YA. गाथा- ४०० के आश्रय की इच्छा न करना, स्वयं आत्म हित में पुरुषार्थ करना एकत्व भावना है। ५. अन्यत्व भावना- इस आत्मा से अन्य सर्व पदार्थ और अन्य सभी जीव अलग हैं ऐसा चिंतवन करते हुए किसी से संबंध नहीं मानना अन्यत्व भावना है। ६. अशुचि भावना यह शरीर हाड़-मांस, रक्त, पित्त, कफ, मल-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं का घर है ऐसा विचारते हुए शरीर से राग भाव घटाना और सदा आत्मा को शुद्ध करने का विचार करना कि पर्याय में जो रागादि की अशुचिता है वह भी दूर हो ऐसा चिंतवन करना अशुचि भावना है। ७. आस्रव भावना - जब मन, वचन, काय रूप योगों की प्रवृत्ति कषाय रूप होती है तब कर्मों का आस्रव होता है और उससे कर्म बंध होकर जीव को सुख-दुःख की प्राप्ति तथा सांसारिक चतुर्गति का भ्रमण होता है, इस तरह विचार करते हुए आस्रव के मुख्य कारण योग और कषायों को रोकना आस्रव भावना है। ८. संवर भावना - कषायों की मंदता तथा मन, वचन, काय योगों की निवृत्ति जितनी - जितनी होती जाती है, उतना उतना ही कर्मों का आस्रव होना भी घटता जाता है तथा आत्म स्वरूप में उपयोग लगना संवर कहलाता है, इससे कर्मास्रव रुकता है, बंध का अभाव होता है जिससे संसार छूट जाता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। ९. निर्जरा भावना - शुभाशुभ कर्मों के उदयानुसार सुख-दुःख की सामग्री के समागम होने पर समता भाव धारण करने से तथा तप से सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति और अनुभाग घटता है तथा बिना रस दिये ही कार्माण वर्गणायें कर्मत्व शक्ति रहित होकर निर्जरती हैं, इस प्रकार संवर पूर्वक एकदेश निर्जरा और कर्मों का सर्वदेश • अभाव मोक्ष कहलाता है। २२४ १०. लोक भावना - यह लोक ३४३ राजू घनाकार है, जिसके ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक तीन भेद हैं, जिसमें संसारी जीव अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों के कारण चार गति चौरासी लाख योनियों में भ्रमण कर रहे हैं। जीवों के सिवाय पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह पांच द्रव्य और भी इस लोक में स्थित हैं, इन सबको अपनी आत्मा से अलग चिंतवन करके सबसे राग-द्वेष छोड़कर आत्म स्वभाव में लीन होना ही जीव का मुख्य कर्तव्य है ऐसा विचार करना लोक भावना है। ११. बोधिदुर्लभ भावना - यद्यपि अनादि काल से कर्मों से आच्छादित होने के कारण आत्म ज्ञान की प्राप्ति दुर्लभ हो रही है तथापि यह उत्तम मनुष्य पर्याय, Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७७ Coc श्री आवकाचार जी उच्च कुल, दीर्घायु, इन्द्रियों की परिपूर्णता, आत्मज्ञान होने योग्य क्षयोपशम, पवित्र जिन धर्म की प्राप्ति, साधर्मियों का सत्संग आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ समागम प्राप्त हुआ : इसलिये जैसे बने तैसे आत्मज्ञान की उपलब्धि में यत्न करना चाहिये ऐसा चिंतवन करना बोधिदुर्लभ भावना है। १२. धर्म भावना - दस लक्षण रूप दया अहिंसा मयी अथवा शुद्ध रत्नत्रय मयी शुद्धात्म स्वरूप धर्म, जो जिनेन्द्र देव ने कहा है उसकी प्राप्ति के बिना जीव अनादि काल से संसार में भ्रमण कर रहा है। धर्म अर्थात् निज शुद्ध स्वभाव के श्रद्धान से ही सच्चा सुख और मुक्ति की प्राप्ति होती है, धर्म की शरण ही जीव को कल्याणकारी है ऐसा चिंतवन करना धर्म भावना है। बारह व्रतों का वर्णन - अब यहां पंचाणुव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का विशेष वर्णन किया जाता है तथा हर एक व्रत के पांच-पांच अतिचार और पांच-पांच भावनायें कही जाती हैं। यह भावनायें जिनके चिंतवन से व्रत दृढ़ होते हैं और निर्दोष पलते हैं। सर्वदेश महाव्रतों को और एकदेश अणुव्रतों को भावनायें लाभ पहुंचाती हैं । सूत्रकारों ने जहां व्रतों के अणुव्रत और महाव्रत दो भेद बताये हैं, वहीं यह पांच-पांच भावनायें भी कही हैं इसलिये इन भावनाओं का देशव्रत और महाव्रत दोनों से यथा संभव संबंध जानना चाहिये । (१) अहिंसाणुव्रत- 'प्रमत्त योगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' प्रमत्तयोग अर्थात् कषायों के वश होकर प्राणों का नाश करना हिंसा है। मिथ्यात्व, असंयम, कषायरूप परिणाम होना भाव हिंसा है और इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छ्वास, आयु प्राणों का घात करना द्रव्य हिंसा करना है। जिस प्रकार जीव को स्वयं अपनी भाव हिंसा के फल से चतुर्गति में भ्रमण करते हुए नाना प्रकार दुःख भोगने पड़ते हैं और द्रव्य हिंसा होने से अति कष्ट सहन करना पड़ता है, उसी प्रकार दूसरों के द्रव्य और भाव प्राणों की हिंसा करने से भी तीव्र कषाय और तीव्र बैर उत्पन्न होता है, जिससे जन्म-जन्मांतरों SYA YA YA YA. में महान दुःख की प्राप्ति होती है, यह जन्म तो दुःख रूप हो ही जाता है। जो जीव संसार परिभ्रमण से अपनी रक्षा करना चाहते हैं, उन्हें सदा स्व और पर जीवों पर दया > दृष्टि रखना चाहिये । इस प्रकार हिंसा को महापाप तथा जीव का परम दुःखदाई बैरी जानकर त्यागने का दृढ़ संकल्प करना अहिंसाणुव्रत है। हिंसा के चार भेद हैं- १. संकल्पी २ आरम्भी, ३. उद्योगी, ४. विरोधी । व्रती श्रावक संकल्पी हिंसा का पूर्णतया त्यागी होता है । २२५ गाथा- ४०५ अहिंसाणुव्रत के पांच अतिचार- १. वध - किसी को लाठी, मुक्का, कोड़ा आदि से मारना । २. बंध बांधना, रोकना, कैद करना। ३. छेद- नाक छेदना, पांव तोड़ना, अंग भंग करना । ४. अतिभारारोपण- गाड़ी घोड़ा, बैल आदि पर प्रमाण से अधिक बोझ लादना । ५. अन्न पान निरोध- किसी को भी समयानुसार खाने-पीने को न देना। इन पांच अतिचारों को छोड़ने से अहिंसाणुव्रत निर्दोष पलता है अतएव अतिचार दोष भी नहीं लगने देना चाहिये । अहिंसाणुव्रत की पांच भावनायें - १. मनोगुप्ति- मन में अन्याय पूर्वक दुष्ट संकल्प-विकल्प नहीं करना । २. वचन गुप्ति - हास्य, कलह, विवाद आदि हिंसाकारी वचन न बोलना । ३. ईर्या समिति - त्रस जीवों की विराधना न हो इसके लिये हर कार्य विवेक पूर्वक देखभाल कर करना । ४. आदान निक्षेपण समिति - हर एक वस्तु पात्र आदि देखकर उठाना धरना जिससे आपको व पर को कोई पीड़ा कष्ट न हो । ५. आलोकित पान भोजन- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की योग्यता- अयोग्यता देखकर भली-भांति देख शोधकर आहार जल ग्रहण करना। इस प्रकार भली भांति अहिंसाणुव्रत के स्वरूप को जानकर अंतरंग कषाय भाव और बाह्य आरंभी त्रस हिंसा नहीं करते, वे ही सच्चे अहिंसाणुव्रत के पालक हैं। (२) सत्याणुव्रत- 'प्रमत्तयोगादसदभिधानमनृतम्' कषाय भाव पूर्वक अयथार्थ भाषण करना असत्य कहलाता है ; पुनः ऐसे सत्य वचन को भी असत्य जानना जिसके बोलने से दूसरों का अपवाद, बिगाड़ या घात हो जाये अथवा पांच पापों में प्रवृत्ति हो जाये क्योंकि ऐसे भाषण करने वाले के सत्य वचन होते हुए भी चित्तवृत्ति पाप रूप ही रहती है। इस प्रकार सत्य-असत्य का स्वरूप भली-भांति जानकर उपर्युक्त प्रकार स्थूल असत्य का त्याग करना सत्याणुव्रत कहलाता है। असत्य बोलने से लोक में निंदा होना, राज्य से दण्ड मिलना आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं और परलोक में दुर्गति होती है। सत्य बोलने से लोक में प्रामाणिकता, यश, बड़प्पन तथा लाभ होता है और परलोक में स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति होती है। सत्याणुव्रत के पांच अतिचार- १. मिथ्या उपदेश- शास्त्र विरुद्ध उपदेश देना । २. रहो भ्याख्यान किसी की गुप्त बात को प्रगट करना। ३. कूटलेख क्रिया- झूठी बातें लिखना, झूठी गवाही देना । ४. न्यासापहार- किसी की धरोहर रखी हो उसको कम बढ़ करके देना। ५. साकार मंत्र भेद किसी के अभिप्राय को - - Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 04 श्री आपकाचार जी गाथा- ४०५७ जानकर दूसरों पर प्रगट कर देना। तीव्र कषायी, कलह विसंवाद करने वाले पुरुषों से रहित स्थान में रहना। सत्याणुव्रत की पांच भावनायें-१. क्रोध त्याग-क्रोध नहीं करना, मौन २. विमोचितावास-जिस मकान या स्थान में दूसरे का झगड़ा न हो ऐसे किसी के धारण करना। २. लोभ त्याग- जिससे असत्य में प्रवृत्ति होती हो ऐसे लोभ को ५ द्वारा छोड़े गए स्थान में निराकुलता पूर्वक रहना। ३. परोपरोधाकरण- अन्य के छोड़ना। ३. भय त्याग-जिससे धर्म विरुद्ध, लोक विरुद्ध वचन में प्रवृत्ति हो जाये स्थान में बल पूर्वक प्रवेश नहीं करना, किसी को अपने स्थान में आते हुए नहीं ऐसा धन बिगड़ने और शरीर बिगड़ने का भय नहीं करना। ४. हास्य त्याग-किसी रोकना। ४. भैक्ष्यशुद्धि-अन्याय द्वारा प्राप्त किया हुआ तथा अभक्ष्य भोजन का की हंसी-मसखरी नहीं करना, हास्य वचन नहीं कहना । ५. अनुवीचि त्याग करना, अपने कर्मानुसार प्राप्त शुद्ध भोजन को लालसा रहित संतोष सहित भाषण- जिन सूत्र से विरुद्ध वचन न बोलना। इन पांच भावनाओं की सदा स्मृति ग्रहण करना। ५. सधर्माविसंवाद-साधर्मी पुरुषों से कलह, विसंवाद नहीं करना। रखने से असत्य भाषण से रक्षा होती है और सत्याणुव्रत निर्मल होता है। हैं इन पांच भावनाओं को सदा स्मरण रखकर अचौर्याणुव्रत दृढ़ रखना आवश्यक है। (३) अचौर्याणुव्रत-'प्रमत्त योगाददत्तादानं स्तेयम्' कषाय भाव युक्त होकर (४) ब्रह्मचर्याणुव्रत- 'प्रमत्त योगान्मैथुनमब्रह्म' प्रमत्त योग अर्थात् दूसरों की वस्तु उसके दिये बिना या आज्ञा बिनाले लेना चोरी कहलाती है। किसी के वेदकषाय जनित भाव युक्त स्त्री-पुरुषों की रमण क्रिया को कुशील कहते हैं, इस रखे हुए, गिरे हुए, भूले हुए तथा धरोहर रखे हुए द्रव्य का हरण नहीं करना, इस प्रकार कुशील के त्याग को ब्रह्मचर्य व्रत कहते हैं। यथार्थ में ब्रह्मजो आत्मा उसमें ही आत्मा स्थूल चोरी का त्याग करना अचौर्याणुव्रत कहलाता है। एके उपयोग (चैतन्य भाव) की चर्या, रमण करना सच्चा ब्रह्मचर्य है। उस सच्चे संसार में धन ग्यारहवां प्राण है इसलिये जो पराया धन हरण करता है वह ब्रह्मचर्य अर्थात् आत्मा में उपयोग के स्थिर होने में बाधक कारण मुख्यपने स्त्री है; स्वयं पापबंध करके अपने आत्मीक ज्ञान दर्शन प्राणों का घात करता है। चोरी से इस इसलिये जब सम्यकज्ञान पूर्वक स्त्री से विरक्त होकर कोई पुरुष मुनिव्रत धारण करता भव में राजदण्ड,जातिदण्ड मिलता है, निंदा होती है और परभव में नीच गतियों के है तभी आत्म स्वरूप में रमने वाला साधु आत्म स्वरूपका साधक कहलाता है। इसी दु:ख भोगना पड़ते हैं अतएव प्रत्येक ग्रहस्थ को- 'जल मृतिका बिन और नांहि कछुॐ कारण स्त्री सेवन का सर्वथा त्याग करना ब्रह्मचर्य कहा गया है। गहै अदत्ता' इस वाक्य के अनुसार अचौर्य व्रत का पालन करना आवश्यक है। ग्रहस्थ के इतनी अधिक वेदकषाय की मंदतान होने से वह सर्वथा स्त्रीत्याग अचौर्याणवत के पांच अतिचार-(१) चौर प्रयोग-चोरी करने के उपाय करने को असमर्थ है, ऐसी स्थिति में स्वदार संतोष व्रत धारण करना अर्थात् देव, बताना, चोरी करने वालों की सहायता करना (२) चौरार्थादान-चोरी किया हुआ गुरु,शास्त्र एवं पंचों की साक्षी पूर्वक स्व स्त्री के सिवाय और समस्त पर स्त्रियों का पदार्थ ग्रहण करना, मोल लेना (३) विरुद्ध राज्यातिक्रम-राज्य के विरुद्ध कार्य त्याग करना ही ग्रहस्थ का ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इस व्रत के विषय में पुरुषों की तरह करना, नियम तोड़ना, कर (टेक्स) की चोरी करना, रिश्वत खोरी, कालाबाजारी स्त्रियों को भी स्वप्न में पर पुरुष की वांछा नहीं करना चाहिये। विधवाओं को ब्रह्मचर्य करना (४) हीनाधिक मानोन्मान- नापने तौलने के गज, बांट, तराजू कम-बढ़ व्रत धारण कर आत्म कल्याण में प्रवर्तन करना चाहिये। रखना (५) प्रतिरूपकव्यवहार-बहुत मूल्य की चीज में अल्पमूल्य की चीज मिलाकर ब्रह्मचर्य अणुव्रत के पांच अतिचार-१.परविवाहकरण- अपने पुत्र-पुत्री बहुत मूल्य के भाव में बेचना, मिलावट करना अपराध है। व्यापार में राज्य का करके सिवाय दूसरों के पुत्र-पुत्री की शादी का मेल मिलाना, शादी कराना। २.इत्वरिका र (टेक्स) न चुकाना, उसमें चोरी करना, लेन-देन में कम बढ़ तौलना, दूध में पानी, परिग्रहीता गमन- व्यभिचारिणी स्त्री जिसका स्वामी हो उसके घर आना-जाना १ घी में तेल डालडा आदि खोटा खरा मिलाकर बेचना, कुछ बताना और कुछ माल देना या उससे बोलने,उठने-बैठने, लेन-देन का व्यवहार करना । ३. इत्वरिका, यह सब चोरी का ही रूपांतर है; अतएव इन पांच अतिचारों को अचौर्याणुव्रत में दोष अपरिग्रहीतागमन-स्वामी रहित व्यभिचारिणी स्त्री के घर आना-जाना,या उससे उत्पन्न करने वाले जानकर त्यागना योग्य है। बोलने, उठने-बैठने, लेन-देन का व्यवहार करना। ४. अनंग क्रीड़ा-काम सेवन । 9 अचौर्याणुव्रत की पांच भावनायें-१. शून्यागारवास- व्यसनी, दुष्ट, के अंगों को छोड़कर अन्य अंगों द्वारा क्रीड़ा करना या अन्य क्रियाओं द्वारा काम की Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८७८० 6565 श्री आवकाचार जी शांति करना । ५. काम तीव्राभिनिवेश- स्व स्त्री में भी काम सेवन की अति लंपटता रखना। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का विचार किये बिना काम सेवन करना । इन पांच अतिचारों के लगने से ब्रह्मचर्य अणुव्रत मलिन होता है तथा बार-बार लगने से क्रमश: नष्ट हो जाता है। ब्रह्मचर्य अणुव्रत की पांच भावनायें - १. स्त्री राग कथा श्रवण त्याग - अन्य की स्त्रियों में राग उत्पन्न करने वाली कथा, वार्ता, गीत सुनने पढ़ने कहने का त्याग करना । २. तन्मनोहरांग निरीक्षण त्याग अन्य की स्त्री के मनोहर अंगों को राग भाव पूर्वकन देखना । ३. पूर्वरतानु स्मरण - अणुव्रत धारण करने के पहले अव्रत अवस्था भोगे हुए भोगों का स्मरण नहीं करना । ४. वृष्येष्ठ रस त्याग- कामोद्दीपक पुष्ट एवं भरपेट तथा गरिष्ठ भोजन न करना । ५. स्व शरीर संस्कार त्याग- कामी पुरुषों जैसे कामोद्दीपन करने योग्य शरीर को नहलाने, तेल, उबटन आदि लगाने, वस्त्रादि पहिनने, श्रृंगार करने का त्याग करना, सादा पहनावा रखना। इन पांच भावनाओं का ब्रह्मचर्याणुव्रती को हमेशा चिंतन करना चाहिये । (५) परिग्रह परिमाण अणुव्रत- 'प्रमत्तयोगान्मूर्छा परिग्रहः' आत्मा के सिवाय जितने मात्र राग-द्वेषादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, औदारिक आदि नोकर्म तथा शरीर संबंधी स्त्री-पुत्र, धन-धान्य, गृह क्षेत्र, वस्त्र - बर्तन आदि चेतन-अचेतन पदार्थ हैं वे सभी पर हैं, इन्हें ग्रहण करना और इनमें ममत्व भाव रखना परिग्रह है। इस परिग्रह का आवश्यकतानुसार परिमाण करना परिग्रह परिमाण अथवा इच्छा परिमाण अणुव्रत है। यद्यपि अंतरंग मूर्च्छा घटाने के लिये बाह्य परिग्रह घटाया जाता है तथापि बाह्य परिग्रह घटाने पर भी जो मूर्च्छा न घटाई जाये तो प्रमत्त योग के सद्भाव से यथार्थ परिग्रह परिमाण व्रत नहीं हो सकता । बाह्य परिग्रह के दस भेद इस प्रकार हैं- खेत, मकान, सोना, चांदी, अनाज, पशु, दासी, दास, बर्तन, वस्त्र । परिग्रह परिमाण अणुव्रत के पांच अतिचार- इन दस परिग्रह के पांच जोड़ 5 में से किसी को बढ़ा लेना, किसी को घटा देना । १. प्रयोजन से अधिक सवारी रखना। २. आवश्यकीय वस्तुओं का अति संग्रह करना । ३. दूसरों का वैभव देखकर आश्चर्य अथवा इच्छा करना । ४. अति लोभ करना । ५. मर्यादा से अधिक कार्य करना । परिग्रह परिमाण अणुव्रत की पांच भावनायें बहुत पाप बंध के कारणभूत Y YEAR GEAR A YEA - २२७ गाथा- ४०५ अन्याय, अभक्ष्य रूप पांचों इन्द्रियों के विषयों का जीवन पर्यन्त के लिये त्याग करना । कर्मयोग से मिले हुए मनोज्ञ विषयों में अतिराग व असक्तता नहीं करना तथा अमनोज्ञ विषयों में द्वेष, घृणा नहीं करना । इन भावनाओं के सदा स्मरण रखने से परिग्रह परिमाण व्रत में दोष लगाने रूप प्रमाद उत्पन्न नहीं होता तथा व्रत में दृढ़ता रहती है। सम्यक्त्वी ग्रहस्थ हिंसादि पांचों पापों को मोक्षमार्ग के साधनों का विरोधी एवं विघ्नकर्ता जानता है; परन्तु ग्रहस्थाश्रम में फंसे रहने के कारण विवश होकर इनको सर्वथा त्याग नहीं सकता, केवल एकदेश त्याग कर सकता है, इस त्याग से लौकिक-पारलौकिक दोनों प्रकार के लाभ होते हैं। सर्वजन ऐसे पुरुष को धर्मात्मा प्रामाणिक पुरुष समझते हैं, उसकी इज्जत करते हैं, सर्व प्रकार सेवा सहायता करते और आज्ञा मानते हैं। उसका लोक में यश होता है, न्याय प्रवृत्ति के कारण उसका धन्धा अच्छा चलता है, जिससे धन-सम्पदा आदि सुखों की प्राप्ति होती है। कषाय जनित आकुलता - व्याकुलतायें घट जाती हैं, पापबंध नहीं होता और शुभ कार्यों में विशेष प्रवृत्ति होने से सातिशय पुण्य का बंध होता है जिससे आगामी स्वर्गादि सुखों की और परम्परा से शीघ्र ही मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। सप्त शील का वर्णन सप्त शीलों में तीन गुणव्रत तो अणुव्रतों को दृढ़ करते हैं, उनकी रक्षा करते हैं और चार शिक्षाव्रत मुनिव्रत की शिक्षा देते अर्थात् अणुव्रतों को महाव्रतों की सीमा तक पहुंचाते हैं। तीन गुणव्रत (१) दिग्व्रत- पाप, सावद्ययोग की निवृत्ति हेतु चारों दिशा- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण । चार विदिशा - आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ईशान। ऊपर और नीचे । इस प्रकार दसों दिशाओं में गमनागमन का प्रमाण- वन, पर्वत, नगर, नदी, देश आदि चिन्हों द्वारा करके उसके बाहर सांसारिक विषय-कषाय संबंधी कार्यों के लिये न जाने की यावज्जीवन प्रतिज्ञा करना दिव्रत है। दिग्वत के पांच अतिचार- १. प्रमादवश मर्यादा से अधिक ऊंचाई पर चढ़ जाना। २. प्रमादवश मर्यादा से अधिक नीचे उतर जाना। ३. प्रमादवश समान भूमि में दिशा-विदिशाओं की मर्यादा के बाहर चले जाना। ४. प्रमादवश क्षेत्र की मर्यादा Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७७ श्री आवकाचार जी बढ़ा लेना । ५. प्रमादवश, की हुई मर्यादा को भूल जाना। दिग्व्रत धारण करने से अणुव्रती को यह विशेष लाभ होता है कि अपने आने-जाने आदि वर्ताव के क्षेत्र का जितना प्रमाण किया है उससे बाहर के क्षेत्र की तृष्णा घट जाती है। मन में उस क्षेत्र संबंधी किसी प्रकार के विकल्प भी उत्पन्न नहीं होते तथा उस त्यागे हुए क्षेत्र संबंधी सर्व प्रकार त्रस स्थावर हिंसा के आश्रव का अभाव होने से वह पुरुष उस क्षेत्र की अपेक्षा महाव्रती के समान हो जाता है। - (२) देशव्रत- दिव्रत द्वारा यावज्जीवन प्रमाण किये हुए क्षेत्र को काल के विभाग से घटा घटा कर त्याग करना देशव्रत कहलाता है। जितने क्षेत्र का जीवन पर्यन्त के लिये प्रमाण किया है, उतने में नित्य गमनागमन का काम तो पड़ता ही नहीं अतएव जितने क्षेत्र में व्यवहार करने से अपना आवश्यकीय कार्य सधे, उतने क्षेत्र का प्रमाण दिन-दो दिन, सप्ताह, पक्ष, मास के लिये स्पष्ट रूप से कर लेवे, शेष का त्याग करे जिससे बाहर के क्षेत्र में इच्छा का निरोध होकर द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा से रक्षा हो । देशव्रत के पांच अतिचार- १. मर्यादा के क्षेत्र से बाहर किसी मनुष्य या पदार्थ को भेजना। २. मर्यादा से बाहर के पुरुष को शब्द द्वारा सूचना देना। ३. मर्यादा से बाहर का माल मंगाना । ४. मर्यादा से बाहर के पुरुष को अपना रूप दिखाकर या इशारे से सूचना देना। ५. मर्यादा से बाहर के पुरुष को कंकर पत्थर आदि फेंककर चेतावनी कराना । दिव्रत के प्रमाण में से जितना क्षेत्र देशव्रत में घटाया जाता है उतने क्षेत्र संबंधी गमनागमन का संकल्प-विकल्प तथा आरंभ संबंधी हिंसादि पापों का अभाव हो जाता है, जिससे देशव्रती की त्यागे हुए क्षेत्र में उपचार से महाव्रती के समान प्रवृत्ति रहती है। (३) अनर्थदण्ड त्याग व्रत - दिशा विदिशाओं की मर्यादा पूर्वक जितने क्षेत्र का प्रमाण किया हो उसमें भी प्रयोजन रहित पाप के कारणों से अथवा प्रयोजन सहित महापाप के कारणों से विरक्त होना अनर्थदण्ड त्याग व्रत है। अनर्थदण्ड के पांच भेद हैं १. पापोपदेश- पाप में प्रवृत्ति कराने वाला तथा जीवों को क्लेश पहुंचाने वाला उपदेश देना या वाणिज्य, हिंसा, ठगाई आदि की कथा कहना, जिससे दूसरों पाप में प्रवृत्ति हो जाये। जैसे-किसी से कहना की धान्य खरीद लो, घोड़ा गाय SYAA AAAAAN FAN ART YEAR. गाथा- ४०५ भैंस आदि रख लो, कल कारखाने लगाओ, बाग लगाओ, खेती कराओ, अग्नि जलाओ आदि । २२८ २. हिंसादान - हिंसा के उपकरण कुल्हाड़ी, तलवार, चाकू आदि हिंसा के लिये देना, भाड़े से देना, दान देना तथा इनका व्यापार करना । ३. अपध्यान- राग-द्वेष से दूसरों के वध-बंधन, हानि, नाश होने या करने संबंधी खोटे विचार करना, परस्पर का बैर याद करना आदि। ४. दु:श्रुति श्रवण- चित्त में राग-द्वेष के बढ़ाने वाले, क्लेश उत्पन्न कराने वाले, काम जाग्रत कराने वाले, मिथ्याभाव बढ़ाने वाले, आरंभ परिग्रह बढ़ाने वाले, पाप में प्रवृत्ति कराने वाले तथा क्रोधादि उत्पादक शास्त्रों, पुस्तकों, पत्रादि का पठन-पाठन करना, सुनना अथवा इसी प्रकार की कथा कहानी कहना । ५. प्रमाद चर्या - बिना प्रयोजन घूमना फिरना या दूसरों को घुमाना फिराना । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि को निष्प्रयोजन छेदना-भेदना, घात करना आदि। अनर्थदण्ड त्याग व्रत के पांच अतिचार- १. नीच पुरुषों जैसे भंड वचन बोलना, काम पूर्ण हंसी मसखरी के वचन कहना। २. काय की भंड रूप खोटी चेष्टा करना, हाथ-पांव मटकाना, मुंह बनाना आदि । ३. व्यर्थ बकवाद करना या छोटी सी बात को बहुत आडंबर बढ़ाकर कहना । ४. बिना विचारे मन, वचन, काय की प्रवृत्ति करना । ५. अनावश्यक भोगोपभोग की सामग्री एकत्रित करना या उसका व्यर्थ व्यवहार करना । अर्थदण्ड त्याग करने से प्रयोजन रहित अथवा अल्प प्रयोजन सहित होने वाले पापों से बचाव होता है अतः अतिचार रहित निर्दोष पालन करना चाहिये । चार शिक्षाव्रत (१) सामायिक शिक्षाव्रत मन-वचन-काय, कृत-कारित अनुमोदना से मर्यादा तथा मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में नियत समय तक हिंसादि पांच पापों का 5 सर्वथा त्याग करना, राग-द्वेष रहित होना, सर्व जीवों के प्रति समता भाव रखना, संयम मय शुभ भाव करना, आर्त- रौद्र भाव का त्याग करना सामायिक शिक्षाव्रत है। सम अर्थात् राग-द्वेष रहित, आय अर्थात् आत्मा में उपयोग की प्रवृत्ति सामायिक है। साम्य भाव होने पर ही आत्म स्वरूप में चित्त मग्न होता है। सामायिक करने में विशेष ध्यान देने योग्य नौ बातें - १. योग्य द्रव्य (पात्र), Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-४०५ Oo २. योग्य क्षेत्र, ३. योग्य काल, ४. योग्य भाव, ५. योग्य आसन, ६. योग्य विनय, क्लेश से उत्साह हीन होकर उपवास में निरादर रूप परिणाम करना। ५. उपवास ७. मन शुद्धि,८. वचन शुद्धि, ९. काय शुद्धि पूर्वक सामायिक करने से परिणाम में योग्य क्रियाओं को भूल जाना। शांति सुख का अनुभव होता है। प्रोषधोपवास के दिन भोगोपभोग एवं आरम्भ का त्याग करने से हिंसा लेश भी सामायिक पाठ के छह अंग हैं-१.प्रतिक्रमण, २.प्रत्याख्यान,३.सामायिक नहीं होती। वचन गुप्ति होने (मौनावलम्बी रहने) अथवा आवश्यकतानुसार धर्म कर्म, ४. स्तुति, ५. वंदना, ६.कायोत्सर्ग। इस प्रकार समभाव पूर्वक आत्म स्वरूप रूप अल्प भाषण करने से असत्य का दूषण नहीं आता। अदत्तादान के सर्वथा त्याग का चिंतवन करने के लिये आवर्त, शिरोनति तथा नमस्कार पूर्वक सामायिक करना। 5 से चोरी का दोष नहीं आता। मैथुन के सर्वथा त्याग से ब्रह्मचर्य व्रत पलता है और सामायिक के पांच अतिचार-१.२.३. मन-वचन-काय को अशुभरूप शरीर आदि परिग्रह से निर्ममत्व होने से परिग्रह रहितपना होता है; इसलिये प्रवर्ताना। ४.सामायिक करने में अनादर भाव करना। ५. सामायिक का समय और प्रोषधोपवास करने वाला ग्रहस्थ उस दिन सर्व सावध योग के त्याग होने से उपचार पाठ भूल जाना। अतिचार लगने से सामायिक दूषित होती है अतएव ऐसी सावधानी महाव्रती है। प्रोषधोपवास के धारण करने से शरीर निरोग रहता है और शरीर की रखना चाहिये जिससे अतिचार दोष न लगें। शक्ति बढ़ती है। सातिशय पुण्य का बंध होकर उत्कृष्ट सांसारिक सुखों की प्राप्ति विशेष-सामायिक के समय क्षेत्र तथा काल का परिमाण करके गृह, व्यापार पूर्वक पारमार्थिक मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। आदि सर्व पाप योगों का त्याग कर देने से सामायिक करने वाले गृहस्थ के सर्व प्रकार (३) भोगोपभोग परिमाण व्रत-रागादिभावों को मंद करने के लिये परिग्रह पापाश्रव रुककर सातिशय पुण्य का बंध होता है। उस समय वह उपसर्ग में ओढ़े हुए परिमाण व्रत की मर्यादा में भी काल के प्रमाण से भोग-उपभोग का परिमाण करना, कपड़ों से युक्त मुनि के समान होता है। विशेष क्या कहा जाये, अभव्य भी द्रव्य र अधिक सेवन की इच्छा न करना भोगोपभोग परिमाण व्रत है। सामायिक के प्रभाव से नवमे ग्रैवेयक पर्यन्त जाकर अहमिन्द्र हो सकता है। सामायिक जो वस्तु एक बार भोगने के बाद पुन: दूसरी बार भोगने योग्य न हो उसे भोग को भाव पूर्वक धारण करने से शांति सुख की प्राप्ति होती है। यह आत्म तत्व की कहते हैं। जैसे- भोजन, पान, सुगंध आदि। प्राप्ति अर्थात्परमात्मा होने के लिये मूल कारण है, इसकी पूर्णता ही जीव को निष्कर्म जो वस्तु बार-बार भोगने योग्य हो उसे उपभोग कहते हैं। जैसे- स्त्री, आसन, अवस्था प्राप्त कराती है। शय्या, वस्त्र, वाहन, मकान आदि। (२)प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत-अष्टमी, चतुर्दशी के दिन सर्व काल धर्म साधन भोगोपभोग का परिमाण यम-नियम रूप दो प्रकार से होता है। यावज्जीवन की सुवांछा से संपूर्ण पापारंभों से रहित होकर, चार प्रकार आहार का त्याग करना त्याग करना यम कहलाता है और दिन, रात्रि, मास, ऋतु, वर्ष, काल आदि की प्रोषधोपवास कहलाता है। ९ मर्यादा रूप त्याग करना नियम कहलाता है। प्रकृति विरुद्ध अर्थात् जिन चीजों के १. उत्तम प्रोषधोपवास- सोलह प्रहर तक निराहार रहना। २. मध्यम खाने से रागादिक्लेश होता है, उनका सेवन करना छोड़े।अनुपसेव्य, उत्तम जाति, प्रोषधोपवास- जल सिवाय तीन प्रकार के आहार का त्याग । ३. जघन्य कुल,धर्म के विरुद्ध भोगोपभोग का त्याग करे। बुद्धि को विकार करने रूप-बीड़ी, प्रोषधोपवास- एक बार अन्न जल ग्रहण करना। तम्बाकू, भांग, गांजा आदि नशीली वस्तुएं छोड़ें। धर्म, चारित्र को हानि पहुंचाने इस शिक्षाव्रत,व्रत प्रतिमा में द्रव्य,क्षेत्र, काल,भाव के अनुसार अपनीशक्ति वाली विदेशी अज्ञात और अपवित्र औषधि आदि पदार्थों का भक्षण तजे, हिंसा का 9 देखकर उत्कृष्ट, मध्यम या जघन्य जैसा योग्य हो-प्रोषध व्रत करे। व्यापार छोड़े। प्रोषधोपवास के पांच अतिचार-१.बिना देखे बिना शोधे पूजा के उपकरण श्रावक को यह सत्रह नियम नित्य प्रात: काल सामायिक के बाद लेना चाहियेशास्त्र, संस्तर आदि ग्रहण करना। २. बिना देखे बिना शोधे मल-मूत्रादि मोचन भोजने षट्रसे पाने कुमकुमादि विलेपने। करना। ३. बिना देखे बिना शोधे बिस्तर चटाई आदि बिछाना। ४. भूख प्यास के पुष्प ताम्बूल गीतेषु नृत्यादी ब्रह्मचर्यके ॥ . २२९ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी गाथा-४०५ ७ स्नान भूषण वस्त्रादौ वाहने शयनासने। पात्र भावना करना। ३. तीर्थ यात्रा करना, सत्संग आदि के द्वारा अपने द्रव्य का. सचित्तवस्तु संख्या प्रमाणं भज प्रत्यहं॥ सदुपयोग करना। ४. पात्रदत्ति- सत्पात्रों को श्रद्धा भक्ति पूर्वक आहार दान आदि भोगोपभोग परिमाण व्रत के पांच अतिचार-१.विषय भोगों में प्रीति करना, , कराना। ५. समदत्ति-जो साधु या अन्य गृहस्थ गरीब असहाय हों, रोगी दीन दु:खी ) हर्ष मानना। २. पूर्व काल में भोगे हुए भोगों का स्मरण करना। ३. वर्तमान भोग हों उनकी धन, वस्त्र आदि से यथायोग्य सहायता करना। ६.दयादत्ति-सभी दु:खीव भोगने में अति लम्पटता रखना। ४. भविष्य में भोग प्राप्ति की अति तृष्णा करना। भूखे जीवों को अन्न, वस्त्र आदि से सहायता करना। ७. सकल दत्ति-अपनी सारी ५. विषय न भोगने पर भी विषय भोगने जैसा अनुभव करना। सम्पत्ति अपने पुत्र आदिकुटुम्बी जन को या धर्मायतन में देकर सर्व परिग्रह से निर्ममत्व भोगोपभोगों के यम-नियम रूप परिमाण करने से विषयों की अति लम्पटता ८ होकर उत्तम श्रावक के व्रत या मुनिव्रत धारण करना। तथा वांछा घट जाती है, जिससे चित्त की चंचलता कम होती है और स्थिरता बढ़ने से । सम्यक्दृष्टि चारित्रवान दातार ही सच्चा दान देने का पात्र होता है। धर्म ध्यान में चित्त अच्छी तरह लगता है। दातार के पांच भूषण-१. आनंद पूर्वक दान देना, २.आदर पूर्वक दान देना, (४)अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत-दाता और पात्र दोनों के रत्नत्रय धर्म की ३. प्रिय वचन पूर्वक दान देना, ४. निर्मल भाव पूर्वक दान देना, ५.दान देकर अपना वृद्धि के निमित्त, सम्यक्त्व आदि गुणों से युक्त गृह रहित साधु, मुनि आदि पात्रों की धन्य भाग्य मानना । ज्ञानी तथा श्रद्धावान दातारों में यह गुण अवश्य पाये जाते हैं। योग्य वैयावृत्ति करना अतिथि संविभाग या सत्पात्र दान कहलाता है। पात्र के तीन भेद-१. उत्तम पात्र- सम्यक्दृष्टि निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु, मुनि, जो सत्पुरुष पूर्ण ज्ञान की सिद्धि के निमित्तभूत शरीर की स्थिति के लिये बिना आर्यिका। २.मध्यम पात्र-श्रावक,श्राविका।३.जघन्य पात्र-अविरत सम्यक्दृष्टि बुलाये ईर्यापथशोधन करते हुए, बिना तिथि निश्चित किये श्रावकों के घर भोजन के श्रावक। निमित्त आवें वे अतिथि कहलाते हैं। यह वृत्ति निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु तथा उत्कृष्ट यहां कोई प्रश्न करे कि वर्तमान समय में उत्तम पात्र की प्राप्ति तो दुर्लभ हो गई प्रतिमाधारी ऐलक-क्षुल्लकों में पाई जाती है; क्योंकि इनकी स्थिति एवं बिहार करने है फिर हम किसकी वैयावृत्ति करें, किसको दान देवें? की तिथि निश्चित नहीं रहती। ऐसे उत्तम पात्रों को द्वारापेक्षण आदि यथायोग्य उसका समाधान यह है कि यदि उत्तम पात्र न मिले तो मध्यम तथा जघन्य नवधाभक्ति पूर्वक अपने भोजन में से विभाग कर आहार, औषधि, पात्रादि दान देना, पात्रों की यथायोग्य सेवा, सहायता करो, उनके श्रद्धान ज्ञान चारित्र की वृद्धि का यदि उपर्युक्त प्रकार से अतिथि का संयोग न मिले तो मध्यम तथा जघन्य पात्रों एवं पूरा-पूरा यत्न करो जिससे वे उत्तम पात्र बनने के लिये उत्साहित हों। साधर्मियों की यथा योग्य आदर पूर्वक चार प्रकार दान द्वारा वैयावृत्ति करना या पात्र दान के पांच अतिचार-१.दान में दी जाने वाली वस्तु हरित पत्र में दुःखितों व भूखों को करुणा बुद्धि पूर्वक दान देना यह सब अतिथि संविभाग है। . रखना। २. हरित पत्र से ढांकना। ३.अनादर से दान देना। ४. दान की विधि भूल योग्य पात्र को आहार दान, औषधि दान,ज्ञान दान (शास्त्रदान) तथा अभय जाना या दान देने की सुधि न रखना। ५. ईर्ष्या बुद्धि से दान देना। दान में से जिस समय जिसकी आवश्यकता हो, उस समय उसी प्रकार का दान देना अतिथि संविभाग अर्थात् दान देने से लोभ आदि कषायों की मंदता होती है योग्य है। इससे दातार तथा पात्र दोनों को रत्नत्रय की प्राप्ति, वृद्धि और रक्षा होती तथा धर्म और धर्मात्मा में अनुराग रूप परिणाम होने से तीव्र पुण्य का बंध होता है र है। पात्र, दातार, द्रव्य तथा दान देने की विधि के भेद से दान के फल में विशेषता तथा पात्र के शरीर की स्थिरता होने से धर्म साधन होकर उसे भी स्वर्ग, मोक्ष की 9 होती है। प्राप्ति होती है। दान की प्रवृत्ति करने योग्य पात्र (स्थान) सात प्रकार के हैं- १. धर्मायतन, इस प्रकार बारह व्रतों का संक्षेप में वर्णन किया, व्रत प्रतिमाधारी इनका पालन चैत्यालय आदि में धर्म साधना के लिये शास्त्र आदि उपकरण दान देना। २.धार्मिक करता है, जिससे उसके परिणामों में निर्मलता आती है और अपने आत्म स्वरूपके आयोजन कर विशेष धर्म प्रभावना, प्रतिष्ठा, जिनवाणी पालकीजी आदि निकलवाना, चिंतन-मनन में उपयोग लगता है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Oup श्री श्रावकाचार जी गाथा-४०६ ) व्रती श्रावक के त्यागने योग्य विशेष क्रिया-विशेष हिंसा के निंद्य तथा निर्दयता २. सुनने के दस-मांस, मदिरा, अस्थि, अग्नि लगने आदि उत्पात का. के धंधेन आपकरे,न औरों को करावे और न इनकी दलाली करे, जैसे-लाख,मोम, शब्द, अति कठोर शब्द मारो-काटो आदि, करूणा जनक रोने का शब्द, रोग की। गोंद,लोहा, शीशा, हथियार, जूता बेचना आदि।खाद का ठेका लेना. वृक्ष काटना, . तीव्रता का शब्द, धर्मात्मा पुरुष के उपसर्गका समाचार, मनुष्य के मरने का समाचार, घास काटना, तेल पेरना, वन कटी करना आदि।शराब, गांजा,अफीम आदिमादक * धर्म या धर्मात्मा की अविनय का शब्द। पदार्थों का ठेका लेना, बेचना। गाड़ी घोड़ा आदि के किराये का धंधा करना। यद्यपि ३. स्पर्श के दस-चर्मादि अपवित्र पदार्थ, पंचेन्द्रिय बड़ा पशु, दुष्ट पुरुष, व्रत प्रतिमा में केवल संकल्पी त्रस हिंसा का त्याग होता है, आरंभी का नहीं; तथापि र रजस्वला स्त्री, रोम या केश,पंख, नख, छोटा या बड़ा त्रस जीव अचानक मर जाये अयत्नाचार पूर्वक होने वाली आरंभी हिंसा भी संकल्पी के भाव को उत्पन्न करती है। या मरे हुए का स्पर्श हो जाये। व्रती श्रावक को हिंसा तथा व्रत भंग से बचने के लिये निम्न बातों का पालन, ४.मन के संकल्पका-भोजन में किसी पदार्थ को देखकर ग्लानि होना या करना आवश्यक है-१. रात्रि का बनाया हुआ भोजन ग्रहण न करे। २. जाति मल मूत्र की शका होना। बिरादरी के बड़े जेवनारों में भोजन न करे। ३. रसोई बनाते या भोजन करते समय ५.त्याग हुए पदाथ का-त्यागा हुआ पदाथ भाजन करन म आ जाय ता शुद्ध धुले हुए वस्त्र पहिने । ४. नीच तथा निकृष्ट धंधे करने वालों से लेन-देन भोजन तजे। भोजन करते समय कोई चीज लेने के लिये इशारा नहीं करना चाहिये. अथवा उठने-बैठने आदि का व्यवहार न रखे। ५. बाग-बगीचे में भोजन अथवा मौन रखकर भोजन करना चाहिये। अंतराय पालने से रसना इन्द्रिय वश में होती है, गोट न करे।।.पश मनष्य आदि का यट न देखे। ७. फल न तोडे। जल संतोष भावना पलती है, वैराग्य भाव दृढ होता है, संयम पलता है, एषणा समिति क्रीड़ान करे। ९. रात्रि को खेलकूद तथा व्यर्थ भाग दौड़ न करे। १०.जहां बहत पलती है जिससे वचन की सिद्धि आदि अनेक अतिशय उत्पन्न होते हैं। स्त्रियां एकत्र होकर विषय-कषाय बढ़ाने वाले गीत-गान करती हों ऐसे मेले में न व्रती श्रावक सात जगह मौन रखे-१.भोजन करते और पानी पीते समय, जावे और न विषय-कषाय वर्द्धक नाटक खेल आदि देखे, सिनेमा, टी. वी. आदिई २. स्नान, ३. मलमोचन, ४. मैथुन, ५. वमन, ६. विसंवाद, ७. सामायिक के बिल्कुल न देखे। ११. होली नखेले। १२ गालीन देवे, हंसी मसखरी न करे। १३. समय । सदा उठते-बैठते, चलते-फिरते कोई भी कार्य करते समय इस बात का चमड़े के जूते न पहिने । १४. ऊनी वस्त्र न पहिने। १५. हड्डी चमडे की बनी ध्यान रखना चाहिये कि मेरे समान ही सब जीव आत्मा परमात्म स्वरूप हैं। निष्प्रयोजन वस्तुयें काम में नलावे। १६.धोबी से कपड़े न धुलावे। १७.पानी के नलों के डाटों कोई कार्य नहीं करना, जिससे किसी जीव के प्राणों का घात हो, अपने लिये भी में यदि चमड़े का पर्दा लगा रहता हो तो नल का पानी न पीवे। १८.दो घडी दिन रहे विकल्प के कारण बनें ऐसा कोई कार्य नहीं करना। इस प्रकार व्रत प्रतिमाधारी श्रावक से दो घड़ी दिन चढ़े तक हिंसा की निवृत्ति के लिये आहार पानी न लेवे। १९. जिस बारह व्रतों की साधना करते हुए अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना करता है; क्योंकि देश या क्षेत्र में व्रत भंग होता हो वहां न जावे । २०. व्रती, मौन सहित अंतराय द्रव्य संयम के बिना भाव संयम नहीं होता। इसका विवेक रखते हुए मोक्षमार्गी टालकर भोजन करे। २१.स्वाध्याय,सामायिक पाठ आदि के बाद ही भोजन करे। सम्यक्दृष्टि साधक अपने स्वरूप की साधना करता है। व्रत का अर्थ है सीमा में आ २२. रात को स्नान न करे इसमें विशेष त्रस हिंसा होती है। विवेक पूर्वक देखजाना और अव्रती अर्थात् जिसकी कोई सीमा नहीं है। भालकर सब काम करना और नीचे सामने देखकर चलना विशेष आवश्यक है। ३. सामायिक प्रतिमा सिद्ध भक्ति किये पीछे अंतराय माना जाता है। व्रती श्रावक के लिये भोजन सम्यकदर्शन सहित व्रत प्रतिमा का निरतिचार पालन करने वाला तीसरी करते समय टालने योग्य अंतराय सामायिक प्रतिमा धारण करता है१.देखने के दस-गीला चर्म, हड्डी.मांस, चार अंगुल रक्त की धार, मदिरा, सामायिकं नृतं जेन, सम संपूर्न सार्धयं । 9 विष्ठा, जीव हिंसा, गीली पीव, पंचेन्द्रिय मरा हुआ पशु, मूत्र। ऊर्थ आर्थ मयं च, मन रोधो स्वात्म चिंतनं ॥ ४०६॥ २३१ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ on श्री श्रावकाचार जी आलापं भोजनं गच्छं,श्रुतं सोकं च विभ्रम । अपने को शरीर आदि से रहित परम शुद्ध निर्विकार, निरंजन, ब्रह्मस्वरूप, सच्चिदानन्दघन परमात्म स्वरूप अनुभव करे। जैसे- नदी में स्नान करते हैं, गोता। मनोवय काय हिद सुद्ध, सामाई स्वात्मचिंतनं ॥४०७॥ लगाते हैं, वैसे ही अपने आत्मा के यथार्थ स्वरूप को ध्यान में लेकर बारम्बार गोता अन्वयार्थ-(सामायिक नृतं जेन) जोशाश्वत सामायिक करता है (सम संपूने लगावे उसी में मग्न रहे। सच्ची सख-शांति और मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय ७ सार्धयं) वह हमेशा परिपूर्ण समता भाव में रहने की साधना करता है (ऊधे आधे ध्यान सामायिक है। जिसको सर्व जगत की और अन्य कामों की चिंता छोड़कर मध्यंच) प्रात:, मध्यान्ह, सायंकाल अथवा ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक से (मन रोधो स्वात्म चिंतनं) मन का निरोध कर स्वात्मचिंतन करता है। सामायिक प्रतिमाधारी सामायिक संबंधी बत्तीस दोष नलगावे-१.अनादर से (आलापं भोजनं गच्छं) वार्तालाप में, भोजन में, गमन करने में (श्रुतं सोकंच सामायिक न करे। २. गर्व से सामायिक न करे। ३. मान बड़ाई के लिये सामायिक न विभ्रमं) श्रवणशोक और विभ्रम अर्थात् शंका संदेह रहित होकर (मनोवय काय हिदं करे। ४. दसरे जीवों को पीडा उपजाता हुआ सामायिक न करे। ५. हिलता हुआ सुद्ध) मन, वचन, काय और हृदय से शुद्धता पूर्वक (सामाई स्वात्म चिंतन) अपने सामायिक न करे।६.शरीर को टेढा रखता हुआ सामायिक न करे। ७. कछए की शुद्धात्म स्वरूप का चिंतवन करना सामायिक प्रतिमा है। तरह शरीर को संकोचता हआ सामायिक न करे। ८. सामायिक के समय मछली विशेषार्थ- सामायिक शिक्षाव्रत में बतला आये हैं कि राग-द्वेष रहित होकर की तरह ऊँचा-नीचा न हो। ९. मन में दुष्टता न रखे। १०. जैनमत की आम्नाय शुद्धात्म स्वरूप में उपयोग को स्थिर करना यथार्थ सामायिक है। इस सामायिक की के विरुद्ध सामायिक न करे। ११. भय युक्त होकर सामायिक न करे। १२. ग्लानि सिद्धि के लिये श्रावक अवस्था में बारह भावना, पंच परमेष्ठी का स्वरूप, आत्मा के सहित सामायिक न करे। १३. मन में ऋद्धि गौरव रखता हुआ सामायिक न करे। स्वभाव-विभाव का चिंतन एवं आत्म स्वरूप में उपयोग को स्थिर करने का अभ्यास १४.जाति-कुल का गर्व रखता हुआ सामायिक न करे।१५. चोर की तरह छिपता करना, पूर्ण समता भाव में रहने की साधना करना, त्रिकाल-प्रातः, मध्यान्ह, सायं 5 हुआ सामायिक की क्रिया न करे। १६. सामायिक के काल में ही सामायिक करे। तीन लोक के भावों से मन को रोककर स्वात्मा का चिंतवन करना स्थायी शाश्वत १७. दुष्टता युक्त होकर सामायिक न करे । १८. दूसरों को भय उपजाता हुआ सामायिक प्रतिमा है। सामायिक न करे। १९. सामायिक के समय सावध वचन न बोले।२०.दूसरों की समय आत्मा को कहते हैं इसलिये सामायिक के समय शांत चित्त होकर मात्र निंदा न करे। २१. भौंह चढ़ाकर सामायिक न करे। २२. मन में सकुचाता हुआ एक अपने आत्मा का ही चिंतवन करे, कोई चिंता न करे, न किसी से बातचीत का सामायिकन करे। २३. दसों दिशाओं में इधर-उधर अवलोकन करता हुआ सामायिक विचार करे और न बात करे,न भोजन की चिंता करे, न कहीं आने-जाने का विचार न करे। २४. स्थान के देखे-शोधे बिना सामायिक को न बैठे। २५. जिस-तिस करे, न किसी की बात सुनने में उपयुक्त हो,न शोक करे, न कोई संदेह की बात मन प्रकार सामायिक का काल पूरा न करे। २६. सामायिक की सामग्री में बाधा पड़ने में लावे । मन, वचन, काय को निश्चल रखकर हृदय से शुद्ध होकर अपने आत्म पर सामायिक में नागा न करे । २७. बांछा युक्त होकर सामायिक न करे । स्वरूप का चिंतवन ध्यान करना सामायिक है। २८.सामायिक का पाठ हीन न पढ़े तथा काल पूरा हुए बिनान उठे। २९.खण्डित यहां तीसरी सामायिक प्रतिमा का स्वरूप बताया जा रहा है, सामायिक दूसरी5 पाठ न पढ़े।३०. गूंगे की तरह न बोले।३१. मेंढक की तरह ऊँचे स्वर से टर्र-टर्र , प्रतिमा में भी थी परन्तु वहां अभ्यास रूप थी, कभी कोई कारण वश नहीं भी करे; नबोले। ३२. चित्त चलायमान न करे। किन्तु यहां नियम से प्रातः,मध्यान्ह व सायंकाल कम से कम ४८ मिनिट अर्थात् दो इस प्रकार निर्दोष सामायिक करने वाला श्रावक हमेशा समता भाव में रहने घड़ी सामायिक करना आवश्यक है। सामायिक प्रतिमावाला निर्दोष सामायिक करे, वाला तथा अपने आत्म स्वरूप की साधना में रत मुक्ति मार्ग का पथिक सामायिक उपसर्ग आने पर भी प्रतिज्ञा से न टले और राग-द्वेष रहित सहन करे, उस समय प्रतिमाधारी होता है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी ४. प्रोषधोपवास प्रतिमा प्रोषध शिक्षाव्रत में प्रोषधोपवास की विधि वर्णन की गई, वही क्रिया यहां समझना चाहिये; परन्तु उपवास क्या है और उसकी सार्थकता, विशेषता क्या है ? वह यहां कहते हैं पोसह प्रोषधस्चैव, उववासं जेन क्रीयते । संमितं जस्य हृदयं सुद्धं, उववासं तस्य उच्यते ॥ ४०८ ॥ संसारं विरतिते जेन, सुद्ध तत्वं च सार्धयं । सुद्ध दिस्टी स्थिरी भूतं, उववासं तस्य उच्यते ॥ ४०९ ।। उववासं इच्छनं कृत्वा, जिन उक्तं इच्छनं जथा । भक्ति पूर्व च इच्छंते, तस्य हृदय समाचरेत् ॥ ४१० ॥ उववासं व्रतं सुद्धं, सेसं संसार तिक्तयं । पछितो तिक्त आहार, अनसन उववास उच्यते ।। ४११ ।। अन्वयार्थ - (पोसह प्रोषधरचैव) जो पर्व के दिन पोषह रूप प्रोषध एकासन ( उववासं जेन क्रीयते) उपवास करते हैं (संमिक्तं जस्य हृदयं सुद्धं) जिसके हृदय में शुद्ध सम्यक्दर्शन होता है (उववासं तस्य उच्यते) उसको ही उपवास कहते हैं। (संसारं विरतिते जेन) जिसने संसार से राग छोड़ दिया है (सुद्ध तत्वं च सार्धयं) जो अपने शुद्धात्म तत्व की साधना करता है (सुद्ध दिस्टी स्थिरी भूतं) जिसकी दृष्टि • अपने शुद्धात्म स्वरूप में स्थिर हो गई है (उववासं तस्य उच्यते) उसको ही उपवास कहते हैं। (उववासं इच्छनं कृत्वा) उपवास रखने की इच्छा करना (जिन उक्तं इच्छनं जथा) जैसा जिनेन्द्र ने कहा है वैसा ही अपने स्वरूप में रहने की इच्छा करना (भक्ति पूर्वं च इच्छंते) क्योंकि भक्ति पूर्वक जिस ओर की रुचि होती है (तस्य हृदय समाचरेत्) उसी ओर का पुरुषार्थ काम करता है, वैसा ही हृदय से आचरण होता है। (उववासं व्रतं सुद्ध) उपवास में पांच पापों के त्याग रूप व्रत शुद्ध होना (सेसं संसार तिक्तयं) शेष संसार का ममत्व भाव भी छोड़ना (पछितो तिक्त आहारं) इसके पश्चात् आहार का त्याग करना (अनसन उववास उच्यते) इसको अनशन उपवास कहा जाता है, इसी का नाम प्रोषधोपवास प्रतिमा है। 24 SYARAT YAAAAN FAN ART YEAR. गाथा- ४०८-४१४ AUX विशेषार्थ दूसरी प्रतिमा में प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत में अष्टमी, चतुर्दशी को उपवास करने का अभ्यास था, कभी कोई कारण से नहीं भी करता था, एकासन करता था और अतिचार भी नहीं बचाता था तथा पापारंभ भी नहीं छोड़ता था। यहां चौथी प्रोषधोपवास प्रतिमा में माह में दो अष्टमी, दो चतुर्दशी को सोलह प्रहर का उत्कृष्ट उपवास करता है। जिसके हृदय में शुद्ध सम्यक्दर्शन होता है जो अपने आत्मा में वास करता है उसी को उपवास कहते हैं। जहां संसार, शरीर और भोगों से उदासीन होकर अपने आत्मा के अनुभव में तल्लीन रहा जावे, अपने शुद्धात्म स्वरूप में लीन रहे उसको ही उपवास कहते हैं। रुचि अनुगामी पुरुषार्थ होता है, रुचि इच्छा पूर्वक उपवास करना तथा जैसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है वैसे ही भक्ति पूर्वक • अपने शुद्धात्म स्वरूप में स्थित रहना और बाह्य में समस्त आरंभ परिग्रह के त्याग पूर्वक आहार जल का त्याग करना, यही सच्चे हृदय से प्रोषधोपवास का आचरण है। उपवास करने वाला पहले अपने मन में यह दृढ़ संकल्प करे कि आज मुझे पांचों पापों के त्याग रूप शुद्ध व्रतों का पालन करना है तथा शेष संसार का ममत्व भाव भी छोड़कर अपने आत्म स्वरूप में लीन रहना है इसी के लिये समस्त आहार का त्याग करना है, यही अनशन रूप उपवास प्रोषधोपवास प्रतिमा कहलाती है। सम्यकदृष्टि ज्ञानी तो निरंतर साधु रूप में रहने की भावना रखता है परन्तु कषाय के शमन न होने से गृह का त्याग नहीं कर सकता तब वह प्रोषधोपवास धारण कर नियमित काल के लिये साधु समान आचरण करता है, परमानन्द के लाभ में आसक्त रहता है, मोक्षमार्ग में चलकर अपने समय और जन्म को सफल बनाता है। शुद्ध प्रोषधोपवास का फल मोक्ष है परन्तु बिना सम्यक्त्व के कितने ही व्रत तप किये जायें, सब संसार के कारण हैं, सम्यक्दर्शन सहित व्रताचरण मोक्षमार्ग है इसी को कहते हैं उववासं फलं प्रोक्तं मुक्ति मार्ग च निस्वयं । संसारे दुष नासंति, उववासं सुद्धं फलं ॥ ४१२ ।। संमिक्त बिना व्रतं जेन तपं अनादि कालयं । उदवासं मास पावं च संसारे दुष दारुनं ॥। ४१३ ।। उववासं एक सुद्धं च, मन सुद्धं तत्व सार्धयं । " मुक्ति श्रियं पंथं सुद्धं प्राप्तं तत्र न संसया ।। ४१४ ॥ २३३ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी अन्वयार्थ (उववासं फलं प्रोक्तं) उपवास का फल कहा जाता है (मुक्ति मार्गं च निस्चयं) निश्चित मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है (संसारे दुष नासंति) संसार के दु:ख नष्ट हो जाते हैं (उववासं सुद्धं फलं) शुद्ध उपवास अर्थात् निश्चय से आत्मा में वास करना और व्यवहार में पापों का त्याग करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। (मिक्त बिना व्रतं जेन) सम्यक्दर्शन के बिना जो व्रत करते हैं (तपं अनादि कालय) तथा अनादि काल तक तप करे (उववासं मास पाषं च) महिना महिना, पन्द्रह-पन्द्रह दिन का उपवास करे (संसारे दुष दारुनं) वह सब संसार के दारुण दुःख का ही कारण है। (उववासं एक सुद्धं च) यदि एक भी उपवास शुद्ध किया जाये (मन सुद्धं तत्व सार्धयं) जिसमें मन पवित्र हो, आत्म तत्व की साधना सहित हो ( मुक्ति श्रियं पंथं सुद्धं) वह श्रेष्ठ मुक्ति का शुद्ध मार्ग है ( प्राप्तं तत्र न संसया) ऐसा साधक अवश्य ही मुक्ति को प्राप्त होगा, इसमें कोई संशय नहीं है। विशेषार्थ यद्यपि उपवास करना, आहार न करना, आरम्भ न करना, पापों को छोड़ना, एकांत में रहना यह सब व्यवहार चारित्र है, इसकी सार्थकता तभी है जब निश्चय रत्नत्रय स्वरूप निज शुद्धात्मा के श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र रूप निश्चय मोक्ष मार्ग का लाभ हो । शुद्ध भावों की प्राप्ति से कर्मों की विशेष निर्जरा होती है जिससे संसार के दुःखों का नाश होता है। उपवास करना बड़ा भारी तप है; परंतु सम्यक्दर्शन के बिना जिसमें आर्त ध्यान होवे, अनादर रहे, आत्म स्वरूप का बोध न हो वह सब मिथ्या चारित्र संसार का ही कारण है। किसी कषाय वश व्रत तप किये जायें। महीना महीना, पन्द्रह-पन्द्रह दिन के उपवास किये जायें; परन्तु मिथ्यात्व सहित होने से बिना जड़ के वृक्ष समान हैं। कषाय की मंदता हो तो पुण्य बन्ध होता है, कषाय की तीव्रता हो तो पाप बन्ध ही होता है जो संसार के दारुण दुःख का कारण है। यदि एक उपवास भी शुद्ध हो जाये अर्थात् आत्मा में वास हो जाये तो यह बाहर का पाप - परिग्रह और आहार जल का त्याग मन को पवित्र बनाकर आत्म स्वरूप में स्थित करा देता है जिससे निश्चित ही मोक्ष की प्राप्ति होती है इसमें कोई संशय नहीं है । बाह्य का उपवास आत्म ध्यान की साधना में सहकारी होता है, चतुर्थ प्रोषध प्रतिमाधारी सम्यक्दृष्टि ज्ञानी अपने आत्म स्वरूप की साधना ध्यान की सिद्धि के लिये व्रत और तप की साधना करता है इसलिये परीषह उपसर्ग आने पर भी शक्ति 20 SYED AAN GGAA AA GGAN AYAT YEAR. २३४ गाथा - ४१५-४१७ को न छिपाकर प्रत्येक अष्टमी चतुर्दशी को यथाशक्य उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य प्रोषधोपवास कर सामायिक वत सोलह प्रहर तक आहार, आरंभ, विषय- कषाय रहित होकर उत्कृष्ट प्रवृत्ति करना अर्थात् अपने आत्म स्वरूप की साधना में रत रहना ही प्रोषधोपवास प्रतिमा है। ५. सचित्त प्रतिमा आत्मा में वास करने वाला साधक अचेत अर्थात् असावधानी का त्याग कर हमेशा सावचेत रहने के लिये सचित्त प्रतिमा धारण करता है उसका स्वरूप कहते हैं सचित्त चिंतनं कृत्वा चेतयंति सदा बुधैः । अचेतं असत्य तिक्तं च, सचित्त प्रतिमा उच्यते ।। ४१५ ।। सचित्तं हरितं जेन, तिक्तंते न विरोधनं । चेत वस्तु संमूर्छनं च तिक्तंते सदा बुधैः ।। ४१६ ।। सचित्त हरित तिक्तं च, अचेत सार्धं च तिक्तयं । सचित चेतना भावं, सचित्त प्रतिमा सदा बुधैः ॥ ४१७ ॥ अन्वयार्थ - (सचित्त चिंतनं कृत्वा) सावचेत होकर अपने स्वरूप का चिंतवन करते हुए (चेतयंति सदा बुधैः) ज्ञानी हमेशा चैतन्य अर्थात् होश में रहते हैं (अचेतं असत्य तिक्तं च) अचेतपना और असत्य को छोड़ देते हैं (सचित्त प्रतिमा उच्यते) इसे सचित्त प्रतिमा कहते हैं। (सचित्तं हरितं जेन) जो हरित सचित्त वनस्पति का ( तिक्तंते न विरोधनं ) त्याग करते हैं वे उसे छूते और तोड़ते भी नहीं हैं (चेत वस्तु संमूर्छनं च) सचित्त वस्तु तथा जिसमें संमूर्च्छन जीव होते हैं (तिक्तंते सदा बुधैः) ज्ञानी उसे हमेशा के लिये छोड़ देते हैं। (सचित्त हरित तिक्तं च) सचित्त वनस्पति का त्याग करने वाला (अचेत सार्धं च तिक्तयं) अचित्त अर्थात् अचेतन का श्रद्धान भी नहीं करता है, उसे भी छोड़ देता है (सचित्त चेतना भावं) अपने चैतन्य भाव में सचेत सावधान रहना ही (सचित्त प्रतिमा सदा बुधैः) सचित्त प्रतिमा है जिसका ज्ञानी हमेशा पालन करते हैं। विशेषार्थ पांचवीं सचित्त प्रतिमा है, अन्य श्रावकाचारों में इसको सचित्त त्याग Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOOR श्री श्रावकाचार जी गाथा-४१८,४१९ SO0 प्रतिमा कही गई है, यहां श्री तारण स्वामी ने निश्चय नय के साथ व्यवहार का सुद्ध तत्वं च आराध्यं, असत्यं तस्य तिक्तये। समन्वय करते हुए इसे सचित्त प्रतिमा कही है। इसका अभिप्राय है कि सम्यकदृष्टि ज्ञानी प्रतिमाधारी सावचेत अर्थात् होश में रहकर हमेशा अपने शुद्धात्मा के गुणों का मिथ्या सल्य तिक्तं च, अनुराग भक्ति सायं ॥४१९।। चिन्तवन करता है, उसी का अनुभव करता है, किसी मूढ भक्ति वश अचेतन का अन्वयार्थ- (अनुराग भक्ति दिस्टं च) अपने आत्म स्वरूप की मग्नता और श्रद्धान नहीं करता, जो असत्य है उसे छोड़ देता है और स्वयं भी अज्ञान स्वरूप शुद्धात्म स्वरूप ध्रुव तत्व को देखना ही अनुराग भक्ति है (राग दोष न दिस्टते) जहां। पुद्गल आदि का चिन्तवन नहीं करता, नाशवन्त असत्य जगत की क्षणभंगुर पर्यायों राग-द्वेष दिखाई नहीं देते (मिथ्या कुन्यान तिक्तंच) जहां मिथ्यात्व और कुज्ञान छूट का भी चिन्तवन नहीं करता है। आर्त रौद्र ध्यानों को छोड़कर धर्म ध्यान में सचेत ४ गये हों (अनुरागं तत्र उच्यते) उसे ही अनुराग कहते हैं। रहता हुआ अपने आत्म स्वरूप का चिंतवन करता है वह सचित्त प्रतिमाधारी है। (सुद्धतत्वंच आराध्यं) जो अपने शुद्धात्म तत्व की आराधना करता है (असत्यं व्यवहार में हरी सचित्त वनस्पति आदि का भी त्याग कर देता है, जिनमें सम्मूर्च्छन 5 तस्य तिक्तये) उसके असत्य अर्थात् पर के विकल्प छूट जाते हैं (मिथ्या सल्य जीव होते हैं ऐसे जल आदि को भी प्रासुक करके सेवन करता है। यहां साधना का मूल तिक्तंच) मिथ्यात्व और शल्य के त्याग होने अर्थात् छूटने से (अनुराग भक्ति सार्धयं) उद्देश्य रसना इन्द्रिय की लोलुपता से बचकर अपने आत्म स्वरूप की साधना करने अपने आत्म स्वरूप की साधना शुद्धात्मा की ही अनुराग भक्ति होने लगती है यही का है। वह कच्चे या अप्रासुक मूल, फल, शाक, शाखा, कन्द, बीज आदि नहीं अनुराग भक्ति प्रतिमा है। खाता, अचित्त और प्रासुक की हुई वस्तुओं का सेवन करता है। रसना इन्द्रिय के विशेषार्थ- यह सम्यक्दृष्टि श्रावक की छटवीं प्रतिमा है, जो आत्मानुभूति स्वादवश अनन्त काय साधारण वनस्पति का घात नहीं करता है। जैसे-यह स्वयंसहित मक्ति के मार्ग पर चल रहा है उसका अपने शुद्धात्म स्वरूप के प्रति उत्साह सचित्त खाता-पीता नहीं है, वैसे यह दूसरों को भी नहीं देता। एकेन्द्रिय सम्मूर्च्छन . बहमान तथा आत्म ध्यान की साधना के लिये जो पाप परिग्रह, विषय-कषायों से जीवों की भी दया पालता है, जिह्वा इन्द्रिय के स्वाद से विरक्त है तथा अपने आत्म 3 छटता हआ आगे बढ़ रहा है उसका अपने सिद्ध स्वरूप के प्रति जो अनुराग भक्ति है स्वरूप की साधना में हमेशा सावचेत रहता है वही सम्यकदृष्टि ज्ञानी सचित्त वही वास्तव में अनुराग भक्ति प्रतिमा है, जिससे आगे बढ़कर यह साधक अपने ब्रह्म प्रतिमाधारी है। स्वरूप में रमण करेगा। अन्य ग्रन्थों में जो दिवा मैथुन त्याग और रात्रि भुक्ति त्याग सचित्त त्याग करने से रसना इन्द्रिय वश में होती है और दया पलती है। वात, नाम दिया है वह व्यवहार अपेक्षा सामान्य कथन है । वास्तविक सत्यता तो इस पित्त, कफ का प्रकोप न होने से शरीर निरोग रहता है, शरीर की शक्ति बढ़ती है, अनुराग भक्ति में ही है, जहां अपने आत्म स्वरूपकी मग्नता है, जो अपने ध्रुव तत्व काम वासना मंद पड़ती है जिससे चित्त की चंचलता घटती है। पुण्य बन्ध होता है को देख रहा है. जिसे अब बाहर राग-द्वेष आदि दिखाई नहीं देते, मिथ्यात्व कुज्ञान तथा धर्म ध्यान में सहकारी होने से आत्म ध्यान द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है १ छूट गये हैं,शल्य विकल्प भी छूट गये हैं, जो अपने ध्रुव तत्व की साधना आराधना में इसलिये इसे सचित्त प्रतिमा कहते हैं। ४ संलग्न है, इसी को इष्ट उपादेय मानता है, पर के प्रति अनुराग और पर की भक्ति छूट ६.अनुराग भक्ति प्रतिमा १२ गई है, जिसे अपने आत्म स्वरूप का अनुराग और परमात्म पद की भक्ति जाग्रत हो इस प्रतिमा को अन्य ग्रन्थों में रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा तथा दिवा मैथुन त्याग 5 गई है वह अनुराग भक्ति प्रतिमाधारी है। प्रतिमा कहा है जबकि श्री तारण स्वामी ने अनुराग भक्ति प्रतिमा कहा है, जो साधक ७.ब्रह्मचर्य प्रतिमा की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण और यथार्थतया सत्य है इसका स्वरूप कहते हैं जो ज्ञानी पुरुष स्त्री के शरीर को मल का बीजभूत, कर्म मल को उत्पन्न करने अनुराग भक्ति दिस्ट च, राग दोष न दिस्टते। वाला मल प्रवाही दुर्गन्ध युक्त, लज्जा जनक निश्चय करता हुआ सर्व प्रकार की मिथ्या कुन्यान तिक्तंच, अनुरागं तत्र उच्यते ॥ ४१८॥ स्त्रियों में मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से काम सेवन तथा तत्सम्बंधी २३५ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 ७० श्री आवकाचार जी अतिचारों का त्याग करता है और अपने ब्रह्म स्वरूप में रमण करने के लिये ब्रह्मचर्य की दीक्षा में आरूढ़ होता है वह ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी है, इसी बात को आगे कहते हैंबंभ अभं तिक्तं च सुद्ध दिस्टि रतो सदा । सुद्ध दर्सन समं सुद्धं, अबंधं तिक्त निस्चयं ॥ ४२० ॥ जय चितं धुवं निस्वय, ऊर्ध आधे च मध्ययं । जस्य चितं न रागादि, प्रपंचं तस्य न पस्यते ।। ४२१ ।। अन्वयार्थ (बंभ अबंभं तिक्तं च) ब्रह्मचर्य - अब्रह्म अर्थात् कुशील का त्याग करना है अथवा पर पर्याय की ओर नहीं देखना (सुद्ध दिस्टि रतो सदा) हमेशा अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखना उसी में रत रहना (सुद्ध दर्सन समं सुद्धं) शुद्ध सम्यक्दर्शन के समान शुद्ध भाव में रहना (अबंभं तिक्त निस्चयं) अब्रह्म भाव, पर्याय दृष्टि छोड़ना ही निश्चय से ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। (जस्य चितं धुवं निस्चय) जिसके चित्त में अपने ध्रुव स्वभाव का निश्चय श्रद्धान है (ऊर्ध आर्धं च मध्ययं) जो तीनों काल और तीनों लोक में अपने ब्रह्मस्वरूप को देखता है (जस्य चितं न रागादि) जिसके चित्त में कोई राग-द्वेष मोह नहीं होते (प्रपंचं तस्य न पस्यते) और उसको कोई प्रपंच भी दिखलाई नहीं देते अर्थात् वह किसी प्रपंच में नहीं रहता वह ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी है। विशेषार्थ - ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी श्रावक पूर्णतः अब्रह्म का त्यागी अर्थात् स्व स्त्री और समस्त पर स्त्रियों से संबंध छोड़ देता है तथा हमेशा अपने शुद्धात्म स्वरूप में रत रहता है। अपने भावों की सम्हाल रखता है, शुद्ध भाव में रहता है, जिसके चित्त में अपने ध्रुव स्वभाव का निश्चय श्रद्धान है, जो तीनों काल, तीनों लोक में अपने ब्रह्म स्वरूप को देखता है, जिसके चित्त में कोई राग-द्वेष, मोह आदि विकारी भाव नहीं होते तथा किसी प्रपंच में भी नहीं रहता । शरीर संभोग संबंध तो पूर्णतया छोड़ ही देता है, जिसके भावों में मलिनता विकारी भाव भी नहीं रहता वह ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी है। सप्तम ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी सम्यकदृष्टि श्रावक हमेशा अपने ब्रह्मस्वरूप में रत रहता है, जिसका पर पर्याय, शरीरादि से राग छूट गया है और वह अपने ध्रुव स्वभाव का निश्चय श्रद्धानी पर्याय दृष्टि से विमुख, संसारी प्रपंचों से मुक्त ब्रह्म स्वरूप की साधना करता है। यदि विकथा, व्यसन आदि में रत रहता है, रागादि भावों में बहता है तो वह ु SYA YA YA YES. गाथा ४२०-४२४ बाहर से ब्रह्मचारी बना हुआ भी ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी नहीं है इसी बात को कहते हैंविकहा विसन उक्तं च चक्र धरनेंद्र इन्द्रयं । नरेन्द्र विभ्रमं रूपं वर्तते विकहा उच्यते ।। ४२२ ।। व्रत भंगं राग चिंतंते, विकहा मिथ्यात रंजितं । अबंभं तिक्त बंभं च, बंभ प्रतिमा स उच्यते ।। ४२३ ।। जदि बंभचारिनो जीवो, भाव सुद्धं न दिस्टते । विकहा राग रंजंते, प्रतिमा बंभ गतं पुनः ॥। ४२४ ॥ अन्वयार्थ- (विकहा विसन उक्तं च) सात व्यसनों के सम्बन्ध में राग वर्द्धक चर्चा करना विकथा है (चक्र धरनेंद्र इन्द्रयं) चक्रवर्ती धरणेन्द्र इन्द्रों के (नरेन्द्रं विभ्रमं रूपं) राजा महाराजाओं के वैभव, रूप आदि मोह राग को बढ़ाने वाले भोग आदि की (वर्नते विकहा उच्यते) चर्चा करना, सुनना विकथा कहलाती है। ( व्रत भंगं राग चिंतंते) राग भाव का चिंतन करने से ब्रह्मचर्य व्रत भंग हो जाता है (विकहा मिथ्यात रंजितं ) चारों विकथाओं को, मिथ्यात्व में रंजायमान होने को (अबंभं तिक्त बंभं च) और अब्रह्म को छोड़कर जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है (बंभ प्रतिमा स उच्यते) उसे ब्रह्मचर्य प्रतिमा कहते हैं । (जदि बंभचारिनो जीवो) यदि ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी जीव के (भाव सुद्धं न दिस्टते) शुद्ध भाव दिखाई नहीं देते (विकहा राग रंजंते) विकथा और राग में रंजायमान रहता है (प्रतिमा बंभ गतं पुनः ) तो उसकी ब्रह्मचर्य प्रतिमा भंग हो गई ऐसा समझना चाहिये । विशेषार्थ - ब्रह्मचारी खोटी कथाओं से विरक्त रहता है। जुआं खेलना, मांस भक्षण, मदिरा सेवन, वेश्या गमन, चोरी करना, शिकार खेलना, पर स्त्री सेवन करना इन सात व्यसनों में राग बढ़ाने वाली कथाओं को यह न तो करता है, न सुनता है तथा इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण, राजा-महाराजा आदि की मोह वर्द्धक राग को बढ़ाने वाली कथाओं को न कहता है, न सुनता है, यदि इन विकथाओं को करता है और उनके राग का चिंतवन करता है तो व्रत भंग हो जाता है और मिथ्यात्व •में लिप्त हो जाता है इसलिये अब्रह्म की चर्चा छोड़कर जो अपने ब्रह्म स्वरूप में रहता है वह ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी है; परन्तु यदि ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी के भाव शुद्ध नहीं २३६ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POOR श्री श्रावकाचार जी गाथा-४२५ दिखते वह विकथा और राग में रंजायमान रहता है, परिणामों में इन्द्रिय विषयों का का दोष आता है अत: ब्रह्मचर्य व्रत का निर्दोष पालन करने के लिये शील की नव बाड़ राग रखता है, यदि वह राग सहित बात कहे, राग की बातें सुने, जगत के प्रपंच में का पालन करना आवश्यक है। शील व्रत की नौ बाड़-१. स्त्रियों के सहवास में न अपने को उलझाए, स्त्रियों से राग वर्द्धक वार्तालाप करे, एकांत में स्त्रियों से बोले.. रहना, २. स्त्रियों को प्रेम रुचि से न देखना, ३. स्त्रियों से रीझ कर मीठे-मीठे वचन आत्मा की शुद्धि का,शुद्ध भावों का ध्यान न रखे तो वह ब्रह्मचर्य प्रतिमा का खण्डन नबोलना,४.पूर्व काल में भोगे हुए भोगों का चिंतवनन करना.५.गरिष्ठ आहार नहीं ७ करने वाला है,यह निश्चित समझना कि उसका व्रत चला जायेगा। २ करना, ६. श्रृंगार विलेपन आदि कर शरीर संदर नहीं बनाना.७. स्त्रियों की सेज पर । इन सब निमित्तों से हटकर, चित्त को एकाग्र कर शुद्ध आत्मा का ध्यान करता नहीं सोना, बैठना, ८. काम कथा नहीं करना, ९. भरपेट भोजन नहीं करना। है वहीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा है इसी बात को यहां कहते हैं ८. कुशील के दस दोष टालना-१.शरीर श्रृंगार करना, २. पुष्ट रस सेवन करना, चितं निरोधतं जेन, सुद्ध तत्वं च सार्धयं । , ३.गीत नृत्य वादित्र सुनना देखना बजाना, ४. स्त्रियों की संगति करना, ५. स्त्रियों S में किसी प्रकार काम भोग सम्बंधी संकल्प करना, ६. स्त्रियों के मनोहर अंगों को तस्य ध्यान स्थिरीभूतं, बंध प्रतिमा स उच्यते॥ ४२५॥ देखना,७. स्त्रियों के अंगों को देखने का संस्कार हदय में रखना.८.पूर्व में भोगे हए अन्वयार्थ- (चितं निरोधतं जेन) जो अपने चित्त को एकाग्र करके (सुद्धतत्वं भोगों का स्मरण करना.९. आगामी काल में काम भोगों की वांछा करना, १०.वीर्य च सार्धय) शद्धात्म तत्व की साधना करता है (तस्य ध्यान स्थिरीभूतं) उसके ध्यान पतन करना होना। इन दोषों को टालने वाला ही ब्रह्मचारी होता है। में स्थिर हो जाता है (बंभ प्रतिमा स उच्यते) उसे ब्रह्मचर्य प्रतिमा कहते हैं। स्त्रियों के वशवर्तीपना होने से अंतरंग में दाह और पाप की वृद्धि होती है, सुख विशेषार्थ- ब्रह्मचर्य प्रतिमा का मूल अभिप्राय यह है कि जो अपने चित्त का शांति का नाश होता है; अतएव जो धार्मिक पुरुष, स्त्री सम्बंधी पराधीनता छोड़कर निरोध कर अर्थात् समस्त संकल्प-विकल्पों से हटकर एकाग्र होकर अपने शुद्धात्म 5 दुर्जय काम को जीतकर ब्रह्मचर्य पालते हैं वही सच्चे साहसी सुभट हैं। युद्ध में प्राण स्वरूप की साधना करता है, ब्रह्म स्वरूप में लीन रहता है वही सम्यक्दृष्टि ज्ञानी विसर्जन करने वाले शूर उनके सामने तुच्छ हैं:क्योंकि ऐसे योद्धा शूर काम द्वारा जीते ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी है। उसका व्यवहारिक आचरण तो स्वयमेव शुद्ध और सात्विक हुए हैं अतएव इस जगज्जयी काम सुभट को जिन ब्रह्मचारियों ने जीता, वेहीमोक्षमार्गी होता है, शारीरिक विषय भोगों से विरक्त, मन-वचन-काय से शील धर्म पालता महासुभट धन्य हैं। इस ब्रह्मचर्य के प्रभाव से वीर्यान्तराय कर्म का विशेष क्षयोपशम है। ब्रह्मचर्य व्रत की पांचोंभावनाओं का पूरा ध्यान रखता है, अतिचार रहित ब्रह्मचर्य होकर आत्मशक्ति बढ़ती है, तप उपवास आदि परीषह सहज ही जीती जाती हैं। का पालन करता है, जिसकी दृष्टि में अपने ब्रह्मस्वरूपका सदैव स्मरण ध्यान रहता गृहस्थ आश्रम सम्बंधी आकुलता घटती है, परिग्रह की तृष्णा घटती है, इन्द्रियां वश है, अब्रह्म अर्थात् शरीर आदि पर्यायों की तरफ जिसका लक्ष्य नहीं रहता, में होती हैं। यहां तक कि वाक् शक्ति स्फुरायमान हो जाती हैं। ध्यान करने में अडिग खान-पान, रहन-सहन में साधारण सामान्य स्थिति में उदासीन रहता है। एकान्त चित्त लगता है और अतिशय पुण्य बन्ध के साथ-साथ कर्मों की निर्जरा विशेष होती में रहता है, यदि घर में रहे तो अपनी रहने और शयन आदि की व्यवस्था गृहस्थी के है जिससे मोक्ष नगर निकट हो जाता है। प्रपंच से अलग रखता है। सादा शुद्ध भोजन और जहां तक संभव हो एक समय ही ब्रह्म स्वरूप में रमण करने वाला ही सच्चा ब्रह्मचारी है, जिसकी वचनव काय ० करता है। इस प्रतिमा में अभी आरंभ का त्याग नहीं है,सातवीं प्रतिमाधारी श्रावक 5 कीचेष्टा से भी ब्रह्मरस टपकता हो,जोपांचों इन्द्रियों का विजयी होकर वैराग्यवान १ पहले के सभी नियमों को पालता हआ आस-पास के ग्रामों में बाहर जाकर भी धर्म हो, रस नीरस जो आहार प्राप्त हो उसमें संतोषी हो, अल्पाहारी हो, आरंभ यद्यपि प्रचार कर सकता है। इसे जीवधारी सवारी को छोड़कर अन्य वाहनों का त्याग नहीं कुछ करता है परन्तु त्याग के सन्मुख हो, निरन्तर मोक्ष की भावना में वर्तता हो, है, यह मध्यम पात्र में भी मध्यम पात्र है। प्राणी मात्र का हितैषी हो, परोपकार में लीन हो, आत्मधर्म व शील संयम धर्म की 2 मूर्छा पूर्वक मन-वचन-काय की कुशील सेवन रूप प्रवृत्ति होने से कुशील प्रभावना करने वाला हो, वैराग्यमय वस्त्रों का धारी हो, अल्प से अल्प वस्त्र धारण Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You श्री आचकाचार जी गाथा-४२६.४२९ LOO करता हो वही ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी श्रावक कहा जाता है। (दुर्गतिं दुष भाजन) वह दुःख भोगते हैं और दुर्गति के पात्र बनते हैं। ८.आरंभ त्याग प्रतिमा (आरंभंपरिग्रहं दिस्टा) जो आरंभ और परिग्रह को ही देखते रहते हैं (अनंतानंत जो श्रावक हिंसा से अति भयभीत होकर आरम्भ अर्थात् जिन क्रियाओं में . चिंतये) और उसकी अनंतानंत चिंतायें किया करते हैं (ते नरा न्यान हीनस्य) वे षट्काय के जीवों की हिंसा हो, परिणामों में विकलता उत्पन्न करने वाला जानकर मनुष्य ज्ञान से हीन होते हैं (दुर्गति पतितं न संसयः) और दुर्गति में जाते हैं इसमें गृह सम्बंधी सम्पूर्ण आरंभ स्वयं नहीं करता और न दूसरों से कराता वह आरंभ त्यागकोई संशय नहीं है। प्रतिमाधारी है; परन्तु धर्म के नाम पर मठ मंदिर बनवाता है और आरंभ की धार्मिक विशेषार्थ-यहां आठवीं आरम्भ त्याग प्रतिमा का स्वरूप कहते हैं। आरंभ, क्रियायें करता, कराता है तो वह ज्ञानहीन दुर्गति का पात्र है, इस बात को पहले , मन के पसरने को कहते हैं। सातवीं प्रतिमा तक पांचों इन्द्रियों का संयम हुआ, अब बताते हैं ! जिसके मन का संयम हो जाता है और जो शुद्ध भाव का धारी होता है वह आरम्भ आरंभं मन पसरस्य, दिटं अदिस्ट संजुतं । त्याग प्रतिमाधारी होता है; क्योंकि मन, देखे-अनदेखे नाना प्रकार के कार्यों का निरोधनं च कृतं तस्य, सुद्ध भावं च संजुतं ॥ ४२६॥ * विचार करता रहता है और नये-नये प्रपंचों में उलझाता है। घर-परिवार का पापारम्भ र छोड़ दिया, पांचों इन्द्रियों का संयम कर लिया; परंतु यदि मन का संयम न हुआ तो अनृत अचेत असत्यं, आरंभं जेन क्रीयते। यह शुभ राग के चक्कर में उलझाता है। धर्म के नाम पर मंदिर, तीर्थ, धर्मशालायें जिन उक्तं न दिस्टंते, जिनद्रोही मिथ्या तत्परा ॥ ४२७॥ बनवाना, पूजा-पाठ,प्रतिष्ठा करवाना,धन-वैभव इकट्ठा करना, सामाजिक कार्यों अदेवं अगुरं जस्य , अधर्म क्रियते सदा। " में आगे आना, समाज की सेवा धर्म प्रचार के नाम पर अपनी मनमानी करना, पाप विस्वासं जेन जीवस्य, दुर्गतिं दुष भाजनं ॥४२८॥ करते हुए पुण्य और धर्म मानता है, जिनवाणी को नहीं देखता, मनमानी करता है में वह जिनद्रोही मिथ्यात्व में तत्पर रहता है। जो साम्प्रदायिक बन्धनों में बंधकर आरंभं परिग्रहं दिस्टा, अनंतानंत चिंतये। 3 अदेव, अगुरु, अधर्म का सेवन करता है. नाना प्रकार के क्रिया कांडों में लगा रहता ते नरा न्यान हीनस्य,दुर्गति पतितं न संसयः॥४२९॥ है तथा अन्य सामाजिक प्राणियों को उनमें उलझाता है, जो जीव ऐसे त्यागी अन्वयार्थ- (आरंभं मन पसरस्य) आरंभ-मन का फैलाव होता है (दिस्टर प्रतिमाधारियों का विश्वास करते हैं वह दुःख भोगते और दुर्गति के पात्र बनते हैं। जो अदिस्ट संजुतं) जो देखे हुए और बिना देखे हुए दुनिया भर के कार्यों में लगा रहता है जीव अपने घर को छोड़कर आरंभ त्याग कर त्यागी हो जाते हैं परन्तु मन का संयम (निरोधनं च कृतं तस्य) जो उसके कार्य, बाहर की क्रिया और अंतर के विचारों का न होने तथा ज्ञानहीन होने से धर्म और समाज के नाम पर विशेष आरम्भ और परिग्रह निरोध कर देता है (सुद्ध भावं च संजुतं) और शुद्ध भाव में लीन रहता है वह आरंभई का फैलाव फैलाते हैं तथा उसकी ही अनन्त चिंताओं में लगे रहते हैं ऐसे ज्ञानहीन त्याग प्रतिमाधारी है। 8 अज्ञानी त्यागी व्रती दुर्गति में जाते हैं इसमें कोई संशय नहीं है। (अनृत अचेत असत्यं) नाशवान अचेतन-धन, वैभव, मकान, मंदिर, मठ मन के वश में न होने से मन के फैलाव द्वारा जो जीव धर्म के नाम पर ९ आदिझूठे (आरंभंजेन क्रीयते) आरंभ को जो करता कराता है (जिन उक्तंन दिस्टंते) आरम्भ-परिग्रह में आसक्त हो जाता है, धन का लोलुपी हो जाता है वह सच्चे देव, जिनवाणी में क्या कहा है इसे नहीं देखता (जिनद्रोही मिथ्या तत्परा) वह जिनेन्द्र का गुरु,धर्म की श्रद्धा नहीं करता। वह रागी-द्वेषी कुदेव और चमत्कारिक प्रतिमायें द्रोही, जिनवाणी की विराधना करने वाला मिथ्यात्व में तत्पर रहता है। अदेव आदि तथा परिग्रहधारी और प्रपंची कुगुरु, अगुरु जो जिन धर्म के विपरीत (अदेवं अगुरंजस्य) जो अदेव अगुरु (अधर्मं क्रियते सदा) अधर्म की क्रियायें मिथ्यात्व का पोषण करते हैं व हिंसामयी क्रियाकांड को धर्म मानने लगते हैं तथा हमेशा करते रहते हैं (विस्वासं जेन जीवस्य) जो जीव ऐसे जीवों का विश्वास करते हैं अन्य जीवों को उपदेश देते हैं कि अमुक देव, देवी की पूजा करने से धनलाभ, २३८ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-४३०,४३१ Oo पुत्रलाभ,राज्यलाभ होगा। अमुक साधु की सेवा भक्ति करने से धन, पुत्र, राज्य का प्रवर्तता है। संसारी कार्यों का आरम्भ करना संसार के भ्रमण का कारण है और आत्म संरक्षण रहेगा। अमुक पूजा-पाठ, जप-तप, व्रत, यात्रा करने से धन, पुत्रादि का कार्य का आरम्भ अर्थात् धर्म ध्यान संसार के दु:खों से छुड़ाने वाला है, मोक्ष प्राप्त समागम होगा। इस प्रकार जो मिथ्यात्व के पोषक, जिनधर्म के द्रोही, विपरीत आचरण कराने वाला है। अविनाशी निर्वाण पद का साधन आत्म ध्यान है,जहां शुद्धात्मा का करने वाले कुगुरु अगुरु की सेवा भक्ति करते हैं, बात मानते हैं वह दुर्गति के पात्र बनते * अनुभव है वहीं रत्नत्रय स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग है। हैं;क्योंकि वह तो ज्ञानहीन अज्ञानी स्वयं दुर्गति जायेंगे ही परन्तु आप डुबन्ते पांडे ले आरम्भ त्यागी श्रावक सर्वसंकल्प-विकल्प और उनके कारणभूत संसारी कार्यों डूबे जिजमान' । अत: आत्म कल्याणार्थी जीव को इन सारी बातों का विवेक करते को छोड़कर निश्चित होकर अपने आत्म कल्याण में दत्त-चित्त रहता है। न स्वयं हुए अपनी पात्रता को देखते हुए आगे बढ़ना चाहिये। कोई पापारम्भ करता है, न कराता है, धर्म के नाम पर क्रियाकांड या सामाजिक जिसको अपनी शुद्ध दृष्टि का आरम्भ हो जाये, जो रत्नत्रय से शुद्ध अपने , व्यवस्थाओं में नहीं उलझता। जिसे भेदज्ञान तत्वनिर्णय हो गया है, अपने ब्रह्मस्वरूप शाश्वत ध्रुव स्वभाव की साधना में रत हो वही सच्चा आरम्भ प्रतिमाधारी है जो में रमण करने लगा है वही उदासीन वीतराग मार्ग का पथिक, आत्म ध्यान की शाश्वत पद को प्राप्त करेगा इसी बात को आगे कहते हैं साधना में रत मोक्षमार्गी आरम्भ त्याग प्रतिमाधारी है। इसके मन-वचन-काय, आरंभं सुख दिस्टी च,संमिक्तं सुद्धं धुवं । कृत-कारित से गृह सम्बंधी पापारंभ का त्याग होता है, अनुमोदना (अनुमति) का दर्सनं न्यान चारित्रं,आरंभं सुद्ध सास्वतं ॥४३०॥ त्याग नहीं होता। यदि पुत्रादि व कुटुम्बी घर के काम काज की अथवा व्यापार सम्बंधी सलाह पूछे तो सम्मति रूप उसके हानि-लाभ बता देवे परन्तु किसी काम आरंभं सुद्ध तत्वं, संसार दुष तिक्तयं । को करने की प्रेरणा न करे। मोज्यमार्ग च दिस्टते,प्राप्तं सास्वतं पदं ॥ ४३१ ॥ आरम्भ त्यागी, हिंसा से भयभीत हो, संतोष धारण कर धन-संपदा से ममत्व अन्वयार्थ- (आरंभं सुद्ध दिस्टी च) जिसकी शुद्ध दृष्टि की शुरुआत हो गई घटाता हुआ सर्व प्रकार के व्यापार धंधे करना छोड़ देता है, यह तीन प्रकार की हिंसा (संमिक्तं सुद्धं धुवं) जो निश्चय शुद्ध सम्यकदृष्टि है (दर्सनं न्यान चारित्र) जिसके का त्यागी होता है-संकल्पी, उद्योगी, आरम्भी। अत: धर्म के नाम पर भी कोई क्रिया दर्शन ज्ञान चारित्र की शुद्धि हो गई (आरंभं सुद्ध सास्वतं) वही शुद्ध शाश्वत आरम्भ कांड नहीं करता । मात्र शरीर की आवश्यकताओं का विवेक पूर्वक उदासीनता से त्याग प्रतिमा धारी है। पालन करता हुआ अपने आत्म ध्यान की साधना में संलग्न रहता है। (आरंभं सुद्ध तत्वं) शुद्ध तत्व का आरंभ, विचार, ध्यान साधना करना (संसार विशेष-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की योग्यता देखकर ही व्रत प्रतिज्ञा, दुष तिक्तयं) संसार के दुःख से छुड़ाने वाला है (मोष्यमार्ग च दिस्टते) मोक्षमार्ग को धारण करना चाहिये; क्योंकि बिना अपनी पात्रता, योग्यता के त्यागी या प्रतिमाधारी दिखाने वाला है (प्राप्तं सास्वतं पदं) अविनाशी पद को प्राप्त कराने वाला है। होने से कुछ भी कल्याण नहीं होता। कषाय, ममत्व भाव तथा इनके बाह्य आलम्बनों विशेषार्थ- आरम्भ त्यागी श्रावक सम्यक्दृष्टि होता है, जो सर्व लौकिक आरंभ सा है जो सर्व लौकिक आरंभ को छोड़ने और विरागता के साधक कारणों को मिलाने से ही प्रतिमा धारण करने का पूर्ण क्रियाओं को महापाप का कारण समझकर छोड़ देता है। अपने शुद्धात्म भावों देता है। अपने शटात्म भावों यथार्थफल मिल सकता है। जिसकी दृष्टि और मार्ग बदल गया वह आरम्भ प्रतिमाधारी या की प्राप्ति का आरंभ अर्थात् धर्म ध्यान का आरंभ करता है, अपने निश्चय शुद्ध हा सम्यक्दर्शन के द्वारा वह रत्नत्रय की शुद्धि का यत्न करता रहता है, वह जानता है ९.परिग्रह त्याग प्रतिमा कि निश्चय रत्नत्रय, निज स्वभाव शुद्धात्मानुभूति में निमग्न रहना ही है, उसके 'मूच्छ परिग्रहः मूर्छा भाव परिग्रह है, पर के प्रति मूर्छा, पुद्गल आदि का निरंतर स्वात्मानुभव का अभ्यास रहता है, शुद्धात्मा के अनुभव में उपयोग को लगाने संग्रह विकल्पका कारण है। जो संकल्प-विकल्प रहित होकर अपने आत्म स्वरूप 2 का मुख्य आरम्भ करता है। हिंसामयी आरम्भ से बचता है, अहिंसा रूप आरम्भ में भाराम्भ करता है। हिंसामग्री आरम्भ से बचता है अहिंसा रूप आरम्भ में की साधना करता है वह परिग्रह त्याग प्रतिमाधारी है इसी बात को कहते हैं २३९ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी परिग्रहं पर पुद्गलार्थं च, परिग्रहं नवि चिंतए । ग्रहणं दर्सनं सुद्धं परिग्रहं नवि दिस्टते ।। ४३२ ।। अन्वयार्थ - (परिग्रहं पर पुद्गलार्थं च ) परिग्रह- धन, धान्य आदि पुद्गल शरीर आदि के लिये होता है (परिग्रहं नवि चिंतए) परिग्रह त्याग प्रतिमाधारी इन परिग्रह की चिंता नहीं करता है (ग्रहणं दर्सनं सुद्धं) अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखता है उसी को ग्रहण करता है (परिग्रहं नवि दिस्टते) परिग्रह को नहीं देखता है। विशेषार्थ आठवीं प्रतिमा तक सम्यकदृष्टि ज्ञानी अपने ब्रह्म स्वरूप में रमण करने से बाह्य क्रिया का कर्तृत्व छोड़ देता है। नवमीं प्रतिमा में पर का स्वामित्वपना, पर को ग्रहण करने की भावना भी समाप्त हो जाती है, मूर्च्छा ममत्व भाव छूट जाता है फिर वह बाह्य परिग्रह धन-धान्य आदि पुद्गल शरीरादि के लिये होता है, उसकी चिंता नहीं करता। उसका दृढ़ श्रद्धान होता है कि मुझे कुछ नहीं चाहिये मैं अपने में स्वयं परिपूर्ण परमब्रह्म परमात्मा हूँ, अपने शुद्धात्म स्वरूप को ही देखता है और ग्रहण करता है फिर इन बाहरी शारीरिक व्यवस्थाओं की न चिंता करता है, न देखता है, न प्रयोजन रखता है; क्योंकि उसके निर्णय में होता है कि पूर्व कर्मोदय जन्य शरीरादि का जैसा परिणमन होना है, हो रहा है और होगा, मुझे अपने लिये कुछ नहीं चाहिये । इस श्रेणी में आकर वह अपने पास की सर्व संपत्ति जिसे देना होता है उसे दे देता है। शरीर से ममत्व भाव, मूर्च्छा छूट जाने से सामान्य आवश्यकतानुसार वस्त्र आदि रखता है। राग-द्वेष आदि आभ्यंतर परिग्रह की मंदता पूर्वक क्षेत्र, वास्तु (मकान) आदि दस प्रकार के बाह्य परिग्रह में से आवश्यक वस्त्र पात्र आदि के सिवाय शेष सब परिग्रह को त्याग देता है, संतोष वृत्ति धारण करता है। बाह्य परिग्रह के दस भेद इस प्रकार हैं- १. क्षेत्र (खेत, जमीन), २. वास्तु (घर, मकान), ३. चांदी रुपया पैसा, ४. सोना रकम आदि, ५. धन (गाय, भैंस), ६. धान्य (गेहूँ आदि अनाज), ७. दासी, ८. दास, ९. वस्त्र, १०. बर्तन । इन दस प्रकार के बाह्य परिग्रह का त्याग करने से मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद यह चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह भी क्रमशः छूटने लगते हैं। बाह्याभ्यंतर दोनों प्रकार का परिग्रह पापोत्पत्ति तथा आकुलता का मूल है WANA YZAT AND YET. २४० गाथा ४३२, ४३२ ऐसा निश्चय कर बाह्य परिग्रह को छोड़ते हुए अपने मन में अति आनंद मानता है। ऐसा विचार करता है कि आज का दिन धन्य है जब मैं आकुलता और बन्धनों से छूटा, अब निराकुलता से अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना करूंगा। परिग्रह से आरम्भ, चिंता, शोक, मद आदि पाप उपजते हैं जो मूर्च्छा, चित्त की मलिनता के कारण हैं; अतएव संतोष निमित्त मूर्च्छा को घटाना और परिग्रह का त्याग करना आवश्यक है। परिग्रह त्याग प्रतिमा के धारण करने से गृहस्थाश्रम सम्बंधी सर्व भार उतर जाता है जिससे निराकुलता का सुखानुभव होने लगता है। बाह्य परिग्रह का त्याग अंतरंग मूर्च्छा के अभाव के लिये किया जाता है। यदि किसी के पास बाह्य परिग्रह कुछ भी न हो और अंतरंग में मूर्च्छा विशेष हो तो वह परिग्रही है; क्योंकि यथार्थ में मूर्च्छा ही परिग्रह है अतएव भेदविज्ञान के बल से अंतरंग मूर्च्छा को मंद करते हुए बाह्य परिग्रह छोड़ना चाहिये तभी परिग्रह त्याग जनित निराकुल सुख की प्राप्ति होती है। परिग्रह त्यागी को इन बातों पर भी ध्यान देना चाहिये १. परिवार जन औषधि, आहार जल आदि देवें, वस्त्रादि धोवें, व्यवस्था करें शारीरिक सेवा टहल करें तो ठीक और यदि न करें तो आप उन पर दबाव न डाले और न अप्रसन्न हो । २. यह गृह त्यागी या गृहवासी दोनो रूप में रह सकता है। ३. रागादि पूर्ण वातावरण और स्थान से दूर रहे, ऐसे मकान मठ आदि में भी न रहे जहां विकल्प हों । ४. निमंत्रण पूर्वक सद्ग्रहस्थ के यहां आहार करने जावे । ५. बिना दिये कोई भी वस्तु जल, मिट्टी भी न लेवे। १०. अनुमति त्याग प्रतिमा जो आरम्भ परिग्रह की अर्थात् सांसारिक सावद्य कर्म विवाह, गृह बनवाने, बनिज, सेवा आदि कार्यों के करने की सम्मति उपदेश नहीं देता, अनुमोदना नहीं करता, समबुद्धि है, ऐसा अपने आत्म स्वरूप में रत रहने वाला श्रावक अनुमति त्याग प्रतिमाधारी कहलाता है। इसी बात को आगे कहते हैं अनुमतं न दातव्यं, मिथ्या रागादि देसनं । अहिंसा भाव सुद्धस्य, अनुमतं न चिंतए । ४३३ ॥ अन्वयार्थ - (अनुमतं न दातव्यं) आरम्भ परिग्रह सम्बंधी पाप कार्य की Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री श्रावकाचार जी गाथा-४३४,४३५ Oo अनुमति नहीं देता (मिथ्या रागादि देसन) मिथ्यात्व, राग-द्वेष सम्बंधी उपदेश भी उद्दिस्टं उत्कृष्ट भावेन, दर्सनं न्यान संजुतं । नहीं देता (अहिंसा भाव सुद्धस्य) अहिंसा और भावों की शुद्धि का ध्यान रखता है चरनं सुद्धभावस्य, उहिस्टं आहार सुद्धये ॥ ४३४ ॥ (अनुमतं न चिंतए) अनुमति देने का चिंतवन भी नहीं करता वह अनुमति त्याग प्रतिमाधारी है। अंतराय मनं कृत्वा , वचनं काय उच्यते। विशेषार्थ- दसवीं प्रतिमा अनुमति त्याग है। इस श्रेणी में श्रावक,धर्म सम्बंधी मन सुद्धं वच सुद्धं च, उहिस्टं आहार सुद्धये ॥ ४३५॥ चर्चा के सिवाय और कोई लौकिक चर्चा नहीं करता है। कोई लौकिक सम्मति गृहस्थ अन्वयार्थ- (उद्दिस्टं उत्कृष्ट भावेन) उद्देश्य, श्रेष्ठ भावों के साथ (दर्सनंन्यान के क्षणभंगुर मिथ्या कार्य सम्बंधी, व्यापार सम्बंधी या विवाह आदि सम्बंधी पूछे तो संजुतं) सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान सहित (चरनं सुद्धभावस्य) सम्यक्चारित्र पालने कुछ नहीं कहता है और न मन में ही उस सम्बंध में अच्छा या बुरा चिंतवन करता है का जिसका उद्देश्य हो, वह शुद्ध भाव का धारी (उद्दिस्टं आहार सुद्धये) उद्देश्य रहित है। आत्म कल्याण सम्बंधी धर्म की चर्चा करता है। हमेशा राग-द्वेष से रहित शुद्ध आहार को ग्रहण करने वाला उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाधारी है। अहिंसामयी शुद्ध भावों का लक्ष्य रखता है, इसके परिणामों में अहिंसा भाव बहुत (अंतराय मनं कृत्वा) अंतराय मन के (वचनं काय उच्यते) वचन के और अधिक रहता है। अपने निमित्त से किंचित् भी हिंसा हो यह इसे रुचिकर नहीं है काय सम्बंधी कहे गये हैं उनको बचाकर (मन सुद्धं वच सुद्धं च) शुद्ध मन और शुद्ध इसलिये यह पहले से निमंत्रण नहीं मानता, भोजन के समय कोई बुलावे तो चला वचन सहित (उद्दिस्टं आहार सुद्धये) आहार की शुद्धि होना उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा है। जाता है, सदा शुद्ध आत्मा के ध्यान का लक्ष्य रहता है। & विशेषार्थ- ग्यारहवीं प्रतिमा, साधु पद धारण करने के लिये अंतिम सीढ़ी उदासीनता पूर्वक परिवार से अलग एकांत स्थान चैत्यालय, धर्मशाला आदि है। जिसके सारे संसारी उद्देश्य समाप्त हो गये. किसी प्रकार की कामना-वासना में रहकर धर्म ध्यान करना, कुटुम्बी अथवा अन्य श्रावकों के घर जीमने के समय नहीं रही, जो शरीर से निर्ममत्व हो गया, जिसके उत्कृष्ट भाव रत्नत्रय मयी निज बलाने पर भोजन कर आना, सदा संतोषी रहना, किसी से बुरा-भला न कहना, न शद्वात्मा के ध्यान में लीन रहने के हो गये, जिसे अब किसी से कोई प्रयोजन रहा ही राग-द्वेष करना, संसारी शुभ-अशुभ कार्यों में हर्ष-शोक नहीं मानना और न किसी नहीं, जिसके भोजन करने के भाव भी समाप्त हो गये, खाने का राग छूट गया, प्रकार का सांसारिक चितवन करना, ईर्या समिति पूर्वक गमन करना और भाषा समिति मन-वचन-काय सम्बंधी अंतराय का दृढता से पालन करने वाला, मन की शुद्धि, सहित वचन बोलना,यह दसवीं प्रतिमाधारी श्रावक का व्यवहार आचरण है। वचन की शुद्धि रखने वाला,काय की स्थिरता के लिये भिक्षा द्वाराशुद्ध आहार ग्रहण गृहस्थ संसार सम्बंधी आरम्भ की अनुमति का त्याग होने से पांच पाप का नव " करता है वह उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाधारी है। करता है वह टिप त्याग पति कोटिपूर्वक त्याग होकर पापाश्रव क्रियायें सर्वथा रुक जाती हैं, आकुलता का अभाव यह उत्कृष्ट श्रावक अभी वीतरागी नहीं हुआ है, शरीर से राग का सद्भाव है; होने से चित्त की विकलता दूर होती है जिससे मन वश में होकर इच्छानुसार धर्म परंत वीतरागी होने रत्नत्रय स्वरूप की साधना करने के लिये दृढ संकल्पित है ध्यान में शीघ्र स्थिर होने लगता है। 8 इसलिये घर परिवार से सम्बंध तोड़कर साधुओं के सत्संग में वन आदि में जाकर ११. उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा रहता है। शरीर पर मात्र लंगोटी चादर रखता है, भिक्षा द्वारा भोजन ग्रहण करता जो अनुमति त्यागीश्रावक चारित्रमोह के मंद हो जाने से उत्कृष्ट चारित्र अर्थात् है। इस प्रतिमा वाले साधक के दो भेद होते हैं-१. क्षुल्लक, २. ऐलक। दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार,तपाचार और वीर्याचार इनपंच आचारों की प्राप्ति __ अनुमति त्याग प्रतिमा तक धर्मशाला में व एकांत घर में अथवा क्षेत्र आदि में एवं रत्नत्रय की शुद्धता और पूर्णता के निमित्त शुद्ध भावों का आराधन करता है, रहकर धर्म साधन कर सकता था। ग्यारहवीं प्रतिमा वाला मुनिराज की संगति में रहेगा संसार से पूर्ण विरक्त होकर अपने समस्त उद्देश्य का त्याग करता है वह उद्दिष्ट त्याग क्योंकि यह मुनि धर्म पालन करने का अभ्यास करने वाला हो जाता है। जैसे- मुनि प्रतिमाधारी है, इसी बात को कहते हैं वर्षाकाल के चार माह सिवाय बिहार करते हैं, नगर के पास पांच दिन, ग्राम के पास २४१ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You श्री आचकाचार जी गाथा-४५६ Oo एक दिन ही ठहरते हैं तथा पैदल बिहार करते हैं वैसे ही यह श्रावक करेगा। देखादेखी श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में कही हुई प्रतिज्ञाओं में से कोई दो-चारG १.क्षुल्लक-क्षुल्लक एक खंड वस्त्र जिससे पूरा शरीर न ढके तथा एक प्रतिज्ञायें अपनी इच्छानुसार नीची-ऊँची,यद्वा-तद्वा धारण कर त्यागी बन बैठते हैं लंगोट रखता है। सर्दी-गर्मी, दंशमसक आदि की बाधा सहने का अभ्यास करता और मनमानी स्वच्छंद प्रवृत्ति करते हैं जिससे स्व-पर कल्याण की बात तो दूर, है। जीव दया के लिये मोरपिच्छी व कमंडल में शौच आदि के लिये जल रखता है, उल्टी धर्म की बड़ी भारी हंसी व हानि होती है। ऐसे लोग 'आप डुबंते पांडे ले डूबे भिक्षा लेने के लिये एक पात्र भी रखता है। एक घर अथवा पांच सात घर से भिक्षा जिजमान' की कहावत के अनुसार स्वत: धर्म विरुद्ध प्रवृत्ति कर अपना अकल्याण भोजन एकत्र कर अंतिम घर में बैठकर भोजन पान करके अपने स्थान पर चला जाता करते हैं और दूसरों को भी ऐसा उपदेश देकर उनका अकल्याण करते हैं; अतएव है। चौबीस घंटे में एक ही बार भोजन पान करता है, केशों को कतराता है अथवा लौंच आत्मकल्याणार्थी भव्यों को उचित है कि पहले धर्म का वास्तविक स्वरूप समझें, भी कर सकता है। हैं मुक्ति के मार्ग को जानें,तत्वों का सही ज्ञान करें,अपने आत्मा के स्वभाव-विभाव को ____२. ऐलक-ऐलक एक लंगोट मात्र रखते हैं, वे मुनि के समान केशों का लौच जानें। विभाव तजने और स्वभाव की प्राप्ति के लिये कारणरूप श्रावक तथा मुनिव्रत करते हैं, काष्ठ का कमंडल रखते हैं। भिक्षा से एक घर में बैठकर अपने हाथ में ही की साधक बाह्य-अंतरंग क्रियायें व उनके फल को जानें तत्पश्चात् यथाशक्ति चारित्र भोजन ग्रास रूप लेकर करते हैं, मुनि धर्म का अभ्यास करते हैं। अंगीकार करें। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का अभ्यास करके पीछे मुनिव्रत धारण यह दोनों क्षुल्लक-ऐलक ग्यारह प्रतिमाओं के नियमों को जो उत्कृष्ट चारित्र में कर कर्मों का नाश करें और परमात्मा बन स्वरूपानन्द में मगन रहें। बाधक नहीं है यथावत् पालन करते हैं। साधु होने की भावना भाते हैं, आत्म ध्यान इस प्रकार ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप कहा, जो भव्य इनका सम्यक् प्रकार का विशेष अनुराग रखते हैं। ऐलक विशेष विरक्त हैं, रात्रि को मौन रखकर ध्यान पालन करते हैं वह मोक्षगामी हैंकरते हैं। उद्दिष्ट आहार के त्यागी इसलिये होते हैं कि उनके आशय से श्रावक कोई प्रतिमा एकादसं जेन, जिन उक्तं जिनागमं । आरम्भ न करे, स्वयं के लिये जो बनावे उसी में से दान रूप जो देवे उसी में संतोष पालंति भव्य जीवस्य, मन सुद्ध स्वात्मचिंतनं ॥४३६॥ करते हैं। उद्दिष्ट आहार त्यागी मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना सम्बंधी दोष रित-अनमोटना सम्बंधी टोप अन्वयार्थ- (प्रतिमा एकादसं जेन) जो यह ग्यारह प्रतिमा हैं (जिन उक्तं अन्वयाथ- (प्रातमा एकादस जन) जा यह ग्यारह प्रातम रहित भिक्षाचरण पूर्वक आहार ग्रहण करते हैं। जाति-संप्रदाय के बन्धनों से रहित जिनागम) जिनेन्द्र परमात्मा के कहे अनुसार जिनवाणी में कही हैं (पालंति भव्य सद्गृहस्थ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जो सप्त व्यसन के त्यागी, अष्ट मूलगुण का पालनजीवस्य) जो भव्य जीव इनका पालन करते हैं (मन सुद्धं स्वात्म चिंतन) मन को शुद्ध करते हों, उनके यहां से अपने नियमानुसार शुद्ध आहार ग्रहण कर सकते हैं। उद्दिष्ट करके आत्मा का ध्यान करते हैं वह मोक्षगामी हैं। त्याग करने से पांचों पाप तथा परतंत्रता का सर्वथा अभाव हो जाता है। इस प्रतिमा के र विशेषार्थ- इन ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप जैसा जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा अंत में अणुव्रत, महाव्रतों को स्पर्शने लगते हैं। यहां तक प्रत्याख्यानावरण कषाय उपदिष्ट जिनागम में कहा गया है, वैसा ही अपने शुद्ध भावों से आत्म चिंतवन, ध्यान का जितना-जितना मंद उदय होता जाता है, उतना बाहरी व अंतरंग चारित्र बढ़ता करने हेतु निज आत्म कल्याणार्थ लिखा गया है, जो भव्य जीव इनका पालन करेंगे, जाता है। अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना और ध्यान की स्थिति बढ़ने लगती है, 5 करते हैं वे मोक्षमार्गी सच्चे श्रावक हैं। भावों में विशुद्धता बढ़ती जाती है, भावों की उत्कृष्टता होने से मुनि व्रत धारण कर व्रती श्रावक सदा सल्लेखना (समाधि) मरण करने के उत्साही व अभिलाषी मोक्ष को प्राप्त होता है। रहते हैं इसलिये विषयों की मूर्छा तथा कषायों की वासना मन्द करते हए यथासंभव X विशेष-बहुधा देखा जाता है कि कितने भाई-बहिन अंतरंग में आत्म कल्याण पूर्ण रीति से भलीभांति व्रत पालन करते हैं-वहाँ जो श्रावक संसार, शरीर,भोगों से की इच्छा रखते हुए भी बिना तत्वज्ञान प्राप्त किये सम्यक्दर्शन से रहित दूसरों की विरक्त होते हुए इन्द्रियों के विषय तथा कषाय तजकर मन-वचन-काय से निज २४२ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67026 CSCG श्री आवकाचार जी स्वरूप को साधते हुए मरण करते हैं वे साधक श्रावक कहलाते हैं। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में से कोई भी प्रतिमाधारी समाधि मरण कर सकता है। जो आत्महितैषी रत्नत्रय धर्म की रक्षा के लिये शरीर की कुछ परवाह नहीं करते उनका समाधिमरण स्तुति योग्य है; क्योंकि जो फल बड़े-बड़े कठिन व्रत-तप करने से प्राप्त होता है वही समाधिमरण करने से सहज में प्राप्त हो जाता है। बारह भावना वैराग्य की माता संवेग-निर्वेद की उत्पादक है, इनके चिन्तवन करने से संसार से विरक्तता होकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप भावनाओं में गाढ़ रुचि उत्पन्न होती है; अतएव समाधिमरण करने वाला इन भावनाओं, आराधनाओं युक्त पंच परमेष्ठी के गुणों का तथा आत्म गुणों का चिन्तवन करे। निकटवर्ती साधर्मी भाईयों को भी चाहिये कि समाधिमरण करने वाले का उत्साह हर समय बढ़ाते रहें, धर्म ध्यान में सावधान करते रहें । वैयावृत्ति करते हुए सदुपदेश देवें और रत्नत्रय में उपयोग स्थिर करावें । यह बात ध्यान में रहे कि समाधिमरण करने वाले के पास कुटुम्बी या कोई दूसरे आदमी सांसारिक वार्तालाप न करें, रोवें नहीं, कोलाहल न करें; क्योंकि ऐसा होने से समाधिमरण करने वाले का मन उद्वेग रूप हो जाता है अतएव हर एक सज्जन को यही उचित है कि उसके निकट संसार शरीर भोगों से विरक्त करने वाली चर्चा वार्ता करें तथा आगे जो बड़े भारी परीषह, उपसर्ग सहकर सम भावों पूर्वक समाधिमरण जिन्होंने साधा है उन सुकुमाल आदि सत्पुरुषों की कथा कहें जिससे समाधिमरण करने वाले के चित्त में उत्साह और स्थिरता उत्पन्न हो। इस प्रकार समता सहित, ममता रहित शरीर का त्याग करना समाधिमरण कहलाता है। समाधिमरण के पांच अतिचार त्यागने योग्य हैं- १. कुछ काल और जीने की आशा, २. शीघ्र मर जाने की इच्छा, ३. मित्रानुराग पर का स्मरण मिलने की इच्छा, ४. पूर्व में भोगे हुए भोगों का स्मरण करना, ५ . पर भव में विषय भोगों की - वांछा करना । जो अणुव्रती सत्पुरुष अतिचार रहित सन्यास मरण करते हैं वे अपने किये हुए व्रत रूपी मंदिर पर मानों कलश चढ़ाते हुए स्वर्ग में महर्द्धिक देव होते हैं। दो-चार भव में ही सच्चे आत्मीक निराकुलित स्वरूपानन्द को प्राप्त होते हैं; क्योंकि समाधिमरण के भले प्रकार साधने से अगले जन्म में वासना चली जाती है जिससे वह जीव वहां विराग रुचि होकर निर्ग्रन्थपना धारण करने को उत्साहित होता है और mosh remnach new noch new mosh. २४३ गाथा-४२७,४३८ शीघ्र ही मुनिव्रत धारण कर शुद्ध स्वरूप को साधकर मोक्ष प्राप्त करता है। ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करने से पांच अणुव्रत शुद्ध हो जाते हैं जिससे महाव्रत और साधु पद प्रगट होता है, इसका वर्णन करते हैं अनुव्रतं पंच उत्पादंते, अहिंसा नृत उच्यते । अस्तेयं बंध व्रतं सुद्धं, अपरिग्रहं स उच्यते ॥ ४३७ ।। अन्वयार्थ - (अनुव्रतं पंच उत्पादंते) ग्यारह प्रतिमा पालन करने वाले के पांच अणुव्रत प्रगट, शुद्ध होते हैं (अहिंसा नृत उच्यते) जिन्हें अहिंसा, सत्य कहते हैं (अस्तेयं बंभ व्रतं सुद्ध) अचौर्य और ब्रह्मचर्य व्रत शुद्ध होते हैं (अपरिग्रहं स उच्यते) अपरिग्रह, इस प्रकार पांच अणुव्रत कहे जाते हैं। विशेषार्थ - व्रत प्रतिमा से बारह व्रतों का पालन होता है, ग्यारह प्रतिमा तक पंचाणुव्रत की पूर्ण शुद्धि हो जाती है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह जो पांच अणुव्रत रूप में श्रावक दशा में पालन करता था, यहां से यह महाव्रत रूप हो जाते हैं जिससे साधु पद प्रगट हो जाता है। अणुव्रत की शुद्धि होने से महाव्रत का क्या स्वरूप होता है, उसका वर्णन करते हैं, प्रथम अहिंसा महाव्रत का स्वरूप कहते हैं हिंसा असत्य सहितस्य, राग दोष पापादिकं । धावरं अस आरंभ, तिक्तंते जे विचष्यना ।। ४३८ ।। अन्वयार्थ - (हिंसा असत्य सहितस्य) हिंसा और असत्य इन प्रयोजनों को लेकर (राग दोष पापादिकं ) राग-द्वेष, पाप आदि को (थावरं त्रस आरंभ) स्थावर व त्रस के आरम्भ को (तिक्तंते जे विचष्यना) जो विज्ञजन हैं वे छोड़ देते हैं। विशेषार्थ - अणुव्रत में त्रस जीवों की हिंसा और निष्प्रयोजन पापों का त्याग होता है। महाव्रत रूप होने पर हिंसा और असत्य सहित राग-द्वेष परिणाम, समस्त पाप, विषय- कषाय और त्रस - स्थावर की आरम्भी हिंसा का त्याग भी हो जाता है। जो ज्ञानी विज्ञजन हैं, जिन्हें अब संसार शरीर भोगों से कोई प्रयोजन नहीं रहा, वह स्व-पर द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा से बचते हुए सावधानी पूर्वक अहिंसा महाव्रत का पालन करते हैं। अंतरंग में वीतराग भाव और बाहर में समस्त आरम्भ पाप आदि का त्याग ही अहिंसा धर्म है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आचकाचार जी गाथा-४३९-४४२ ) दूसरे, सत्य महाव्रत का स्वरूप कहते हैं भागी होते हैं। व्यवहार में चौर कर्म व चौर भाव का त्याग तथा जिनेन्द्र की आज्ञा के अनृतं अनृतं वाक्यं, अनृत अचेत दिस्टते। अनुसार वस्तु स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान तथा तद्रूप आचरण करना ही असास्वतं वचन प्रोक्तंच,अनृतं तस्य उच्यते ॥ ४३९॥ अचौर्य महाव्रत है। साधक धर्म साधन के निमित्त शास्त्र और आहार के अतिरिक्त अन्वयार्थ- (अनृतं अनृतं वाक्यं) झूठ बोलना असत्य वचन कहलाता है अन्य कोई वस्तु दी हुई भी न लेवे क्योंकि सर्व प्रकार के परिग्रह का त्यागी कुछ भी (अनृत अचेत दिस्टते) क्षणभंगुर नाशवान अचेतन पदार्थों को देखना (असास्वतं ग्रहण करता है तो अचौर्य व्रत का धारक नहीं है। वचन प्रोक्तंच) झूठे मिथ्या वचन कहना (अनृतं तस्य उच्यते) यह सब असत्य कहे चौथे, ब्रह्मचर्य महाव्रत का स्वरूप कहते हैंजाते हैं इनका त्याग ही सत्य महाव्रत है। ब्रह्मचर्य च सुद्धच, अबंभं भाव तिक्तयं । विशेषार्थ- असत्य का त्याग ही सत्य महाव्रत है। असत्य वाक्य बोलना, ६ विकहा राग मिथ्यात्वं, तिक्तं बंभ व्रतं धुर्व ॥ ४४१ ।। मिथ्यात्व पोषक वचन कहना, क्षणभंगुर नाशवान अचेतन पदार्थों को देखना, यह मन वयन काय हृदयं सुद्धं,सुद्ध समय जिनागमं । सब असत् कहे जाते हैं इनका त्याग ही सत्य महाव्रत है। जगत की समस्त क्रियायें विकहा काम सद्भाव, तिक्तंते ब्रह्मचारिना ।। ४४२ ॥ नाशवान हैं, एक समय की पर्याय भी क्षणभंगुर नाशवान है, इनको स्थिर कहना असत्य है । कर्मोदय जन्य भाव भी अनित्य है, इन्हें नित्य मानना ही असत् है। 5 अन्वयार्थ- (ब्रह्मचर्य च सुद्धच) ब्रह्मचर्य की शुद्धि वह है (अभंभाव तिक्तयं) जिनवाणी के प्रतिकूल वचन कहना भी असत्य है। हर एक वचन जिनसूत्र की दृढ़ता: ८. जहां अब्रह्म भाव छूट गये (विकहा राग मिथ्यात्वं) विकथा, राग और मिथ्यात्व के कराने वाला बोलना ही सत्य महाव्रत है। शांत और मौन हो जाने वाला ही सत्य । (तिक्तं बंभ व्रतं धुवं) छूटने पर ही ब्रह्मचर्य महाव्रत सही होता है। महाव्रती है। (मन वयन काय हृदयं सुद्ध) मन, वचन, काय और हृदय के शुद्ध होने से तीसरे, अचौर्य महाव्रत का स्वरूप कहते हैं ॐ (सुद्ध समय जिनागम) जिनागम के अनुसार शुद्धात्म स्वरूप में रमण होता है (विकहा 3 काम सद्भाव) जब विकथा और काम का सद्भाव (तिक्तंते ब्रह्मचारिना) छूट जाता अस्तेयं स्तेय कर्मस्य, चौर भावं न क्रीयते। है. तब ही अपने ब्रह्म स्वरूप में रमण होता है और वही ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य जिन उक्तं वचन सुद्धं च, अस्तेयं लोपनं कृतं ॥ ४४०॥ २ महाव्रतधारी है। अन्वयार्थ- (अस्तेयं स्तेय कर्मस्य) अचौर्य व्रत-जिसमें चोरी के कर्म (चौर विशेषार्थ- ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्म स्वरूप में रमण करना, सातवीं ब्रह्मचर्य भावं न क्रीयते) और चोरी के भाव भी न किये जायें (जिन उक्तं वचन सुद्धं च)5 प्रतिमा से यह स्थिति बनने लगती है। अपने ब्रह्म स्वरूप के अतिरिक्त शरीरादि सब जिनेन्द्र द्वारा कथित उपदेश को शुद्धता से पालन करना (अस्तेयं लोपनं कृतं) उनका अब्रह्म है इस ओर का भाव भी छूट जाता है वहां ब्रह्मचर्य की शुद्धि है। विकथा, राग लोप न करना ही अचौर्य महाव्रत है। 3 और मिथ्यात्व भाव का छूट जाना निश्चय से ब्रह्मचर्य व्रत है। जहां कुशील के भाव विशेषार्थ- तीसरा अचौर्य व्रत यह है कि चोरी के कर्म और चोरी के भाव भीनछूट जाते हैं, स्पर्शन इन्द्रिय के विषय का राग छूट जाता है, विकथा की ओर मन किये जायें। असत्य वचन बोलना भी चोरी है, जो पद धारण किया जावे उसके जाता ही नहीं है। हमेशा अपने ब्रह्म स्वरूप आत्मा का मनन चिंतन ध्यान रहता । 9 विपरीत आचरण करना, व्रत, नियम, संयम लेकर भंग करना भी चोरी है। जिनेन्द्र है। की आज्ञा प्रमाण वस्तु का स्वरूप विचारना चाहिये, वैसा ही कहना चाहिये और वैसा मन में कोई कामभाव-रागभाव का न होना, वचन से हास्य जनक रागवर्द्धक, ही पालन करना चाहिये । जो जैनागम में निरूपित जिनेन्द्र की देशना के विपरीत कामोत्पादक चर्चा भी नहीं करना, शरीर की कोई कुचेष्टा न होना, हृदय से शुद्ध आचरण करते हैं, कहते हैं, सोचते हैं, बताते हैं, वे जिनाज्ञा लोपी चोरी के दोष के होकर जिनागम में कहे अनुसार अपने शुद्धात्म स्वरूप का ध्यान करना ही ब्रह्मचर्य Presicknorresponding Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी महाव्रत है। जब हृदय से काम भाव और विकथाओं का सद्भाव भी छूट जाता है वही ब्रह्मचारी है। वेद के उदय जनित मैथुन सम्बंधी सम्पूर्ण क्रियाओं का सर्वथा त्याग तथा सर्व प्रकार की स्त्रियों में विकार भाव का अभाव वह द्रव्य ब्रह्मचर्य और स्वात्म स्वरूप में स्थिति होना निश्चय ब्रह्मचर्य है, दोनों का होना ही ब्रह्मचर्य महाव्रत है। पांचवें, अपरिग्रह महाव्रत का स्वरूप कहते हैं परिग्रह प्रमानं कृत्वा, पर द्रव्यं नवि दिस्टते । अनृत असत्य तितं च परिग्रह प्रमानस्तथा ॥ ४४३ ॥ अन्वयार्थ- (परिग्रह प्रमानं कृत्वा) परिग्रह का प्रमाण करके ( पर द्रव्यं नवि दिस्टते) जो पर द्रव्य की तरफ भी नहीं देखता (अनृत असत्य तिक्तं च) क्षणभंगुर नाशवान असत् पदार्थों का संयोग छूट गया (परिग्रह प्रमानस्तथा) इस प्रकार परिग्रह त्याग से अपरिग्रह होता है। विशेषार्थ नवमीं प्रतिमा में परिग्रह त्याग अणुव्रत रूप था, यहां जब समस्त संयोग सम्बंध ही छूट गये, जिसकी दृष्टि अपने ब्रह्म स्वरूप पर लगी है, जो पर द्रव्य को देख ही नहीं रहा, क्षणभंगुर नाशवान असत् पदार्थों से जिसका सम्बंध छूट गया, मात्र शरीर का ही संयोग है परन्तु उससे भी कोई ममत्व मूर्च्छा भाव नहीं है, अपने ब्रह्म स्वरूप में रमण और आत्म ध्यान की साधना में निरन्तर संलग्न हैं इसे अपरिग्रह महाव्रत कहते हैं। इस प्रकार की साधना करके उत्कृष्ट श्रावक साधु पद धारण करता है, आगे साधु पद के स्वरूप का वर्णन करते हैं SYAA AAAAAN FANART YEAR. गाथा- ४४३-४४५ एतत् क्रिया संजुक्तं, सुद्ध संमिक्त सार्धयं । ध्यानं सुद्ध समयं च उत्कृस्टं स्रावगं धुवं ॥ ४४४ ॥ साधऊ साधु लोकेन, रत्नत्रयं च संजुतं । ध्यानं तिअर्थ सुद्धं च अवधिं तेन दिस्टते ।। ४४५ ।। अन्वयार्थ - (एतत् क्रिया संजुक्तं ) इस प्रकार ऊपर कही हुई क्रियाओं से संयुक्त साधक (सुद्ध संमिक्त सार्धयं) शुद्ध सम्यक्त्व की साधना करता है (ध्यानं सुद्ध समयं च) और शुद्ध आत्मा के ध्यान में लीन रहता है (उत्कृस्टं स्रावगं धुवं ) २४५ वही निश्चय से उत्कृष्ट श्रावक साधक है। (साधऊ साधु लोकेन) वही साधक सच्चा साधु लोक में पूज्य है (रत्नत्रयं च संजुतं) जो निश्चय रत्नत्रय - सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से संयुक्त होता है (ध्यानं तिअर्थ सुद्धं च ) जो रत्नत्रय से शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है (अवधिं तेन दिस्टते) उसके अवधि ज्ञान दिखाई देने लगता है। विशेषार्थ जो सम्यकदृष्टि ज्ञानी अव्रत भाव से ऊपर उठकर व्रत धारण करता है, ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करता है वह उत्कृष्ट श्रावक (साधक) अपने में परिपूर्ण शुद्धात्मा की ध्यान साधना में रत रहता है। बाहर से समस्त आरम्भ, पाप-परिग्रह, विषयादि कषायों से मुक्त हो जाता है, जिसको संज्वलन कषाय का उदय होता है, वह साधक साधु पद धारण करता है, जो लोक में पूज्य होता है। निश्चय-व्यवहार से समन्वित रत्नत्रय - सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का धारी रत्नत्रय से शुद्ध, आत्मा का ध्यान करने वाला होता है जिसे अवधिज्ञान प्रगट हो जाता है। जो पंचेन्द्रिय के विषयों से विरक्त, आरम्भ परिग्रह से रहित और ज्ञान, ध्यान, तप में लवलीन हो वही साधु है। जिसे लोक स्थित जीव पुद्गलादि षट्द्रव्यों के यथार्थ स्वरूप पूर्वक शुद्ध आत्म द्रव्य की स्वाभाविक पर्यायों के और पुद्गल जनित वैभाविक पर्यायों के जानने से मिथ्याबुद्धि दूर होकर तत्व का सही निर्णय, सत्श्रद्धान और सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तब वह अपने शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति के लिये उसके साधक कारणों को • मिलाता है और बाधक कारणों को दूर करता है, इसी क्रिया को सम्यक्चारित्र कहते हैं। चारित्र की आरंभिक श्रेणी में हिंसादि पांच पापों का स्थूलपने त्याग होता है जिसे श्रावक धर्म या अणुव्रत कहते हैं इनके रक्षणार्थ तथा महाव्रतों की आरम्भिक क्रियाओं के शिक्षणार्थ दिग्व्रत आदि सप्त शीलों का पालन किया जाता है, जिसका फल यह होता है कि अणुव्रत, महाव्रतों को स्पर्शने लगते हैं और इनका पालक पुरुष •महाव्रत धारण करने का अधिकारी हो जाता है। चारित्र की उत्तर श्रेणी में हिंसादि पांच पापों का सम्पूर्णपने त्याग होता है इसे मुनि धर्म या महाव्रत कहते हैं। इसके निर्वाहन तथा रक्षणार्थ पांच समिति, तीन गुप्ति भी पालन की जाती हैं। जिसका फल यह होता है कि महाव्रत यथाख्यात Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6393 श्री आवकाचार जी ७ चारित्र को प्राप्त हो जाते हैं। मुनियों के उत्सर्ग-अपवाद दो मार्ग कहे गए हैं- १. उत्सर्ग मार्ग - जहां शुद्धोपयोग परम वीतराग संयम होता है वह उत्सर्ग मार्ग है। २. अपवाद मार्ग - जहां शुद्धोपयोग से बाह्य साधन आहार, बिहार, निहार, कमण्डल, पीछी आदि के ग्रहण त्याग युक्त शुभोपयोग रूप सराग संयम होता है उसे अपवाद मार्ग कहते हैं। इनमें अपवाद मार्ग, उत्सर्ग मार्ग का साधक होता है। आत्मज्ञान पूर्वक ध्यान में लवलीन रहना ही साधु का कर्तव्य है। अब साधु का आचरण क्रियाओं का पालन करना बतलाते हैं न्यानं चारित्र संपूर्न, क्रिया त्रेपन संजुतं । पंच व्रत समिदिच, गुप्ति त्रय प्रतिपालये ॥ ४४६ ॥ चारित्रं चरनं सुद्धं, समय सुद्धं च उच्यते । संपून ध्यान जोगेन, साधओ साधु लोकर्य ।। ४४७ ॥ अन्वयार्थ - (न्यानं चारित्र संपून) साधु सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से परिपूर्ण होते हैं (क्रिया त्रेपन संजुतं ) श्रावक की त्रेपन क्रियाओं सहित होते हैं (तपंच व्रत समिदि च) तप और महाव्रत, पांच समिति तथा (गुप्ति त्रय प्रतिपालये) तीन गुप्ति का पालन करते हैं। ( चारित्रं चरनं सुद्धं) इस व्यवहार चारित्र से निश्चय सम्यक्चारित्र शुद्ध होता है (समय सुद्धं च उच्यते) उसे ही शुद्धोपयोग रूप कहा जाता है (संपूर्न ध्यान जोगेन) जोयोग से ध्यान समाधि की (साधओ साधु लोकयं) साधना करते हैं वही साधु लोक में पूज्य होते हैं। विशेषार्थ - निर्ग्रन्थ जैन साधु शास्त्र ज्ञाता व आत्मज्ञानी होते हैं, पूर्ण चारित्र के अभ्यासी होते हैं, श्रावक की त्रेपन क्रिया (सम्यक्त्व, अष्ट मूलगुण, चार दान, रत्नत्रय की साधना, रात्रि भोजन त्याग, पानी छानकर पीना, ग्यारह प्रतिमा, बारह व्रत, बारह तप) सहित पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति का पालन करते हैं। बारह तप (छह बाह्य, छह अंतरंग) इनका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है, पांच महाव्रत का स्वरूप भी वर्णन किया जा चुका है, यहां संक्षेप में कहते हैं। पांच महाव्रत- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह जिनका आचरण पूर्ण रूपेण सावद्य की निवृत्ति और मोक्ष की प्राप्ति के लिये किया जाये वही महाव्रत SYARAT YAAAAN FANART YEAR. २४६ गाथा- ४४६, ४४७ है। जिनका आचरण महाशक्तिवान, पुण्यवान पुरुष ही कर सकते हैं। महाव्रत धारण करने वाला महान होता है और परमात्मा बनता है। पांच समिति-सम अर्थात् भले प्रकार शास्त्रोक्त, इति अर्थात् गमन आदि में प्रवृत्ति करना समिति है। इसमें समीचीन चेष्टा सहित आचरण होता है इसलिये यह व्रतों की रक्षक और पोषक हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है १. ईर्ष्या समिति - चार हाथ भूमि निरखकर, दिन में रौंदे हुए मार्ग में सम भाव से गमन करना ईर्या समिति है। अतिचार- गमन करते समय भूमि का भली-भांति अवलोकन नहीं करना, इधर-उधर देखते हुए चलना । २. भाषा समिति - शुद्ध, मिष्ट, अल्प वचन बोलना भाषा समिति है । अतिचार- देश काल के योग्य-अयोग्य विचार किये बिना बोलना, बिना पूछे बोलना, पूरा सुने जाने बिना बोलना । ३. एषणा समिति- आहार ग्रहण की प्रवृत्ति को एषणा समिति कहते हैं। शुद्ध भोजन, अनुद्दिष्ट अर्थात् जो अपने निमित्त से न बनाया हो, श्रावक ने अपने लिये बनाया हो, भिक्षा पूर्वक त्रिकुल अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के घर, तप चारित्र बढ़ाने के लिये संतोष पूर्वक दिन में एक बार हाथ में ही रखकर भोजन करना एषणा समिति है। अतिचार - दोष सहित भोजन करना, अति रस की लंपटता से प्रमाणाधिक भोजन करना । ४. आदान निक्षेपण समिति रखी हुई वस्तु को उठाना आदान और ग्रहण की हुई वस्तु को रखना निक्षेप कहलाता है। जिससे किसी जीव को बाधा न पहुंचे उस प्रकार शास्त्र, पीछी, कमण्डल आदि उठाना रखना आदान निक्षेपण समिति है। अतिचार - भूमि पर शरीर तथा उपकरणों को शीघ्रता से उठाना धरना, उतावली में प्रतिलेखन करना । ५. प्रतिष्ठापना समिति- जीव-जंतु रहित, बाधा रहित निर्दोष स्थान पर देख - शोध कर मल-मूत्र, कफ आदि क्षेपण करना प्रतिष्ठापना समिति है । अतिचार - अशुद्ध बिना देखे - शोधे भूमि पर मल-मूत्र आदि क्षेपण करना। बारह तप, पांच महाव्रत, पांच समिति का पालन करने से इन्द्रिय निरोध होता है, स्पर्शन आदि पंचेन्द्रियों के विषयों में लोलुपता होने से असंयम तथा कषायों की वृद्धि होकर चित्त में मलिनता और चंचलता होती है; इसलिये जिनको चित्त निर्मल तथा आत्म स्वरूप में स्थिर करना है, आत्म स्वरूप को साधना है, ऐसे साधु मुनियों Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-४४६,४४७ C OOO को कषायों के उत्पन्न न होने देने के लिये पांच इन्द्रियों के विषयों से सर्वथा विरक्त अभ्यास करते हैं, अरिहंत पद पर जाकर सिद्ध होने की भावना साधुगण सदा रखते। होना चाहिये। इसी प्रकार इन पांच इन्द्रियों को कुमार्ग में गमन कराने वाले चंचल मन हैं, ऐसे साधु ही जगत पूज्य होते हैं। को भी वश में करना आवश्यक है। यद्यपि मन किसी रस आदि विषय को ग्रहण नहीं .. बाईस परीषह जयकरता तथापि इन्द्रियों को विषयों की तरफ झुकाता है। इस तरह इन्द्रियों तथा मन के असाता वेदनीय आदि कर्मजनित अनेक दुःखों के कारण प्राप्त होने पर भी विषयों में राग-द्वेष रहित होना इन्द्रिय निरोध कहलाता है। इन्द्रिय निरोध होने पर ही खिन्ननहोना तथा उन्हें पूर्व संचित कर्मों का फल जानकर निर्जरा के निमित्त समता, तीन गुप्ति का पालन होता है। शांति भाव पूर्वक सहना परीषह जय है। यह बाईस प्रकार की होती हैं जिनका गुप्ति-जिसके द्वारा सम्यकदर्शन, ज्ञान,चारित्र गोपित अर्थात रक्षित होता स्वरूप इस प्रकार हैहै उसे गुप्ति कहते हैं। जैसे-कोट द्वारा नगर की रक्षा होती है, उसी प्रकार गुप्ति द्वारा। १.क्षुधा परीषह- भूख की वेदना को शांति पूर्वक खेद रहित सहना। मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम अथवा शुभाशुभ कर्मों से आत्मा की रक्षा की जाती है। २.तृषा परीषह-प्यास की वेदना को शांतिपूर्वक खेदरहित सहना। गुप्ति के तीन भेद हैं, जिनका स्वरूप इस प्रकार है ३.शीत परीषह-ठंड की वेदना को शांतिपूर्वक खेद रहित सहना। १.मनोगुप्ति-मन से राग-द्वेष आदि का परिहार करना, सांसारिक चिंतवन ४. ऊष्ण परीषह-गर्मी की बाधा को शांति पूर्वक खेद रहित सहना। से मन को बचाना मनोगुप्ति है। अतिचार-रागादि सहित स्वाध्याय में प्रवृत्ति, अंतरंग ५.दंशमसक परीषह-डांस, मच्छर आदि अनेक जीव-जंतुओं जनित दु:ख में अशुभ परिणामों का होना। को समभाव से सहना। २. वचन गुप्ति-असत् अभिप्राय से वचन की निवृत्ति कर मौन पूर्वक ध्यान, ६.नग्न परीषह-उपस्थ (काम) इन्द्रिय को वश में करना,नग्न रूप रहने अध्ययन, आत्म चिंतवन आदि करना वचन गुप्ति है। अतिचार- राग तथा गर्व से की लोकलाज को जीतना। बोलना अथवा मौन धारण करना। ७. अरति परीषह-द्वेष के कारण आने पर खेद रहित शांत चित्त रहना। ३. काय गुप्ति- शरीर को निश्चल रखना, देख-शोध कर आसन ८. स्त्री परीषह-स्त्रियों में व काम विकार में चित्त नहीं जाने देना। बदलना, आलस्य रूप न रहना, दो घड़ी से अधिक लगातार न सोना काय गुप्ति ९.चर्या परीषह-पैदल चलते हुए कांटे, कंकड आदि से खेद-खिन्ननहोना। है। अतिचार-असावधानीपूर्वक काय की क्रिया (मल-मूत्र, भोजन-पान, शयन) १०.निषद्या परीषह-उपसर्ग आने पर खेद-खिन्न न होनातथा उपसर्ग दूर करना,सचित्त भूमि में बैठना चलना। होने तक अपने स्थान से न हटना। मुनिराज मन-वचन-काय का निरोध करके आत्मध्यान में ऐसे लवलीन रहते . ११.शयन परीषह-कठोर, कंकरीली भूमि पर खेद न मानते हुए एक आसन हैं कि उनकी वीतरागी स्थिर मुद्रा को देखकर वन के मग आदि पश पाषाण या ठंठ ____ से अल्प निद्रा लेना। जानकर उनसे खाज खुजाते हैं, ऐसा होते हुए भी वे आत्मध्यान में ऐसे निमग्न रहते १२. आक्रोश परीषह-क्रोध के कारण आने पर क्षमा तथा शांति ग्रहण करना। हैं कि उन्हें इसका कुछ भी भान नहीं होता। निग्रंथ साधुगण तेरह प्रकार चारित्र को १३. वध बंधन परीषह-कोई बांधे या मारे तो खेद न मानते हुए शांति पूर्वक निर्दोष पालते हुए मुख्य लक्ष्य शुद्धात्मा के अनुभव रूप स्वरूपाचरण या निश्चय सहना। चारित्रशुद्धोपयोग पर ध्यान रखते हैं। पदस्थ, पिंडस्थ,रूपस्थ,रूपातीत ध्यान के १४. याचना परीषह-औषधि, भोजन पानी आदि किसी से नहीं मांगना। अभ्यास से नाना प्रकार के कठिन स्थानों में तिष्ठकर परम वैराग्य के साथ निज १५. अलाभ परीषह-भोजन आदि न मिलने पर उससे कर्म निर्जरा जानकर X आत्मा का अनुभव करते हैं। उपसर्ग,परीषहों को शांत भाव से सहन करते हैं। ध्यान शांत भाव रखना। के द्वारा निश्चय चारित्र की पूर्णता करते हैं अर्थात् श्रेणी माड़कर शुक्ल ध्यान का १६. रोग परीषह-शरीर में किसी प्रकार का रोग आने पर कातर न होना, २४७ MOctoberriver veaadierractatoda Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t o श्री आचकाचार जी गाथा-४४४-४५१ C OOO खेद न मानना, शांत रहना। साधना करते हैं वे साधु कहलाते हैं। तीन लोक और तीन काल में व लोकालोक में मैं १७. तृण स्पर्श परीषह-पांव में कठिन कंकड़ों, नुकीले तृणों के चुभने पर आत्मा ही शुद्धात्मा हूँ, एक अखण्ड अभेद अविनाशी सच्चिदानन्द घन स्वरूप को। भी शांत रहना। ही देखते हैं वही महात्मा और महाव्रतधारी साधु हैं। जो सर्वज्ञ वीतराग प्रभु हैं उस १८. मल परीषह-शरीर पर धूल आदि मल लगने पर ग्लानि, घृणा न होना। * रूप अपने आत्मा को द्रव्य दृष्टि से जानकर शुद्धात्म स्वरूप का एकाग्र होकर ध्यान ७ १९. सत्कार पुरस्कार परीषह-आप आदर सत्कार योग्य होते हुए भी कोई करना, तीन लोक में भरे हुए सर्व आत्माओं को शुद्ध नय के बल से शुद्धात्मा देखना, आदर सत्कार न करे, निंदा करे तो भी शांत रहना। सर्व जीवों को एक आत्मा मय देखना, परम समता भाव में लय हो जाना, सारे भेद २०.प्रज्ञा परीषह-विशेष ज्ञान होते हुए भी उसका अभिमान न करना। विकल्प मिट जाना, यही निश्चय सामायिक है और यही निश्चय महाव्रत है। यदि २१. अज्ञान परीषह-बहुत तपश्चरण आदि करने पर भी ज्ञान की प्राप्ति। यह महाव्रत न हुआ और मात्र बाहरी पांच महाव्रत पाले गये तो वह मोक्ष का साधन नहीं होती इसका खेद नहीं करना। नहीं होता। वास्तव में शुद्धात्मा के अनुभव को ही मोक्ष का साधन कहते हैं यही साधु २२. अदर्शन परीषह- तप बल से अनेक ऋद्धियां उत्पन्न होती हैं, मुझे का चारित्र है, इसको जो साधे वही महात्मा महाव्रती साधु है। अभी तक कुछ नहीं हुआ ऐसा जानकर धर्म श्रद्धान में संशय नहीं करना। जो निकट भव्य सम्यकज्ञान द्वारा हेय, उपादेय को भलीभांति जानकर महाव्रत इस प्रकार साधु सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और संयम से शुद्ध होकर शुद्ध धारण करके संवर-निर्जरा पूर्वक उसी पर्याय में मोक्ष प्राप्ति करना चाहते हैं वे तीन द्रव्यार्थिक नय से अपने शुद्धात्मा को ही सर्वत्र देखते हैं गुप्ति, पांच समिति, पंचाचार, दस धर्म, द्वादस तप का पालन और बाईस परीषह संमिक दर्सनं न्यानं, चारित्रं सुख संजमं । र सहन करते हुए धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान रूप आचरण भी करते हैं क्योंकि बिना जिन रूवी सुद्ध दर्वार्थ,साधओ साधु उच्यते॥ ४४८ ॥ S साधन के साध्य की सिद्धि नहीं होती, इसी बात को आगे गाथा में कहते हैंऊर्थ आर्थ मध्यं च, लोकालोक विलोकित। धर्म ध्यानं च संजुत्तं , प्रकासनं धर्म सुद्धयं । आत्मनं सुखात्मनं, महात्मं च महाव्रतं ॥ ४४९ ।। जिन उक्तं जस्य सर्वन्यं, वचनं तस्य प्रकासनं ॥ ४५०॥ अन्वयार्थ- (संमिक दर्सनंन्यानं) जो सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान (चारित्रं सुद्ध मिथ्यातं त्रिति सल्यं च, कुन्यानं त्रिति उच्यते । संजम) सम्यक्चारित्र पूर्वक शुद्ध संयम का पालन करते हैं (जिन रूवी सुद्ध दर्वार्थ) राग दोषं च जेतानि, तिक्तंते सुद्ध साधवा ।। ४५१॥ व्यवहार में जैसा जिनेन्द्र का रूप है अर्थात् निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी मुद्रा धारण कर 5 अन्वयार्थ-(धर्मध्यानंच संजुत्त) वे साधुधर्म ध्यान में संयुक्त रहते हैं (प्रकासनं जो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय धुव तत्व, शुद्धात्म स्वरूप की (साधओ साधु धर्म सुद्धयं) अपने शुद्ध स्वभाव रूपशुद्ध धर्म का प्रकाश करते हैं (जिन उक्तंजस्य उच्यते) साधना करते हैं वे साधु कहलाते हैं। 2 सर्वन्यं) जिनवाणी में जैसा सर्वज्ञ परमात्मा ने कहा है (वचनं तस्य प्रकासन) उसी (ऊर्ध आर्ध मध्यं च) जो तीन लोक और तीन काल में तथा (लोकालोक अनुसार अपने वचनों से धर्म का सत्य स्वरूप बतलाते हैं। ९ विलोकितं) लोकालोक में देखते हैं कि (आत्मनं सुद्धात्मन) आत्मा ही शुद्धात्मा है (मिथ्यातं त्रिति सल्यंच) जो मिथ्यात्व और तीन शल्य (कुन्यानं त्रिति उच्यते) (महात्मं च महाव्रतं) वही महात्म और महाव्रतधारी साधु हैं। तथा तीन कुज्ञान कहे गये हैं (राग दोषं च जेतानि) और जितने भी राग-द्वेषादि , विशेषार्थ-जो सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र पूर्वक शुद्ध संयम विभाव हैं उनको (तिक्तंते सुद्ध साधवा) छोड़ देते हैं वही सच्चे शुद्ध साधु हैं। का पालन करते हैं, व्यवहार में जिनेन्द्र का रूप अर्थात् निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी विशेषार्थ- चित्त वृत्ति को अन्य चिंताओं से रोककर एक ज्ञेय पर स्थिर करना मुद्रा धारण कर जो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय-ध्रुव तत्व शुद्धात्म स्वरूप की ध्यान कहलाता है। ध्यान का उत्कृष्ट काल उत्तम संहनन के धारक पुरुषों के लिये २४८ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ reOuी आपकाचार गाथा-४५०,४५१ Oo अन्तर्मुहूर्त कहा है अर्थात् वज्रर्ऋषभ नाराच, वजनाराच, नाराच संहनन के धारक छटेगुणस्थान में निदान बंध को छोड़कर शेष तीन आर्तध्यान होते हैं; परंतु सम्यक्त्व पुरुषों का अधिक से अधिक एक समय कम दो घड़ी (अड़तालीस मिनिट) तक एक अवस्था में मंद होने से तिर्यंच गति के कारण नहीं होते। ज्ञेय पर उपयोग स्थिर रह सकता है, पीछे दूसरे ज्ञेय पर ध्यान चला जाता है। इस रौद्र ध्यान- क्रूर निर्दय परिणामों का होना रौद्र ध्यान है। यह चार प्रकार प्रकार बदलता हुआ बहुत काल तक भी ध्यान हो सकता है। यह ध्यान अप्रशस्त का हैऔर प्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है। आर्त और रौद्र यह दो ध्यान अप्रशस्त हैं, १.हिंसानन्दी-जीवों को अपने तथा पर के द्वारा वधपीड़ित,ध्वंस घात होते, इनका फल निकृष्ट है, यह संसार परिभ्रमण के कारण नरक, तिर्यंच गति के दु:खों के हुए हर्ष मानना व पीड़ित करने, कराने का चिंतवन करना हिंसानन्दी रौद्र ध्यान है। मूल हैं और अनादि काल से स्वयं ही संसारी जीवों को हो रहे हैं इसलिये इनकी २. मृषानन्दी-आप असत्य झूठी कल्पनायें करके अथवा दूसरों के द्वारा वासना ऐसी दृढ़ हो रही है कि रोकते-रोकते भी उपयोग इनकी तरफ चला जाता है ऐसा होते हुए जानकर आनन्द मानना व असत्य भाषण करने, कराने का चिंतवन है। सम्यकज्ञानी पुरुष ही इनसे चित्त को निवृत्त कर सकते हैं। धर्म और शुक्ल यह दो करना मृषानन्दी रौद्र ध्यान है। ध्यान प्रशस्त हैं, इनका फल उत्तम है, यह स्वर्ग मोक्ष के सुख के मूल हैं। यह ध्यान ३. चौर्यानन्दी-चोरी करने, कराने का चिंतवन तथा दूसरों के द्वारा इन जीवों के कभी भी नहीं हए। यदि हए होते तो फिर संसार भ्रमण न करना पड़ता; कार्यों के होते हुए आनन्द मानना चौर्यानन्दी रौद्र ध्यान है। इसलिये इनकी वासना न होने से इनमें चित्त का लगना सहज नहीं है किंतु बहुत ही ४.परिग्रहानन्दी-क्रूर चित्त होकर बहुत आरम्भ, बहुत परिग्रह रूपसंकल्प कठिन है अतएव जिस प्रकार भी प्रयत्न करके इन ध्यानों का अभ्यास बढ़ाना चाहिये व चिंतवन करना या अपने-पराये परिग्रह को बढ़ने, बढ़ाने में आनन्द मानना और तत्व चिंतवन,आत्म चिंतवन में चित्त को स्थिर करना चाहिये। परिग्रहानन्दी रौद्र ध्यान है। यहां पर चारों ध्यान के सोलह भेदों का स्पष्ट रूप से वर्णन किया जाता है रौद्र ध्यान नरक गति के कारण हैं। यह पंचम गुणस्थान तक होते हैं; जिससे इनका स्वरूप भली-भांति जानकर अप्रशस्त ध्यानों से निवृत्ति और प्रशस्त सम्यक्त्व अवस्था में मंद होने से नरक गति के कारण नहीं होते। ध्यानों में प्रवृत्ति हो। धर्म ध्यान-सातिशय पुण्य बंध का कारण, शुद्धोपयोग का उत्पादक,शुभ आतं ध्यान-दःख मय परिणामों का होना आर्त ध्यान है। इसके चार भेद हैं- परिणाम धर्म ध्यान कहलाता है। इसके मुख्य चार भेद हैं १.इष्ट वियोगज-इष्ट, प्रिय स्त्री, पुत्र, धन-धान्य आदि तथा धर्मात्मा पुरुषों १.आज्ञा विषय-इस धर्म ध्यान में जैन सिद्धांत में प्रसिद्ध वस्तु स्वरूप को के वियोग से संक्लेश रूप परिणाम होना इष्ट वियोगज आर्त ध्यान है। सर्वज्ञ भगवान की आज्ञा की प्रधानता से यथा संभव परीक्षा पूर्वक चिंतवन करना २.अनि संयोगज-दु:खदाई अप्रिय स्त्री, पुत्र, भाई, पड़ौसी, पशु आदि और सूक्ष्म परमाणु आदि, अंतरित राम-रावण आदि, दूरवर्ती मेरू पर्वत आदि,ऐसे तथा पापी दुष्ट पुरुषों के संयोग से संक्लेश रूप परिणाम होना अनिष्ट संयोगज आर्त छद्मस्थ के प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणों के अगोचर पदार्थों को सर्वज्ञ वीतराग की ध्यान है। आज्ञा प्रमाण ही सिद्ध मानकर तद्रूप चिंतवन करना आज्ञा विचय धर्म ध्यान है। ३.पीडा चितवन-रोग के प्रकोपकी पीड़ा से संक्लेश रूप परिणाम होना व २. अपाय विचय-कर्मों का नाश, मोक्ष की प्राप्ति किन उपायों से हो इस र रोग के अभाव का चिंतवन करना पीड़ा चिंतवन आर्त ध्यान है। के प्रकार आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष आदितत्वों का चिंतवन करना अपाय विचय 2 ४. निदान बंध- आगामी काल में विषय भोगों की वांछा रूप संक्लेश धर्म ध्यान है। परिणाम होना निदान बंध आर्त ध्यान है। ३.विपाक विचय-द्रव्य, क्षेत्र, काल,भाव के निमित्त से अष्ट कर्मों के विपाक आर्त ध्यान संसार की परिपाटी से उत्पन्न और संसार का मूल कारण है। द्वारा आत्मा की क्या-क्या सुख-दु:ख आदि रूप अवस्था होती है उसका चितवन 5मुख्यतया यह ध्यान तिर्यंच गति ले जाने वाला है। पांचवें गुणस्थान तक चारों और करना विपाक विचय धर्म ध्यान है। २४९ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P ou श्री श्रावकाचार जी गाथा-४५२-४५५ C O U ४. संस्थान विषय- लोक तथा उसके ऊर्ध्व, मध्य, तिर्यक् लोक संबंधी (भव्य लोकैक तारक) भव्य जीवों को तारने वाले हैं (सुद्धं लोकलोकांत) जो लोक में विभागों तथा उसमें स्थित पदार्थों का, पंच परमेष्ठी का, अपने आत्मा का चिंतवन और लोक के अंत में सिद्ध परमात्मा हैं ऐसा ही शुद्ध मैं हूँ (ध्यानारूढं च साधवा) ऐसे करते हुए इनके स्वरूप में उपयोग स्थिर करना संस्थान विचय धर्म ध्यान है। इस शुद्धात्म स्वरूप के ध्यान में जो आरूढ़ रहते हैं वही साधु हैं। ध्यान के चार भेद हैं- पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत। (मनंच सुद्ध भावंच) मन से और भावों से शुद्ध (सुद्ध तत्वं च दिस्टते) शुद्धात्म यद्यपि यह धर्म ध्यान चौथे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक अर्थात् अव्रती स्वरूप को देखते हैं और (संमिक दर्सनं सुद्ध) शुद्ध सम्यक्दर्शन के धारी हैं (सुद्ध श्रावक से मुनियों तक होता है तथापि श्रावक अवस्था में आर्त-रौद्रध्यान के सद्भाव तिअर्थ संजुतं) शुद्ध रत्नत्रय से संयुक्त अर्थात् निश्चय सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र में से धर्मध्यान पूर्ण विकास को प्राप्त नहीं होता; इसलिये इसकी मुख्यता मुनियों के ही लीन रहते हैं वे ही तारण तरण सद्गुरु सच्चे साधु हैं। होती है। विशेषकर अप्रमत्त अवस्था में इसका साक्षात फल स्वर्ग और परम्परा से विशेषार्थ- निर्ग्रन्थ वीतरागी साधुतारण तरण होते हैं। जैसे- नौका आप तो शुद्धोपयोग पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होती है। तैरती है उसमें बैठने वालों को भी तार देती है, इसी प्रकार जो अपने आपको तो साधु स्वयं निर्दोष धर्म निज शुद्धात्म स्वरूप का साधन करते हैं वैसे ही वे तारते ही हैं और अपने उपदेश व शिक्षा से अनेक भव्य जीवों को शुद्ध धर्म मोक्ष के जगत के प्राणियों को शुद्ध धर्म का प्रकाश करते हैं, जिन वचनों पर उनका विश्वास मार्ग में लगा देते हैं, इस प्रकार साधु तारण तरण कहलाते हैं। है कि यह श्री सर्वज्ञ वीतराग अरिहन्त भगवान की परम्परा से कहा हुआ यथार्थ वस्तु सच्चे साधु अपने आत्मा का ध्यान करते हैं। जैसे लोक के अंत में सिद्ध स्वरूप है, उसी का वे उपदेश देते हैं। परम साम्य भाव से व मायाचार न करके जो परमात्मा विराजमान हैं और लोक में केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा हैं, वैसे ही मेरा जिनेन्द्र की आज्ञा है उसी के अनुसार कथन करते हैं वे ही जैन साधु हैं। । शुद्ध स्वरूप है, इसके ध्यान में सदा लवलीन रहते हैं और ऐसे ही शुद्धात्म तत्व का निर्दोष साधु का चारित्र पालन करने वाले के भीतर बहिरंग और अंतरंग उपदेश समस्त भव्य जीवों को देते हैं। मन से और भावों से शुद्ध होकर शुद्धात्म मिथ्यात्व नहीं होता है, न वहां कोई मायाचार और न ही निदान का भाव होता है, वह स्वरूप को देखते हैं, शुद्ध सम्यक्दर्शन के धारी रत्नत्रय से विभूषित साधु ही कपट रहित व भोगों की इच्छा रहित होकर साधु धर्म पालते हैं। उनको कुमति, तारण तरण सद्गुरु कहलाते हैं। कुश्रुत, कुअवधि तीन कुज्ञान नहीं होते हैं। सम्यक्त्व के प्रभाव से उनका सम्पूर्ण रत्नत्रय से शद्ध अपने शद्धात्म स्वरूप के ध्यान में साधुलीन रहते हैं, जिससे ज्ञान सुज्ञान रूपहोता है। वे राग-द्वेषादिभावों को जीतते हुए अपने आत्मध्यान की मन: पर्यय ज्ञान प्रगट हो जाता है। जो संसार को तृण के समान समझकर आत्म साधना में रत रहते हैं वही सच्चे शुद्ध साधु हैं। ध्यान में लीन रहते हैं वही सच्चे साधु हैं इसी बात को कहते हैंजो स्वयं तरते हैं और भव्य जीवों के तारणहार हैं, शुद्ध सम्यक्दर्शन, ज्ञान रत्नत्रयं सुख संपून, संपून ध्यानारूढ़यं । और ध्यान रूप चारित्र में लीन रहते हैं, वे निर्ग्रन्थ साधु तारण तरण होते हैं, इसी रिजु विपुलं च उत्पादंते,मनपर्जय न्यानं धुवं ॥४५४ ।। बात को आगे कहते हैंअप्पं च तारनं सुख, भव्य लोकैक तारकं । वैराग्यं त्रितियं सुख, संसारे तर्जति तुनं । सुख लोकलोकांत,ध्यानारूईच साधवा॥४५२॥ भूषन रयनत्तयं सुद्धं, ध्यानारूढ़ स्वात्म दर्सनं ।। ४५५॥ मनं च सुद्ध भावं च,सुद्ध तत्वं च दिस्टते। अन्वयार्थ- (रत्नत्रयं सुद्ध संपून) जो साधुशुद्ध रत्नत्रय से परिपूर्ण हैं (संपून ध्यानारूढ़यं) परिपूर्ण ध्यान में आरूढ़ हैं (रिजु विपुलं च उत्पादंते) उनके रिजुमति संमिक दर्सनं सुद्ध, सुखं तिअर्थ संजुतं ॥४५३॥ अथवा विपुलमति मन: पर्यय ज्ञान प्रगट हो जाता है (मनपर्जय न्यानं धुवं) इनमें अन्वयार्थ- (अप्पंच तारनं सुद्ध) जो निश्चय से अपने आपको तारते हैं और विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान शाश्वत होता है। com ore २५० Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COश्री बावकाचार जी (वैराग्यं त्रितियं सुद्धं) जिन साधुओं को संसार, शरीर, भोग तीनों से पूर्ण प्राप्त नहीं होती। इस प्रकार साधु का सकल संयम यथाख्यात चारित्र अर्थात् रत्नत्रय वैराग्य हो गया, जिन्होंने (संसारे तजंति तृनं) संसार का मोह तृण के समान जानकर की पूर्णता को प्राप्त कराता है। यद्यपि अष्टकर्मों कीनाशक रत्नत्रय की एकता एकदेश छोड़ दिया है (भूषन रयनत्तयं सुद्ध) शुद्ध रत्नत्रय ही जिनके आभूषण हैं (ध्यानारूढ़ श्रावक को भी होती है तथापि पूर्णता मुनि अवस्था में ही होती है। यह रत्नत्रय की स्वात्म दर्सन) ऐसे साधुध्यान में आरूढ़ रहते हुए अपने आत्मा का अनुभव करते हैं। पूर्णता मोक्ष की कारण मोक्ष स्वरूप है, संसार परिभ्रमण की नाशक है। विशेषार्थ- सम्यकदर्शन से रहित बाह्य आचरण रूप जो मुनिव्रत साधुपद जो जीव मोक्ष को प्राप्त हुए, वर्तमान में हो रहे हैं अथवा आगामी काल में धारण करते हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों के बहुधा अशुभ उपयोग रहता है. कदाचित होवेंगे यह सब इसी सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता का महात्म्य है। रत्नत्रय किसी के मन्द कषाय से शुभोपयोग भी हो तो सम्यक्त्व के बिना निरतिशय पुण्य बंध ही आत्मा का स्वभाव है, यही तीन लोक में पूज्य है। रत्नत्रय की एकता के बिना का कारण होता है, जो किंचित् सांसारिक (इन्द्रिय जनित) देवगति की सुख संपदा कोटियत्न करने पर भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। जितना कुछ क्रिया आचरण है का नाटक दिखाकर अंत में फिर अधोगति का पात्र बना देता है, ऐसा निरतिशय पुण्य वह सब इसी रत्नत्रय के सहकारी होने से धर्म कहलाता है। यह रत्नत्रय की एकता ही मोक्षमार्ग में सहकारी नहीं होता। 3 अद्भुत रसायन है जो जीव को अजर-अमर परमात्मा बना देती है। इस पूज्य जिस जीव के काललब्धि की निकटता से तत्व विचार पूर्वक आत्मानुभव या रत्नत्रय की एकता को हमारा बारम्बार नमस्कार है और यह हमारे हृदय में सदा सम्यक्दर्शन हो जाता है, उसी के सातिशय पुण्य बंध का कारण सच्चा शुभोपयोग विकासमान रहे ऐसी पवित्र भावना सहित साधु ध्यान में आरूढ रहते हैं, जिससे होता है। इस सम्यक्त्व सहित शुभोपयोग के अभ्यंतर ही दही में मक्खन की तरह रिजुमति और विपुलमति मन: पर्यय ज्ञान प्रगट हो जाता है जो केवलज्ञान को उत्पन्न शुद्धोपयोग की छटा झलकती है। ज्यों-ज्यों संयम बढ़ता जाता है त्यों-त्यों उपयोग करता है। विपुलमति मन: पर्यय ज्ञान तद्भव मोक्षगामी जीव को ही होता है, यह निर्मल होता जाता है अर्थात् शुद्धोपयोग की मात्रा बढ़ती जाती है। यह शुद्धोपयोग 6 दूसरे के मन में तिष्ठे हुए वर्तमान काल के, भूत व भविष्य काल के पदार्थों को भी का अंकुर चौथे गुणस्थान से शुभोपयोग की छाया में अव्यक्त बढ़ता हआ सातवें जान सकता है। संसार असार है. दु:खों का घर है. जन्म-जरा. रोग से पीडित है। गुणस्थान में व्यक्त हो जाता है। यहां पर अव्यक्त मंद कषायों के उदय से किंचित शरीर अशुचि है, नाशवान है। भोग, रोग के समान आताप को बढ़ाने वाले हैं इस मलिन होने पर भी यद्यपि इसे द्रव्यानुयोग की अपेक्षा शुद्धोपयोग कहा है क्योंकि १२ प्रकार समझकर संसार,शरीर, भोगों से जो पूर्ण वैराग्यवान हुए, जिन्होंने संसार को छद्मस्थ के अनुभव में उस मलिनता का भान नहीं होता तथापि यथार्थ में दसवें5 तृण के समान जानकर छोड़ दिया,शुद्ध रत्नत्रय को आत्मा का आभूषण बनाया और गुणस्थान के अनन्तर ही कषायों के उदय के सर्वथा अभाव होने से यथाख्यात चारित्र अपने आत्मा के दर्शन ज्ञान ध्यान में लीन रहते हैं वही सच्चे साधु हैं,जो संसार से रूप सच्चा शुद्धोपयोग होता है। । पार होकर अरिहन्त और सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं। यह स्पष्ट ही है कि अशुभोपयोग पापबंध का कारण,शुभोपयोग पुण्य बंध का इस प्रकार शुद्ध रत्नत्रय से परिपूर्ण साधु अनंत चतुष्टयमयी केवलज्ञान प्रगट कारण और शुद्धोपयोग बंध रहित (संवर पूर्वक) निर्जरा एवं मोक्ष का कारण है। इस * करने की भावना के साथ श्रेणी का आरोहण करते हैं उन्हें आठवें गुणस्थान से शुद्धोपयोग की पूर्णता निर्ग्रन्थ साधु पद धारण करने से ही होती है; इसलिये मुनिव्रत चौथी अरिहन्त पदवी प्रगट हो जाती है, इसी बात को आगे कहते हैंमोक्ष का असाधारण कारण है। जिस प्रकार श्रावक को बारह व्रत निर्दोष पालने से 5 केवलं भावनं कृत्वा,पदवी अर्हन्त सार्धयं । उसके कर्तव्य की पूर्णता होती है, उसी प्रकार मनिको पाँच महाव्रत. पाँच समिति. चरनं सुख समयं च,नंत चतुस्टय संजुतं ॥ ४५६ ।। तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार का चारित्र निर्दोष पालन करने से साधु के कर्तव्य की सिद्धि अर्थात् शुद्धोपयोग की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार तेरह प्रकार के चारित्र में से साधओ साधु लोकेन, तव व्रत क्रिया संजुतं । यथार्थ में तीन गुप्ति का पालन करना साधु का मुख्य कर्तव्य है, यह गुप्ति ही मोक्ष साधओ सुद्धध्यानस्य, साधओ मुक्ति गामिनो।। ४५७॥ की दाता, मोक्ष स्वरूप है। जब तक इनकी पूर्णता न हो, तब तक निष्कर्म अवस्था अन्वयार्थ- (केवलं भावनं कृत्वा) साधु केवलज्ञान प्राप्ति की भावना भाते हैं. २६२ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। You श्री आचकाचार जी गाथा-४५४ 0 (पदवी अर्हन्त सार्धयं) चौथी अरिहन्त पदवी की साधना करते हैं अर्थात् आठवे है। इसमें उपयोग की क्रिया नहीं है। क्योंकि यहां क्षयोपशम ज्ञान नहीं रहा, श्रुत के गुणस्थान से श्रेणी का आरोहण करते हैं (चरनं सुद्ध समयं च) शुद्धात्म स्वरूप में आश्रय की आवश्यकता नहीं रही कारण कि केवलज्ञान हो गया है। ध्यान का फल आचरण करते हैं (नंत चतुस्टय संजुत) अनन्त चतुष्टय स्वरूप आत्मा में लीन रहते जो उपयोग की स्थिरता है वह भी हो चुकी है। यहां वचन, मन योग और बादर काय योग का निरोध होकर सूक्ष्म काय योग का अवलंबन होता है, अंत में काय योग का (साधओ साधु लोकेन) ऐसे साधु ही जगत पूज्य होते हैं जो शुद्धात्मा की भी अभाव हो जाता है; अतएव इस कार्य के होने की अपेक्षा उपचार रूप से यहां के साधना करते हैं और (तव व्रत क्रिया संजुतं) तप व्रत क्रिया सहित (साधओ सुद्ध 5 सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति ध्यान कहा है। ध्यानस्य) शुक्ल ध्यान की साधना करते हैं (साधओ मुक्ति गामिनो) वही साधु ४. व्युपरत क्रिया निवृत्ति- इसमें श्वासोच्छ्वास की भी क्रिया नहीं रहती, मोक्षगामी हैं। । यह चौदहवें गुणस्थान में योगों के अभाव की अपेक्षा कहा गया है। विशेषार्थ-शुद्ध रत्नत्रय से परिपूर्ण साधु अनन्त चतुष्टयमयी केवलज्ञानस्वरूप इस प्रकार साधु पूर्ण शुद्ध मुक्त अरिहन्त, सिद्ध पद प्रगट कर जन्म-मरण से की भावना और साधना करते हैं, श्रेणी का आरोहण कर शुक्ल ध्यान रूप होते हैं,* रहित परमानन्दमयी परमात्मा पूर्ण मुक्त हो जाता है। यही साधक की चौथी अरिहन्त पदवी है। व्रत, तप, क्रिया से संयुक्त साधु ही जगत साधु पद से श्रेणी माड़कर शुक्ल ध्यान द्वारा घातिया कर्मों का अभाव होकर पूज्य होते हैं ऐसे साधु ही मोक्षगामी होते हैं। अनन्त चतुष्टयमयी केवलज्ञान स्वरूप अरिहन्त सर्वज्ञ पद प्रगट होता है, इसी बात शक्ल ध्यान-शुक्ल ध्यान क्रिया रहित, इन्द्रियों से अतीत,ध्यान की धारणा को आगे कहते हैंसे रहित अर्थात् मैं ध्यान करूं या ध्यान कर रहा हूँ ऐसे विकल्प से रहित होता है, अर्हन्तं अरहो देवं, सर्वन्यं केवलं धुवं । जिसमें चित्तवृत्ति अपने स्वरूप के सन्मुख होती है। इसके चार भेद हैं, उनमें प्रथम अनंतानंत दिस्टंच,केवलं दर्सन दर्सनं ॥ ४५८ ॥ पाया तीन शुभ संहननों में और शेष तीन पाये वजर्ऋषभ नाराच संहनन में ही होते हैं। आदि के दो भेद तो अंग पूर्व के पाठी छद्मस्थों के तथा शेष दो केवलियों के अन्वयार्थ- (अर्हन्तं अरहो देवं) अरिहन्त ही सच्चे देव हैं (सर्वन्यं केवलं होते हैं। यह चारों शुद्धोपयोग रूप हैं धुवं) जो सर्वज्ञ हैं, केवलज्ञानी हैं, शाश्वत हैं (अनंतानंत दिस्टं च) लोकालोक के १.पृथक्त्व वितर्क वीचार-यह ध्यान श्रुत के आधार से वितर्क सहित होता सर्व पदार्थों को देखने जानने वाले हैं (केवलं दर्सन दर्सन) जहां केवलदर्शन ही दर्शन है।मन, वचन, काय तीनों योगों में बदलता रहता है, अलग-अलगध्येय भी श्रुतज्ञान मात्र है। के आश्रय बदलते रहते हैं अर्थात् एक द्रव्य, गुण, पर्याय से दूसरे द्रव्य, गुण, पर्याय विशेषार्थ- साधु जिस पद की भावना भाते हैं वह शरीर सहित जीवन्मुक्त पर चला जाता है। यह आठवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है। इसके परमात्मा का पद अरिहन्त पद है, अरिहन्त ही सच्चे देव हैं जो सर्वज्ञ, केवलज्ञानी, फल से मोहनीय कर्म शांत होकर एकत्व वितर्क ध्यान की योग्यता होती है। वीतरागी, हितोपदेशी होते हैं। जिनके दर्शन ज्ञान में तीन लोक, तीन काल के २. एकत्व वितर्क वीचार- यह ध्यान भी श्रुत के आधार से होता है। तीनों समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायें एक समय में एक साथ झलकती हैं। जिनकी तीन रयोगों में से किसी एक योग द्वारा चितवन होता है, इसमें श्रुत ज्ञान बदलता नहीं 5 लोक और सौ इन्द्र वन्दना, पूजा, भक्ति करते हैं। जिनके अनन्त चतुष्टय प्रगट हो अर्थात् एक द्रव्य, एक गुण या एक पर्याय का, एक योग द्वारा चिंतवन होता है। यह गया है, जिनकी दिव्य ध्वनि में धर्म का सत्य स्वरूप प्रगट होता है, जो जगत के ध्यान बारहवें गुणस्थान में होता है। इससे घातिया कर्मों का अभाव होकर अनन्त भव्य जीवों के लिये कल्याणकारी हैं। अभी चार अघातिया कर्म शेष हैं, आयु पूर्ण ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य की प्राप्ति होती है। होने तक शरीर सहित रहते हैं, आयु पूर्ण होने पर सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं। ३. सक्ष्म क्रिया प्रतिपाति-यह ध्यान तेरहवें गुणस्थान के अंत में होता सिद्ध पद ही शाश्वत अविनाशी ध्रुव पद है, जहां से पुन: संसार में आवागमन २५२ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ reche PROu40 श्री श्रावकाचार जी गाथा-४५९-४६१ on नहीं होता, पूर्ण मुक्त शुद्ध सिद्ध परमात्मा ही सच्चे देव हैं, इसी बात को आगे कहते हैं- सदगुरू श्रीमद् जिन तारण स्वामी यहां यही भावना करते हैं कि हे जगत के सिद्ध सिद्धि संजुक्तं, अस्ट गुनं च संजुतं । भव्य जीवो ! शुद्ध सम्यक्त्व को धारण कर पंच परमेष्ठी पद की साधना करो इसी में अनाहतं विक्त रूपेन,सिद्धं सास्वतं धुवं ॥४५९॥ इस जीवन की सार्थकता है परमिस्टी साधनं कृत्वा, सुद्ध संमिक्त धारना। अन्वयार्थ- (सिद्ध सिद्धि संजुक्तं) सिद्ध भगवान आत्मा की सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं (अस्ट गुनं च संजुतं) और आठ गुणों से विभूषित हैं (अनाहतं विक्त रूपेन) ते नरा कर्म विपनं च,मुक्ति गामीन संसयः ।। ४६०॥ अनाहत, अव्याबाध स्वरूप प्रगट हो गया (सिद्ध सास्वतं धुवं) वे सिद्ध परमात्मा 2 त्रिविध ग्रंथ प्रोक्तंच, सार्थ न्यान मयं धुवं । शाश्वत ध्रुव हैं। धर्मार्थ काम मोज्यं च, प्राप्त परमेस्टी नमः॥४६१॥ विशेषार्थ- जो जीव आठों कर्मों से रहित अशरीरी पूर्ण शुद्ध मुक्त हो जाते हैं ये 5 अन्वयार्थ- (परमिस्टी साधनं कृत्वा) जो पंच परम इष्ट पद की साधना करते सिद्ध परमात्मा होते हैं जो शाश्वत पद है। चतुर्थ शुक्ल ध्यान के पूर्ण होते ही आत्मा हैं(सद्ध संमिक्त धारना) शद्ध सम्यक्त्व के धारी हैं (ते नरा कर्म षिपनंच) वे मनुष्य चारों अघातिया कर्मों का अभाव करके ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण एक ही समय में 2 कर्मों का क्षय करके (मुक्ति गामी न संसय:) मोक्षगामी होते हैं इसमें कोई संशय लोक के अग्र भाग अर्थात् अंत में जाकर सुस्थिर, सुप्रसिद्ध, सिद्ध, निकल परमात्मा नहीं है। हो जाता है। इसके एक-एक गुण की मुख्यता से परब्रह्म, परमेश्वर, मुक्तात्मा, स्वयं (त्रिविध ग्रंथं प्रोक्तंच) तीन प्रकार के पात्रों का इस ग्रंथ में स्वरूप कहा गया भू आदि अनंत नाम हैं। इस शुद्धात्मा का आकार चरम (अंतिम) शरीर से किचित् है-उत्तम. मध्यम. जघन्य (सार्ध न्यान मयं धुवं) जो अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव न्यून पुरुषाकार रहता है। इस निष्कम आत्मा के ज्ञानावरणीय कम क अभाव स5 की श्रद्धा और साधना करते हैं (धर्मार्थ काम मोष्यं च) इससे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष अनन्तज्ञान और दर्शनावरणीय कर्म के अभाव से अनन्त दर्शन की प्राप्ति होता है। चारों परुषार्थ सिद्ध होते हैं और (प्राप्तं परमेस्टी नम:) शाश्वत परमेष्टी सिद्ध पद अन्तराय कर्म के अभाव से ऐसी अनन्त वीर्य शक्ति उत्पन्न होती है जिससे खेद रहित प्राप्त होता है जिसे सभी भव्य जीव नमन करते हैं। परमानन्द मय रहता है। मोहनीय कर्म के अभाव होने से क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट हो विशेषार्थ- मोक्ष प्राप्ति का मल साधन- 'सम्यकदर्शनज्ञानचारित्राणि जाता है। आयु कर्म के अभाव से अवगाहनत्व गुण उत्पन्न होता है जिससे इस मुक्त र मोक्षमार्ग: है। भेदज्ञान पूर्वक शरीरादि से भिन्न जो जीव अपने शुद्धात्म स्वरूप की आत्मा के अनन्त काल स्थायीपने की शक्ति प्रगट हो जाती है। गोत्र कर्म के अभाव से , अनुभूति करते हैं वे शुद्ध सम्यक्दृष्टि हैं तथा वस्तु स्वरूप का ज्ञान करके जो आत्म अगुरुलघुत्व गुण उत्पन्न होता है जिससे सिद्ध परमात्मा हल्के-भारीपन से रहित हो । ९ स्वरूप की साधना के लिये समस्त पाप-परिग्रह, विषय-कषाय का त्याग करके जाते हैं। नामकर्म के अभाव से शरीर रहितपना अर्थात् सूक्ष्मत्व गुण की प्राप्ति होती 8 साधु पद धारण कर परमेष्ठी पद और आत्म ध्यान की साधना करते हैं उनके सम्पूर्ण है तथा वेदनीय कर्म के अभाव से अव्याबाधत्व गुण उत्पन्न हो जाता है। कर्म क्षय हो जाते हैं वे निश्चय मोक्षगामी होते हैं इसमें कोई संशय नहीं है। इस प्रकार मुक्त जीव यद्यपि व्यवहार नय की अपेक्षा अष्ट कर्मों के अभाव से यह संसारी आत्मा अनादिकाल से अपने स्वरूप को भूला पुद्गलों को ही अष्ट गुणमय कहा जाता है तथापि निश्चय नय से एक शुद्ध चैतन्य घन पिंड है। यह • अपना स्वरूप मानकर बहिरात्मा हो रहा है। जब काललब्धि तथा योग्य द्रव्य, क्षेत्र, संसारी आत्मा पुरुषार्थ करके इस प्रकार निष्कर्म परमात्मा, परमेश्वर्य अवस्था को काल, भाव का संयोग पाकर इसे अपना तथा पर का भेदविज्ञान होकर सम्यक्त्व प्राप्त हो सदा स्वाभाविक शांति रस पूर्ण स्वाधीन आनन्द मय, सदा के लिये। रूप आत्म स्वभाव का दृढ़ विश्वास, आत्मानुभूति होती है तब वह अन्तरात्मा 6 अजर-अमर हो जाता है, फिर जन्म-मरण नहीं करता। यह शुद्धात्मा सकल संयम होकर, पर पदार्थों से उपयोग हटाकर निजात्म स्वरूप में स्थित होने की उत्कट (मुनिव्रत) के धारण करने के फलस्वरूप निज गुणों के अति विकास रूप पूर्ण शुद्ध । इच्छा रूपस्वरूपाचरण चारित्र का आरम्भी तथा स्वात्मानुभवी हो जाता है पश्चात् | रूप सिद्ध परमात्मा हो जाता है। २६३ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSON श्री श्रावकाचार जी बारह व्रत रूपदेश चारित्र अंगीकार कर एकदेश आरम्भ परिग्रह का त्यागी अणुव्रता आविष्का .समस्त जड तत्वों को गति प्रदान करने वाला, सूक्ष्म से सूक्ष्म विचार होता है, जिसके फल से इसका उपयोग अपने स्वरूप में किंचित् स्थिर होने लगता है का प्रवर्तक क्या इतना तुच्छ है? कभी इस पर विचार किया? पनः मनिव्रत धारण कर तेरह विधि चारित्र रूप सकल संयम पालन करने से सर्वथा . यह गर्भ द्वारा आने वाला और यहां आकर अपने बुद्धि वैभव और चातुर्य द्वारा आरम्भ परिग्रह का त्यागी हो जाता है जिससे आत्मा का उपयोग पूर्ण रूप से निज विश्व में सनसनी पैदा करने वाला, मरने के बाद क्या पुनर्जन्म लेकर हमारे मध्य में स्वरूप में लीन होकर सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता पूर्वक ध्यान, ध्याता, नहीं आता? ऐसा क्या कुछ विचार किया है? धर्म भी उसी की उपज है और वस्तुत: ध्येय, ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय के भेद रहित हो जाता है, यही स्वरूपाचरण चारित्र की 2 उसी का नाम धर्म है। उसी का श्रद्धान सम्यक्दर्शन है, उसी का ज्ञान सम्यक्ज्ञान पूर्णता है। आत्मा इसी अद्भुत रसायन के बल से निर्बन्ध अवस्था को प्राप्त होकर आत्मा इसा अद्भुत रसायन क बल सनिबन्ध अवस्था का प्राप्त होकर औरती और उसी का आचरण सम्यक्चारित्र है यही सच्चा धर्म है। का आचरण उस वचनातीत आत्मीक स्वाधीन सुख को प्राप्त करता है,जोइन्द्र,धरणेन्द्र, चक्रवर्ती ! धर्म, मनुष्य समाज के लिये वरदान बनकर अमृतत्व की ओर ले जाने में को भी दुर्लभ है; क्योंकि इन इन्द्रादिकों का सुख लोक में सर्वोपरि प्रसिद्ध होते हुए 9 समर्थ होता है। आज विश्व में जितना कष्ट और अशांति है वह इसी के अभाव से भी आकुलतामय, परिमित तथा पराधीन है और सिद्ध अवस्था का सुख निराकुलित, है।आज का मनुष्य अपने भारतीय चारित्र को भुलाकर विलासिता,धनलिप्सा,भोग स्वाधीन तथा अनन्त काल तक रहने वाला स्थायी है । धन्य हैं वे महान पुरुषतष्णा के चक्र में पडकर क्या नहीं करता? और धर्म से विमुख होकर धर्म की हंसी जिन्होंने इस मनुष्य पर्याय को पाकर जन्म-मरण रोग का नाश कर सदा के लिये 5 उडाता है, धर्म को ढकोसला बतलाता है। क्यों न बतलाये ? जब वह धर्म का बाना अजर-अमर, अविनाशी मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त किया । ऐसे सम्पूर्ण जगत के धारण करने वालों को भी अपने ही समय धारण करने वालों को भी अपने ही समकक्ष पाता है तो उसकी आस्था धर्म से डिगना शिरोमणी सिद्ध परमेष्ठी जयवंत हों, मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। हैं स्वाभाविक है, इसमें किसका दोष है ? दोष है धर्म का यथार्थ रूप दृष्टि से ओझल हो हे मोक्ष सुख के इच्छुक, संसार भ्रमण से भयभीत भव्य जीवो! इस सुअवसर जाने का। जब धर्म भी वही रूप धारण कर लेता है जो धन का है, तब धन और धर्म में को हाथ से न गंवाओ, सांसारिक राग-द्वेष रूप अग्नि से तप्तायमान इस आत्मा को गठबन्धन हो जाने से धन. धर्म को ही आच्छादित कर देता है। आज धर्म भी धन का समता,शांति रसरूप अमृत से सिंचन कर अजर-अमर बनाओ, यही सच्चा पुरुषार्थ दास बन गया है। धर्म का कार्य आज धन के बिना नहीं चलता फलत: धर्म पर आस्था है, यही प्रयोजन और यही सर्वोत्कृष्ट इष्ट, परम इष्ट है। होतो कैसे हो? धन-भोग का प्रतिरूप है और धर्म-त्याग का प्रतिरूप है; अत: दोनों कर्म बंधन के विनाश के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं होती और कर्म बंधन का विनाश में तीन और छह जैसा सम्बन्ध है इस तथ्य को हृदयंगम करना आवश्यक है। कर्म बंधनों के कारणों से बचाव हुए बिना नहीं होता, इसीलिये मुक्ति के लिये कठोर " जैन धर्म के उपदेष्टा या प्रवर्तक सभी तीर्थंकर संसारी त्यागी तपस्वी महात्मा मार्ग अपनाना होता है। व्रत, तप, संयम यह सब मनुष्य के वैषयिक प्रवृत्ति को 5 हैं. उनके द्वारा धर्म के दो मुख्य भेद प्रकाश में आते हैं- मुनिधर्म और श्रावक धर्म। नियंत्रित करने के लिये हैं, इनके बिना आत्म साधना संभव नहीं है ; जबकि आत्म मनिधर्म ही उत्सर्ग धर्म माना गया है. मुनिधर्म के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो साधना करने का नाम ही साधुता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि शरीर को कष्ट देने से 3 सकती। जो मुनिधर्म धारण करने में असमर्थ होते हैं वह श्रावक धर्म अंगीकार करते ही मक्ति मिलती है। सच तो यह है कि आत्मज्ञान के बिना बाह्य साधनों की कोई दसी उद्देश्य को लेकर यह श्रावकाचार गंथ कहा गया हैउपयोगिता नहीं है, आत्म रति होने पर शारीरिक कष्ट का अनुभव ही नहीं होता। परमानंद आनंदं, जिन उक्तं सास्वतं पदं। हम जो मानव प्राणी हैं, जिन्होंने मनुष्य जाति में जन्म लिया है और अपनी आयु पूरी करके अवश्य ही बिदा होजायेंगे, क्या हम जड़ से भी गये गुजरे हैं? हमारा एकोदेस उवदेसं च,जिन तारण मुक्ति पंथं श्रुतं॥४६२॥ जड़ शरीर तो आग में राख होकर यहीं वर्तमान रहेगा और उस जड़ शरीर में रहने अन्वयार्थ- (परमानंद आनंद) आनन्द ही आनन्द परमानन्दमयी (जिन उक्तं वाला चैतन्य क्या शून्य में विलीन हो जायेगा? अनेक प्रकार के आविष्कारों का सास्वतं पदं) जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित शाश्वत सिद्ध पद है (एकोदेस उवदेसंच) २५४ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wcono श्री श्रावकाचार जी सम्पूर्ण उपदेश का एक ही उद्देश्य है कि (जिन तारण मुक्तिपंथं श्रुतं) यह अंतरात्मा धुवतत्ववंदनाऔरसम्यक्तुष्टिका विवेक । [जिन तारण] जिनागम के अनुसार मुक्ति मार्ग पर चले। धुवतत्वशुद्धातमतुमकोलायोप्रणाम विशेषार्थ- वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा कथित ध्रुव धाम के तुम हो वासी। प्रत्येक जीव आत्मा का अपना शाश्वत सिद्ध पद आनन्द परमानन्दमयी है। उसको तुम हो अजर अमर अविनाशी॥ प्राप्त करने के लिये ही बहिरात्मपने को छोड़कर अंतरात्मा बनकर परमात्म पद परम ब्रह्म परमातम, तुमको लाखों प्रणाम..... प्रगट किया जाता है। इसी उद्देश्य को लेकर यह श्रावकाचार का कथन किया है। अनंत चतुष्टय के तुम धारी। इसका भी मुख्य उद्देश्य यह है कि मुक्ति के मार्ग पर चलकर जिन तारण को सिद्ध तीन लोक से महिमा न्यारी॥ परम पद की प्राप्ति हो। सर्वज्ञ पूर्ण परमातम, तुमको लाखों प्रणाम..... ग्रंथ के कहने का उद्देश्य यही है कि भव्य जीवों को सिद्ध पद की प्राप्ति हो। रत्नत्रयमयी अरस अरूपी। जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट ही सत्य धर्म मार्ग है जो प्रत्येक द्रव्य और प्रत्येक जीव एक अखंड हो सिद्ध स्वरूपी॥ की स्वतंत्रता का उद्घोषक है। संसार का प्रत्येक जीव आत्मा स्वभाव से सिद्ध ब्रह्मानंद परमातम, तुमको लाखों प्रणाम..... परमात्मा के समान शुद्ध परमानन्दमयी पद वाला है। अपने ही अज्ञान से अपने ज्ञानानन्द स्वभाव तुम्हारा। स्वरूपको भूलकर मोह, मिथ्यात्व के कारण संसारी बना है। भेदज्ञान और सद्गरू भाव क्रिया पर्याय से न्यारा॥ द्वारा अपने स्वरूप का बोध प्राप्त करके अपने पुरुषार्थ से सिद्ध पद प्राप्त कर सकता ! चिदानंद ध्रुव आतम, तुमको लाखों प्रणाम..... है। इसी सत्य मार्ग पर चलने के उद्देश्य से यह श्रावकाचार ग्रंथ की रचना की है, जो अशरीरी अविकार निरंजन। अव्रत सम्यक्दृष्टि के लिये जिनागम के अनुसार मोक्ष प्राप्ति में साधन है। सब कर्मों से भिन्न भव भंजन॥ श्री जिन तारण तरण स्वामी द्वारा रचित यह श्रावकाचार ग्रंथ है, इसमें मोक्ष प्राप्ति का यथार्थ मार्ग बताया गया है। जो कोई भव्य जीव इस धर्म ग्रंथ को पढेंगे, सहजानंद शुद्धातम, तुमको लाखों प्रणाम..... चिंतन-मनन करेंगे उनको संसार से उद्धारक मोक्षमार्ग का यथार्थ ज्ञान होगा। इस सम्यक्दृष्टि ज्ञानी निरंतर निर्विकल्प अनुभव में नहीं रह सकते इसलिये मयता से प्रावकाचारकान के सी कारण इसमें अवत सम्यकतिउन्हें भी भक्ति आदि का राग आता है। ज्ञानी को हेय-उपादेय, इष्ट-अनिष्ट एवं एकदेश अणुव्रती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का विशेष रूप से कथन किया गया का विवेक वर्तता है तथा जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। कारण है। मोक्ष का पूर्ण साधक साधु मार्ग का उपदेश है उसकी इसमें गौणता है। अपना शुद्धात्म स्वरूप है, उसका ही लक्ष्य उसी की आराधना, स्तुति की जा ॐ रही है, तो कार्य भी शुद्धात्म स्वरूप परमात्मा होगा ; यदि पर का लक्ष्य जड़ ( श्रीमद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज विरचित) की पूजा स्तुति होगी तो वह शुभ भावों की अपेक्षा पुण्य बंध का कारण हो श्री श्रावकाचार नाम ग्रंथ की हिन्दी टीका मिती भाद्र पद कृष्ण २ सकती है; परंतु मूल में पर का आलंबन मिथ्यात्व और जड़ का आलंबन गृहीत | विक्रम संवत् २०४७ गुरुवार, दिनांक ९-८-१९९० को पिपरिया मिथ्यात्व घोर संसार के कारण हैं। इस बात का विवेक सम्यक्ढ़ष्टि ज्ञानी वर्षावास में पूर्ण हुई। को होता है। ज्ञानानन्द Utsapierretatabachravelated Dettold PART Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आचकाचार जी जत परिचय R OO व्रत परिचय व्रत पापों के त्याग को व्रत कहते हैं। अणुव्रत महाव्रत पाँच अणुव्रत तीन गुणव्रत चार शिक्षाव्रत पाँच महाव्रत पाँच समिति अहिसाणुव्रत सत्याणुव्रत अचौर्याणुव्रत ब्रह्मचर्याणुव्रत परिग्रह प्रमाण अणुव्रत दिग्द्रत देशव्रत अनर्थदण्ड व्रत सामायिक प्राषधोपवास भोगोपभोग परिमाण अतिथिसंविभाग अहिसा महाव्रत सत्य महाव्रत अचौर्य महाव्रत ब्रह्मचर्य महाव्रत अपरिग्रह महाव्रत ईर्या समिति भाषा समिति ऐषणा समिति आदान निक्षेपण समिति प्रतिष्ठापन समिति तीन गुप्ति मन गुप्ति वचन गुप्ति काय गुप्ति । पापों का एकदेश (आंशिक , निष्प्रयोजनीय पापों का )त्याग अणुव्रत __कहलाता है। । जो अणुव्रतों में गुणाकार रूप से वृद्धि करें उन्हें गुणव्रत कहते हैं। । जो साधु पद की शिक्षा देवें उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। । चतुर्थ गुणस्थानवर्ती श्रावक अव्रती और पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक देशव्रती होता है। → आत्म श्रद्धान पूर्वक संयम तप व्रतादि का पालन करना, निश्चय-व्यवहार से समन्वित मोक्षमार्ग पर चलना, आत्म कल्याण के लक्ष्य पूर्वक धर्म की साधना आराधना करना ही अपने लिये कल्याण कारी है। पापों का सर्वदेश पूर्णत: त्याग करने को महाव्रत कहते हैं। । सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करते हुए जीवों की रक्षा करना समिति है। । निश्चय से अपने स्वरूप में गमन परिणमन करना समिति है। । जसके बल से संसार के कारणों से आत्मा का गोपन अर्थात् रक्षा होती है ___ वह है। अपने आत्म स्वरूप में गुप्त रहना ही गुप्ति है। । छटवें गुणस्थान तथा उससे ऊपर सभी महाव्रती साधु होते हैं। । इन्द्रियों में रसना, कर्मों में मोहनीय कर्म, व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत और गुप्तियों में मन गुप्तियह चारों ही बड़े पुरुषार्थ से सिद्ध होते हैं। इंद्रिय और कषायों को जीतने वाला ही सच्चावीर पुरुष होता है। हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिगहेभ्यो विरतिक्तम् - हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिगह से विरत होना हीवत है। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आचकाचार जी पदवी सतक्षरी 0 पदवी सतक्षरी तारण पंथ अर्थात् मोक्ष मार्ग की आध्यात्मिक साधना पद्धति का विधान नन्द क. पदवी आचार सम्यवत्व रमण १. उपाध्याय पदवी (उपादेय) मति ज्ञान दर्शनाचार आज्ञा सम्यक्त्व उत्पन्न रंज भय षिपक रमण २. आचार्य पदवी श्रुत ज्ञान ज्ञानाचार वेदक सम्यक्त्व हितकार रंज अमिय रमण आनन्द ३. साधु पदवी अवधि ज्ञान वीर्याचार उपशम सम्यक्त्व सहकार रंज वैदिप्ति रमण चिदानन्द ४. अरिहन्त पदवी मन: पर्यय ज्ञान तपाचार क्षायिक सम्यक्त्व विन्यान रंज जिन रमण सहजानन्द ५. सिद्ध पदवी केवल ज्ञान चारित्राचार शुद्ध सम्यक्त्व जिन जिनय रंज जिननाथ रमण परमानन्द विशेष - श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज द्वारा विरचित श्री भय षिपनिक ममलपाहुड़ जी ग्रंथ के ६७ वें पदवी फूलना के आधार पर यह पदवी सतक्षरी प्रस्तुत की गई है। श्री ठिकानेसार में भी इसका उल्लेख है। यह तारण पंथ अर्थात् मोक्ष मार्ग की आध्यात्मिक साधना पद्धति का विधान है, जो श्री गुरू तारण स्वामी ने दिया है। यहां विशेष बात यह है कि अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु यह पांच पद परम इस्ट हैं। यह देव के गुण पांच पद हैं जो पूज्यता की अपेक्षा हैं तथा यह उपरोक्त पांच पदवी साधना की अपेक्षा से हैं। श्री गुरुदेव स्वयं आत्म साधक थे, उन्होंने इस पदवी सतक्षरी के अनुसार आध्यात्मिक आत्म साधना का वर्णन श्री ममलपाहुड़ ग्रंथ के अनेक फूलनाओं में तथा श्री श्रावकाचार जी, श्री ज्ञानसमुच्चयसार जी ग्रंथ में विशेष रूप से किया है, जो सुधीजनों द्वारा चिंतन-मनन योग्य विषय है। यह अपूर्व साधना पद्धति है जो हमें अपने आत्म कल्याण के मार्ग में दृढ़ करते हुए सिद्धि और मुक्ति को प्राप्त करने में साधन है। इसकी विशेष शोध-खोज हमें अपने मार्ग का बोध कराने के साथ-साथ सभी अर्थों में हितकारी होगी। व्रतों का धारण, समितियों का पालन, कषायों का निग्रह, मन वचन काय की प्रवृत्ति का त्याग और पांचों इन्द्रियों पर विजय करना | इसे संयम कहते हैं। सम्यक्चरित्र ही वस्तुत: धर्म है, यही मोक्ष महल में प्रवेश करने के लिये दार है। सम्यकदर्शन ज्ञान सहित जो सम भाव होता है वह चारित्र है । सम्यक्चारित्र छाया वृक्ष तुल्य है, जो संसार रूपी मार्ग में भमण करने से उत्पन्न हुई थकान को दूर करता है। क्षणभंगुर संयोग के लक्ष्य से होने वाले परिणाम क्षण में पलट जाते हैं, क्षय हो जाते हैं, विला जाते हैं; परंतु जब शाश्वत आत्मा का लक्ष्य करें तब परिणाम शुद्ध होते हैं और यह शुद्ध परिणाम शुद्ध रूप से शाश्वत बने रहते हैं। आनंद स्वरूप भगवान आत्मा का अद्भुत आश्चर्यकारी और गहन स्वभाव है। इस स्वभाव का लक्ष्य करना और इस मय ही रहना मुक्ति का मार्ग है। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O श्री श्रावकाचार जी साधक की स्थिति साधक की स्थिति होता है। कर्म बंधनों से सर्वथा मुक्त होना हो तो एक ही उद्देश्य हो- तत्व ज्ञान की प्राप्ति करना । परमात्म तत्व की ओर दृष्टि होते ही जीव आत्मा, कर्म प्रकृति से विमुख हो जाता है; और इसके लिये सांसारिक संग्रह में भोग बुद्धि, सुख बुद्धि और रस बुद्धि नहीं होना तथा निषिद्ध । अर्थात् उसके पौद्गलिक जगत और कर्म प्रकृति के साथ माने हुए संबंध का विच्छेद हो जाता है , आचरण, पाप, अन्याय, झूठ, कपट आदि का हृदय से त्याग कर देना तभी अपने स्वरूप में और तब वह अपने परमात्म स्वरूप में अपनी वास्तविक अभिन्न स्थिति का अनुभव करता है। तन्मयता होती है, जिससे समस्त कर्म बंध क्षय होते हैं। जिस प्रकार खेत में बोये हुए बीजों के अनुरूप उनके फल समय पर प्रगट होते हैं वैसे ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का होना भी जिस ज्ञान के प्रकाश में प्रकाशित होते हैं वह इस मानव शरीर से अहंकार पूर्वक किये हुए कर्मों के संस्कार रूप बीजों के फल अन्य शरीरों में ज्ञान नित्य निरंतर अखंड एक रस रहता है, उसी को अपना स्वरूप समझकर अभिन्न भाव से अथवा इसी शरीर में समय पर प्रगट होते हैं। शरीर, कर्म प्रकृति का कार्य है वह यहां प्राप्त नित्य निरंतर स्थित रहना तत्व ज्ञान है। होता है और यहीं नष्ट हो जाता है, जबकि जीव आत्मा, स्वयं इस जन्म से पहले भी था तथा 8 परमात्म तत्व कभी बदलता नहीं है, वह अटल ध्रुव नित्य शाश्वत है। साधक का लक्ष्य जन्म-जन्मांतर में भी ज्यों का त्यों रहता है। ॐ यदि पल-पल बदलते हुए पर पर्याय संसार से हटकर केवल इस अटल ध्रुव तत्व पर केन्द्रित हो शरीर आदि से अपने को पृथक् जान लेने पर शरीर आदि का कोई नाश नहीं होता एवं जाये तो उसे अविलम्ब परमात्म तत्व से अभिन्नता का बोध हो सकता है क्यों कि तत्व से तो जानने वाले को कोई हानि नहीं होती क्योंकि दोनों पहले से ही पृथक्-पृथक् हैं। नाश होता है पहले से ही अभिन्न है, केवल भूल से परिवर्तनशील और अनित्य की अर्थात संसार की ओर मात्र अज्ञान का, वस्तु स्थिति ज्यों की त्यों रहती है। ज्ञान केवल अज्ञान का विरोधी है न कि अभिमुख हो वह अपने आपको चलायमान संसारी मानने लगा, ध्रुव अचल तत्व में स्वाभाविक क्रिया के अनुष्ठान का । अज्ञान मिथ्यात्व के कारण शरीरादि के साथ एकता करके जीव दु:खों है स्थिति होने से यह भूल दुर हो सकती है। को भोग रहा था। ज्ञान हो जाने से अज्ञान के कार्य रूप संपूर्ण दु:ख मिट जाते हैं, कर्मों के बंधन यश प्रतिष्ठा आदि की कामना, दम्भ, हिंसा, क्रोध, कुटिलता, द्रोह, छूट जाते हैं। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी हो जाने से संपूर्ण दु:ख रूप कर्मों का अभाव होने लगता है, कोई अपवित्रता,अस्थिरता,इन्द्रियों की लोलुपता, राग, अहंकार, आसक्ति, ममता, विषमता,अश्रद्धा शारीरिक और व्यवहारिक क्रियाओं का अभाव नहीं होता। और कुसंग आदि दोष जीवन का पतन करने वाले हैं, इनके रहते हुए विशुद्ध तत्व का ज्ञान नहीं ___मनुष्य शरीर आत्म कल्याण करने, परमात्म तत्व की प्राप्ति के लिये मिला है। इस जन्म हो सकता। से पहले के जन्मों में मैने जो शुभ-अशुभ कर्म किये थे, उन्हीं का फल अब भोगना पड़ रहा है और क्रिया मात्र बंध का कारण नहीं है और समस्त क्रियायें कर्मोदय जन्य कर्म प्रकृति द्वारा अभी जो शुभ-अशुभ कर्म कर रहा हूँ उसे भोगने के लिये इस शरीर का नाश होने के पश्चात् भी पुद्गल में ही हो रही हैं। इनमें जो जीव अपने को इनका कर्ता मानता है वह कर्म से बंधता है और मेरी सत्ता रहेगी अर्थात् मैं स्वर्गादि चार गति चौरासी लाख योनियों में कहीं न कहीं रहूंगा और भेदज्ञान पूर्वक जो जीव भिन्न अकर्ता रहता है वह कर्म बंध से छूटता है और जो अपने स्वभाव इन कर्मों के फलों को भोगना पड़ेगा, ऐसा जानकर ज्ञानी इन कर्म फलों से छूटता है। में लीन हो जाता है वह पूर्ण मुक्त हो जाता है। यह नियम है कि प्रकृति के जिस कार्य, दृश्य वर्ग में राग होता है उसके विपरीत या विरोधी 5 इस प्रकार जीव के अज्ञान मिथ्यात्व के कारण से कर्मादि का निमित्त-नैमित्तिक पदार्थों से द्वेष उत्पन्न हो जाता है। वैसे ही चैतन्य चिन्मय स्वरूप होने से जितने अंश में आत्मा संबंध है। सम्यकदर्शन सम्यक्ज्ञान होने होने पर कर्तापन और निमित्त-नैमित्तिक संबंध छूट का पर्याय, संसार में राग होता है, उतना ही कर्म बंध होता है तथा उतने ही अंश में वह अपने जाता है तथा सम्यकचारित्र से मुक्त हो जाता है। चिन्मय स्वरूप से विमुख रहता है ; अत: देष के सर्वथा अभाव के लिये संसार में कहीं भी राग वर्तमान कर्म संयोग में अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति और घटना के नहीं करना चाहिये, जिसके राग-द्वेष का पूर्ण अभाव हो जाता है वही वीतरागी परमात्मा संयोग-वियोग में, मन में हलचल न होना ही साधक की स्थिति है। ३६८ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र DO रत्नत्रय : सिद्धान्त सूत्र वाला है। । स्वर्ग लोक में उत्पन्न हुए इन्द्र और अहमिन्द्रों के भी विषय भोगों को • राग-द्वेष का अभाव होने पर हिंसादि पांचों पापों की पूर्ण निवत्ति विष के समान दाह दुःख उत्पन्न करने वाले जानकर सम्यक्दृष्टि कभी स्वप्न में अर्थात् अभाव हो जाता है, पांच पापों का अभाव होना ही चारित्र है। भी उनकी वांछा नहीं करता है। 0 किसी जीव को करणलब्धि आदि कारण मिलने पर दर्शन मोह के इस दुःषम काल के जो मनुष्य हैं, वे अल्पायु और अल्पबुद्धि लिये हुए उपशम, क्षयोपशम, क्षय होने पर सम्यक्दर्शन होता है तब मिथ्यात्व का अभाव ८ हैं। इस काल में कषायों की आधीनता, विषयों की गृद्धता, बुद्धि की मन्दता, होने से ज्ञान भी सम्यक्ज्ञान हो जाता है, उस समय कोई सम्यकज्ञानी सज्जन । रोगों की अधिकता, ईर्ष्या की बहुलता, दरिद्रता आदि लिये ही उत्पन्न होते हैं पुरुष राग-द्वेष का पूर्ण अभाव करने के लिये चारित्र अंगीकार करता है। अतः सम्यक्ज्ञान प्राप्त करके कर्म को जीतने का उद्यम करना योग्य है। समस्त अन्तर-बाह्य परिग्रह से विरक्त जो अनगार अर्थात् गृह, मठ . बाह्य शरीर इन्द्रिय आदि को ही आत्मा जानने वाला बहिरात्मा है, वह आदि नियत स्थान रहित वनखण्डादि में परम दयाल होकर निरालम्वी विचरण विषयों की वेदना के इलाज को ही सुख मानता है। ऐसा मानना तो मोह कर्म करते हैं ऐसे ज्ञानी मुनीश्वरों को जो चारित्र होता है वह सकल चारित्र है। जनित भ्रम है। सुख तो ऐसा है जहां दुःख उत्पन्न ही न हो, उसका लक्षण गृह-कुटुम्ब आदि के त्यागी, अपने शरीर से निर्ममत्व रहने वाले साधुओं निराकुलता हा विषयाक आधान सुखमाननामिथ्या श्रद्धानह। को सकल चारित्र होता है। गृह, कुटुम्ब, धनादि सहित गहस्थों को विकल. जो सम्यक्त्व होता है, वह मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय का चारित्र होता है। ५ अभाव होने पर होता है। अव्रत सम्यक्दृष्टि गृहस्थ के मिथ्यात्व का अभाव इस संसार में सम्यकदर्शन ही दर्लभ है। सम्यकदर्शन ही ज्ञान और हुआ है और अनन्तानुबन्धी कषाय का भी अभाव हआ है। मिथ्यात्व के अभाव चारित्र का बीज है। सम्यकदर्शन ही उत्तम पद है. उत्कट ज्योति है. श्रेष्ठ तप से तो सच्चा आत्म तत्व और पर तत्व का श्रद्धान प्रगट हआ है। अनन्तानबन्धी इष्ट पदार्थो की सिद्धि है, परम मनोरथ है, अतीन्द्रिय सुख है, कल्याणों की परम्परा कषाय क अभाव स विपरात राग भाव का अभाव हुआ है; और ज्ञान श्रद्धान है। सम्यक्दर्शन के बिना सर्वज्ञान मिथ्याज्ञान, चारित्र मिथ्याचारित्र और तप की विपरीतता के अभाव से इसलोक भय, परलोक भय, मरण भय आदिसातों बाल तप कहलाता है। शुद्ध जीव का साक्षात् अनुभव होना वही यथार्थ भय अव्रत सम्यक्दृष्टि के नहीं हैं इसी कारण उसे अपनी आत्मा का अखण्ड सम्यक्दर्शन है। अविनाशी टंकोत्कीर्ण ज्ञान दर्शन स्वभाव का श्रद्धान होता है। ० सम्यक्त्व के गुण और मिथ्यात्व के दोषों को जानकर, सम्यक्त्वरूपी अनादिकाल का संसारी जीव सर्वज्ञ वीतराग द्वारा प्रकाशित धर्म रत्न को भाव पूर्वक धारण कर। यह सम्यक्दर्शन गुण रूपी रत्न सब रत्नों में सार कान को नहीं जानता है। इसी कारण से इसे यह भी ज्ञान नहीं है कि मैं कौन हूँ ? मेरा है और मोक्ष रूपी मन्दिर का पहला सोपान है। " स्वरूप कैसा है ? मुझे करने योग्य क्या है ? मेरा हित क्या है ? आराधने योग्य सम्यक्त्व सब रत्नों में महारत्न है, सब योगों में उत्तम योग है, सब कौन है ? मृत्यु-जीवन का क्या स्वरूप है ? भक्ष्य-अभक्ष्य का क्या स्वरूप ऋद्धियों में महाऋद्धि है, अधिक क्या ? सम्यक्त्व ही सब ऋद्धियों को करने है ? मेरा कौन है ? मैं किसका हूँ ? इत्यादि विचार रहित मोहनीय कर्म कृत अंधकार से आच्छादित हो रहे हैं। उनके अज्ञान रूप अंधकार को स्याद्वाद् रूप २६९ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Poon Ouक श्री श्रावकाचार जी रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र coom परमागम के प्रकाश से दूर कर स्वरूप और पर रूप का ज्ञान करना ही कल्याण - तत्वों की सम्यक् अर्थात् सच्ची श्रद्धा का नाम अथवा विपरीत कारी है। अभिनिवेश रहित प्रयोजनभूत जीवादि पदार्थों का श्रद्धान ही सम्यक्दर्शन है। ____- निज ज्ञायक स्वभाव आत्म द्रव्य के आश्रय से प्रगट एक समय की । अतत्व में तत्व बुद्धि, अदेव में देव बुद्धि, अधर्म में धर्म बुद्धि इत्यादि निर्मल पर्याय (सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र) को रत्नत्रय कहा है, उसके विपरीत अभिनिवेशरहित ज्ञान की ही 'सम्यक् विशेषण से कहने योग्य अवस्था फलस्वरूप केवलज्ञान पर्याय जो ज्ञान गुण की एक समय की पर्याय है वह विशेष को सम्यक्दर्शन कहा जाता है। महारत्न है; तो ऐसी अनन्त पर्यायों काधारक ज्ञान गुण भी महारत्न है। ऐसे ज्ञान - भूतार्थ नय के विषयभूत- शुद्ध समयसार शब्द से वाच्य, भावकर्म, आनन्द आदि अनन्त गुणों रूप महान-महान रत्नों का धारक आत्म द्रव्य तो , द्रव्यकर्म, नोकर्म आदि समस्त पर द्रव्यों से भिन्न परम चैतन्य विलास लक्षण महान रत्नों से भरा हुआ सागर है, उसकी महिमा का क्या कहना। अहो! ज्ञायक स्व शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचि ही सम्यक्दर्शन है। स्वभाव की महिमा वचनातीत है, इसकी महिमा अपार-अपार अनुभव गम्य द्रव्य, गुण, पर्याय के भेद का लक्ष्य छोड़कर, अभेद स्वभाव की ओर ही है। झुकने पर, कर्ता-कर्म-क्रिया के भेद का विभाग क्षय होता है और जीव निष्क्रिय । स्व-पर के विवेक से मोह का नाश किया जा सकता है। यह स्व-पर चिन्मात्र भाव को प्राप्त होता है यही सम्यक्दर्शन है। का विवेक जिनागम के द्वारा स्व-पर के लक्षणों को यथार्थतया जानकर करना अपने में ही आत्म स्वरूप का परिचय पाता है, कभी संदेह नहीं उपजता चाहिये। हैं और छल-कपट रहित वैराग्य भाव रहता है यही सम्यक्दर्शन का चिन्ह (लक्षण) । स्व-पर के यथार्थ श्रद्धान रूप तत्वार्थ श्रद्धान हो तब जीव सम्यक्त्वी ५ है। होता है ; इसलिये स्व-पर के श्रद्धान में शुद्धात्म श्रद्धान रूप निश्चय सम्यक्त्व । वास्तव में तो सम्यक्दर्शन पर्याय ही है; किन्तु जैसा गुण है वैसी ही गर्भित है। . उसकी पर्याय प्रगट हुई है, इस प्रकार गुण पर्याय की अभिन्नता बताने के लिये - द्रव्य के यथार्थ स्वरूप का श्रद्धान सम्यक्दर्शन का कारण है और कहीं-कहीं उसे सम्यक्त्व गुण भी कहा जाता है किन्तु वास्तव में सम्यक्त्व सम्यकदृष्टि जीव नियम से पंच परावर्तन का अभाव कर सादि अनन्त अविनाशी पर्याय है, गुण नहीं। जो गुण होता है वह त्रिकाल रहता है, सम्यक्त्व त्रिकाल पंचम गति अर्थात् मोक्ष सुख को प्राप्त करता है। ९ नहीं होता किंतु उसे जीव जब अपने सत्पुरुषार्थ से प्रगट करता है तब होता है - इकतीस सागर से अधिक आयु के धारक नव अनुदिश और पांच इसलिये वह पर्याय है। अनुत्तर ऐसे चौदह विमानों में उत्पन्न होने वाले देवों के परावर्तन अर्थात् पंच पहले आत्मा का आगम ज्ञान से ज्ञान स्वरूप निश्चय करके; फिर परावर्तन नहीं होता क्योंकि वे सब सम्यक्दृष्टि हैं। इन्द्रिय बुद्धि रूप मतिज्ञान को ज्ञानमात्र में ही मिलाकर तथा श्रुतज्ञान रूपी नयों - सम्यक्दृष्टि जीव कुगतियों में नहीं जाता है यदि कदाचित् वह जाता भी " के विकल्पों को मिटाकर श्रुतज्ञान को भी निर्विकल्प करके एक अखण्ड है तो इसमें सम्यक्त्व का दोष नहीं इससे वह पूर्व कृत कर्म का ही क्षय करता है। प्रतिभास का अनुभव करना ही सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान के नाम को प्राप्त जो सिद्ध हो चुके हैं, भविष्य में होंगे और वर्तमान में होते हैं वे सब करता है। सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान कहीं अनुभव से भिन्न नहीं हैं। निश्चय से आत्म दर्शन से ही सिद्ध हुए हैं यह भ्रांति रहित समझो। पर का कर्ता आत्मा नहीं, राग का भी कर्ता नहीं, राग से भिन्न ज्ञायक २६० Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्री आवकाचार जी मूर्ति हूँ, ऐसी अन्तर में प्रतीति करना ही सम्यक्दर्शन प्राप्त करने की विधि है । ऐसा समय मिला है जिसमें आत्मा को राग से भिन्न कर देना ही कर्तव्य है, अवसर चूकना बुद्धिमानी नहीं । सम्यकदृष्टि अपने निज स्वरूप को ज्ञाता दृष्टा, पर द्रव्यों से भिन्न, शाश्वत और अविनाशी जानता है। पर द्रव्य को तथा रागादिक को क्षणभंगुर, अशाश्वत, अपने स्वभाव से भली-भांति भिन्न जानता है इसलिये सम्यक्दृष्टि रागी नहीं होता । ] तीन लोक तीन काल में सम्यक्दर्शन के समान सुखदायक अन्य कुछ नहीं है । यह सम्यक्दर्शन ही समस्त धर्मों का मूल है, इस सम्यक्दर्शन के बिना सभी क्रियायें दुःख दायक हैं। सम्यक्दर्शन मोक्ष रूपी महल की प्रथम सीढ़ी है। सम्यक्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र सच्चाई प्राप्त नहीं करते; हे भव्य जीवो! ऐसे पवित्र सम्यक्दर्शन को धारण करो । [D] जिनेश्वर देव का कहा हुआ दर्शन सम्यक्दर्शन है वह गुणों में और दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों रत्नों में सार अर्थात् उत्तम है और मोक्ष मन्दिर में चढ़ने के लिये पहली सीढ़ी है। ] सम्यक्दर्शन की प्राप्ति के बाद संसार परिभ्रमण का न्यूनतम काल अन्तर्मुहूर्त और अधिकतम अर्द्धपुद्गल परावर्तन मात्र है। सम्यक्त्व की प्राप्ति सम्यक्दृष्टि जीव के सांसारिक दोषों का क्रमशः अभाव और आत्म गुणों की क्रमश: प्राप्ति अर्थात् शुद्धि का क्रम प्रारम्भ हो जाता है । [] जो प्राणी कषाय के आताप से तप्त हैं, इन्द्रिय विषय रूपी रोग से मूर्च्छित हैं और इष्ट वियोग तथा अनिष्ट संयोग से खेद खिन्न हैं उन सबके लिये सम्यक्त्व परम हितकारी औषधि है। [D] सम्यक्दर्शन सहित जीव का नरकवास भी श्रेष्ठ है परन्तु सम्यक्दर्शन रहित जीव का स्वर्ग में रहना भी शोभा नहीं देता; क्योंकि आत्मभान बिना स्वर्ग में भी वह दुःखी है, जहां आत्मज्ञान है वहीं सच्चा सुख है। YAN YASA YA. २६१ रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र जिस प्रकार समुद्र में डूबा हुआ अमूल्य रत्न पुन: हाथ नहीं आता, प्रकार मनुष्य शरीर, उत्तम श्रावक कुल और जिन वचनों का श्रवण आदि सुयोग भी बीत जाने के बाद पुनः प्राप्त नहीं होता । संशय, विमोह और विभ्रम से रहित सहज शुद्ध केवलज्ञान दर्शन स्वभावी निजात्म स्वरूप का ग्रहण, परिच्छेदन, परिच्छित्ति और पर द्रव्य का स्वरूप अर्थात् भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म का स्वरूप, पुद्गल आदि पांचों द्रव्यों का स्वरूप तथा अन्य जीव का स्वरूप जानना वह सम्यक्ज्ञान है। [D] सम्यक्दर्शन सहित सम्यक्ज्ञान को दृढ़ करना चाहिये। जिस प्रकार सूर्य समस्त पदार्थों को तथा स्वयं अपने को यथावत् दर्शाता है, उसी प्रकार जो अनेक धर्मयुक्त स्वयं अपने को अर्थात् निज आत्मा को तथा पर पदार्थों को ज्यों का त्यों बतलाता है उसे सम्यक्ज्ञान कहते हैं। [D] निश्चय भाव श्रुतज्ञान शुद्धात्मा के सन्मुख होने से सुख संवित्ति अर्थात् ज्ञान स्वरूप है । यद्यपि वह केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष है तथापि छद्मस्थों के क्षायिक ज्ञान की प्राप्ति न होने से क्षायोपशमिक होने पर भी उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है। [] मन:पर्ययज्ञान उत्तम ऋद्धिधारी भावलिंगी मुनियों को ही होता है और अवधिज्ञान चारों गतियों के सैनी पंचेन्द्रिय जीवों को होता है, यह स्वामी की अपेक्षा से भेद है । उत्कृष्ट अवधिज्ञान का क्षेत्र असंख्यात लोक प्रमाण तक है और मन:पर्ययज्ञान का ढाई द्वीप मनुष्य क्षेत्र है, यह क्षेत्र अपेक्षा भेद है । स्वामी तथा विषय के भेद से विशुद्धि में अन्तर जाना जा सकता है । अवधिज्ञान का विषय परमाणु पर्यंत रूपी पदार्थ है और मनः पर्यय का विषय मनोगत विकल्प हैं। 0 जो एक ही साथ सर्वतः सर्व आत्म प्रदेशों से तात्कालिक या अतात्कालिक विचित्र अर्थात् अनेक प्रकार के और विषम (मूर्त-अमूर्त आदि असमान जाति के) समस्त पदार्थों को जानता है उस ज्ञान को क्षायिक अर्थात् केवलज्ञान कहा है। निज शुद्धात्म तत्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र जिसका लक्षण Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to श्री श्रावकाचार जी रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र doo है, ऐसे एकाग्र ध्यान द्वारा केवलज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों का नाश होने → चारित्र को दो प्रकार का कहा है- प्रथम तो सम्यक्त्व का आचरण पर जो उत्पन्न होता है, वह एक समय में समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को कहा। वह जो सर्वज्ञ के आगम में तत्वार्थ का स्वरूप कहा उसको यथार्थ जानकर ग्रहण करने वाला सर्व प्रकार से उपादेयभूत केवलज्ञान है। श्रद्धान करना और उसके शंकादि अतिचार मल दोष कहे, उनका परिहार करके - सम्यक्दर्शन होने के बाद ही ज्ञान सम्यक्ज्ञान कहलाता है। सम्यक्दर्शन शुद्ध करना उसके नि:शंकितादि गुणों का प्रगट होना वह सम्यक्त्वाचरण चारित्र के बिना कितना भी क्षयोपशम रूप ज्ञान हो, मिथ्याज्ञान ही नाम पाता है; अत: है और जो महाव्रतादि अंगीकार करके सर्वज्ञ के आगम में कहे अनुसार संयम सम्यक्दर्शन कारण है और सम्यक्ज्ञान कार्य है। का आचरण करना तथा उसके अतिचार आदि दोषों को दर करना संयमाचरण पूर्व काल में जो जीव मोक्ष में गये हैं, वर्तमान में जा रहे हैं और भविष्य चारित्र है। में जायेंगे वह सब सम्यक्ज्ञान की महिमा है ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। पांच निज ज्ञायक भगवान आत्मा में सम्यक्दर्शन ज्ञान सहित स्थिरता पूर्वक इन्द्रियों के विषयों की इच्छा रूपी भयंकर दावानल संसारी जीवों रूपी अरण्य प्रगट शुद्धि को निश्चय सम्यक्चारित्र कहते हैं। को जला रहा है। उसकी शांति का उपाय दूसरा नहीं है, मात्र ज्ञानरूपी वर्षा का संसार के कारणों का नाश करने के लिये ज्ञानी को जो बाह्य और समूह शांत करता है। अंतरंग क्रियाओं का निरोध है, श्री जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित वह परम अर्थात् जिनागम में चारित्र के रूप में शुद्धि के साथ भूमिकानुसार वर्तने वाले निश्चय सम्यक्चारित्र है। शुभ भाव रूप व्यवहार चारित्र का ही मुख्यता से वर्णन है। उसमें भी पंचम जीव जब अनादि मोहनीय के उदय का अनुसरण करने वाली परिणति गुणस्थानवर्ती श्रावक को होने वाले अणुव्रतादि रूप देश व्यवहार चारित्र का १ करना छोड़कर अत्यन्त शुद्ध उपयोग वाला होता है तब भाव का एकरूपपना संक्षिप्त और भावलिंगी मुनिराज को होने वाले महाव्रतादि रूप सकल व्यवहार ग्रहण किया होने के कारण उसे जो नियत (निश्चित, एकरूप) गुण पर्यायपना चारित्र का प्रधानता से कथन है। होता है वह स्व समय अर्थात् स्व चारित्र है। वास्तव में सम्यक्चारित्र का प्रारम्भ निज स्वरूप में चरण अर्थात् रमण । जिस चारित्र के अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र के होने से समस्त रूप स्वरूपाचरण चारित्र से चतुर्थ गुणस्थान से प्रथम निर्विकल्प दशा से होता है। पर पदार्थों से वृत्ति हट जाती है, वर्णादि तथा रागादि से चैतन्य भाव को पृथक् और यही स्वरूपाचरण क्रमश: बढ़ती हुई शुद्धि के साथ-साथ देशचारित्र या 5 कर लिया जाता है, अपने आत्मा में, आत्मा के लिये, आत्मा द्वारा, अपने आत्मा सकलचारित्र नाम पाता हआ बारहवेंगुणस्थान में पूर्णता को प्राप्त होता है। S का ही अनुभव होने लगता है; वहां नय, प्रमाण, निक्षेप, गुण-गुणी, । सम्यक्ज्ञान से निज को और पर को जानकर और सम्यक्दर्शन से स्व ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय, ध्यान-ध्याता-ध्येय, कर्ता-कर्म और क्रिया आदि भेदों का और पर की प्रतीति करके जो पर भाव को छोड़ता है, वह आत्मा का निज शुद्ध किंचित् विकल्प नहीं रहता, शुद्ध उपयोग रूप अभेद रत्नत्रय द्वारा शुद्ध चैतन्य भाव ज्ञानी पुरुषों का चारित्र होता है। "काही अनुभव होने लगता है। जो विशुद्धता का उत्कृष्ट धाम है तथा योगीश्वरों का जीवन है और लज्जा, दया, मंदकषाय, श्रद्धा, दूसरों के दोष ढांकना, परोपकार, समस्त प्रकार की पाप रूप प्रवृत्तियों से दूर रहने का लक्षण है उसको सम्यक्चारित्र सौम्यदृष्टि, गुणग्राहकता, सहनशीलता, सर्वप्रियता, सत्यपक्ष, मिष्टवचन, कहते हैं। अग्रसोची, विशेषज्ञानी, शास्त्रज्ञान की मर्मज्ञता, कृतज्ञता, तत्वज्ञानी, धर्मात्मा, Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी न दीन न अभिमानी, मध्यम व्यवहारी, स्वाभाविक विनयवान, पापाचरण से रहित, ऐसे इक्कीस पवित्र गुण श्रावकों को ग्रहण करना चाहिये। निश्चय मोक्षमार्ग साक्षात् मोक्षमार्ग का साधक है तथा व्यवहार मोक्षमार्ग परम्परा से मोक्षमार्ग का साधक है अथवा व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्ग का साधक है अथवा व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्ष मार्ग का कारण है। ] दर्शन ज्ञान प्रधान चारित्र से यदि वह वीतराग हो तो मोक्ष प्राप्त होता है और उससे ही यदि वह सराग हो तो देवेन्द्र, असुरेन्द्र, नरेन्द्र के वैभव क्लेश रूप बन्ध की प्राप्ति होती है; इसलिये मुमुक्षुओं को इष्ट फल वाला होने से वीतराग चारित्र ग्रहण करने योग्य है और अनिष्ट फल वाला होने से सराग चारित्र त्यागने योग्य है। [D] सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र से विभूषित पुरुष यदि तप आदि गुणों में मन्द भी हो तो भी वह सिद्धि का पात्र है अर्थात् उसे सिद्धि की प्राप्ति होती है; किन्तु इसके विपरीत यदि रत्नत्रय से रहित पुरुष अन्य गुणों में महान भी हो तो भी वह कभी भी सिद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता है। वास्तव में कोई भी काल और क्षेत्र धर्म की प्राप्ति के लिये विघ्न कारक नहीं है अत: इस पंचम काल और भरत क्षेत्र में भी आत्म सन्मुखता अर्थात् सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र पूर्वक भावलिंगी मुनि इन्द्र आदि पद प्राप्त कर क्रम से मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। अभी इस पंचम काल में भी जो मुनि सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की शुद्धता युक्त होते हैं, वे आत्मा का ध्यान कर इन्द्र पद अथवा लोकांतिक देव पद को प्राप्त करते हैं। मुमुक्षु भव्य जीवों को प्रमाद का त्यागकर, शास्त्राभ्यास एवं ज्ञानी गुरू की देशना प्राप्त कर, पर द्रव्यों से भिन्न अपने आत्म स्वभाव का निर्णय कर, सर्वप्रथम सम्यक्दर्शन प्राप्त करना चाहिये; क्योंकि निश्चय सम्यक्दर्शन ज्ञान पूर्वक ही एकदेश चारित्र रूप श्रावक दशा और सकल चारित्र रूप मुनिदशा की प्राप्ति तथा क्रम से यथाख्यात रूप पूर्ण चारित्र की प्राप्ति होकर नियम से rochem.nc SYARATAN YA २६३ रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र मोक्ष गमन होता है । आत्मा ज्ञाता दृष्टा ही है। आत्मा ज्ञाता दृष्टा के उपयोग को जब पर पदार्थ की ओर लक्ष्य रखकर पर भाव में यह 'मैं' ऐसा दृढ़ कर लेता है तब यही संसार कहलाता है और जब स्व की ओर लक्ष्य करके उपयोग को स्व यह 'मैं' ऐसा दृढ़ कर लेता है तब यही मोक्ष कहलाता है । [] यह ऐहिक सुख वास्तविक सुख नहीं है। सुख वह है जहां दुःख नहीं है, धर्म वह है जहां अधर्म नहीं है, और शुभ वह है जहां अशुभ नहीं है । इन्द्रिय सुख पराधीन है, बाधाओं से घिरा हुआ है, सान्त है, बन्ध का कारण और विषम है इसलिये यह सुख वास्तव में दुःख ही है। [D] इन्द्रियों के विषय सेवन से जो सुख हुआ है, वह दुःख ही है; क्योंकि यह इन्द्रिय जनित सुख अनन्त संसार की संतति के क्लेशों को सम्पादन करने का कारण है और विद्वानों ने दुःख तथा दुःख के कारण को एक ही कहा है। सुख और धर्म वास्तव में आत्मा का स्वभाव है और यह दोनों अविनाभावी रूप से एक साथ आत्मा के आश्रय से ही प्रगट होते हैं। सुख और धर्म का प्रारम्भ सम्यक्दर्शन अर्थात् चौथे गुणस्थान से होकर पूर्णता मोक्ष में होती है। धर्म तो आत्मा का स्वभाव है, जो पर में आत्म बुद्धि छोड़कर अप ज्ञाता दृष्टा रूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव तथा ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तन रूप जो आचरण वही धर्म है । ] जीव का पर द्रव्यों में अहंकार, ममकार रूप परिणाम होना मोह है। विपरीत मान्यता, तत्वों का अश्रद्धान, विपरीत अभिप्राय, पर पदार्थों में एकत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व एवं सुख बुद्धि अर्थात् शरीर को अपना स्वरूप मानना, पंचेन्द्रिय के विषयों में सुख मानना, अनुकूल संयोगों में इष्ट और प्रतिकूल संयोगों में अनिष्ट बुद्धि रखना, स्वयं को पर का तथा पर को स्वयं का कर्ता-धर्ता मानना इत्यादि दर्शन मोहनीय (मिथ्यात्व) कर्म के उदय काल में निमित्त होने वाले जीव के श्रद्धा गुण के विकारी परिणामों को मोह कहते हैं। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 श्री आवकाचार जी जीव का किसी पर पदार्थ को इष्ट जानकर उसके प्रति प्रीति रूप परिणामों का होना राग है। माया, लोभ, हास्य, रति, तीन वेद- स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद रूप परिणाम और पर पदार्थों के प्रति आकर्षण, स्नेह, प्रेम, आसक्ति इत्यादि चारित्र मोहनीय कर्मोदय के समय निमित्त होने वाले जीव के चारित्र गुण विकारी परिणामों को राग कहते हैं। [D] जीव का किसी पर पदार्थ को अनिष्ट जानकर उसके प्रति अप्रीति रूप परिणामों का होना द्वेष है। क्रोध, मान, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और पर पदार्थों के प्रति घृणा, ईर्ष्या, जलन इत्यादि चारित्र मोहनीय कर्मोदय के समय निमित्त होने वाले जीव के चारित्र गुण के कषाय रूप विकारी परिणामों को द्वेष कहते हैं। मिथ्यादृष्टि की मर्यादा विकारी भावों तक है और ज्ञानी की मर्यादा शुद्ध भावों तक है लेकिन पर पदार्थों में ज्ञानी अथवा अज्ञानी कोई भी कुछ भी नहीं कर सकता। ऐसा जानकर अपनी आत्मा का आश्रय ले तो निज आत्मा की पहिचान हो । तत्व के आदर में सिद्ध गति अर्थात् मोक्ष है और तत्व के अनादर में निगोद गति अर्थात् संसार है। सिद्ध गति में जाते हुए बीच में एक-दो भव हों, उनकी गिनती नहीं है और निगोद में जाते हुए बीच में अमुक भव हों उनकी गिनती नहीं है: क्योंकि त्रस का काल थोड़ा है और निगोद का काल अनन्त है । तत्व के निरादर का फल निगोद गति और आदर का फल सिद्ध गति है । मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योग यह चार बन्ध अर्थात् संसार के कारण हैं और सम्यक्दर्शन, संयम, अकषाय और अयोग यह चार मोक्ष के कारण हैं। श्रुत देवता या जिनवाणी के प्रसाद से ही हमें यह ज्ञात होता है। कि पूजने योग्य कौन हैं और क्यों हैं ? तथा उनकी पूजा हमें किस प्रकार की करनी चाहिये इसलिये जिनवाणी भी पूज्य है। अगर शास्त्र न होते तो हम देव के स्वरूप को भी नहीं जान सकते थे, फिर जिनवाणी स्याद्वाद नय गर्भित है । 20 Your YA YA YES. २६४ रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र [] जो भक्ति पूर्वक श्रुत को पूजते हैं वे परमार्थ से जिनदेव को ही पूजते हैं। क्योंकि सर्वज्ञ देवने श्रुत और देव में थोड़ा सा भी भेद नहीं कहा है। • शुभ भाव पुण्य के लिये और अशुभ भाव पाप के लिये होता है इसलिये भावों में विकार होने पर धीर पुरुष को जिन शासन के अनुराग से रक्षा करना चाहिये। तप का कारण होने से ज्ञान पूज्य है और ज्ञान के अतिशय का कारण होने से तप पूज्य है तथा मोक्ष का कारण होने से ज्ञान और तप दोनों पूज्य हैं। [] जघन्य पात्र, मध्यम पात्र, उत्तम पात्र तथा कुपात्र को दान देने वाला मिथ्यादृष्टि जघन्य भोगभूमि, मध्यम भोगभूमि, उत्तम भोगभूमि में, भोग बाकी बचे पुण्य से यथायोग्य देव होता है। [D] सम्यकदृष्टि सुपात्र दान से होने वाले पुण्य के उदय से उत्तम भोगभूमि, महार्द्धिक कल्पवासी देव और चक्रवर्ती आदि पदों को यथेष्ट भोगकर मोक्ष पद को पाता है। मुनि को उत्तम पात्र, अणुव्रती श्रावक को मध्यम पात्र, सम्यकदृष्टि को जघन्य पात्र, सम्यक्दर्शन से रहित व्रती को कुपात्र तथा सम्यक्दर्शन और व्रत से रहित को अपात्र कहते हैं। • जो रत्नत्रय से रहित है, मिथ्या धर्म में आसक्त है वह कितना भी घोर तप करे फिर भी वह कुपात्र है। जिसमें न तप है, न चारित्र है, न कोई उत्कृष्ट गुण है उसे अपात्र जानों उसको दान देना व्यर्थ है। [D] अपने कल्याण के इच्छुक गृहस्थ को अपनी तथा देश, काल, स्थान और सहायकों की अच्छी तरह समीक्षा करके व्रत ग्रहण करना चाहिये और ग्रहण किये हुए व्रत को प्रयत्न पूर्वक पालना चाहिये । प्रमाद से या मद में आकर यदि व्रत में दोष लग जाये तो तत्काल प्रायश्चित लेकर पुन: व्रत ग्रहण करना चाहिये । [0] दयालु श्रावकों को सदा सभी अनन्त काय वनस्पति त्यागनी चाहिये क्योंकि उनमें से जो एक भी संख्या वाली अनन्त काय वनस्पति को खाने Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04 श्री आपकाचार जी रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र Oo आदि के द्वारा मारने में प्रवृत्त होता है वह अनन्त जीवों का घात करता है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र अर्थात् रत्नत्रय रूपी नाव के द्वारा तैरता - दयालु श्रावक कच्चे अर्थात् जिसे आग पर नहीं पकाया गया है ऐसे है तथा दूसरों के तैरने को निमित्त है इसलिये यह जीव ही तीर्थ है। दूध, दही और बिना पकाये दूध से तैयार हुए मठे के साथ मिले हुए द्विदल अर्थात् मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी मूंग, उड़द आदि धान्य को न खावे तथा प्राय: करके पुराने द्विदल को न खावे क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उपशम होने से तथा वर्षाऋतु में बिना दले हुए द्विदल को और पत्ते की शाक-भाजी को उपशम सम्यक्त्व होता है और इन सातों प्रकृतियों के क्षय होने से क्षायिक सम्यक्त्व नखावे। होता है। यह क्षायिक सम्यक्त्व केवलज्ञानी तथा श्रुतकेवली के निकट कर्म - नित्य शुद्ध चिदानन्द रूप कारण परमात्म स्वरूप जीव को भूमि के मनुष्य को ही उत्पन्न होता है। द्रव्यकर्म तथा भावकर्म के ग्रहण के योग्य विभाव परिणति का अभाव होने से क्षायिकसम्यक्त्व का प्रारम्भ तो केवली. श्रुतकेवली के निकट मनुष्य जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक नहीं है। ॐ को ही होता है और निष्ठापन अन्य गति में भी होता है। - जिन्होंने वस्तु स्वरूप जान लिया है, जो सर्व सावद्य से दूर हैं, मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व के उदय का प्रभाव हो, सम्यक्त्व प्रकृति जिन्होंने स्व हित में चित्त को स्थापित किया है, जिनका सर्व प्रचार शांत हुआ का उदय हो, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ के उदय का अभाव हो है, जिनकी भाषा स्व-पर को हितरूप है, जो सर्व संकल्प रहित हैं, वे विमुक्त अथवा उनका विसंयोजन करके अप्रत्याख्यानावरण आदिक रूप से उदयमान पुरुष इस लोक में अवश्य ही मोक्ष के पात्र हैं। ? हो तब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। - जो सम्यक्दृष्टि समस्त कर्म, नोकर्म के समूह को छोड़ता है, उस सम्यक्दृष्टि मरकर द्वितीयादिक नरकों में नहीं जाता है, ज्योतिषी व्यन्तर सम्यक्ज्ञान की मूर्ति को सदा प्रत्याख्यान है और पाप समूह का नाश करने वाला भवनवासी देव नहीं होता है, स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता, पाँच स्थावर, ऐसा सत्वारित्र उसे अतिशय रूप से है, भव-भव के क्लेश का नाश करने के विकलत्रय, असैनी, निगोद, म्लेच्छ, कुभोगभूमि इन सबमें उत्पन्न नहीं लिये उसे मैं नित्य वन्दन करता हूँ। 5 होता है। - स्वयं किये हुए कर्म के फलानुबन्ध को स्वयं भोगने के लिये तू अकेला सम्यक्दर्शन के शंकादिक अतिचार रहित परिणाम सो दर्शन विनय जन्म में तथा मृत्यु में प्रवेश करता है, अन्य कोई स्त्री, पुत्र, मित्रादि सुख-दुःख है। ज्ञान का संशयादि रहित परिणाम से अष्टांग अभ्यास करना सो ज्ञानविनय के प्रकारों में बिल्कुल सहायभूत नहीं होता। है। चारित्र को अहिंसादिक परिणाम से अतिचाररहित पालना सो चारित्रविनय चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुसार होता है, इस प्रकार वे ई है। तप के भेदों का देखभालकर दोष रहित पालन करना सो तपविनय है। दोनों परस्पर अपेक्षा सहित हैं; इसलिये या तो द्रव्य का आश्रय करके अथवा तो जो पूजा महिमा आदि के लिये शास्त्र को पढ़ता है उसको शास्त्र का चरण का आश्रय करके मुमुक्षु मोक्षमार्ग में आरोहण करो। पढ़ना सुखकारी नहीं है। अपने कर्मक्षय के निमित्त जिन शास्त्रों को पढ़े उसको । क्रोध कषाय को क्षमा से, मान कषाय को मार्दव से, माया कषाय को ही सुखकारी है। ह आर्जव की प्राप्ति से और लोभ कषाय को शौच अर्थात् संतोष से जीतो। ध्यान परमार्थ से ज्ञान का उपयोग ही है। जो ज्ञान का उपयोग एक ज्ञेय 9) - जो तैरता है तथा जिससे तैरा जाता है उसको तीर्थ कहते हैं। यह जीव वस्तु में अन्तर्मुहूर्त मात्र एकाग्र ठहरता है सोध्यान है वह शुभ भी है और अशुभ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी भी है ऐसे दो प्रकार का है। 0 आर्त- रौद्र दोनों ही ध्यान अशुभ हैं तथा पाप से भरे हैं और दुःख ही की संतति इनसे चलती है इसलिये इनको छोड़कर धर्मध्यान करने का श्री गुरू का उपदेश है। ध्यान का स्वरूप एक ज्ञेय में एकाग्र होना है। जो पुरुष धर्म में एकाग्र चित्त करता है, उस काल इन्द्रिय विषयों को नहीं वेदता है उसके धर्मध्यान होता है। इसका मूल कारण संसार, देह, भोग से वैराग्य है, बिना वैराग्य के धर्म में चित्त रुकता नहीं है। [D] ऐसा सत्य वचन भी नहीं कहे, जिससे अपना और दूसरों का बिगाड़ जो जाये, आपत्ति आ जाये, अनर्थ पैदा हो जाये, दुःख पैदा हो जाये, मर्म छिद जाये, राजा से दण्ड हो जाये, धन की हानि हो जाये, ऐसा सत्य वचन भी झूठ ही है । समस्त पापों का मूल कारण परिग्रह है, समस्त खोटे ध्यान परिग्रह से ही होते हैं; इसीलिये भगवान ने मूर्च्छा को परिग्रह कहा है। [] अहिंसा धर्म, मोक्ष का कारण तथा संसार के समस्त परिभ्रमण के दुःख रूप रोग को मिटाने के लिये अमृत के समान है । इसे प्राप्त करके, अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों के अयोग्य आचरण व्यवहार देखकर अपने परिणामों में आकुल नहीं होना चाहिये। mask sex is mest sex is most resis रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र है, जैसे- कांजी डालने से दूध फट जाता है। मायाचारी अपना कपट बहुत छिपाता है किन्तु वह प्रगट हुए बिना नहीं रहता है। दूसरे जीवों की चुगली करना व दोष बतलाना, वे स्वयं ही प्रगट हो जाते हैं। मायाचार करना तो अपनी प्रतीति बिगाड़ना है, धर्म का बिगाड़ना है । मायाचारी से समस्त हितैषी बिना किये ही बैरी हो जाते हैं। सत्य के प्रभाव से देव भी सेवा करते हैं। सत्य सहित ही अणुव्रत, महाव्रत होते हैं। सत्य के बिना समस्त व्रत संयम नष्ट हो जाते हैं। सत्य से सभी आपत्तियों का नाश होता है अतः जो भी वचन बोलो वह अपने और पर के हित रूप कहो, प्रामाणिक कहो, किसी को दुःख उत्पन्न करने वाला वचन नहीं कहो । जो पांच पापों में प्रवर्तने वाले हैं वे सदाकाल मलिन हैं। जो पर के उपकार का लोप करते हैं वे कृतघ्नी सदा ही मलिन हैं। जो गुरुद्रोही, धर्मद्रोही, स्वामीद्रोही, मित्रद्रोही उपकार को लोपने वाले हैं उनके पाप का संतान क्रम असंख्यात भवों तक करोड़ों तीर्थों में स्नान करने से, दान करने से भी दूर नहीं होता है। विश्वासघाती सदा ही मलिन है। ] पांच समितियों का पालन करना, क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों का निग्रह करना, मन-वचन-काय की अशुभ प्रवृत्ति रूप तीन दण्डों का त्याग करना तथा विषयों में दौड़ने वाली पांच इन्द्रियों को वश में करना संयम है। ] क्रोध दोनों लोकों का नाश करने वाला है, महापाप बन्ध कराकर नरक पहुंचाता है, बुद्धि भ्रष्ट करता है, निर्दयी बनाता है, दूसरों के द्वारा किये गये उपकार को भुलाकर कृतघ्नी बना देता है अतः क्रोध के समान अन्य पाप नहीं है। इस लोक में क्रोधादि कषायों के समान अपना घात करने वाला दूसरा नहीं है । ] इच्छा का निरोध करना तप है। तप, चार आराधनाओं में प्रधान है। जैसे- स्वर्ण को तपाने से सोलह बार पूर्ण ऊष्णता (ताप) देने पर वह समस्त मैल छोड़कर शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी बारह प्रकार के तपों के प्रभाव से कर्ममल रहित होकर शुद्ध हो जाता है । कोमल परिणामों द्वारा दोनों लोकों की सिद्धि होती है- कोमल परिणामी का इस लोक में सुयश होता है, परलोक में देवगति में देवगति की 5 प्राप्ति होती है। कोमल परिणामों से ही अंतरंग-बहिरंग तप शोभित होते हैं। अभिमानी का तप भी निन्दा योग्य है। कोमल परिणामी से तीनों लोकों के जीवों का मन प्रसन्न रहता है। जगत में निर्मल कीर्ति दान से ही फैलती है। दान देने से बैरी भी बैर छोड़ देते हैं, चरणों में झुक जाते हैं, अपना अहित करने वाला भी मित्र हो जाता है। जगत में दान बड़ा है, सच्ची भक्ति से थोड़ा सा भी दान देने वाला जीव भोग भूमि के भोगों को तीन पल्य पर्यन्त भोग कर देव लोक में चला जाता है। जिस समय मायाचार जान लिया जाता है, उसी समय प्रीति भंग हो जाती २६६ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You श्री आचकाचार जी रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र Oo । मिथ्यात्व नाम कर्म के उदय से अपने स्वरूप के ज्ञान से रहित होकर देह करता हुआ भी उसी प्रकार से रहता है। आदि पर द्रव्यों को अपना स्वरूप जानकर अनन्त काल से मैने परिभ्रमण किया । संसार संबंधी कोई भी वस्तु रमणीय नहीं है, इस प्रकार हमें गुरू। है। अब कोई आवरण आदि के किंचित् दूर होने से श्री गुरुओं के द्वारा उपदेशित के उपदेश से निश्चय हो गया है, इसी कारण हमको मोक्ष पद प्यारा है।। परमागम के प्रसाद से अपना तथा पर के स्वरूप का ज्ञान हुआ है। 0 इस मनुष्य जन्म का फल धर्म प्राप्ति है, सो वह निर्मल धर्म यदि ब्रह्मचर्य बिना व्रत, तप समस्त निस्सार हैं। ब्रह्मचर्य बिना सकल मेरे पास है तो फिर मुझे आपत्ति के विषय में भी क्या चिंता है, मृत्यु से भी क्या काय क्लेश निष्फल है। बाह्य स्पर्शन इन्द्रिय के सुख से विरक्त होकर, अंतरंग 5 डर है ? अर्थात् उस धर्म के होने पर न तो आपत्ति की चिंता रहती है और न ही अपना परमात्म स्वरूप जो आत्मा है, उसकी उज्ज्वलता देखो। जैसे भी अपना मरण का डर रहता है। आत्मा काम के राग से मलिन नहीं हो, वैसे ही यत्न करो। ब्रह्मचर्य से दोनों लोक एकत्व में स्थिति के लिये जो मेरी निरन्तर बुद्धि होती है उसके विभूषित हो जाते हैं। निमित्त से परमात्मा के समीपता को प्राप्त हुआ आनन्द कुछ थोड़ा सा प्रगट । जो मनुष्य विद्वान हैं, संसार के संताप से रहित होना चाहते हैं, उन्हें होता है। वही बुद्धि कुछ काल को प्राप्त होकर अर्थात् कुछ ही समय में समस्त चाहिये कि वे घड़े में पनिहारिन के समान शुद्ध चिद्रूप में अपना चित्त स्थिर कर शीलों और गुणों के आधार भूत एवं प्रगट हुए विपुल ज्ञान (केवलज्ञान) से वचन और शरीर की चेष्टा करें। र संपन्न उस आनन्द की कला को उत्पन्न करेगी। । जो विद्वान पुरुष शुद्ध चिद्रूप के चिंतवन के साथ व्रतों का आचरण , मुझे आश्रय में प्राप्त हुए किसी भी मित्र अथवा शत्रु से प्रयोजन नहीं करता है, शास्त्रों का स्वाध्याय, तप का आराधन, निर्जन वन में निवास, है, मुझे इस शरीर में भी प्रेम नहीं रहा है, इस समय मैं अकेला ही सुखी हूँ। यहां बाह्य-आभ्यंतर परिग्रह का त्याग, मौन, क्षमा और आतापन योग धारण संसार परिभ्रमण में चिरकाल से जो मुझे संयोग के निमित्त से कष्ट हुआ है उससे करता है, उसे ही मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। मैं विरक्त हुआ हूँ; इसलिये अब मुझे एकाकीपन (अद्वैत) अत्यन्त रुचता है। • जिस प्रकार उत्कृष्ट नाव को प्राप्त हुआ धीर बुद्धि साहसी मनुष्य जो जानता है वही देखता है और वह निरन्तर चैतन्य स्वरूप को समुद्र के अपरिमित जल से नहीं डरता है उसी प्रकार एकत्व को जानकर नहीं छोड़ता है वही मैं हूँ, इससे भिन्न और मेरा कोई स्वरूप नहीं है। यह योगी बहुत से भी कर्मों से नहीं डरता है। हैं समीचीन उत्कृष्ट तत्व है। चैतन्य स्वरूप से भिन्न जो क्रोधादि विभाव भाव । चैतन्य रूप एकव का ज्ञान दुर्लभ है, परन्तु मोक्ष को देने वाला वही अथवा शरीरादि हैं वे सब अन्य अर्थात् कर्म से उत्पन्न हुए हैं। सैकड़ों शास्त्रों को है; यदि वह जिस किसी प्रकार से प्राप्त हो जाता है तो उसका बार-बार सुन करके इस समय मेरे मन में यही एक शास्त्र अर्थात् अद्वैत तत्व वर्तमान है। चिन्तन करना चाहिये। यद्यपि इस समय यह संहनन (हड्डियों का बंधन) परीषहों (क्षुधा वास्तविक सुख मोक्ष में है और वह मुमुक्षु जनों के द्वारा सिद्ध तृषा आदि) को नहीं सह सकता है और दुःषमा नामक पंचमकाल में तीव्र करने के योय है। यहां संसार में वह सुख नहीं है, यहां जो सुख है वह निश्चय तप भी संभव नहीं है; तो भी यह कोई खेद की बात नहीं है ; क्योंकि यह से यथार्थ सुख नहीं है। अतीन्द्रिय सच्चा सुख तो मोक्ष में ही है। अशुभ कर्मों की पीड़ा है। भीतर शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा में मन को सुरक्षित जो निर्मल बुद्धि को धारण करने वाला मुनि इस लोक में निरन्तर करने वाले मुझे उस कर्मकृत पीड़ा से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है। शुद्ध ज्ञान स्वरूप आत्मा को लक्ष्य करके रहता है वह परलोक में संचार जो अज्ञानीजन न तो गुरू को मानते हैं, और न उसकी उपासना ही। २६७ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आवकाचार जी करते हैं, उनके लिये सूर्य का उदय होने पर भी अंधकार जैसा ही है। जिसके द्वारा अभय, आहार, औषधि और शास्त्र का दान करने पर मुनियों को सुख उत्पन्न होता है, वह ग्रहस्थ कैसे प्रशंसा के योग्य न होगा ? जो मनुष्य दान देने के योग्य होकर भी पात्रों के लिये भक्ति पूर्वक दान नहीं देता है वह मूर्ख परलोक में अपने सुख को स्वयं ही नष्ट करता है । दान से रहित गृहस्थ आश्रम को पत्थर की नाव के समान समझना चाहिये । उस गृहस्थाश्रम रूपी पत्थर की नाव पर बैठा हुआ मनुष्य संसार रूपी समुद्र में डूबता ही है, इसमें संदेह नहीं है। प्राणी दया धर्म रूपी वृक्ष की जड़ है, व्रतों में मुख्य है, संपत्तियों का स्थान है और गुणों का भंडार है; इसलिये उसे विवेकी जनों को अवश्य करना चाहिये । मनुष्य में सब ही गुण जीव दया के आश्रय से इस प्रकार रहते हैं जिस प्रकार कि पुष्पों की लड़ियाँ सूत के आश्रय से रहती हैं। जो चैतन्य स्वरूप आत्मा कर्मों तथा उनके कार्यभूत रागादि विभावों और शरीरादि से भिन्न है उस शाश्वतिक आनन्दस्वरूप पद को अर्थात् मोक्ष को प्रदान करने वाली आत्मा का सदा विचार करना चाहिये । जिस प्रकार बत्ती दीपक की सेवा करके उसके पद को प्राप्त कर लेती है; अर्थात् दीपक स्वरूप परिणम जाती है, उसी प्रकार अत्यन्त निर्मल ज्ञानरूप असाधारण मूर्ति स्वरूप सिद्ध ज्योति की आराधना करके योगी भी स्वयं उसके स्थिर पद अर्थात् सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है; अथवा वह सम्यक्ज्ञान के द्वारा विकल्प समूह से रहित होता हुआ सिद्ध स्वरूप को प्राप्त होकर ऐसा हो जाता है कि तीन लोक के चूड़ामणि रत्न के समान उसको देव भी नमस्कार करते हैं । निर्मल बुद्धि को धारण करने वाले तत्वज्ञ पुरुष की दृष्टि निरन्तर शुद्धात्म स्वरूप में स्थित होकर एकमात्र शुद्धात्म पद अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त करती है; किंतु अज्ञानी पुरुष की दृष्टि अशुद्ध आत्म स्वरूप या पर पदार्थों में स्थित होकर संसार को बढ़ाती है। ] यह सिद्धात्मा रूप तेज विश्व को देखता और जानता है, आत्मा मात्र mohnewsok swor remo २६८ रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र 256 से उत्पन्न आत्यन्तिक सुख को प्राप्त करता है, नाश व उत्पाद से युक्त होकर भी निश्चल (ध्रुव) है, मुमुक्षु जनों के हृदय में एकत्रित होकर रहता है, संसार के भार से रहित है, शांत है, सघन आत्म प्रदेश स्वरूप तथा असाधारण है । जो संयमी कर्म के क्षय अथवा उपशम के कारणवश तथा गुरू के सदुपदेश से आत्मा की एकता विषयक निर्मल ज्ञान का स्थान बन गया है, जिसने समस्त परिग्रह का परित्याग कर दिया है; तथा जिसका मन निरन्तर आत्मा की एकता की भावना के आश्रित रहता है, वह संयमी पुरुष लोक में रहता हुआ भी इस प्रकार पाप से लिप्त नहीं होता जिस प्रकार कि तालाब में स्थित कमल पत्र पानी से लिप्त नहीं होता है । मोह के उदय से जो मोक्ष के विषय में भी अभिलाषा होती है वह सिद्धि मुक्ति को नष्ट करने वाली है; इसलिये सत्यार्थ अर्थात् निश्चय नय को ग्रहण करने वाला मुनि क्या किसी भी पदार्थ के विषय में इच्छा युक्त होता है ? अर्थात् नहीं होता । इस प्रकार मन में उपयुक्त विचार करके शुद्धात्मा से संबंध रख हुए साधु को परिग्रह से रहित होकर निरन्तर तत्व ज्ञान में तत्पर रहना चाहिये । [D] चैतन्य स्वरूप आत्मा के चिन्तन में मुमुक्षु जन के रस, नीरस हो जाते हैं। सम्मिलित होकर परस्पर चलने वाली कथाओं का कौतूहल नष्ट हो जाता है, इन्द्रिय विषय विलीन हो जाते हैं, शरीर के भी विषय में प्रेम का अन्त हो जाता है, एकान्त में मौन प्रतिभाषित होता है, तथा वैसी अवस्था में दोषों के साथ मन भी मरने की इच्छा करता है । धर्म चर्चा का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है । भेदज्ञान के द्वारा जानकर जो इसका ध्यान करता है उसको प्रत्यक्ष अनुभूति में आता है कि यह शरीर आदि पुद्गल भिन्न है और मैं चैतन्य लक्षण जीव आत्मा भिन्न हूँ तथा यह कर्म भी मुझसे भिन्न हैं, मैं तो सिद्ध स्वरूपी परम ब्रह्म परमात्मा हूँ । निश्चय नय के अभिप्राय अनुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा लिये तन्मय होना ही निश्चय सम्यक्चारित्र है, ऐसे चारित्रशील योगी को ही निर्वाण की प्राप्ति होती है। ॥ चारितं खलु धम्मो Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी आध्यात्मिक भजन मंगलाचरण शुद्धात्म ममल ममलं, ध्रुव तत्व स्वयं रमणं । हे न्यानी लीन रहो ॥ १. शुद्ध बुद्ध स्वयं सिद्धं, जिन ब्रह्म स्वयं शुद्धं ... हे .... २. परमात्म पदं पदमं, षट् कमल जिनं कमलं .... हे ... ३. रत्नत्रय मयं शुद्धं, पंच ज्ञान मयं बुद्धं... हे .... ४. उव उवन उवन उवनं, जिन जिनय जिनय जिनयं... . हे ... ५. ज्ञानानंद मयं नन्दं, त्र्यलोक्य पूज्य वन्दम् ... हे .... ६. है मुक्त सदा मुक्तं, तारण तरण जिनं उक्तं ... हे.... ७. ब्रह्मानंद स्वयं लषनं, सहजानंद स्वयं भवनं ... हे... भजन - १ हे भव्यो, श्रावक के व्रत धारो ।। १. ग्यारह प्रतिमा पाँच अणुव्रत, हृदय से स्वीकारो । हिंसा झूठ कुशील परिग्रह, चोरी नरक द्वारो... हे.... २. पंचेन्द्रिय के विषयों में फँस, जीवन होत दुधारो । हाथी मछली भ्रमर पतंगा, हिरण जात है मारो... . हे... ३. चार कषाय महा दुःखदाई, विकथा व्यसन निवारो । जन्म मरण से बचना चाहो, मोह राग को मारो. . हे... अपने कल्याण के इच्छुक गृहस्थ को अपनी तथा देश, काल, स्थान और सहायकों की अच्छी तरह समीक्षा करके व्रत ग्रहण करना चाहिये और ग्रहण किये हुए व्रत को प्रयत्न पूर्वक पालना चाहिये । प्रमाद से या मद में आकर यदि व्रत में दोष लग जाये तो तत्काल प्रायश्चित लेकर पुन: व्रत ग्रहण करना चाहिये । SYARAT GAA AAT GEAR AT YEAR. २६९ १. २. ३. ४. १. ३. आध्यात्मिक भजन भजन - २ हे भव्यो, संयम को लो धार । बिन संयम के दुर्गति होवे, जीवन है बेकार ॥ पंच स्थावर छटवें त्रस की, हिंसा नरक का द्वार । . हे... ... । पंचेन्द्रिय के विषय भोग ही, देते दुःख अपार मन ही भव संसार घुमाता, करता बंटाढार । विषय कषाय में फँसा जीव ही, करता हा हा कार... हे... समय का संयम, इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम लो धार भाव संयम की करो साधना, होवे बेड़ा पार भेद ज्ञान सत्श्रद्धा कर लो, करो सत्य स्वीकार । ज्ञानानंद क्या देख रहे हो, करो आत्म उद्धार संयम तप को धारण कर लो, क्यों हो रहे लाचार । ब्रह्मानंद उठो अब जल्दी, मचेगी जय जयकार .... हे..... हे..... . हे... ... भजन - ३ साधु संत महान, जगत में । जिनकी सत्संगति से जीवों, का होता कल्याण ॥ पर उपकारी धर्म के धारी, धरें आत्म का ध्यान । वीतराग करुणा के सागर, तारण तरण सुजान. आप तरें औरों को तारें, करें भेद विज्ञान । ऐसे संतों के चरणों में, अर्पित तन मन प्राण ..... ब्रह्मानंद मगन नित रहते करते अमृत पान । सभी जीव मुक्ति को पावे देते शुभ वरदान. " ***** ***** Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भजन-४ चलो चलो रे सब मुक्ति को भाई, तरण जिन ले चल रहे । १. न कुछ करना न कुछ धरना, न कहीं आना जाना । ज्ञान स्वभाव में लीन रहो बस, जिनवाणी में बखाना..... २. ३. ४. ५. १. २. ३. श्री आवकाचार जी ४. ममल स्वभावी अलख निरंजन, तुम हो सिद्ध स्वरूपी । शुद्ध बुद्ध अविनाशी चेतन, एक अखंड अरूपी ... ..... निज सत्ता शक्ति को देखो, पर से नाता तोड़ो । ब्रह्मानंद में लीन रहो नित, मोह राग को छोड़ो.. ज्ञानानंद स्वभाव तुम्हारा, जग से क्या लेना देना । पाप परिग्रह छोड़ो अब तो, सद्गुरु का यह कहना. भेद ज्ञान सत्श्रद्धा कर लो, संयम तप को धारो । साधु पद की करो साधना, छोड़ो दुनियांदारो. ****. ***** भजन-५ निज शुद्धतम ध्याओ, बावरे । देव गुरू और धर्म यही है, पर में मत भरमाओ ॥ शुद्ध बुद्ध अविनाशी हो तुम, निज सत्ता प्रगटाओ । निज स्वभाव की साधना से ही, परमातम पद पाओ..... रत्नत्रय मयी निज शुद्धातम, सद्गुरु ने बतलाओ । भूल स्वयं को भटक रहे हो, अब तो होश में आओ..... उठाओ। पर को अपना मान मानकर, खुद ही दुःख अनंत चतुष्टय धारी होकर, नाना रूप धराओ ...... भेद पड़ा है यह अनादि से, तुम उपयोग कहाओ । जीव आत्मा तुम्हीं को कहते, निज स्वरूप विसराओ..... ज्ञानानन्द स्वभावी होकर, जग में मत भरमाओ । तीन लोक के नाथ स्वयं तुम, सिद्ध परम पद पाओ ****. SYARAT GAAN YA AT YEAR. २७० १. ३. ४. १. २. ३. ४. ५. ६. आध्यात्मिक भजन भजन- ६ हे भवियन, तुम जिनवर भगवान । ममल भाव को जाग्रत कर लो, कर लो निज पहिचान ।। ..... निज स्वभाव में लीन रहो तो, जीतो कर्म महान । मोह राग सब विला जायेंगे, करो भेद विज्ञान. दृढ़ता धारो निज में ठहरो, होय आत्म कल्याण । अंतर्मुहूर्त का खेल है सारा, प्रगटे केवलज्ञान .. अशुद्ध पर्याय और समल भाव यह हो रहे निज अज्ञान । ज्ञान स्वभाव में कुछ नहीं होते, ध्रुव सत्ता निज ध्यान भूल स्वयं को भटक रहे हो, जागो हे भगवान । ज्ञानानंद निजानंद ठहरो, पाओ पद निर्वाण..... ..... भजन- ७ आतम राम ही ध्याओ बावरे, आतम राम ही ध्याओ ॥ कुछ भी साथ नहीं जाना है, कोई काम नहीं आओ। धर्म कर्म ही साथ जायेगा, क्यों जग में भरमाओ .... आतमराम अकेला आया, सब प्रत्यक्ष दिखाओ । कुटुम्ब कबीला छूट जायेगा, यह शरीर जल जाओ...... जो कोइ जैसे कर्म करेगा, वैसा ही फल पाओ । पाप पुण्य के चक्कर में ही, चारों गति भरमाओ.... आयु अंत इक दिन आना है, छोड़ यहीं सब जाओ । राम कृष्ण रावण से योद्धा, कोई न कोई बचाओ..... चेतो जागो स्वयं देख लो, कैसो अवसर पाओ । ज्ञानानन्द भजो परमातम, जीवन सफल बनाओ..... निशदिन आतम राम भजो, परमातम ध्यान लगाओ। एक समय का पता नहीं है, समय न व्यर्थ गमाओ..... Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ l 04 श्री आरकाचार जी भजन-८ मैं ही मेरी सिद्ध शिला हूँ, मैं ही तो ध्रुव धाम हूँ। मैं ही परम ब्रह्म परमेश्वर, मैं ही आतमराम हूँ। १. मैं ही अपना कर्ता धर्ता, मैं तो पूर्ण निष्काम हूँ। एक अखण्ड अविनाशी चेतन, मैं ही तो घनश्याम हूँ.. २. मैं ही अनंत चतुष्टय धारी, वीतराग भगवान हूँ। रत्नत्रय स्वरूप है मेरा , मैं ही पूर्ण विराम हूँ ३. मैं ही ज्ञानानंद स्वभावी, निजानंद अभिराम हूँ। ब्रह्मानंद सहजानंद हूँ मैं, मैं ही सिद्ध भगवान हूँ आध्यात्मिक भजन भजन -१० पुण्य के उदय में सब जगत दास है। पाप के उदय में न कोई भी पास है। १.संसार का सब खेल, पाप पुण्य से चलता। इसमें फँसा यह जीव सदा, इसी में दलता।। २. हो पुण्य का उदय तो, सब काम सुलटते। हो पाप का उदय तो, सभी काम उलटते ।। ३. धन वैभव नाम लक्ष्मी, सभी पुण्य की दासी। हो पाप का उदय तो, लगती जीव की फाँसी॥ ४. जैसा भी हो जिसका उदय, वैसा ही मिलता। ___टाले से भी कुछ ना टले, हिलाये न हिलता। ५. जैसा भी पूर्व कर्म उदय, अपने साथ है। वैसा ही सब हो रहा, सब अपने हाथ है। ६. बेटा न भाई बन्ध, न धन काम में आता। जैसा हो पाप पुण्य उदय, वैसा दिखाता॥ ७. जैसा किया है बंध, सब वह भोगना होगा। रोने से नहीं काम चले, और न खोगा। ८. अब भी संभल जाओ, न कोई बंध तुम करो। धर्म की शरणा गहो, और समता को धरो।। ९.ज्ञानानंद स्वभावी, स्वयं परम ब्रह्म हो। निज सत्ता शक्ति भूल गये, कर्म बंध हो॥ भजन-९ हे साधक, सत्पुरुषार्थ करो। निज सत्ता को जान लिया है, राग में काहे मरो।। १. ब्रह्म स्वरूपी चेतन लक्षण, दृढ़ता काये न धरो। ममल स्वभाव की करो साधना, मद मिथ्यात्व हरो....हे.... ढील ढाल से काम न चलता, क्यों प्रमाद परो। अपनी सुरत रखो निशिवासर, राग में आगधरो....हे.... भेदज्ञान का आश्रय राखो, तत्व निर्णय ही करो। तत्समय की योग्यता देखो, निर्भय निद रहो....हे.... निज स्वभाव का जोर लगाओ, अपने घर में रहो। पर पर्याय को अब मत देखो, मुक्ति श्री वरो....हे.... ज्ञानानन्द स्वभाव तुम्हारा, कर्मों से काये डरो। सत्पुरुषार्थ जगाओ अपना, भव संसार तरो....हे.... ---- ---- । हमें बनाना लक्ष्य महान - करना है आतम कल्याण।। | मानव जीवन का उद्देश्य - प्राणी सेवा साधु भेष ॥ । जगत में निर्मल कीर्ति दान से ही फैलती है। दान देने से बैरी भी बैर छोड़ देते हैं, चरणों में झुक जाते हैं, अपना अहित करने वाला भी मित्र हो जाता है। जगत में दान बड़ा है, सच्ची भक्ति से थोड़ा सा भी दान देने वाला जीव भोग भूमि के भोगों को तीन पल्य पर्यन्त भोग कर देव लोक में चला जाता है। --- २७२ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 श्री आचकाचार जी भजन-११ जगत में कुछ नहीं रहना है। जिस दिन तेरे प्राण निकल गये,धक्के सहना है। जिनके पीछे मरा जा रहा, कुछ नहीं बचना है। जिसको है तू अपना मानता, पुद्गल रचना है..... नाम रहे न काम रहे, न दाम ही रहना है। रामनाम ही सत्य रहेगा, सद्गुरु कहना है. आयु तक का सब नाता है, श्वास गये छुट्टी। मुट्ठी बांधे आया जग में, चला खुली मुट्ठी.... आध्यात्मिक भजन IO भजन-१३ आ गई बसंत की बहारें, जीवन में। १. आत्म स्वरूप अनुभव में आ गओ, भेदज्ञान प्रत्यक्ष दिखा गओ॥ मच रही जय जय कारें.......जीवन में....... २. संयम धर्म प्रभावना हो रही, कर्म कषाय जे सब ही खो रही। ब्रह्मचारियों की लग रही कतारें.......जीवन में....... ३. तारण तरण जगे निज घट में, सब ही काम हो रहे झटपट में। सहजानंद कपड़े उतारें.......जीवन में....... ४. ज्ञानानन्द अब नाच रहो है, निजानन्द भी माच रहो है। ब्रह्मानन्द दीक्षा धारें.......जीवन में....... भजन-१२ हे साधक अपनी दशा सुधारो। पर पर्याय को अब मत देखो, निज स्वभाव उर धारो॥ १. तीन लोक के नाथ स्वयं तुम, मोह राग को मारो। निज सत्ता शक्ति को देखो, केवलज्ञान उजारो....हे.... २. शरीरादि यह जड़ पुद्गल हैं, कोई भी नहीं तुम्हारो। तुम तो हो सत् चित् आनंद घन, अपनी ओर निहारो......... ३. क्रमबद्ध पर्याय हैं सारी. जिनवाणी में उचारो। सिद्ध स्वरूपी शुद्धातम तुम, अब तो दृढ़ता धारो....हे.... ४. अशुद्ध पर्याय भी कर्मोदायिक, जासे रहो न्यारे। ज्ञानानन्द में लीन रहो नित, ब्रह्मानंद संभारो....हे.... reaknenorreshantinorreshneonomictor भजन-१४ तप संयम ही जीवन का सार है, मिला मौका यह दुर्लभ अपार है। उठो जल्दी से दीक्षा धारो, वरना होगी ये दुर्गति अपार है। १. देख लो सब प्रत्यक्ष दिखा रहो, अपना नहीं है कोई। स्वारथ की सब दुनियाँदारी, कोई का कोई नहीं होई॥ पड़ रही कर्मों की सब पर मार है.....मिला मौका..... २. नरभव में यह मौका मिला है, सब शुभ योग है पाया। पुण्य उदय सद्गुरु का शरणा, अभी स्वस्थ है काया।। कर लो हिम्मत तो बेड़ा पार है......मिला मौका..... ३. जरा चूक गये धोखा खा गये, सोच लो फिर क्या होगा। कुढ़ कुढ़ कर ही मरते रहोगे, वृथा जन्म यह खोगा।। घर में रहना तो अब बेकार है.....मिला मौका..... ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम, ज्ञान ध्यान सब कर रहे। सबको ही सब बात बता रहे, खुद प्रमाद में मर रहे। तारण गुरु की सुनो यह पुकार है.....मिला मौका..... अपने में ही आत्म स्वरूप का परिचय पाता है, कभी संदेह नहीं उपजता और छल-कपट रहित वैराग्य भाव रहता है यही सम्यक्दर्शन का चिन्ह (लक्षण) है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक भजन ) श्री श्रावकाचार जी भजन-१५ ममल स्वभावी सिद्ध स्वरूपी,शुद्धातम अभिराम हो। सहज सच्चिदानंद मयी हो, सदा पूर्ण निष्काम हो ।। १. पर से अब क्या लेना देना, पर से अब क्या काम हो। पर के पीछे भटक रहे हो, इससे ही बदनाम हो। २. तुम हो अरस अरूपी चेतन , ज्ञानानंद सुख धाम हो। जो होता सब क्रमबद्ध निश्चित , क्यों उलझे बेकाम हो। ३. अपने ब्रह्म स्वरूप को देखो, स्वसत्ता ध्रुव धाम हो। सहजानंद स्वभाव तुम्हारा,कहाँ लगा रहे दाम हो । ४. निर्भय होकर दृढता धारो, करो निज में ही मुकाम हो। अशुद्ध पर्याय का पीछा छोड़ो,चलो अपने ध्रुवधाम हो। भजन-१६ दर्शन ज्ञान चेतना वाला, अपने को पहिचान रे। देह देवालय में बैठा है,तू ही तो भगवान रे ।। निज सत्ता शक्ति को देखो,अनंत चतुष्टय धारी हो। रत्नत्रय से हो आभूषित, सिद्ध परम पद वासी हो। अपनी भूल से भटक रहा है, बना हुआ अनजानरे.... अपनी महिमा नहीं आ रही, संसारी बन मरता है। पर की तरफ ही देख रहा है, राग द्वेष ही करता है। अब तो देख ले निज सत्ता को,सद्गुरु कहना मानरे..... देख लेसबशुभ योग मिला है, शुभसंयोग यह पाया है। वीतराग जिनधर्म मिला है, तारण पंथ में आया है। धर्म की महिमा बरस रही है, कर ले दृढ श्रद्धान रे. ४. चारों तरफ से मुक्त हो गया, कोई रहा न बंधन है। दृढ़ता धर पुरुषार्थ जगा ले, महावीर जग वंदन है।। ज्ञानानंद स्वभावी है तू, जगा स्वयं बहुमान रे..... भजन-१७ देव स्वरूपी निज आतम है, कहते सद्गुरु तार हैं। सम्यकदर्शन इससे होता, करो इसे स्वीकार है। १. देव धर्म गुरु और कोई नहीं, निज आतम की सत्ता है। भूल स्वयं को फँसे अनादि, कर्मों की बलवत्ता है। २. देव धर्म गुरु पंच परमेष्ठी, यह सब हैं व्यवहार से। साक्षी निज स्वरूप को जानो, कहते हैं उपकार से।। ३. सिद्ध स्वरूपी शुद्धातम खुद, ध्रुव तत्व अभिराम हो। समल पर्याय सब कर्मोदायिक, तुम तो पूर्ण निष्काम हो। ४. भेदज्ञान कर दृढ़ता धारो, पर पर्याय को मत देखो। शरीरादि का पीछा छोड़ो, किसी को अपना मत लेखो। ५. ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम, निज सत्ता स्वीकार करो। ध्रुवधाम की धूम मचाओ, किसी से अब बिल्कुल नडरो॥ भजन-१८ मौका मिला है महानरे, अपने में खो जा चेतनवा॥ १. पर पर्याय में अब मत भटके, राग उदय में अब मत अटके। तू तो है सिद्ध समान रे.....अपने में खो जा..... २. क्रमबद्ध पर्याय सब निश्चित, टाले टले न कुछ भी किंचित् । करले तू दृढ श्रद्धान रे.....अपने में खो जा..... ३. ध्रुव तत्व तू ममल स्वभावी, शुद्ध बुद्ध है शिवपुर वासी। हो जावे केवलज्ञान रे.....अपने में खो जा..... ४. सिद्ध स्वरूपी शुद्धातम है , परम ब्रह्म तू परमातम है। धर ले निजातम का ध्यान रे.....अपने में खो जा..... ५. ज्ञानानन्द परमानंद मयी है, अलख निरंजन अरूपी सही है। पायेगा पद निर्वाण रे.....अपने में खो जा..... GAON Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 श्री आचकाचार जी भजन-१९ निज इष्ट है शुखात्मा, यह ध्यान धरोरे। शुद्धात्मा में लीन रह, संसार तरो रे॥ १. देखो निज शुद्धात्मा रत्नत्रयमयी। चैतन्य लक्षण धर्म तारण गुरू ने कही। निज सत्ता शक्ति देख लो, मत मोह मरोरे..... २. ध्रुव धाम के वासी तुम, ध्रुव तत्व स्वयं हो। अनंत चतुष्टय धारी, सर्वज्ञ जयं हो। साधु पद धारण करो, मुक्ति को वरोरे..... ३. तुम ही हो परमात्मा, जिनराज हो ज्ञानी। त्रिकाल शुद्ध बुद्ध हो, कहती है जिनवाणी॥ वीतराग बन चलो, सब राग हरो रे..... ४. ज्ञानानंद स्वभावी हो, अब अपने में रहो। सद्गुरूकी बात मान लो, अब किससे क्या कहो।। ब्रह्मानंद उठो चलो, पुरुषार्थ करो रे... आध्यात्मिक भजन PRO भजन-२१ निज स्वभाव में लीन रहो तो,मचती जय जयकार है। पर पर्याय को देख उलझना, यह तो सब बेकार है। १. ध्रुव धाम की धूम मचाओ, निजानंद में लीन रहो। पर से अब क्या लेना देना,किसी से तुम अब कुछ न कहो।। रागादिभावों में भटकना, यह तो अपनी हार है ......... सिद्ध स्वरूपी शुद्धातम तुम, अजर अमर अविनाशी हो। शुद्ध बुद्ध हो ज्ञाता दृष्टा, शुद्धं शुद्ध प्रकाशी हो। तुम हो तो भगवान आत्मा, बाकी सब संसार है........ ३. निज सत्ता शक्ति को देखो, अनंत चतुष्टय धारी हो। केवलज्ञान स्वभाव तुम्हारा, शिवपुर के अधिकारी हो। मुक्ति श्री में रमण करो, बस इसमें ही अब सार है ....... ४. ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम, जगत पूज्य भगवान हो। दृढता धर पुरुषार्थ जगाओ, कैसे महिमावान हो। सहजानंद साधु पद धारो, अब हो रही अवार है ..... भजन-२२ हे भवियन, ममल रमण अब कीजे। सिद्धि मुक्ति का आनंद लूटो, अमिय रसायन पीजे ॥ १. ममलह ममल स्वभाव है अपना, देख स्वयं ही लीजे। शुद्ध बुद्ध अविनाशी चेतन, अपने में बल दीजे...हे.. २. चाह लगाव छोड़ दो पर का, मुक्ति श्री से मिलीजे। निजानंद में रहो निरंतर, जय जयकार मचीजे...हे ३. निज सत्ता शक्ति को देखो, अपने में ही रहीजे। पर पर्याय देखना छोड़ो, सहजानंद रमीजे...हे ४. ज्ञानानंद स्वभाव तुम्हारा, पर में कहा करीजे। सत्पुरुषार्थ जगाओ अपना, साधु पद धर लीजे...हे ..... भजन-२० चलो चलो रे मुक्ति श्री पास , जगत में कहाँ फसे । १. निज स्वभाव में मुक्ति श्री बैठी, मोह राग की लगी है कैंची। दलो दलो रे मोह मिथ्यात्व....... जगत में ......... २. अतीन्द्रिय आनंद परमानंद देवे , सारे दुःख दारिद्र हर लेवे। करो करो रे कछु तो पुरुषार्थ ....... जगत में ....... ३. जन्म मरण के दु;ख से छुड़ावे,कर्म कषायों को मार भगावे। ढलो ढलो रे निज शुद्धात्म ....... जगत में... ४. ज्ञानानंद स्वभाव तुम्हारा , निजानंद का ले लो सहारा। भलो भलोरे मुक्ति को वास ....... जगत में ...... २७४ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 0 श्री आचकाचार जी भजन-२३ आयु का कुछ न ठिकाना, न कुछ साथ जाना। लगे क्यों पापों में। १. आयु अंत कभी आ जावे , काम में कोई कुछ न आवे। कौन है अपना भाई, यह पुत्र जमाई .....लगे क्यों पापों.. २. यह शरीर भी जल जाता है, धन वैभव भी गल जाता है। साथ न जावे कौड़ी, यह मोड़ा मोड़ी.....लगे क्यों पापों. आंख मुंदे सब नाता छूटे , मोह राग का बंधन टूटे। साथ में कर्म ही जाई,करो जैसा भाई.....लगे क्यों पापों..... तुम हो ज्ञानानन्दस्वभावी, हो रहे स्वयं ही भाव विभावी। अब तो चेतो सयाने,लगो कुछ ठिकाने.....लगे क्यों पापों..... ५. संयम तप की करो साधना,निज स्वभाव की हो आराधना। मुश्किल से मौका मिला है, सौभाग्य खिला.....लगेक्योंपापों..... भजन-२४ धन्य घड़ी धन्य भाग्य हमारे, जिन जू के दर्शन पाये। नन्द आनन्दह चिदानन्द के, बाजन लगे बधाये। तरसत बीती उमरिया सारी, दुर्लभ बोधि कराये। ज्ञानानन्द के जन्म होत ही, सारे दुःख नशाये..... बालपने में बहुत ही भटके, मोह ने खूब सताये। जैसे तैसे गाड़ी निकारी, संयम अंश धराये. मारकूट के भये सयाने, सम्यक् ज्ञानी कहाये। मुक्ति श्री से सगाई हो गई, भय के भूत भगाये. विवाह रचावे की करी तैयारी, राग ने आन फंसाये। अपनत्व कर्तृत्व मुश्किल से टूटे, सहजानन्द बरसाये, चाह रुचि भी बदल गई सब, निजानन्द अब आये। ब्रह्मानन्द मगन हो नाचे, जय जयकार मचाये.. vedacherveodiaeruvatabaervedabse आध्यात्मिक भजन भजन-२५ मत देखो किसी की ओर, निजानंद में लीन रहो। १. शुद्धं प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं, समस्त संकल्प विकल्प मुक्तं । देखो अब अपनी ओर......निजानंद में...... २. अपना किससे क्या मतलब है, क्यों रहती अब यह गफलत है। सेना लगी चहुँ ओर......निजानंद में...... ३. क्रमबद्ध पर्याय सब निश्चित है, अपना न कोई कुछ किंचित् है। मच रही धर्म की शोर......निजानंद में...... ४. ध्रुव तत्व तुम सिद्ध स्वरूपी, ममल स्वभावी अरस अरूपी। ज्ञानानन्द घनघोर......निजानंद में.. ५. दृढ़ता धरकर करो पुरुषारथ, वीतराग बन चलो परमारथ । ब्रह्मानंद सब ठौर......निजानंद में...... भजन- २६ उठो उठो हे त्रिलोकीनाथ, तरन जिन जग जाओ। १. देख लो जय जयकार मची है, बज रही है शहनाई। मुक्ति श्री खुद लेने आई, घर घर बजे बधाई..... २. ज्ञानानन्द सहजानन्द आ गये, निजानन्द भी आ रहे। स्वरूपानन्द मगन हो नाचे, ब्रह्मानन्द बुला रहे..... ३. विषय कषाय सब भाग गये हैं, चाह रुचि भी बदल गई। पाप परिग्रह छूट गयो सब, मोह माया भी गल गई.. ४. जनरंजन जोराग भीगलगओ, मनरंजन गार बिलागओ। कलरंजन जो दोष छूट गओ, मोह को अंध नशा गओ..... ५. धर्म कर्म बरदान बने हैं,सब शुभ योग मिलो है। देख लो सब प्रत्यक्ष दिखा रहो, ज्ञान को सूर्य खिलो है.... ६. दृढ़ता धरकर उठ बैठो अब, कोई से मती डराओ। निज सत्ता शक्ति को देखो, जय जयकार मचाओ..... "Ora २७६ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी भजन-२७ इक दिन जाने है चेतनवा, काये उलझो। १. आयु अंत जिस दिन आयेगा, बचा सके नहीं कोई। घर परिवार सब छूट जायेगा, अपनी दुर्गति होई. २. कौन से तुम्हरो का मतलब है, फिर क्यों अंधा हो रहे। पर के पीछे मरे जा रहे, मुफत जिन्दगी खो रहे. ३. देख रहे हो जान रहे हो, फिर भी उल्टे मर रहे। पर के बीच में बोल रहे हो, उठा पटक ही कर रहे . ४. भेदज्ञान तत्व निर्णय कर रहे, फिर काहे भरमा रहे। त्रिकाली पर्याय क्रमबद्ध, कौन हे कहा बता रहे. खुद ही मान लो दृढता धर लो, दुर्गति से बच जाओ। ध्रुव तत्व का ध्यान लगाओ, मोक्ष परम पद पाओ ६. अरस अरूपी ज्ञान चेतना, शुद्ध बुद्ध अविनाशी। ज्ञानानन्द स्वभावी हो तुम, सहजानन्द सुख राशी ७. कुछ दिन के मेहमान बचे हो, अपनी बात बना लो। वीतराग बन करो पुरुषार्थ, शुद्धातम को ध्यालो .. ८. इधर उधर बिल्कुल मत भटको,कोई की तरफ न देखो। ममल स्वभाव में लीन रहो नित, यह सब कपड़े फेंको भजन-२८ जगत में स्वारथ का सब काम। १. बिन स्वारथ कोई बात न पूछे, लेयन कोई नाम...जगत..... २. मात पिता भगिनी सुत नारी, इन्हें चाहिये दाम...जगत..... ३. सब संसार स्वार्थ से चलता,बिन स्वारथ क्या काम... जगत..... ४. यह शरीर भी तब तक अच्छा , जब तक इस पर चाम...जगत..... ५.कोई का कोई नहीं है जग में, भुगतो खुद अंजाम...जगत..... ६. अब भी चेत जाओ ज्ञानानन्द, बन जाओ निष्काम...जगत..... आध्यात्मिक भजन loo भजन-२९ मच रही मच रही रे जा जय जयकार, चलो रे अब तो मुक्ति चलो। १. साधु पद की दीक्षा ले लो, पाप परिग्रह छोड़ो। संयम तपकी करो साधना, अपने मन को मोड़ो. २. धर्म की महिमा देखो सामने, जय जयकार मची है। चारों तरफ से छुट्टी हो गई, एक ही राह बची है.. ३. वीतराग निग्रंथ बनो, शुद्धातम ध्यान लगाओ। रत्नत्रय को धारण करके, मोक्ष परम पद पाओ. ४. ज्ञानानन्द स्वयं ही हो गये, सहजानन्द भी आ गये। ब्रह्मानन्द तो साथ है अपने, निजानन्द भी छा गये..... धर्म कर्म वरदान बने हैं, सब शुभयोग मिला है। दृढता धरकर दांव लगाओ, यह सौभाग्य खिला है..... राग के बाग में आग लगाओ, सब ही बन्धन तोड़ो। ज्ञानानन्द चलो जल्दी से, समय रह गयो थोड़ो..... भजन-३० रहो रहो रे निराकुल निद,अब काये डर रहे हो। १. जोन समय पर जो होने है, सब क्रमबद्ध और निश्चित । पर से अपनो का मतलब है, तुम क्यों रहते चिंतित...रहो.. २. अपनो स्मरण ध्यान रखो नित, रहो आनन्द परमानन्द।। किसी का तुम कुछ कर नहीं सकते, छोड़ो सब ये द्वंद फंद...रहो..... ३. जिसका जैसा जब होना है, होगा सब वैसा ही। तुम तो आतम परमातम हो, करो न कुछ कैसा ही...रहो... ज्ञानानन्द स्वभावी हो तुम, ज्ञान चेतना वाले। जागो देखो निज स्वभाव को, क्यों हो रहे मतवाले...रहो..... अरस अरूपी निराकार हो, शुद्ध बुद्ध अविनाशी। छोड़ो अब यह मोह राग को, हो शिवपुर के वासी...रहो..... २७६ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी भजन-३१ देखो देखो रे समता से आतमराम, जगत में का हो रहो।। १. तुम्हरो कोई से कछु नहीं मतलब.काये मरे तम जा रहे। अपने आप ही सब हो रहो है, तुम क्यों चक्कर खा रहे...देखो..... २. शांत रहो अपनी सुधि राखो, इधर उधर मत भटको। हिम्मत करलो दृढ़ता धर लो, जग में अब मत भटको...देखो..... ३. अपना क्या है क्या करना है, किससे क्या है नाता। अपना तो कोई भी नहीं है, भाई पिता और माता...देखो..... ४. अपनी अपनी सबको पड़ी है, सब मनमानी कर रहे। जे हे जैसो करने कर रहो, तुम काहे को मर रहे...देखो..... किसी का कोई नहीं दुनियां में, स्वारथ प्रीत है सारी। ज्ञानानन्द चेत जाओ अब, छोड़ो दुनियादारी...देखो.... भजन-३२ चैतन्य प्रभु की सरकार, जो मन हमरो का कर है। १. अन्त: करण में चारई जुड़े हैं, मन बुद्धि चित अहंकार...जो..... २. भूल से अपनी हम ही फंसे थे , मान रहे थे परिवार...जो..... ३. भेदज्ञान से भिन्न जान लये, अपने अपने ही सब करतार...जो..... ४. कामना वासना ममता आसक्ति, सब ही हैं दुःख के द्वार...जो. ५. कर्ता भोक्ता सब ये ही हैं, हम तो हैं जाननहार...जो. ६. अपनी सत्ता शक्ति देख लई, रत्नत्रय भंडार...जो..... ७. ध्रुव धाम के हम हैं वासी, शुद्ध बुद्ध अविकार...जो. ८. तत्व निर्णय अब पूरो हो गओ, कर लओ सब स्वीकार...जो. ९. कोई की बातों में अब नहीं लगेंगे, राखेंगे अपनी सम्हार...जो. १०. ज्ञाता दृष्टा ज्ञायक रहेंगे, उर में दृढ़ता धार... जो... ११. ज्ञानानन्द स्वभाव हमारा, करेंगे मुक्ति बिहार... जो..... १२. निजानन्द में मस्त रहेंगे, मचायेंगे जय जयकार...जो..... आध्यात्मिक भजन 0 भजन-३३ मुट्ठी बांधे आया जग में, हाथ पसार जायेगा। तेरे साथ में कुछ नहीं जावे, तू यों ही भरमायेगा। १. पर को तूने अपना माना, अपना ध्यान नहीं लाया। मोह अज्ञान में लिप्त रहा तू, चारों गति का दुःख पाया। चेत अभी भी सावधान हो, दुःखों से बच जायेगा...तेरे..... २. तन धन जन सब कर्म उदय से, मिलते और बिछुड़ते हैं। कोई साथ न आता जाता, अपने आप सिकुड़ते हैं। तूने इनको अपना माना, इससे दुर्गति पायेगा...तेरे..... ३. देख सम्हल जा अभी चेत जा, यह सब दुनियादारी है। अपनी मूढता से तू मरता, मोह ने मति यह मारी है।। भेदज्ञान तत्व निर्णय करले, वरना धोखा खायेगा...तेरे.... ४. अरस अरूपी निराकार तू , ज्ञानानन्द स्वभावी है। शुद्ध बुद्ध है अलख निरंजन, सिद्ध परम पद वासी है।। अपना ही श्रद्धान तू करले, कर्मों से छूट जायेगा...तेरे..... भजन- ३४ बंधन मुक्त बंधा माने, फिर उसको कौन छुडाये। प्रभुजी कैसी मति भरमाये॥ सब प्रकार स्वतंत्र स्वाश्रय, ज्ञान ध्यान श्रद्धान । पात्रतानुसार सब पक्का पूरा, आगे की कर रहे चाह... प्रभु..... पाप पुण्य का भोग कर रहे, अपना नहीं बहुमान। कैसे आनंद में रह रहे हो, इसकी नहीं परवाह... प्रभु..... ३. कोई शल्य विकल्प नहीं है, भय चिंता न खेद। फिर भी उल्टे पड़े रो रहे, तुमको कौन समझाये... प्रभु..... C २७७ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी भजन-३५ तू ही आतम परमातम है,तू ही स्वयं भगवान है। चेत अरे ओ मूरख पगले, कहां फंसा हैरान है। १. नरतन पाया है तूने यह, नहीं जरा कुछ ध्यान है। मोह राग फंसा हुआ तू, बना हुआ हैवान है। अब भी सोच समझ ले भैया, तू तो वीर महान है.. २. देख साथ में क्या आया है, साथ तेरे क्या जायेगा। जैसा करेगा वैसा भरेगा, फिर पीछे पछतायेगा। तन धन जन कोई साथ न देवे, विपत पडे नादान है..... ३. किसका तू क्या कर सकता है,जो होना वह होता है। कर्ता बना तू मरा जा रहा,व्यर्थ जिन्दगी खोता है। शांत नहीं रहता है इक क्षण,यह तेरा अज्ञान है. ४. ज्ञायक रहकर देख तमाशा, स्वयं जगत परिणाम है। ज्ञानानन्द स्वभावी है तू , क्यों होता बदनाम है। अपनी दशा सुधारो जल्दी, करो भेदविज्ञान है..... आध्यात्मिक भजन DOG भजन-३७ निज पर लौट आओ भैया, तुमको बुला रही मैया ।। पर में ही तुम भटकत फिर रहे,निज की खबर न आई। तुम्हरी फिकर में सभी किलप रहे, बाप बहिन और भाई...निज..... बहिन तुम्हारी ममल सुदृष्टि, शुद्ध स्वभाव है भाई। पिता तुम्हारे शुद्धातम हैं, मुक्ति श्री है आई... निज..... सखा मित्र रत्नत्रय धारी, बेटा परम पदम हैं। कौन के जाल में कहां फंसे हो, बुला रहे सोहम हैं...निज..... अप्पा परमप्पा तुम खुद हो, अनन्त चतुष्टयधारी। धन शरीर में काये मर रहे, कैसी मति यह मारी...निज..... ज्ञानानन्द कहाते हो तुम, निजानन्द के भैया। पिता तुम्हारे केवलज्ञानी, माँ जिनवाणी मैया...निज..... तारण तरण से गुरुवर तुम्हरे, शुद्धातम बतलावें। नन्द आनन्द में रहो हमेशा, निर्भय निहूँद बनावें...निज..... भजन-३६ रेसाधक, चलो मोक्ष की ओर।। १. अब संसार तरफ मत देखो, यहाँ सभी हैं चोर...रे..... २. मोह का राज्य सबमें है फैला, माया का है दौर ...रे. ३. काम क्रोध मद लोभ घूम रहे, खाली न कोई ठौर...रे..... ४. एक समय साता नहीं जग में, नाच रहा मन मोर...रे ५. रत्नत्रय मयी निज आतम है, यही मोक्ष का छोर...रे..... ६. आनंद परमानंद बरसता, सुख शांति चहुं ओर...रे.... ७. सिद्ध स्वरूपी शुद्धातम हो, ज्ञानानंद का शोर... रे ..... भजन-३८ आतम ज्ञानानन्द सुखरासी॥ १. शुद्ध बुद्ध है अलख निरंजन, है शिवपुर की वासी... २. सिद्ध स्वरूपी शुद्धातम है, शुद्ध बुद्ध प्रकासी..... खुद को भूलकर भटक रही है, योनि लख चौरासी.. पर के मोह में फंसी हुई है, इससे रहत उदासी..... निज सत्ता शक्ति को देखे, मिट जाये भव फांसी..... अनन्त चतुष्टय रत्नत्रय से, है परिपूरण खासी. ब्रह्मानन्द इसका स्वरूप है, सहजानन्द निवासी..... ज्ञानानन्द रहो अपने में, होओ मुक्ति विलासी..... २७८ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रावकाचार जी भजन- ३९ तुम्हें का करने राम,काहे को पर में भटक रहे। कौन से अब का लेने देने, कौन से है का मतलब । निज सत्ता शक्ति को देखो, क्यों रहते हो गफलत ॥ २. जो होने वह हो ही रहो है, क्रमबद्ध सब निश्चित । अपने चाहे से कुछ नहीं होवे , टाले टले न किंचित्॥ शुद्ध बुद्ध अविनाशी चेतन , तुम तो सिद्ध स्वरूपी। पर पुद्गल पर्याय भिन्न सब, तुम तो अरस अरूपी॥ ज्ञानानन्द स्वभावी हो तुम, ज्ञाता दृष्टा ज्ञानी। कर्मोदायिक परिणमन सारा, काये बने अज्ञानी। जे को जब जैसो होने है, हो रहो है होवेगो। आवो जावो सब निश्चित है,खोने है खोवेगो।। भेदज्ञान तत्व निर्णय कर लओ, अब का कसर बची है। धर्म मार्ग पर चल ही रहे हो, जय जय कार मची है।। ७. शांत रहोसमता से देखो.निज बहमान जगाओ। अपने में ही लीन रहो नित, कहीं न आओ जाओ।। भजन-४० लीजे रत्नत्रय धार, आतमा॥ १. सम्यकदर्शन रतन अमोलक, तीन लोक में सार..... २. सम्यक्ज्ञान की अनुपम महिमा, सुख शांति दातार..... ३. सम्यक्चारित्र मुक्ति का दाता, परमानन्द भंडार..... ४. पर से भिन्न स्वयं को लख लो, छूटे यह संसार..... ५. स्व का बोध ही सम्यक्ज्ञान है, कर दे बेड़ा पार..... ६. अपने में ही लीन रहो नित, यही मोक्ष का द्वार..... ७. ज्ञानानन्द स्वभावी आतम, गुरू तारण रहे पुकार..... ८. संयम तपकी करो साधना, करो साधु पद स्वीकार..... आध्यात्मिक भजन DOC भजन-४१ वह भी पर्याय थी, यह भी पर्याय है। तू तो है परम ब्रह्म, काहे भरमाय है। देखना और जानना,फकत तेरा काम है। विष्णु बुद्ध शंकर, महावीर तेरा नाम है। पर को क्यों देखने में, व्यर्थ भटक जाय है...तू..... २. अपने को देखो बस, अपने को जानो। पर को न देखो,न कुछ अपना मानो। अपनी अज्ञानता से, व्यर्थ दुःख उठाय है...तू..... ३. जो कुछ भी होता जाता, पुद्गल पर्याय है। तेरी ही दृष्टि से, कर्म बंध जाय है। अपने में लीन रहो तो, मुक्ति पाय है...तू..... ४. तत्समय की योग्यता से,सभी क्रम चल रहा। अपने उदयानुसार, सब कर्म गल रहा। ज्ञानानन्द मय रह सदा, तू क्यों पछताय है...तू..... द्रव्य दृष्टि रखो सदा, पर्याय मत देखो। जो कुछ भी होता है, अपना मत लेखो॥ अपना तो कुछ भी नहीं, तू क्यों भय खाय है...तू..... पर का कर्ता आत्मा नहीं, राग का भी कर्ता नहीं, राग से भिन्न ज्ञायक मूर्ति हूँ, ऐसी अन्तर में प्रतीति करना ही सम्यक्दर्शन प्राप्त करने की विधि है । ऐसा समय मिला है जिसमें आत्मा को राग से भिन्न कर देना ही कर्तव्य है, अवसर चूकना बुद्धिमानी नहीं। o Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आक्काचार जी भजन-४२ कर्मों का विश्वास करो, और धर्म का श्रद्धान करो। भेदज्ञान ही करो निरंतर, उर में समता शांति घरो॥ मोह उदय जब आता है, सब ज्ञान ध्यान भग जाता है। शल्य विकल्प ही चलने लगते, भय का भूत दिखाता है। होश नहीं रहता है बिल्कुल, कैसा होगा क्या करो...भेदज्ञान..... २. मोह उदय अज्ञान में चलता, ज्ञान में कुछ नहीं होता है। इतनी दृढ़ता हो अपने में, सारा भय गम खोता है। ज्ञान अज्ञान में यही भेद है, ज्ञान करो या यं ही मरो...भेदज्ञान..... ३. कर्म बंध सबका अपना है, अपने में ही चलता है। जैसा बोया है जिसने जब, वैसा उसका फलता है। कैसा बो रहे हो अब भी तुम, इसका जरा विचार करो...भेदज्ञान..... ४. आतम तो है अरस अरूपी, ज्ञानानन्द स्वभावी है। एक अखंड सदा अविनाशी, सब घट घट में वासी है। ऐसी श्रद्धा होवे अपनी, तो नित ही आनन्द करो...भेदज्ञान.... आध्यात्मिक भजन HD भजन-४४ जिससे है सबकी कीमत,उसकी खबर नहीं है। जड़ मोह में है गाफिल,अपनी फिकर नहीं है। जिसके सुखी रहने पर, सब ही जश्न मनाते। जिसके निकल जाने पर, सब ही रुदन मचाते॥ वह कौन है वा कैसा, इसकी खबर नहीं है . धन कीभी क्या है कीमत,जब जीव निकल जाता। ऊपर से फेंकते हैं, कोई नहीं उठाता। यह जीव क्या बला है, इसकी खबर नहीं है. इस तन की भी क्या है कीमत, इसको भी जला देते। सब देखते रहते हैं, कोई भी कुछ न कहते॥ बेटा व बाप भाई, कोई बसर नहीं है..... घर द्वार पड़ा रहता, संग में न कुछ भी जाता। देखो यह दुनियादारी, माया में ही भरमाता।। जो ज्ञानानंद स्वभावी, उसकी खबर नहीं है कब तक मरोगे यूँ ही, पर की फिकर में भैया। अब चेत जाओ जल्दी, कहती जिनवाणी मैया।। यह आखिरी समय है, इसकी खबर नहीं है .... भजन-४३ पुण्य पाप नहीं करने, निर्वाणनाथ ।। १. जो होवे सो देखत रहने, मोह राग सब हरने... निर्वाण..... २. पुण्य भाव से पाप पलत है, धर्म ध्यान से हरने...निर्वाण..... ३. पुण्य पाप हैं जग के कारण, इनमें अब नहीं मरने... निर्वाण..... ४. पुण्य की दृष्टि धर्म भुलावे, पाप से नरक में परने ... निर्वाण ..... ५. पुण्य पापको उदय चल रहो, हिम्मत करके लरने ...निर्वाण... ६. निजानन्द में रहने को नित, ज्ञानानन्द संयमधरने ...निर्वाण..... Cra तीन लोक तीन काल में सम्यक्दर्शन के समान सुखदायक अन्य कुछ नहीं है। यह सम्यक्दर्शन ही समस्त धर्मों का मूल है, इस सम्यक्दर्शन के बिना सभी क्रियायें दु:ख दायक हैं। जिनेश्वर देव का कहा हुआ दर्शन सम्यकदर्शन है वह गुणों में और दर्शन, ज्ञान, चास्त्रि इन तीनों रत्नों में सार अर्थात् उत्तम है और मोक्ष मन्दिर में चढ़ने के लिये पहली सीढ़ी है। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २. ३. ४. ५. ६. श्री आवकाचार जी ३. भजन- ४५ लगना नहीं चाहिये, जो कुछ भी जैसा भी होवे ।। लगती है छिदती है तुमको, तो तुम हो अज्ञानी । ज्ञान श्रद्धान नहीं हैं कुछ भी कर रहे हो मनमानी ॥ . जब अपना कुछ है ही नहीं हैं, फिर काहे को डरते । जब अपने को कुछ नहीं चाहिये, फिर काहे को मरते ।। जब जैसो होने हो रहो है, टाल फेर नहीं सकते। समता शांति से सब देखो, फिर काहे को भगते । पाप पुण्य से क्यों डरते हो, जो होना हो होवे । अपने को कुछ करना ही नहीं है, करने वाला रोवे ॥ कर्म उदय जब तक वैसा है, तुम में शक्ति नहीं है। समता मय ज्ञायक रह भोगो, यही निर्जरा सही है ॥ हिम्मत हो ज्ञानानंद तुममें, मुनि दीक्षा को धारो । सब कर्मों से छूट जाओगे, मोह राग को मारो ॥ भजन- ४६ हे भवियन अनुभव ज्ञान प्रमाण । १. अनुभव हुआ विरक्तता आई, ज्ञान ही है प्रत्याख्यान । बातें करके मन समझाओ, लगे रहो तो अनजान २. सामने कोई सांप देखकर, कदम रखे नादान । जान बूझकर जो उलझा है, उसका सब मिथ्याज्ञान... हे. आग में कोई हाथ न डाले, डाले वह मूढ अज्ञान । तुम भी अभी तक फंसे मोह में, हुआ न सम्यक्ज्ञान.. हे ..... ४. अनुभव चिंतामणि रतन है, अनुभव मोक्ष विमान । ज्ञानानन्द करो निज अनुभव, हो जावे कल्याण... हे..... ... हे.. ..... SY FAN FANART YEAR. २८१ ४. ४. आध्यात्मिक भजन भजन- ४७ तुम का चाहो नाथ, रत्नत्रय के धारी ॥ सुख शांति तुम्हरे ही भीतर, आनंद भरो पड़ी है। अरस अरूपी ज्ञान चेतना, कर्मों को झगड़ो है ॥ तुम जग जाओ नाथ, कैसी मति तुम्हरी मारी..... जड़ पुद्गल नश्वर शरीर है, मल और मांस भरा है। इसके विषयों में भरमा रहे, ढोल की पोल धरा है । तुम हट जाओ नाथ, ज्ञान दर्श भंडारी... धन शरीर घर में क्या रक्खा, सब जड़ पुद्गल न्यारे । भूल स्वयं को भटक रहे हो, फिर रहे मारे मारे।। अब मत दाहो नाथ, भूल है अपनी ही सारी.. तीन लोक के नाथ कहाते, अनंत चतुष्टय वाले । ब्रह्म स्वरूपी चेतन लक्षण, ज्ञानानंद मतवाले ॥ अब रम जाओ नाथ, मुक्तिश्री तुम्हारी नारी..... भजन- ४८ ..... हे साधक ममल भाव रहिये ॥ पर पर्याय को अब मत देखो, पुद्गल को तजिये। ज्ञायक स्वरूप रहो अपने में, शुद्धातम भजिये... हे..... निजानन्द में लीन रहो नित, समता को गहिये । इस शरीर का पीछा छोड़ो, पर में न बहिये ... हे....... भाव विभाव जे अपने नाहीं, ॐ नमः जपिये । दृढ़ता से ही काम चलेगा, वीतराग बनिये... हे ...... ज्ञानानन्द स्वभाव तुम्हारा, ब्रह्मानन्द रमिये । स्वरूपानन्द की करो साधना, अब कुछ न कहिये... हे..... सहजानन्द मगन नित रहिये, अब का है चहिये। तारण तरण का शरणा पाया, मोह राग तजिये ... हे ..... Sen Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भजन- ४९ पल में का होवे राम, पल को ठिकानो कछु नहीं है। अपनी सुध राखो राम, देखो जा सद्गुरु ने कही है ॥ १. देहालय सोइ सिद्धालय है, इसमें भेद नहीं है। जो जन इसकी श्रद्धा करते, मुक्ति पाते वही हैं...... एक समय पहले मृगराजा, मृगा हे थो खा रहो । उस घड़ी में शुद्ध दृष्टि हो, शुद्धातम को ध्या रहो...... एक समय पहले श्रेणिक ने, नरक आयु थी बांधी। २. ३. ४. ५. ६. श्री आवकाचार जी ७. उन्हीं मुनि के चरणों में जा, ध्यान समाधि साधी..... सुमेरु मुनि एक क्षण पहले, राजा से थे लड़ रहे । जे समय वे केवलज्ञानी, समवशरण में सज रहे ...... धर्म की महिमा बड़ी अपूर्व है, इसको कोई न जानी । जिनवाणी कबसे समझा रही, फिर भी एक न मानी..... धर्म कर्म दोनों की गति को, कोई ने भी नहीं जानी। ज्ञानानंद चेत जाओ अब, बनो सत्य श्रद्धानी..... अपनी सुरत रखो निशिवासर, अपनो ध्यान लगाओ। कर्मों में वृथा मत उलझो, इधर उधर मत जाओ...... वास्तव में तो सम्यक्दर्शन पर्याय ही है; किन्तु जैसा गुण है वैसी ही उसकी पर्याय प्रगट हुई है, इस प्रकार गुण पर्याय की अभिन्नता बताने के लिये कहीं-कहीं उसे सम्यक्त्व गुण भी कहा जाता है किन्तु वास्तव में सम्यक्त्व पर्याय हैं, गुण नहीं । जो गुण होता है वह त्रिकाल रहता है, सम्यक्त्व त्रिकाल नहीं होता किंतु उसे जीव जब अपने सत्पुरुषार्थ से प्रगट करता है तब होता है इसलिये वह पर्याय है । SYARAT GRA AV Y Z AA YA २८२ भजन- ५० १. दुनियां की क्यों चिंता करता, दुनियां से क्या काम रे । सिद्ध समान ध्रौव्य अविनाशी, तू तो आतम राम रे ॥ घर परिवार नहीं है तेरा, अरस अरूपी चेतन है । धन शरीर सब जड़ पुद्गल हैं, रूपी द्रव्य अचेतन हैं । मोह में इनके मरा जा रहा, भूल रहा निज धाम रे ..... पर का तू कुछ कर नहीं सकता, होना जाना निश्चित है। तेरे करे से कुछ नहीं होता, तू क्यों रहता चिंतित है । अपना ध्यान लगा ले पगले, तू तो है शुद्धात्म रे...... क्रमबद्ध पर्याय सब निश्चित होना है वह हो ही रहा । तेरा किससे क्या मतलब है, तू काहे को रो ही रहा ।। तेरा किससे क्या नाता है, तू तो है ध्रुव धाम रे...... ज्ञानानंद स्वभावी आतम, पर का कुछ न करता है। मोह राग में फँसा हुआ खुद, इसका सुख दुःख भरता है । पर की ओर देखता है तू, इससे है बदनाम रे...... २. ३. ४. १. ३. आध्यात्मिक भजन ४. भजन-५१ अपने में खुद ही समा जइयो, आतम वीतरागी । पर से का मतलब स्वयं को देखो। निज सत्ता शक्ति को अपनी लेखो अपने... सिद्ध स्वरूपी शुद्धतम कहाते । खुद ही जागो अब किसको जगाते...अपने..... अरस अरूपी चतुष्टय के धारी । शुद्ध बुद्ध ज्ञायक हो मुक्ति बिहारी अपने..... ज्ञानानन्द स्वभावी परमानन्द धारी । ब्रह्मानन्द सुनो विनती हमारी... अपने..... 5e56 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ 04 श्री श्रावकाचार जी भजन-५२ करो करो रे धर्म को बहुमान, अब काये मर रहे हो। १. अपनो जग में कोई नहीं है, कछु साथ नहीं जाने। चेतन तत्व अकेलो आतम, वृथा ही भरमाने..... भेदज्ञान से निर्णय कर लो, मैं हूँ सिद्ध स्वरूपी। शुद्ध बुद्ध अविनाशी ज्ञायक, चेतन अरस अरूपी..... ३. आनन्द परमानन्द मयी हो. सख स्वभाव के धारी। मोह राग में मरे जा रहे, कैसी मति यह मारी..... अपनी ही सत्श्रद्धा कर लो, पाप परिग्रह छोड़ो। संयम तप की करो साधना, मोह का बंधन तोड़ो..... ज्ञानानन्द स्वभावी होकर, कहां भटकते फिर रहे। चार गति चौरासी योनि में, कैसे कैसे पिर रहे..... देखो कैसा मौका मिला है, सब शुभ योग है पाया। सत्गुरु तारण तरण का शरणा, इस नरभव में आया..... भजन-५३ आतम निज शक्ति जगइयो, धर्म की श्रद्धा बढ़इयो॥ १. धर्म की महिमा अनुपम निराली, इससे कटती कर्म की जाली॥ शुद्धातम ध्यान लगइयो......धर्म की...... २. धर्म प्रभावना निज में होती, भय चिंता सब ही है खोती॥ निजानन्द बरसइयो......धर्म की...... ३. सुख शांति समता नित बढ़ती, मद मिथ्यात्व कषायें झड़ती॥ ब्रह्मानन्द रम जइयो......धर्म की...... ४. एकै साधे सब सधता है, ज्ञान ध्यान खुद ही बढ़ता है। जय जयकार मचइयो......धर्म की...... ५. ज्ञानानन्द करो पुरुषारथ, क्यों मर रहे हो जग में अकारथ ।। मुक्ति श्री वर लइयो......धर्म की...... आध्यात्मिक भजन Sax भजन-५४ जागो चेतन निजहित कर लो, कर लो अब तैयारी हो। न जाने इस मनुष जन्म की, होवे सोलहवीं वारी हो । १. दो हजार सागर के लाने, त्रस पर्याय यह पाई है। दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय में, कितनी समय बिताई है। अपना निर्णय खुद ही कर लो,वरना फिर लाचारी हो...न..... २. नित्य निगोद से निकल आये हो, मुक्ति श्री को पाना है। गर प्रमाद में रहे भटकते, इतर निगोद फिर जाना है। कोई साथ न आवे जावे, स्वयं की दुर्गति भारी हो...न..... ३. सदगुरु का शुभ योग मिला है,सब अनुकूलता पाई है। पुण्य उदय भी साथ चल रहा,बज रही यह शहनाई है। अपनी ओर स्वयं ही देखो, यह तो दुनियादारी हो...न..... निज बल पौरुष जगाओअपना, मायामोह का त्याग करो। राग द्वेष भी खत्म करो यह, साधु पद महाव्रत धरो।। ढील ढाल से काम न चलता,हिम्मत हो हुश्यारी हो...न..... ज्ञानानन्द स्वभाव तुम्हारा,अनन्त चतुष्टय धारी हो। आतम परमातम कहलाते, हो रही क्यों दुश्वारी हो। निर्भय होकर आओ सामने, जय जयकार तुम्हारी हो...न..... सम्यकदृष्टि अपने निज स्वरूप को ज्ञाता-दृष्टा, पर द्रव्यों से भिन्न, शाश्वत और अविनाशी जानता है। पर द्रव्य को तथा रागादिक को क्षणभंगुर, अशाश्वत, अपने स्वभाव से भली-भांति भिन्न जानता है इसलिये सम्यक्दृष्टि रागी नहीं होता। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री आचकाचार जी भजन-५५ जा रही जा रही रेजा मोक्षपुरी को रेल । चलो तो जामें बैठ चलो। १. चलने है तो करो तैयारी, छोड़ो मोह और ममता। धर्म ध्यान में चित्त लगाओ, मन में धारो समता...जा..... ब्रह्मचर्य की दीक्षा ले लो, पाप परिग्रह छोड़ो। विषय कषाय से दूर हटो खुद, घर को बंधन तोड़ो...जा..... ३. खर्चा पानी कछु नहीं चहिये, आत्म जागरण होना। निर्भयता निर्मोहिता चहिये, कछु होय नहीं रोना...जा..... ४. चलने है तो नाम लिखाओ, करो तैयारी ऐसी। संयम तप की करो साधना, ढील ढाल फिर कैसी...जा..... ५. ज्ञानानन्द तो पास है अपने, निजानन्द जगा लो। सहजानन्द तो साथ चलेंगे, ब्रह्मानन्द सजा लो...जा..... भजन-५६ उलझो मत चेतन कही मानो, अपनी सत्ता को पहिचानो। १. तुम हो एक अखंड अविनाशी, ज्ञानानन्द शिवपुर के वासी। सहजानन्दी हो सुखदानो ..... उलझो..... २. ध्रुव तत्व हो सिद्ध स्वरूपी, ममलह ममल हो अरस अरुपी। ध्रुव धाम को आगओ परवानो ..... उलझो.. ३. जड़ शरीर से न्यारे हो गये, कर्म कषायें भी सब खो गये। फिर क्यों इनको अपनो जानो..... उलझो ४. अशुद्ध पर्याय सब तुमसे न्यारी,फिर तुम्हरी कैसी मतिमारी। दृढता धर पुरुषार्थ ठानो..... उलझो ..... ५. निर्भय मस्त रहो अपने में, बिल्कुल मत बहको सपने में। ब्रह्मानन्द बनो स्यानो ..... उलझो..... vedacherveodiaeruvatabaervedabse आध्यात्मिक भजन भजन-५७ पीछे की न सोचो, न आगे की कछु चाहो। वर्तमान को उन दोनों के चक्कर में मत दाहो। १. पीछे जो कुछ होना था, वह गुजर चुका। अच्छा बुरा पुण्य पाप, सब गुजर चुका।। वर्तमान में देखो, तुम कैसे हो और का हो ..... धन वैभव की मूर्छा है, तो बोलो तुम क्या करते हो। काम दाम और नाम के पीछे, कुढ़ कुढ़ कर ही मरते हो। समता हीअब धर लो, तो सच्चो सुख तुम पा हो ..... जैसा तुम्हारा कर्म उदय था, वैसा ही सब पाया है। इष्ट अनिष्ट संयोग मिले सब, वैसा ही सब खाया है। अब भी मूढ़ बने हो अंधा, दुरगति में ही जाहो ..... आगे जैसा होना होगा, वैसा ही सब होवेगा। कौन जानता है कैसा हो, व्यर्थ चाहकर रोवेगा।। ज्ञानानन्द मय रहो निरन्तर, जीवन सफल बनाओ..... अरस अरूपी ज्ञान चेतना, तुम हो जीव अकेले। यह शरीर धन कुछ नहीं अपना, मान रहे हो भेले।। भेदज्ञान अब कर लो, तो जय जयकार मचाओ..... ज्ञानानन्द स्वभावी हो तुम, ज्ञानानन्द में लीन रहो। पर की तरफन देखो बिल्कुल, और किसी से कछन कहो।। निर्भय होकर अब तो, तुम अपने में रम जाओ..... सम्यकदर्शन सहित जीव का नरकवास भी श्रेष्ठ है परन्तु सम्यकदर्शन रहित जीव का स्वर्ग में रहना भी शोभा नहीं देता; क्योंकि आत्मज्ञान बिना स्वर्ग में भी वह दु:खी है, जहां आत्मज्ञान है वहीं सच्चा सुख है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 श्री श्रावकाचार जी भजन-५८ धन की कमी नहीं जग में, मिलना उतनई मिलेगा। पाप करो चाहे तृष्णा, मिलना उतनई मिलेगा। जैसा किया था वैसा ही ढंग है। सबका भाग्य अपने ही संग है। भूखो मरो करो कितना... मिलना..... कौन कहाँ से का कर रहो है। कौन हे कहाँ से का मिल रहो है। देखो करो चाहे जितना ...मिलना. आना जाना सब निश्चित है। लोभ मोह से तू चिन्तित है। कर्मों का अद्भुत करिश्मा...मिलना..... दान पुण्य से धन मिलता है। जैसा किया हो वह खिलता है। करते रहो व्यर्थ भ्रमना ... मिलना ..... दान भोग और नाश है धन का। सुख दुःख होता है, सब मन का॥ मन की ही सारी किलपना... मिलना..... आध्यात्मिक भजन Sax भजन-५९ भगवान हो भगवान हो, तुम आत्मा भगवान हो। यह घर तुम्हारा नहीं, यहाँ चार दिन मेहमान हो। चक्कर लगाते फिर रहे, इस तन में तुम बंदी बने। अपने ही अज्ञान से, राग द्वेष में हो सने ॥ अपना नहीं है होश, बस इससे ही तुम हैरान हो ..... चेत जाओ जाग जाओ, धर्म की श्रद्धा करो। देख लो निज सत्ता शक्ति, मत मोह में अंधा बनो। अनन्त चतुष्टयधारी हो, इसका तुम्हें बहुमान हो ..... रत्नत्रय स्वरूप तुम्हारा, सुख शांति आनन्दधाम हो। पर में मरे तुम जा रहे, इससे ही तुम बदनाम हो।। करना धरना कुछ नहीं, अपना ही बस स्वाभिमान हो..... माया तुमको पेरती, राग द्वेष से हैरान हो। अपना आतम बल नहीं, इससे ही तुम परेशान हो। जाग्रत करो पुरुषार्थ अपना, तुम तो सिद्ध समान हो, ज्ञानानन्द स्वभावी हो, ब्रह्मानन्द के धाम हो। निजानन्द में लीन रहो, सहजानन्द सुखधाम हो। स्वरूपानन्द की करो साधना. इससे ही निर्वाण हो... सम्यकदर्शन की प्राप्ति के बाद संसार परिभ्रमण का न्यूनतम काल अन्तर्मुहूर्त और अधिकतम अर्द्धपुद्गल परावर्तनमान है। सम्यक्त्वकी प्राप्ति से सम्यक्दृष्टि जीव के सांसारिक दोषों का क्रमश: अभाव और आत्म गुणों की क्रमश: प्राप्ति अर्थात् शुद्धिका क्रमप्रारम्भ हो जाता है। पहले आत्मा का आगमज्ञान से ज्ञान स्वरूप निश्चय करके: फिर इन्द्रिय बुद्धिरूपमतिज्ञान को ज्ञानमात्र में ही मिलाकरतथा श्रुतज्ञानरूपीनयों के विकल्पोंको मिटाकर श्रुतज्ञान को भी निर्विकल्प करके एक अखण्ड प्रतिभास का अनुभव करना ही सम्यकदर्शन और सम्यकज्ञान के नाम को प्राप्त करता है। सम्यकदर्शन और सम्यकज्ञान कहीं अनुभव से भिन्न नहीं हैं। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी भजन- ६० धन की कमी नहीं है, मिलना वही मिलेगा । जो 'कुछ भी तुमने बोया, वैसा ही सब खिलेगा ।। १. जैसे कर्म किये थे, वैसा ही पा रहे हो । जो कुछ लिया दिया था, वैसा ही खा रहे हो ॥ २. कैसा किया था हमने, यह प्रश्न उठता मन में । सब सामने है देखो, जिनराज के वचन में ॥ ३. तृष्णा व लोभ से अब, जो पाप कर रहे हो । खुद भोगना पड़ेगा, जो कुछ भी धर रहे हो । ४. बाहर की यह विभूति, सब दान से है मिलती । ७. अंतर की जो विभूति, सच्ची श्रद्धा से खिलती ॥ अब चाहते हो तुम क्या, खुद सोच लो यह मन में । जग में तो सुख नहीं है, सुख न मकान धन में ॥ ६. सुख शांति यदि चाहिये, तो भेदज्ञान कर लो । सब लोभ मोह छोड़ो, संतोष मन में धर लो ॥ अपना नहीं है कुछ भी, तुम हो स्वयं अरुपी । क्यों व्यर्थ में भटकते, ज्ञानानन्द स्वरूपी ॥ भजन- ६१ अब मत नाव डुबइयो रे भैया ॥ १. बड़ी मुश्किल से मौका मिलो है, अब मत धोखा खड़यो. २. श्रावक कुल मानुष भव पाया, धर्म शरण अब गहियो. ३. बहुत फिरे चहुंगति दुःख पाये, अपनी बात बनइयो ४. नाव किनारे आ ही गई है, भूल में मत भटकड़यो. तारण गुरु से सद्गुरु पाये, तारण तरण बन जइयो . ६. भेदज्ञान कर निजानन्द मय, ज्ञानानन्द कहइयो .. TYNA YEAR A YEAR AT YEAR. २८६ १. २. ३. ४. ५. ६. आध्यात्मिक भजन भजन- ६२ देखो प्रभु परमात्मा, अपने में तुम रहो। मत देखो पर की ओर अब, मत व्यर्थ भ्रमो तुम ॥ देखो जगत में कोई भी, कुछ भी नहीं अपना । सब द्रव्य भिन्न अपने से, संसार है सपना... तुम हो अरस अरूपी, निराकार निरंजन । शुद्ध बुद्ध ज्ञायक, चैतन्य भव भंजन... देखो..... सब जीव आत्मायें, अपने में हैं स्वतंत्र । कोई किसी का कर्ता नहीं, कोई न परतंत्र ... . देखो..... पुद्गल का परिणमन भी, सब स्वतंत्र निराला । कर्मों का उदय बंध ही है, इसका रखवाला... कर्मों का बंध नाश, प्रभु होता है तुमसे । देखो. जैसी तुम्हारी दृष्टि हो, और भावना उससे देखो...... अपने में रहो शांत, हो कर्मों का सफाया । कुछ भी न रहे बाकी रहे ज्ञानानन्द छाया ... देखो ...... . देखो श्रुत देवता या जिनवाणी के प्रसाद से ही हमें यह ज्ञात | होता है कि पूजने योग्य कौन हैं और क्यों हैं ? तथा उनकी पूजा हमें किस प्रकार की करनी चाहिये इसलिये जिनवाणी भी पूज्य है। अगर शास्त्र न होते तो हम देव के स्वरूप को भी नहीं जान सकते थे, फिर जिनवाणी स्याद्वाद नय गर्भित है । जो भक्ति पूर्वक श्रुत को पूजते हैं वे परमार्थ से जिनदेव को ही पूजते हैं क्योंकि सर्वज्ञ देव ने श्रुत और देव में थोड़ा सा भी भेद नहीं कहा है। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 074 Ouी आचकाचार जी तारण की जीवन ज्योति : संक्षिप्त परिचय से दूर रहते हैं। यद्यपि सन्तों का लक्ष्य तो आत्म हितकारी वीतरागी मार्ग भारतीय संस्कृति के इतिहास में इस देश के मानव समाज को पर निरंतर चलते रहने और आत्म कल्याण करने का होता है, यही कारण है कि आध्यात्मिक क्रान्ति द्वारा आत्महित की मंगलमयी दिशा देने वाले संतों की वे राग के निमित्तों से हटते बचते हुए स्वभाव की आराधना में रत रहते हैं फिर / परम्परा में वीतरागी संत आचार्य श्री जिन तारण स्वामी का नाम अग्रणीय है। भी खिले हुए पुष्प की फैलती हुई सुगंध की भांति ज्ञानी महापुरुषों की आत्म भारत अध्यात्म प्रधान देश है। यहां समय-समय पर अध्यात्मवादी संतों आराधना और वीतरागता की महिमामय साधना की सगंध चहं ओर फैलती है. ने जन्म लेकर धर्म के नाम पर क्रियाकाण्ड आडम्बर और पाखण्डवाद से शोषित, जिससे जगत के जीव सहज ही उनकी ओर आकर्षित होते हैं और उनसे विशाल जन समुदाय को सन्मार्ग दिखाया, मानवीयता का मूल आधारभूत , वीतरागी तत्व ज्ञान प्राप्त कर आत्म कल्याण करते हैं। अध्यात्ममय धर्म का स्वरूप जगत के जीवों को बताकर अनन्त-अनन्त उपकार श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज का जन्म जैन कुल में किया है। ॐ अवश्य हुआथा ; परन्तु वे जाति सम्प्रदाय आदि के सभी बन्धनों से दूर जन-जन सन्त तारण स्वामी ऐसे ही महान व्यक्तित्व के धनी थे। जिनके जीवन के सन्त थे। संसार के समस्त जीवों के प्रति जिनके हृदय में करुणा का सागर में अध्यात्म और वीतरागता का अपूर्व सामंजस्य था। प्रचुर स्व संवेदन सहित हिलोरें ले रहा हो और प्राणी मात्र जिन्हें परमात्म स्वरूप दिखाई देता हो ऐसे जिनकी वीतराग दशा दिनों दिन बढ़ रही हो और जिनके जीवन से आध्यात्मिक संत के अन्तरंग में "अयं निजः परोवेत्ति" यह अपना है और यह पराया है, ऐसी महान क्रान्ति का इतिहास जुड़ा हो, ऐसे महान प्रतिभा सम्पन्न आचार्य तारण हैं निम्न भावना तो होती ही नहीं है अपितु “वसुधैव कुटुम्बकम्' का उदार स्वामी अपने आप में विरले ही सन्त थे। उनका जन्म सोलहवीं शताब्दी में विक्रम चारित्र प्रगट होता है और यह विशेषता सन्त तारण स्वामी के जीवन में उनकी संवत् १५०५ मिती अगहन सुदी सप्तमी को पुष्पावती नगरी (बिलहरी) में पिता आत्मानुभूति तथा अध्यात्म साधना के द्वारा प्रगट हुई थी। उनका व्यक्तित्व श्री गढ़ाशाह जी, माता श्री वीरश्री देवी के यहाँ हुआ था। इतना प्रभावशाली था कि जो भी व्यक्ति उनका जन कल्याणकारी उपदेश बचपन से ही वैराग्य सम्पन्न साधुता के संस्कारों से ओतप्रोत श्री जिन सुनता, उनके दर्शन करता वह स्वयं ही उनके प्रति श्रद्धा सहित समर्पित होकर तारण स्वामी ने अल्पवय में ही विशिष्ट ज्ञानार्जन कर वीतरागीधर्म मार्ग पर चलने अध्यात्म का मार्ग ग्रहण कर लेता था। का दृढ़ संकल्प करके स्वयं आत्म कल्याण के मार्ग पर चलते हए भारतीय ऐसे आध्यात्मिक क्रान्तिकारी संत श्री गुरू तारण स्वामी के जीवन वसुन्धरा पर मानव मात्र के लिये हितकारी शुद्ध अध्यात्मवाद का शंखनाद परिचय को जानने की जिज्ञासा समस्त समाज बन्धओं को रही है परन्त उनके किया और जन-जन को यह स्पष्ट रूप से बता दिया कि मानव का धर्म एक मात्र ही ग्रन्थों में अन्तर्निहित उनके जीवन्त परिचय को खोजने वाली दृष्टि का अभाव अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप की पहिचान कर अहिंसा, सत्य, मैत्री, दया और होने से समाज की इस जिज्ञासा की पूर्ति अभी तक न हो सकी थी। वर्षों से चली प्रेममय जीवन बनाना ही है। * आ रही इस अपूर्ण जिज्ञासा की पूर्ति के लिये यह मात्र तारण तरण जैन समाज सत्-असत् के पारखी, सत्य के अनुभवी सन्त कहलाते हैं। आत्म का ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण जैन समाज का सौभाग्य है कि वीतरागी महान संत ज्ञानी वीतरागी सन्तों को जनरंजन राग, कलरंजन दोष, और मनरंजन गारव से सद्गुरू श्री जिन तारण स्वामी की परम्परा में अध्यात्म शिरोमणी पूज्य श्री कोई प्रयोजन नहीं रहता इसीलिये वे यश की चाह और लौकिक प्रभावना के राग ज्ञानानन्द जी महाराज विगत २५ वर्षों से अध्यात्म साधना में रत रहते हुए सम्पूर्ण २८७ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nenco श्री आवकाचार जी समाज को अध्यात्ममय जन जागरण की एक नई दिशा प्रदान कर रहे हैं। "तारण की जीवन ज्योति" पूज्य श्री के द्वारा लिखी गई अनमोल कृति है । इसकी रचना का इतिहास भी बहुत ही चित्ताकर्षक है। जिन-जिन ग्रन्थों के आधार पर यह सृजित हुई है, उन ग्रन्थों का समावेश इसकी रचना के इतिवृत्त में ही समाहित हो जाता है । तारण की जीवन ज्योति की रचना के पूर्व पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज ने अष्टान्हिका पर्वों के अवसर पर, दीपावली के अवसर पर, पर्यूषण पर्वों के समय में अनेकों बार श्री तारण तरण अध्यात्म वाणी जी चौदह ग्रन्थों का आद्योपांत स्वाध्याय मनन किया और साथ ही साथ ठिकानेसार, निर्वाण हुँडी, न्यानपिंड की पाल्हड़ी आदि ग्रन्थों का गहराई से चिन्तन किया। चौदह ग्रन्थों की कुछ प्राचीनतम हस्तलिखित पांडुलिपियों का भी बारीकी से अवलोकन किया, अन्त में श्री ममलपाहुड़, छद्मस्थवाणी जी और नाममाला आदि ग्रन्थों का सूक्ष्मता से अध्ययन कर साधना में संलग्न रहते हुए उपरोक्त ग्रन्थों के आधार पर ईस्वी सन् १९७७-७८ में तारण की जीवन ज्योति लिखने की पृष्ठ भूमि तैयार की ; पश्चात् सन् १९७९ में बरेली में पूज्य श्री प्रतिज्ञा पूर्वक दो माह की मौन साधना रत रहे । इस मौन साधना के समय में ही जीवन ज्योति का लेखन कार्य प्रारंभ हुआ और उसके बाद जब-जब भी एक-एक, दो-दो, माह की मौन साधना की, "तारण की जीवन ज्योति” अनवरत रूप से लिखाती रही। SYS A YEAR A YEAR AT FEAT. विशालता की दृष्टि से यह चार भागों में विभाजित है। संत तारण स्वामी की जीवनी सरलता से सबकी समझ में आ सके इस बात का ध्यान रखते हुए पूज्य श्री ने तारण की जीवन ज्योति को एकांकी के रूप में लिखा है। इसके चार भागों में परिच्छेदों की संख्यायें भिन्न-भिन्न हैं। पहले भाग में ३२ परिच्छेद हैं, इसमें माँ वीरश्री और तारण स्वामी की आपस में चर्चा हृदय को वैराग्य भावनाओं 5 मय कर देने वाली है। तारण स्वामी ने २१ वर्ष की किशोरावस्था में बाल ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने का संकल्प किया इसके पश्चात् उनके वैराग्य भाव एवं धर्म मार्ग पर आगे बढ़ने की भावनाओं के कारण सब जीवों में प्रभावना होने लगी और मंदिर में दो बहिनों की वार्ता तथा दो मित्रों की चर्चा भी इस प्रथम २८८ जीवन ज्योति परिच्छेद में दी गई है। इसके आगे के परिच्छेदों और भागों में सद्गुरू के जीवन परिचय को स्पष्ट करने वाला विषय क्रमशः वृद्धिगत होता गया है। प्रथम परिच्छेद में हुई चर्चा वार्ताओं के पश्चात् अन्य प्रकरणों में चंदेरी गादी पर स्थित तत्कालीन भट्टारक, गुप्तचर से समय-समय पर तारण स्वामी से संबंधित सब जानकारी करते रहते थे, वह इतिहास इसमें आया है। तारण स्वामी के अन्य साथियों की तत्व चर्चायें, भजन फूलनामय अध्यात्म भक्ति के कार्यक्रम, विरउ ब्रह्मचारी की पंडितवर्ग, श्रेष्ठिवर्ग व अन्य बंधुओं से हुई चर्चायें, रुइया रमण, कमलावती, विरउ, वैद्य, डालु, पाताले, मनसुख आदि प्रमुख शिष्यों व पंडित वर्ग के लोगों की समय-समय पर हुई बैठक और उनमें लिये गये सामाजिक धार्मिक अनुशासनपूर्ण निर्णय, इन सब चर्चा वार्ताओं के साथ ही सद्गुरू तारण स्वामी की अध्यात्म साधना और शुद्ध अध्यात्म के शंखनाद से हुई आध्यात्मिक क्रांति, तारण स्वामी का उपदेश, सद्गुरू द्वारा प्रारम्भ हुई वीतराग धर्म की प्रभावना, समाज में आध्यात्मिक क्रांति एवं जागरण, भट्टारकों और उनके ही पांडे पंडितों को यह सत्य धर्म की प्रभावना सहन न होना, फल स्वरूप अनेक प्रकार के प्रलोभनों में तारण स्वामी को फंसाने का उपक्रम....षड़यंत्र.... लेकिन सब निरर्थक ही रहे। संत तारण स्वामी को अपने छल प्रपंच के जाल में फंसा पाने में असमर्थ भट्टारकों द्वारा की गई गुप्त मंत्रणायें, जहर देने का षड़यंत्र, धन का लोभ देकर एवं सामाजिक दबाव से भयभीत कर मामा श्री लक्ष्मण सिघई के द्वारा जहर दिलवाना, लोगों में क्रांति और तारण स्वामी का अपूर्व समता भाव, माँ वीरश्री का समाधिमरण, तारण स्वामी की सप्तम प्रतिमा की दीक्षा होना, विशेष साधना प्रभावना होना, पुनः असंतुष्ट पाण्डे पंडितों द्वारा षड़यंत्र पूर्वक तारण स्वामी को नदी में डुबाने की योजना और तीन बार डुबाने पर तीन टापू बनना आदि सभी घटनायें अत्यंत मर्मस्पर्शी हैं । इतना सब होने के बाद भी तारण स्वामी का उत्तम क्षमा भाव महान आदर्श के रूप में प्रगट होता है। इन सभी घटनाओं को जीवन ज्योति में पढ़ने से हृदय रोमांचित हो उठता है। तारण पंथ का निर्माण किन कारणों से हुआ, कब और कैसे हुआ, ७ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाच मताम 04 श्री आपकाचार जी जीवनज्योति इसमें किसकी भूमिका प्रमुख रही, तारण पंथ का मूल आचार क्या है और कैसे पांच मतों में विभाजित चौदह ग्रंथों का विशाल भंडार है। बना? यह सभी तलस्पर्शी रहस्य क्रमानुसार चारों भागों में विशद् विवेचन सहित पांच मतों में चौदह ग्रंथों की रचना इस प्रकार है - स्पष्ट हुए हैं। समाज के बंधुओं की या जो जीव इन रहस्यों को समझना चाहते हैं विचार मत में -श्री मालारोहण, पण्डितपूजा, कमलबत्तीसी जी। उन सबकी समस्त जिज्ञासाओं का समाधान है -“तारण की जीवन ज्योति"* आचार मत में - श्री श्रावकाचार जी। जो संत तारण स्वामी के जीवन परिचय को विविध आयामों से स्पष्ट करती है। सार मत में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पूज्य श्री महाराज जी की लेखनी इतने गहरे तल ममलमत में -श्री चौबीस ठाणा, ममल पाहुड़ जी। में पहुंची है कि अनेक घटनाओं के घटते हुए भी सद्गुरू तारण स्वामी का केवल मत में -श्री खातिका विशेष, सिद्ध स्वभाव, सुन्न स्वभाव, वीतरागी व्यक्तित्व अलग ही झलकता है जो अपने आपमें परम सत्य है। छद्मस्थवाणी तथा नाममाला ग्रंथ हैं। साठ वर्ष की उम्र में संत तारण स्वामी ने निग्रंथ वीतरागी दिगम्बरी दीक्षा 8 इन पाँच मतों में विचार मत में-साध्य, आचार मत में-साधन, सार मत (मुनि दीक्षा) ग्रहण की यह प्रकरण भी आनंदप्रद होने के साथ-साथ हृदय को में-साधना, ममलमत में-सम्हाल (सावधानी) और केवल मत में-सिद्धि का अनेक प्रकार की झांकियां दिखलाते हैं तथा तारण स्वामी के इस तरह दर्शन मार्ग प्रशस्त किया है। इसके लिये आधार दिया है क्रमश: भेदज्ञान, तत्वनिर्णय, कराते हैं जैसे कि सब प्रत्यक्ष में ही हो रहा हो। वस्तुस्वरूप, द्रव्य दृष्टि और ममलस्वभाव का, जिनसे उपरोक्त साध्य आदि श्री जिन तारण स्वामी का मंडलाचार्य होना, उनके संघ में स्थित सात की सिद्धि होती है। निग्रंथ मुनिराजों द्वारा धर्म प्रभावना होना, आर्यिकाओं द्वारा वीतराग धर्म की इन ग्रंथों में आध्यात्मिक दृष्टिकोण से आगम और अध्यात्म के महिमा होना. अनेक ग्रामों, नगरों से समह रूप में जैन- अजैन बंधओं एवं 5 सैद्धांतिक विषय प्रतिपादित किये गये हैं। श्री गुरू तारण स्वामी की सभी राजा-महाराजाओं का कुटम्ब सहित आना और तारण पंथी होना, विशेष धर्म रचनायें मौलिक और अपने आपमें विशेष महत्वपूर्ण होते हुए संसार के दःखों प्रभावना द्वारा लाखों लोगों में धर्म की रुचि और आध्यात्मिक जागरण, साधर से मुक्त होने तथा साधनामय जीवन बनाकर आनंद परमानंद मयी अविनाशी दशा में भी श्री जिन तारण स्वामी के ऊपर उपसर्गों का होना, महान क्रांति का मुक्ति पद प्राप्त करने के लिये मानव मात्र को अमर संदेश दे रही हैं। एक इतिहास बनना यह सब अलग-अलग प्रकरणों में वर्णन है। । भारतीय संस्कृति के जीवन में अध्यात्म संजीवनी के द्वारा अंतर अंत में विक्रम संवत् १५७२ में श्री निसई जी ( मल्हारगढ़) के वन में जागरण रूप प्राणों का संचार कर देने वाले महान क्रांतिकारी संत आचार्य श्री वीतरागी संत श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने समाधि पूर्वक जिन तारण स्वामी जैसे वीतरागी सद्गुरू को पाकर यह भारतीय संत परम्परा भौतिक शरीर का त्याग कर सर्वार्थ सिद्धि गमन किया, इन सभी घटनाओं का धन्य है, कृत कृत्य है। जिसमें ऐसे महापुरुष ने जन्म लिया जिन्होंने वृक्ष की तरह विशद विवेचन तारण की जीवन ज्योति में आया है, जो सभी जीवों को प्रमदित5 स्वयं कष्ट सहकर भी फल देते रहने की भांति स्वयं उपसर्गों को सहन करते ५ 9 आनंदमय करने वाला और प्रत्यक्षवत् ही श्रीगरू का दर्शन कराने वाला है। हुए भी आत्म कल्याण के लक्ष्य पर दृढ़ता से स्थिर रहकर देश के मानव समाज आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण स्वामी का जैसा आध्यात्मिक को हितकारी अध्यात्म संदेश दिया जिसके फलस्वरूप देश में निवास कर रहे वीतरागी व्यक्तित्व था वैसा ही उनके द्वारा लिखा गया साहित्य अध्यात्म की सभी जातियों के लाखों लोग उनके बताये हुए मार्ग पर चले। अनुभूतियों सहित है, जो जीव मात्र के लिये कल्याणकारी है। तारण साहित्य ईस्वी सन् १९८६ में धर्म दिवाकर स्व.पूज्य श्री गुलाबचन्द जी महाराज Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवकाचार जी के संरक्षण एवं अध्यात्म शिरोमणी पूज्य श्री ज्ञानानंद जी महाराज के निर्देशन में श्री निसई जी क्षेत्र पर चौदह ग्रंथों का शुद्ध मूलपाठ हुआ। जिसका प्रकाशन श्री तारण तरण जैन तीर्थ क्षेत्र निसई जी ट्रस्ट द्वारा हुआ। इस अध्यात्मवाणी जी ग्रंथ के पृष्ठ संख्या ४३० पर नाममाला ग्रंथ में शिष्य संख्या के बारे में इस प्रकार लिखा है " जोड़ सर्व ४३४५३३१ " इस कथन से यह सिद्ध होता है कि आचार्य तारण स्वामी के शिष्यों के नाम स्थान आदि का परिचय देने वाले नाममाला ग्रंथ में प्रारंभ से ही जो भिन्न भिन्न संख्यायें आई हैं, उन सबका जोड़ उपरोक्त तिरतालिस लाख पैंतालीस हजार तीन सौ इकतीस होता है। इतनी बड़ी संख्या में सभी जातियों के लोग उनके अनुयायी बने थे। समाज में जिज्ञासु जीव हमेशा यह प्रश्न करते हैं कि इतनी बड़ी संख्या में तारण पंथी थे फिर वर्तमान में उतनी संख्या क्यों नहीं है, इतनी बड़ी संख्या के लोग कहाँ गये ? इस जिज्ञासा का समाधान भी नाममाला में आया है और उसी के आधार पर तारण की जीवन ज्योति के चार भाग पूर्ण होने के बाद तारण समाज के पूर्ववर्ती इतिहास में पूज्य श्री ने ४३४५३३१ में कमी होने का रहस्य भी स्पष्ट किया है। इतना बड़ा विशाल जनसमुदाय जिनका अनुयायी बना, जिनने संपूर्ण भारत वर्ष में अध्यात्म का शंखनाद किया। मानव मात्र को आत्म कल्याण का मार्ग बताया, जाति-पांति से दूर वास्तविक अध्यात्म धर्म का स्वरूप जगत के जीवों को बताकर मानवीय एकता और धार्मिक सद्भावना का सूत्रपात किया। ऐसे महान वीतरागी संत सद्गुरू श्री जिन तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज के जीवन परिचय की विशद् विवेचना सहित चार भागों में विभाजित " तारण की जीवन ज्योति " का स्वाध्याय चिंतन-मनन कर सभी जीव लाभान्वित हों और उनके वीतरागी व्यक्तित्व को समझकर स्वयं के भी आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त करें इसी मंगल भावना से प्रथम भाग के तीन परिच्छेद और संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है । 5 छिंदवाड़ा दिनांक- ५.२.२००१ mesh remnach news mosh ब्र. बसन्त २९० जन्म श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय जन्म स्थान पिता का नाम माता का नाम जाति जन्म का नाम ॥ ॐ नमः सिद्धं वन्दे श्री गुरु तारणम् - - - जीवनज्योति - - मिती अगहन शुक्ला सप्तमी विक्रम संवत् १५०५ पुष्पावती (बिलहरी) म. प्र. पूज्य श्री गढ़ाशाह जी पूज्या वीरश्री देवी दिगम्बर जैन तारण जीवन परिचय पांच वर्ष की बाल्यावस्था तक पुष्पावती में रहना, बाद में मामा के यहाँ सेमरखेड़ी आना, यहीं पर शिक्षा दीक्षा होना। ग्यारह वर्ष की अल्पवय में नाना जी के स्वर्गवास होने पर वैराग्य का जागरण होना । धर्म शिक्षा पढ़ने के लिये चंदेरी श्री भट्टारक जी के पास जाना। इक्कीस वर्ष की किशोरावस्था में ब्रह्मचर्य व्रत का नियम लेना। तीस वर्ष की आयु में ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण करना । आत्म साधना, धर्म प्रभावना होना। साठ वर्ष की उम्र में निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु होना । ६६ वर्ष ५ माह १५ दिन की आयु में मिती ज्येष्ठ वदी ६ विक्रम संवत् १५७२ में समाधिमरण और सर्वार्थसिद्धि गमन । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । तारण की जीवन ज्योति । श्री आचकाचार जी मंगलाचरण देव देवं नमस्कृतं,लोकालोक प्रकासकं । त्रिलोकं भुवनार्थं जोति, उवंकारं च विन्दते॥ अज्ञान तिमिरान्धानां, ज्ञानांजन शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः॥ श्री परम गुरवे नमः, परम्पराचार्येभ्यो नमः॥ प्रार्थना गुरू तारण तरण, आये तेरी शरण । हम डूब रहे मझधार, नैया पार करो॥ काल अनादि से डूब रहे हैं। चारों गति में घूम रहे हैं। भोगे हैं दु:ख अपार....नैया पार करो....गुरू .... अपने स्वरूप को जाना नहीं है। तन धन को पर माना नहीं है। करते हैं हा हा कार....नैया पार करो....गुरू .... हमको आतम ज्ञान करा दो। सच्चे सुख का भान करा दो । श्रावक कर रहे पुकार....नैया पार करो....गुरू .... vedacherveodiaeruvatabaervedabse माँ वीरश्री और तारण की चर्चा माँ- बेटा तारण ! तूने विवाह करने से मना कर दिया, क्या बात है बेटा ? पांडे जी , की बच्ची बड़ी सुशील, सुंदर, पढ़ी-लिखी है, भक्तामर, तत्वार्थ सूत्र पढ़ती है, अच्छे भजन गाती है, मुझे बहुत पसंद है। तारण-माँ ! मुझे विवाह ही नहीं करना, इस संसार बंधन में नहीं फंसना,बच्ची से कोई प्रयोजन नहीं है। माँ- अरे ! तू इक्कीस वर्ष का पढ़ लिखकर इतना बड़ा हो गया, कहता है विवाह नहीं करना । बेटा मैंने इसी दिन की आस में तेरे पीछे कितनी मुसीबतें भोगी हैं। कहाँ - कहाँ भटकना पड़ा है ? बेटा बचपन से ही तेरे ऐसे लक्षण हैं, जब तू गर्भ में आया तब मुझे चार अद्भुत स्वप्न दिखे-(१) लहराता हुआ समुद्र, (२) परम दैदीप्यमान ऊगता हुआ सूर्य, (३) कमल पुष्प पर बैठी हुई लक्ष्मी का हाथियों द्वारा अभिषेक, (४) भयानक वन में सिंह गर्जना । बेटा तेरा जन्म होते ही तेरे पिताजी को यश और सम्मान मिला, पहले राज्य की साधारण लिखा-पढ़ी करते थे,फिर कोषाधीष पद दिया गया । तेरे जन्म पर राज्य भर में खुशियाँ मनायी गई, बड़े उत्सव हुए, बड़े आनंद से लालन पालन हुआ। तेरी पाँच वर्ष की उम्र में राज्य में क्रांति हुई और लड़ाई - झगड़े होने लगे। अकस्मात् कोषालय में आग लगने से सब कागजात जल गये, तेरे पिताजी बड़ी चिंता में पड़ गए, तूने तेरे पिताजी को कमरे में बिठाकर उन्हीं के द्वारा ? रात भर में सब कागजात तैयार करवा दिये । राजा को इस बात का पता लगा और उन्होंने तुझे दरबार में बुलाया । हम तेरे अनिष्ट की आशंका से तुझे लेकर रात में ही भगा दिये और गढौला ग्राम में आकर एक जमींदार के यहाँ शुद्धात्मा जिनका सुरत्नत्रय निधि का कोष था। रमण करते थे सदा निज में जिन्हें संतोष था । तारण तरण गुरुवर्य के चरणार विंदों में सदा । हो नमन बारम्बार, निजगुण दीजिये शिव शर्मदा ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H श्री श्रावकाचार जी मुकाम किया। वहाँ पर जमींदार कई दिन से बीमार था । तुझे देखकर उसने तुझे गोदी में लिया, तेरे स्पर्श करने मात्र से उसका रोग दूर हो गया । यह चर्चा गाँव भर में फैल गई और बहुत लोग आने लगे, तुझे भगवान का ई अवतार मानने लगे, हमको डर लगा और हम तुझे लेकर वहाँ से भी चल दिये । सूखा ग्राम में आये, वहाँ आस - पास पानी नहीं था । कुआं खोदने पर वहाँ पानी नहीं निकलता था। सभी ग्रामवासी बड़े दु:खी थे, तूने एक स्थान बताया, वहाँ दस हाथ पर ही पानी निकल आया , सारे ग्राम में : खुशियाँ मनायी गईं। वहाँ भी सब तुझे भगवान मानने लगे । एक साधु वहीं 5 बगीचे में मंत्र सिद्ध कर रहा था, पर मंत्र सिद्ध नहीं हो रहा था, तेरे दर्शन मात्र से उसका मंत्र सिद्ध हो गया, वह तुझे अपना गुरू मानने लगा। हमारी तो आफत होने लगी, वहाँ से भागकर यहाँ भैया के गाँव में आकर बसे, यहाँ भी तेरी करतूतों से रात -दिन झंझट ही रहती है । कोई गुरू मानता है, कोई भगवान कहता है, कोई तारण स्वामी ; और तेरे मामा भी तेरे विरोध में रहते हैं, रात दिन उलाहना देते हैं। बेटा, जब तू ग्यारह वर्ष का था, तब तेरे नानाजी का स्वर्गवास हुआ था । हम सबके मना करने पर भी तू शव यात्रा में चला गया और वहाँ से लौटने पर तेरी विचित्र दशा हो: गई,बिल्कुल विरक्त वैरागी हो गया । तेरे मामाजी ने तुझे इसीलिये चंदेरी भट्टारक जी के पास पढ़ने भेजा था ; पर वहाँ से लौटकर भी तेरे वही 5 हाल हैं । बेटा, यह कैसा होता जा रहा है ? अब यह सब छोड़कर अपने पिताजी के व्यापार में हाथ बंटा और मेरी भी इतने दिनों की साध को पूरी करने दे। अच्छे आनंद उत्साह से विवाह करने दे। तारण- माँ ! जगत का परिणमन स्वतंत्र है, जिस समय जैसा होना है, सब होता है। जैसा होना होता है वैसे निमित्त मिल जाते हैं, कोई किसी का कुछ नहीं vedasierrettaserevedodiaervedadi कर सकता । सबका अपने-अपने कर्मानुसार परिणमन होता है, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं कर सकता, यह अटल सिद्धान्त है । हम अपनी मिथ्या मान्यता से मोह में फंसकर चाहे जैसा मान लें और चाहे जैसा करें परन्तु यथार्थ में हमारा अज्ञान भाव, मोह, राग-द्वेष ही हमारे दुःख का कारण है। अपनी पर द्रव्य में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना ही सुख-दु:ख देती है और फिर यह सब संसार का ही कारण है । जीव तो अजर-अमर, अविनाशी, निराकार, शुद्ध, सिद्ध के समान परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप है । यह शरीर अजीव जड़ पुद्गल है, इससे जीव सर्वथा भिन्न है । हम अपनी मिथ्या मान्यता से ही सबको अपना मान रहे हैं, माता-पिता, भाई-बहिन, स्त्री-पुरुष, परिवार, धन वैभव........ अरे ! जब यह शरीर ही अपना नहीं है तो फिर कौन किसका है ? यह सब तो स्पष्ट ही 'पर' हैं, यह व्यर्थ ही मिथ्या मोह में फंसकर यह जीव अपने अज्ञान से अनादि काल से चार गति चौरासी लाख योनियों में भटकता फिर रहा है । जन्म-मरण कर रहा है, सुख-दु:ख भोग रहा है, इसका कोई साथी नहीं है, अकेला आता है और अकेला जाता है , इस प्रकार अनादि काल बीत गया ।अब बड़े सौभाग्य से यह मनुष्य पर्याय, जैन धर्म, वीतराग सर्वज्ञ देव की वाणी का सुयोग प्राप्त हुआ है ; तो क्या अब इसे भी विषय भोग में, मोह-राग में फंसकर व्यर्थ गंवाना है। माँ ! अब तो अपनी आत्मा का कल्याण करना है, सुख-दु:ख नहीं भोगना है, अब तो सच्ची मुक्ति श्री का वरण करना है, पूर्ण आनन्द अनन्त सुख को प्रगट करना है। अब तुम इस झूठे मोह में मत फंसो,अपना भी कल्याण करो, धर्म धारण करो। नरतन पाया बड़े भाग्य से, अब तो सुन लो जिनवाणी। काये मोह में पड़े हुए हो, बीत रही है जिन्दगानी ॥ अगर लगे रहे इन्हीं सब में, वृथा जिन्दगी खोओगे। यह सब कुछ काम न देंगे, नरक निगोद में रोओगे। २९२ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 0 श्री आचकाचार जी करो मनन शुद्धातम का अब,संयम तप और दान करो। सत्संगति से धर्म के द्वारा, अपना तुम कल्याण करो ॥ माँ- (दुःखित भाव से) बेटा ! यह माँ की ममता को तू क्या जाने ? यह धर्म की ई बातें यहाँ संसार में नहीं चलतीं । यहाँ तो अनादि से यही सब वंश परम्परा चलती चली आई है, इसी के लिये सब लालायित रहते हैं। बेटा, अपन तो संसारी हैं, इसी प्रकार सब करना और रहना पड़ता है, इन बातों में कोई सार नहीं है। बेटा, अब यह ऐसी बातें मत कर, तेरे पिताजी भी तेरे इन लक्षणों से दु:खी रहते हैं, देख बेटा, माता -पिता की आत्मा को मत दुखा, विवाह कर और यह सब काम-काज सम्हाल, हमें सुखी रहने दे, अब हमें और परेशान मत कर। तारण- (जोश में) माँ ! मेरे विवाह नहीं करने से या यह सब पापकार्य का भार नहीं सम्हालने से तुम्हारी आत्मा दुःखी रहती है या अपने मोह अज्ञान के कारण ? जरा विचार करो । क्या तुम यह चाहती हो कि तुम्हारा बेटा दुःख भोगे, नरक-निगोद में जाये, जन्म-मरण करता फिरे ? अगणित जीव भये इस जग में, कर्म उदय सबके संग आयो। कर करके वे मर भी गये, उनको नहीं कोई पूछन आयो । कर्म उदय में लिप्त भये, तिन जीवों ने कर्म ही कर्म कमायो। धर्म के मारग जो भी चले, तिन अपनो जीवन सफल बनायो । धर्म को धारण जिनने कीनो, उनने ही मोक्ष परम पद पायो। खुद भी पुजे उन वंश पुजो, उन मात पिता मी अमर पद पायो॥ माँ ! अब इस झूठे मोह में मत फंसो, विवेक से काम लो । विचार करो, स्वयं भी आत्म कल्याण करो और आत्म कल्याण करने वाले जीवों के सहायक बनो, बाधक मत बनो। reaknenormeshknorreshneonomictor माँ- (अंश्रुपूरित) नहीं बेटा, हम तो यह चाहते हैं कि तू खूब सुखी रहे, परम आनन्द में रहे, अच्छा धर्म का पालन करे, सदाचारी बने, सब जीवों का हितकारी हो । बेटा, हमारी आत्मा तो इससे प्रसन्न होती है, हमारा नाम बढ़ता है। अभी सबलोग तेरी कितनी प्रशंसा करते हैं, हमारा सम्मान करते हैं, हमारा धन्य भाग्य है ; परन्तु बेटा इसमें विवाह नहीं करने, ग्रहस्थी नहीं बसाने का क्या प्रश्न है ? इसी से तो सब सुखी होते हैं और यही सुख सब चाहते हैं कि हमारे पुत्र हो, परिवार हो, धन हो, वैभव हो, मान हो, सम्मान हो, नाम हो ; और क्या चाहिये ? इसी के लिये सब उठा-पटक झंझट करते हैं। तारण- माँ ! जरा विचार करो, क्या यह सच्चा सुख है ? क्या इससे किसी का कल्याण हुआ है ? यह सब तो दु:ख कर्म बंध और आकुलता के ही कारण हैं और इन्हीं के कारण यह जीव अनादि काल से जन्म-मरण करता, दु:ख भोगता हुआ चारों गतियों में भ्रमण करता फिर रहा है। अपने इस मिथ्या मोह के कारण इस जीव ने सच्चे सुख के स्वरूप को सुना समझा ही नहीं, देखा ही नहीं और इसी झूठी कल्पना में अपना जीवन गंवाता चला आ रहा है। माँ, जरा विचार करो, क्या किसी को इन संसारी कारणों से, धन-वैभव से,पुत्र, परिवार से सुखी होते देखा है ? क्या कोई सुखी हुआ है ? जिसके हैं वह भी दु:खी और जिसके नहीं हैं वह भी दुःखी । संसार में कोई सुखी है ही नहीं। जग मांहि जितने जीव हैं, दिखते न कोई भी सुखी। धनवान तृष्णावश दु:खी, बिन धन के निर्धन दुःखी॥ है सर्व दु:ख का मूल कारण, दृष्टि सदैव परोन्मुखी। विन ज्ञान के जग में कमी, कोई न होता है सुखी ॥ माँ, जरा विचार करो, इस झूठी मान्यता को छोड़ो । सच्चा सुख कहां है ? कैसे मिलता है ? इसे परम गुरू श्री वीतराग सर्वज्ञ देव की वाणी में सुनो, २९३ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOU श्री चकाचार जी जीवनज्योति ROO समझो और अपने इस मनुष्य जीवन को सफल बनाओ। उस शाश्वत सुख को करना पड़े मैं करूंगा। धर्म का सच्चा स्वरूप जगत के जीवों को बताऊंगा। प्राप्त करने का पुरुषार्थ करो । स्वयं का कल्याण करो और सब जीवों के माँ ! तू मेरे धर्म के मार्ग में इस मोह की बाधा मत डाल । कल्याण का मार्ग प्रशस्त करो। ई माँ- (अश्रुपूरित) बेटा ! बेटा ! यह तू क्या कह रहा है, जरा विचार कर । कोई भी इस नरभव की पात्रता, मिले मुक्ति का बार। माँ-बाप अपने बेटे को कुंवारा नहीं देख सकते । सब कुछ सह सकते हैं लेकिन । मोह राग में मर गये, कोई न पूछनहार ॥ बेटे का कुंवारा रहना बर्दाश्त नहीं कर सकते । सभी चाहते हैं कि अपना नाम कोई न पूछनहार, खुदई दुर्गति में जड़ है। चले, वंश बढे ; और इसीलिये इतनी मुसीबतें तकलीफें भोगकर बच्चे का कोई न दे है साथ, दु:ख तू खुद ही पड़ है। लालन-पालन करते हैं। बेटा ! माँ-बाप की आत्मा कितनी ममतामयी होती माँ- बेटा ! हम यह बातें जानते ही नहीं हैं, हम तो जैसे रहे हैं, देखा है, किया है, है, बेटे के लिये क्या नहीं करते, क्या नहीं भोगते ? इसी दिन के लिये कि वही कहते हैं, उसे ही सुख मानते हैं । तेरी बातें तो बड़ी अटपटी हैं। उस रोज विवाह करेंगे, वंश बढ़ेगा, हमारा नाम अमर होगा । जरा विचार कर, बेटा ! मन्दिर जी में सब तेरी ओर टकटकी लगाए देख रहे थे । भट्टारक जी तो ऐसी बातें मत कर, ऐसा कठोर ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण मत कर। कितने क्रोधित हो रहे थे, जब तू समयसार, परमात्म प्रकाश की गाथाओं की तारण- माँ ! क्या विवाह करने और बच्चे पैदा करने से नाम अमर होता है ? क्या विवेचना कर रहा था । बेटा ! अपने को क्या करना है ? अब तू ऐसी चर्चा बता सकती हो कि इस प्रकार कितने वंश बढ़े, कितनों के नाम अमर हुए ? मत किया कर। क्या तुम अपने दादा के दादा का नाम बता सकती हो ? और तुम्हारे दादा, तारण- (जोश में) माँ ! सत्य को सत्य न कहना महापाप है । जिनेन्द्र देव के वचनों परदादा को कौन-कौन जानता है और वह कितने अमर हो गये? माँ ! का लोपन करना बड़ा अपराध चोरी है । आज तक इस जीव ने सत्य कितने मोह जाल में फंसी हो ? देखो श्री महावीर स्वामी कब हुए थे ? को सुना नहीं है इसलिये असत्य अज्ञान में भटक रहा है । कुगुरुओं, लोभी, माँ- बहुत समय हो गया, करीब दो हजार वर्ष हो गये हैं। लालची, ढोंगी त्यागियों के जाल में फंसकर मिथ्यात्व का सेवन कर रहा है, तारण- उनका नाम जानती हो, सारा संसार जानता है। उनके माता-पिता का नाम मिथ्या बाह्य आडंबर में उलझा है। धर्म का स्वरूप क्या है ? धर्म किसे कहते सभी जानते हैं। क्यों ? क्या उन्होंने विवाह किया था ? वंश बढ़ाया था, हैं ? इससे अनभिज्ञ मिथ्या मान्यताओं में, कुदेव आदि की पूजा मान्यता में है इसलिये ? फंसा अपना संसार बढ़ाता चला जा रहा है । इन कुगुरुओं ने धर्म को जटिल 5 माँ- नहीं बेटा ! वह तो भगवान थे। उन्होंने तो समस्त जीवों को धर्म का उपदेश , बना दिया है । माँ ! मैं यह सब असत्य अज्ञान नहीं देख सकता, स्वीकार नहीं दिया, मुक्ति का मार्ग दिखाया, खुद जगे और हमें जगाया । वह तो हमारे " कर सकता । मैं इन भूले भटके जीवों को सत्य मार्ग का दर्शन कराऊंगा, परम पूज्य थे, उनका क्या वह तो अवतारी पुरुष थे, भगवान थे। इन मिथ्या आडंबरों से छुड़ाऊंगा। इसके लिये मुझे कुछ भी त्याग बलिदान तारण- माँ ! बस यही तो भूल है, महावीर भी हमारी तरह ही संसारी जीव थे, मनुष्य reakkorrucknekriorreckoneine २९४ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ on श्री श्रावकाचार जी जीवनज्योति ROO थे। उन्होंने धर्म को धारण किया, सत्य का साक्षात्कार किया, वस्तु स्वरूप मरे, वह हमेशा के लिये मर गये । माँ ! जो देश के लिये मरता है उसका ही को समझा और आत्मा से परमात्मा, नर से नारायण बन गये । माँ ! भगवान नाम अमर होता है, पर जो धर्म के लिये मरता है, उसका और उसके माता । पैदा नहीं होते, यह जीव ही धर्म को धारण कर भगवान बनता है । यह जैन पिता का नाम भी अमर होता है । त्रेसठ शलाका के पुरुषों का प्रत्यक्ष प्रमाण धर्म स्वतंत्रता का धर्म है । अपनी करनी, अपने आचरण, अपनी भावना से यह है। माँ, अब तुम किसी प्रकार का दु:ख न मानते हुये मुझे आशीर्वाद दो, कि जीव चाहे स्वर्ग चला जाये, चाहे नरक चला जाये, चाहे तिर्यंच गति में जाये, मैं सही मार्ग पर चलूँ। अपना कल्याण करूं और भूले भटके मानवों को धर्म चाहे मनुष्य गति प्राप्त करके धर्म धारण कर इस नश्वर संसार से मुक्त होकर का सत्य स्वरूप बताकर, उनका मार्ग दर्शन करूं। स्वयं आत्मा से परमात्मा बन जाये । जीव स्वतंत्र है, जीव की शक्ति स्वतंत्र है, . माँ- बेटा ! मैं तेरी बातों से प्रभावित हूँ । तू सत्य कहता है । यह मोह-माया का जीव के परिणाम स्वतंत्र है, यह भगवान बन सकता है । यह भगवान महावीर जाल झूठा है । तू ज्ञानी है । पर माँ की ममता नहीं मानती और तेरे पिताजी की घोषणा है, जैन दर्शन की नींव है। अपने मिथ्या मोह और अज्ञान से हम भी........। अपनी शक्ति से अनभिज्ञ, पराश्रित हुए, परतंत्र होकर दु:खी हो रहे हैं और तारण-माँ!तुम कह दोगी तो पिताजी भी मान जायेंगे । माँ की ममता बड़ी होती है, भटक रहे हैं। आज हमें वीतराग सर्वज्ञ देव की वाणी मिली, धर्म के स्वरूप पिता का प्यार होता है । वह चाहता है कि बेटा सुपात्र हो, सदाचारी हो, को समझने का और जीवन में उतारने का यह मनुष्य भव में सौभाग्य प्राप्त धर्मज्ञ हो, उसका यश हो, सम्मान हो, कहीं भी रहे, कुछ भी करे सुखी रहे , हुआ है । क्या इसे भी अब पराधीन, पराश्रित होकर व्यर्थ गंवा दें ? माँ ! हमें : उसका नाम होवे कि वह फलां का पुत्र है । वह अपने पुत्र को झूठे मोह में अपनी शक्ति को जाग्रत करना है, आत्मा से परमात्मा बनना है, अब इस बांधकर नहीं रखता, कड़ी निगाह रखता है कि बिगड़े नहीं, दुश्चरित्र न हो, संसार के चक्र में नहीं फंसना है ; अगर अब भी इतना बुद्धि विवेक होते हुए बदनाम न करे । बाकी और सबमें आवे-जावे, खूब कमावे खावे । पिता को भी हमने अपने कर्तव्य का विचार नहीं किया, अपना हित-अहित नहीं समझा : इतना मोह नहीं होता, जितना माँ को माया मोह होता है । वह अपने पुत्र को तो मनुष्य होने का क्या लाभ ? यह विषय-भोग, यह कर्म फल तो तिर्यंच,5 अपनी आंखों के सामने रखना और देखना चाहती है, पुत्र कहीं भी आवे नारकी, देव सभी भोगते हैं ; तो फिर इस मनुष्य भव की सार्थकता क्या है ? जावे बड़ा स्मरण रखती है, यह माँ की ममता है । माँ ! मैं गलत मार्ग पर नहीं माँ ! जो धर्म का आचरण करता है, सत्य को स्वीकार करता है, वही अमर जाऊंगा, आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूंगा । आपका पूर्ण आशीर्वाद होता है। यह विषय-भोगों में रचने-पचने वालों से नाम अमर नहीं होता है। मिलने से मैं निश्चित होकर अपना कल्याण कर सकूँगा । आपकी और 9 वह स्वयं तो डूबता ही है औरों को भी डुबाता है। आज संसार में उन्हीं का नाम पिताजी की सेवा करूंगा । गुरू की सेवा करूंगा, अपने समाज की, अमर है जो धर्म के लिये जिए धर्म के लिये मरे, वह अमर हो गए। जो देश और धर्मात्माओं की, साधर्मी जीवों की सेवा करूंगा । दु:खी और भटके हुए धर्म के लिए मरे वह अमर हो गए। जो धन के लिये, विषय भोगों के लिये जिये जीवों को सन्मार्ग पर लगाऊंगा। आप आशीर्वाद दीजिये, यह विवाह करने eatoreknorreckonekriorrectionedroine २९५ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C o श्री श्रावकाचार जी A के झूठे मोह को छोड़िये। पर कभी ऐसी समता शांति नहीं आई, जो अभी चार-छह महिने में ही (माँ के चरणों में सिर झुकाना और चरण स्पर्श करना) तारण के प्रवचन सुनने से समता-शांति आई है। अब कोई घबराहट, चिंता, माँ- (गद्गद् हृदय से सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देना) बेटा ! सत्य है, यह माया मोह आकुलता, दु:ख होता ही नहीं है और अब कुछ बुरा भी नहीं लगता है। सब झूठा है, इससे किसी का भला नहीं होगा । तू धन्य है, अपना कल्याण कर कमलावती- बहिन ! यही तो महत्व है, वीतराग देव की वाणी का श्रवण मनन । और हम सबके कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर । हमारा आशीर्वाद तेरे साथ है। करो, चित्त में उतारो, वस्तु स्वरूप समझो तो चित्त में शांति होती है और बेटा ! तू अमर होवे ; पर बेटा ! हमें छोड़कर मत जाना । ऐसा ही जीवन बना लो तो बेड़ा पार हो जाये । तारण- नहीं माँ ! आपकी सेवा करते हुए धर्म साधना करूंगा, वीतरागी बनूंगा, पद्मावती- बहिन ! तो अब और रखा ही क्या है ? यह जीव चार गति चौरासी आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। लाख योनियों में अनन्त बार हो आया । सभी प्रकार के सुख-दु:ख, विषय (दो) भोग भोगे, पर कहीं तृप्त नहीं हुआ। जब तक अपने को न जाने, अपने मंदिर में दो बहिनों की चर्चा स्वरूप में लीन न होवे तब तक तृप्त हो ही नहीं सकता। कमलावती- बहिन ! सुना तुमने, तारण ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है। कमलावती- बहिन ! संसार में तो कहीं सुख है ही नहीं। यह जीव तो अपने अज्ञान पद्मावती- हाँ बहिन ! मुझे तो उसकी बातों से पहले ही यह लगता था कि यह मोह में ही फंसा भ्रम रहा है । अब ऐसे सच्चे गुरू का योग बने, सच्चे वीतराग या संसार के जाल में फंसेगा । कैसा आत्म विभोर होकर प्रवचन करताहै, देव की वाणी सुने तो सुलटे । अभी तक इस जीव ने इस देह से भिन्न अपने आत्मासामने नाचती है। को जाना ही कहां है ? अभी तक तो शरीर, धन-परिवार, विषय-भोग के ही कमलावती- बहिन ! बड़े सौभाग्य से ऐसी बुद्धि उपजती है । लाखों करोड़ों जीवों चक्कर में भटकता फिर रहा है। में कोई एक धर्मधारी जीव होता है ; और सैकड़ों वर्ष बाद । बहिन ! अपना पद्मावती- बहिन ! अभी तक कोई बताने वाला भी तो नहीं मिला । कैसे जानें, भी सौभाग्य है । देखो वीरश्री एवं गढ़ाशाह तो धन्य हो गये, अमर हो जायेंगे। कैसे सुलटें ? पद्मावती- हाँ बहिन ! इसमें क्या संदेह है । अब अपने को भी पुरुषार्थ करके धर्म कमलावती- नहीं बहिन ! यह बात नहीं है । जिनवाणी तो अनाद्यनिधन है, पर मार्ग पर लगना है। हमने ही नहीं सुना और पहले जो खुद जाने, सम्यक् दृष्टि सम्यक्ज्ञानीहोवे कमलावती- हाँ बहिन ! मैं तो जबसे तारण आया है, प्रवचन करता है, नित्य ही 5 वही तो सत्य वस्तु स्वरूप को बता सकता है । सो ऐसा योग अभी तक प्रवचन सुनती हूँ । सौ काम छूट जायें परन्तु प्रवचन नहींछोड़ती,उससे मिला नहीं । मैं तो कहती हूँ कि तारण सम्यक्दृष्टि सम्यक्ज्ञानी वीतरागी आत्मा में बड़ी शांति रहती है। ही है और शीघ्र ही परमात्मा बनेगा । बहिन ! अपना बड़ा सौभाग्य है पद्मावती- देखो बहिन ! जिन्दगी हो गई भगवान का पूजन और दर्शन करते हुए; जो ऐसा सुअवसर अपने को मिला । अब चूकना नहीं है, पूरा पुरुषार्थ करना है। rectorknorrectoriorreconorrection Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P reakk AOID O श्री आवकाचार जी बीवनज्योति ON सब मोह-राग छोड़कर वस्तु स्वरूप समझना है और वैसा ही अपना जीवन इस पर चर्चा छिड़ गई और इसने शास्त्रों के प्रमाण देकर यह सिद्ध कर दिया बनाना है । यह मनुष्य पर्याय बार-बार नहीं मिलती। कि जैन धर्म में तो किसी की भक्ति पूजा का विधान ही नहीं है । अपना । पद्मावती- बहिन ! तुम तो पहले से ही इस मार्ग पर चल रही हो। आत्मा ही परमात्मा है । जो अपने आत्म स्वरूप का श्रद्धान करता है वह कमलावती- अरे ! नहीं बहिन, यह बाह्य त्याग, पूजा-भक्ति इनसे क्या होता है। सम्यक्दृष्टि, जो अपने आत्म स्वरूप को जानता है वह सम्यक्ज्ञानी और यह तो साधन हैं, पुण्य-बंध के कारण हैं । हाँ अब अवसर मिला है , अब जो अपने आत्म स्वरूप में रमण करता है, लीन रहता है वह सम्यक्चारित्र जरूर धर्म पुरुषार्थ करना है। है, यह मोक्ष का मार्ग है । इस विधि से यह आत्मा स्वयं परमात्मा हो जाता अच्छा चलें..... जय जिनेन्द्र..... जय जिनेन्द्र..... । है। किसी के पराश्रित होना ही मिथ्यात्व है । यह बाह्य क्रियाकांड, पूजन, (तीन) विधान तो भगवान महावीर ने जैन दर्शन में बताया ही नहीं । जैन धर्म तो बाजार में दो साथियों की आपस में चर्चा स्वतंत्रता को बताने वाला अध्यात्मवादी धर्म है, और पूरी बातें तुम विरऊ रामचन्द्र- अरे ! सुना तुमने, तारण ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने की से पूछना, उसे सब मालूम है । गाथा, शास्त्र प्रमाण सब वह बतायेगा। प्रतिज्ञा कर ली, अब वह शादी नहीं करायेगा । बाल ब्रह्मचारी ही रहेगा और अपन तो भूल गये और इतना अपने को आता भी नहीं है । बस इस पर से धर्म प्रचार करेगा। भट्टारक जी महाराज नाराज हो गये और कह दिया घर जाओ। मनसुख- हाँ भैया ! पर तुम्हें क्या मालूम, मैं तो साथ पढ़ता था तभी से जानता रामचन्द्र- कुछ और कहा सुनी हुई ? हूँ, कि वह इस संसार के चक्कर में नहीं पड़ेगा। जब गुरु देव भट्टारक जी मनसुख- अरे नहीं, तारण तो बड़ा गुरुभक्त, सरल, शांत, विनम्र है, वह तो गुरुदेव महाराज से उसकी चर्चायें होती थीं, तब हम सब तो आंखें फाड़-फाड़ कर के चरण छूकर आया है और आज भी मंदिर जाता है, प्रवचन करता है। देखते थे, न मालूम कितने गूढ रहस्य शुद्धात्मा और जीव के परिणामों की रामचन्द्र- सुना तो है, बड़े अच्छे प्रवचन करता है, अब कभी हम भी सुनने जायेंगे चर्चा करता था कि भट्टारक जी महाराज भी घबरा जाते थे । और भैया तुम क्या कह रहे हो, तुम भी तो पाठशाला पढ़कर आये हो । रामचन्द्र- क्यों ? हमने सुना है कि भट्टारक जी महाराज ने इसे नाराज होकर : मनसुख- भैया, मैं क्या करूं? मेरी तो अभी शादी कर दी और रोजगार से लगा निकाल दिया, कह दिया तुम पढ़ चुके, अपने घर जाओ। दिया, सो अपना काम करता हूँ और इतनी बुद्धि भी नहीं है। मनसुख- हाँ भैया ! एक दिन समयसार जी पर चर्चा चल रही थी । देखो, कौन सी 5 रामचन्द्र- अरे नहीं ! तुम भी स्वाध्याय किया करो, प्रवचन सुना करो, इससे ज्ञान 9 गाथा थी ? हाँ, समयसार जी की गाथा ३०, उसमें आया कि साक्षात् बढ़ता है। अब अपन साथ चलेंगे। भगवान केवलज्ञानी अरिहंत प्रभु के शरीर का गुणगान उनकी पूजन भक्ति मनसुख- हाँ भैया ! आप ठीक कहते हैं, अब अपन साथ चला करेंगे । प्रवचन तो वह भगवान की भक्ति नहीं है । बस, तारण पूछ बैठा, कि फिर यह क्या है ? सुबह-शाम दोनों समय होते हैं। अच्छा चलें..... जय जिनेन्द्र..... जय जिनेन्द्र..... | ma orrecanskriorreckoneriorreak २९७ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्री आरकाचार जी इस प्रकार जीवन ज्योति के चार भागों में प्रथम भाग में १४ परिच्छेद हैं, द्वितीय भाग में २८ परिच्छेद, तृतीय भाग में ३४ और चतुर्थ भाग में ५३ परिच्छेद हैं । इन चारों भागों में श्री गुरू तारण स्वामी का संपूर्ण जीवन परिचय और तारण पंथ के अस्तित्व से संबंधित सभी रहस्य उद्घाटित हुए हैं, जो संक्षेप में इस प्रकार हैं श्री गुरू तारण स्वामी की शुद्ध अध्यात्म की चर्चा और तदनुरूप चर्या से भट्टारकीय खेमे में खलबली मच गई और मात्र दर्शन पूजन करने वालों के अतिरिक्त सभी लोगों के लिये मंदिर में आना-जाना बंद कर दिया गया, एतदर्थ मिती वैशाख शुक्ल १५ संवत् १५३३ में मंदिर बंद की सूचना हेतु नोटिस लगाया गया । श्री गुरू तारण स्वामी का मंदिर में प्रवचन, चर्चा होना बंद हुई और वे तो वीतरागी मार्ग के पथिक थे उन्हें किसी से कोई प्रयोजन, स्वार्थ नहीं था, वे अपनी आत्म साधना में लीन रहने लगे । नगर के जिज्ञासु जीवों के विशेष आग्रह पर सप्ताह में एक दिन चौपाल पर प्रवचन प्रारम्भ हुआ और जैन- अजैन लोग उनके शिष्य बनने लगे । आध्यात्मिक क्रांति का सूत्रपात हो गया । दिनों-दिन वृद्धिगत होती हुई वीतरागता और धर्म प्रभावना से चिंतित होकर भट्टारकों ने षड्यंत्र पूर्वक श्री तारण स्वामी के लक्ष्मण सिंघई से येन केन प्रकारेण जहर दिलवाया ; परिणाम स्वरूप धर्म की महिमा प्रभावना अधिक होने लगी । मामा YEAH YEAR. संवत् १५३५ में श्री तारण स्वामी की माँ वीरश्री देवी का समाधिमरण हुआ तत्पश्चात् श्री तारण स्वामी ने सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा की दीक्षा ग्रहण कर ली । धर्म का अतिशय बरसने लगा और वीतरागता की महिमा प्रभावना, चारों ओर जय-जयकार, जागरण होने लगा । भट्टारकों को यह सब रुचिकर नहीं लगा और पुन: षड़यंत्र पूर्वक मिती कुंवार शुक्ल २ संवत् १५४६ में गहरी बेतवा नदी में डुबाया गया ; फलत: तीन जगह डुबाया और तीनों जगह टापू बने, जो आज भी उनकी यशोगाथा की कहानी कह रहे हैं। इसके पश्चात् तीव्र गति से प्रभावना का योग बना और श्री तारण स्वामी दिनों-दिन वीतरागी होते गये, आत्म साधना में वृद्धि होती गई और हजारों लोग उमड़ने लगे, शिष्यता स्वीकार करने के लिये । यह सब देख समझकर उनके प्रमुख शिष्यों ने श्री तारण तरण श्रावकाचार गाथा १९९-२०० के आधार पर ०७ २९८ जीवन ज्योति तारणपंथी होने का विधान बनाया कि जो भी व्यक्ति सात व्यसन (जुआ खेलना, मांस भक्षण करना, मदिरा सेवन करना, वेश्या गमन, शिकार करना, चोरी करना और पर स्त्री रमण) का त्याग कर अठारह क्रियाओं का पालन करेगा वही तारण पंथी कहलायेगा | अठारह क्रियायें धर्म की श्रद्धा अर्थात् सम्यक्त्व, अष्ट मूलगुणों का पालन करना, चार दान देना, रत्नत्रय की साधना करना, पानी छानकर पीना और रात्रि भोजन त्याग | इन अठारह क्रियाओं का पालन करने वाला तारण पंथी अर्थात् मोक्षमार्गी होगा । इस विधान के आधार पर मिती वैशाख शुक्ल ५ संवत् १५५२ को तारण पंथ की स्थापना हुई और श्री संघ बना इसके साथ ही श्री गुरू महाराज के प्रथम भ्रमण में ५ लाख शिष्य बने और दूसरे भ्रमण में यह संख्या ११ लाख हो गई। ६० वर्ष की आयु में मिती अगहन शुक्ल ७ संवत् १५६५ को श्री गुरू ने निर्ग्रथ दिगम्बरी जिन दीक्षा धारण की। उनके श्री संघ में ७ मुनिराज, ३६ आर्यिकायें, ६० व्रती श्रावक और २३१ ब्रह्मचारिणी बहिनें तथा लाखों की संख्या में अठारह क्रियाओं का पालन करने वाले आत्मार्थी श्रावक थे। उनकी संपूर्ण शिष्य संख्या के १५१ मंडल बने जिससे साधना और प्रभावना व्यवस्थित रूप से होती रही। इस संपूर्ण चेतना और आध्यात्मिक क्रांति के जनक श्री गुरू तारण स्वामी को मिती माघ शुक्ल ५ संवत् १५६५ को मंडलाचार्य पद से अलंकृत किया गया और धूम धाम से प्रभावना पूर्वक दीक्षा महोत्सव मनाया गया । श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने अपनी आत्म साधना के अंतर्गत चौदह ग्रंथों की रचना की जिनमें अपने आत्म स्वरूप की अनुभूति पूर्ण साधना, जिनवाणी के आधार पर सैद्धांतिक और प्रायोगिक रूप से निरूपित की गई है। पूज्य गुरुदेव आत्म साधना के मार्ग में निरंतर अग्रणी रहे । अपने जीवन के अंतिम क्षणों में उन्होंने मिती ज्येष्ठ वदी ६, दिन शुक्रवार की रात्रि, संवत् १५७२ में समाधि धारण करके सर्वार्थ सिद्धि को प्राप्त हुए । 5 जब तारण तरण इति Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 7 श्री श्रावकाचार जी भजन दे दी हमें मुक्ति ये बिना पूजा बिना पाठ / तारण तरण ओ संत तेरी अजब ही है बात / / वन्दे श्री गुरू तारणम्॥ जड़वाद क्रियाकांड को मिथ्यात्व बताया / आतम की दिव्य ज्योति को तुमने लखाया // बन गये अनुयायी तेरे, सभी सात जात...तारण... भक्ति से नहीं मुक्ति है पढ़ने से नहीं ज्ञान / क्रिया से नहीं धर्म है ध्याने से नहीं ध्यान // निज की ही अनुभूति करो, छोड़ कर मिथ्यात्व...तारण... आतम ही है परमात्मा शुद्धात्मा ज्ञानी / तुमने कहा और साख दी जिनवर की वाणी // तोड़ीं सभी कुरीतियां, तब मच गया उत्पात...तारण... बाह्य क्रिया काण्ड से नहीं मुक्ति मिलेगी / देखोगे जब स्वयं को तब गांठ खुलेगी // छोड़ो सभी दुराग्रह, तोड़ो यह जाति पांति...तारण... ब्रह्मा व विष्णु शिव हरि, कृष्ण और राम / ओंकार बुद्ध और जिन, शुद्धात्मा के नाम // भूले हो कहां मानव, क्यों करते आत्मघात...तारण... अपना ही करो ध्यान तब भगवान बनोगे / ध्याओगे शुद्धात्मा, तब कर्म हनोगे // मुक्ति का यही मार्ग, तारण पंथ है यह तात...तारण... ज्ञानदान स्वाध्याय हेतु उपलब्ध सत्साहित्य श्री श्रावकाचार टीका - 60 रुपया 0 श्री मालारोहण टीका (तृतीय संस्करण)- 30 रुपया // श्री पंडितपूजा टीका 20 रुपया 0 श्री कमलबत्तीसी टीका 25 रुपया 0 श्री त्रिभंगीसार टीका 30 रुपया / अध्यात्म अमृत (जयमाल, भजन) - १५रुपया 0 अध्यात्म किरण 15 रुपया (जैनागम 1008 प्रश्नोत्तर) // अध्यात्म भावना 10 रुपया / अध्यात्म आराधना (देव गुरु शास्त्र पूजा) 10 रुपया - ज्ञान दीपिका भाग-१, 2, 3 (प्रत्येक)- 5 रुपया प्राप्ति स्थल१. ब्रह्मानन्द आश्रम, संत तारण तरण मार्ग, पिपरिया, जिला- होशंगाबाद (म. प्र.) 461775 2. श्री तारण तरण अध्यात्म प्रचार योजना केन्द्र, 6.1 मंगलबारा, भोपाल (म. प्र.) 462001 संपर्क सूत्र- फोन- पिपरिया (07576) 22530 भोपाल- (0755) 705801, 741586 4. कर्मजन्य रागादि भावों से आत्मा की भिन्नता को जानकर, आत्मा के यथार्थ स्वरूप का श्रद्धान और ज्ञान तथा राग और द्वेष की निवृत्ति रूप साम्य भाव को धारण करना, यही सम्यक्चारित्र है। मोह और क्षोभ से रहित परिणाम ही साम्य भाव है, निश्चय से यही चारित्र धर्म है। * इति * 5