________________
You श्री आचकाचार जी
गाथा-४०-
४२७ हो जाने का नाम पंडित नहीं है और न इससे कुछ भला होने वाला है तथा यह बाह्य
त्यक्ताष्ट कर्म कायोऽहं जगज्ज्येष्ठोऽहमञ्जसा। में कितने ही व्रत,नियम,संयम करते रहो इनसे कुछ भी होने वाला नहीं है। जब तक
जिनोऽहं परमार्थेन ध्येयो वंधो महात्मवान ।।१५८॥ शुद्धात्मानुभूति नहीं होती तब तक तीन काल भी आत्मकल्याण, मुक्ति होने वाली
(श्रीमद् सकल कीर्ति गणी रचित समाधि मरणोत्साह दीपक से) नहीं है और न ही कभी जीवन में सुख शान्ति आने वाली है। यह तो वस्तु स्वरूप मैं सिद्ध हूँ, सिद्ध रूप हूँ, मैं गुणों से सिद्ध के समान हूँ, महान हूँ, त्रिलोक के धर्म के मर्म को समझने की बात है। अनादि से इस जीव ने पर की तरफ देखा है, पर अग्रभाग पर निवास करनेवाला हूँ,अरूपी हूँ, असंख्यात प्रदेशी हूँ। के आश्रय सब कुछ किया है, पर आज तक भला नहीं हुआ। अरे ! यहाँ मन्दिर में ___ मैं शुद्ध हूँ. मैं निष्कर्मा हूँ, मैं भवातीत हूँ , संसार को पार कर चुका हूँ मैं पूजा भक्ति करने से क्या होता है ? साक्षात् समवशरण में तीर्थंकर परमात्मा की पूजा ८ मन,वचन,काय से दूर हूँ, मैं अतीन्द्रिय हूँ, इन्द्रियों से परे हूँ, मैं क्रिया रहित निष्क्रिय भक्ति की तब भी कुछ भला नहीं हुआ; क्योंकि अपनी तरफ लक्ष्य गया ही नहीं, निज हूँ। मैं अमूर्त हूँ, ज्ञानरूप अनन्त गुणात्मक हूँ, मैं अनन्त दर्शन, अनन्तवीर्य और कारण परमात्मा की तरफ दृष्टि जावे तो कार्य बने, धर्म की उपलब्धि होवे। अनन्त सुख का धारक हूँ। मैं अनन्त ज्ञानरूप नेत्र का धारक हूँ, मैं अनन्त महिमा
यहाँ यह बात तारण स्वामी ही नहीं कह रहे, इस बात को तो भगवान महावीरों का आश्रय हूँ, आधार हूँ, मैं सर्ववित् हूँ, सर्वदर्शी हूँ, अनन्त चतुष्टय का धारक हूँ। ने कहा है, तीर्थंकरों ने कहा है और कुन्दकुन्दाचार्य, योगीन्दुदेव, अमृतचन्द्राचार्य मैं परमात्मा हूँ, मैं प्रसिद्ध हूँ, मैं बुद्ध हूँ, मैं स्वचैतन्यात्मक हूँ, मैं परमानंद हूँ, मैं आदि सभी आचार्यों ने यही कहा है। सबने यही बात बताई है। देखो,सुनो,पढ़ो तब सर्वप्रकार के कर्मबन्धनों से रहित हूँ। मैं एक हूँ, अखंड हूँ, निर्ममत्वरूप हूँ, मैं समझ में आवे। आचार्यों ने कहा है वह सुनो
उदासीन हूँ, मैं ऊर्जस्वी हूँ, मैं निर्विकल्पहूँ, आत्मज्ञहूँ, केवलदर्शन और केवलज्ञान सिद्धोऽहं सिद्ध रूपोऽहं, गुणैः सिद्ध समो महान।
रूप दो नेत्रों का धारक हूँ। मैं ज्ञान दर्शन रूप उपयोगमय हूँ, मैं कल्पनातीत वैभव त्रिलोकान निवासी, चारूपोऽसंख्य प्रदेशवान ॥१५०॥ ८ का धारक हूँ, मैं स्वसंवेदन गम्य हूँ, मैं सम्यकज्ञान गम्य हूँ, मैं कल्पनागोचर हूँ, मैं शुद्धोऽहं विशुद्धोऽह, नि:कर्माऽहं भवातिगः।
ॐ सर्वज्ञ हूँ, सर्ववेत्ता हूँ,सर्वदर्शी हूँ, सनातन हूँ, मैं जन्म जरा और मृत्यु से रहित हूँ, मैं मनोवाक्काय दूरोऽहं,चात्यक्षोऽहं गतः क्रियः ॥१५१॥ सिद्धों के अष्ट गुणों का धारक हूँ। मैं अष्ट कर्मरूप काय से. कार्माण शरीर से और अमूर्तो ज्ञान रूपोऽहं, अनन्त गुण तन्मयः ।
5 सर्वकर्मों से रहित हूँ, मैं निश्चयत: जगज्ज्येष्ठ हूँ, मैं जिन हूँ, परमार्थ से मैं ही स्वयं अनन्त दर्शनोऽनन्त, वीयोऽनंत सुखात्मकः ॥१५॥ 5 ध्यान करने योग्य हूँ. वन्दना करने के योग्य हूँ और अतिशय माहात्म्य का अनन्त ज्ञान नेत्रोऽहमनन्त महिमाऽऽश्रयः।
धारक हूँ। सर्व वित्सर्वदर्शी चाहमनन्त चतुष्टयः ॥१५३॥
इसी बात को योगीन्दुदेव योगसार ग्रन्थ में कहते हैंपरमात्मा प्रसिद्धोऽहं युद्धोऽहं स्वचिदात्मकः।
अरहन्तु वि सो सिद्ध फुड,सो आयरिउ वियाणि। परमानन्द भोक्ताऽहं विगताऽखिल बन्धनः ।।१५४॥
सो उवझायउ सो जि मुणि, णिच्छइ अप्पा जाणि॥१०४॥ एकोऽहं निर्ममत्वोऽहमुदासीनोऽमूर्जितः।
सो सिउ संकरु विण्ड सो, सो रुद वि सो युद्ध । निर्विकल्पोऽहमात्मज्ञोऽहं दुक्केवल लोचनः ॥१५॥
सो जिणु ईसबभु सो, सो अणंतु सो सिख ॥१०॥ उपयोगमयोऽहं च कल्पनातीत वैभवः ।
एव हि लक्खण लक्खियउ,जो परुणिकलु देउ। स्वसंवेदन संज्ञान गम्योऽहयोग गोचरः॥१५६ ॥
देहह माहि सोवसइ,तासु ण विज्जइ भेउ॥१०६॥ सर्वज्ञः सर्ववेत्ताऽहं सर्वदर्शी सनातनः।।
निश्चय नय से आत्मा ही अर्हन्त है, वही निश्चय से सिद्ध है और वही आचार्य 2 जन्म मृत्यु जरातीतोऽहं सिद्धाष्ट गुणात्मकः ।।१५७॥ है और उसे ही उपाध्याय तथा मुनि समझना चाहिये। वही शिव है, वही शंकर है,
३७