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0 श्री श्रावकाचार जी
गाथा-
४३७ वही विष्णु है, वही रुद्र है, वही बुद्ध है, वही जिन है, वही ईश्वर है, वही ब्रह्मा है,
इस सत्य को स्वीकार कर इसी में समा जायें, यही मनुष्यभव की सार्थकता वही अनन्त है और सिद्ध भी उसे ही कहना चाहिये । इन लक्षणों से युक्त परम ।
है। इसी क्रम में आगे गाथा कहते हैंनिष्कल देव जो देह में निवास करता है, उसमें और इनमें कोई भेद नहीं है।
कर्म अस्ट विनिर्मुक्त,मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते। परमात्म प्रकाश में आचार्य योगीन्दुदेव इसी बात को कहते हैं
सो अहं देह मध्येषु, यो जानाति स पंडिता ॥४३॥ अप्पिं अप्पु मुणतु जिउ सम्मादिडि हवेइ।
5 अन्वयार्थ- (कर्म अस्ट विनिर्मुक्तं) आठों कर्मों से रहित सिद्ध परमात्मा सम्माइद्विउ जीवडउला कम्मई मुच्चे॥७६॥
२ (मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते) जो मुक्ति स्थान, सिद्ध क्षेत्र में विराजते हैं (सो अहं देह अपने को अपने से जानता हुआ यह जीव सम्यक्दृष्टि होता है और सम्यक्दृष्टि मध्येष) वहीं मैं सिद्ध परमात्मा इस देह में विराजमान हूँ (यो जानाति स पंडिता) जीव शीघ्र ही कर्मों से छूट जाता है। आगे इसी बात को और स्पष्ट करते हैं
.जो तत्व ज्ञानी ऐसा जानता है, वही पंडित है। एहुजु अप्पा सो परमप्या, कम्म विसेसें जायउ जप्या।
अहकर्म क्षय कर जीती जिनने,जन्म मरण की पीड़ा। जामइ जाणई अप्पे अप्पा,तामइ सो जि देउ परमप्पा ॥१७४॥%
सिद्ध क्षेत्र में करते ऐसे, सिद्ध जिनेश्वर क्रीड़ा॥ यह प्रत्यक्षभूत स्वसंवेदन ज्ञानकर प्रत्यक्ष जो आत्मा वही शुद्ध निश्चयनयर
मैं भी तो हूँ सिद्ध प्रभु, यह तन मेरा मन्दिर है। कर अनन्त चतुष्टय स्वरूप क्षुधा आदि अठारह दोष रहित निर्दोष परमात्मा है, वह
जो जाने यह मर्म वही गर, पंडित प्रज्ञाधर है। (चंचल जी) व्यवहार नय कर अनादि कर्मबन्ध के विशेष से पराधीन हुआ दूसरे का जप करता
विशेषार्थ-यहाँ अव्रत सम्यक्दृष्टि ज्ञानी वस्तु स्वरूप का कैसा चिन्तन करता है, परन्तु जिस समय वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानकर अपने को जानता है,
है। संसार, शरीर, भोगों को कैसा मानता है और अपने आपको कैसा जानता उस समय यह आत्मा ही परमात्म देव है।
र मानता है, इसका वर्णन चल रहा है। निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न हुआ जो परम आनंद उसके अनुभव में
- आठों कर्मों से रहित सिद्ध परमात्मा, जो सिद्ध क्षेत्र मुक्ति में विराजमान हैं, क्रीड़ा करने से देव कहा जाता है, यही आराधने योग्य है। जो आत्मदेव शुद्ध निश्चय
ऐसा ही में इस देह में विराजमान हूँ, ऐसा जानने वाला ही पंडित है। बड़ी अपूर्व बात नय कर भगवान केवली के समान है, ऐसा परमदेव शक्ति रूप से देह में है.जो देह में
5है,जो अष्ट कर्मों से रहित सिद्ध परमात्मा सिद्ध क्षेत्र मुक्ति में विराजमान हैं. ऐसा ही न होवे तो केवलज्ञान के समय कैसे प्रगट होवे।
. मैं अर्थात् सिद्ध के समान धुव अविनाशी शाश्वत परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप इस देह जो परमप्या णाणमउ सो हउ देउ अणंतु ।
देवालय में विराजमान हूँ। द्रव्यार्थिक नय से सभी जीव आत्मायें समान गुणधारी जो हउँ सो परमप्पु परू एहउ भावि णिभंतु ॥ १७५॥
शुद्ध हैं, यद्यपि प्रदेशों की अपेक्षा या व्यक्तिपने की अपेक्षा हर एक आत्म द्रव्य की जो परमात्मा ज्ञान स्वरूप है, वह मैं ही हूँ, जो कि अविनाशी देव स्वरूप हूँ।
* सत्ता भिन्न-भिन्न रूप है तथापि गुण व स्वभाव शक्ति अपेक्षा सब एक रूप हैं। ऐसा वही उत्कृष्ट परमात्मा है, इस प्रकार निस्संदेह भावना कर।
१. सम्यकदृष्टि ज्ञानी देखता-जानता है। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी इसी प्रकार सिद्ध परमात्मा के समान अपने आत्मस्वरूप
यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह बात ठीक है परन्तु जो ज्ञानी सम्यक्दृष्टि साधु एका चिन्तन करता है, ऐसा जानता मानता है.अगर इसमें जरा भी शंका संशय
पद में विराजमान है, वह ऐसा जाने माने, अनुभव करे यह बात तो अँचती है." 5 करता है तो सम्यक्दृष्टि नहीं हो सकता। सम्यकदर्शन की बड़ी अपूर्व महिमा है
समझ में आती है परंतु पापादि में रत विषय-कषायों में लिप्त अव्रती श्रावक ऐसा मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी,या बिन ज्ञानचरित्रा।
जाने-माने कहे यह बात तो जंचती नहीं उचित भी नहीं है, इससे तो धर्म का 5 सम्यक्तान लहे सो दर्शन,धारो भव्य पवित्रा॥
अवमूल्यन होता है, क्योंकि जब तक वैसा आचरण न हो, तब तक ऐसा कहना