________________
TO श्री आचकाचार जी
गाथा-४३ Oo शोभा नहीं देता।
यह सम्यक्दर्शन का विषय है, जब तक ऐसी श्रद्धा न होगी तब तक किसके इसका समाधान करते हैं कि यह श्रद्धा और ज्ञान का विषय है, यहाँ चारित्र आश्रय क्या करेगा। मिथ्यादृष्टि तो पर के आश्रय संसार में जन्म-मरण करता चला। की बात नहीं है । सम्यक्दर्शन तो मात्र श्रद्धा, दृष्टि का विषय है, जब तक यह आ रहा है। जिसने स्व का आश्रय किया वह सम्यक्दृष्टि है और वही इस संसार के सहीन हो तब तक ज्ञान और चारित्र भी कोई कार्यकारी नहीं है। श्रद्धान दृष्टि के * दु:ख तथा जन्म-मरण से छूटता है। यहाँ जो सम्यकदृष्टि है, वह तो ऐसा सही होते ही, ज्ञान और चारित्र भी सही हो जाते हैं, उनका क्रमिक विकास होताजानता,मानता ही है तथा जिसे सम्यक्दृष्टि होना है, सम्यक्दर्शन को इष्ट हितकारी है। यहाँ सम्यक्दर्शन की प्रमुखता है और उसी अपेक्षा यह वर्णन चल रहा है कि मानता है उसे भी ऐसा श्रद्धान करना, मानना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि पर के वह ऐसा जानता मानता है,यह उसकी अन्तरंग परिणति श्रद्धा की बात है। आश्रय से कभी भला होने वाला नहीं है। आचरण में तो जैसी पात्रता गुणस्थान बढ़ेगा वैसा आयेगा, यहाँ तो निर्णय करने, यहाँ कोई प्रश्न करे कि ऐसा मानने से स्वच्छन्दी निश्चयाभाषी एकान्तवादी स्वीकार करने की बात है, क्योंकि जब तक ऐसा निर्णय, ऐसी स्वीकारता न न हो जायेंगे? होगी तब तक सम्यकदर्शन भी नहीं हो सकता। धर्म का मुक्ति का मूल आधार तो
उसका समाधान करते हैं कि अभी तक पर का आश्रय किया उससे क्या सम्यक्दर्शन है। साधु पद से तो वह ऐसा अनुभव करने लगता है, यहाँ अनुभव मिला? तथा जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है यह तो अनाद्यनिधन करने की प्रमुखता है, कहने की बात नहीं है। यहाँ तो जिसे एक समय का सिद्धांत है। जब तक कारण ही विपरीत रहेगा तो कार्य भी विपरीत होगा और जब उपशम सम्यक्त्व हुआ है, जो अव्रती है, परन्तु उसकी श्रद्धा ज्ञान में यह बात कारण सही होगा तो कार्य भी सही होगा। अपने को संसार का अभाव करना है, आ गई है, वह सम्यक् दृष्टि है। इसी बात को आचार्य देवसेन तत्वसार में कहते है मुक्त होना है तो इसका जो सच्चा कारण है उसका आश्रय न करेंगे तो सच्चा कार्य
S भी कैसे होगा। मल रहिओणाणमओ, णिवसइ सिद्धिएजास्सिो सिद्धा।
इसी बात को सद्गुरू तारण स्वामी ने न्यानसमुच्चयसार में स्पष्ट किया हैतारिसओ देहस्थो, परमो बंभो मुणेयवो ॥२६॥
कारण कार्ज सिद्धच, कारण कार्ज उद्यम । जैसा कर्म मल से रहित ज्ञानमय सिद्धात्मा सिद्ध लोक में निवास करता है
सकारण कार्ज सिद्धं च,कारण कार्ज सदा बुधैः ।।८०॥ वैसा ही परम ब्रह्म स्वरूप अपना आत्मा देह में स्थित जानना चाहिये। इसी बात को
कारणं दर्सनं न्यानं,चरनं सुद्ध तर्प धुवं । आगे और स्पष्ट करते हैं
सुखात्मा चेतना नित्यं, कार्ज परमात्मा धुर्व ॥८॥ णो कम्म कम्मरहिओ,केवलणाणाइ गुण समिद्धो जो।
कारण से कार्य की सिद्धि होती है, जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य का सोहं सिद्धो सुद्धो, णिच्चो एक्को णिरालंबो ॥२७॥ उद्यम होता है, यदि कारण सही है तो कार्य भी सही होता है, ऐसा ही कारण-कार्य जो सिद्ध जीव शरीरादि नो कर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म तथा राग-द्वेषादि संबंध है। कारण शुद्ध दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप होगा तो कार्य भी अपने शुद्धात्मा भाव कर्म से रहित है, केवलज्ञानादि अनन्त गुणों से समृद्ध है, वही मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध परमात्मपद की प्राप्ति होगी। रहूँ, नित्य हूँ, एक स्वरूप हूँ और निरालंब हूँ। आगे और यही बात कहते हैं
निश्चयाभासी की स्वच्छन्दता क्या है, मोक्षमार्ग प्रकाशक में पं. टोडरमल 2 सिद्घोहं सुखोह, अणतणाणाइ समिद्धोह।
जी कहते हैंदेह पमाणो णिच्चो, असंखदेसो अमुत्तो य ॥२८॥
मोक्षमार्ग में तो रागादिक मिटाने का श्रद्धान, ज्ञान, आचरण करना है। वह मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, अनन्त ज्ञानादि से समृद्ध हूँ, देह प्रमाण हूँ, मैं नित्य हूँ, तो विचार ही नहीं है, अपने शुद्ध अनुभवन में ही अपने को सम्यक्दृष्टि मानकर असंख्य प्रदेशी और अमूर्त हूँ।
अन्य सब साधनों का निषेध करता है। शास्त्राभ्यास करना निरर्थक बतलाता है।
vedasenavidasi
३९