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७ श्री आवकाचार जी
द्रव्यार्थिक के तथा गुणस्थान मार्गणा त्रिलोकादिक के विचार को विकल्प ठहराता है, तपश्चरण करने को वृथा क्लेश करना मानता है, व्रतादिक धारण करने को बन्धन में पड़ना ठहराता है, पूजादि कार्यों को शुभास्रव जानकर हेय प्ररूपित करता है, इत्यादि सर्व साधनों को उठाकर प्रमादी होकर परिणमित होता है, यह निश्चयाभासी की स्वच्छन्दता है।
(केवल निश्चयाभास के अवलम्बी जीव की प्रवृत्ति: मोक्षमार्ग प्रकाशक) एक शुद्धात्मा को जानने से ज्ञानी हो जाते हैं, अन्य कुछ भी नहीं चाहिये। ऐसा जानकर कभी एकान्त में बैठकर ध्यान मुद्रा धारण करके मैं सर्व कर्मोपाधि रहित सिद्ध समान आत्मा हूँ, इत्यादि विचार से संतुष्ट होता है; परन्तु यह विश्लेषण किस प्रकार सम्भव है, ऐसा विचार नहीं है अथवा अचेतन, अखण्ड, अनुपमादि विश्लेषण द्वारा आत्मा को ध्याता है सो यह विशेषण अन्य द्रव्यों में भी संभवित हैं तथा यह विशेषण किस अपेक्षा से हैं सो विचार नहीं है तथा कदाचित् सोते-बैठते जिस - तिस अवस्था में ऐसा विचार रखकर अपने को ज्ञानी मानता है तथा ज्ञानी के आस्रव बन्ध नहीं है, ऐसा आगम में कहा है इसलिये कदाचित् विषय-कषाय रूप होता है, वहाँ बन्ध होने का भय नहीं है। स्वच्छन्द हुआ रागादि रूप प्रवर्तता है।
यदि अपना अभिप्राय गलत होगा तो अपना ही अहित होगा, संसार के दुःखों से छूटना तो दूर रहा और नरक निगोद में जाना पड़ेगा। स्वच्छन्दी, निश्चयाभासी कैसा होता है, इस बात को मोक्षमार्ग प्रकाशक में पंडित टोडरमल जी ने जैसा बताया है उस अनुसार देख लो अपनी प्रवृत्ति क्या है ? क्योंकि यहाँ तो अपनी-अपनी देखने अपनी-अपनी संभालने की बात है।
संसार में तो अनन्त जीवों का परिणमन चल ही रहा है, मोक्षमार्ग में तो एकाकी जीव आत्मा का प्रवेश है, वहाँ साथ चलता ही नहीं है। जब तक साथ है तब तक संसार है, बन्धन है । सब बन्धनों के छूटने का नाम ही मुक्ति है। यहाँ तो नर की बात है -
संसार दुष्यं जे नर विरक्तं, ते समय सुद्धं जिन उक्त दिस्टं । निध्यात नय मोह रागादि बंडं, ते सुद्ध विस्टी तत्वार्थ साधं ॥ मालारोहण जी गाथा - ४ इसी क्रम में सम्यक्दृष्टि और कैसा मानता है, वह कहते हैं
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गाथा-४४
परमानंद सा दिस्टा, मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते ।
सो अहं देह मध्येषु सर्वन्यं सास्वतं धुवं ॥ ४४ ॥
अन्वयार्थ - (परमानंद सा दिस्टा) परमानंद का अनुभव करने वाले, हमेशा परम आनंद में लीन रहने वाले सिद्ध परमात्मा हैं (मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते) मुक्ति स्थान सिद्ध शिला पर विराजमान हैं (सो अहं देह मध्येषु) वैसे ही सिद्ध समान मैं इस देह में विराजमान हूँ (सर्वन्यं सास्वतं धुवं ) सर्वज्ञ हूँ, शाश्वत हूँ, ध्रुव हूँ।
विशेषार्थ बड़ी अपूर्व बात है जो परमानंद में हमेशा लीन हैं अर्थात् परम आनंदमयी हैं, सिद्ध परमात्मा जो लोकाग्र में सिद्ध शिला पर विराजमान हैं, ऐसा ही मैं इस देह में विराजमान हूँ, सर्वज्ञ हूँ, शाश्वत हूँ, ध्रुव हूँ। यह किस दृष्टि से देखा जा रहा है ? शुद्ध निश्चय नय द्रव्य दृष्टि से देखा जा रहा है, क्योंकि वर्तमान में अशुद्ध पर्याय, कर्म संयोगी है। पर्याय में आनंद भी नहीं है, जबकि सिद्ध भगवान की पर्याय में परम आनंद चल रहा है। वह परम आनंद जिसके आश्रय प्रगट होना है, उस शुद्ध द्रव्य शुद्धात्म तत्व को देखा जा रहा है और अपने को वैसा माना जा रहा है।
अब यहाँ कोई प्रश्न करे कि बस यही तो समस्या है, जब पर्याय अशुद्ध है तो द्रव्य कैसे शुद्ध होगा ? द्रव्य की ही पर्याय होती है, कहीं अलग से तो नहीं आती। अशुद्ध द्रव्य है तभी तो पर्याय अशुद्ध है फिर यह मान्यता कैसे सम्यक् हो सकती है ?
इसका समाधान करते हैं कि यही अपूर्व रहस्य है, जैन दर्शन का मर्म समझने के लिये बड़ी सूक्ष्म सुबुद्धि चाहिये। अब यहाँ पहले द्रव्य को समझना पड़ेगा कि द्रव्य क्या है ? द्रव्य किसे कहते हैं ? इसका स्वरूप क्या है, तभी यह बात समझने में आयेगी। देखो, अनाद्यनिधन वस्तु जिसका कभी नाश न हो ऐसी सत् वस्तु को द्रव्य कहते हैं। जैसा तत्वार्थसूत्र में कहा है
सत् द्रव्य लक्षणम् । उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत् । गुण पर्यय वत् द्रव्यम् ।
उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यपना जिसमें है वह सत् है तथा गुण, पर्याय सहित ही द्रव्य होता है । उत्पाद व्यय पर्याय का होता है, धौव्य तत्व अपने में त्रिकाल शुद्ध परिपूर्ण रहता है तथा गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं। गुणों के परिणमन को पर्याय कहते हैं। यह छह द्रव्य हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और