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________________ wcono० श्री श्रावकाचार जी गाथा-४०.४२ SOON देखता है वह सर्व जिन शासन को देखता है। जो जिन शासन बाह्य द्रव्य श्रुत और (देवं चन्यान रूपेन) देव जो मात्र ज्ञान स्वरूप है (परमिस्टीच संजुतं) आभ्यंतर ज्ञान रूपभावश्रुत वाला है। जैसे- स्वर्णकार शुद्ध स्वर्ण को प्राप्त करने के जो परमेष्ठी मयी है (सो अहं देह मध्येषु) ऐसा देवों का देव अरिहंत परमात्मा, सबसे लिये आभूषण को गलाता है, इसी प्रकार सम्यक्दृष्टि इस शुद्ध तत्व के ध्यान में लीन ५ श्रेष्ठ निरंजन अशरीरी ब्रह्म स्वरूप सिद्ध परमात्मा जिसकी सब स्तुति वंदना करते। होकर इन राग-द्वेषादि कर्म पापों को क्षय करता है। र हैं,ऐसा मैं शुद्धात्म तत्व इस देह के मध्य में हूँ (यो जानाति स पंडिता) ऐसा जानने अहमिक्को खलु सुद्धो,णिम्ममओ णाण दसण समग्गो। वाला ही पंडित ज्ञानी सम्यकदृष्टि है। तम्हि ठिओ तच्चित्तो, सब्वे एदे खयं णेमि ॥७३॥ 5 विशेषार्थ- यहाँ अत्यंत महत्वपूर्ण बात बताई जा रही है कि सम्यक्दृष्टि क्या ज्ञानी विचार करता है कि निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ,ममतारहित हूँ, जानता मानता है. उसकी श्रद्धा का क्या लक्ष्य है। देवदेवाधिदेव तीर्थंकर अरिहन्त ज्ञानदर्शन से पूर्ण हूँ, उस स्वभाव में रहता हुआ, उसमें लीन होता हुआ मैं इन सर्व सर्वज्ञ परमात्मा जो अनन्त चतुष्टय सहित हैं, जो हमेशा अपने शाश्वत ध्रुव स्वभाव रागादि दोषों को क्षय को प्राप्त कराता हूँ। ५ में रहते हैं, ओंकार स्वरूप का वेदन करते हैं तथा इनसे आगे जो अपने सिद्ध यह जैन दर्शन का मर्म है, जिसको जानने पर ही मुक्ति होती है। अनादि से स्वभावमय ही रहते हैं जिनकी सम्पूर्ण जगत के जीव स्तुति वन्दना करते हैं ऐसे जीव ने पराश्रितपने के कारण ही संसार के दुःख भोगे हैं। जो जीव ऐसे अपने शुद्ध सिद्ध परमात्मा हैं. ऐसे देव जो मात्र ज्ञान स्वरूप ही हैं, परम इष्ट, परमेष्ठी सहित हैं, तत्व का आश्रय करता है वही सम्यक्दृष्टि है। वह अपने आपको और कैसा जानता, वह मैं शुद्धात्म तत्व इस देह में विराजमान हूँ, ऐसा जो जानता है वही सम्यक्दृष्टि मानता है, इसे आगे गाथा में कहते हैं ज्ञानी पंडित है। देव देवाधिदेवं च, नंत चतुस्टै संजुतं । बड़ी अपूर्व बात है,ऐसा सुनना ही बहत कठिन है. ऐसा मानना और जानना उवंकारं च वेदंते, तिस्टितं सास्वतं धुवं ॥ ४० ॥ तो बड़े गजब की बात है, यह लोहे के नहीं,फौलाद के चने हैं, जिनको हजम करना उर्वकारस्य ऊर्धस्य, ऊर्थ सद्भाव तिस्टतं । सामान्य जीव के वश की बात नहीं है, यह तो एक मात्र सम्यकदृष्टि की बात है और र यह उसकी दृष्टि श्रद्धा का विषय है। ऐसा उसने अपनी अनुभूति में लिया है कि मैं उवं हियं श्रियं वन्दे, त्रिविधि अर्थच संजुतं ॥४१॥ अरिहन्त सिद्ध के समान परमदेव परमात्मा मैं स्वयं हूँ ऐसा जो जानता है, वह पंडित है। देवं च न्यान रूपेन, परमिस्टी च संजुतं । ८ यहाँ कोई प्रश्न करे कि फिर ठीक है यह पंडित जी को उठाकर ही वेदी में सो अहं देह मध्येषु,यो जानाति स पंडिता॥४२॥ बिठा दो, यह देव,गुरू,शास्त्र और उनकी पूजा भक्ति करने से क्या लाभ है? इनकी अन्वयार्थ- (देव देवाधिदेवं च) देवो के देव, सौ इन्द्रोंकर पूज्य परम देव जो ही पूजा भक्ति करो, फिर यह मंदिर जाने और यह कुछ भी व्रत संयम आदि करने से (नंत चतुस्टै संजुतं) अनन्त चतुष्टय सहित हैं (उर्वकारं च वेदंते) जो ओंकार स्वरूप ॐ क्या प्रयोजन है ? जब देवों के देव परमदेव परमात्मा स्वयं ही हैं तो अब और क्या करना है? तथा सब पापादि अन्याय, अत्याचार करते रहो और कहो कि मैं भी का ही अनुभव करते हैं (तिस्टितं सास्वतं धुवं) जो हमेशा अपने शाश्वत ध्रुव स्वभाव शुद्धात्मा,परमात्मा हूँ, जब सब जीव आत्मा परमात्म स्वरूप हैं तो अब और क्या र मय ही रहते हैं। (उर्वकारस्य ऊर्धस्य) पंच परमेष्ठियों में श्रेष्ठ सिद्ध परमात्मा (ऊर्ध सद्भाव करना है? इसका समाधान करते हैं कि यह ऐसे कहने मानने की बात नहीं है परन्तु तिस्टतं) जो हमेशा सिद्ध स्वभाव में रहते हैं (उवं हियं श्रियं वन्दे) ऐसे उर्वकार हियंकार श्रियंकार स्वरूपकी मैं वंदना करता हूँ (त्रिविधि अर्थंच संजुतं) जो रत्नत्रय, जिसे सम्यक्दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति होजाती है, उसकी मान्यता दृष्टि और लक्ष्य । में यही होता है, यह जरा कठिन बात तो है,परन्तु है अटल सत्य क्योंकि ऐसी सम्यक्दर्शन,सम्यक्ज्ञान,सम्यक्चारित्र में लीन हैं। स्वीकारता, श्रद्धा के बगैर सम्यक्दृष्टि भी नहीं होता। यह मात्र पढ़ने से तोता रटन्त vedodio
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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