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Cro श्री आचकाचार जी
गाथा-३२३-३२५ SO0 (देवो परमिस्टी मइयो) देव जो परमेष्ठीमयी परमपद में स्थित हैं (लोकालोक इसी देह देवालय में स्थित देव की सम्यक्दृष्टि पूजा करता है। शरीर के भीतर यदि लोकितंजेन)जो लोकालोक के स्वरूप को देखते जानते हैं (परमप्पा ज्ञानंमइयो) जो शुद्ध द्रव्य दृष्टि से देखा जावे तो आत्मा आत्मारूप सिद्ध सम शुद्ध विराजमान है, ज्ञानमयी परमात्मा हैं (तं अप्पा देह मज्झंमि) वही आत्मा इस देह में विराजमान है। , उसको जब परमात्मा के समान देखा जाता है, तो वही पूज्यनीय देव दिखलाई
(देह देवलि देवंच) इस देह देवालय में आत्मा ही देव है (उवइटठो जिनबरेंदेहि)* पड़ता है। तब उस देव स्वरूप आत्मा के तिष्ठने का मंदिर यह शरीर ही हुआ; इस सत्य को जिनेन्द्र देव ने उपदिष्ट किया, बताया है (परमिस्टी च संजुत्तो) वही अतएव निश्चल मन से अपने शरीर को देवस्थान मानो और अपने आत्मा को परमात्मा पंचपरमेष्ठी के गुणों सहित है (पूर्जच सुद्ध संमत्तं) और उसकी पूजा ही शुद्ध सम्यक्त्व
मानो तथा उपयोग को उसी में स्थिर करो अर्थात् उसी का एकाग्रता से अनुभव करो। है जो सम्यक्दृष्टि करता है।
अपने ही आत्मा का स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा अनुभव करना यही शुद्ध सम्यक्दर्शन विशेषार्थ- यहाँ सच्चे देव के स्वरूप को बताया जा रहा है, जो निश्चय का अनुभव ही सिद्ध पूजा व सच्ची देव पूजा है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। व्यवहार के समन्वय पूर्वक है, जिनवाणी में देव उसको कहा है, जो आत्मा अपने
इसी बात को पं. द्यानतराय जी ने कहा है - ज्ञान स्वभाव में स्थित हो, जो अनन्त चतुष्टय (अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत *
निज घट में परमात्मा, चिन्मूरति भय्या। सुख, अनंत वीर्य) इन चार चतुष्टय सहित हो तथा चौदह प्राणों से संयुक्त हो अर्थात्
ताहि विलोकि सदष्टिधर,पंडित परखैय्या॥ जिसके पाँच इन्द्रिय,तीन बल (मन-वचन-काय) श्वासोच्छ्वास और आयुयह दस
जो शुद्धात्मानुभवी हैं वे ही सच्चे निज आत्मदेव के आराधक हैं, वे ही यथार्थ प्राण जो शरीर के कारण होते हैं तथा सुख,सत्ता, बोध,चेतना जो आत्मा के निज गुण ८.
२ उपासक हैं। व्यवहारनय से अरिहंत, सिद्ध के गुणों का स्तवन भी इसी हेतु से किया हैं, इन सहित हैं, वही परमात्मा देव हैं। जो अरिहंत परमात्मा अपने स्वरूप में तिष्ठते।
जाता है कि निज आत्मा में परिणति थमे। जब उपयोग सर्व विकल्पों को तजकर हुए लोकालोक के स्वरूप को जानते हैं अर्थात् जिनके ज्ञान में तीन लोक, तीन काल
त जिनके ज्ञान में तीन लोक तीन काल आत्मस्थ होता है, तब ही सच्ची देवपूजा है यही वास्वतिक मोक्षमार्ग है। के समस्त द्रव्य और उनकी पर्याय झलकती हैं- ऐसा केवलज्ञानमयी परमात्मा, इस
इसी बात को आचार्य योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते हैंदेह के मध्य में स्थित आत्मा है। अरिहंत देव जो शरीर सहित परमात्मा हैं तथा सिद्ध.3
जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि णिवसइदेउ। जो अशरीरी अपने ज्ञान स्वभाव में हैं, आठ कर्मों से रहित ज्ञानाकार परमात्मा हैं,
तेहउ णिवसइबंभु परु देहह में करि भेउ ॥२६॥ जिनके ज्ञान में लोकालोक दर्पण में प्रतिबिम्ब की तरह झलक रहा है। वे सर्व रागादि
जैसा निर्मल ज्ञानमयी परमात्मा मुक्ति में निवास करता है, वैसा ही आत्मा दोष, आठ कर्म मल व शरीरादि से रहित केवल आत्मा मात्र ही हैं। ऐसा ही अरिहंत
परमात्मा इस देह में जान। जो देह रूपी देवालय में रहता है वही शुद्ध निश्चय नय से और सिद्ध के समान ममल स्वभाव का धारी इस शरीर के भीतर आत्मा है जो 5
परमात्मा है। निश्चयनय से स्वयं परमात्मा है, इस आत्मा में और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं
देहा देवलि जो वसइ देउ अणाइ अर्णतु। है। दोनों के गुण और स्वभाव समान हैं। जो अपने आत्मा को भेदविज्ञान के द्वारा सर्व
केवल णाण फुरंत तणु सो परमप्पु णिभंतु ॥३३॥ अनात्म पदार्थों से निराला व सर्व कर्म जनित विकारी भावों से भिन्न अनुभव करता
जो व्यवहार नय कर देह रूपी देवालय में बसता है, निश्चय नय कर देह से है, वही देव के स्वरूप को जानता है। इस शरीर रूपी मन्दिर में आत्मा रूपी देव है 5 भिन्न है, देह की तरह मूर्तीक तथा अशुचिमय नहीं है. महा पवित्र है. आराधने योग्य ऐसा जिनेन्द्रों ने कहा है, जो परमेष्ठी के गुणों सहित है, ऐसे निजशुद्धात्म स्वरूप की।
है, पूज्य है। देह आराधने योग्य नहीं है, जो परमात्मा अनादि अनंत है, केवलज्ञान साधना-आराधना सम्यकदृष्टि करता है, यही सच्ची देवपूजा है।
स्वरूप है, वही आत्मा परमात्मा है ऐसा नि:संदेह जान। इस देह देवालय में अपना शुद्धात्म स्वरूप ही अपना सच्चा देव विराजमान
देहे वसंतु विणवि छिवाइ णियमें देहु वि जो जि। है, जिसके दर्शन ज्ञान और उसी मय स्थित होने से सिद्ध परम पद प्रगट होता है,
दे छिप्पइजो वि णवि मुणि परमप्पउ सो जि॥३४॥ १८६