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Our श्री बाचकाचार जी
गाथा-३२३-३२५ CHO संयम,जिसमें प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम सहित अपने अपने स्वरूप की सुरत होना है,हमें भी देवत्वपद पाना है, जिससे इस संसार के चक्र जन्म-मरण से छूट। रहे।
कर परमानन्द मय हो जायें, यही इष्ट प्रयोजनीय है; इसलिये देव के गुणों का (तपं च अप्प सद्भाव) तप,अपने स्वभाव में रहना (दानं पात्रस्य चिंतन) , आराधन करना और वैसे गुण अपने में प्रगट करना क्योंकि स्वभाव से हम भी दान,सत्पात्र को दान देने का सदैव प्रयास करना (षट् कर्म जिनं उक्तं) यह शुद्ध आत्मा-परमात्म स्वरूप हैं, अपने स्वरूप को भूलने के कारण संसारी बने हैं तथा षट्कर्म जिनेन्द्र के कहे अनुसार हैं (साधं सुद्ध दिस्टितं) इनकी साधना इनका पालन जैनागम जिन सिद्धांत जैन दर्शन में कोई परमात्मा किसी का कुछ भी करता नहीं है, शुद्ध दृष्टि करता है।
जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, अपनी एक पर्याय दूसरी पर्याय का विशेषार्थ-शद्ध षटकर्म क्या हैं? इनका स्वरूप संक्षेप में बताया जा रहा कुछ नहीं कर सकती, ऐसा अपूर्व निर्णय जिनवाणी में आया है इसको स्वीकार करें है, विशद् वर्णन आगे गथाओं में करेंगे। यहाँ तो जो जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है. तभी सच्चे श्रावक सम्यक्दृष्टि हैं और सच्चे देव का स्वभाव और उनके गुणों का जैनागम का सार है वह वस्तु स्वरूप बताया जा रहा है -१. देव-जो देवों के
0 आराधन कर अपने में उन गुणों को प्रकट करना ही सच्ची देव पूजा है। पूजा पूज्य अधिपति इन्द्रों के भी देव हैं वह अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा जो वीतरागी हितोपदेशी समाचरेत् पूज्य के समान आचरण करना ही पूजा है। कोई रूप आदि बनाकर हैं, उनके समान ही जो आत्मा का शुद्ध स्वरूप है ऐसा निज शुद्धात्म तत्व ही सच्चा
किसी कामना को लेकर किसी प्रकार का आडंबर पूजा आदि करना तो जैन धर्म में देव है जो इष्ट और पूज्यनीय है। २.गुरु-जो समस्त पाप-परिग्रह के बन्धनों से
मिथ्यात्व कहा है। मुक्त अपनी आत्म साधना में लीन रहते हैं ऐसे निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी साधु ही
सच्चे देव का स्वरूप क्या है और उनके वह कौन से गुण हैं जो हम अपने में सच्चे गुरु हैं जिनकी भक्ति और सत्संग करना चाहिये। ३. स्वाध्याय-सत्शास्त्रों, प्रगट कर देवत्व पद पा सकते हैं, आत्मा से परमात्मा बन सकते हैं? ऐसा प्रश्न करने को पढ़ते हुए अपने शुद्ध स्वरूप को ध्याना, अपना अध्ययन करना ही शद्ध स्वाध्याय पर श्री जिन तारण स्वामी, देव का स्वरूप और उनके वह गुण जो प्रत्येक जीव है। ४. संयम-बाह्य में प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम होते हुए अपने आत्म स्वरूप आत्मा में हैं जिन्हें प्रगट कर प्रत्येक आत्मा-परमात्मा बन सकता है, इसका विस्तृत की सुरत रखना, आत्म संयम ही शुद्ध संयम है। ५. तप-अपने आत्म स्वभाव में
& विवेचन गाथा ३२३ से ३६६ तक करते हैं, जिसमें ७५ गुणों का वर्णन है। रहना ही तप है, बाह्य में इच्छाओं का निरोध करना और अपने स्वरूप में रत रहना
देवका स्वरूपशुद्ध तप है। ६.दान - सत्पात्रों को दान देना,अपनी कषायों को गलाना, धर्म देवं च जिनं उक्त, न्यान मयं अप्प सद्भाव। प्रभावना में द्रव्य का सदुपयोग करना सच्चादान है, जो अव्रत सम्यकद्रष्टि को निरन्तर नंत चतुस्टय जुत्तो, चौदस प्रान संजदो होई ॥ ३२३॥ करना चाहिये। यह छह आवश्यक कर्म गृहस्थ श्रावक को अपने आत्मस्वरूप की
देवो परमिस्टी मइयो, लोकालोक लोकितं जेन । साधना में आगे बढ़ाने में सहयोगी कारण हैं। इस प्रकार इन षट्कर्मों को जैनागम में 3 जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है। इनकेसाथशुद्धसम्यकदर्शनका होना अत्यन्त आवशयक
परमप्पा ज्ञानं मइयो, तं अप्पा देह मज्झंमि ॥ ३२४॥ है। सम्यक्त्व सहित यह षट्कर्म गृहस्थ श्रावक को परम्परा से मोक्ष के कारण हैं व देह देवलि देवं च, उवइ8ो जिनबरेदेहि। ९ उसीभव से स्वर्ग गति के देने वाले हैं। शुद्धात्मा की भावना सहित ही यह षट्कर्म एक परमिस्टी च संजुत्तो, पूजं च सुद्ध संमत्तं ॥ ३२५॥ 9 जिनभक्त के लिये आवश्यक हैं इससे ही परम कल्याण है।
अन्वयार्थ- (देवं च जिनं उक्तं) जिनवाणी में देव उसको कहा है जो (न्यान यहाँ कोई प्रश्न करता है कि वर्तमान में अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा हैं ही नहीं,
मयं अप्प सद्भावं) ज्ञानमयी अपने आत्म स्वभाव में लीन हो (नंत चतुस्टय जुत्तो) सिद्ध परमात्मा सिद्धालय में विराजमान हैं फिर उनकी पूजा भक्ति कैसे करें?
अनन्तदर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य इनचार अनंतचतुष्टय सहित इसका समाधान करते हैं कि देवपूजा करने का अभिप्राय, वैसे ही अपने को ।
हो तथा (चौदस प्रान संजदो होई) चौदह प्राणों सहित है।
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