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________________ Our श्री बाचकाचार जी गाथा-३६ जो देह में रहता हुआ भी निश्चय नय कर शरीर को स्पर्श नहीं करता है. देह हमारा नमस्कार हो, नमस्कार हो। से वह भी नहीं छुआ जाता, उसी को परमात्मा जान अर्थात् अपना स्वरूप ही इसी बात को अध्यात्म आराधना में ब. बसन्त जी ने कहा है - परमात्मा है। आगे योगसार ग्रंथ में जैन सिद्धांत का सार दिखाते हैं है देव निज शुखात्मा,जो बस रहा इस देह में। जो जिणु सो अप्पा मुणहु इहु सिद्धंतहँ सारु । मन्दिर मठों में वह कभी, मिलता नहींपर गेह में। इउ जाणे विण जोइयहो उह मायाचार ॥२१॥ जिनवर प्रभु कहते स्वयं, निज आत्मा ही देव है। जो जिन भगवान हैं वही आत्मा है, यही सिद्धांत का सार है, इसे समझकर हे जो है अनन्त चतुष्टयी, आनंद घन स्वयमेव है॥१॥ योगीजनो! मायाचार को छोड़ो। जैसे प्रभु अरिहन्त अरु सब, सिद्ध नितहीशद्ध हैं। जो परमप्या सो जिहउँ जो हउँसो परमप्यु। वैसे स्वयं शुखात्मा, चैतन्य मय सुविशुख है। इउ जाणेविणु जोइया अण्णु म करहु वियप्पु ॥२२॥ दिव्य ध्वनि में पुष्प विखरे,देव निज शुखात्मा। जो परमात्मा है वही मैं हूँ तथा जो मैं हूँ वही परमात्मा है, यह समझकर हे यह शुद्ध ज्ञान विज्ञान धारी, आत्मा परमात्मा ।।२।। योगीजनो ! अन्य कुछ भी विकल्प मत करो। सतदेव परमेष्ठी मयी, जिसका कि ज्ञान महान है। सुद्ध सचेयणु बुद्ध जिणु केवल णाण सहाउ। जिसमें मलकता है स्वयं, यह आत्मा भगवान है। सो अप्पा अणुविणु मुणहु जइचाहा सिव लाहु॥२६॥ ऐसा परम परमात्मा, निश्चय निजातम रूप है। यदि मोक्ष पाने की इच्छा करते हो तो निरन्तर ही आत्मा को शुद्ध जिन सचेतन जो देह देवालय बसा, शुखात्मा चिद्रप है॥३॥ बुद्ध और केवलज्ञान स्वभाव मय समझो। जो शुद्ध समकित से हुए, वे करें पूजा देवकी। मूढा वेवलि देउ णविणवि सिलि लिप्पाइपित्ति। पर से हटाकर दृष्टि, अनुभूति करें स्वयमेव की॥ देहा देवलि देउ जिणु सो बुज्झहि सम चित्ति॥४४॥ निज आत्मा का अनुभवन, परमार्थ पूजा है यही। हे मूढ ! देव किसी देवालय में विराजमान नहीं है, इसी तरह किसी पत्थर, लेप जिनराज शासन में इसे, कल्याणकारी है कही॥४॥ अथवा चित्र में भी देव विराजमान नहीं है, जिनदेव तो देह देवालय में रहते हैं, इस इस प्रकार सच्चे देव के स्वरूप को निश्चय- व्यवहार से बताते हुए उस बात को तू समचित्त से समझ। देवत्व पद को पाने के लिये उन गुणों का आराधन करना, जिनके द्वारा अनन्त आत्मा अप्प सरूवह जो रमइ छंडिवि सहु ववहारु । . परमात्मा हए हैं, हो रहे हैं और होंगे, यही सच्ची देवपूजा है। सो सम्माइड्डी हवा लह पावइ भव पारु॥८९॥ वह गुण कौन से हैं और क्या हैं? यह प्रश्न करने पर सद्गुरू तारण स्वामी जो सर्व व्यवहार को छोड़कर आत्मस्वरूप में रमण करता है, वह सम्यकदृष्टि उन गुणों का वर्णन करते हैं, जो निम्न प्रकार हैं-१.पाँच परमेष्ठी पद, २. रत्नत्रय, जीव है और वह शीघ्र ही संसार से पार हो जाता है। ३.सोलहकारण भावना, ४. सिद्ध के आठ गुण,५. धर्म के दश लक्षण,६.दर्शन के इसी बात को श्री कुन्दकुन्दाचार्य मोक्षपाहुड में कहते हैं 5 आठ अंग,७. ज्ञान के आठ अंग, ८. चार अनुयोगों का ज्ञान,९. तेरह प्रकार का , णाणमयं अप्पाणं उवलद्धं जेण झड़िय कम्मेण। चारित्र इस प्रकार पचहत्तर गुणों का वर्णन किया है, जिनका आराधन करने से देवत्व पाऊण य पर दव्यं णमो णमो तस्स देवस्स ॥१॥ पद प्राप्त होता है, यही सच्ची देवपूजा है जो सम्यक्दृष्टि करता है। पर द्रव्य को त्यागकर जिसने अपने ज्ञानमयी आत्मा को जान लिया प्राप्त कर देवं गुनं विसुद्धं, अरहंतं सिद्ध आचार्य जेन । १ लिया, जिससे सारे कर्म क्षय होते हैं, जो सब पर द्रव्यों से भिन्न है ऐसे आत्मदेव को उवज्झाय साधु गुर्न, पंच गुनं पंच परमिस्टी॥३२६॥
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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