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9 श्री आवकाचार जी
अरहंतं हियंकारं, न्यान मयी तिलोय भुवनस्य ।
नंत चतुस्टय सहियं, हियंकारं जानि अरहंतं ॥ ३२७ ।। सिद्धं सिद्ध धुवं चिंते, उवंकारं च विंदते । मुक्तिं च ऊर्ध सद्भावं, ऊर्धं च सास्वतं पदं ।। ३२८ ।। आचार्य आचरनं सुद्धं, तिअर्थ सुद्ध भावना ।
सर्वन्यं सुद्ध ध्यानस्य, मिथ्या तिक्तं त्रि भेदयं ॥ ३२९ ॥ उपाय देव उपयोगं जेन, उपाय लष्यनं धुवं ।
अंग पूर्व उक्तं च सार्धं न्यान मयं धुवं ।। ३३० ।। साधुच सर्व सार्धं च, लोकालोकं च सुद्धये । रत्नत्रयं मयं सुद्धं, ति अर्थ साधु जो इतं ।। ३३१ ।। देवं पंच गुनं सुद्धं, पदवी पंचामि संजुदो सुद्धो ।
देवं जिन पण्णत्तं, साधु सुद्ध दिस्टि समयेन ॥ ३३२ ॥
अन्वयार्थ - (देवं गुनं विसुद्धं) देवत्व पद पाने के विशुद्ध गुण (अरहंतं सिद्ध आचार्यं जेन) जो अरिहन्त सिद्ध आचार्य (उवज्झाय साधु गुनं) उपाध्याय और साधु के गुण (पंच गुनं पंच परमिस्टी) यह पाँच गुणों का आराधन ही परम इष्ट है, यह देव के पाँच गुण परमेष्ठी पद कहलाते हैं। यही पाँच पद परम इष्ट हैं जिनसे देवत्व पद मिलता है।
(अरहंतं ह्रियंकार) अरिहंत तीर्थंकर केवलज्ञानी को कहते हैं, ह्रीं में चौबीस तीर्थंकर गर्भित हैं (न्यान मयी तिलोय भुवनस्य) जिनके ज्ञान में तीन लोक झलकते हैं (नंत चतुस्टय सहियं) जो अनंत चतुष्टय सहित हैं (हियंकारं जानि अरहंतं) ऐसे तीर्थंकर केवलज्ञानी परमात्माओं को अरिहंत जानो ।
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गाथा- ३२६-३३२
भावना) रत्नत्रय स्वरूप की शुद्ध भावना करते हैं (सर्वन्यं सुद्ध ध्यानस्य) सर्वज्ञ स्वरूप केवलज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव का ध्यान करते हैं (मिथ्या तिक्तं त्रि भेदयं) तीनों प्रकार के मिथ्यात्व से रहित हैं।
(सिद्धं सिद्ध धुवं चिंते) सिद्ध को ऐसा विचारे कि वे सिद्ध हैं ध्रुव हैं (उवंकारं च 5 विंदते) जो अपने ब्रह्म स्वरूप में लीन परमानंद का पान करते हैं (मुक्तिं च ऊर्ध सद्भावं) जो मुक्ति में तीन लोक के ऊपर अग्र भाग में विराजमान हैं (ऊर्ध च सास्वतं पदं) और जो श्रेष्ठ शाश्वत पद के धारी हैं।
(आचार्यं आचरनं सुद्धं ) आचार्य वह हैं जिनका आचरण शुद्ध है (तिअर्थं सुद्ध
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(उपाय देव उपयोगं जेन) उपाध्याय जो ज्ञानोपयोग में रत रहते हैं (उपाय लष्यनं धुवं) उपयोग ही जीव का लक्षण है (अंग पूर्व उक्तं च ) जो ग्यारह अंग चौदह पूर्व को कहते हैं (सार्धं न्यान मयं धुवं) और अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की साधना र रहते हैं।
(साधुस्च सर्व सार्धं च) साधु जो सब प्रकार की साधना करते हैं (लोकालोकं च सुद्धये) और लोकालोक के स्वरूप को जानते हैं (रत्नत्रयं मयं सुद्धं) अपने रत्नत्रयरूपी शुद्ध स्वभाव को साधते हैं (ति अर्थं साधु जोइतं) द्रव्य, गुण, पर्याय सहित अपने स्वरूप को देखते जानते हैं।
(देवं पंच गुनं सुद्धं) देव इन पांच गुणों से शुद्ध होते हैं (पदवी पंचामि संजुदो सुद्धो ) पाँचवीं पदवी पर पहुँचने पर परिपूर्ण शुद्ध होते हैं और अपने स्वभाव मय रहते हैं (देवं जिन पण्णत्तं) यह जिन प्रणीत देव हैं, इनको ही जैनदर्शन में देव कहा गया है (साधु सुद्ध दिस्टि समयेन) जो सम्यक्दृष्टि से साधु बनकर अपने समय पर सिद्ध होते हैं।
विशेषार्थ यहाँ सच्ची देवपूजा में सबसे पहले पंच परमेष्ठी के गुणों का आराधन किया गया है, इन पदों की साधना कर इस रूप होना ही सच्ची देवपूजा है। जैसे वर्तमान में किसी को प्रधानमंत्री पद इष्ट है, तो वह उस रूप प्रयास पुरुषार्थ करता है और स्वयं उस रूप होता है तभी उसकी इष्टता सार्थक है, प्रधानमंत्री की कुर्सी या प्रधानमंत्री की कोई पूजा नमस्कार करे तो उसे क्या मिलेगा ? क्या वह प्रधानमंत्री बन सकता है ? नहीं। इसी प्रकार जिसे देव पद इष्ट है अर्थात् जो अनादिकालीन संसार के जन्म-मरण के चक्र से छूटना चाहता है, शाश्वत सुख परमानंद मय होना चाहता है, उसे उस रूप प्रयास पुरुषार्थ करना आवश्यक है क्योंकि यह अरिहंत और सिद्ध परमात्मा इसके प्रमाण हैं कि यह भी संसार में हमारी तरह ही जन्म-मरण के चक्र में फँसे थे, कर्मों से बंधे थे, इन्होंने भी धर्म के सत्य स्वरूप को समझा, धर्म साधना कर मुक्तिमार्ग पर चले तो आत्मा से परमात्मा बन गये। इसी तरह हम भी इस मार्ग पर चलें, इन गुणों को अपने में प्रगट करें तो हम भी आत्मा से परमात्मा अरिहंत • सिद्ध हो सकते हैं। इस बात को बताने वाले हमारे मार्गदर्शक साक्षात् प्रमाण हैं,
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