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04 श्री आपकाचार जी
गाथा-३२६-३३२ Oo अब हम उनके अनुसार न चलें,उन गुणों को अपने में प्रगट न करें और उनकी पूजा गुणस्थान तक सर्व मुनि साधु होते हैं। यही साधु तेरहवेंगुणस्थान में जाकर अरहंत वन्दना भक्ति करें, तो इससे कोई लाभ होने वाला नहीं है; क्योंकि जैनदर्शन तो द्रव्य केवली हो जाते हैं। साधु नित्य आत्मध्यान में वैराग्य की भावना में तथा बारह प्रकार की स्वतंत्रता की घोषणा करता है, यहाँ परवलम्बता पराधीनता तो है ही नहीं। के तप के साधन में लगे रहते हैं, कठिन से कठिन तपस्या करते हैं,उपसर्ग परीषह जैनदर्शन में कोई परमात्मा जगत का नियन्ता सुख-दुःख दाता कल्याण कर्ता नहीं सहते हैं, एकांतवास कर धर्म ध्यान की शक्ति बढ़ाते हैं, फिर उपशम श्रेणीया क्षपक है, प्रत्येक जीव अपने में स्वतंत्र है। स्वयं के पुरुषार्थ से जो चाहे कर सकता है, जैसा श्रेणी पर शक्ति के अनुसार आरूढ़ होते हैं, कर्मों के क्षय का निरन्तर उद्यम करते चाहे बन सकता है इसमें किसी का हस्तक्षेप नहीं है।
रहते हैं। समस्त परिग्रहों के बंधनों से मुक्त होते हैं वही निर्ग्रन्थ वीतरागी मुनि साधु जो अव्रत सम्यक्दृष्टि हैं वह शुद्ध षट्कर्म में देवपूजा अर्थात् पूजा पूज्य कहलाते हैं। समाचरेत् पूज्य के समान आचरण ही सच्ची पूजा है, जो निश्चय-व्यवहार से । २. उपाध्याय पद- जो साधु निरन्तर ज्ञानोपयोग में लगे रहते हैं, पठन शाश्वत है, ऐसी देवपूजा अर्थात् उनके गुणों का आराधन और किस प्रकार वह देव पाठन में दत्त चित्त हैं, द्वादशांग वाणी को भले प्रकार जानकर दूसरों को पढ़ाते हैं बने, उसका सारा विधि-विधान समझकर उस मार्ग पर चलने का पुरुषार्थ करता तथा जिनवाणी का सार जो शुद्धात्म तत्व है उसको भी बताते हैं, यह उपाध्याय पद है। परमेष्ठी के गुणों का आराधन करता है, यह पाँच परम इष्ट पद-अरिहंत, सिद्ध, का स्वरूप है। द्वादशांग (बारह अंगों का) जिनवाणी का स्वरूप संक्षेप में इस आचार्य, उपाध्याय,साधु पद हैं,जो जीव को संसार से उठाकर आत्मा से परमात्मा प्रकार हैबनाते हैं। सर्वप्रथम भेदज्ञान पूर्वक स्व-पर का यथार्थ निर्णय करना और अपने १.आचारांग-इसमें मुनियों का आचरण बताया है। शुद्धात्म स्वरूप की प्रतीति अनुभूति होना,यही सम्यकदर्शन आवश्यक है। जिसे २.सूत्रकृतांग-इसमें सूत्ररूपसंक्षेप में ज्ञान का, विनय आदिधर्म क्रिया का वर्णन है। भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती है, वह सम्यकद्रष्टि कहलाता है और ३.स्थानांग-इसमें नय अपेक्षा स्थानों का कथन है। वर्तमान में कर्म संयोग पाप-परिग्रह में रहने से अव्रती कहलाता है; परंतु जिसे संसार ४४. व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग-इसमें गणधर के साठ हजार प्रश्नों के उत्तर हैं। भय और दु:ख रूपलगने लगा है, जो इससे छूटने के लिये छटपटा रहा है। वह मार्ग ६.ज्ञातृधर्मकथांग-इसमें त्रेसठशलाका पुरुषों के धर्म की कथा है। की खोज करता है और उस मार्ग पर चलने का पुरुषार्थ करता है।
७. उपासकाध्ययन- इसमें श्रावकों की ग्यारह प्रतिमा,क्रिया मंत्रादि का वर्णन है। जब वह समस्त आरम्भ-परिग्रह, पाप, विषयादि को छोड़ देता है, महाव्रती२८.अंत:कृतदशांग - इसमें हर एक तीर्थंकर के समय दश-दश मुनि घोर उपसर्ग बनता है, अन्तर में अपने आत्मस्वरूप शुद्धात्मा की साधना करता है, अट्ठाईस सहकर मोक्ष गये, उनका कथन है। मूलगुणों का पालन करता है, निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी होता है यही साधु पद है। ९. अनुत्तरोपपादिक दशांग - इसमें हर एक तीर्थंकर के समय में दशमुनि उपसर्ग व्रत,तप,संयम यह सब मनुष्य की वैषयिक प्रवृत्ति को नियन्त्रित करने के लिये हैं, सहकर समधिमरण करके विजयादिक अनुत्तरों में जन्मे उनका कथन है। इनके बिना आत्म साधना सम्भव नहीं है, जबकि आत्म साधना करने का नाम ही १०.प्रश्न व्याकरणांग-इसमें अतीत,अनागत, वर्तमान काल संबंधी लाभ-अलाभ साधुता है। जैनधर्म के उपदेष्टा या प्रवर्तक सभी तीर्थकर संसार त्यागी तपस्वी वीतरागी आदि प्रश्नों के उत्तर, कहने की विधि तथा चार प्रकार की कथाओं का वर्णन है। थे, उनके द्वारा धर्म के दो मुख्य भेद बताये गये हैं, मुनिधर्म और श्रावक धर्म। चार प्रकार की कथा-१.आक्षेपिणी-धर्म में दृढ़ करने वाली कथा।। मुनिधर्म ही उत्सर्ग धर्म माना गया है, मुनिधर्म के बिना मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती। २.विक्षेपिणी- एकांत मत का खंडन करने वाली कथा। ३. संवेजिनी-धर्मानुराग'
१.साधुपद-साधु पद की मुख्यता मोक्ष की सिद्धि करने में है। वे निरन्तर कराने वाली कथा।४.निवेजिनी-संसार शरीर भोगों से वैराग्य कराने वाली कथा।X व्यवहार रत्नत्रय के द्वारा निश्चय रत्नत्रयमयी निज शुद्धात्मा की साधना करते हैं। ११.विपाक सूत्रांग-इसमें कर्मों के उदय,बंध,सत्ता आदि का वर्णन है। उनका ध्येय केवलज्ञान प्राप्ति है,छठे गुणस्थान प्रमत्तविरत से बारहवें क्षीणमोह १२. दृष्टि प्रवादांग-इसके पाँच अधिकार हैं-१.परिकर्म,२. सूत्र, ३. प्रथमानुयोग,