________________
७ श्री श्रावकाचार जी
गाथा-३२६-३३२ Oo ४. पूर्वगत,५.चूलिका।
पढ़ाना है। १.परिकर्म- इसमें गणित आदि के सूत्र हैं,चंद्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति,जंबूद्वीप ३.आचार्य पद-जो निर्ग्रन्थ पाँच महाव्रत, पाँच समिति व तीन गुप्ति ऐसे प्रज्ञप्ति, द्वीप सागर प्रज्ञप्ति, व्याख्या प्रज्ञप्ति आदि सहित इसमें जीवादि पदार्थों का , १३ प्रकार चारित्रका तथा दर्शनाचार,ज्ञानाचार, चारित्राचार,तपाचार और वीर्याचार भी स्वरूप है।
* इन पाँच प्रकार आचार का निर्दोष पालन स्वयं करते हैं व दूसरों से पालन कराते हैं। २. सूत्र- इसमें क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद,विनयवाद मतों के ३६३१ जो सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्रमयी निजशुद्धात्म तत्व का अनुभव शुद्धोपयोग रूप भेदों का वर्णन है।
करते हैं क्योंकि शुद्धोपयोग में ही निश्चय रत्नत्रय का लाभ होता है तथा वीतरागता ३.प्रथमानुयोग- इसमें त्रेषठ शलाका पुरुषों का जीवन चरित्र है। होती है। आचार्य महाराज के प्रमत्त व अप्रमत्त दो गणस्थान ही होते हैं। जब ध्यान
४.पूर्वगत-इसके चौदह भेद हैं,जो चौदह पूर्व कहलाते हैं। चौदह पूर्व का मग्न निश्चल होते हैं तब सांतवां और जब दीक्षा-शिक्षा, आहार-विहार कार्यों में संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है
निरत होते हैं तब छठा प्रमत्त गुणस्थान होता है, इन दोनों का काल अन्तर्मुहूर्त से १. उत्पाद पूर्व-पदार्थों का उत्पाद व्यय ध्रौव्य कथन है।
अधिक नहीं है इसलिये उन आचार्यों का आत्मा पुन:-पुन: ध्यानमग्न होता हुआ २. अग्रायणीय पूर्व- इसमें ७०० सुनय-कुनय व सात तत्वादि का वर्णन है। आत्मानंद का विलास करता रहता है। वे वचन व काय से बाहरी कार्य को करते हुए ३. वीर्यानुवाद पूर्व-इसमें जीवादि के क्षेत्र,काल,भाव, तप तथा छह द्रव्यों की शक्ति भीमन से आत्म कार्य में लवलीन रहते हैं, जो क्षायिक सम्यक्त्वीया उपशम सम्यक्त्वी रूप वीर्यादि का कथन है।
होते हैं, ऐसे परममुनि वीतरागी परमोपकारी आचार्य पद में होते हैं। ४. अस्तिनास्ति पूर्व-इसमें अस्ति-नास्ति आदि सात भंगों का स्वरूप है। र ४. अरिहंत पद-जो भव्य आत्मा साधु पद से शुद्धोपयोग की साधना द्वारा ५.ज्ञान प्रवाद पूर्व- इसमें आठ प्रकार के ज्ञान का वर्णन है।
श्रेणी मांडते हैं अर्थात निर्विकल्प ध्यान समाधि में लीन होते हैं उन्हें अड़तालीस ६.आत्मप्रवाद पूर्व-इसमें आत्मा के स्वरूप की महिमा का कथन है।
5 मिनिट (एक मुहूर्त) में केवलज्ञान प्रगट हो जाता है, केवलज्ञान होते ही अनन्त ७. सत्यप्रवाद पूर्व-इसमें दस प्रकार भेद रूप सत्य आदि का वर्णन है।
चतुष्टय (अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान,अनन्त सुख, अनन्त वीर्य) प्रगट हो जाता ८.कर्म प्रवाद पूर्व-इसमें कर्मों के बंध आदि का विशद् विश्लेषण है।
है। उनके ज्ञान में तीनकाल, तीन लोक के समस्त पदार्थ झलकने लगते हैं और वह ९. प्रत्याख्यान पूर्व-इसमें त्याग के विधान का वर्णन है।
2 आत्म स्वरूप परमानंद में निमग्न रहते हैं, उन्हें ही सर्वज्ञ परमात्मा, केवलज्ञानी, १०. विद्यानुवाद पूर्व-इसमें ७०० अल्प विद्या, ५०० महा विद्या साधने के
अरिहंत तीर्थंकर कहते हैं। तीर्थंकर के समवशरण होते हैं, दिव्यध्वनि खिरती है जो मंत्र-यंत्र और अष्टांग निमित्त ज्ञान का कथन है।
९. जगत के समस्त जीवों को धर्म का सत्य स्वरूप बताते हैं। जिनके चरणों में १०० ११. कल्याण वाद पूर्व-इसमें महापुरुषों के कल्याणकों का वर्णन है।
ॐ इन्द्र नमस्कार करते हैं-भवनवासी देवों के ४० इन्द्र,व्यन्तर देवों के ३२ इन्द्र, १२.प्राणवाद पूर्व-इसमें वैद्यक का कथन है।
कल्पवासी देवों के २४ इन्द्र, ज्योतिषी देवों के दो इन्द्र-सूर्य, चन्द्रमा, मनुष्यों में १३. क्रियाविशाल पूर्व-इसमें संगीत,छंद,अलंकार तथा पुरुष की ७२ एवं स्त्री र एक चक्रवर्ती राजा, तिर्यंच में एक अष्टापद पशु। जिनके समवशरण में बारह कोठे की ६४ कला आदि का वर्णन है।
5 (सभायें) होती हैं, जिनमें-१.भवनवासी देवी,२.व्यन्तरों की देवी,३.ज्योतिषियों , १४. त्रिलोक बिंदुसार - इसमें तीन लोक का स्वरूप, बीजगणित आदि का कथन है। की देवी, ४. कल्पवासी देवी,५. भवनवासी देव, ६. व्यन्तर देव,७.ज्योतिषी देव,%
५.चूलिका-इसके पाँच भेद हैं-जलगता, थलगता,मायागता,रूपगता, ८. कल्पवासी (स्वर्ग के) देव, ९. मुनिगण, १०. आर्यिका गण, ११. मानव, आकाशगता। इसमें जल-थल, आकाश में चलने के, रूप बदलने के मंत्र आदि हैं। १२. पशु बैठते हैं । जिनका उपदेश हर एक मानव व सैनी पंचेन्द्रिय पशु व हर प्रकार 7 9 उपाध्याय परमेष्ठी शास्त्र के विशेष ज्ञाता होते हैं, इन साधुओं का कर्तव्य पढ़ना और का देव सुन सकता है। जिनकी वाणी को सुनकर अनेक गृहस्थ, मुनि हो जाते