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RSON श्री श्रावकाचार जी हैं,अनेक श्रावक व्रतधारी और अनेक देव मनुष्य तथा पशु सम्यकदृष्टि हो जाते हैं, सुख शान्ति का परम लाभ कर लेते हैं। ऐसा वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी अरिहंत पद होता है।
५.सिद पद-जो आत्मा पूर्ण शुद्ध सर्व रागादि विकार कर्म संयोग शरीर से रहित, संसार के आवागमन जन्म-मरण से मुक्त अपने परमानंद मयी स्वचतुष्टय में स्थित हो जाते हैं, वे सिद्ध पद धारी परमात्मा कहलाते हैं। जो लोक के अग्र भाग में स्थित अपने उवंकार स्वरूप में प्रतिष्ठित रहते हैं,जो शाश्वत पद है। अरिहंत आदि अन्य चार पद अनित्य हैं, नाशवन्त हैं और शरीर सहित होने से विनाशीक हैं; परन्तु सिद्ध पद सर्व कर्म व सर्व शरीर रहित होने से सदा ही रहने वाला अविनाशी पद है।
इस प्रकार अरिहंत और सिद्धपदवीतराग देव परमात्मा कहलाते हैं और आचार्य उपाध्याय साधुपदवीतरागी गुरू कहलाते हैं। यह पाँच परम इष्ट पद इसलिये महान कहे जाते हैं कि इनके माध्यम से ही यह आत्मा परमात्मा बनता है। व्यवहार नय से यह पाँच पद कहे जाते हैं, निश्चय नय से इन सबमें एक ही शुद्धात्म स्वरूप विराजमान है, यह देवत्व पद पाने के शुद्ध गुण हैं। जो आत्मा इनकी साधना करके पाँचवीं पदवी से संयुक्त हो जाता है, उसे जैन आगम में जिनेन्द्र देव कहा गया है। सम्यक्दृष्टि इन पदों की साधना करता है यही उसकी सच्ची देव पूजा है।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि इन पदों की साधना करना सच्ची देवपूजा है तो जो इन पदों पर विराजमान हैं, उनकी पूजा वन्दना भक्ति करना चाहिये या नहीं?
उसका समाधान करते हैं कि जो इन पदों पर विराजमान हैं, वह अपने से आगे हैं, बड़े हैं, उनको नमस्कार करना उनका गुणानुवाद करना तो व्यवहार विनय है, यह तो करना ही चाहिये, णमोकार मंत्र में यह स्पष्ट ही है; परन्तु इनकी पूजा करना, इनमें अटक जाना और जो हैं ही नहीं, उनको भी किसी रूप में पूजना यह तो प्रत्यक्ष ही मढता है क्योंकि जैसे हम किसी स्थान पर जाना चाहते हैं और कोई अपने को उस स्थान का पता और मार्ग बता देता है, तो हम उसका उपकार मानते हैं परन्तु उसको ही इष्ट मानकर पूजने लगें तो बताओ कभी ठिकाने लग सकते हैं? नहीं। विवेक से काम लेना ही मनुष्यता की निशानी है, जिनधर्म का मर्म , सम्यक्दृष्टि का लक्षण है।
अब यहाँ प्रश्न होता है कि णमोकार मंत्र में पंच परमेष्ठी पद में सबसे पहले अरिहंत पद आया है तो यह तीर्थंकर बनने का मार्ग क्या है?
गाथा-३३३,३३४ P OK इसका उत्तर सद्गुरू तारण स्वामी अगली गाथाओं में देते हैंअरहंत भावनं जेन, बोडस भावेन भावितं । तिअर्थ तीर्थकर जेन, प्रति पूर्व पंच दीप्तयं ॥ ३३३॥ तस्यास्ति षोडसं भावं,तिअर्थ तीर्थकरं कृतं । षोडस भावनं भावं, अरहंत गुण सास्वतं ॥ ३३४॥
अन्वयार्थ- (अरहंत भावनं जेन) जो अरिहंत पद की भावना करता है (षोडस भावेन भावित) उसे सोलह कारण भावनाभाना चाहिये (तिअर्थतीर्थकरंजेन) जिससे जैसा द्रव्य गुण पर्याय तीर्थंकर का होता है (प्रति पून पंच दीप्तयं) वैसा ही पंच ज्ञानमयी निज स्वरूप परिपूर्ण होता है।
(तस्यास्तिषोडसं भाव) इसलिये यह सोलह कारणभावना ही (तिअर्थतीर्थकर कृतं) तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराती हैं (षोडस भावनं भावं) सोलह कारण भावना भाना ही (अरहंतं गुण सास्वतं) अरिहंत पद स्वरूप अपने अविनाशी आत्मगुणों को प्रकट करना है।
विशेषार्थ-जो अरिहंत पद की भावना करता है अर्थात् आत्मा से परमात्मा होना चाहता है, उसे अपने परिणामों की विशुद्धि के लिये सोलह कारण भावना भाना चाहिये, जिससे जैसा द्रव्य गुण पर्याय तीर्थंकर अरिहंत का होता है, वैसा ही पंच ज्ञानमयी निज स्वरूप परिपूर्ण शद्ध है. ऐसा बोध हो जाता है। इसलिये यह सोलह कारण भावना ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराती हैं,सोलह कारण भावना भाना ही अरिहंत पद स्वरूप अपने अविनाशी आत्म गुणों को प्रगट करना है। यह सोलह कारण भावना परम उपकारी हैं. इनके भाने या इन पर चलने से यदि तीर्थंकर प्रकृति का बंधन भी हो तो भी महान पुण्य बंध होता है तथा आत्म गुणों का विकास होता है।
सोलह कारण भावना निम्न प्रकार हैं१.दर्शन विशद्धि भावना-सम्यकदर्शन शुद्ध रहे, उसमें पच्चीस दोष में से कोई सा
भी दोषनलगे तथा जगत के समस्त जीव अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान कर सम्यक्दृष्टि बनकर मक्ति के मार्ग पर चलें. आत्मा से परमात्मा बनें ऐसी भावना होना। २. विनय सम्पन्नता- रत्नत्रय धर्म तथा उनके धारकों के प्रति विनय होना। ३.शीलव्रतेष्वनतीचार-शील स्वभाव व व्रतों के पालने में कोई दोष न लगे। ४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग - निरन्तर आत्मज्ञान व शास्त्र आगमज्ञान में उपयोग
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