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श्री आवकाचार जी
॥ ॐ नमः सिद्धं
तारण तरण श्रावकाचार अध्यात्म जागरण - टीका
मंगलाचरण
चेतना लक्षर्ण आनन्द कन्दनं, वन्दनं वन्दनं वन्दनं वन्दनं ॥
शुद्धातम हो सिद्ध स्वरूपी । ज्ञान दर्शन मयी हो अरूपी ॥
शुद्ध ज्ञानं मयं चेयानन्दनं वन्दनं वन्दनं वन्दनं वन्दनं.....
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द्रव्य नो भाव कर्मों से न्यारे ।
मात्र ज्ञायक हो इष्ट हमारे ॥
सुसमय चिन्मयं निर्मलानन्दनं, वन्दनं वन्दनं वन्दनं वन्दनं ......
पंच परमेष्ठी तुमको ही ध्याते ।
तुम ही तारण तरण हो कहाते ॥
शाश्वतं जिनवरं ब्रह्मानन्दनं, वन्दनं वन्दनं वन्दनं वन्दनं ......
दोहा
ध्रुव शुद्ध निज आत्मा, ममलह ममल स्वभाव | अनुभव में आवे तभी, मिटते सभी विभाव ॥ पूर्ण शुद्ध हूँ सिद्ध सम, यह प्रतीति है धर्म । सद्गुरु को वन्दन करूँ, मिटे सभी भव भर्म ॥ मंगलाचरण
SYAN FAA YA ART YEAR.
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देव देवं नमस्कृतं लोकालोक प्रकासकं । त्रिलोकं भुवनार्थ जोति, उवंकारं च विन्दते ।। १ ।।
अन्वयार्थ (उवंकारं च विन्दते) ऊँकार स्वरूप पंच परमेष्ठी जिसका अनुभव 5 करते हैं (लोकालोक प्रकासक) जो लोकालोक को प्रकाशित करने वाला (त्रिलोकं भुवनार्थं जोति) तीन लोक में ज्ञानमयी सूर्य समान ज्योति है (देव देवं नमस्कृतं) ऐसे देवों के देव निज शुद्धात्म तत्व को नमस्कार करता हूँ।
विशेषार्थ - ॐ शुद्ध सत्ता चैतन्य ज्योति परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप को कहते
गाथा-१
हैं, ॐकार उन्हें कहते हैं जिन्होंने उस सत्ता स्वरूप को उपलब्ध कर लिया है या करने वाले हैं; क्योंकि उन्होंने उस सत्तास्वरूप को जान लिया है, इसमें पंच परमेष्ठी अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु आते हैं जो उस सत्तास्वरूप का वेदन- अनुभव करते हैं।
चतुर्थ,
यहाँ कोई प्रश्न करे कि शुद्ध सत्तास्वरूप चैतन्य तत्व निज शुद्धात्मा को तो पंचम गुणस्थानवर्ती सम्यक्दृष्टि व्रती-अव्रती श्रावक ने भी जान लिया है, वह भी उसका अनुभव करते हैं, फिर यहाँ पंच परमेष्ठी को ही क्यों लिया, उनको भी क्यों नहीं लिया ?
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उसका समाधान करते हैं कि चौथे पाँचवें गुणस्थानवर्ती श्रावक ने भी शुद्ध सत्ता निज चैतन्य तत्व को जान लिया है, अनुभव में आ गया है पर वह निरन्तर अनुभव नहीं करते और न कर सकते हैं क्योंकि अभी वे अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान कषाय के आवरण से युक्त हैं तथा मोह राग का सद्भाव है, कर्म संयोगी दशा में रह रहे हैं, पाप परिग्रह में लगे हैं इसलिये वह अपने शुद्धात्म स्वरूप का निरन्तर अनुभव नहीं करते। जो वीतरागी निर्ग्रन्थ महाव्रती छठे सातवें गुणस्थानवर्ती साधु हैं, वही इसका अनुभव करते हैं, उस श्रेणी में उपाध्याय आचार्य आते हैं। अरिहन्त और सिद्ध तो स्वयं परमात्मा हैं वह तो निरन्तर उसी मय हैं।
अब वह शुद्ध सत्ता स्वरूप कैसा है ? लोकालोक को प्रकाशित करने वाला अर्थात् देखने जानने वाला है। केवलज्ञान की एक समय की पर्याय में समस्त लोकालोक प्रत्यक्ष जानने में आता है, यह उसकी शक्ति है। और कैसा है ? तीन लोक में ज्ञानमयी सूर्य समान प्रकाशमान ज्योति पुंज है अर्थात् ज्ञानमयी जीव तत्व ही ऐसी शक्ति है जिसके कारण जगत के छहों द्रव्य देखने जानने में आते हैं और तीनों लोक का परिणमन भी उसी की सत्ता शक्ति से चलता है।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि इससे तो तीन लोक का परिणमनकर्ता जीव तत्व कहो या परमात्मा कहो एक शक्ति ही हो गई, इससे तो एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता हो गया तथा अन्यमती का एक सत्ता कर्तावाद का पोषण हो गया ?
उसका समाधान करते हैं कि इस तत्व को समझने के लिये जगत के स्वरूप को जानना होगा। छह द्रव्यों के समूह को विश्व या जगत कहते हैं। वह छह द्रव्य-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल हैं। जिनमें एक चेतन और पाँच अचेतन हैं तथा पुद्गल-स्पर्श रस गंध वर्ण वाला रूपी पदार्थ है और अन्य पाँच