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________________ Our श्री बाचकाचार जी सम्यक् प्रेरणा HD धर्मदिवाकर:चिंतम सूत्र चरणानुयोग१.हे भव्य ! तू भेदज्ञान के बल से आत्मज्ञान प्राप्त करके उसी में रमण कर, सम्यक् आचरण की सम्यक प्रेरणा ऐसा करने से ध्यान में प्रीति होगी और तेरे परिणाम सिद्धि अर्थात् सफलता को प्राप्त होंगे। S श्रीमद् जिन तारण स्वामी जी के द्वारा उपदिष्ट पञ्चमतों में आचार मत की। २.धर्म या मोक्षमार्ग कहीं बाहर नहीं है, आत्मा में ही है व आत्मीक अनुभवसम्यक् व्याख्या श्री श्रावकाचार बांध में विस्तार पूर्वक की गई है। सांसारिक से ही वह प्राप्त होता है यही जिन सिद्धांत है। जीवन में आत्मानुशासन, इन्द्रिय निब्रह और सदाचार-संसार से पूर्ण निवृत्ति ३. अपने मन की चंचलता और राग-द्वेष, मोह की प्रबलता तथा या अनगार साधना का प्रथम सोपान है। श्रावक का साधक जीवन श्रावकाचार संकल्प- विकल्प मन में बने रहना इत्यादि मात्र मन के दोषों के कारण ही यह प्राणी से ही प्रारंभ होता है। संसार में जन्म-मरण कर रहा है। श्री गुरुदेव ने श्री श्रावकाचार जी ब्रांथ में दो प्रकार के चारित्र की चर्चा ४. आत्मानन्द प्राप्त होने पर संसार भ्रमण का कारण जो दर्शनमोहनीय कर्म विशेष रूप से की है- १. भावात्मक २. क्रियात्मक । जैसे-जल छानने की तथा संकल्प-विकल्प, मिथ्यात्व, कुज्ञान आदि जितने भी कारण हैं वे सब दूर हो विधि के पूर्व आचार्य श्री अपने परिणामों (भावों) को छानकर विशुद्ध करने की जाते हैं। साधक को प्रेरणा प्रदान करते हैं। जल छानकर पान करना शारीरिक स्वास्थ्या ५. आत्म प्रकाश की स्वाभाविक दृष्टि का यह महात्म्य है कि उसके प्रकाश में 5 R और व्यवहार चारित्र के लिये आवश्यक है, जिससे संयम और स्वास्थ्य की इष्ट स्वभाव जाग्रत हो जाता है अर्थात् उसकी स्वाभाविक परिणति इष्ट कहिये रक्षा होती है, इसी प्रकार परिणामों की विशुद्धता से अध्यात्म की अन्तर्मुखी कल्याण रूप हो जाती है जबकि आत्म प्रकाश के अभाव में मनुष्य की समस्त परिणतियां चाहे वे पापरूप हों या पुण्यरूप सभी शुभाशुभ बंध करके संसार भ्रमण ५ यात्रा का मार्ग प्रशस्त होता है। श्रावक से साधक बनने के उपायों को प्रस्तुत Sग्रंथ में सरलता के साथ स्पष्ट किया गया है। के कारण स्वरूप रहती हैं। ६.शास्त्र ज्ञान मात्र से मुक्ति नहीं मिलती, शास्त्र ज्ञान से जब वैराग्य भावनायें ब्रांथ के यशस्वी टीकाकार अध्यात्म शिरोमणी पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी जाग्रत होकर आत्मानन्द झलकने लगता है तब ज्ञान, भेदज्ञान कहलाता है, यही महाराज वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध के साथ ही तपोनिष्ठ भी हैं। उनके द्वारा स्वान्तः भेदज्ञान मुक्ति प्रदायक होता है। सुखाय के लिये किये गए इस कार्य से प्रत्येक जीव की आध्यात्मिक यात्रा का ७. नाशवान संसार की चिंताओं को छोड़कर आत्म कल्याण की चिंता करो, मार्ग सम्यकरूपेण प्रशस्त हो यही मंगल भावना है। आत्म कल्याण का मार्ग एक मात्र आत्म ध्यान ही है। ब्रथ के कुशल संपादन और सुंदर प्रकाशन में अध्यात्म रत्न बाल ब्र. श्री जिस ज्ञानी पुरुष को श्री अरिहंत का उपदेश हृदयंगम हो जाता है, वह बसन्त जी का मनोयोग पूर्ण सतत् प्रयत्न प्रसंशनीय है। उस उपदेश रूपी सरोवर में मम्न हो जाता है और स्वयं की आत्मा को उपदेश रूप बना लेता है तथा अपनी ही आत्मा में उत्पन्न हुए उपदेश रूपी सरोवर में रमण. ९ करता है, वह ज्ञानी आनंद का भोग करता हुआ मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। राजेन्द्र सुमन संपादक- तारण ज्योति शिवराजपुर (सतना) संकलन (मासिक) दिनांक-२९ जनवरी २००१ बालब. शांतानन्द दिनांक १४.३.२००१ सिंगोड़ी, (छिन्दवाड़ा) म. प्र.
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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