________________
reche
PROu40 श्री श्रावकाचार जी
गाथा-४५९-४६१
on नहीं होता, पूर्ण मुक्त शुद्ध सिद्ध परमात्मा ही सच्चे देव हैं, इसी बात को आगे कहते हैं- सदगुरू श्रीमद् जिन तारण स्वामी यहां यही भावना करते हैं कि हे जगत के सिद्ध सिद्धि संजुक्तं, अस्ट गुनं च संजुतं ।
भव्य जीवो ! शुद्ध सम्यक्त्व को धारण कर पंच परमेष्ठी पद की साधना करो इसी में अनाहतं विक्त रूपेन,सिद्धं सास्वतं धुवं ॥४५९॥
इस जीवन की सार्थकता है
परमिस्टी साधनं कृत्वा, सुद्ध संमिक्त धारना। अन्वयार्थ- (सिद्ध सिद्धि संजुक्तं) सिद्ध भगवान आत्मा की सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं (अस्ट गुनं च संजुतं) और आठ गुणों से विभूषित हैं (अनाहतं विक्त रूपेन)
ते नरा कर्म विपनं च,मुक्ति गामीन संसयः ।। ४६०॥ अनाहत, अव्याबाध स्वरूप प्रगट हो गया (सिद्ध सास्वतं धुवं) वे सिद्ध परमात्मा 2 त्रिविध ग्रंथ प्रोक्तंच, सार्थ न्यान मयं धुवं । शाश्वत ध्रुव हैं।
धर्मार्थ काम मोज्यं च, प्राप्त परमेस्टी नमः॥४६१॥ विशेषार्थ- जो जीव आठों कर्मों से रहित अशरीरी पूर्ण शुद्ध मुक्त हो जाते हैं ये 5 अन्वयार्थ- (परमिस्टी साधनं कृत्वा) जो पंच परम इष्ट पद की साधना करते सिद्ध परमात्मा होते हैं जो शाश्वत पद है। चतुर्थ शुक्ल ध्यान के पूर्ण होते ही आत्मा हैं(सद्ध संमिक्त धारना) शद्ध सम्यक्त्व के धारी हैं (ते नरा कर्म षिपनंच) वे मनुष्य चारों अघातिया कर्मों का अभाव करके ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण एक ही समय में 2
कर्मों का क्षय करके (मुक्ति गामी न संसय:) मोक्षगामी होते हैं इसमें कोई संशय लोक के अग्र भाग अर्थात् अंत में जाकर सुस्थिर, सुप्रसिद्ध, सिद्ध, निकल परमात्मा नहीं है। हो जाता है। इसके एक-एक गुण की मुख्यता से परब्रह्म, परमेश्वर, मुक्तात्मा, स्वयं (त्रिविध ग्रंथं प्रोक्तंच) तीन प्रकार के पात्रों का इस ग्रंथ में स्वरूप कहा गया भू आदि अनंत नाम हैं। इस शुद्धात्मा का आकार चरम (अंतिम) शरीर से किचित् है-उत्तम. मध्यम. जघन्य (सार्ध न्यान मयं धुवं) जो अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव न्यून पुरुषाकार रहता है। इस निष्कम आत्मा के ज्ञानावरणीय कम क अभाव स5 की श्रद्धा और साधना करते हैं (धर्मार्थ काम मोष्यं च) इससे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष अनन्तज्ञान और दर्शनावरणीय कर्म के अभाव से अनन्त दर्शन की प्राप्ति होता है। चारों परुषार्थ सिद्ध होते हैं और (प्राप्तं परमेस्टी नम:) शाश्वत परमेष्टी सिद्ध पद अन्तराय कर्म के अभाव से ऐसी अनन्त वीर्य शक्ति उत्पन्न होती है जिससे खेद रहित
प्राप्त होता है जिसे सभी भव्य जीव नमन करते हैं। परमानन्द मय रहता है। मोहनीय कर्म के अभाव होने से क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट हो विशेषार्थ- मोक्ष प्राप्ति का मल साधन- 'सम्यकदर्शनज्ञानचारित्राणि जाता है। आयु कर्म के अभाव से अवगाहनत्व गुण उत्पन्न होता है जिससे इस मुक्त
र मोक्षमार्ग: है। भेदज्ञान पूर्वक शरीरादि से भिन्न जो जीव अपने शुद्धात्म स्वरूप की आत्मा के अनन्त काल स्थायीपने की शक्ति प्रगट हो जाती है। गोत्र कर्म के अभाव से
, अनुभूति करते हैं वे शुद्ध सम्यक्दृष्टि हैं तथा वस्तु स्वरूप का ज्ञान करके जो आत्म अगुरुलघुत्व गुण उत्पन्न होता है जिससे सिद्ध परमात्मा हल्के-भारीपन से रहित हो ।
९ स्वरूप की साधना के लिये समस्त पाप-परिग्रह, विषय-कषाय का त्याग करके जाते हैं। नामकर्म के अभाव से शरीर रहितपना अर्थात् सूक्ष्मत्व गुण की प्राप्ति होती
8 साधु पद धारण कर परमेष्ठी पद और आत्म ध्यान की साधना करते हैं उनके सम्पूर्ण है तथा वेदनीय कर्म के अभाव से अव्याबाधत्व गुण उत्पन्न हो जाता है।
कर्म क्षय हो जाते हैं वे निश्चय मोक्षगामी होते हैं इसमें कोई संशय नहीं है। इस प्रकार मुक्त जीव यद्यपि व्यवहार नय की अपेक्षा अष्ट कर्मों के अभाव से
यह संसारी आत्मा अनादिकाल से अपने स्वरूप को भूला पुद्गलों को ही अष्ट गुणमय कहा जाता है तथापि निश्चय नय से एक शुद्ध चैतन्य घन पिंड है। यह
• अपना स्वरूप मानकर बहिरात्मा हो रहा है। जब काललब्धि तथा योग्य द्रव्य, क्षेत्र, संसारी आत्मा पुरुषार्थ करके इस प्रकार निष्कर्म परमात्मा, परमेश्वर्य अवस्था को
काल, भाव का संयोग पाकर इसे अपना तथा पर का भेदविज्ञान होकर सम्यक्त्व प्राप्त हो सदा स्वाभाविक शांति रस पूर्ण स्वाधीन आनन्द मय, सदा के लिये।
रूप आत्म स्वभाव का दृढ़ विश्वास, आत्मानुभूति होती है तब वह अन्तरात्मा 6 अजर-अमर हो जाता है, फिर जन्म-मरण नहीं करता। यह शुद्धात्मा सकल संयम
होकर, पर पदार्थों से उपयोग हटाकर निजात्म स्वरूप में स्थित होने की उत्कट (मुनिव्रत) के धारण करने के फलस्वरूप निज गुणों के अति विकास रूप पूर्ण शुद्ध ।
इच्छा रूपस्वरूपाचरण चारित्र का आरम्भी तथा स्वात्मानुभवी हो जाता है पश्चात् | रूप सिद्ध परमात्मा हो जाता है।
२६३