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RSON श्री श्रावकाचार जी बारह व्रत रूपदेश चारित्र अंगीकार कर एकदेश आरम्भ परिग्रह का त्यागी अणुव्रता आविष्का .समस्त जड तत्वों को गति प्रदान करने वाला, सूक्ष्म से सूक्ष्म विचार होता है, जिसके फल से इसका उपयोग अपने स्वरूप में किंचित् स्थिर होने लगता है का प्रवर्तक क्या इतना तुच्छ है? कभी इस पर विचार किया? पनः मनिव्रत धारण कर तेरह विधि चारित्र रूप सकल संयम पालन करने से सर्वथा . यह गर्भ द्वारा आने वाला और यहां आकर अपने बुद्धि वैभव और चातुर्य द्वारा आरम्भ परिग्रह का त्यागी हो जाता है जिससे आत्मा का उपयोग पूर्ण रूप से निज विश्व में सनसनी पैदा करने वाला, मरने के बाद क्या पुनर्जन्म लेकर हमारे मध्य में स्वरूप में लीन होकर सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता पूर्वक ध्यान, ध्याता, नहीं आता? ऐसा क्या कुछ विचार किया है? धर्म भी उसी की उपज है और वस्तुत: ध्येय, ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय के भेद रहित हो जाता है, यही स्वरूपाचरण चारित्र की
2 उसी का नाम धर्म है। उसी का श्रद्धान सम्यक्दर्शन है, उसी का ज्ञान सम्यक्ज्ञान पूर्णता है। आत्मा इसी अद्भुत रसायन के बल से निर्बन्ध अवस्था को प्राप्त होकर आत्मा इसा अद्भुत रसायन क बल सनिबन्ध अवस्था का प्राप्त होकर
औरती और उसी का आचरण सम्यक्चारित्र है यही सच्चा धर्म है।
का आचरण उस वचनातीत आत्मीक स्वाधीन सुख को प्राप्त करता है,जोइन्द्र,धरणेन्द्र, चक्रवर्ती !
धर्म, मनुष्य समाज के लिये वरदान बनकर अमृतत्व की ओर ले जाने में को भी दुर्लभ है; क्योंकि इन इन्द्रादिकों का सुख लोक में सर्वोपरि प्रसिद्ध होते हुए 9 समर्थ होता है। आज विश्व में जितना कष्ट और अशांति है वह इसी के अभाव से भी आकुलतामय, परिमित तथा पराधीन है और सिद्ध अवस्था का सुख निराकुलित, है।आज का मनुष्य अपने भारतीय चारित्र को भुलाकर विलासिता,धनलिप्सा,भोग स्वाधीन तथा अनन्त काल तक रहने वाला स्थायी है । धन्य हैं वे महान पुरुषतष्णा के चक्र में पडकर क्या नहीं करता? और धर्म से विमुख होकर धर्म की हंसी जिन्होंने इस मनुष्य पर्याय को पाकर जन्म-मरण रोग का नाश कर सदा के लिये
5 उडाता है, धर्म को ढकोसला बतलाता है। क्यों न बतलाये ? जब वह धर्म का बाना अजर-अमर, अविनाशी मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त किया । ऐसे सम्पूर्ण जगत के धारण करने वालों को भी अपने ही समय
धारण करने वालों को भी अपने ही समकक्ष पाता है तो उसकी आस्था धर्म से डिगना शिरोमणी सिद्ध परमेष्ठी जयवंत हों, मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।
हैं स्वाभाविक है, इसमें किसका दोष है ? दोष है धर्म का यथार्थ रूप दृष्टि से ओझल हो हे मोक्ष सुख के इच्छुक, संसार भ्रमण से भयभीत भव्य जीवो! इस सुअवसर जाने का। जब धर्म भी वही रूप धारण कर लेता है जो धन का है, तब धन और धर्म में को हाथ से न गंवाओ, सांसारिक राग-द्वेष रूप अग्नि से तप्तायमान इस आत्मा को गठबन्धन हो जाने से धन. धर्म को ही आच्छादित कर देता है। आज धर्म भी धन का समता,शांति रसरूप अमृत से सिंचन कर अजर-अमर बनाओ, यही सच्चा पुरुषार्थ दास बन गया है। धर्म का कार्य आज धन के बिना नहीं चलता फलत: धर्म पर आस्था है, यही प्रयोजन और यही सर्वोत्कृष्ट इष्ट, परम इष्ट है।
होतो कैसे हो? धन-भोग का प्रतिरूप है और धर्म-त्याग का प्रतिरूप है; अत: दोनों कर्म बंधन के विनाश के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं होती और कर्म बंधन का विनाश में तीन और छह जैसा सम्बन्ध है इस तथ्य को हृदयंगम करना आवश्यक है। कर्म बंधनों के कारणों से बचाव हुए बिना नहीं होता, इसीलिये मुक्ति के लिये कठोर
" जैन धर्म के उपदेष्टा या प्रवर्तक सभी तीर्थंकर संसारी त्यागी तपस्वी महात्मा मार्ग अपनाना होता है। व्रत, तप, संयम यह सब मनुष्य के वैषयिक प्रवृत्ति को 5 हैं. उनके द्वारा धर्म के दो मुख्य भेद प्रकाश में आते हैं- मुनिधर्म और श्रावक धर्म। नियंत्रित करने के लिये हैं, इनके बिना आत्म साधना संभव नहीं है ; जबकि आत्म मनिधर्म ही उत्सर्ग धर्म माना गया है. मुनिधर्म के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो साधना करने का नाम ही साधुता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि शरीर को कष्ट देने से
3 सकती। जो मुनिधर्म धारण करने में असमर्थ होते हैं वह श्रावक धर्म अंगीकार करते ही मक्ति मिलती है। सच तो यह है कि आत्मज्ञान के बिना बाह्य साधनों की कोई दसी उद्देश्य को लेकर यह श्रावकाचार गंथ कहा गया हैउपयोगिता नहीं है, आत्म रति होने पर शारीरिक कष्ट का अनुभव ही नहीं होता।
परमानंद आनंदं, जिन उक्तं सास्वतं पदं। हम जो मानव प्राणी हैं, जिन्होंने मनुष्य जाति में जन्म लिया है और अपनी आयु पूरी करके अवश्य ही बिदा होजायेंगे, क्या हम जड़ से भी गये गुजरे हैं? हमारा
एकोदेस उवदेसं च,जिन तारण मुक्ति पंथं श्रुतं॥४६२॥ जड़ शरीर तो आग में राख होकर यहीं वर्तमान रहेगा और उस जड़ शरीर में रहने अन्वयार्थ- (परमानंद आनंद) आनन्द ही आनन्द परमानन्दमयी (जिन उक्तं वाला चैतन्य क्या शून्य में विलीन हो जायेगा? अनेक प्रकार के आविष्कारों का सास्वतं पदं) जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित शाश्वत सिद्ध पद है (एकोदेस उवदेसंच)
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