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wcono श्री श्रावकाचार जी सम्पूर्ण उपदेश का एक ही उद्देश्य है कि (जिन तारण मुक्तिपंथं श्रुतं) यह अंतरात्मा
धुवतत्ववंदनाऔरसम्यक्तुष्टिका विवेक । [जिन तारण] जिनागम के अनुसार मुक्ति मार्ग पर चले।
धुवतत्वशुद्धातमतुमकोलायोप्रणाम विशेषार्थ- वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा कथित
ध्रुव धाम के तुम हो वासी। प्रत्येक जीव आत्मा का अपना शाश्वत सिद्ध पद आनन्द परमानन्दमयी है। उसको
तुम हो अजर अमर अविनाशी॥ प्राप्त करने के लिये ही बहिरात्मपने को छोड़कर अंतरात्मा बनकर परमात्म पद
परम ब्रह्म परमातम, तुमको लाखों प्रणाम..... प्रगट किया जाता है। इसी उद्देश्य को लेकर यह श्रावकाचार का कथन किया है।
अनंत चतुष्टय के तुम धारी। इसका भी मुख्य उद्देश्य यह है कि मुक्ति के मार्ग पर चलकर जिन तारण को सिद्ध
तीन लोक से महिमा न्यारी॥ परम पद की प्राप्ति हो।
सर्वज्ञ पूर्ण परमातम, तुमको लाखों प्रणाम..... ग्रंथ के कहने का उद्देश्य यही है कि भव्य जीवों को सिद्ध पद की प्राप्ति हो।
रत्नत्रयमयी अरस अरूपी। जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट ही सत्य धर्म मार्ग है जो प्रत्येक द्रव्य और प्रत्येक जीव
एक अखंड हो सिद्ध स्वरूपी॥ की स्वतंत्रता का उद्घोषक है। संसार का प्रत्येक जीव आत्मा स्वभाव से सिद्ध
ब्रह्मानंद परमातम, तुमको लाखों प्रणाम..... परमात्मा के समान शुद्ध परमानन्दमयी पद वाला है। अपने ही अज्ञान से अपने
ज्ञानानन्द स्वभाव तुम्हारा। स्वरूपको भूलकर मोह, मिथ्यात्व के कारण संसारी बना है। भेदज्ञान और सद्गरू
भाव क्रिया पर्याय से न्यारा॥ द्वारा अपने स्वरूप का बोध प्राप्त करके अपने पुरुषार्थ से सिद्ध पद प्राप्त कर सकता !
चिदानंद ध्रुव आतम, तुमको लाखों प्रणाम..... है। इसी सत्य मार्ग पर चलने के उद्देश्य से यह श्रावकाचार ग्रंथ की रचना की है, जो
अशरीरी अविकार निरंजन। अव्रत सम्यक्दृष्टि के लिये जिनागम के अनुसार मोक्ष प्राप्ति में साधन है।
सब कर्मों से भिन्न भव भंजन॥ श्री जिन तारण तरण स्वामी द्वारा रचित यह श्रावकाचार ग्रंथ है, इसमें मोक्ष प्राप्ति का यथार्थ मार्ग बताया गया है। जो कोई भव्य जीव इस धर्म ग्रंथ को पढेंगे,
सहजानंद शुद्धातम, तुमको लाखों प्रणाम..... चिंतन-मनन करेंगे उनको संसार से उद्धारक मोक्षमार्ग का यथार्थ ज्ञान होगा। इस
सम्यक्दृष्टि ज्ञानी निरंतर निर्विकल्प अनुभव में नहीं रह सकते इसलिये मयता से प्रावकाचारकान के सी कारण इसमें अवत सम्यकतिउन्हें भी भक्ति आदि का राग आता है। ज्ञानी को हेय-उपादेय, इष्ट-अनिष्ट एवं एकदेश अणुव्रती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का विशेष रूप से कथन किया गया का विवेक वर्तता है तथा जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। कारण है। मोक्ष का पूर्ण साधक साधु मार्ग का उपदेश है उसकी इसमें गौणता है।
अपना शुद्धात्म स्वरूप है, उसका ही लक्ष्य उसी की आराधना, स्तुति की जा
ॐ रही है, तो कार्य भी शुद्धात्म स्वरूप परमात्मा होगा ; यदि पर का लक्ष्य जड़ ( श्रीमद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज विरचित)
की पूजा स्तुति होगी तो वह शुभ भावों की अपेक्षा पुण्य बंध का कारण हो श्री श्रावकाचार नाम ग्रंथ की हिन्दी टीका मिती भाद्र पद कृष्ण २
सकती है; परंतु मूल में पर का आलंबन मिथ्यात्व और जड़ का आलंबन गृहीत | विक्रम संवत् २०४७ गुरुवार, दिनांक ९-८-१९९० को पिपरिया
मिथ्यात्व घोर संसार के कारण हैं। इस बात का विवेक सम्यक्ढ़ष्टि ज्ञानी वर्षावास में पूर्ण हुई।
को होता है। ज्ञानानन्द
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