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You श्री आचकाचार जी
गाथा-४५४
0 (पदवी अर्हन्त सार्धयं) चौथी अरिहन्त पदवी की साधना करते हैं अर्थात् आठवे है। इसमें उपयोग की क्रिया नहीं है। क्योंकि यहां क्षयोपशम ज्ञान नहीं रहा, श्रुत के गुणस्थान से श्रेणी का आरोहण करते हैं (चरनं सुद्ध समयं च) शुद्धात्म स्वरूप में
आश्रय की आवश्यकता नहीं रही कारण कि केवलज्ञान हो गया है। ध्यान का फल आचरण करते हैं (नंत चतुस्टय संजुत) अनन्त चतुष्टय स्वरूप आत्मा में लीन रहते जो उपयोग की स्थिरता है वह भी हो चुकी है। यहां वचन, मन योग और बादर काय
योग का निरोध होकर सूक्ष्म काय योग का अवलंबन होता है, अंत में काय योग का (साधओ साधु लोकेन) ऐसे साधु ही जगत पूज्य होते हैं जो शुद्धात्मा की
भी अभाव हो जाता है; अतएव इस कार्य के होने की अपेक्षा उपचार रूप से यहां के साधना करते हैं और (तव व्रत क्रिया संजुतं) तप व्रत क्रिया सहित (साधओ सुद्ध
5 सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति ध्यान कहा है। ध्यानस्य) शुक्ल ध्यान की साधना करते हैं (साधओ मुक्ति गामिनो) वही साधु
४. व्युपरत क्रिया निवृत्ति- इसमें श्वासोच्छ्वास की भी क्रिया नहीं रहती, मोक्षगामी हैं।
। यह चौदहवें गुणस्थान में योगों के अभाव की अपेक्षा कहा गया है। विशेषार्थ-शुद्ध रत्नत्रय से परिपूर्ण साधु अनन्त चतुष्टयमयी केवलज्ञानस्वरूप इस प्रकार साधु पूर्ण शुद्ध मुक्त अरिहन्त, सिद्ध पद प्रगट कर जन्म-मरण से की भावना और साधना करते हैं, श्रेणी का आरोहण कर शुक्ल ध्यान रूप होते हैं,* रहित परमानन्दमयी परमात्मा पूर्ण मुक्त हो जाता है। यही साधक की चौथी अरिहन्त पदवी है। व्रत, तप, क्रिया से संयुक्त साधु ही जगत साधु पद से श्रेणी माड़कर शुक्ल ध्यान द्वारा घातिया कर्मों का अभाव होकर पूज्य होते हैं ऐसे साधु ही मोक्षगामी होते हैं।
अनन्त चतुष्टयमयी केवलज्ञान स्वरूप अरिहन्त सर्वज्ञ पद प्रगट होता है, इसी बात शक्ल ध्यान-शुक्ल ध्यान क्रिया रहित, इन्द्रियों से अतीत,ध्यान की धारणा को आगे कहते हैंसे रहित अर्थात् मैं ध्यान करूं या ध्यान कर रहा हूँ ऐसे विकल्प से रहित होता है,
अर्हन्तं अरहो देवं, सर्वन्यं केवलं धुवं । जिसमें चित्तवृत्ति अपने स्वरूप के सन्मुख होती है। इसके चार भेद हैं, उनमें प्रथम
अनंतानंत दिस्टंच,केवलं दर्सन दर्सनं ॥ ४५८ ॥ पाया तीन शुभ संहननों में और शेष तीन पाये वजर्ऋषभ नाराच संहनन में ही होते हैं। आदि के दो भेद तो अंग पूर्व के पाठी छद्मस्थों के तथा शेष दो केवलियों के अन्वयार्थ- (अर्हन्तं अरहो देवं) अरिहन्त ही सच्चे देव हैं (सर्वन्यं केवलं होते हैं। यह चारों शुद्धोपयोग रूप हैं
धुवं) जो सर्वज्ञ हैं, केवलज्ञानी हैं, शाश्वत हैं (अनंतानंत दिस्टं च) लोकालोक के १.पृथक्त्व वितर्क वीचार-यह ध्यान श्रुत के आधार से वितर्क सहित होता सर्व पदार्थों को देखने जानने वाले हैं (केवलं दर्सन दर्सन) जहां केवलदर्शन ही दर्शन है।मन, वचन, काय तीनों योगों में बदलता रहता है, अलग-अलगध्येय भी श्रुतज्ञान मात्र है। के आश्रय बदलते रहते हैं अर्थात् एक द्रव्य, गुण, पर्याय से दूसरे द्रव्य, गुण, पर्याय विशेषार्थ- साधु जिस पद की भावना भाते हैं वह शरीर सहित जीवन्मुक्त पर चला जाता है। यह आठवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है। इसके परमात्मा का पद अरिहन्त पद है, अरिहन्त ही सच्चे देव हैं जो सर्वज्ञ, केवलज्ञानी, फल से मोहनीय कर्म शांत होकर एकत्व वितर्क ध्यान की योग्यता होती है। वीतरागी, हितोपदेशी होते हैं। जिनके दर्शन ज्ञान में तीन लोक, तीन काल के
२. एकत्व वितर्क वीचार- यह ध्यान भी श्रुत के आधार से होता है। तीनों समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायें एक समय में एक साथ झलकती हैं। जिनकी तीन रयोगों में से किसी एक योग द्वारा चितवन होता है, इसमें श्रुत ज्ञान बदलता नहीं 5 लोक और सौ इन्द्र वन्दना, पूजा, भक्ति करते हैं। जिनके अनन्त चतुष्टय प्रगट हो
अर्थात् एक द्रव्य, एक गुण या एक पर्याय का, एक योग द्वारा चिंतवन होता है। यह गया है, जिनकी दिव्य ध्वनि में धर्म का सत्य स्वरूप प्रगट होता है, जो जगत के ध्यान बारहवें गुणस्थान में होता है। इससे घातिया कर्मों का अभाव होकर अनन्त भव्य जीवों के लिये कल्याणकारी हैं। अभी चार अघातिया कर्म शेष हैं, आयु पूर्ण ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य की प्राप्ति होती है।
होने तक शरीर सहित रहते हैं, आयु पूर्ण होने पर सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं। ३. सक्ष्म क्रिया प्रतिपाति-यह ध्यान तेरहवें गुणस्थान के अंत में होता सिद्ध पद ही शाश्वत अविनाशी ध्रुव पद है, जहां से पुन: संसार में आवागमन
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