________________
DON श्री श्रावकाचार जी A से स्वरूपाचरण चारित्र का प्रकाश होता है।
आचार्य पदवी दर्शन प्रतिमाधारी से प्रारंभ हो जाती है। यहां आज्ञा सम्यक्त्व तथा नित्य तत्व का विचार करना परम उपयोगी है। आत्मा, रागादि से आठ कर्मों से
वेदक सम्यक्त्व सहित यह साधक अपने आत्म स्वरूप की साधना करता है। यहां शरीरादि नो कर्मों से भिन्न है। जब शुद्ध सम्यकदर्शन निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती
. आज्ञा सम्यक्त्व और वेदक सम्यक्त्व का प्रयोजन यह है कि जिनेन्द्र भगवान की है तब ही परमात्म स्वरूप का अनुभव होता है, तब ही धर्म ध्यान प्रगट होता है
3 आज्ञा प्रमाण सच्चे देव, गुरु, शास्त्र तथा जीवादि सात तत्वों का श्रद्धान रखना जिससे केवलज्ञान सर्वज्ञ स्वरूप में ठहरने लगता है। ॐ मंत्र में अरिहंत आदि पांच
आज्ञा सम्यक्त्व है। क्षयोपशम सम्यक्त्व को ही वेदक सम्यक्त्व कहते हैं, जो निज परमेष्ठी गर्भित हैं। हीं मंत्र में चौबीस तीर्थकर गर्भित हैं, उनका स्थूलपने विचार तोर
शुद्धात्मानुभूति पूर्वक होता है, यहां अनंतानुबंधी चार कषाय तथा मिथ्यात्व और मिथ्यादृष्टि को भी हो सकता है ; परंतु शुद्धात्मा को पहिचान कर उसके अनुभव की
सम्यक् मिथ्यात्व का तो उदय नहीं रहता है ; किंतु सम्यक् प्रकृति का उदय रहता शक्ति शुद्ध सम्यक्दर्शन के द्वारा ही हो सकती है। यद्यपि ग्रहस्थ श्रावक, त्यागी व्रती ।
हैं है, जिसके उदय से सम्यक्त्व में मलिनता चल, मल, अगाढ़ दोष होते रहते हैं। इस तथा मुनिगण भी ध्यान लगाते हैं, मंत्र जप करते हैं बाह्य संयम पालते हैं तथापि
सम्यक्त्व का काल ६६ सागर प्रमाण है। उपशम सम्यक्त्व की स्थिति अंतर्मुहूर्त है। सम्यकदर्शन के बिना वह यथार्थ धर्म ध्यान नहीं होता। जहां शुद्धात्मानुभव सहितक्षायिक सम्यक्त्व शाश्वत होता है और किसी विरले जीव को होता है । इसलिये धर्म साधन होता है, वहीं धर्म ध्यान कहा जाता है। ॐ ह्रीं श्रीं मंत्रों के द्वारा ध्यान दर्शन प्रतिमाधारी आज्ञा सम्यक्त्व और वेदक सम्यक्त्व की दृढता रखते हुए मतिज्ञान करना चाहिये।
श्रुतज्ञान के द्वारा अपने स्वरूप का मनन चिंतन करते हुए हमेशा धर्म ध्यान में रत शुद्धात्मा के ध्यान में लीन होना ही इष्ट प्रयोजनीय है। ॐकार से सिद्ध स्वरूप,
रहता है, यह मोक्ष का अभिलाषी मुमुक्षु साधक आचार्य पदवी का धारी कहलाता है। हींकार से केवलज्ञान अरिहन्त स्वरूप, श्रींकार से पूर्ण शुद्ध मुक्त शुद्धात्म स्वरूप का
सम्यकदर्शन रहित व्रत प्रतिमा आदि का पालन वृथा हैध्यान करते हुए अपने शुद्धात्म स्वरूप में लीन हो जाना ही शुद्धध्यान है। प्रात:काल,
अनेय व्रत कर्तव्यं,तप संजमं च धारनं । सायं काल एकांत में बैठकर सामायिक करना चाहिये, शांत चित्त के लिये मंत्रों द्वारा पदस्थ पिंडस्थ ध्यान, पार्थिवी आदि पांच धारणाओं के द्वारा शुद्धात्मा का अनुभव
दर्सन सुद्धि न जानते, विथा सकल विभ्रमः ।। ३९८ ॥ ही यथार्थ में सच्चा धर्म ध्यान है, इसी के अभ्यास से अणुव्रतों की सही साधना होती अनेय पाठ पठनं च,अनेय क्रिया संजुतं ।
दर्सन सुद्धिन जानते, विथा दान अनेकधा ॥ ३९९ ॥ जिसका मन शांत न हो, चित्त चंचल हो वह व्रत नियम आदि का सही पालन:
अन्वयार्थ- (अनेय व्रत कर्तव्यं) अनेक व्रतों का पालन करना (तप संजमंच नहीं कर सकता; अत: दर्शन प्रतिमाधारीध्यान सामायिक के द्वारा अपने स्वरूप की
5 धारनं) तप और संयम को धारण करना (दर्सन सुद्धि न जानते) शुद्ध सम्यक्दर्शन साधना और अणुव्रतों का पालन करता है।
निज शुद्धात्मानुभव नजाने (व्रिथा सकल विभ्रम:) उनका सारा प्रयास वृथा, विपरीत आगे दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक का महत्व बताते हैं
४ भ्रम मात्र है ऐसे आचरण से कभी मोक्ष नहीं होगा। अन्या वेदकस्यैव, पदवी दुतिय आचार्य।
(अनेय पाठ पठनं च) अनेक पाठों शास्त्रों को पढ़ना उनका ज्ञान होना और न्यानं मति श्रुतस्चैव, धर्म ध्यानं रतो सदा ।। ३९७॥ (अनेय क्रिया संजुतं) अनेक क्रियाओं से संयुक्त होकर व्यवहार चारित्र पालना (दर्सन अन्वयार्थ- (अन्या वेदकस्चैव) आज्ञा सम्यक्त्व तथा वेदक सम्यक्त्व सहित सुद्धि न जानते) शुद्ध सम्यक्दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति नहीं जानते (विथा दान
गर्य) टसरी आचार्य पदवीका धारी (न्यानं मतिश्रतस्चव) मतिज्ञान अनेकधा) तो अनेक प्रकार का दान आदि करना सब निरर्थक व्यर्थ है, यह कोई भी श्रुतज्ञान सहित (धर्म ध्यानं रतो सदा) हमेशा धर्म ध्यान में रत रहता है।
मोक्षमार्ग में सहकारी नहीं है। विशेषार्थ- पहली उपाध्याय पदवी, अविरत सम्यक्दृष्टि की होती है। दूसरी
विशेषार्थ- यहां यह जोर देकर कहा है कि शुद्धात्मा के अनुभवन रूप शुद्ध
vedabernal