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PU0 श्री आचकाचार जी
सम्यक्त्व न हो तो सर्व ही चारित्र मिथ्या व संसार वर्धक है, मोक्ष का मार्ग नहीं है। कोई रखने से अंडे स्वयं बढ़ते हैं (सुयं विधन्ति जंबुधैः) इसी प्रकार अपने आत्म स्वरूप श्रावक अपने को व्यवहार में श्रद्धावान समझकर कुदेव, कुगुरु, कुधर्म का सेवन न कर की सरत रहने से ज्ञान स्वयं बढता है। जैन तत्वों का मनन करे, जिनेन्द्र की आज्ञा पाले,भक्ति करे, व्यवहार में पांच अणुव्रतों,
s विशेषार्थ- जिसके हृदय में सम्यक्दर्शन विद्यमान है वहां ज्ञान स्वयं प्रगट को पाले, उपवास, ऊनोदर, रस त्याग आदि नाना प्रकार तप करे तथा इन्द्रिय संयम *
होता है, शुद्धात्मा के अनुभव के प्रताप से तज्ञान दिन पर दिन बढ़ता जाता है। और प्राणी संयम पाले, व्यवहार चारित्र में कोई कमी न करे तो भी यदि उसके निश्चय
इसके लिये दृष्टांत दिया है, जैसे- कछवी का अंडा कछवी की दृष्टि से ही बढ़ता है, सम्यक्त्व निजशुद्धात्मानुभूति नहीं है तो उसका यह सब आचरण मोक्षमार्ग की अपेक्षा
> कछवी अंडा सेती नहीं है देखती रहती है, उसका ध्यान उस पर लगा रहता है इससे मिथ्या है, विपरीत है, कुचारित्र है। सम्यकदृष्टि ज्ञानी की दृष्टि सदा शुद्धात्मा पर ही
वह अंडा बढ़ता है, इसी प्रकार सम्यक्त्वी का ध्यान शुद्धात्म स्वरूप पर रहता है रहती है। केवल परिणामों की शुद्धि के लिये कषायों को घटाने, कर्मों को क्षय करने के।
. इससे उसका शास्त्रज्ञान, मति श्रुतज्ञान बढ़ते जाते हैं, उसकी गाढ़ रुचि आत्मीक लिये शास्त्र स्वाध्याय, व्रत, तप, संयम करता है, दान देता है तब यह सब बाहरी
चर्चा पर रहती है इससे ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम हो जाता है। सम्यकदृष्टि साधन उसके लियेशुद्धात्म स्वरूप की साधना करने, मोक्षमार्गमें आगे बढ़ने में सहकारी
वीतरागी साधु बिना अभ्यास के ही द्वादशांग का पाठी हो जाता है। यह सब सम्यक्त्व निमित्त हो जाते हैं। सम्यक्दर्शन से रहित बाह्य चारित्र पालन किया जावे, दानादि दिया जावे, अनेक
की महिमा है, जिसके हृदय में निज स्वरूप की सुरत रहती है वहां ज्ञान अवश्य होता
5है और वह निरंतर वृद्धिगत होता जाता है। यहां दूसरा दृष्टांत दिया है जैसे-मछली शास्त्रों का पठन पाठन किया जावे तो वह पुण्य बंध का कारण तो होगा; परंतु मोक्षमार्ग
अपने अंडे नदी की रेत में देती है, अंडे देकर पानी में चली जाती है परंतु उनकी न होगा इस अपेक्षा से यह सब व्यर्थ निरर्थक है।
सुरत रखती है जिससे अंडे बढ़ते हैं,यदि मछली अंडों की सुरत भूल जाये तो अंडे मोक्षमार्ग तो निश्चय से एक अभेदशुद्धात्मा के अनुभव स्वरूप है यही परमानंद
गल जाते हैं, इसी प्रकार जिसके हृदय में अपने शुद्धात्म स्वरूप की सुरत निरंतर देने वाला शुद्ध सम्यक्त्व है।
* बनी रहती है उसके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम हो जाता है और मति, श्रुत, आगे सम्यक्त्व की महिमा का कथन करते हैं
अवधिज्ञान प्रगट होते जाते हैं। सम्यकदर्शन की महिमा और उसके प्रभाव से चारों दर्सनं जस्य हृदयं दिस्टा, सुयं न्यानं उत्पादते।
घातिया कर्म क्षय होकर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है अतएव शुद्ध सम्यक्दर्शन ही कमठी दिस्टि जथा डिंभ,सुयं विधति जं बुधैः॥ ४००॥ & कल्याणकारी मोक्षमार्ग का सोपान है। दर्सन जस्य हिदं श्रुतं, सुयं न्यानं च संभवे।
आगे कहते हैं कि सम्यक्दर्शन से हीन जीव संसार में ही परिभ्रमण मच्छिका अंड जथा रेतं,सुयं विधन्ति जं बुधैः ।। ४०१॥
करता हैअन्वयार्थ- (दर्सनंजस्य हृदयं दिस्टा) जिसके हृदय में सम्यक्दर्शन विद्यमान
दर्सन हीन तपं कृत्वा, व्रत संजम पठं क्रिया। है (सुयं न्यानं उत्पादते) वहां ज्ञान स्वयं प्रगट होता है (कमठी दिस्टि जथा डिंभ)
चपलता हिंडि संसारे, जह जल सरनि ताल कीटऊ ।। ४०२।। जैसे कछवी की दृष्टि से अंडा स्वयं ही बढ़ता है (सुयं विधंति जं बुधैः) इसी प्रकार अन्वयार्थ- (दर्सन हीन तपं कृत्वा) जो जीव सम्यक्दर्शन से हीन तप करते सम्यक्दृष्टि का ज्ञान स्वयं बढ़ता है।
हैं (व्रत संजम पठं क्रिया) व्रत संयम पालते हैं,पठन पाठन करते हैं (चपलता हिंडि% (दर्सनंजस्य हिदं श्रुतं) जिसके हृदय में सम्यकदर्शन की सुरत रहती है (सयं संसार) तथा चपलता अर्थात् कषाय भाव का विकार अंतरंग में रखने से संसार में ही न्यानंच संभवे) वहां ज्ञान अवश्य रहता है (मच्छिका अंडजथा रेत) जैसे-मछली भ्रमण करते हैं (जह जल सरनि ताल कीटऊ) जैसे- तालाब के जल में कीटाणु नदी की रेत में अंडे देती है और पानी में यहां-वहां आती जाती है परंतु अंडों की सरत बिलबिलाते चारों तरफ उसी में घूमते रहते हैं।
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