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Our श्री बाचकाचार जी
गाथा-३४४ R OO मिथ्यामार्गियों की सराहना मन, वचन, काय सेन करना ही व्यवहार अमूढ दृष्टि अंग है। अभिप्राय से उसे बढ़ावा ही दिया जाता है। इसी प्रकार धर्मी धर्मात्मा के प्रति द्वेष न
सम्यक्त्व के इन आठ अंगों में प्रथम निःशंकित अंग से आत्मा की अखंड श्रद्धा हो,उसका अपवाद न हो, उसमें गुण प्रगट हों, इसलिये सम्यक्त्वी उसे बढ़ावा ही देते। के रूप में जीव को अपना यथार्थ स्वरूप प्राप्त होता है। दूसरे नि:कांक्षित अंग से , हैं यही वात्सल्य अंग है। विषयों के प्रति अनाकांक्षा हो जाने से तविषयक राग का अभाव होता है। तीसरे ८.प्रभावना अंग- अपनी आत्मा में दिन-दिन रत्नत्रय के तेज को बढ़ाते निर्विचिकित्सा अंग से अनिष्ट पदार्थों के प्रति घृणा या तिरस्कार का परिहार होने से जाना, यह आत्म प्रभावना ही निश्चय से प्रभावना अंग है। बाह्य प्रभावना के रूप में तद्विषयक द्वेष का अभाव हो जाता है। चौथे अमूढ दृष्टि अंग के द्वारा गृहीत मिथ्यात्व दया,दान परोपकार करना,संयमित जीवन बनाना, धार्मिक कार्यों को उत्साहपूर्वक के साधनों का परिहार हो जाने से उसमें मोह भाव का अभाव हो जाता है, इस प्रकार करना, प्रत्येक कार्य विवेकपूर्ण हो, धर्म की अभिवृद्धि कारक हो, स्वयं को प्रभावित ज्ञानी के राग-द्वेष, मोह का अभाव इन अंगों से स्पष्ट लक्षित हो जाता है। इन चार करे तथा दूसरों को भी प्रभावित करे वह प्रभावना अंग है। अंगों की साधना से सम्यकदृष्टि जीव का आंतरिक व्यक्तित्व संस्कारित हो जाता इस प्रकार शुद्ध सम्यक्त्व निज शुद्धात्मानुभूति सहित आठों अंगों का सही है। अन्य जीवों के प्रति उसका व्यवहार शेष चार अंगों के द्वारा परिष्कृत होता है। पालन करने वाला पात्र जीव होता है, जो क्रमश: ज्ञान का विकास करता हुआ
५. उपगूहन अंग-जो अपने संपूर्ण गुणों को अपने भीतर सुरक्षित रखे। सम्यक्त्वाचरण सहित संयमाचरण का पालन करता है, जिससे साधु पद से सिद्ध पद उपगृहन छिपाने को कहते हैं, ज्ञानी अपने गुणों को बाहरी विकारी भावों की हवा भी पाता है। नहीं लगने देता, अपने भीतर अन्तर गर्भग्रह में ही छिपाकर रखता है यही परमार्थतः यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह आठ अंग सम्यकदर्शन होने पर होते हैं तो क्रमश: उपगूहन है। उपगूहन का दूसरा नाम उपवृंहण है, जिसका अर्थ बढ़ाना है, ज्ञानी होते हैं या एक साथ होते हैं, कम-बढ़ या शुद्ध-अशुद्ध भी हो सकते हैं, और इनसे अपने गुणों की निरन्तर वृद्धि करता है यही उसका उपवृंहण नाम का वास्तविक लाभ क्या है ? गुण है।
उसका समाधान करते हैं कि जैसे काठ के आठ टुकड़ों के संयोग को खाट व्यवहारत: उपगूहन का अर्थ इस प्रकार है कि धर्मात्मा गुणी पुरुषों में यदि कहते हैं। इसी प्रकार इन आठ गुणों के समुदाय रूप में सामान्य संज्ञा सम्यक्त्व कदाचित् कोई दोष दिखाई दे जाये, तो उसका प्रचार-प्रसार नहीं करना, बल्कि है; अतएव यह सम्यक्दर्शन के आठ अंग हैं, ऐसा कहा जाता है। यह एक साथ होते उनमें वह दोष दूर हो तथा गुण बढ़े, ऐसी सहायता करना।
र हैं, निश्चय सम्यकदर्शन पूर्वक जो अंग हैं, वह शुद्ध होते हैं, मात्र व्यवहार से पालन ६.स्थितिकरण अंग- अपने स्वरूप में स्थित रहना ही स्थितिकरण अंग करना अशुद्ध कहलाते हैं। जिसे सम्यक्दर्शन प्रगट होने से अपने ज्ञानानंद स्वभाव है। स्वाश्रय छोड़कर पराश्रय करना ही विचलित होना है, स्वयं अपने ज्ञायक स्वभाव पर दृष्टि आई है, वह जीव उक्त आठ अंगों से सम्पन्न होकर पर से दृष्टि हटाकर स्वयं से विचलित न होकर उसी में स्थिर रहना ही निश्चय से स्थितिकरण अंग है। धर्म, ज्ञान के रसास्वाद में विभोर होकर नृत्य करता है, इससे उसे ज्ञानभाव के कारण धर्मात्मा के आश्रय से ही चलता है, धर्मात्मा के अपवाद से धर्म का अपवाद हो जाता नवीन कर्मों का संवर होता है तथा पूर्वबद्ध कर्म उदय में आकर निर्जरा को प्राप्त हो है अत: धर्म के मार्ग को पवित्र बनाये रखने के लिये धर्मात्मा का स्थितिकरण आवश्यक जाते हैं। है। उपगृहन अंग की पूर्ति स्थितिकरण अंग से ही होती है, यह उसका व्यवहारिक 5 अब सम्यक्त्व के आठ अंगों सहित पात्र जीव ज्ञान के आठ अंगों की आराधना १ रूप है।
करता है, इससे ज्ञान की शुद्धि और विकाश होता है, इसी बात को आगे गाथाओं ७.वात्सल्य अंग-अपने सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र गुणों की प्राप्ति के प्रति में कहते हैंअनुराग होना वात्सल्य अंग है। व्यवहार में वत्स बालक को कहते हैं। बालक के प्रति न्यानं चन्यान सुद्धच,सद्ध तत्व प्रकासकं। किसी को द्वेष नहीं होता, न उसका कोई अपवाद करता है, उसके गुण प्रगट हों इस
न्यानं मयं च संसुद्धं,न्यानं सर्वन्य लोकितं ॥ ३४४ ॥