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2004 श्री श्रावकाचार जी
गाथा-३४४,३४५ POOO न्यानं आराधते जेन,पूजा तत्र च विंदते।
बैठकर विनय पूर्वक शास्त्राध्ययन करना। निश्चय से अपने स्वरूप का अध्ययन सुद्धस्य पूज्यते लोके,न्यान मयं सार्थ धुवं ।। ३४५ ॥
करना,शुद्ध भावों की संभाल रखना।
६. उपधानाचार- उपधान सहित आराधन करना अर्थात् विस्मृत न होवे अन्वयार्थ- (न्यानं च न्यान सुद्धं च) ज्ञान का आठ अंगों सहित पालन करने
* इसे उपधानाचार कहते हैं। निश्चय से अपने स्वरूप की निरन्तर स्मृति रखना, ७ से ज्ञान की शुद्धि होती है (सुद्ध तत्व प्रकासक) जिससे शुद्धात्मा का प्रकाश होनेविस्मत न होते। लगता है (न्यानं मयं च संसुद्ध) ज्ञानमय रहने से परम शद्ध (न्यानं सर्वन्य
७. बहुमानाचार- ज्ञान पुस्तक और शिक्षक का पूर्ण आदर करना लोकितं ) केवलज्ञान सर्वज्ञता प्रगट हो जाती है, जिससे एक समय में तीन लोकर
लाक ८ बहुमानाचार है। निश्चय से अपने शुद्धात्म स्वरूप परमात्म पद का बहुमान करना। तीन काल के समस्त द्रव्य उनके गुण पर्याय सहित दिखाई देते हैं।
८.अनिन्हवाचार-जिस गुरू से, जिस शास्त्र से ज्ञान मिला हो, उसको न (न्यानं आराधते जेन) जो ऐसे ज्ञान की आराधना करते हैं (पूजा तत्र च छपाना अनिन्हवाचार है। निश्चय से अपने ज्ञानभाव को न छिपाना, न दबाना, विंदते) वही सच्ची पूजा और अनुभूति करते हैं (सुद्धस्य पूज्यते लोके) यही शुद्ध हमेशा नानभात को जाग्रत रखना ज्ञान की लोक में पूजा होती है (न्यान मयं साधं धुवं) इसलिये अपने ज्ञानमयी ध्रुवx
इस प्रकार ज्ञान की शुद्धि होने से अपने शुद्धात्म तत्व का प्रकाश हो जाता है स्वभाव की साधना करो।
और हमेशा ज्ञानभाव में रहने से परम शुद्ध केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। जिसमें विशेषार्थ- यहाँ बताया जा रहा है कि ज्ञान के आठ अंगों का पालन करने तीनों लोक के त्रिकाली पदार्थ अपने द्रव्य गुण पर्याय सहित स्पष्ट झलकने लगते हैं से ज्ञान की शुद्धि होती है। ज्ञान के आठ अंग- १. व्यंजनाचार, २. अर्थाचार, ऐसी सर्वज्ञता प्रगट होजाती है। जो ऐसे सम्यक्ज्ञान की आराधना तथा ज्ञान स्वभाव ३. उभयाचार, ४. कालाचार, ५. विनयाचार, ६. उपधानाचार,७. बहुमानाचार, की साधना-आराधना और ज्ञानभाव में रहने का पुरुषार्थ करते हैं यही सच्ची ८. अनिन्हवाचार-जिनका स्वरूप निम्न प्रकार है
Sदेवपूजा की विधि है क्योंकि यह ज्ञान की शुद्धि, केवलज्ञान प्रगट कराती है, जो लोक १.व्यंजनाचार-शब्द शास्त्र (व्याकरण) के अनुसार अक्षर, पद,वाक्य का 8 में पूज्यनीय है। अपने ज्ञानमयी ध्रुवस्वभाव की साधना ही सच्ची देवपूजा है। यहाँ यत्न पूर्वक शुद्ध पठन-पाठन करने को व्यंजनाचार कहते हैं। व्यंजनाचार, श्रुताचार, यह बताया है कि सम्यकज्ञान की आराधना परम कार्यकारी है,शुद्ध आत्मा के प्रकाश अक्षराचार, ग्रन्थाचार आदि सब एकार्थवाची हैं। निश्चय से अपने आत्म स्वरूपको के लिये, कर्मों के आवरण को हटाने के लिये, शुद्ध आत्म ज्ञान का अनुभव मनन यथार्थ जानना।
चिन्तन परम आवश्यक है। २.अर्थाचार- यथार्थ शुद्ध अर्थ के अवधारण को अर्थाचार कहते हैं। निश्चय इसी बात को समयसार कलश में श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैंसे जैसा अपने आत्म स्वरूप को जाना है, वैसा ही अवधारण (स्वीकार) करना। ५
भावयेभेदविज्ञानमिदमच्छिन्न धारया। ३. उभयाचार-शब्द और अर्थदोनों से शुद्ध पठन-पाठन करने को उभयाचार
तावद्यावत्पराच्च्यूत्वा ज्ञान ज्ञाने प्रतिष्ठते॥१३०॥ कहते हैं। निश्चय से जैसा अपना आत्म स्वरूप जाना है, वैसा ही मानना इसमें
जब तक पर परिणति से छूटकर ज्ञान, ज्ञान में स्थिरता न पाले अर्थात् जब संशय नहीं होना।
5 तक केवलज्ञान न हो तब तक बराबर भेदविज्ञान की भावना करते रहो अर्थात् अपने , ४. कालाचार-सामायिक ध्यान करने के समय संधिकाल में पठन-पाठन आत्मा को सर्व परभाव, पर द्रव्य व कर्म जनित नैमित्तिक भावों से जुदा अनुभव करते स्वाध्याय नहीं करना कालाचार है। निश्चय से हमेशा अपने स्वरूप का चिन्तन रहो। इस ज्ञानभाव की शुद्धि, दृढ़ता और स्थिरता के लिये जिनवाणी का अभ्यास मनन ध्यान करना।
परम आवश्यक निमित्त कारण है। सम्यक्ज्ञान की आराधना से सम्यक्ज्ञान का ५.विनयाचार-शुद्ध जल से हाथ पैर धोकर शुद्ध स्थान में पर्यकासन से प्रकाश होता है और यही केवलज्ञान का कारण है। सर्वज्ञता सर्वदर्शीपना आत्मा का