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.. सवनपाल
04 श्री आपकाचार जी
गाथा-३४६-३४९
0 मुख्य गुण है अतएव सम्यक्ज्ञान की आराधना नित्य करनी चाहिये। इसके लिये प्रतिनारायण,९ बलभद्र त्रेसठशलाका के महापुरुषों का जीवन चरित्र बताया गया शास्त्रों का अभ्यास आवश्यक है। जिनवाणी चार अनुयोगमयी है, इन चार अनुयोगों है। जिसमें जीव के संसार और कर्म बंधन की दशा का वर्णन किया है, मिथ्यात्व का का ज्ञान श्रद्धान ही सच्ची शास्त्र श्रुतपूजा है।
सेवन करने से क्या दुर्दशा होती है और सम्यक्दर्शन होने से कैसा सुख सद्गति और इन चार अनुयोगों के स्वरूप का वर्णन आगे की गाथाओं में करते हैं - मुक्ति की प्राप्ति होती है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण बताया है। न्यानं गुनं च चत्वारि, श्रुतपूजा सदा बुधै।
२.करणानुयोग- इसमें तीन लोक की रचना, कहाँ-कहाँ, कौन-कौन जीव धर्म ध्यानं च संजुक्तं, श्रुतपूजा विधीयते ॥ ३४६ ॥
पैदा होते हैं, उनकी क्या व्यवस्था है,जीवों के परिणाम कितने प्रकार के होते हैं और
उनसे कैसे-कैसे कर्मों का कैसा बन्ध होता है, उदय स्थिति अनुभाग कैसा भोगना प्रथमानुयोग करनानं,चरनं द्रव्यानि विंदते।
7 पड़ता है। गुणस्थान मार्गणा आदि का स्वरूप बताया है। न्यानं तिअर्थ संपून, साध पूजा सदा बुध॥ ३४७॥ ३.चरणानुयोग-इसमें संसार के दु:खों से छूटने, पाप,विषय-कषायों से अन्वयार्थ- (न्यानं गुनं च चत्वारि) ज्ञान गुण को बढ़ाने वाले चार अनुयोग हैं बचने के लिये, व्रत नियम संयम तप के पालन करने की विधि, श्रावक साधु की चर्या (श्रुतपूजा सदा बुधै) इन शास्त्रों की पूजा अर्थात् स्वाध्याय मनन हमेशा बुद्धिमानों का वर्णन किया है। को करना चाहिये (धर्म ध्यानं च संजक्तं) धर्म ध्यान में लीन हो जाना ही (श्रुतपूजा ४.द्रव्यानुयोग-इसमें सत्ताईस तत्वों का स्वरूप दिखलाते हुए आत्मा के विधीयते) श्रुतपूजा की विधि है।
शुद्ध स्वरूप की महिमा बताई है कि किस प्रकार यह आत्मा अपने स्वरूप की साधना (प्रथमानुयोग करनानं) प्रथमानुयोग,करणानुयोग (चरनं द्रव्यानि विंदते) करके परमात्मा बनता है। शुद्ध निश्चय नय से यह आत्मा ही त्रिकाल शुद्ध सिद्ध के चरणानयोग, द्रव्यानयोग ऐसे चार प्रकार शास्त्रजानना (न्यानं तिअर्थसंपून) जिनमें समान परमात्मा है। ऐसे अपने शुद्ध द्रव्य की महिमा बताई है और इस प्रकार अपने अपने रत्नत्रयरूपी आत्मा का संपूर्ण ज्ञान भरा हुआ है (सार्धं पूजा सदा बधै) इसका रत्नत्रयमयी शुद्धात्मा का संपूर्ण ज्ञान कराया है। इसका सत्श्रद्धान करके अपने स्वरूप श्रद्धान करना ही ज्ञानी की शाश्वत पूजा है।
8 की साधना करना ही ज्ञानी की सच्ची शास्त्र पूजा है। विशेषार्थ- ज्ञान गुण के विकाश के लिये चार अनुयोग जिनवाणी रूप हैं,
आगे प्रथमानुयोग का स्वरूप बताते हैं - इनका स्वाध्याय मनन कर अपने ज्ञानभाव को स्थिर करना ही शास्त्र पूजा है, जो
प्रथमानुयोग पद वेदंते, विजन पद सब्दयं । ज्ञानी हमेशा करते हैं। इन शास्त्रों के पढ़ने से ज्ञान की वृद्धि होती है ; अतएव किसी तिअर्थ पद सुद्धस्य, न्यानं आत्मा तुव गुनं ॥ ३४८।। प्रकार की लौकिक कामना, वासनान रखकर मात्र आत्म कल्याण के हेतु इन शास्त्रों विजनं च पदार्थ च,सास्वत नाम सार्थय। का पठन-पाठन करना और अपने आत्म स्वभाव में लीन हो जाना ही श्रुतपूजा की
उर्वकारस्य वेदंते, सार्थ न्यान मयं धुवं ।। ३४९ ॥ विधि है। शास्त्र की पूजा अर्थात् श्रद्धा भक्ति पूर्वक स्वाध्याय करने से मन के कुभाव
अन्वयार्थ- (प्रथमानुयोग पद वेदंते) प्रथमानुयोग से अपने शाश्वत सिद्ध पद बंद हो जाते हैं.चिंतायें मिट जाती हैं. अज्ञान का नाश हो जाता है. ज्ञान का प्रकाश की अनुभूति होती है (विजन पद सब्दयं) व्यंजन, पद, शब्द, अर्थ से (तिअर्थ पद 2 होता है, कर्मों की निर्जरा होती है। पाप, विषय-कषायों से बचाने वाला ही श्रतज्ञान सुद्धस्य) रत्नत्रयमयी शुद्ध पद का (न्यानं आत्मा तुव गुनं) ज्ञान होता है, जो आत्मा है। आत्मा-अनात्मा का भेदज्ञान कराने वाला शास्त्र का अभ्यास है। जिनवाणी के
का अपना गुण है। प्रति अटूट श्रद्धा भक्ति रखते हुए धर्म ध्यान में लीन होना सच्ची श्रुतपूजा है।
(विंजनं च पदार्थंच) व्यंजन और पदार्थ आदि के (सास्वतं नाम सार्धयं) नाम १.प्रथमानुयोग-इसमें २४ तीर्थंकर,१२ चक्रवर्ती ९ नारायण,९ व उनकी सार्थकता श्रद्धान सदा से चले आ रहे हैं (उर्वकारस्य वेदंते) पंच परमेष्ठी
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