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Our श्री बाचकाचार जी
गाथा-३५०-३५३
o मयी परमात्मा का अनुभव करना (सार्धं न्यान मयं धुवं) और अपने ज्ञानमयी ध्रुव (सुद्धात्मा चेतनं जेन) जैसे भी बने अपने शुद्धात्मा का अनुभव चिंता करो स्वभाव की साधना करना ही प्रथमानुयोग का अभिप्राय है।
(उवं हियं श्रियं पदं) ॐ ह्रीं श्रीं पद वाला (पंच दीप्ति मयं सुद्धं) पंच ज्ञानमयी शुद्ध विशेषार्थ- सम्यक्ज्ञानी ही प्रथमानुयोग के अभिप्राय को जानता है कि ५ (सुद्धात्मा सुद्धं गुन) निज शुद्धात्मा के शुद्ध गुणों का चिंतन करो। व्यंजन, पद, शब्द, अर्थ से अपने रत्नत्रयमयी शुद्धपद का ज्ञान करना और यही8 (सल्यं मिथ्या मयं तिक्तं) मिथ्यात्वमयी शल्यों को छोडो (कुन्यानं ७ आत्मा का वास्तविक गुण है। संसार में अनादिकाल से यह जीव अपने स्वरूप को त्रिविमुक्तयं) कुज्ञानों से भी हटकर बचकर रहो (ऊधं च ऊर्ध सद्भाव) ऊर्धगामी भूला किन-किन गतियों में कैसे-कैसे दुःख भोगता रुल रहा है। जिन्होंने अपने जो अपना ऊर्ध स्वभाव है (उर्वकारं च विंदते) ऐसे परमात्म स्वरूप की अनुभूति शाश्वत पद और स्वरूप को जान लिया वह आत्मा से परमात्मा बन गये, जिनके करो। स्वरूप का वर्णन त्रेसठ शलाका पुरुषों के जीवन चरित्र के माध्यम से बताया गया (दिव्य दिस्टीच संपून) द्रव्य दृष्टि या द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि संपूर्ण द्रव्य को है। मूल प्रयोजन यही है कि अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव को जाने पहिचानें और देखने वाली है (सुद्धं संमिक दर्सन) यही शद्ध सम्यकदर्शन है (न्यान मयं साधु उसकी साधना-आराधना कर हम भी परमात्मा बनें, इस संसार के जन्म-मरण के सुद्ध)अपने ज्ञानमयीशुद्ध स्वभाव की साधना करो (करनानुयोग स्वात्म चिंतन)अपने
इसी से दस नाम और पट की सार्थकता है। प्रत्येक जीव का स्वभाव आत्मा का चिंतन करना ही करणानुयोग है।
द्र अविनाशी परमानंदमयी परमात्म स्वरूप है. ऐसा समझकर विशेषार्थ- करणानुयोग लोक और अलोक के विभाग को, युग के परिवर्तन हम भी अपने परमात्म स्वरूप की अनुभूति निश्चय श्रद्धान करें और धर्म मार्ग पर को, चार गति के जीवों के स्वरूप को, दर्पण के समान यथार्थ बतलाने वाला है। चलकर मुक्ति प्राप्त करें, यही प्रथमानुयोग की सिद्धि है।
, अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल का परिवर्तन कहाँ होता है, किस तरह होता है, चार आगे करणानुयोग का स्वरूप बताते हैं
गति के जीवों के भाव किस तरह के होते हैं, उनकी क्या-क्या अवस्थायें होती करनानुयोग संपून,स्वात्म चिंता सदा बुधै।
ॐ हैं, उनके परिणाम कैसे बढ़ते-चढ़ते हैं, कौन गुणस्थान किस गति में होते हैं, किस स्व स्वरूपं च आराध्य, करनानुयोग सास्वतं ॥ ३५०॥
3 गति में किसके कितने कर्मों का बन्ध उदय व सत्ता कैसे कितनी रहती है। जिन
परिणामों से सम्यक्त्व होता है, उन अध:करण, अपूर्व करण, अनिवृत्तिकरण सुखात्मा चेतनं जेन,उवं हियं श्रियं पदं ।
र भावों को बताता है। सम्यक्त्वी को बंधक क्यों कहते हैं, अबंधक क्यों कहते हैं? पंच दीप्ति मयं सुद्धं, सुद्धात्मा सुद्धं गुनं ॥ ३५१॥ कषायों का उतार-चढ़ाव कैसे होता है? यह अनुयोग बाहरी क्रियाओं पर लक्ष्यन सल्यं मिथ्या मयं तिक्त, कुन्यानं त्रि विमुक्तयं।
5 देता हुआ, भावों की तौल करना बताता है। एक मुनि यदि मोही संसाराशक्त है ऊर्थ च ऊर्थ सद्भाव, उर्वकारं च विंदते ॥ ३५२॥
एआत्मानुभूति रहित है तो करणानुयोग उसे मिथ्यादृष्टि कहता है तथा एक चांडाल
यदि सम्यक्त्व से विभूषित है, तो यह उसको सम्यकदृष्टि ज्ञानी मोक्षमार्गी कहता है। दिव्य दिस्टी च संपून,सुद्धं संमिक दर्सनं ।
ॐकरणानुयोग धर्म कांटा है, जो जीव की वर्तमान पात्रता को बताता है। इस तरह न्यान मयं साधं सुद्ध, करनानुयोगस्वात्मचिंतनं ॥३५३॥
5 जानकर अपने आत्मा को इस अनादि संसार में कैसी-कैसी दुर्दशा हुई, उसको 2 अन्वयार्थ- (करनानुयोग संपून) सम्पूर्ण करणानुयोग का सार यह है कि विचारना चाहिये। यह जीव किस तरह चतुर्गति में भ्रमण करके व किन-किन भावों (स्वात्म चिंता सदा बुधै) ज्ञानी हमेशा अपनी आत्मा की चिंता करे (स्व स्वरूपं च से कैसे-कैसे कर्म बांधकर दु:ख उठा चुका है, इस तरह विचार कर संसार से वैराग्य, आराध्यं) अपने स्वरूप की आराधना करना ही (करनानुयोग सास्वतं) करणानुयोग आत्म कल्याण की भावना, मुक्ति पद की रुचि करके उसके उपाय रूप अपने निज का मूल अभिप्राय है।
शुद्ध स्वरूप को ध्याना चाहिये तभी करणानुयोग पढ़ने की सार्थकता है।
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