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DOON श्री आचकाचार जी
गाथा-३५४,३५५ यहाँ तारण स्वामी इस बात को स्पष्ट करते हैं कि कोई करणानुयोग को पढ़कर
(षट् कमलं त्रिलोकं च) षट्कमल के द्वारा तीन लोक में (साधं धर्म संजुतं) तीन लोक का स्वरूपजान ले, गुणस्थान मार्गणा का स्वरूप जान ले व कर्मों के बंध
साधना और धर्म ध्यान में लीन होना (चिद्रूपं रूप दिस्टंते) अपने चिद्रूप स्वरूप की उदय सत्ता का स्वरूप जान ले, व चार गति के जीवों का स्वरूपजान ले तथा काल . अनभति होना. दिखाई देना ही (चरनं पंच दीप्तयं) सम्यक्चारित्र है, जो पंचज्ञानमयी चक्र के स्वरूप को समझ ले और विशेष पंडित होकर ज्ञान का मद करे, मात्र मान 6 परमेष्ठी पद का प्रकाशक है। कषाय बढ़ावे, अपना सच्चा हित न करे उसे करणानुयोग जानने से क्या लाभ है?
विशेषार्थ- चरणानुयोग में चारित्र का वर्णन है, जिसमें श्रावक और साधु का __करणानुयोग का संपूर्ण सार तो यह है कि हम अपनी आत्मा की चिंता करें,
- आचरण, उनकी समस्त क्रियाओं का स्वरूप बताया गया है, मन वचन काय की उसे संसार के दु:ख और दुर्गतियों से बचायें, हमेशा अपने स्वरूप की आराधना करें,
प्रचंचलता ध्यान में बाधक है। जब तक पाँचों इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति रहेगी, तब जैसे भी बने अपने शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव चिंतन करें, जो ॐ ह्रीं श्रीं स्वरूप,
तक उपयोग अपने स्वभाव में एकाग्र निश्चल नहीं हो सकता । पापों से विरक्त परमात्मा तीर्थकर सिद्ध पद वाला पंच ज्ञान मयी निजशुद्धात्मा है, उसके शुद्ध गुणों
होकर, विषयों से निवृत्त होकर, मन को शान्त एकाग्र कर जो अपने आत्म स्वरूप का स्मरण करें तथा वर्तमान में उन पर कौन-कौन कर्मों का कैसा आवरण पड़ा है
की साधना करता है, ध्यान में स्थित होता है और जब अपना शुद्धात्म स्वरूप उसे जानें. उन कर्मों के क्षय करने का एक मात्र उपाय निज शुद्धात्मानुभूति है, एसा अनभति में आता है. उसमें लीनता होती है वह अतीन्द्रिय आनंद की अनुभूति समझकर निरन्तर शुद्धात्मा का अनुभव व चेतना का ध्यान करना योग्य है। मिथ्यात्वमयी शल्यों और तीनों कुज्ञानों को छोड़कर सम्यक्ज्ञान का प्रकाश,
5 परमानंद दशा ही सम्यक्चारित्र है। जो तीन लोक में सारभूत इष्ट उपादेय अपना
ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव है उसमें संपूर्ण लीन हो जाना.एकमात्र अपने शुद्ध चिद्रूप को करें, अपना जो ऊर्ध्वगामी सिद्ध के समान शुद्ध स्वरूप है, उस परमात्म स्वरूपकी।
ही देखना सम्यक्चारित्र है और इसी से कर्म क्षय होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। अनुभूति करें, द्रव्य दृष्टि से अपने संपूर्ण शुद्ध स्वरूप को देखें यही शुद्ध सम्यकदर्शन
चरणानुयोग में ध्यान का विशेषता से वर्णन किया गया है। चित्त की एकाग्रता है। अपने ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव की साधना करना, संसार के चक्र से अपनी आत्मा ई
* पूर्वक उपयोग का अपने स्वभाव में स्थित हो जाना ही ध्यान है और इसके लिये को छुड़ाकर मुक्ति मार्ग में लगा देना यही करणानुयोग का सार है। ज्ञानी साधक ऐसे
२. साधक को विविध प्रकार से षट्कमलों के माध्यम से पदस्थ, पिंडस्थ आदिध्यानों अपने स्वस्वरूप और कर्मों के स्वरूप को जानकर, सम्यकज्ञान द्वारा अपने आत्म
की साधना करना पड़ती है क्योंकि अनादि से उपयोग बहिर्मुखी रहा है, शरीरादि स्वरूप का आराधन करते हैं यही करणानयोग की सिद्धि है।
संयोग विषयादि में रत रहा है, इन सबसे हटाकर अपने स्वरूप में लगाना धर्म आगे चरणानुयोग का स्वरूप बताते हैं
में लीन होना, शुद्ध चिद्रूप को देखना, अपने पंच ज्ञान मयी परमेष्ठी पद की चरनानुयोग चारित्रं,चिद्रूपं रूप द्रिस्यते ।
साधना-आराधना करना ही सम्यक्चारित्र है, जो चरणानुयोग का विषय है। ऊर्थ आच मध्य च,संपूरनं न्यान मयं धुवं ।। ३५४॥ ॐ सम्यवर्शन, सम्यशान होना, पुरुषार्थ का जागना है, और षट् कमलं त्रिलोकं च, साधं धर्म संजुतं ।
४ सम्यश्चारित्र पुरुषार्थ करना है। दर्शनोपयोग का अपने स्वरूप को देखना चिद्रूपं रूप दिस्टते, चरनं पंच दीप्तयं ॥ ३५५॥
और उसमय होना ही सम्यक्चारित्र है और यह व्यवहार चारित्र की शुद्धि होने
पर ही होता है। द्रव्य संयम बगैर भाव संयम नहीं होता। श्रद्धान शान अलग अन्वयार्थ- (चरनानुयोग चारित्र) चरणानुयोग में चारित्र का वर्णन है (चिद्रूपं
बात है, चारित्र में निश्चय-व्यवहार का समन्वय आवश्यक है तभी सम्यचारित्र रूप द्रिस्यते) चिद्रूप अर्थात् सिद्ध के समान अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखना (ऊर्ध होता है। आधं च मध्यंच) ऊपर नीचे और मध्य में सब तरफ सब प्रकार से (संपूरनंन्यान मयं आगे द्रव्यानुयोग का स्वरूप बताते हैंधुवं) अपना ज्ञानमयी धुव स्वभाव परिपूर्ण है।