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श्री आवकाचार जी
लोक में कहीं भी रहे, कैसा भी रहे हमेशा प्रसन्न आनंदमय रहता है (कुन्यानं राग तिक्तं च) उसका कुज्ञान रूपी राग छूट जाता है (मिथ्या माया विलीयते) और मिथ्या माया भी विला जाती है।
विशेषार्थ - यहाँ सम्यक्दर्शन की महिमा बताई जा रही है कि जिसके हृदय में सम्यक्त्व का उदय हो जाता है वह फिर तीन लोक में कहीं भी किसी भी पर्याय में कैसा ही रहे हमेशा सुखी प्रसन्न आनंद में रहता है, उसका कुज्ञान रूपी राग अर्थात् पर के कर्ता भोक्तापने का भाव छूट जाता है तथा मिथ्या माया अर्थात् धोखा, झूठ छल जिसमें संसारी जीव फँसा रहता है, सम्यक्त्वी उससे छूट जाता है, माया के तीन रूप- कंचन, कामिनी और कीर्ति जो प्रत्यक्ष धोखा है यह मान्यता भी विला जाती है।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह बात तो समझ में नहीं आई कि जब प्रत्यक्ष अव्रत सम्यक्दृष्टि इन बातों में फँसा है, लगा है यही सब कर रहा है फिर आप कहते हो कि यह सब छूट जाते हैं, विला जाते हैं तथा तीन लोक में कहीं भी किसी पर्याय में कैसा ही रहे, हमेशा सुखी, प्रसन्न आनंद मय रहता है। अगर अव्रत दशा में यह सब हो जाता है तो फिर व्रती साधु बनने, वीतरागी होने साधना करने की क्या जरूरत है ? फिर यह तीर्थंकर चक्रवर्ती सब छोड़कर एकान्त निर्जन स्थान में क्यों गये ? और इतनी तप साधना क्यों की ?
उसका समाधान करते हैं कि भाई ! बात को तो समझो, यहाँ क्या कहा जा रहा है कि जिसके हृदय में सम्यक्त्व का उदय हो गया अर्थात् जिसे निज शुद्धात्मानुभूति हो गई, उसे स्व-पर का भेदज्ञान हुआ या नहीं ? हुआ, तो यहाँ श्रद्धान की अपेक्षा पर के कर्ता भोक्तापन का अभाव हो जाता है और सबके बीच रहता है, सब कुछ करता भोगता हुआ भी उसके माया का बंधन विला जाता है। जैसे- अपनी बच्ची अपने घर में बड़ी हुई लेकिन जब हमने उसकी लगन सगाई दूसरी जगह कर दी तो उसकी मान्यता में क्या हो जाता है, अपने घर में ही रह रही है, सब कपड़े जेवर
SYA YA YANAT YA.
पहने है, खा पी रही है परन्तु मानती क्या है ? कि अब यह मेरा कुछ नहीं है। सब करती - धरती है, मुँह से कभी कुछ नहीं कहती परन्तु श्रद्धान मान्यता में क्या हो गया? यह मेरा कुछ नहीं है। इसी प्रकार अव्रत सम्यक् दृष्टि की अन्तरंग दशा हो जाती है। यहाँ बाहर के आचरण की बात नहीं है, यह तो सम्यकदृष्टि की अंतरंग दशा की बात है क्योंकि अंतरात्मा सम्यकदृष्टि की चिन्तन की धारा बदलती है, मिथ्या मान्यता ही टूटती है, क्रिया अभी नहीं छूटती । यह तो बड़े अपूर्व रहस्य हैं। यह तो
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गाथा-२१७
वही जाने जो वैसा होकर देखे। यहाँ मात्र मान्यता श्रद्धान की अपेक्षा दृष्टि का परिवर्तन होता है, सृष्टि का परिवर्तन तो फिर अपने आप होने ही लगता है और वैसे ही हो रहा है। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि अपनी मान्यता से ही बंधा है तथा दूसरा जो प्रश्न किया कि सम्यकदृष्टि तीन लोक में किसी पर्याय में कहीं भी कैसा ही रहे हमेशा सुखी प्रसन्न आनंदमय रहता है तो इसका प्रत्यक्ष उदाहरण वर्तमान में राजा श्रेणिक का जीव, जो आगामी तीर्थंकर होने वाला है पर अभी नरक में है और सारे नारकीय कृत्य करता भोगता हुआ भी आनंदमय है या दुःखी है ? आनंद में है, तो बताओ जब नरक में आनंद में रह सकता है तो और पर्यायों में, परिस्थितियों में आनंदमय रह सकता है या नहीं। भाई ! यह अव्रत दशा तो कर्मोदय जन्य है। अरे! अनादि मिथ्यादृष्टि को जब एक समय का उपशम सम्यक्त्व होता है तो उसे अपने शुद्धात्म स्वरूप की जो अनुभूति होती है एक समय की निर्विकल्प दशा में जो स्वसंवेदन अतीन्द्रिय आनंद अमृत का स्वाद आता है उसमें और सिद्ध परमात्मा की अनुभूति में कोई अंतर नहीं है, सिर्फ मात्रा, समय का अन्तर है, स्वानुभूति में कोई अंतर नहीं है तो यहाँ तो उसकी बात चल रही है, जिसे ऐसा अतीन्द्रिय आनंद आ गया है फिर वहबाहर नारकी कृत दुःख भोगत, भीतर समरस गटा गटी । रमत अनेक सुरनि पै नित, छूटन की है छटापटी ॥ जा सम्यक् दृग धारी की, मोहि रीत लगत है अटापटी।
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बात तो ऐसी है और यह सद्गुरू तारण स्वामी तो अनुभव प्रमाण बता रहे हैं। यहाँ लिखी पढ़ी सुनी बात नहीं है, यहाँ तो आँखों देखी अनुभव प्रमाण बात है। इसी बात को तत्वज्ञान तरंगिणी में ज्ञान भूषण भट्टारक जी कहते हैं
मिलितानेक वस्तुनां स्वरूपं हि पृथक पृथक । स्पर्शादिभिर्विदग्धेन निःशंक ज्ञायते यथा ॥ तथैव मिलितानां हि शुद्ध चिहेकह कर्मणां । अनुभूत्या कथंसिद्धिः स्वरूपं न पृथक पृथक | आत्मानं देह कर्माणि भेदज्ञाने समागते । मुक्त्वा यांति यथा सर्पा गरूड़े चंदनद्रुमं ॥ भेदज्ञान बलात् शुद्ध चिद्रूपं प्राप्य केवली । भवेद् देवाधि देवोपि तीर्थकर्ता जिनेश्वरः ॥
जिस प्रकार विद्वान मनुष्य आपस में मिले हुए भी अनेक पदार्थों का स्वरूप
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