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PO4 श्री श्रावकाचार जी
गाथा-२१६,२१७ P OO संमिक्तं जस्य न पस्यंते, असा व्रत संजमं।
सम्यक्दर्शन सहित मुक्ति का पुरुषार्थ करे। दूसरी बात- पाप, विषय-कषायों से 6 ते नरा मिथ्या भावेन, जीवितोपि मृतं भवेत् ॥ २१ ॥
विरत होकर संयम, तप करते हुए मनुष्य जीवन को नीचे गिरने से बचायें।
पहला- मोक्ष प्राप्त करें, दूसरा- परभव न बिगाड़ें; क्योंकि मनुष्य तो विवेकवान अन्वयार्थ- (संमिक्तं जस्य नपस्यंते) जिसे अपने आत्म स्वरूप की अनुभूति ॐ
8 नहीं तो पशु के समान । कथन की अपेक्षा समझें और वर्तमान में अपनी पात्रता ७ नहीं हुई (असाधं व्रत संजमं) और जो व्रत संयम का अश्रद्धानी है (ते नरा मिथ्या 3
परिस्थिति अनुसार विवेक से काम लें। मुक्ति की अपेक्षा बगैर सम्यक्त्व के व्रत, भावेन) वह मनुष्य मिथ्या भावना में रत (जीवितोपि मृतं भवेत्) जीता हुआ भी
ॐ नियम-संयम से मुक्ति होने वाली नहीं है परन्तु दुर्गतियों और दु:खों से तथा पाप, मृतक के समान है।
विषय-कषाय और अशुभ कर्म से बचने के लिये व्रत, नियम, संयम भी आवश्यक है विशेषार्थ- यहाँ पर यह बताया जा रहा है कि जिसे सम्यक्त्व दिखाई नहीं।
हैं तथा मनुष्य जीवन की शोभा तो संयम और सदाचार से ही है। अपेक्षा को समझकर दिया अर्थात् अपने आत्म स्वरूप की अनुभूति नहीं हुई और जो व्रत संयम का
विवेक से काम लें क्योंकि बुद्धिमान मनुष्यों को यह स्मरण रखना चाहिये कि आत्मा अश्रद्धानी है, कहता है इनमें क्या रखा है और निरन्तर मिथ्या भावों पाप-परिग्रह, को इस विशिष्ट योनि की प्राप्ति करोड़ों वर्षों तक देहान्तर करने,चौरासी लाख योनियों विषय-कषाय में रत रहता है वह जीता हुआ भी मृतक के समान है; क्योंकि यह के चक्कर लगाने के बाद हई है। यह प्राकृत जगत मानों एक बड़ा भारी समुद्र है और मनुष्य भव जो अपना आत्माहत करन, मुक्त हान कालय मिला ह आर इसम धम इस भवसागर में यह मानवयोनि एक नौका के समान है, जिसकी रचना इस भव का पुरुषार्थ भी नहीं किया और न व्रत संयम का पालन किया तो जहाँ से निकलकर सागर को पार करने के लिये हई है। धर्म शास्त्र और सद्गुरू मानो कुशल नाविक बड़ी मुश्किल से यहाँ आये, फिर वही नरक निगोदादि दुर्गतियों में जाना पड़ेगा।
हैं और मानव देह में प्राप्त सुविधायें ही अनुकूल वायु है, जो सही दिशा में ले जा रही इसी बात को कुन्दकुन्द देव ने रयणसार में कहा है
S है। यदि इन सुविधाओं के रहते हुए भी कोई मनुष्य अपनी मानव योनि का सदुपयोग उग्गो तिब्बो दुट्ठो, दुम्भावो दुस्सुदो दुराभासो।
अ स्वरूप साक्षात्कार के लिये नहीं करता तो उस असुर को आत्महन्ता अर्थात् अपनी दुम्मद रदो विरुखो, सो जीवो सम्मउम्मुक्को ॥४२॥ 8 आत्मा को मारने वाला समझना चाहिये । वह आत्महन्ता, अविद्या के अन्धतम सम्यक्त्व से रहित जीव उग्र प्रकृति वाला, तीव्र स्वभाव वाला, दुष्ट परिणामी, राज्य में प्रवेश कर सदा दुःख भोगेगा। दुर्भावनाओं से युक्त, मिथ्या शास्त्रों का श्रवण करने वाला, दुष्ट भाषी, मिथ्यामद में 2
ज्यों मतिहीन विवेक बिना नर, साजि मतंगज ईंधन ढोवे। अनुरक्त, विरुद्ध आचरण करने वाला, जीता हुआ भी मृतक के समान है; क्योंकि
कंचन भाजन धूल भरे शठ, मूठ सुधारस सौं पग धोवे ॥ उसके जीने का कोई लाभ ही नहीं है विशेषता और घोर दुर्गति का कारण है।
वा हित काग उड़ावन कारण,डार महामणि मूरख रोवे। यहाँ प्रश्न आता है कि आपने कहा कि जो सम्यक्त्व से रहित और व्रत संयम
त्यों यह दुर्लभ देह बनारसि, पाय अजान अकारण खोवे ।। का अश्रद्धानी है वह जीते हुए मृतक के समान है, उधर आप यह भी कहते हैं कि
अपनी बात है स्वयं समझें, विवेक से काम लें तो अपना भला होवे। आगे जो सम्यक्त्व के बिना व्रत संयम सब व्यर्थ है फिर इसका अभिप्राय क्या है? इसका जीव सम्यक्त्व सहित होता है वह कैसा होता है यह अगली गाथा में कहते हैंसमाधान करते हैं कि यह मनुष्य भव मिला कैसे मिला और क्यों मिला
उदयं संमिक्त हृदयं जस्य, त्रिलोकं मुदमं सदा। बहु पुण्य पुंज प्रसंग से शुभ देह मानव का मिला।
कुन्यानं राग तिक्तं च,मिथ्या माया विलीयते ॥२१७॥ लेकिन अरे भव चक्र का फेरा न तेरा इक टला॥ यह मनुष्य भव महान पुण्य के योग से प्राप्त हुआ है, इसकी सार्थकता मुक्ति को अन्वयार्थ-(उदयं संमिक्त हृदयंजस्य) जिसके हृदय में सम्यक्त्व का उदय प्राप्त करने में है इसलिये इसमें दो बातें समझने की हैं, पहली बात तो यह कि हो गया है अर्थात् जिसे निज शुद्धात्मानुभूति हो गई है (त्रिलोकं मुदमं सदा) वह तीन
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