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04 श्री श्रावकाचार जी
गाथा-२१५ P OO अथवा किसी गहरी गुफा में बंद मनुष्य को सूर्य का प्रकाश दिखाई नहीं देता। जाता है।
विशेषार्थ- यहाँ समन्वयात्मक विवेचन चल रहा है कि जिसको सम्यक्दर्शन विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्त्व की महिमा बताई जा रही है कि जिसे शुद्ध हो जाता है उसकी क्या स्थिति होती है और जिसे सम्यक्दर्शन नहीं होता उसकी ५ सम्यक्दर्शन होता है और जो श्रुतज्ञानी सम्यक्ज्ञानी होता है, वहाँ ज्ञान की ऐसी क्या स्थिति होती है। इस संदर्भ में बताया जा रहा है कि जिसे अपने आत्म स्वरूप विशेषता होती है कि श्रुतज्ञान या सम्यज्ञान में केवलज्ञान की नोंध (चमक) होती का श्रद्धान नहीं होता, उसके ऊपर तीन मूढता और तीन कुज्ञान का गहरा परदा है, वह भी लोकालोक को अप्रत्यक्ष जानने लगता है और यही ज्ञान की विशेषता, पड़ा रहता है, जिससे वह अंधे के समान हो रहा है। जैसे- कोसी अर्थात् उल्लू या 5 विलक्षणता एक दिन केवलज्ञान प्रगट करा देती है। रेशमी कीड़ा जो अपने खोल में बंद रहता है उसे सूर्य का उदय दिखाई नहीं देता। यहाँ प्रश्न आता है कि अभी अव्रत सम्यक्दृष्टि जघन्य पात्र है, संसार शरीर इसी प्रकार इन तीन मूढता और कुज्ञान में फँसे अज्ञानी प्राणी को अपने आत्म! भोगों में लिप्त गृहस्थ दशा में है और बात ऐसी बताई जा रही है कि उसे यहीं लोकालोक स्वरूप का प्रकाश दिखाई नहीं देता। जैसे-बंद कोठरी में बैठा हुआ मनुष्य सूर्य के दिखाई देने लगा, तो वह संसारी कहावत हो गई कि दिन में ही तारे नजर आने लगे। उदय को नहीं देख सकता; यद्यपि सूर्य प्रगट है तथापि उसको अंधेरा ही दिखता है, कम से कम इतना तो ध्यान में रखो कि जो संभव हो सके वह करो, अपने पक्ष को इसी तरह जो देव मूढता, पाखंड मूढता, लोक मूढता में रत है तथा जिसके ऊपर इतना बढ़ाने से एकान्तपक्षी निश्चयाभासी न हो जायेगा? कुमति, कुश्रुत और कुबुद्धि रूपी कुज्ञान का परदा पड़ा है उसे सम्यकदर्शन रूपी इसका समाधान करते हैं कि भाई ! जिसको सम्यकदर्शन सहित आगम का सूर्य जो अपनी ही आभा में प्रकाशमान है, दिखाई नहीं देता। सम्यक्त्व से रहित यथार्थ ज्ञान है वही पर के यथार्थ स्वरूप को जानता अनुभवता है। द्वादशांग वाणी जीव अन्धा व पागल होता है उसकी क्या स्थिति होती है इसे रयणसार में आचार्य का सार स्वानुभव है, यही स्वानुभव धर्म ध्यान है व यही स्वानुभव शुक्ल ध्यान है, कुन्दकुन्द देव कहते हैं
S इससे ही घातिया कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान होता है। केवलज्ञान का कारण णवि जाणदि कज्जमकज्ज सेयमसेयं पुण्ण पावं हि।
अ यथार्थ स्वसंवेदन ज्ञान ही है। इसी ज्ञान से सर्व आवरण दूर होते हैं और केवलज्ञान तच्चमतच्च धम्ममधम्म सो सम्मउम्मुक्को ॥३९-४०॥ का प्रकाश होता है। इस कथन से यह बात बतलाई गई है कि जिसको अपना
जो कर्तव्य-अकर्तव्य, श्रेय-अश्रेय (हित-अहित) पुण्य-पाप,तत्व-अतत्व परमात्म पद प्राप्त करना हो उसको उचित है कि वह निज शुद्धात्मानुभूति निश्चय और धर्म-अधर्म को निश्चय से नहीं जानता है, वह सम्यक्त्व से रहित अंधा है। जो सम्यक्दर्शन प्रगट करे और आगम का भले प्रकार अभ्यास मनन करे क्योंकि जिनवाणी योग्य-अयोग्य, नित्य-अनित्य, हेय-उपादेय, सत्य-असत्य और भव्य-अभव्य कोके अभ्यास मनन से ही घातिया कर्मों की स्थिति घटती है। सम्यकदर्शन होने के पीछे नहीं जानता वह सम्यक्त्व से रहित मूढ मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है।
5 सम्यक्चारित्र का पुरुषार्थ करे, सम्यक्ज्ञान का सही अभिप्राय यही है कि वह जो सम्यक्दर्शन सहित है वह जीव कैसा होता है यह अगली गाथा में कहते हैं- सम्यक्चारित्र प्रगट करे और इसकी शुरुआत सम्यक्दर्शन से ही होती है बगैर संमिक्तं जस्य सूवंते, श्रुत न्यान विचष्यनं।
सम्यक्दर्शन के यह कुछ होता ही नहीं है। इतना अवश्य है कि ज्ञान और चारित्र का न्यानेन न्यान उत्पादंते,लोकालोकस्य पस्यते ॥ २१५॥
5 क्रमश: विकास होता है। यहाँ महत्वपूर्ण बात तो यह है कि ऐसे शुद्ध धर्म सम्यक्दर्शन
5 का हमें बहुमान तोजागे, ऐसा लगे तो कि बस यही इष्ट प्रयोजनीय है तो फिर यह सब अन्वयार्थ- (संमिक्तंजस्य सूवंते) जहाँ सम्यक्त्व परिणमन कर रहा है (श्रुत
होने में ज्यादा देर नहीं लगती, दो चार भव में ही केवलज्ञानी मुक्त सिद्ध परमात्मा हो । न्यान विचष्यनं) विलक्षण श्रुत ज्ञान चल रहा है (न्यानेन न्यान उत्पादंते) वहाँ ज्ञान
सकते हैं। से ज्ञान बढ़ता है और वहाँ (लोकालोकस्य पस्यते) लोकालोक को देखने जानने
जो जीव सम्यक्दर्शन से रहित है, उसकी क्या स्थिति होती है इसे अगली वाला केवलज्ञान प्रगट हो जाता है अर्थात् स्वयं केवलज्ञानी अरिहन्त परमात्मा हो
गाथा में कहते हैं