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Ou4 श्री श्रावकाचार जी
गाथा-२१३,२१४ POOO और वह अनेक प्रकार के कर्मों को बांधता है, जिनसे कि संसार में भ्रमण करता है। उसका उत्तर है कि दोनों कार्य एक काल में एक समय में होते हैं, इसमें आगे पीछे का G जिउ मिच्छतेपरिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणे।।
प्रश्न ही नहीं है। इसी प्रकार सम्यक्त्व के होते ही शंकादि दोष विला जाते हैं। यहां । कम्म विणिम्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेइ ॥१-७९॥ . छोड़ने-छूटने की बात भी नहीं है। सम्यक्त्वी को यह दोष दिखाई ही नहीं देते। जैसे यह जीव अतत्व श्रद्धान रूप परिणत हुआ, आत्मा को आदि लेकर तत्वों के प्रकाश में अंधकार दिखाई नहीं देता इसी प्रकार सम्यक्त्व के होते ही यह सब दोष ७ स्वरूप का अन्य का अन्य श्रद्धान करता है, यथार्थ नहीं जानता। वस्तु का स्वरूप विला जाते हैं तथा जिसमें यह दोष दिखाई देते हैं वह सम्यक्त्वी है ही नहीं। आठ तो जैसा है. वैसा ही है तो भी वह मिथ्यात्वी जीव, वस्तु के स्वरूप को विपरीत शंकादिदोष, आठ मद, छह अनायतन, तीन मूढता में से अगर एक भी दोष दिखाई जानता है। अपना जो शुद्ध ज्ञानादि सहित स्वरूप है उसको मिथ्यात्व रागादिरूप देता है तो वह सच्चा सम्यक्त्वी नहीं है। जानता है। उससे कर्मों कर रचे गये जो शरीरादि पर भाव हैं, उनको अपने कहता है ।
जिसके हृदय में हो चुका, सम्यक्त्व रवि का जागरण। अर्थात् भेदज्ञान के अभाव से कर्म जनित देह के स्वरूप को अपना जानता है, इसी से
जो प्रति निमिष करता है,आतम धर्म का ही आचरण ॥ संसार में भ्रमण करता है।
उसके हृदय में दोष को,रहता न कोई ठौर है। जो सम्यक्दृष्टि होता है वह शुद्ध धर्म में रत रहता है और मोक्ष जाता है इसी
आदित्य के पश्चात् रहती, सर्वरी क्या और है। (चंचल जी) बात को आगे गाथा में कहते हैं
इसी बात को रयणसार में कहते हैंसंमिक्तं जेन उत्पादंते,सद्धधर्म रतो सदा।
देव गुरु धम्म गुण चारित तवायार मोक्खगदि भेय। दोष तस्य न पस्यंते, रजनी उदय भास्करं ॥२१३॥
जिण वयण सुविहि विणा, दीसदि कि जाणदे सम्म ॥४८॥ अन्वयार्थ- (संमिक्तं जेन उत्पादंते) जिनको सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है ।
देव,गुरू, धर्म, गुण, चारित्र, तपाचार, मोक्षगति का रहस्य जिन देव के वचन
सम्यकदृष्टि के बिना क्या देखे या जाने जा सकते हैं ? सम्यक्दृष्टि ही इन सबको (सुद्ध धर्म रतो सदा) वे हमेशा शुद्ध धर्म अर्थात् निज शुद्धात्म स्वरूप में ही रत रहते
४ देखताजानता है। हैं (दोषं तस्य न पस्यते) उनके कोई शंकादि दोष दिखाई नहीं देते, सब विला जाते हैं
अ यह गाथायें सद्गुरू तारण स्वामी ने विशिष्ट क्रम से सम्यक्त्व और मिथ्यात्व (रजनी उदय भास्कर) जैसे सूर्य के प्रकाश होते ही रात्रि विला जाती है।
२ का स्वरूप बताते हुए कही हैं कि जो सम्यकदृष्टि है वह ही यथार्थ में मोक्षमार्गी है विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्त्व की महिमा बताई जा रही है कि जैसे सूर्य उदय
य और वही पात्र है। जो मिथ्यादृष्टि है वह अनन्त संसार में रुलता है। इन गाथाओं के होते ही रात्रि चली जाती है तथा सब अंधकार विला जाता है, उसी तरह जिसे सम्यक्त्व. माध्यम से हम अपने आपको देखें कि हम क्या हैं? तभी अपना भला होगा। निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती है फिर वह हमेशा अपने शुद्ध धर्म में ही रत रहता है..
आगे पुन: सम्यक्त्व से हीन जीव की दशा का वर्णन किया जा रहा हैहमेशा शुद्धात्म तत्व का ही चिन्तन, मनन, स्मरण, ध्यान करता है. आत्मा की ही
संमिक्तं जस्य न पस्यंते, अंध एव मूढं त्रयं । चर्चा-वार्ता में लगा रहता है फिर उसमें शंकादि पच्चीस दोष दिखाई नहीं देते, वह
कुन्यानं पटलं जस्य, कोसी उदय भास्करं ।। २१४ ॥ र सब विला जाते हैं।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि सम्यक्त्व होने पर यह शंकादि दोष छोड़ना पड़ते हैं या अन्वयार्थ-(संमितंजस्य नपस्यंते) जहाँ सम्यक्त्व दिखाई नहीं देता अर्थात् छूट जाते हैं? और यदि किसी में यह दोष दिखाई पड़ें तो वह सम्यक्त्वी है या नहीं? जहाँ आत्म स्वरूप का श्रद्धान नहीं है (अंध एवमूढं त्रयं) वह तीन मूढताओं से अंधा
उसका समाधान करते हैं कि जैसे सूर्य के उदय होते ही रात्रि विला जाती है। है (कुन्यानं पटलंजस्य) उसके ऊपर कुज्ञान का पटल अर्थात् परदा पड़ा है, उसकी । अब यहाँ पुनः प्रश्न होता है कि पहले रात्रि विलाती है या सूर्य का उदय होता है? तो दशा वैसी ही हो रही है जैसे (कोसी उदय भास्कर) उल्लू या कुसयारे कीड़े को