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श्री आचकाचार जी तथा यह ममल स्वभावी भी है; परन्तु जब तक इसको पर से- १. एकत्व, निभाना इससे मोह, राग-द्वेष के परिणाम होते हैं। संकल्प-विकल्प चलते हैं, खेद २. अपनत्व,३. कर्तृत्व,४. चाह,५. लगाव रहेगा तब तक यह ममल स्वभाव में भी खिन्नता रहती है, इस कारण ज्ञानानंद मय नहीं रह सकता। नहीं रह सकता, ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध है।।
स्वार्थ-पर से अपना मतलब रखना, किसी से कुछ चाहना, धन पुत्रादि से यहाँ पुन: प्रश्न आया कि यह बात समझ में नहीं आई इसे विस्तार पूर्वक स्पष्ट किसी प्रकार की भी कामना वासना रखना। इससे भी मोह, राग-द्वेष के परिणाम बताईये?
होते हैं। संकल्प-विकल्प चलते हैं,खेद खिन्नता रहती है। उसका समाधान करते हैं कि यहाँ तीन बातें समझने की हैं। अगर यह समझ लगाव-अपनत्वपना होना, अच्छा मानना,साथ रहना, मित्रता रखना, इससे में आ जायें तो फिर सारी समस्या ही समाप्त हो जाये।
&भी मोह, राग-द्वेष के परिणाम होते हैं, संकल्प-विकल्प चलते हैं। १.पहली बात-निमित्त-नैमित्तिक संबंध समझने का है। जीव और पुद्गल, अपेक्षा- किसी से किसी भी प्रकार की चाह होना, ऐसा नहीं ऐसा होता, यह यह दो द्रव्यों का एक क्षेत्रावगाह संयोग संबंध, निमित्त-नैमित्तिक संबंध अनादि से नहीं यह होता, इससे भी राग-द्वेष के परिणाम होते हैं, विकल्प आते हैं। जो है। जीव के विभाव परिणामों के निमित्त से पुद्गल परमाणु, कर्म स्कन्धादि रूप ज्ञानानंदमय रहने में बाधक कारण हैं। परिणमित होते हैं और कर्मादि पुद्गल के निमित्त से जीव का विभाव परिणमन
यहाँ प्रश्न है कि जब जीव ज्ञानी हो गया फिर यह सब क्यों होता है? होता है। इसे निमित्त-नैमित्तिक संबंध कहते हैं।जीव और पदगल दोनों में क्रियावती इसका समाधान है कि जीव जब तक चौथे पाँचवें गुणस्थान में रहता है, शक्ति, वैभाविक परिणमन शक्ति से है, अपनी-अपनी शक्ति से स्वयं अपने में ही तब तक उसकी पात्रतानुसार यह होते ही हैं। चौथे गुणस्थान में मोह की प्रबलता परिणमन करते हैं। जीव, पुद्गल रूप नहीं होता और पुद्गल,जीव रूप नहीं होता। रहती है और पाँचवें गुणस्थान में राग की प्रबलता रहती है, तब तक यह सब पुद्गल, पुद्गल अचेतन ही रहता है। जीव, चेतन चेतन स्वरूप ही रहता है; परन्तु होते हैं। जब जीव छठे गुणस्थान में चला जाता है, वीतरागी हो जाता है फिर वह दोनों का विभाव परिणमन एक दूसरे के निमित्त से ही होता है।
S अपने ज्ञानानंद स्वभाव में रहता है। इसके पूर्व ज्ञानानंद स्वभाव में नहीं रह सकता निमित्त कुछ करता नहीं है; परन्तु निमित्त के बगैर भी कुछ होता नहीं ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। है। निमित्त को कर्ता मानना मिथ्यात्व है,निमित्त के बिना कार्य होना मानना ३. तीसरी बात-जीव चेतन लक्षण ममल स्वभावी भगवान आत्मा तो है भी अज्ञान मिथ्यात्व है। निमित्त कुछ करता नहीं है; परन्तु निमित्त के बगैर परन्तु जब तक इसको पर में एकत्व, अपनत्व, कर्तृत्व, चाह, लगाव रहेगा तब तक कोई कार्य होता नहीं है,ऐसा श्रद्धान सम्यक्त्व है।
यह ममल स्वभाव में नहीं रह सकता। जिसे अभी अपना होश ही नहीं है, जो अपने जब तक जीव और पुद्गल शरीर कर्मादि का संयोग संबंध है। जीव संसार में 6 को जानता ही नहीं है। वह अपने में कैसे रहेगा? इसका पहला कारण एकत्व है। अशुद्ध पर्याय सहित है तब तक निमित्त-नैमित्तिक संबंध ही चलता है। अरिहन्त एकत्व- यह शरीरादि ही मैं हूँ ऐसी मान्यता । नाम, रूप,शरीर, पद, पुत्र, अवस्था में शुद्ध पर्याय और वीतरागीहोजाने से फिर निमित्त-नैमित्तिक संबंध समाप्त परिवार, धनादि ही मैं हूँ यह एकत्वपना ही अज्ञान मिथ्यात्व है। इसी के कारण यह हो जाता है। पूर्ण शुद्ध अशरीरी सिद्ध दशा में संयोग संबंध भी समाप्त हो जाता है। त्रिलोकी नाथ भगवान आत्मा भीख मांगता, दर-दर भटकता फिर रहा है। चार
२. दूसरी बात- अब जो जीव इस बात को जानता है, जिसे भेदज्ञान पूर्वक गति चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण कर रहा है और नाना प्रकार के दारुण , जीव और पुद्गल की भिन्नता भासित हो गई है तथा जिसे अपने शुद्धात्म तत्व दुःख भोग रहा है। यह एकत्वपना मिटे, अपने ममल स्वभाव का श्रद्धान ज्ञान होवे, ज्ञानानंद स्वभाव की अनुभूति हो गई है; परन्तु जब तक शरीरादि पर द्रव्य और परशुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति होवे तो फिर अपने में रहने की बात बने। यहाँ मिथ्यात्व X जीवों से संबंध, स्वार्थ, लगाव, अपेक्षा है तब तक वह ज्ञानानंदमय नहीं रह सकता। की भूमिका है।
संबंध-पर को अपना मानना, परिवार की रिश्तेदारी, जिम्मेदारी व्यवहारिकता अपनत्व- एकत्वपना मिटने के बाद यह अपनत्व अपना मानना मिटे, यह
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