________________
6565
श्री आवकाचार जी
शरीरादि, धन, पुत्र, परिवार मेरे हैं। यहाँ मोह का साम्राज्य है, जिसके कारण अच्छे-अच्छे शूरवीर चक्कर खाते हैं। यह बेहोश कर देता है फिर अपनी कोई सुध-बुध नहीं रहती । शंका-कुशंका के परिणाम चलते हैं। भयभीत पना घबराहट रहती है, मोह के कारण ही पापादि कुकर्म करना पड़ते है। इसके मिटने पर समता आती है, साता रहती है।
कर्तृत्व - घर परिवार के संयोग में रहते हुए तो यह सब करना ही पड़ता है। व्यवहारिकता निभाना भी जरूरी है। अपने कर्तव्य का पालन करना भी आवश्यक है। यह पाप है, यह पुण्य है, यह अच्छा है, यह बुरा है। यह भाव और क्रिया अच्छी है, यह भाव और क्रिया बुरी है, ऐसे नहीं ऐसे भाव, ऐसे कर्म करना चाहिये । जहाँ तक राग-द्वेष, पाप-पुण्य का भेद विकल्प है वहां तक कर्तृत्वपना है और यही बंध का कारण है, जिसका कर्तृत्वपना मिटता है, वही निर्भय रहता है।
चाह - यह नहीं, यह होता । यह अच्छा है, यह बुरा है। यह हितकारी है, यह अहितकारी है। कुछ भी चाहना, चिन्ता और विकल्प का कारण है। चाह मिटने पर ही चिन्ता मिटती है तभी शांति रहती है।
लगाव - कुछ भी अच्छा बुरा मानना लगाव है, जब तक किसी भी संयोग में रहोगे तब तक लगाव रहेगा। जब तक लगाव रहेगा तब तक विकल्प होंगे ही। जब तक विकल्प विभाव परिणमन चलेगा तब तक ममल स्वभाव में रह ही नहीं सकते। निर्विकल्प होना ही ममल स्वभाव में रहना है। वीतरागी ही निर्विकल्प हो सकता है। जहाँ मोह, राग-द्वेष है वहाँ वीतरागता है ही नहीं। मोह, राग-द्वेष के अभाव को ही वीतरागता कहते हैं, यही ममल स्वभाव धर्म है।
यहां प्रश्न आता है कि एकत्व अपनत्व आदि मान्यतायें कैसे मिटें ?
उसका समाधान करते हैं कि साधना के क्रम में
१. भेदज्ञान के अभ्यास से एकत्वपना मिटता है।
२. तत्व निर्णय के अभ्यास से अपनत्वपना मिटता है।
३. पाप-पुण्य के विकल्प प्रक्षालन से कर्तृत्वपना मिटता है ।
४. तत्समय की योग्यता के निर्णय से चाह मिटती है।
५. सर्वज्ञ की सर्वज्ञता, क्रमबद्ध पर्याय के निर्णय से लगाव मिटता है। तभी वीतरागता आती है, निर्विकल्प दशा होती है। वही ममल स्वभाव में रहना धर्म है।
SY GAAN YAARA YE
११३
गाथा - १७४
-
धर्म और उत्तम धर्म क्या है ? इसे आगे गाथा में कहते हैंधर्म उत्तम धर्म च मिथ्या रागादि पंडितं ।
चेतनाचेतनं द्रव्यं सुद्ध तत्व प्रकासकं ।। १७४ ।।
"
अन्वयार्थ - (धर्मं उत्तम धर्मं च) धर्म और उत्तम धर्म वह है जो (मिथ्या रागादि पंडितं) मिथ्या रागादि भावों को खंडित करने वाला है अर्थात् समूल नष्ट कर देने वाला है (चेतनाचेतनं द्रव्यं) चेतन-अचेतन द्रव्य जीव और पुद्गल को भिन्न-भिन्न देखने जानने वाला है (सुद्ध तत्व प्रकासकं ) शुद्ध तत्व का प्रकाश करने वाला अर्थात् वस्तु स्वरूप को जैसा का तैसा जानने वाला, प्रकाशित करने वाला है।
विशेषार्थ - यहाँ धर्म की विशेषता और महत्व को बताया जा रहा है। जो ऐसे शुद्ध धर्म को स्वीकार करता है, वही अन्तरात्मा, सम्यक्दृष्टि होता है। धर्म तो अपना निज शुद्ध स्वभाव है ही और उत्तम धर्म, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य यह दस भेद रूप निज स्वभाव में रहने की साधना है । इससे मिथ्या रागादि भाव समूल नष्ट हो जाते हैं । चेतन-अचेतन द्रव्यों का गठबन्धन टूट जाता है; क्योंकि जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं। इनमें एक जीव द्रव्य ही चेतन है, शेष पाँच अचेतन हैं। जीव पुद्गल के परिणमन में चार द्रव्य सहकारी हैं । पुद्गल जड़ अचेतन है। मात्र जीव द्रव्य ही चेतनावन्त, ज्ञान दर्शन का धारी, ब्रह्मस्वरूप है। ऐसे वस्तु स्वरूप को जानना और निज स्वभाव का आश्रय करना ही उत्तम धर्म है।
जो अन्तरात्मा ऐसे निज स्वभाव के आश्रय शुद्धात्मानुभव में लीन रहते हैं, वही शुद्ध तत्व, सिद्ध दशा, मुक्ति का परमानंद पाते हैं। यह उत्तम धर्म ही शुद्ध तत्व को प्रकाशित करने वाला है अर्थात् रत्नत्रयमयी अनन्त चतुष्टय पद प्रकट कराने वाला है।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि ऐसे उत्तम धर्म निज शुद्धात्म स्वरूप को प्रगटाने के लिये हम क्या करें ?
उसका समाधान है कि जिन्हें अपने शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति हो गई है, वह निरन्तर उसी की साधना, आराधना, समर्पण, ध्यान में लीन रहें। वर्तमान कर्म संयोगी दशा में विभाव परिणमन चलता है, मोह, राग-द्वेषादि विकारी भाव होते हैं,